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प्रमाण (भारतीय दर्शन)

सूची प्रमाण (भारतीय दर्शन)

भारतीय दर्शन में प्रमाण उसे कहते हैं जो सत्य ज्ञान करने में सहायता करे। अर्थात् वह बात जिससे किसी दूसरी बात का यथार्थ ज्ञान हो। प्रमाण न्याय का मुख्य विषय है। 'प्रमा' नाम है यथार्थ ज्ञान का। यथार्थ ज्ञान का जो करण हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान हो उसे प्रमाण कहते हैं। गौतम ने चार प्रमाण माने हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। .

16 संबंधों: न्यायमंजरी, न्यायशास्त्र (भारतीय), न्यायसूत्र, प्रत्यक्ष, प्रभाकर, भारतीय दर्शन, शब्दप्रमाण, सत्य, वैशेषिक दर्शन, कुमारिल भट्ट, अनुपलब्धि, अनुमान, अभाव, अर्थापत्ति, अक्षपाद गौतम, उपमान

न्यायमंजरी

न्याय मंजरी पदवाक्यप्रमाणपारावरीणजरन्नैयायिक जयन्तहभट्ट कृत एक वृत्ति ग्रन्थ है |.

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न्यायशास्त्र (भारतीय)

कृपया भ्रमित न हों, यह लेख न्यायशास्त्र (jurisprudence) के बारे में नहीं है। ---- वह शास्त्र जिसमें किसी वस्तु के यथार्थ ज्ञान के लिये विचारों की उचित योजना का निरुपण होता है, न्यायशास्त्र कहलाता है। यह विवेचनपद्धति है। न्याय, छह भारतीय दर्शनों में से एक दर्शन है। न्याय विचार की उस प्रणाली का नाम है जिसमें वस्तुतत्व का निर्णय करने के लिए सभी प्रमाणों का उपयोग किया जाता है। वात्स्यायन ने न्यायदर्शन प्रथम सूत्र के भाष्य में "प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय" कह कर यही भाव व्यक्त किया है। भारत के विद्याविद् आचार्यो ने विद्या के चार विभाग बताए हैं- आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दंडनीति। आन्वीक्षिकी का अर्थ है- प्रत्यक्षदृष्ट तथा शास्त्रश्रुत विषयों के तात्त्विक रूप को अवगत करानेवाली विद्या। इसी विद्या का नाम है- न्यायविद्या या न्यायशास्त्र; जैसा कि वात्स्यायन ने कहा है: आन्वीक्षिकी में स्वयं न्याय का तथा न्यायप्रणाली से अन्य विषयों का अध्ययन होने के कारण उसे न्यायविद्या या न्यायशास्त्र कहा जाता है। आन्वीक्षिकी विद्याओं में सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। वात्स्यायन ने अर्थशास्त्राचार्य चाणक्य के निम्नलिखित वचन को उद्धृत कर आन्वीक्षिकी को समस्त विद्याओं का प्रकाशक, संपूर्ण कर्मों का साधक और समग्र धर्मों का आधार बताया है- न्याय के प्रवर्तक गौतम ऋषि मिथिला के निवासी कहे जाते हैं। गौतम के न्यायसूत्र अबतक प्रसिद्ध हैं। इन सूत्रों पर वात्स्यायन मुनि का भाष्य है। इस भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा है। वार्तिक की व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने 'न्यायवार्तिक तात्पर्य ठीका' के नाम से लिखी है। इस टीका की भी टीका उदयनाचार्य कृत 'ताप्तर्य-परिशुद्धि' है। इस परिशुद्धि पर वर्धमान उपाध्याय कृत 'प्रकाश' है। न्यायशास्त्र के विकास को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है - आद्यकाल, मध्यकाल तथा अंत्यकाल (1200 ई. से 1800 ई. तक का काल)। आद्यकाल का न्याय "प्राचीन न्याय", मध्यकाल का न्याय "सांप्रदायिक न्याय" (प्राचीन न्याय की उत्तर शाखा) और अंत्यकाल का न्याय "नव्यन्याय" कहा जाएगा।; विशेष "न्याय" शब्द से वे शब्दसमूह भी व्यवहृत होते हैं जो दूसरे पुरुष को अनुमान द्वारा किसी विषय का बोध कराने के लिए प्रयुक्त होते है। (देखिये न्याय (दृष्टांत वाक्य)) वात्स्यायन ने उन्हें "परम न्याय" कहा है और वाद, जल्प तथा वितंडा रूप विचारों का मूल एवं तत्त्वनिर्णय का आधार बताया है। (न्या.भा. 1 सूत्र) .

