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आयुर्वेद

सूची आयुर्वेद

आयुर्वेद के देवता '''भगवान धन्वन्तरि''' आयुर्वेद (आयुः + वेद .

69 संबंधों: चरक, चरक संहिता, च्यवन, ऍलोपैथी, डल्हण, डाबर, दर्शनशास्त्र, दही, दिवोदास (काशी), दक्ष प्रजापति, द्रव्यगुण शास्त्र, दूध, दीर्घकालिक लक्षण, धन्वन्तरि, धातु, निदान (संस्कृत), पंचकर्म, प्रकृति से अपील, फल, बकरी, ब्रह्मा, बैचलर ऑफ़ आयुर्वेद मेडिसिन एंड सर्जरी, भरद्वाज, भाव प्रकाश, भाव मिश्र, भेलसंहिता, माधव निदान, यूनानी चिकित्सा पद्धति, योग, रस (काव्य शास्त्र), रसरत्नसमुच्चय, रसविद्या, रोग, शार्ङ्गधर, शार्ङ्गधरसंहिता, शास्त्र, सिद्ध चिकित्सा, सुश्रुत, सुश्रुत संहिता, स्नान, स्मृतिलोप, स्वास्थ्य, हैदराबाद, होम्योपैथी, घी, वसा, वाग्भट, विज्ञान, व्रण, औषधि, ..., आत्मा, आत्रेय, आयुर्विज्ञान, आयुर्वेद का इतिहास, इन्द्र, कला, काश्यप संहिता, काशी, कौमार भृत्‍य, अत्रि, अथर्ववेद संहिता, अभ्यंग, अश्विनीकुमार (पौराणिक पात्र), अष्टांगसंग्रह, अष्टाङ्गहृदयम्, अस्थि, अग्निवेश, उपवास, ऋग्वेद सूचकांक विस्तार (19 अधिक) »

चरक

पतंजलि योगपीठ हरिद्वार में महर्षि चरक की प्रतिमा चरक एक महर्षि एवं आयुर्वेद विशारद के रूप में विख्यात हैं। वे कुषाण राज्य के राजवैद्य थे। इनके द्वारा रचित चरक संहिता एक प्रसिद्ध आयुर्वेद ग्रन्थ है। इसमें रोगनाशक एवं रोगनिरोधक दवाओं का उल्लेख है तथा सोना, चाँदी, लोहा, पारा आदि धातुओं के भस्म एवं उनके उपयोग का वर्णन मिलता है। आचार्य चरक ने आचार्य अग्निवेश के अग्निवेशतन्त्र में कुछ स्थान तथा अध्याय जोड्कर उसे नया रूप दिया जिसे आज चरक संहिता के नाम से जाना जाता है । 300-200 ई. पूर्व लगभगआयुर्वेद के आचार्य महर्षि चरक की गणना भारतीय औषधि विज्ञान के मूल प्रवर्तकों में होती है।चरक की शिक्षा तक्षशिला में हुई ।इनका रचा हुआ ग्रंथ 'चरक संहिता' आज भी वैद्यक का अद्वितीय ग्रंथ माना जाता है। इन्हें ईसा की प्रथम शताब्दी का बताते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि चरक कनिष्क के राजवैद्य थे परंतु कुछ लोग इन्हें बौद्ध काल से भी पहले का मानते हैं।आठवीं शताब्दी में इस ग्रंथ का अरबी भाषा में अनुवाद हुआ और यह शास्त्र पश्चिमी देशों तक पहुंचा।चरक संहिता में व्याधियों के उपचार तो बताए ही गए हैं, प्रसंगवश स्थान-स्थान पर दर्शन और अर्थशास्त्र के विषयों की भी उल्लेख है।उन्होंने आयुर्वेद के प्रमुख ग्रन्थों और उसके ज्ञान को इकट्ठा करके उसका संकलन किया । चरक ने भ्रमण करके चिकित्सकों के साथ बैठकें की, विचार एकत्र किए और सिद्धांतों को प्रतिपादित किया और उसे पढ़ाई लिखाई के योग्य बनाया । .

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चरक संहिता

चरक संहिता आयुर्वेद का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। यह संस्कृत भाषा में है। इसके उपदेशक अत्रिपुत्र पुनर्वसु, ग्रंथकर्ता अग्निवेश और प्रतिसंस्कारक चरक हैं। प्राचीन वाङ्मय के परिशीलन से ज्ञात होता है कि उन दिनों ग्रंथ या तंत्र की रचना शाखा के नाम से होती थी। जैसे कठ शाखा में कठोपनिषद् बनी। शाखाएँ या चरण उन दिनों के विद्यापीठ थे, जहाँ अनेक विषयों का अध्ययन होता था। अत: संभव है, चरकसंहिता का प्रतिसंस्कार चरक शाखा में हुआ हो। भारतीय चिकित्साविज्ञान के तीन बड़े नाम हैं - चरक, सुश्रुत और वाग्भट। चरक संहिता, सुश्रुतसंहिता तथा वाग्भट का अष्टांगसंग्रह आज भी भारतीय चिकित्सा विज्ञान (आयुर्वेद) के मानक ग्रन्थ हैं। चिकित्सा विज्ञान जब शैशवावस्था में ही था उस समय चरकसंहिता में प्रतिपादित आयुर्वेदीय सिद्धान्त अत्यन्त श्रेष्ठ तथा गंभीर थे। इसके दर्शन से अत्यन्त प्रभावित आधुनिक चिकित्साविज्ञान के आचार्य प्राध्यापक आसलर ने चरक के नाम से अमेरिका के न्यूयार्क नगर में १८९८ में 'चरक-क्लब्' संस्थापित किया जहाँ चरक का एक चित्र भी लगा है। आचार्य चरक और आयुर्वेद का इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि एक का स्मरण होने पर दूसरे का अपने आप स्मरण हो जाता है। आचार्य चरक केवल आयुर्वेद के ज्ञाता ही नहीं थे परन्तु सभी शास्त्रों के ज्ञाता थे। उनका दर्शन एवं विचार सांख्य दर्शन एवं वैशेषिक दर्शन का प्रतिनिधीत्व करता है। आचार्य चरक ने शरीर को वेदना, व्याधि का आश्रय माना है, और आयुर्वेक शास्त्र को मुक्तिदाता कहा है। आरोग्यता को महान् सुख की संज्ञा दी है, कहा है कि आरोग्यता से बल, आयु, सुख, अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है। आचार्य चरक, संहिता निर्माण के साथ-साथ जंगल-जंगल स्थान-स्थान घुम-घुमकर रोगी व्यक्ति की, चिकित्सा सेवा किया करते थे तथा इसी कल्याणकारी कार्य तथा विचरण क्रिया के कारण उनका नाम 'चरक' प्रसिद्ध हुआ। उनकी कृति चरक संहिता चिकित्सा जगत का प्रमाणिक प्रौढ़ और महान् सैद्धान्तिक ग्रन्थ है।;चरकसंहिता का आयुर्वेद को मौलिक योगदान चरकसंहिता का आयुर्वेद के क्षेत्र में अनेक मौलिक योगदान हैं जिनमें से मुख्य हैं-.

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च्यवन

भृगु मुनि के पुत्र च्यवन महान तपस्वी थे। एक बार वे तप करने बैठे तो तप करते-करते उन्हें हजारों वर्ष व्यतीत हो गये। यहाँ तक कि उनके शरीर में दीमक-मिट्टी चढ़ गई और लता-पत्तों ने उनके शरीर को ढँक लिया। उन्हीं दिनों राजा शर्याति अपनी चार हजार रानियों और एकमात्र रूपवती पुत्री सुकन्या के साथ इस वन में आये। सुकन्या अपनी सहेलियों के साथ घूमते हुये दीमक-मिट्टी एवं लता-पत्तों से ढँके हुये तप करते च्यवन के पास पहुँच गई। उसने देखा कि दीमक-मिट्टी के टीले में दो गोल-गोल छिद्र दिखाई पड़ रहे हैं जो कि वास्तव में च्यवन ऋषि की आँखें थीं। सुकन्या ने कौतूहलवश उन छिद्रों में काँटे गड़ा दिये। काँटों के गड़ते ही उन छिद्रों से रुधिर बहने लगा। जिसे देखकर सुकन्या भयभीत हो चुपचाप वहाँ से चली गई। आँखों में काँटे गड़ जाने के कारण च्यवन ऋषि अन्धे हो गये। अपने अन्धे हो जाने पर उन्हें बड़ा क्रोध आया और उन्होंने तत्काल शर्याति की सेना का मल-मूत्र रुक जाने का शाप दे दिया। राजा शर्याति ने इस घटना से अत्यन्त क्षुब्ध होकर पूछा कि क्या किसी ने च्यवन ऋषि को किसी प्रकार का कष्ट दिया है? उनके इस प्रकार पूछने पर सुकन्या ने सारी बातें अपने पिता को बता दी। राजा शर्याति ने तत्काल च्यवन ऋषि के पास पहुँच कर क्षमायाचना की। च्यवन ऋषि बोले कि राजन्! तुम्हारी कन्या ने भयंकर अपराध किया है। यदि तुम मेरे शाप से मुक्त होना चाहते हो तो तुम्हें अपनी कन्या का विवाह मेरे साथ करना होगा। इस प्रकार सुकन्या का विवाह च्यवन ऋषि से हो गया। सुकन्या अत्यन्त पतिव्रता थी। अन्धे च्यवन ऋषि की सेवा करते हुये अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। हठात् एक दिन च्यवन ऋषि के आश्रम में दोनों अश्‍वनीकुमार आ पहुँचे। सुकन्या ने उनका यथोचित आदर-सत्कार एवं पूजन किया। अश्‍वनीकुमार बोले, "कल्याणी! हम देवताओं के वैद्य हैं। तुम्हारी सेवा से प्रसन्न होकर हम तुम्हारे पति की आँखों में पुनः दीप्ति प्रदान कर उन्हें यौवन भी प्रदान कर रहे हैं। तुम अपने पति को हमारे साथ सरोवर तक जाने के लिये कहो।" च्यवन ऋषि को साथ लेकर दोनों अश्‍वनीकुमारों ने सरोवर में डुबकी लगाई। डुबकी लगाकर निकलते ही च्यवन ऋषि की आँखें ठीक हो गईं और वे अश्‍वनी कुमार जैसे ही युवक बन गये। उनका रूप-रंग, आकृति आदि बिल्कुल अश्‍वनीकुमारों जैसा हो गया। उन्होंने सुकन्या से कहा कि देवि! तुम हममें से अपने पति को पहचान कर उसे अपने आश्रम ले जाओ। इस पर सुकन्या ने अपनी तेज बुद्धि और पातिव्रत धर्म से अपने पति को पहचान कर उनका हाथ पकड़ लिया। सुकन्या की तेज बुद्धि और पातिव्रत धर्म से अश्‍वनीकुमार अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन दोनों को आशीर्वाद देकर वहाँ से चले गये। जब राजा शर्याति को च्यवन ऋषि की आँखें ठीक होने नये यौवन प्राप्त करने का समाचार मिला तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्होंने च्यवन ऋषि से मिलकर उनसे यज्ञ कराने की बात की। च्यवन ऋषि ने उन्हें यज्ञ की दीक्षा दी। उस यज्ञ में जब अश्‍वनीकुमारों को भाग दिया जाने लगा तब देवराज इन्द्र ने आपत्ति की कि अश्‍वनीकुमार देवताओं के चिकित्सक हैं, इसलिये उन्हें यज्ञ का भाग लेने की पात्रता नहीं है। किन्तु च्यवन ऋषि इन्द्र की बातों को अनसुना कर अश्‍वनीकुमारों को सोमरस देने लगे। इससे क्रोधित होकर इन्द्र ने उन पर वज्र का प्रहार किया लेकिन ऋषि ने अपने तपोबल से वज्र को बीच में ही रोककर एक भयानक राक्षस उत्पन्न कर दिया। वह राक्षस इन्द्र को निगलने के लिये दौड़ पड़ा। इन्द्र ने भयभीत होकर अश्‍वनीकुमारों को यज्ञ का भाग देना स्वीकार कर लिया और च्यवन ऋषि ने उस राक्षस को भस्म करके इन्द्र को उसके कष्ट से मुक्ति दिला दी। .

