हम Google Play स्टोर पर Unionpedia ऐप को पुनर्स्थापित करने के लिए काम कर रहे हैं
निवर्तमानआने वाली
🌟हमने बेहतर नेविगेशन के लिए अपने डिज़ाइन को सरल बनाया!
Instagram Facebook X LinkedIn

अनभिज्ञता

सूची अनभिज्ञता

किसी विषय के बारे में जानकारी न होना अनभिज्ञता (Ignorance) कहलाती है। जो किसी विषय के बारे में न जानता हो उसके लिये 'अनभिज्ञ' विशेषण प्रयुक्त होता है। यह शब्द एक 'अपशब्द' की तरह भी प्रयोग किया जाता है और जो लोग जानबूझकर या अनजाने किसी विषय से परिचित न होने वालों के लिये प्रयुक्त होता है। .

सामग्री की तालिका

  1. 3 संबंधों: दुस्सूचना, विद्या और अविद्या, अधिप्रचार

  2. ज्ञानमीमांसा की अवधारणाएँ
  3. प्रति-बुद्धिवाद
  4. समालोचात्मक सोच में बाधाएँ

दुस्सूचना

जानबूझकर पैलायी गयी गलत सूचना को दुस्सूचना (Disinformation or misinformation) कहते हैं। इसका उपयोग मुख्यतः शत्रु को धोखा देने के लिये किया जाता है। दुस्सूचना के कुछ रूप.