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न्यायसूत्र

चार प्रमाण - '''१-प्रत्यक्ष, २-उपमान, ३-अनुमान, ४-शब्द''' न्यायसूत्र, भारतीय दर्शन का प्राचीन ग्रन्थ है। इसके रचयिता अक्षपाद गौतम हैं। यह न्यायदर्शन का सबसे प्राचीन रचना है। इसकी रचना का समय दूसरी शताब्दी ईसापूर्व है। इसका प्रथम सूत्र है - (प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अयवय, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान के तत्वज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है।) .

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प्रत्यक्ष

भारतीय दर्शन के सन्दर्भ में, प्रत्यक्ष, तीन प्रमुख प्रमाणों में से एक है। यह प्रमाण सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। 'प्रत्यक्ष' का शाब्दिक अर्थ है- वह वस्तु जो आँखों के सामने हो। यहाँ 'आँख' से तात्पर्य सभी इंद्रियों से है। प्रत्यक्ष का अर्थ प्रति+अक्ष होता है। प्रति का अर्थ 'सामने' और अक्ष का अर्थ 'आँख', यानी प्रत्यक्ष का अर्थ 'आँख के सामने' होता है। यहा अक्ष का अर्थ संकुचित न लेते हुए व्यापक अर्थ पाँच इंद्रिय (आँख, कान, नाक, जिह्वा, त्वचा) के सामने अर्थात् पाच इंद्रियों के समक्ष होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान प्राप्ति का साधन है। न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष का अर्थ इंद्रियार्थसंन्निकर्षजन्य ज्ञानम् प्रत्यक्षम् यह है। प्रत्यक्ष ज्ञान की उत्पत्ति कुछ इस प्रकार होती है। इनमें से आत्मा, मन और इंद्रिय का संयोग रूप जो ज्ञान का करण या प्रमाण है वही प्रत्यक्ष है। वस्तु के साथ इंद्रिय-संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है उसी को 'प्रत्यक्ष' कहते हैं। गौतम ने न्यायसूत्र में कहा है कि इंद्रिय के द्वारा किसी पदार्थ का जो ज्ञान होता है, वही प्रत्यक्ष है। जैसे, यदि हमें सामने आगे जलती हुई दिखाई दे अथवा हम उसके ताप का अनुभव करें तो यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि 'आग जल रही है'। इस ज्ञान में पदार्थ और इंद्रिय का प्रत्यक्ष संबंध होना चाहिए। यदि कोई यह कहे कि 'वह किताब पुरानी है' तो यह प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है; क्योंकि इसमें जो ज्ञान होता है, वह केवल शब्दों के द्वारा होता है, पदार्थ के द्वारा नहीं, इसिलिये यह शब्दप्रमाण के अंतर्गत चला जायगा। पर यदि वही किताब हमारे सामने आ जाय और मैली कुचैली या फटी हुई दिखाई दे तो हमें इस बात का अवश्य प्रत्यक्ष ज्ञान हो जायगा कि 'यह किताब पुरानी है'। प्रत्यक्ष ज्ञान किसी के कहे हुए शब्दों द्वारा नहीं होता, इसी से उसे 'अव्यपदेश्य' कहते हैं। प्रत्यक्ष को अव्यभिचारी इसलिये कहते हैं कि उसके द्वारा जो वस्तु जैसी होती है उसका वैसा ही ज्ञान होता है। कुछ नैयायिक इस ज्ञान के करण को ही प्रमाण मानते हैं। उनके मत से 'प्रत्यक्ष प्रमाण' इंद्रिय है, इंद्रिय से उत्पन्न ज्ञान 'प्रत्यक्ष ज्ञान' है। पर अव्यपदेश्य पद से सूत्रकार का अभिप्राय स्पष्ट है कि वस्तु का जो निर्विकल्पक ज्ञान है वही प्रत्यक्ष प्रमाण है। नवीन ग्रंथकार दोनों मतों को मिलाकर कहते हैं कि प्रत्यक्ष ज्ञान के करण (अर्थात प्रत्यक्ष प्रमाण) तीन हैं-.