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ऍलोपैथी

आधुनिक चिकित्‍सा विज्ञान को एलोपैथी (Allopathy) या एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति (Allopathic medicine) कहते हैं। यह नाम होम्योपैथी के जन्मदाता सैमुएल हैनीमेन ने दिया था जिनका यह नाम देने का आशय यह था कि प्रचलित चिकित्सा-पद्धति (अर्थात एलोपैथी) रोग के लक्षण के बजाय अन्य चीज की दवा करता है। (Allo .

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डल्हण

डल्हण मध्ययुग के एक आयुर्वेदाचार्य थे। उन्होने सुश्रुतसंहिता का भाष्य लिखा है जिसका नाम 'निबन्धसंग्रह' है। इस ग्रन्थ में डल्हण के पूर्व के अनेकानेक आयुर्वेद पण्डितों और टीकाकारों के विचार संग्रहीत हैं। डल्हण ने चक्रपाणि (fl. 1060) के विचार उद्धृत किये हैं तथा हेमाद्रि (fl. 1260) ने डल्हण को उद्धृत किया है। अतः डल्हण का काल ११वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर १३वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के बीच होना चाहिये। श्रेणी:आयुर्वेद.

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डाबर

डाबर इण्डिया लिमिटेड भारत में स्वास्थ्य, व्यक्तिगत ध्यान एवं भोज्य उत्पादों के क्षेत्र में निवेश करने वाली चौथी सबसे बड़ी कम्पनी है। डाबर का च्यवनप्राश एवं हाजमोला बहुत ही लोकप्रिय है। .

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दर्शनशास्त्र

दर्शनशास्त्र वह ज्ञान है जो परम् सत्य और प्रकृति के सिद्धांतों और उनके कारणों की विवेचना करता है। दर्शन यथार्थ की परख के लिये एक दृष्टिकोण है। दार्शनिक चिन्तन मूलतः जीवन की अर्थवत्ता की खोज का पर्याय है। वस्तुतः दर्शनशास्त्र स्वत्व, अर्थात प्रकृति तथा समाज और मानव चिंतन तथा संज्ञान की प्रक्रिया के सामान्य नियमों का विज्ञान है। दर्शनशास्त्र सामाजिक चेतना के रूपों में से एक है। दर्शन उस विद्या का नाम है जो सत्य एवं ज्ञान की खोज करता है। व्यापक अर्थ में दर्शन, तर्कपूर्ण, विधिपूर्वक एवं क्रमबद्ध विचार की कला है। इसका जन्म अनुभव एवं परिस्थिति के अनुसार होता है। यही कारण है कि संसार के भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने समय-समय पर अपने-अपने अनुभवों एवं परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवन-दर्शन को अपनाया। भारतीय दर्शन का इतिहास अत्यन्त पुराना है किन्तु फिलॉसफ़ी (Philosophy) के अर्थों में दर्शनशास्त्र पद का प्रयोग सर्वप्रथम पाइथागोरस ने किया था। विशिष्ट अनुशासन और विज्ञान के रूप में दर्शन को प्लेटो ने विकसित किया था। उसकी उत्पत्ति दास-स्वामी समाज में एक ऐसे विज्ञान के रूप में हुई जिसने वस्तुगत जगत तथा स्वयं अपने विषय में मनुष्य के ज्ञान के सकल योग को ऐक्यबद्ध किया था। यह मानव इतिहास के आरंभिक सोपानों में ज्ञान के विकास के निम्न स्तर के कारण सर्वथा स्वाभाविक था। सामाजिक उत्पादन के विकास और वैज्ञानिक ज्ञान के संचय की प्रक्रिया में भिन्न भिन्न विज्ञान दर्शनशास्त्र से पृथक होते गये और दर्शनशास्त्र एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में विकसित होने लगा। जगत के विषय में सामान्य दृष्टिकोण का विस्तार करने तथा सामान्य आधारों व नियमों का करने, यथार्थ के विषय में चिंतन की तर्कबुद्धिपरक, तर्क तथा संज्ञान के सिद्धांत विकसित करने की आवश्यकता से दर्शनशास्त्र का एक विशिष्ट अनुशासन के रूप में जन्म हुआ। पृथक विज्ञान के रूप में दर्शन का आधारभूत प्रश्न स्वत्व के साथ चिंतन के, भूतद्रव्य के साथ चेतना के संबंध की समस्या है। .

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दही

तुर्की की दही. दही एक दुग्ध-उत्पाद है जिसका निर्माण दूध के जीवाणुज किण्वन द्वारा होता है। लैक्टोज का किण्वन लैक्टिक अम्ल बनाता है, जो दूध प्रोटीन से प्रतिक्रिया कर इसे दही मे बदल देता है साथ ही इसे इसकी खास बनावट और विशेष खट्टा स्वाद भी प्रदान करता है। सोया दही, दही का एक गैर दुग्ध-उत्पाद विकल्प है जिसे सोया दूध से बनाया जाता है। खाने में दही का प्रयोग पिछले लगभग 4500 साल से किया जा रहा है। आज इसका सेवन दुनिया भर में किया जाता है। यह एक स्वास्थ्यप्रद पोषक आहार है। यह प्रोटीन, कैल्शियम, राइबोफ्लेविन, विटामिन B6 और विटामिन B12 जैसे पोषक तत्वों से समृद्ध होता है। .

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दिवोदास (काशी)

प्राचीन भारत के राजा।.

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दक्ष प्रजापति

दक्ष प्रजापति को अन्य प्रजापतियों के समान ब्रह्मा जी ने अपने मानस पुत्र के रूप में उत्पन्न किया था। दक्ष प्रजापति का विवाह स्वायम्भुव मनु की तृतीय कन्या प्रसूति के साथ हुआ था। दक्ष राजाओं के देवता थे। .

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द्रव्यगुण शास्त्र

द्रव्यगुण आयुर्वेद का मूल विषय है। इसके अन्तर्गत औषधीय पादपों - उनकी पहचान, गुण तथा उपचारात्मक उपयोगों का अध्ययन किया जाता है। इसे आयुर्वेद का 'मैटेरिया मेडिका' कह सकते हैं। इस विज्ञान में भेषजगुण विज्ञान (फर्माकोलॉजी), भेषज-अभिज्ञान (pharmacognosy) तथा पादपों के चिकित्सीय उपयोग शामिल है। इसकी आठ शाखाएं हैं। 'द्रव्यगुण' दो शब्दों से मिलकर बना है - 'द्रव्य' (matter) तथा 'गुण' (properties)। द्रव्य के अन्तर्गत जीवित और निर्जीव दोनो वस्तुएँ आ जाती हैं। चरक का कहना है कि कुछ भी ऐसा नहीं है जो 'औषधि' न हो। आयुर्वेद का मत है कि किसी औषधि का प्रभाव उसके किसी एक घटक के अकेले के प्रभाव से प्रायः भिन्न होता है। आयुर्वेद में वनस्पतियों के गुणागुणों को पाँच भागों में भाँटा गया है- रस (taste), गुण (properties), वीर्य (biological properties), विपाक (attributes of drug assimilation) और शक्ति (Energy)। औषधियों के कार्य और प्रभाव को जानने के लिये उनके रस, गुण, वीर्य, विपाक, और शक्ति का ज्ञान अति आवश्यक है। ये भी कहा गया है कि- आयुर्वेद में 600 से भी अधिक औषधीय पादपों को औषध के रूप में उपयोग में लाया जाता है। इन्हें अकेले या दूसरों साथ मिलाकर रोगों से मुक्ति पाया जाता है। औषधीय पादप अलग-अलग तरह के कृषि-जलवायीय क्षेत्रों (जंगल, अनूप, साधारण देश) में पैदा होते हैं। वर्तमान समय में औषधीय पादपों को 'प्राकृतिक औषध' के रूप में प्रयोग करने का चलन बढ़ा है। इस कारण इस विषय का महत्व और भी बढ़ गया है। .

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दूध

एक गिलास दूध दूध एक अपारदर्शी सफेद द्रव है जो मादाओं के दुग्ध ग्रन्थियों द्वारा बनाया जता है। नवजात शिशु तब तक दूध पर निर्भर रहता है जब तक वह अन्य पदार्थों का सेवन करने में अक्षम होता है। साधारणतया दूध में ८५ प्रतिशत जल होता है और शेष भाग में ठोस तत्व यानी खनिज व वसा होता है। गाय-भैंस के अलावा बाजार में विभिन्न कंपनियों का पैक्ड दूध भी उपलब्ध होता है। दूध प्रोटीन, कैल्शियम और राइबोफ्लेविन (विटामिन बी -२) युक्त होता है, इनके अलावा इसमें विटामिन ए, डी, के और ई सहित फॉस्फोरस, मैग्नीशियम, आयोडीन व कई खनिज और वसा तथा ऊर्जा भी होती है। इसके अलावा इसमें कई एंजाइम और कुछ जीवित रक्त कोशिकाएं भी हो सकती हैं।। इकॉनोमिक टाइम्स, २२ मार्च २००९ .

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दीर्घकालिक लक्षण

दीर्घकालिक लक्षण (cronic condition) से तात्पर्य मानव-स्वास्थ्य की उस दशा या रोग से है जो बहुत दिनों से बना हुआ हो। श्रेणी:रोग.

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धन्वन्तरि

धन्वन्तरि को हिन्दू धर्म में देवताओं के वैद्य माना जाता है। वे महान चिकित्सक थे जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ये भगवान विष्णु के अवतार समझे जाते हैं। इनका पृथ्वी लोक में अवतरण समुद्र मंथन के समय हुआ था। शरद पूर्णिमा को चंद्रमा, कार्तिक द्वादशी को कामधेनु गाय, त्रयोदशी को धन्वंतरी, चतुर्दशी को काली माता और अमावस्या को भगवती लक्ष्मी जी का सागर से प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये दीपावली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरी का जन्म धनतेरस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन इन्होंने आयुर्वेद का भी प्रादुर्भाव किया था।। आश्रम.ऑर्ग। २८ अक्टूबर २००८ इन्‍हें भगवान विष्णु का रूप कहते हैं जिनकी चार भुजायें हैं। उपर की दोंनों भुजाओं में शंख और चक्र धारण किये हुये हैं। जबकि दो अन्य भुजाओं मे से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे मे अमृत कलश लिये हुये हैं। इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है। इसीलिये धनतेरस को पीतल आदि के बर्तन खरीदने की परंपरा भी है। इन्‍हे आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं। इन्होंने ही अमृतमय औषधियों की खोज की थी। इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाये गए थे।। वाराणसी वैभव सुश्रुत दिवोदास के ही शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र थे। उन्होंने ही सुश्रुत संहिता लिखी थी। सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे। दीपावली के अवसर पर कार्तिक त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धन्वंतरि की पूजा करते हैं। कहते हैं कि शंकर ने विषपान किया, धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी कालजयी नगरी बन गयी। .