देखें अनभिज्ञता और दुस्सूचना

विद्या और अविद्या

अविद्या शब्द का प्रयोग माया के अर्थ में होता है। भ्रम एवं अज्ञान भी इसके पर्याय है। यह चेतनता की स्थिति तो हो सकती है, लेकिन इसमें जिस वस्तु का ज्ञान होता है, वह मिथ्या होती है। सांसारिक जीव अहंकार अविद्याग्रस्त होने के कारण जगत् को सत्य मान लेता है और अपने वास्तविक रूप, ब्रह्म या आत्मा का अनुभव नहीं कर पाता। एक सत्य को अनेक रूपों में देखना एवं मैं, तू, तेरा, मेरा, यह, वह, इत्यादि का भ्रम उसे अविद्या के कारण होता है। आचार्य शंकर के अनुसार प्रथम देखी हुई वस्तु की स्मृतिछाया को दूसरी वस्तु पर आरोपित करना भ्रम या अध्यास है। रस्सी में साँप का भ्रम इसी अविद्या के कारण होता है। इसी प्रकार माया या अविद्या आत्मा में अनात्म वस्तु का आरोप करती है। आचार्य शंकर के अनुसार इस तरह के अध्यास को अविद्या कहते हैं। संसार के सारा आचार व्यवहार एवं संबंध अविद्याग्रस्त संसार में ही संभव है। अत: संसार व्यवहार रूप से ही सत्य है, परमार्थत: वह मिथ्या है, माया है। माया की कल्पना ऋग्वेद में मिलती है। यह इंद्र की शक्ति मानी गई है, जिससे वह विभिन्न रूपों में प्रकट होती है। उपनिषदों में इन्हें ब्रह्म की शक्ति के रूप में चित्रित किया गया है। किंतु इसे ईश्वर की शक्ति के रूप में अद्वैत वेदांत में भी स्वीकार किया गया है। माया अचितद्य तत्व है, इसलिए ब्रह्म से उसका संबंध नहीं हो सकता। अविद्या भी माया की समानधर्मिणी है। यदि माया सर्वदेशीय भ्रम का कारण है तो अविद्या व्यक्तिगत भ्रम का करण है। दूसरे शब्दों में समष्टि रूप में अविद्या माया है और माय व्यष्टि रूप में अविद्या है। शुक्ति में रजत का आभास या रस्सी में साँप का भ्रम उत्पन्न होने पर हम अधिष्ठान के मूल रूप का नहीं देख पाते। अविद्या दो प्रकार से अधिष्ठान का "आवरण" करती है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह अधिष्ठान के वास्तविक रूप को ढँक देती है। द्वितीय, विक्षेप कर देती है, अर्थात् उसपर दूसरी वस्तु का आरोप कर देती है। अविद्या के कारण ही हम एक अद्वैत ब्रह्म के स्थान पर नामरूप से परिपूर्ण जगत् का दर्शन करते हैं। इसीलिए अविद्या को "भावरूप" कहा गया है, क्योंकि वह अपनी विक्षेप शक्ति के कारण ब्रह्म के स्थान पर नानात्य को आभासित करती है। अनिर्वचनीय ख्याति के अनुसार अविद्या न तो सत् है और न असत्। वह सद्सद्विलक्षण है। अविद्या को अनादि तत्व माना गा है। अविद्या ही बंधन का कारण है, क्योंकि इसी के प्रभाव से अहंकार की उत्पत्ति होती है। वास्तविकता एवं भ्रम को ठीक ठीक जानना, वेदान्त में ज्ञान कहा गया है। फलत: ब्रह्म और अविद्या का ज्ञान ही विद्या कहा जाता है। अद्वैत वेदान्त में ज्ञान ही मोक्ष का साधन माना गया है, अतएव विद्या इस साधन का एक अनिवार्य अंग है। विद्या का मूल अर्थ है, सत्य का ज्ञान, परमार्थ तत्व का ज्ञान या आत्मज्ञान। अद्वैत वेदांत में परमार्थ तत्व या सत्य मात्र ब्रह्म को स्वीकार किया गया है। ब्रह्म एव आत्मा में कोई अंतर नहीं है। यह आत्मा ही ब्रह्म है। अस्तु, विद्या को विशिष्ट रूप से आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या भी कह सकते हैं। विद्या के दो रूप कहे गए हैं - अपरा विद्या, जो निम्न केटि की विद्या मानी गई है, सगुण ज्ञान से संबंध रखती है। इससे मोक्ष नहीं प्राप्त किया जा सकता। मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र साधन पराविद्या है। इसी को आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या भी कहते हैं। अविद्याग्रसत जीवन से मुक्ति पाने के लिए एवं अपने रूप का साक्षात्कार करने के लिए परा विद्या के अंग हैं। यदि अपना विद्या प्रथम सोपान है, तो परा विद्या द्वितीय सोपान है। साधन चतुष्टय से प्रारंभ करके, मुमुक्षु श्रवण, मनन एवं निधिध्यासन, इन त्रिविध मानसिक क्रियाओं का क्रमिक नियमन करता है। वह "तत्वमसि" वाक्य का श्रवण करने के बाद, मनन की प्रक्रिया से गुजरते हुए, ध्यान या समाधि अवस्था में प्रवेश कर जाता है, जहाँ उसे "मैं ही ब्रह्म हूँ" का बोध हो उठता है। यही ज्ञान परा विद्या कहलाता है। भौतिक जगत के जिस ज्ञान को आजकल विज्ञान कहते हैं उसी को उपनिषद में अपराविद्या के नाम से कहा गया है। अभ्युदय और भौतिकता, अविद्या के पर्याय हैं। इसी प्रकार निःश्रेयस और आध्यात्मिकता विद्या के पर्याय हैं। ईशोपनिषद् में उपलब्ध एक मंत्र का अंतिम वाक्यांश निम्नलिखित है: इसका शाब्दिक अर्थ यह है- जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृतत्त्व (देवतात्मभाव .

देखें अनभिज्ञता और विद्या और अविद्या

अधिप्रचार

सैम चाचा के बाहों में बाहें डाले ब्रितानिया: प्रथम विश्वयुद्ध में अमेरिकी-ब्रितानी सन्धि का प्रतीकात्मक चित्रण अधिप्रचार (Propaganda) उन समस्त सूचनाओं को कहते हैं जो कोई व्यक्ति या संस्था किसी बड़े जन समुदाय की राय और व्यवहार को प्रभावित करने के लिये संचारित करती है। सबसे प्रभावी अधिप्रचार वह होता है जिसकी सामग्री प्रायः पूर्णतः सत्य होती है किन्तु उसमें थोडी मात्रा असत्य, अर्धसत्य या तार्किक दोष से पूर्ण कथन की भी हो। अधिप्रचार के बहुत से तरीके हैं। दुष्प्रचार का उद्देश्य सूचना देने के बजाय लोगों के व्यवहार और राय को प्रभावित करना (बदलना) होता है। .

देखें अनभिज्ञता और अधिप्रचार

यह भी देखें

ज्ञानमीमांसा की अवधारणाएँ

प्रति-बुद्धिवाद

समालोचात्मक सोच में बाधाएँ