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प्रभाकर

प्रभाकर (७वीं शताब्दी) भारत के दार्शनिक एवं वैयाकरण थे। वे मीमांसा से सम्बन्धित हैं। कुमारिल भट्ट से उनका शास्त्रार्थ हुआ था। शालिकनाथ ने ८वीं शताब्दी में प्रभाकर के ग्रन्थों का भाष्य लिखा। .

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भारतीय दर्शन

भारत में 'दर्शन' उस विद्या को कहा जाता है जिसके द्वारा तत्व का साक्षात्कार हो सके। 'तत्व दर्शन' या 'दर्शन' का अर्थ है तत्व का साक्षात्कार। मानव के दुखों की निवृति के लिए और/या तत्व साक्षात्कार कराने के लिए ही भारत में दर्शन का जन्म हुआ है। हृदय की गाँठ तभी खुलती है और शोक तथा संशय तभी दूर होते हैं जब एक सत्य का दर्शन होता है। मनु का कथन है कि सम्यक दर्शन प्राप्त होने पर कर्म मनुष्य को बंधन में नहीं डाल सकता तथा जिनको सम्यक दृष्टि नहीं है वे ही संसार के महामोह और जाल में फंस जाते हैं। भारतीय ऋषिओं ने जगत के रहस्य को अनेक कोणों से समझने की कोशिश की है। भारतीय दार्शनिकों के बारे में टी एस एलियट ने कहा था- भारतीय दर्शन किस प्रकार और किन परिस्थितियों में अस्तित्व में आया, कुछ भी प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता। किन्तु इतना स्पष्ट है कि उपनिषद काल में दर्शन एक पृथक शास्त्र के रूप में विकसित होने लगा था। तत्त्वों के अन्वेषण की प्रवृत्ति भारतवर्ष में उस सुदूर काल से है, जिसे हम 'वैदिक युग' के नाम से पुकारते हैं। ऋग्वेद के अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतीय विचारों में द्विविध प्रवृत्ति और द्विविध लक्ष्य के दर्शन हमें होते हैं। प्रथम प्रवृत्ति प्रतिभा या प्रज्ञामूलक है तथा द्वितीय प्रवृत्ति तर्कमूलक है। प्रज्ञा के बल से ही पहली प्रवृत्ति तत्त्वों के विवेचन में कृतकार्य होती है और दूसरी प्रवृत्ति तर्क के सहारे तत्त्वों के समीक्षण में समर्थ होती है। अंग्रेजी शब्दों में पहली की हम ‘इन्ट्यूशनिस्टिक’ कह सकते हैं और दूसरी को रैशनलिस्टिक। लक्ष्य भी आरम्भ से ही दो प्रकार के थे-धन का उपार्जन तथा ब्रह्म का साक्षात्कार। प्रज्ञामूलक और तर्क-मूलक प्रवृत्तियों के परस्पर सम्मिलन से आत्मा के औपनिषदिष्ठ तत्त्वज्ञान का स्फुट आविर्भाव हुआ। उपनिषदों के ज्ञान का पर्यवसान आत्मा और परमात्मा के एकीकरण को सिद्ध करने वाले प्रतिभामूलक वेदान्त में हुआ। भारतीय मनीषियों के उर्वर मस्तिष्क से जिस कर्म, ज्ञान और भक्तिमय त्रिपथगा का प्रवाह उद्भूत हुआ, उसने दूर-दूर के मानवों के आध्यात्मिक कल्मष को धोकर उन्हेंने पवित्र, नित्य-शुद्ध-बुद्ध और सदा स्वच्छ बनाकर मानवता के विकास में योगदान दिया है। इसी पतितपावनी धारा को लोग दर्शन के नाम से पुकारते हैं। अन्वेषकों का विचार है कि इस शब्द का वर्तमान अर्थ में सबसे पहला प्रयोग वैशेषिक दर्शन में हुआ। .