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धातु

'धातु' के अन्य अर्थों के लिए देखें - धातु (बहुविकल्पी) ---- '''धातुएँ''' - मानव सभ्यता के पूरे इतिहास में सर्वाधिक प्रयुक्त पदार्थों में धातुएँ भी हैं लुहार द्वारा धातु को गर्म करने पर रसायनशास्त्र के अनुसार धातु (metals) वे तत्व हैं जो सरलता से इलेक्ट्रान त्याग कर धनायन बनाते हैं और धातुओं के परमाणुओं के साथ धात्विक बंध बनाते हैं। इलेक्ट्रानिक मॉडल के आधार पर, धातु इलेक्ट्रानों द्वारा आच्छादित धनायनों का एक लैटिस हैं। धातुओं की पारम्परिक परिभाषा उनके बाह्य गुणों के आधार पर दी जाती है। सामान्यतः धातु चमकीले, प्रत्यास्थ, आघातवर्धनीय और सुगढ होते हैं। धातु उष्मा और विद्युत के अच्छे चालक होते हैं जबकि अधातु सामान्यतः भंगुर, चमकहीन और विद्युत तथा ऊष्मा के कुचालक होते हैं। .

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निदान (संस्कृत)

आयुर्वेद में चिकित्सा आरम्भ करने के पहले रोगपरीक्षा तथा रोगीपरीक्षा करने का प्रावधान है। अर्थात् चिकित्सा के पूर्व परीक्षा अत्यन्त आवश्यक है। परीक्षा की जहां तक बात आती है तो परीक्षा रोगी की भी होती है और रोग की भी। रोग-रोगी दोनों की परीक्षा करके उनका बलाबल ज्ञान करके ही सफल चिकित्सा की जा सकती है। आयुर्वेदाचार्यों ने रोग की परीक्षा हेतु निदानपञ्चक का वर्णन किया है। आयुर्वेद के अनुसार, रोग की परीक्षा (रोग का ज्ञान) इन पांच उपायों से होता है - इन पांच उपायों को निदानपञ्चक कहते हैं। निदान– रोग के कारण को निदान कहते हैं। पूर्वरूप - रोग उत्पन्न होने के पहले जो लक्षण होते हैं उन्हें पूर्वरूप कहा जाता है। रूप - उत्पन्न हुए रोगों के चिह्नों को लक्षण या रूप कहते हैं। उपशय - औषध, अन्न व विहार के परिणाम में सुखप्रद उपयोग को उपशय कहते हैं। सम्प्राप्ति - रोग की अति प्रारम्भिक अवस्था से लेकर रोग के पूर्ण रूप से प्रगट होने तक, रोग के क्रियाकाल (pathogenesis) की छः अवस्थायें होती हैं। निदानपंचक से रोग के बल का ज्ञान होता है। इसके साथ ही साथ चिकित्सा हेतु रोगी के बल का ज्ञान भी आवश्यक है। जिससे यह निर्णय होता है कि रोगी चिकित्सा सहन करने योग्य है अथवा नहीं। इसके लिए दशविध परीक्षा का वर्णन आया है जिसके अंतर्गत विकृति परीक्षा को छोड़कर शेष परीक्षा रोगी के बल को जानने के लिए है। .

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पंचकर्म

'''शिरोधारा''' में सिर के ऊपर तेल की एक पतली धारा निरन्तर बहायी जाती है। पंचकर्म (अर्थात पाँच कर्म) आयुर्वेद की उत्‍कृष्‍ट चिकित्‍सा विधि है। पंचकर्म को आयुर्वेद की विशिष्‍ट चिकित्‍सा पद्धति कहते है। इस विधि से शरीर में होंनें वाले रोगों और रोग के कारणों को दूर करनें के लिये और तीनों दोषों (अर्थात त्रिदोष) वात, पित्‍त, कफ के असम रूप को समरूप में पुनः स्‍थापित करनें के लिये विभिन्‍न प्रकार की प्रक्रियायें प्रयोग मे लाई जाती हैं। लेकिन इन कई प्रक्रियायों में पांच कर्म मुख्‍य हैं, इसीलिये ‘’पंचकर्म’’ कहते हैं। ये पांच कर्मों की प्रक्रियायें इस प्रकार हैं-.

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प्रकृति से अपील

प्रकृति से अपील एक तरह का तर्क है जिसमें यह प्रस्तावित किया जाता है कि "कोई वस्तु अच्छी है क्योंकि वह 'प्राकृतिक' है, या कोई वस्तु बुरी है क्योंकि वह 'अप्राकृतिक' है"। .

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फल

फल और सब्ज़ियाँ निषेचित, परिवर्तित एवं परिपक्व अंडाशय को फल कहते हैं। साधारणतः फल का निर्माण फूल के द्वारा होता है। फूल का स्त्री जननकोष अंडाशय निषेचन की प्रक्रिया द्वारा रूपान्तरित होकर फल का निर्माण करता है। कई पादप प्रजातियों में, फल के अंतर्गत पक्व अंडाशय के अतिरिक्त आसपास के ऊतक भी आते है। फल वह माध्यम है जिसके द्वारा पुष्पीय पादप अपने बीजों का प्रसार करते हैं, हालांकि सभी बीज फलों से नहीं आते। किसी एक परिभाषा द्वारा पादपों के फलों के बीच में पायी जाने वाली भारी विविधता की व्याख्या नहीं की जा सकती है। छद्मफल (झूठा फल, सहायक फल) जैसा शब्द, अंजीर जैसे फलों या उन पादप संरचनाओं के लिए प्रयुक्त होता है जो फल जैसे दिखते तो है पर मूलत: उनकी उत्पप्ति किसी पुष्प या पुष्पों से नहीं होती। कुछ अनावृतबीजी, जैसे कि यूउ के मांसल बीजचोल फल सदृश होते है जबकि कुछ जुनिपरों के मांसल शंकु बेरी जैसे दिखते है। फल शब्द गलत रूप से कई शंकुधारी वृक्षों के बीज-युक्त मादा शंकुओं के लिए भी होता है। .

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बकरी

बकरी और उसके बच्चे बकरी एक पालतू पशु है, जिसे दूध तथा मांस के लिये पाला जाता है। इसके अतिरिक्त इससे रेशा, चर्म, खाद एवं बाल प्राप्त होता है। विश्व में बकरियाँ पालतू व जंगली रूप में पाई जाती हैं और अनुमान है कि विश्वभर की पालतू बकरियाँ दक्षिणपश्चिमी एशिया व पूर्वी यूरोप की जंगली बकरी की एक वंशज उपजाति है। मानवों ने वरणात्मक प्रजनन से बकरियों को स्थान और प्रयोग के अनुसार अलग-अलग नस्लों में बना दिया गया है और आज दुनिया में लगभग ३०० नस्लें पाई जाती हैं। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार सन् २०११ में दुनिया-भर में ९२.४ करोड़ से अधिक बकरियाँ थीं। .

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ब्रह्मा

ब्रह्मा  सनातन धर्म के अनुसार सृजन के देव हैं। हिन्दू दर्शनशास्त्रों में ३ प्रमुख देव बताये गये है जिसमें ब्रह्मा सृष्टि के सर्जक, विष्णु पालक और महेश विलय करने वाले देवता हैं। व्यासलिखित पुराणों में ब्रह्मा का वर्णन किया गया है कि उनके चार मुख हैं, जो चार दिशाओं में देखते हैं।Bruce Sullivan (1999), Seer of the Fifth Veda: Kr̥ṣṇa Dvaipāyana Vyāsa in the Mahābhārata, Motilal Banarsidass, ISBN 978-8120816763, pages 85-86 ब्रह्मा को स्वयंभू (स्वयं जन्म लेने वाला) और चार वेदों का निर्माता भी कहा जाता है।Barbara Holdrege (2012), Veda and Torah: Transcending the Textuality of Scripture, State University of New York Press, ISBN 978-1438406954, pages 88-89 हिन्दू विश्वास के अनुसार हर वेद ब्रह्मा के एक मुँह से निकला था। ज्ञान, विद्या, कला और संगीत की देवी सरस्वती ब्रह्मा की पत्नी हैं। बहुत से पुराणों में ब्रह्मा की रचनात्मक गतिविधि उनसे बड़े किसी देव की मौजूदगी और शक्ति पर निर्भर करती है। ये हिन्दू दर्शनशास्त्र की परम सत्य की आध्यात्मिक संकल्पना ब्रह्मन् से अलग हैं।James Lochtefeld, Brahman, The Illustrated Encyclopedia of Hinduism, Vol.

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बैचलर ऑफ़ आयुर्वेद मेडिसिन एंड सर्जरी

बैचलर ऑफ आयुर्वेद मेडिसिन एंड सर्जरी (Bachelor of Ayurvedic Medicine and Surgery (B.A.M.S.)) भारत में चिकित्सा की एक डिग्री है। यह १२वीं कक्षा के बाद साढ़े पाँच वर्ष की अवधि में पूरी की जाती है, जिसमें एक वर्ष का इंटर्नशिप भी सम्मिलित है। बीएएमएस का डिग्रीधारी व्यक्ति भारत में कहीं भी प्रैक्टिस कर सकता है। इस पाठ्यक्रम में शरीररचना विज्ञान, शरीरक्रिया विज्ञान, चिकित्सा के सिद्धान्त, रोगों से बचाव तथा सामाजिक चिकित्सा, फर्माकोलोजी, विषविज्ञान (toxicology), फोरेंसिक चिकित्सा, कान-नाक-गले की चिकित्सा, आँख की चिकित्सा, शल्यक्रिया के सिद्धान्त आदि का पठन-पाठन होता ही है इसके साथ ही आयुर्वेद की भी शिक्षा दी जाती है। कुछ विशेषज्ञों का मत है कि भविष्य में बीएएमएस और एमबीबीएस का एकीकरण किया जा सकता है। .

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भरद्वाज

भरद्वाज प्राचीन भारतीय ऋषि थे। चरक संहिता के अनुसार भरद्वाज ने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान पाया। ऋक्तंत्र के अनुसार वे ब्रह्मा, बृहस्पति एवं इन्द्र के बाद वे चौथे व्याकरण-प्रवक्ता थे। उन्होंने व्याकरण का ज्ञान इन्द्र से प्राप्त किया था (प्राक्तंत्र 1.4) तो महर्षि भृगु ने उन्हें धर्मशास्त्र का उपदेश दिया। तमसा-तट पर क्रौंचवध के समय भरद्वाज वाल्मीकि के साथ थे। महर्षि भरद्वाज व्याकरण, आयुर्वेद संहित, धनुर्वेद, राजनीतिशास्त्र, यंत्रसर्वस्व, अर्थशास्त्र, पुराण, शिक्षा आदि पर अनेक ग्रंथों के रचयिता हैं। पर आज यंत्र सर्वस्व तथा शिक्षा ही उपलब्ध हैं। वायुपुराण के अनुसार उन्होंने एक पुस्तक आयुर्वेद संहिता लिखी थी, जिसके आठ भाग करके अपने शिष्यों को सिखाया था। चरक संहिता के अनुसार उन्होंने आत्रेय पुनर्वसु को कायचिकित्सा का ज्ञान प्रदान किया था। ऋषि भरद्वाज को प्रयाग का प्रथम वासी माना जाता है अर्थात ऋषि भरद्वाज ने ही प्रयाग को बसाया था। प्रयाग में ही उन्होंने घरती के सबसे बड़े गुरूकुल(विश्वविद्यालय) की स्थापना की थी और हजारों वर्षों तक विद्या दान करते रहे। वे शिक्षाशास्त्री, राजतंत्र मर्मज्ञ, अर्थशास्त्री, शस्त्रविद्या विशारद, आयुर्वेेद विशारद,विधि वेत्ता, अभियाँत्रिकी विशेषज्ञ, विज्ञानवेत्ता और मँत्र द्रष्टा थे। ऋग्वेेद के छठे मंडल के द्रष्टाऋषि भरद्वाज ही हैं। इस मंडल में 765 मंत्र हैं। अथर्ववेद में भी ऋषि भरद्वाज के 23 मंत्र हैं। वैदिक ऋषियों में इनका ऊँचा स्थान है। आपके पिता वृहस्पति और माता ममता थीं। ऋषि भरद्वाज को आयुर्वेद और सावित्र्य अग्नि विद्या का ज्ञान इन्द्र और कालान्तर में भगवान श्री ब्रम्हा जी द्वारा प्राप्त हुआ था। अग्नि के सामर्थ्य को आत्मसात कर ऋषि ने अमृत तत्व प्राप्त किया था और स्वर्ग लोक जाकर आदित्य से सायुज्य प्राप्त किया था। (तैoब्राम्हण3/10/11) सम्भवतः इसी कारण ऋषि भरद्वाज सर्वाधिक आयु प्राप्त करने वाले ऋषियों में से एक थे। चरक ऋषि ने उन्हें अपरिमित आयु वाला बताया है। (सूत्र-स्थान1/26) ऋषि भरद्वाज ने प्रयाग के अधिष्ठाता भगवान श्री माधव जो साक्षात श्री हरि हैं, की पावन परिक्रमा की स्थापना भगवान श्री शिव जी के आशीर्वाद से की थी। ऐसा माना जाता है कि भगवान श्री द्वादश माधव परिक्रमा सँसार की पहली परिक्रमा है। ऋषि भरद्वाज ने इस परिक्रमा की तीन स्थापनाएं दी हैं- 1-जन्मों के संचित पाप का क्षय होगा, जिससे पुण्य का उदय होगा। 2-सभी मनोरथ की पूर्ति होगी। 3-प्रयाग में किया गया कोई भी अनुष्ठान/कर्मकाण्ड जैसे अस्थि विसर्जन, तर्पण, पिण्डदान, कोई संस्कार यथा मुण्डन यज्ञोपवीत आदि, पूजा पाठ, तीर्थाटन,तीर्थ प्रवास, कल्पवास आदि पूर्ण और फलित नहीं होंगे जबतक स्थान देेेेवता अर्थात भगवान श्री द्वादश माधव की परिक्रमा न की जाए। आयुर्वेद सँहिता, भरद्वाज स्मृति, भरद्वाज सँहिता, राजशास्त्र, यँत्र-सर्वस्व(विमान अभियाँत्रिकी) आदि ऋषि भरद्वाज के रचित प्रमुख ग्रँथ हैं। ऋषि भरद्वाज खाण्डल विप्र समाज के अग्रज है।खाण्डल विप्रों के आदि प्रणेता ऋषि भरद्वाज हैं। मनुष्य को जगाने के लिए ऋषि एक स्थान पर कहते हैं-अग्नि को देखो यह मरणधर्मा मानवों स्थित अमर ज्योति है। यह अति विश्वकृष्टि है अर्थात सर्वमनुष्य रूप है। यह अग्नि सब कार्यों में प्रवीणतम ऋषि है जो मानव में रहती है। उसे प्रेरित करती है ऊपर उठने के लिए। अतः स्वयं को पहचानो। भाटुन्द गाँव के श्री आदोरजी महाराज भारद्वाज गोत्र के थे। सबसे ज्यादा जागीर वाले सेवड़ राजपुरोहितो की गोत्र भी भारद्वाज है, इनके आज भी कई ठिकाने, हवेलियां व कोटड़िया विद्यमान है। सेवड़ राजपुरोहितो का इतिहास बड़ा ही गौरव पूर्ण रहा इन्होंने कई युद्ध लड़े जिसके कारण इन्हें खूब जागीर mili.

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भाव प्रकाश

भावप्रकाश आयुर्वेद का एक मूल ग्रन्थ है। इसके रचयिता आचार्य भाव मिश्र थे। भावप्रकाश में आयुवैदिक औषधियों में प्रयुक्त वनस्पतियों एवं जड़ी-बूटियों का वर्णन है। भावप्रकाश, माधवनिदान तथा शार्ङ्गधरसंहिता को संयुक्त रूप से 'लघुत्रयी' कहा जाता है। भावप्रकाशनिघण्टु भावप्रकाश का एक खण्ड है जिसमें सभी प्रकार के औद्भिज, प्राणिज व पार्थिव पदार्थों के गुणकर्मों का विस्तृत विवेचन मूल संस्कृत श्लोकों, उनके हिन्दी अर्थ, समानार्थक अन्य भाषाओं के शब्दों व सम्पूर्ण व्याख्या सहित दिया गया है। .

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भाव मिश्र

भाव मिश्र को प्राचीन भारतीय औषधि-शास्त्र का अन्तिम आचार्य माना जाता है। उनकी जन्मतिथि और स्थान आदि के बारे में कुछ भी पता नहीं है किन्तु इतना ज्ञात है कि सम्वत १५५० में वे वाराणसी में आचार्य थे और अपनी कीर्ति के शिखर पर विराजमान थे। उन्होने भावप्रकाश नामक आयुर्वेद ग्रन्थ की रचना की है। उनके पिता का नाम लटकन मिश्र था। आचार्य भाव प्रकाश का समय सोलहवीं सदी के आसपास है। आचार्य भाव मिश्र अपने पूर्व आचार्यो के ग्रन्थों से सार भाग ग्रहण कर अत्यन्त सरल भाषा में इस ग्रन्थ का निर्माण किया है। उन्होने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही यह बता दिया कि यह शरीर, धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष इन पुरुषार्थ चतुष्टक की प्राप्ति का मूल है। और जब यह शरीर निरोग रहेगा, तभी कुछ प्राप्त कर सकता है। इसलिए शरीर को निरोग रखना प्रत्येक व्यक्ति का पहला कर्तव्य है। इस संस्करण में विमर्श का अधोन्त परिष्कार, विभिन्न वन औषधियों का अनुसंधान, साहित्य का अंतर भाव एवं प्रत्येक वनस्पति का यथास्थिति, असंदिग्ध परिचय देने की चेष्टा की गई है। तथा उन औषधियों का आभ्यांतर प्रयोग यथास्थल किया गया है। .

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भेलसंहिता

भेलसंहिता संस्कृत में रचित आयुर्वेद का ग्रन्थ है। इसके रचयिता भेलाचार्य हैं जो अत्रेय के छः शिष्यों में से एक थे। अग्निवेश भी अत्रेय के ही शिष्य थे। भेलसंहिता कई शताब्दियों तक अप्राप्य हो गई थी किन्तु १८८० में ताड़पत्र पर लिपिबद्ध एक प्रति प्राप्त हुई। इस प्रति की भाषा संस्कृत तथा लिपि तेलुगु है। यह तन्जावुर के राजमहल पुस्तकालय में मिली। इसकी रचना 1650 के आसपास हुई लगती है। इसमें बहुत सी त्रुटियाँ हैं तथा कुछ पत्र इतने खराब हो गए हैं कि उन्हें पढ़ पाना सम्भव नहीं है। चरकसंहिता की भांति इस ग्रन्थ में भी आठ भाग हैं। प्रत्येक अध्याय के अन्त में इत्याह भगवानात्रेय (ऐसा भगवान अत्रेय ने कहा) आता है। .

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माधव निदान

माधवनिदानम् आयुर्वेद का प्रसिद्ध प्राचीन ग्रन्थ है। इसका मूल नाम 'रोगविनिश्चय' है। यह माधवकर द्वारा प्रणीत है जो आचार्य इन्दुकर के पुत्र थे और ७वीं शताब्दी में पैदा हुए थे। माधव ने वाग्भट के वचनों का उल्लेख किया है। विद्धानों ने माधवकर को बंगाली होना प्रतिपादित किया है। एक ही ग्रन्थ द्वारा तत्कालीन समस्त रोगों के निदान के लिये इस ग्रन्थ का निर्माण किया गया था। चिकित्सकों द्वारा रोगों के निदान में उत्पन्न तत्कालीन सभी कठिनाइयों का समाधान इस ग्रन्थ में उपस्थित था। अतः इस ग्रन्थ को रोगनिदान के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ के रूप में चिकित्सा-जगत में मान्यता मिली। इस ग्रन्थ की महत्ता का वर्णन परवर्ती आचार्यों ने '"निदाने माधवः श्रेष्ठः"' (निदान में माधव श्रेष्ठ हैं) कहकर किया है तथा लघुत्रयी के अन्तर्गत इसे स्थान दिया गया है। माधवकर ने इस ग्रन्थ के अन्त में लिखा है कि सभी रोगों के सम्यक् विनिश्चय के लिए अन्य ग्रन्थों एवं तत्कालीन चिकित्सा-जगत में प्रचलित सर्वश्रेष्ठ नैदानिक विषय-सामग्री को एकत्र करके इस ग्रन्थ में संकलित किया गया है। इस ग्रन्थ के निर्माण में चिकित्सा-जगत में तत्कालीन प्रचलित अनेक मुनियों के ज्ञान को रोगों के पंचनिदान उपद्रव एवं अरिष्ट लक्षणों के रूप में समाहित किया गया है। वस्तुतः इस ग्रन्थ के निर्माण में प्रमुख रूप से चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता एवं अष्टांगहृदय आदि ग्रन्थों से संग्रहीत रोगनिदान एवं इन संहिताओं में अनुपलब्ध रोगों के निदान का तत्कालीन अन्य ग्रन्थों एवं स्वयं के नैदानिक अनुभव के आधार पर संकलन करके श्रीमाधवकर द्वारा रोगविनिश्चय नामक इस नैदानिक ग्रन्थ का प्रणयन हुआ है। माधवकर का अभिमत है कि अल्प मेधस्वी वैद्यों द्वारा विविध चिकित्सा-ग्रन्थों के उपयोग के बिना भी मात्र इस एक ग्रन्थ के सम्यक् उपयोग से सभी रोगों का सम्यक् निदान किया जा सकता है। .

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यूनानी चिकित्सा पद्धति

यूनानी चिकित्सा पद्धति को केवल यूनानी या हिकमत के नाम से भी पुकारा जाता है। इसे " यूनानी-तिब " या केवल " यूनान " के नाम से भी जाना जाता है। यूनानी तिब में यूनानी शब्द मूलत: " लोनियन " का अरबी रूपांतरण है जिसका अर्थ ग्रीक या यूनान है। भारत में सौ से अधिक यूनानी चिकित्सा विश्वविद्यालयों में यूनानी चिकित्सा पद्धति सिखाया जाता है। यह प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद के करीब है। इसे भारत में भी वैकल्पिक चिकित्सा माना गया है। यूनानी चिकित्सा पद्धति का इतिहास बड़ा शानदार था पर वर्तमान में एलोपैथी के सामने इसका टिकना बड़ा कठिन हो रहा है। .

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योग

पद्मासन मुद्रा में यौगिक ध्यानस्थ शिव-मूर्ति योग भारत और नेपाल में एक आध्यात्मिक प्रकिया को कहते हैं जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने (योग) का काम होता है। यह शब्द, प्रक्रिया और धारणा बौद्ध धर्म,जैन धर्म और हिंदू धर्म में ध्यान प्रक्रिया से सम्बंधित है। योग शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्री लंका में भी फैल गया है और इस समय सारे सभ्य जगत्‌ में लोग इससे परिचित हैं। इतनी प्रसिद्धि के बाद पहली बार ११ दिसंबर २०१४ को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रत्येक वर्ष २१ जून को विश्व योग दिवस के रूप में मान्यता दी है। भगवद्गीता प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है। उसमें योग शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे बुद्धियोग, संन्यासयोग, कर्मयोग। वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं पतंजलि योगदर्शन में क्रियायोग शब्द देखने में आता है। पाशुपत योग और माहेश्वर योग जैसे शब्दों के भी प्रसंग मिलते है। इन सब स्थलों में योग शब्द के जो अर्थ हैं वह एक दूसरे के विरोधी हैं परंतु इस प्रकार के विभिन्न प्रयोगों को देखने से यह तो स्पष्ट हो जाता है, कि योग की परिभाषा करना कठिन कार्य है। परिभाषा ऐसी होनी चाहिए जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से मुक्त हो, योग शब्द के वाच्यार्थ का ऐसा लक्षण बतला सके जो प्रत्येक प्रसंग के लिये उपयुक्त हो और योग के सिवाय किसी अन्य वस्तु के लिये उपयुक्त न हो। .