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शब्दप्रमाण

तप्सवी गोतम बुद्ध बोधी पेड के नीचे अपने शिष्यों को ज्ञान देते हुए। आप्त पुरुष द्वारा किए गए उपदेश को "शब्द" प्रमाण मानते हैं। (आप्तोपदेश: शब्द:; न्यायसूत्र 1.1.7)। आप्त वह पुरुष है जिसने धर्म के और सब पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को भली भांति जान लिया है, जो सब जीवों पर दया करता है और सच्ची बात कहने की इच्छा रखता है। न्यायमत में वेद ईश्वर द्वारा प्रणीत ग्रंथ है और ईश्वर सर्वज्ञ, हितोपदेष्टा तथा जगत् का कल्याण करनेवाला है। वह सत्य का परम आश्रय होने से कभी मिथ्या भाषण नहीं कर सकता और इसलिए ईश्वर सर्वश्रेष्ठ आप्त पुरुष है। ऐसे ईश्वर द्वारा मानवमात्र के मंगल के निमित निर्मित, परम सत्य का प्रतिपादक वेद आप्तप्रमाण या शब्दप्रमाण की सर्वोत्तम कोटि है। गौतम सूत्र (2.1.57) में वेद के प्रामाण्य को तीन दोषों से युक्त होने के कारण भ्रांत होने का पूर्वपक्ष प्रस्तुत किया गया है। वेद में नितांत मिथ्यापूर्ण बातें पाई जाती हैं, कई परस्पर विरुद्ध बातें दृष्टिगोचर होती हैं और कई स्थलों पर अनेक बातें व्यर्थ ही दुहराई गई हैं। गौतम ने इस पूर्वपक्ष का खंडन बड़े विस्तार के साथ अनेक सूत्रों में किया है (1.1.58-61)। वेद के पूर्वोक्त स्थलों के सच्चे अर्थ पर ध्यान देने से वेदवचनों का प्रामाण्य स्वत: उन्मीलित होता है। पुत्रेष्टि यज्ञ की निष्फलता इष्टि के यथार्थ विधान की न्यूनता तथा यागकर्ता की अयोग्यता के ही कारण है। "उदिते जुहोति" तथा "अनुदिते जुहोति" वाक्यों में भी कथमपि विरोध नहीं है। इनका यही तात्पर्य है कि यदि कोई इष्टिकर्ता सूर्योदय से पहले हवन करता है, तो उसे इस नियम का पालन जीवनभर करते रहना चाहिए। समय का नियमन ही इन वाक्यों का तात्पर्य है। बुद्ध तथा जैन आगम को नैयायिक लोग वेद के समान प्रमाणकोटि में नहीं मानते। वाचस्पति मिश्र का कथन है कि ऋषभदेव तथा बुद्धदेव कारुणिक सदुपदेष्टा भले ही हों, परंतु विश्व के रचयिता ईश्वर के समान न तो उनका ज्ञान ही विस्तृत है और उनकी शक्ति ही अपरिमित है। जयन्त भट्ट का मत इससे भिन्न है। वे इनको भी ईश्वर का अवतार मानते हैं। अतएव इनके वचन तथा उपदेश भी आगमकोटि में आते हैं। अंतर इतना ही है कि वेद का उपदेश समस्त मानवों के कल्याणार्थ है, परंतु बौद्ध और जैन आगम कम मनुष्यों के लाभार्थ हैं। इस प्रकार आप्तप्रमाण के विषय में एकवाक्यता प्रस्तुत की जा सकती है। .

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सत्य

सत्य (truth) के अलग-अलग सन्दर्भों में एवं अलग-अलग सिद्धान्तों में सर्वथा भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। .