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रस (काव्य शास्त्र)

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं। रस का शाब्दिक अर्थ है - निचोड़। काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप अप्रमेय और अनिर्वचनीय है। .

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रसरत्नसमुच्चय

रसरत्नसमुच्चय रस चिकित्सा का सर्वांगपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें रसों के उत्तम उपयोग तथा पारद-लोह के अनेक संस्कारों का उत्तम वर्णन है। यह वाग्भट की रचना है। रसशास्त्र के मौलिक रसग्रन्थों में रसरत्नसमुच्चय का स्थान सर्वोच्च है। इसमें पाये जाने वाले स्वर्ण, रजत आदि का निर्माण तथा विविध रोगों को दूर करने के लिये उत्तमोत्तम रस तथा कल्प अपनी सादृश्यता नहीं रखते। यह ग्रन्थ जितना उच्च है उतना ही गूढ़ और व्यावहारिकता में कठिन भी है। .

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रसविद्या

रसविद्या, मध्यकालीन भारत की किमियागारी (alchemy) की विद्या है जो दर्शाती है कि भारत भौतिक संस्कृति में भी अग्रणी था। भारत में केमिस्ट्री (chemistry) के लिये "रसायन शास्त्र", रसविद्या, रसतन्त्र, रसशास्त्र और रसक्रिया आदि नाम प्रयोग में आते थे। जहाँ रसविद्या से सम्बन्धित क्रियाकलाप किये जाते थे उसे रसशाला कहते थे। इस विद्या के मर्मज्ञों को रसवादिन् कहा जाता था। रसविद्या का बड़ा महत्व माना गया है। रसचण्डाशुः नामक ग्रन्थ में कहा गया है- इसी तरह- .

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रोग

पहले मोटापा को 'बड़प्पन' का सूचक माना जाता था। आजकल प्राय: इसे रोग माना जाता है। रोग अर्थात अस्वस्थ होना। यह चिकित्साविज्ञान का मूलभूत संकल्पना है। प्रायः शरीर के पूर्णरूपेण कार्य करने में में किसी प्रकार की कमी होना 'रोग' कहलाता है। किन्तु रोग की परिभाषा करना उतना ही कठिन है जितना 'स्वास्थ्य' को परिभाषित करना। .

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शार्ङ्गधर

शार्ङ्गधर मध्यकाल के एक आयुर्वेदाचार्य थे जिन्होने शार्ङ्गधरसंहिता नामक आयुर्वैदिक ग्रन्थ की रचना की। शार्ङ्गधर का जन्म समय १३वीं-१४वीं सदी के आसपास माना गया है। शार्ङ्गधरसंहिता में ग्रन्थकार ने कुछ ही जगह अपने नामों का उल्लेख किया है। इनके पिता पुरातत्ववेत्ता थे जिनका नाम दामोदर एवं पितामह का नाम राघवदेव था। आचार्य शार्ङ्गधर केवल चिकित्साशास्त्र के मर्मज्ञ ही नहीं थे, अपितु कवित्व शक्ति से सम्पन्न एवं विविध शास्त्रों के ज्ञाता थे। आचार्य शार्ङ्गधर के नाम से दो प्रसिद्ध ग्रन्थ है (१) शार्ङ्गधरसंहिता (२) शार्ङ्गधरपद्धति। .

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शार्ङ्गधरसंहिता

सार्ङगधरसंहिता, आयुर्वेद का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसके रचयिता शार्ङ्गधर हैं। इसकी रचना १२वीं शताब्दी में हुई थी। इसमें तीन खण्ड हैं - प्रथम खण्ड, मध्यम खण्ड तथा उत्तर खण्ड। श्री शार्ंगधराचार्य ने इस ग्रन्थ की विषयवस्तु को प्राचीन आर्ष ग्रन्थों (चरक एवं सुश्रुत संहिताओं तथा कुछ रसायनशास्त्रीय ग्रन्थों) से संग्रह करके इसमें साररूप में प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ पर कम से कम तीन टीकाएं हैं- हरि स्वामी, सायन और कवीन्द्र के भाष्य। आचार्य ने इसकी भाषा को सरल एवं समझने योग्य रखा है। वे इसमें अति विस्तार से बचे हैं। शार्ङ्गधरसंहिता, लघुत्रयी का एक महत्वपूर्ण संहिता है। इस संहिता में आयुर्वेद की विषयवस्तु चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता से ली गयी है। .

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शास्त्र

व्यापक अर्थों में किसी विशिष्ट विषय या पदार्थसमूह से सम्बन्धित वह समस्त ज्ञान जो ठीक क्रम से संग्रह करके रखा गया हो, शास्त्र कहलाता है। जैसे, भौतिकशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, प्राणिशास्त्र, अर्थशास्त्र, विद्युत्शास्त्र, वनस्पतिशास्त्र आदि। इस अर्थ में यह 'विज्ञान' का पर्याय है। 'शास्त्र' शब्द 'शासु अनुशिष्टौ' से निष्पन्न है जिसका अर्थ 'अनुशासन या उपदेश करना' है। किसी भी विषय, विद्या अथवा कला के मौलिक सिद्धान्तों से लेकर विषय-वस्तु के सभी आयामों का सुनियोजित, सूत्रबद्ध निरूपण शास्त्र है। हमारे यहाँ शास्त्र की परिभाषा इस प्रकार की गई है- अर्थात् जो शिक्षा अनुशासन प्रदान कर हमारी रक्षा करती है, मार्गदर्शन करती है, कभी-कभी हमारी उँगली पकड़कर हमें चलाती है, उसे ‘शास्त्र’ कहा गया है। इस प्रकार यदि हम शास्त्र व ग्रन्थ की तरफ देखें तो शास्त्र बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। किन्तु धर्म के सन्दर्भ में, 'शास्त्र' ऋषियों और मुनियों आदि के बनाए हुए वे प्राचीन ग्रंथों को कहते हैं जिनमें लोगों के हित के लिये अनेक प्रकार के कर्तव्य बतलाए गए हैं और अनुचित कृत्यों का निषेध किया गया है। दूसरे शब्दों में शास्त्र वे धार्मिक ग्रंथ हैं जो लोगों के हित और अनुशासन के लिये बनाए गए हैं। हिन्दुओं में वे ही ग्रंथ 'शास्त्र' माने गए हैं जो वेदमूलक हैं। इनकी संख्या १८ कही गई है और नाम इस प्रकार दिए गए हैं—शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, छंद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, मीमांसा, न्याय, धर्मशास्त्र, पुराण, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गांधर्ववेद और अर्थशास्त्र। इन अठारहों शास्त्रों को 'अठारह विद्याएँ' भी कहते हैं। इस प्रकार हिंदुओं की प्रायः सभी धार्मिक पुस्तकें 'शास्त्र' की कोटि में आ जाती हैं। साधारणतः शास्त्र में बतलाए हुए काम विधेय माने जाते है और जो बातें शास्त्रों में वर्जित हैं, वे निषिद्ध और त्याज्य समझी जाती हैं। .

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सिद्ध चिकित्सा

आयुर्वेदिक उपचार सिद्ध चिकित्सा भारत के तमिलनाडु की एक पारम्परिक चिकित्सा पद्धति है। भारत में इसके अतिरिक्त आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा पद्धतियाँ भी प्रचलित हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि उत्तर भारत में यह पद्धति ९ नाथों एवं ८४ सिद्धों द्वारा विकसित की गयी जबकि दक्षिण भारत में १८ सिद्धों (जिन्हें 'सिद्धर' कहते हैं) द्वारा विकसित की गयी। इन सिद्धों को यह ज्ञान शिव और पार्वती से प्राप्त हुआ। यह चिकित्सा पद्धति भारत की ही नहीं, विश्व की सर्वाधिक प्राचीन चिकित्सा-पद्धति मानी जा सकती है। .

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सुश्रुत

सुश्रुत प्राचीन भारत के महान चिकित्साशास्त्री एवं शल्यचिकित्सक थे। उनको शल्य चिकित्सा का जनक कहा जाता है। .

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सुश्रुत संहिता

सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद एवं शल्यचिकित्सा का प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ है। सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद के तीन मूलभूत ग्रन्थों में से एक है। आठवीं शताब्दी में इस ग्रन्थ का अरबी भाषा में 'किताब-ए-सुस्रुद' नाम से अनुवाद हुआ था। सुश्रुतसंहिता में १८४ अध्याय हैं जिनमें ११२० रोगों, ७०० औषधीय पौधों, खनिज-स्रोतों पर आधारित ६४ प्रक्रियाओं, जन्तु-स्रोतों पर आधारित ५७ प्रक्रियाओं, तथा आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का उल्लेख है। इसके रचयिता सुश्रुत हैं जो छठी शताब्दी ईसापूर्व काशी में जन्मे थे। सुश्रुतसंहिता बृहद्त्रयी का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह संहिता आयुर्वेद साहित्य में शल्यतन्त्र की वृहद साहित्य मानी जाती है। सुश्रुतसंहिता के उपदेशक काशिराज धन्वन्तरि हैं, एवं श्रोता रूप में उनके शिष्य आचार्य सुश्रुत सम्पूर्ण संहिता की रचना की है। इस सम्पूर्ण ग्रंथ में रोगों की शल्यचिकित्सा एवं शालाक्य चिकित्सा ही मुख्य उद्देश्य है। शल्यशास्त्र को आचार्य धन्वन्तरि पृथ्वी पर लाने वाले पहले व्यक्ति थे। बाद में आचार्य सुश्रुत ने गुरू उपदेश को तंत्र रूप में लिपिबद्ध किया, एवं वृहद ग्रन्थ लिखा जो सुश्रुत संहिता के नाम से वर्तमान जगत में रवि की तरह प्रकाशमान है। आचार्य सुश्रुत त्वचा रोपण तन्त्र (Plastic-Surgery) में भी पारंगत थे। आंखों के मोतियाबिन्दु निकालने की सरल कला के विशेषज्ञ थे। सुश्रुत संहिता शल्यतंत्र का आदि ग्रंथ है। .

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स्नान

जवानी के फौब्बारे में स्नान का स्वप्न पानी या किसी अन्य तरल में शरीर को डुबाकर या बिना डुबाये शरीर को धोना स्नान कहलाता है। स्नान कई प्रयोजनोंके लिये किया जाता है; जैसे- स्वच्छता, धार्मिक अनुष्ठान, चिकित्सकीय कारण आदि। लोग चॉकलेट, कीचड़, दूध, शम्पेन आदि में भी स्नान करते हैं। सूरज के प्रकाश में खुले बदन बैठना या लेटना भी स्नान (सूर्य स्नान) कहलाता है। रोमन स्नानागर .

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स्मृतिलोप

नई यादों का अधिग्रहण अम्लिया के साथ मरीज़ नई जानकारी, विशेष रूप से गैर-घोषणात्मक ज्ञान सीख सकते हैं। हालांकि, घने एंटरोग्रेड अमेनेसिया वाले कुछ रोगियों को एपिसोड याद नहीं है, जिसके दौरान उन्होंने पहले सूचना को सीखा या देखा। घोषणात्मक जानकारी एंटरोग्रेड एमनेसिया वाले कुछ रोगी अभी भी कुछ अर्थपूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकते हैं, भले ही यह अधिक कठिन हो और शायद अधिक सामान्य ज्ञान से असंबंधित रहे। एच.एम.