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वैशेषिक दर्शन

वैशेषिक हिन्दुओं के षडदर्शनों में से एक दर्शन है। इसके मूल प्रवर्तक ऋषि कणाद हैं (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी)। यह दर्शन न्याय दर्शन से बहुत साम्य रखता है किन्तु वास्तव में यह एक स्वतंत्र भौतिक विज्ञानवादी दर्शन है। इस प्रकार के आत्मदर्शन के विचारों का सबसे पहले महर्षि कणाद ने सूत्र रूप में लिखा। कणाद एक ऋषि थे। ये "उच्छवृत्ति" थे और धान्य के कणों का संग्रह कर उसी को खाकर तपस्या करते थे। इसी लिए इन्हें "कणाद" या "कणभुक्" कहते थे। किसी का कहना है कि कण अर्थात् परमाणु तत्व का सूक्ष्म विचार इन्होंने किया है, इसलिए इन्हें "कणाद" कहते हैं। किसी का मत है कि दिन भर ये समाधि में रहते थे और रात्रि को कणों का संग्रह करते थे। यह वृत्ति "उल्लू" पक्षी की है। किस का कहना है कि इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ईश्वर ने उलूक पक्षी के रूप में इन्हें शास्त्र का उपदेश दिया। इन्हीं कारणों से यह दर्शन "औलूक्य", "काणाद", "वैशेषिक" या "पाशुपत" दर्शन के नामों से प्रसिद्ध है। पठन-पाठन में विशेष प्रचलित न होने के कारण वैशेषिक सूत्रों में अनेक पाठभेद हैं तथा 'त्रुटियाँ' भी पर्याप्त हैं। मीमांसासूत्रों की तरह इसके कुछ सूत्रों में पुनरुक्तियाँ हैं - जैसे "सामान्यविशेषाभावेच" (4 बार) "सामान्यतोदृष्टाच्चा विशेष:" (2 बार), "तत्त्वं भावेन" (4 बार), "द्रव्यत्वनित्यत्वे वायुना व्यख्याते" (3 बार), "संदिग्धस्तूपचार:" (2 बार)। .

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कुमारिल भट्ट

कुमारिल भट्ट (लगभग ६५० ई) मीमांसा दर्शन के दो प्रधान संप्रदायों में से एक भटसंप्रदाय के संस्थापक थे। उन्होने बौद्ध धर्म को भारत से समूल उखाड़ने के लिए बौद्धिक दिग्विजय का दिव्य अभियान चलाया। कुमारिल भट ने जो आधार तैयार किया उसी पर आदि शंकराचार्य विशाल भवन उठाया। .

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अनुपलब्धि

भारतीय दर्शन के सन्दर्भ में, अनुपलब्धि या अभावप्रमाण एक प्रमाण है। इसे पूर्वमीमांसा में कुमारिल भट्ट सम्प्र्दाय ने एक प्रमाण माना है। पूर्वमीमांसा ने इसके अतिरिक्त पाँच अन्य प्रमाण माने हैं, जो ये हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान, ('comparison' या analogy) तथा अर्थापत्ति ('presumption') श्रेणी:भारतीय दर्शन.

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अनुमान

अनुमान, दर्शन और तर्कशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है। भारतीय दर्शन में ज्ञानप्राप्ति के साधनों का नाम प्रमाण हैं। अनुमान भी एक प्रमाण हैं। चार्वाक दर्शन को छोड़कर प्राय: सभी दर्शन अनुमान को ज्ञानप्राप्ति का एक साधन मानते हैं। अनुमान के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता हैं उसका नाम अनुमिति हैं। प्रत्यक्ष (इंद्रिय सन्निकर्ष) द्वारा जिस वस्तु के अस्तित्व का ज्ञान नहीं हो रहा हैं उसका ज्ञान किसी ऐसी वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर, जो उस अप्रत्यक्ष वस्तु के अस्तित्व का संकेत इस ज्ञान पर पहुँचने की प्रक्रिया का नाम अनुमान है। इस प्रक्रिया का सरलतम उदाहरण इस प्रकार है-किसी पर्वत के उस पार धुआँ उठता हुआ देखकर वहाँ पर आग के अस्तित्व का ज्ञान अनुमिति है और यह ज्ञान जिस प्रक्रिया से उत्पन्न होता है उसका नाम अनुमान है। यहाँ प्रत्यक्ष का विषय नहीं है, केवल धुएँ का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। पर पूर्वकाल में अनेक बार कई स्थानों पर आग और धुएँ के साथ-साथ प्रत्यक्ष ज्ञान होने से मन में यह धारणा बन गई है कि जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहीं-वहीं आग भी होती है। अब जब हम केवल धुएँ का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं और हमको यह स्मरण होता है कि जहाँ-जहाँ धुआँ है वहाँ-वहाँ आग होती है, तो हम सोचते हैं कि अब हमको जहाँ धुआँ दिखाई दे रहा हैं वहाँ आग अवश्य होगी: अतएव पर्वत के उस पार जहाँ हमें इस समय धुएँ का प्रत्यक्ष ज्ञान हो रहा है अवश्य ही आग वर्तमान होगी। इस प्रकार की प्रक्रिया के मुख्य अंगों के पारिभाषिक शब्द ये हैं.

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अभाव

अभाव का सामान्य अर्थ है - 'किसी वस्तु का न होना'। कुमारिल भट्ट के अनुसार अभावज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं होता क्योंकि वहाँ विषयेंद्रियसंबंध नहीं है। अभाव के साथ लिंग की व्याप्ति नहीं होती, अत: अनुमान भी नहीं हो सकता। अभाव ज्ञान के लिए मीमांसा में 'अनुपलब्धि' नामक अलग प्रमाण माना गया है। अभावज्ञान के लिए इंद्रियसंबंध की आवश्यकता नहीं होती। जहाँ वस्तु का अभाव होता है वहाँ वस्तु का अभाव उस स्थान का विशेषण बन जाता है। यह अभाव विशिष्ट आधार का ज्ञान प्रत्यक्ष जैसा हो, किंतु विशेष्य-विशेषण-भाव नामक एक अलग संनिकर्ष से होता है। अत: घर के अभाव का ज्ञान सर्वदा भूतलज्ञान के कारण होता है। बौद्ध दर्शन में अभाव के साथ कोई संबंध नहीं है। इसलिए अभावज्ञान संभव नहीं है। जहाँ अभावज्ञान होता है वहाँ किसी न किसी प्रकार का भावात्मक ज्ञान ही होता है। न्यायवैशेषिक दर्शन में भावात्मक और अभावात्मक दो प्रकार के पदार्थ मान गए हैं। अभाव उतना ही सत्य है जितना वस्तु का सद्भाव। वैशेषिक दर्शन में चार प्रकार के अभावों का उल्लेख है-.

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अर्थापत्ति

मीमांसा दर्शन में अर्थापत्ति एक प्रमाण माना गया है। यदि कोई व्यक्ति जीवित है किंतु घर में नहीं है तो अर्थापत्ति के द्वारा ही यह ज्ञात होता है कि वह बाहर है। प्रभाकर के अनुसार अर्थापत्ति से तभी ज्ञान संभव है जब घर में अनुपस्थित व्यक्ति के संबंध में संदेह हो। कुमारिल के मत में उस व्यक्ति के जीवन के बारे में निश्चय तथा घर में अनुपस्थिति दोनों का मिलाकर ही उस व्यक्ति के बाहर होने का ज्ञान होता है। न्यायशास्त्र के अनुसार अर्थापत्ति अनुमान के अंतर्गत है। .