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स्वास्थ्य

विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O.) ने सन् १९४८ में स्वास्थ्य या आरोग्य की निम्नलिखित परिभाषा दी: स्वास्थ्य सिर्फ बीमारियों की अनुपस्थिति का नाम नहीं है। हमें सर्वांगीण स्वास्थ्य के बारे में अवश्य जानकारी होनी चाहिए। स्वास्थ्य का अर्थ विभिन्न लोगों के लिए अलग-अलग होता है। लेकिन अगर हम एक सार्वभौमिक दृष्टिकोण की बात करें तो अपने आपको स्वस्थ कहने का यह अर्थ होता है कि हम अपने जीवन में आनेवाली सभी सामाजिक, शारीरिक और भावनात्मक चुनौतियों का प्रबंधन करने में सफलतापूर्वक सक्षम हों। वैसे तो अपने आपको स्वस्थ रखने के ढेर सारी आधुनिक तकनीक मौजूद हैं, लेकिन ये सारी उतनी अधिक कारगर नहीं हैं। .

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हैदराबाद

हैदराबाद (तेलुगु: హైదరాబాదు,उर्दू: حیدر آباد) भारत के राज्य तेलंगाना तथा आन्ध्र प्रदेश की संयुक्त राजधानी है, जो दक्कन के पठार पर मूसी नदी के किनारे स्थित है। प्राचीन काल के दस्तावेजों के अनुसार इसे भाग्यनगर के नाम से जाना जाता था। आज भी यह प्राचीन नाम अत्यन्त ही लोकप्रिय है। कहा जाता है कि किसी समय में इस ख़ूबसूरत शहर को क़ुतुबशाही परम्परा के पाँचवें शासक मुहम्मद कुली क़ुतुबशाह ने अपनी प्रेमिका भागमती को उपहार स्वरूप भेंट किया था, उस समय यह शहर भागनगर के नाम से जाना जाता था। भागनगर समय के साथ हैदराबाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसे 'निज़ामों का शहर' तथा 'मोतियों का शहर' भी कहा जाता है। यह भारत के सर्वाधिक विकसित नगरों में से एक है और भारत में सूचना प्रौधोगिकी एवं जैव प्रौद्यौगिकी का केन्द्र बनता जा रहा है। हुसैन सागर से विभाजित, हैदराबाद और सिकंदराबाद जुड़वां शहर हैं। हुसैन सागर का निर्माण सन १५६२ में इब्राहीम कुतुब शाह के शासन काल में हुआ था और यह एक मानव निर्मित झील है। चारमीनार, इस क्षेत्र में प्लेग महामारी के अंत की यादगार के तौर पर मुहम्मद कुली कुतुब शाह ने १५९१ में, शहर के बीचों बीच बनवाया था। गोलकुंडा के क़ुतुबशाही सुल्तानों द्वारा बसाया गया यह शहर ख़ूबसूरत इमारतों, निज़ामी शानो-शौक़त और लजीज खाने के कारण मशहूर है और भारत के मानचित्र पर एक प्रमुख पर्यटन स्थल के रूप में अपनी अलग अहमियत रखता है। निज़ामों के इस शहर में आज भी हिन्दू-मुस्लिम सांप्रदायिक सौहार्द्र से एक-दूसरे के साथ रहकर उनकी खुशियों में शरीक होते हैं। अपने उन्नत इतिहास, संस्कृति, उत्तर तथा दक्षिण भारत के स्थापत्य के मौलिक संगम, तथा अपनी बहुभाषी संस्कृति के लिये भौगोलिक तथा सांस्कृतिक दोनों रूपों में जाना जाता है। यह वह स्थान रहा है जहां हिन्दू और मुसलमान शांतिपूर्वक शताब्दियों से साथ साथ रह रहे हैं। निजामी ठाठ-बाट के इस शहर का मुख्य आकर्षण चारमीनार, हुसैन सागर झील, बिड़ला मंदिर, सालारजंग संग्रहालय आदि है, जो देश-विदेश इस शहर को एक अलग पहचान देते हैं। यह भारतीय महानगर बंगलौर से 574 किलोमीटर दक्षिण में, मुंबई से 750 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में तथा चेन्नई से 700 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित है। किसी समय नवाबी परम्परा के इस शहर में शाही हवेलियाँ और निज़ामों की संस्कृति के बीच हीरे जवाहरात का रंग उभर कर सामने आया तो कभी स्वादिष्ट नवाबी भोजन का स्वाद। इस शहर के ऐतिहासिक गोलकुंडा दुर्ग की प्रसिद्धि पार-द्वार तक पहुँची और इसे उत्तर भारत और दक्षिणांचल के बीच संवाद का अवसर सालाजार संग्रहालय तथा चारमीनार ने प्रदान किया है। वर्ष २०११ की जनगणना के अनुसार इस महानगर की जनसंख्या ६८ लाख से अधिक है। .

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होम्योपैथी

thumb होम्योपैथी, एक चिकित्सा पद्धति है। होम्‍योपैथी चिकित्‍सा विज्ञान के जन्‍मदाता डॉ॰ क्रिश्चियन फ्राइडरिक सैम्यूल हानेमान है। यह चिकित्सा के 'समरूपता के सिंद्धात' पर आधारित है जिसके अनुसार औषधियाँ उन रोगों से मिलते जुलते रोग दूर कर सकती हैं, जिन्हें वे उत्पन्न कर सकती हैं। औषधि की रोगहर शक्ति जिससे उत्पन्न हो सकने वाले लक्षणों पर निर्भर है। जिन्हें रोग के लक्षणों के समान किंतु उनसे प्रबल होना चाहिए। अत: रोग अत्यंत निश्चयपूर्वक, जड़ से, अविलंब और सदा के लिए नष्ट और समाप्त उसी औषधि से हो सकता है जो मानव शरीर में, रोग के लक्षणों से प्रबल और लक्षणों से अत्यंत मिलते जुलते सभी लक्षण उत्पन्न कर सके। होमियोपैथी पद्धति में चिकित्सक का मुख्य कार्य रोगी द्वारा बताए गए जीवन-इतिहास एवं रोगलक्षणों को सुनकर उसी प्रकार के लक्षणों को उत्पन्न करनेवाली औषधि का चुनाव करना है। रोग लक्षण एवं औषधि लक्षण में जितनी ही अधिक समानता होगी रोगी के स्वस्थ होने की संभावना भी उतनी ही अधिक रहती है। चिकित्सक का अनुभव उसका सबसे बड़ा सहायक होता है। पुराने और कठिन रोग की चिकित्सा के लिए रोगी और चिकित्सक दोनों के लिए धैर्य की आवश्यकता होती है। कुछ होमियोपैथी चिकित्सा पद्धति के समर्थकों का मत है कि रोग का कारण शरीर में शोराविष की वृद्धि है। होमियोपैथी चिकित्सकों की धारणा है कि प्रत्येक जीवित प्राणी हमें इंद्रियों के क्रियाशील आदर्श (Êfunctional norm) को बनाए रखने की प्रवृत्ति होती है औरे जब यह क्रियाशील आदर्श विकृत होता है, तब प्राणी में इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए अनेक प्रतिक्रियाएँ होती हैं। प्राणी को औषधि द्वारा केवल उसके प्रयास में सहायता मिलती है। औषधि अल्प मात्रा में देनी चाहिए, क्योंकि बीमारी में रोगी अतिसंवेगी होता है। औषधि की अल्प मात्रा प्रभावकारी होती है जिससे केवल एक ही प्रभाव प्रकट होता है और कोई दुशपरिणाम नहीं होते। रुग्णावस्था में ऊतकों की रूपांतरित संग्राहकता के कारण यह एकावस्था (monophasic) प्रभाव स्वास्थ्य के पुन: स्थापन में विनियमित हो जाता है। विद्वान होम्योपैथी को छद्म विज्ञान मानते हैं। .

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घी

घी घी (संस्कृत: घृतम्), एक विशेष प्रकार का मख्खन (बटर) है जो भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीन काल से भोजन के एक अवयव के रूप में प्रयुक्त होता रहा है। भारतीय भोजन में खाद्य तेल के स्थान पर भी प्रयुक्त होता है। यह दूध के मक्खन से बनाया जाता है। दक्षिण एशिया एवं मध्य पूर्व के भोजन में यह एक महत्वपूर्ण अवयव है। .

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वसा

lipid एक ट्राईग्लीसराइड अणु वसा अर्थात चिकनाई शरीर को क्रियाशील बनाए रखने में सहयोग करती है। वसा शरीर के लिए उपयोगी है, किंतु इसकी अधिकता हानिकारक भी हो सकती है। यह मांस तथा वनस्पति समूह दोनों प्रकार से प्राप्त होती है। इससे शरीर को दैनिक कार्यों के लिए शक्ति प्राप्त होती है। इसको शक्तिदायक ईंधन भी कहा जाता है। एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए १०० ग्राम चिकनाई का प्रयोग करना आवश्यक है। इसको पचाने में शरीर को काफ़ी समय लगता है। यह शरीर में प्रोटीन की आवश्यकता को कम करने के लिए आवश्यक होती है। वसा का शरीर में अत्यधिक मात्रा में बढ़ जाना उचित नहीं होता। यह संतुलित आहार द्वारा आवश्यक मात्रा में ही शरीर को उपलब्ध कराई जानी चाहिए। अधिक मात्रा जानलेवा भी हो सकती है, यह ध्यान योग्य है। यह आमाशय की गतिशीलता में कमी ला देती है तथा भूख कम कर देती है। इससे आमाशय की वृद्धि होती है। चिकनाई कम हो जाने से रोगों का मुकाबला करने की शक्ति कम हो जाती है। अत्यधिक वसा सीधे स्रोत से हानिकारक है। इसकी संतुलित मात्रा लेना ही लाभदायक है। .

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वाग्भट

वाग्भट नाम से कई महापुरुष हुए हैं। इनका वर्णन इस प्रकार है: .

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विज्ञान

संक्षेप में, प्रकृति के क्रमबद्ध ज्ञान को विज्ञान (Science) कहते हैं। विज्ञान वह व्यवस्थित ज्ञान या विद्या है जो विचार, अवलोकन, अध्ययन और प्रयोग से मिलती है, जो किसी अध्ययन के विषय की प्रकृति या सिद्धान्तों को जानने के लिये किये जाते हैं। विज्ञान शब्द का प्रयोग ज्ञान की ऐसी शाखा के लिये भी करते हैं, जो तथ्य, सिद्धान्त और तरीकों को प्रयोग और परिकल्पना से स्थापित और व्यवस्थित करती है। इस प्रकार कह सकते हैं कि किसी भी विषय के क्रमबद्ध ज्ञान को विज्ञान कह सकते है। ऐसा कहा जाता है कि विज्ञान के 'ज्ञान-भण्डार' के बजाय वैज्ञानिक विधि विज्ञान की असली कसौटी है। .

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व्रण

एक बच्चे के पैर में अल्सर व्रण या अल्सर (Ulcer) शरीरपृष्ठ (body surface) पर संक्रमण द्वारा उत्पन्न होता है। इस संक्रमण के जीवविष (toxins) स्थानिक उपकला (epithelium) को नष्ट कर देते हैं। नष्ट हुई उपकला के ऊपर मृत कोशिकाएँ एवं पूय (pus) संचित हो जाता है। मृत कोशिकाओं तथा पूय के हट जाने पर नष्ट हुई उपकला के स्थान पर धीरे धीरे कणिकामय ऊतक (granular tissues) आने लगते हैं। इस प्रकार की विक्षति को व्रण कहते हैं। दूसरे शब्दों में संक्रमणोपरांत उपकला ऊतक की कोशिकीय मृत्यु को व्रण कहते है। किसी भी पृष्ठ के ऊपर, अथवा पार्श्व में, यदि कोई शोधयुक्त परिगलित (necrosed) भाग हो गया है, तो वहाँ व्रण उत्पन्न हो जाएगा। शीघ्र भर जानेवाले व्रण को सुदम्य व्रण कहते हैं। कभी-कभी कोई व्रण शीघ्र नहीं भरता। ऐसा व्रण दुदम्य हो जाता है, इसका कारण यह है कि उसमें या तो जीवाणुओं (bacteria) द्वारा संक्रमण होता रहता है, या व्रणवाले भाग में रक्त परिसंचरण (circulation of blood) उचित रूप से नहीं हो पाता। व्रण, पृष्ठ पर की एक कोशिका के बाद दूसरी कोशिका के नष्ट होने पर, बनता है। .

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औषधि

thumb औषधि वह पदार्थ है जिन की निश्चित मात्रा शरीर में निश्चित प्रकार का असर दिखाती है। इनका प्रयोजन चिकित्सा में होता है। किसी भी पदार्थ को औषधि के रूप में प्रयोग करके के लिए उस पदार्थ का गुण, मात्रा अनुसार व्यवहार, शरीर पर विभिन्न मात्राओं में होने वाला प्रभाव आदि की जानकारी अपरिहार्य है। औषधियाँ रोगों के इलाज में काम आती हैं। प्रारंभ में औषधियाँ पेड़-पौधों, जीव जंतुओं से आयुर्वेद के अनुसार प्राप्त की जाती थीं, लेकिन जैसे-जैसे रसायन विज्ञान का विस्तार होता गया, नए-नए तत्वों की खोज हुई तथा उनसे नई-नई औषधियाँ कृत्रिम विधि से तैयार की गईं। .

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आत्मा

आत्मा या आत्मन् पद भारतीय दर्शन के महत्त्वपूर्ण प्रत्ययों (विचार) में से एक है। यह उपनिषदों के मूलभूत विषय-वस्तु के रूप में आता है। जहाँ इससे अभिप्राय व्यक्ति में अन्तर्निहित उस मूलभूत सत् से किया गया है जो कि शाश्वत तत्त्व है तथा मृत्यु के पश्चात् भी जिसका विनाश नहीं होता। आत्मा का निरूपण श्रीमद्भगवदगीता या गीता में किया गया है। आत्मा को शस्त्र से काटा नहीं जा सकता, अग्नि उसे जला नहीं सकती, जल उसे गीला नहीं कर सकता और वायु उसे सुखा नहीं सकती। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नवीन शरीर धारण करता है। .

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आत्रेय

आत्रेय ब्राह्मणों का एक गोत्र है जिसकी उत्पत्ति अत्रि ऋषि से हुई। श्रेणी:ब्राह्मण गोत्र.

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आयुर्विज्ञान

आधुनिक गहन चिकित्सा कक्ष (ICU) आयुर्विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जिसका संबंध मानव शरीर को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका शमन करने तथा आयु बढ़ाने से है।आयुर्विज्ञान विज्ञान की वह शाखा है, जिसका संबंध मानव शरीर को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका निदान करने तथा आयु बढ़ाने से है। भारत आयुर्विज्ञान का जन्मदाता है। अपने प्रारम्भिक समय में आयुर्विज्ञान का अध्ययन जीव विज्ञान की एक शाखा के समान ही किया गया था। बाद में 'शरीर रचना' तथा 'शरीर क्रिया विज्ञान' आदि को इसका आधार बनाया गया। .

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आयुर्वेद का इतिहास

पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार संचार की प्राचीनतम् पुस्तक ऋग्वेद है। विभिन्न विद्वानों ने इसका रचना काल ईसा के ३,००० से ५०,००० वर्ष पूर्व तक का माना है। इस संहिता में भी आयुर्वेद के अतिमहत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण है। चरक, सुश्रुत, काश्यप आदि मान्य ग्रन्थ आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं। इससे आयुर्वेद की प्राचीनता सिद्ध होती है। अतः हम कह सकते हैं कि आयुर्वेद की रचनाकाल ईसा पूर्व ३,००० से ५०,००० वर्ष पहले यानि सृष्टि की उत्पत्ति के आस-पास या साथ का ही है। इस शास्त्र के आदि आचार्य अश्विनीकुमार माने जाते हैं जिन्होने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ा था। अश्विनी कुमारों से इंद्र ने यह विद्या प्राप्त की। इंद्र ने धन्वंतरि को सिखाया। काशी के राजा दिवोदास धन्वंतरि के अवतार कहे गए हैं। उनसे जाकर सुश्रुत ने आयुर्वेद पढ़ा। अत्रि और भारद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं। आय़ुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनीकुमार, धन्वंतरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त, अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश, भेड़, जातूकर्ण, पराशर, सीरपाणि हारीत), सुश्रुत और चरक। .

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इन्द्र

इन्द्र (या इंद्र) हिन्दू धर्म में सभी देवताओं के राजा का सबसे उच्च पद था जिसकी एक अलग ही चुनाव-पद्धति थी। इस चुनाव पद्धति के विषय में स्पष्ट वर्णन उपलब्ध नहीं है। वैदिक साहित्य में इन्द्र को सर्वोच्च महत्ता प्राप्त है लेकिन पौराणिक साहित्य में इनकी महत्ता निरन्तर क्षीण होती गयी और त्रिदेवों की श्रेष्ठता स्थापित हो गयी। .

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कला

राजा रवि वर्मा द्वारा चित्रित 'गोपिका' कला (आर्ट) शब्द इतना व्यापक है कि विभिन्न विद्वानों की परिभाषाएँ केवल एक विशेष पक्ष को छूकर रह जाती हैं। कला का अर्थ अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है, यद्यपि इसकी हजारों परिभाषाएँ की गयी हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार कला उन सारी क्रियाओं को कहते हैं जिनमें कौशल अपेक्षित हो। यूरोपीय शास्त्रियों ने भी कला में कौशल को महत्त्वपूर्ण माना है। कला एक प्रकार का कृत्रिम निर्माण है जिसमे शारीरिक और मानसिक कौशलों का प्रयोग होता है। .

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काश्यप संहिता

काश्यपसंहिता कौमारभृत्य का आर्ष व आद्य ग्रन्थ है। इसे 'वृद्धजीवकीयतन्त्र' भी कहा जाता है। महर्षि कश्यप ने कौमारभृत्य को आयुर्वेद के आठ अंगों में प्रथम स्थान दिया है। इसकी रचना ईसापूर्व ६ठी शताब्दी में हुई थी। मध्ययुग में इसका चीनी भाषा में अनुवाद हुआ। कश्यप संहिता आयुर्वेद की अत्यन्त प्राचीन संहिता है और सभी आयुर्वेदीय संहिता ग्रन्थों में प्राचीन है। यह संहिता नेपाल में खंडित रूप में मिली है। उनका समय ६०० ईसापूर्व माना गया है। वर्तमान में प्राप्त काश्यप संहिता अपने में पूर्ण है। महर्षि कश्यप द्वारा प्रोक्त इस विशाल आयुर्वेद का कालक्रम से प्रचार-प्रसार जब कम होने लगा तो ऋचिक मुनि के पचंवर्षीय पुत्र जीवक ने इस विशाल काश्यप संहिता को संक्षिप्त करके हरिद्वार के कनखल में समवेत विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत किया। उपस्थित विद्वानों ने उसे बालभाषित समझकर अस्वीकार कर दिया। तब बालक जीवक ने वहीं उनके सामने गंगा की धारा में डुबकी लगायी। कुछ देर के बाद गंगा की धारा से जीवक अतिवृद्ध के रूप में निकले। उन्हें वृद्ध रूप में देख, चकित विद्वानों ने उन्हें 'वृद्धजीवक' नाम से अभिहित किया और उनके द्वारा प्रतिपादित उस आयुर्वेद तन्त्र कों ‘वृद्धजीवकीय तन्त्र’ के रूप में मान्यता दी। .

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काशी

काशी जैनों का मुख्य तीर्थ है यहाँ श्री पार्श्वनाथ भगवान का जन्म हुआ एवम श्री समन्तभद्र स्वामी ने अतिशय दिखाया जैसे ही लोगों ने नमस्कार करने को कहा पिंडी फट गई और उसमे से श्री चंद्रप्रभु की प्रतिमा जी निकली जो पिन्डि आज भी फटे शंकर के नाम से प्रसिद्ध है काशी विश्वनाथ मंदिर (१९१५) काशी नगरी वर्तमान वाराणसी शहर में स्थित पौराणिक नगरी है। इसे संसार के सबसे पुरानी नगरों में माना जाता है। भारत की यह जगत्प्रसिद्ध प्राचीन नगरी गंगा के वाम (उत्तर) तट पर उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी कोने में वरुणा और असी नदियों के गंगासंगमों के बीच बसी हुई है। इस स्थान पर गंगा ने प्राय: चार मील का दक्षिण से उत्तर की ओर घुमाव लिया है और इसी घुमाव के ऊपर इस नगरी की स्थिति है। इस नगर का प्राचीन 'वाराणसी' नाम लोकोच्चारण से 'बनारस' हो गया था जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने शासकीय रूप से पूर्ववत् 'वाराणसी' कर दिया है। विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है - 'काशिरित्ते..

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कौमार भृत्‍य

कौमारभृत्य (कौमार .