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अक्षपाद गौतम

Ancient Nyayasutras first ten sutras in Sanskrit.jpg अक्षपाद, न्यायसूत्र के रचयिता आचार्य अक्षपाद, न्यायसूत्र के रचयिता आचार्य। प्रख्यात न्यायसूत्रों के निर्माता का नाम पद्मपुराण (उत्तर खंड, अध्याय 263), स्कंदपुराण (कालिका खंड, अ. 170, गांधर्व तंत्र, नैषधचरित (सर्ग 17) तथा विश्वनाथ की न्यायवृत्ति में महर्षि गोतम या (गौतम) ठहराया गया है। इसके विपरीत न्यायभाष्य, न्यायवार्तिक, तात्पर्यटीका तथा न्यायमंजरी आदि विख्यात न्यायशास्त्रीय ग्रंथों में अक्षपाद इन सूत्रों के लेखक माने गए हैं। महाकवि भास के अनुसार न्यायशास्त्र के रचयिता का नाम मेधातिथि है (प्रतिमा नाटक, पंचम अंक)। इन विभिन्न मतों की एक वाक्यता सिद्ध की जा सकती है। महाभारत (शांति पर्व, अ. 265) के अनुसार गौतम मेधातिथि दो विभिन्न व्यक्ति न होकर एक ही व्यक्ति हैं (मेधातिथिर्महाप्राज्ञो गौतमस्तपसि स्थितः)। गौतम (या गोतम) स्पष्टतः वंशबोधक आख्या है तथा मेधातिथि व्यक्तिबोधक संज्ञा है। अक्षपाद का शब्दार्थ है - 'पैरों में आँखवाला'। फलतः इस नाम को सार्थकता सिद्ध करने के लिए अनेक कहानियाँ गढ़ ली गई हैं जो सर्वथा कल्पित, निराधार और प्रमाण शून्य हैं। नैयायिक गौतम के बारे में अनेक विद्वानों ने लिखा है। महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्री का कहना है कि चीनी भाषा में निबद्ध प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अनुवाद के आधार पर गौतम, बुद्ध के पहले हो गए थे परंतु उनके नाम पर प्रचलित न्यायसूत्र ईसा की दूसरी शताब्दी की रचना है। सतीशचंद्र विद्याभूषण का मत है कि गौतमीय धर्मसूत्र तथा न्यायसूत्र का कर्ता एक ही गौतमनामधारी व्यक्ति रहा होगा। ये बुद्ध के समकालीन रहे होंगे तथा इनका समय ६ठी शताब्दी ईसा पूर्व हो सकता है। परंतु विद्याभूषण यह भी मानते हैं कि इस गौतम ने न्यायसूत्र के केवल पहले अध्याय की रचना की होगी। बाद के चार अध्याय किसी और ने बहुत बाद में लिखे होंगे। प्रो. याकोबी के अनुसार न्यायसूत्र शून्यवाद के नागार्जुन (२०० ई.) द्वारा प्रतिष्ठापित हो जाने के बाद और विज्ञानवाद (५०० ई.) के विकास के पहले लिखा गया होगा क्योंकि इसमें शून्यवाद का तो खंडन है पर विज्ञानवाद का खंडन नहीं मिलता। परंतु प्रो. शेरवात्स्की के अनुसार न्यायसूत्र में विज्ञानवाद की ओर भी संकेत किया गया है। अत: यह ५०० ई. के बाद की रचना होगी। परंतु शेरवात्स्की का यह मत न्यायसूत्र को न समझने के कारण भ्रममूलक है। तर्कसंग्रह के संपादक आठले तथा बोडस के अनुसार गौतम के न्यायसूत्र कणाद से पहले के हैं। शबरस्वामी ने (मीमांसासूत्र भाष्य में) उपवर्ष से उद्धरण दिया है जिससे लगता है कि उपवर्ष न्याय से परिचित थे। यदि यह उपवर्ष महापद्म नंद के मंत्री ही हैं तो गौतम को ४०० ई.पू. का मानना ही पड़ेगा। प्रो. सुआली के अनुसार ये सूत्र ३००-३५० ई. के काल के हैं। रिचार्ड गार्वे के अनुसार आस्तिक दर्शनों में न्याय सबसे बाद का है क्योंकि ईस्वी सन् के आरंभ के पहले इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। अत: ये सूत्र १००-३०० ई. के बीच लिखे गए होंगे। इन मतों में कौन सा सही है यह कहना वर्तमान स्थिति में नितांत असंभव है। न्यायसूत्रों की रचना तथा गौतम का काल इन दो प्रश्नों पर अलग अलग विचार होना चाहिए। जहाँ तक न्यायसूत्रों का प्रश्न है, निश्चय ही ये सूत्र बौद्धदर्शन का विकास हो जाने पर लिखे गए हैं। इतना और भी कहा जा सकता है कि इस न्यायसूत्र में समय-समय पर संशोधन तथा परिवर्धन होते रहे हैं। परतु गौतम का नाम इन सूत्रों से इसलिये संबंधित नहीं है कि ये सारे सूत्र अपने वर्तमान रूप में गौतम द्वारा ही विरचित हैं। गौतम को हम सिर्फ न्यायशास्त्र का प्रवर्तक कह सकते हैं, सूत्रों का रचयिता नहीं। हो सकता है, गौतम ने कुछ सूत्र लिखे हों, पर वे सूत्र अन्य सूत्रों में इतने घुलमिल गए हैं कि उनको अलग निकालना हमारे लिये असंभव है। इन दृष्टियों से हमें विद्याभूषण का मत अधिक मान्य लगता है। गौतम को अक्षपाद भी कहते हैं। विद्याभूषण गौतम को अक्षपाद से पृथक् मानते हैं। न्यायसूत्र के भाष्यकार तथा अन्य व्याख्याताओं ने अक्षपाद और गौतम को एक माना है। 'अक्षपाद' शब्द का अर्थ होता है 'जिसके पैर में आँखें हों'। व्याकरण महाभाष्य (१४० ई.पू.) गौतम के सिद्धांतों से परिचित है। न्यायसूत्रों में पाँच अध्याय हैं और ये ही न्याय दर्शन (या आन्वीक्षिकी) के मूल आधार ग्रंथ है। इनकी समीक्षा से पता चलता है कि न्यायदर्शन आरंभ में अध्यात्म प्रधान था अर्थात् आत्मा के स्वरूप का यथार्थ निर्णय करना ही इसका उद्देश्य था। तर्क तथा युक्ति का यह सहारा अवश्य लेता था, परंतु आत्मा के स्वरूप का परिचय इन साधनों के द्वारा कराना ही इसका मुख्य तात्पर्य था। उस युग का सिद्धांत था कि जो प्रक्रिया आत्मतत्व का ज्ञान प्राप्त करा सकती है वही ठीक तथा मान्य है। उससे वितरीप मान्य नहीं होती: परंतु आगे चलकर न्याय दर्शन में उस तर्क प्रणाली की विशेषतः उद्भावना की गई जिसके द्वारा अनात्मा से आत्मा का पृथक् रूप भली-भाँति समझा जा सकता है और जिसमें वाद, जल्प, वितंडा, छल, जाति आदि साधनों का प्रयोग होता है। इन तर्कप्रधान न्यायसूत्रों के रचयिता अक्षपाद प्रतीत होते हैं। वर्तमान न्यायसूत्रों में दोनों युगों के चिंतनों की उपलब्धि का स्पष्ट निर्देश है। न्यायदर्शन के मूल रचयिता गौतम मेधातिथि हैं और उसके प्रति संस्कृत-नवीन विषयों का समावेश कर मूल ग्रंथ के संशोधक-अक्षपाद हैं। आयुर्वेद का प्रख्यात ग्रंथ चरकसंहिता भी इसी संस्कार पद्धति का परिणत आदर्श है। मूल ग्रंथ के प्रणेता महर्षि अग्निवेश हैं, परंतु इसके प्रतिसंस्कर्ता चरक माने जाते हैं। न्यायसूत्र भी इसी प्रकार अक्षपाद द्वारा प्रतिसंस्कृत ग्रंथ है। .

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उपमान

दर्शन में किसी अज्ञात वस्तु को किसी ज्ञात वस्तु की समानता के आधार पर किसी नाम से जानना उपमान कहलाता है। जैसे किसी को मालूम है कि नीलगाय, गाय जैसी होती है; कभी उसने जंगल में गाय जैसा पशु देखा और समझ गया कि यही नीलगाय है। यह ज्ञान गाय के ज्ञान से हुआ है। किंतु शब्दज्ञान से इसमें भेद है। शब्दज्ञान से शब्द सुनकर बोध होता है, उपमान में समानता से बोध होता है। न्यायशास्त्र में इसे अलग प्रमाण माना गया है किंतु बौद्ध, वैशेषिक आदि दर्शन इसे अनुमान के अंतर्गत मानते हैं। .

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