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अत्रि

Atri (Sanskrit: अत्रि अत्री एक वैदिक ऋषि है, जो कि अग्नि, इंद्र और हिंदू धर्म के अन्य वैदिक देवताओं को बड़ी संख्या में भजन लिखने का श्रेय दिया जाता है। अत्री हिंदू परंपरा में सप्तर्षि (सात महान वैदिक ऋषियों) में से एक है, और सबसे अधिक ऋग्वेद में इसका उल्लेख है। ऋग्वेद के पांचवें मंडल (पुस्तक 5) को उनके सम्मान में अत्री मंडला कहा जाता है, और इसमें अस्सी और सात भजन उनके और उनके वंशज के लिए जिम्मेदार हैं। अत्री का पुराणों और हिंदू महाकाव्य जैसे रामायण और महाभारत में भी उल्लेख किया गया है। अत्रि गोत्र भार्गव ब्राह्मणों की शाखा है। ब्राह्मणों में श्रेष्ठतम अत्रि पूर्व में शिक्षण और तप किया करते थे। अत्रि गोत्रिय ब्राह्मण पूर्व काल से ही अन्य ब्राह्मणों की भांति केवल शैव, वैष्णव या शाक्त मत वाले नहीं है अपितु सभी मतों को मानने वाले हैं। अत्रि मुनि के अनुसार दिवसों, समय योग और औचित्य के अनुसार देव आराधना होनी चाहिए। Life (जीवन) अत्री सात महान ऋषि या सप्तर्षी में से एक है, जिसमें मरिची, अंगिरस, पुलाहा, क्रतु, पुलस्ट्य और वशिष्ठ शामिल हैं। वैदिक युग के पौराणिक कथाओं के अनुसार ऋषि अत्री का अनसुया देवी से विवाह हुआ था। उनके तीन पुत्र थे, दत्तात्रेय, दुर्वासस और सोमा। दैवीय लेखा के अनुसार, वह सात सांपथीओं में से अंतिम है और माना जाता है कि वह जीभ से उत्पन्न हुआ है। अत्री की पत्नी अनुसूया थी, जिन्हें सात महिला पथरावों में से एक माना जाता है। जब दैवीय आवाज़ से तपस्या करने का निर्देश दिया जाता है, तो अत्री तुरंत सहमत हो गया और गंभीर तपस्या की। उनकी भक्ति और प्रार्थनाओं से प्रसन्नता, हिंदू त्रयी, अर्थात्, ब्रह्मा, विष्णु और शिव उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें वरदान दिया। उसने सभी तीनों को उसके पास जन्म लेने की मांग की पौराणिक कथाओं का एक और संस्करण बताता है कि अनसुया, उसकी शुद्धता की शक्तियों के द्वारा, तीन देवताओं को बचाया और बदले में, उनका जन्म बच्चों के रूप में हुआ था। ब्रह्मा का जन्म चंद्र के रूप में हुआ, विष्णु को दत्तात्रेय के रूप में और शिव के कुछ हिस्से में दुर्वासा के रूप में पैदा हुआ था। अत्री के बारे में उल्लेख विभिन्न शास्त्रों में पाया जाता है, जिसमें ऋगवेद में उल्लेखनीय अस्तित्व है। वह कई युगों से भी जुड़ा हुआ है, रामायण के दौरान त्रेता युग में उल्लेखनीय अस्तित्व है, जब वह और अनुसूया ने राम और उनकी पत्नी सीता को सलाह दी थी। इस जोड़ी को भी गंगा नदी को धरती पर लाने के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है, जिसका उल्लेख शिव पुराण में पाया जाता है। ऋग्वेद का द्रष्टा (Seer of Rig Veda) वह ऋग्वेद का पांचवां मंडल (पुस्तक 5) का द्रष्टा है। अत्री के कई पुत्र और शिष्यों ने ऋगवेद और अन्य वैदिक ग्रंथों के संकलन में योगदान दिया है। मंडल 5 में 87 भजन शामिल हैं, मुख्य रूप से अग्नि और इंद्र, लेकिन विस्वासदेव ("सभी देवताओं"), मारुत्स, जुड़वां-देवता मित्रा-वरुना और असिन्स के लिए। दो भजन उषाओं (सुबह में) और सावित्री के लिए। इस पुस्तक के अधिकांश भजन अत्रि कबीले संगीतकारों को दिया जाता है, जिन्हें अत्रेस कहा जाता है। ऋग्वेद के ये भजन भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में बनाये गये थे, जो कि लगभग 1500 -1200 बीसीई। ऋग्वेद के अत्री भजन उनके संगीत संबंधी संरचना के लिए महत्वपूर्ण हैं और पहेलियों के रूप में आध्यात्मिक विचारों को दर्शाने के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। इन भजनों में संस्कृत भाषा की लचीलेपन का उपयोग करने वाले लेक्सिकल, वाक्यविन्यास, रूपवाचक और क्रिया नाटक शामिल हैं। अत्री मंडल में ऋग्वेद का भजन 5.44 विद्वानों द्वारा माना जाता है जैसे कि गेल्डनर ऋग्वेद में सबसे कठिन पहेली भजन है। छंद, रूपकों के माध्यम से प्राकृतिक घटना की अपनी सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति के लिए भी जाना जाता है, जैसे भजन 5.80 में एक हंसमुख महिला के रूप में काव्य रूप से प्रारम्भ किया गया। जबकि पांचवी मंडल को अत्री और उसके सहयोगियों के लिए जिम्मेदार माना जाता है, ऋषि अत्री को अन्य मंडल में 10.137.4 के रूप में ऋग्वेद की कई अन्य छंदों का उल्लेख या श्रेय दिया गया है। रामयान में अध्याय रामायण में, राम, सीता और लक्ष्मण उनके आश्रम में अत्री और अनासूया का दौरा करते हैं। अत्री की झोपड़ी को चित्रकूट में वर्णित किया गया है, दिव्य संगीत और गीतों के साथ एक झील के पास, पानी, फूलों से भरा हुआ, कई "क्रेन, मछुआरों, फ्लोटिंग कछुए, हंस, बेडूक और गुलाबी हंस" के साथ। पुराणों अत्रियों नाम के कई संतों का उल्लेख विभिन्न मध्यकालीन युग पुराणों में किया गया है। अत्री में उस पौराणिक किंवदंतियां विविध और असंगत हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि यदि ये एक ही व्यक्ति, या अलग ऋषियों के समान है, जिनका नाम एक ही है। सांस्कृतिक प्रभाव बाएं से दाएं: अत्री, भृगु, विखानास, मारिची और कश्यप वैष्णववाद के भीतर वैश्यन्सास उप-परंपरा तिरुपति के निकट दक्षिण भारत में पाए गए, उनके धर्मशास्त्र को चार ऋषियों (ऋषियों), अर्थात् अत्री, मारीसी, भृगु और कश्यप को जमा करते हैं। इस परंपरा के प्राचीन ग्रंथों में से एक है अत्री संहिता, जो पांडुलिपियों के बेहद असंगत टुकड़ों में जीवित है। पाठ वैचारणा परंपरा के ब्राह्मणों के उद्देश्य से आचरण के नियम हैं। अत्री संहिता के जीवित हिस्सों का सुझाव है कि पाठ में अन्य बातों के बीच, योग और नैतिकता के बारे में चर्चा की गई थी, जैसे कि: आत्म संयम: अगर सामग्री या आध्यात्मिक दर्द दूसरों के द्वारा उत्पन्न होता है, और कोई नाराज नहीं होता है और बदला लेने की स्थिति में नहीं है, इसे दामा कहा जाता है। अन्य की स्त्री को माता समझना भी आत्म संयम में शामिल है। दान पुण्य: यहां तक ​​कि सीमित आय के साथ, कुछ को ध्यान में रखते हुए दैनिक और दैनिक उदारवाद के साथ दिया जाना चाहिए। इसे दाना कहा जाता है। करुणा: किसी को अपने स्वयं की तरह व्यवहार करना चाहिए, दूसरों के प्रति, अपने स्वयं के संबंधों और दोस्तों, जो उसे ईर्ष्या करते हैं, और यहां तक ​​कि अपने दुश्मन भी। इसे दया कहा जाता है। मन-वचन-कर्म से की गई अहिंसा भी करुणा के अंतर्गत आती है। - अत्री संहिता, एमएन दत्त द्वारा अनुवादित दक्षिण भारत में वैचारस एक महत्वपूर्ण समुदाय बना रहे हैं, और वे अपने वैदिक विरासत का पालन करते हैं। अत्रि हिंदुओं के एक महान ऋषि हैं। वनवास काल में श्रीराम तथा माता सीता ने अत्रि आश्रम का भ्रमण किया था। इनकी पत्नी अनसूया ने सीता को पतिव्रता धर्म का उपदेश दिया। अत्रि परंपरा के तीर्थ स्थलों में चित्रकूट, रामेश्वरम, मीनाक्षी अम्मन, तिरुपति बालाजी और हिंगलाज माता मंदिर(वर्तमान में पाकिस्तान) आदि हैं। श्रेणी:रामायण के पात्र श्रेणी:चित्र जोड़ें श्रेणी:हिन्दू पुराण आधार (अत्री/अत्रि, अत्रे/अत्रस्य/आत्रेय।अत्रिष/दत्तात्रे) " हरियाणा, पंजाब, जम्मू & कश्मीर, हिमाचल, उत्तरांचल, देहली, उतर-प्रदेश,चंडीगढ़, पश्चिम-बंगाल, महाराष्ट्र,गुजरात, मध्य प्रदेश के भिंड एवं ग्वालियर जिलों, गोवा,राजस्थान,केरल,तमिल, कर्णाटक, उड़ीसा, श्री-लंका,नेपाल, मलेशिया आदि स्थान पर "अत्री गोत्र" बस्ते हैं। अत्री ऋषि के अनेक पुत्र हुये, इनमें से तीन बड़े पुत्रओ के नाम 1. सोम 2. दुर्वासा 3. दत्ताअत्रे, सभी ब्राह्मण पुत्र हैं, चंद्रमा ओर चन्द्रमा से सभी अत्री हम "चंद्रवंसी" हैं। ओर बहुत प्राचीन समय में हमारी एक शाखा ने क्षत्रिये कर्म अपना लिया। ओर वो शाखा क्षत्रिये अत्रियों की हुई, उतर-प्रदेश में ह वो शाखा जो "अत्रि ऋषि के पुत्र सोम से ये शाखा सोम-राजपूतो की हुई, इसमें राणा ओर तोमर राजपूत आते हैं जो हमारे अत्रि भाई है, ये गाजियाबाद में 64 गांव ओर गौतमबुद्ध नगर(नोयडा) में 84 गांव में हैं ऒर सोम(राणा) अत्रि शामली-बड़ोत में 24 गांव में हैं,महाभारत से पहले अत्रियों के एक ओर शाखा के "यदु" नामक हमारे बड़े ने एक राज्य की स्थापना कि ओर उससे "यदु" अत्री कुल शरू किया ओर इस कुल को मानने वाले यादव हुये।16वीं शाताब्दी में अत्रियों की एक शाखा जाट जाति में आ गई। और ये शाखा राजस्थान,उतरप्रदेश ओर हरियाणा में है।हरियाणा के फरिदाबाद के मोहना और 2गांव पलवल में है।ये शाखा ज्यादा नही है। अब भी ब्राह्मणों वाली शाखा सबसे बड़ी है ओर पुरे हिंदुस्तान के साथ सभी हिन्दू देशो में है। अत्रि ऋषि ने "अत्रि स्मृति लिखी । SC-ST ने भी अत्री गौत्र को ग्रहण किया अत्री गोत्र लिखने लगे। ये पंजाब और जम्मु & कश्मीर में पाए जाते है। गौड़-सारस्वत-द्रविड़-तमिल-मैथली, अय्यर-अयंगर, नंबूदरीपाद, मोहयाल-चितपावन-पंडा-बरागी-डकोत-भूमिहार(बिहार) हम सब (हम सब भाई-भाई) 卐🚩ॐ🚩 वेद_उपनिषद_दर्शन_सारे, स्मृती_पुराण_इतिहास_हमारे ~~🚩ॐ🚩卐.

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अथर्ववेद संहिता

अथर्ववेद संहिता हिन्दू धर्म के पवित्रतम और सर्वोच्च धर्मग्रन्थ वेदों में से चौथे वेद अथर्ववेद की संहिता अर्थात मन्त्र भाग है। इसमें देवताओं की स्तुति के साथ जादू, चमत्कार, चिकित्सा, विज्ञान और दर्शन के भी मन्त्र हैं। अथर्ववेद संहिता के बारे में कहा गया है कि जिस राजा के रज्य में अथर्ववेद जानने वाला विद्वान् शान्तिस्थापन के कर्म में निरत रहता है, वह राष्ट्र उपद्रवरहित होकर निरन्तर उन्नति करता जाता हैः अथर्ववेद के रचियता श्री ऋषि अथर्व हैं और उनके इस वेद को प्रमाणिकता स्वंम महादेव शिव की है, ऋषि अथर्व पिछले जन्म मैं एक असुर हरिन्य थे और उन्होंने प्रलय काल मैं जब ब्रह्मा निद्रा मैं थे तो उनके मुख से वेद निकल रहे थे तो असुर हरिन्य ने ब्रम्ह लोक जाकर वेदपान कर लिया था, यह देखकर देवताओं ने हरिन्य की हत्या करने की सोची| हरिन्य ने डरकर भगवान् महादेव की शरण ली, भगवन महादेव ने उसे अगले अगले जन्म मैं ऋषि अथर्व बनकर एक नए वेद लिखने का वरदान दिया था इसी कारण अथर्ववेद के रचियता श्री ऋषि अथर्व हुए| .

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अभ्यंग

अभ्यंग (अभि + अंग .

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अश्विनीकुमार (पौराणिक पात्र)

वैदिक साहित्य और हिन्दू धर्म में 'अश्विनौ' यानि दो अश्विनों का उल्लेख देवता के रूप में मिलता है जिन्हें अश्विनीकुमार के नाम से जाना जाता है। वे आयुर्वेद के आदि आचार्य माने जाते हैं। ऋग्वेद (१.३, १.२२, १.३४) के अलावे महाभारत में भी इनका वर्णन है। वैदिक व्याख्या के अनुसार गुणों से ये सूर्य से उत्पन्न माने जाते हैं। पौराणिक कथाओं में 'अश्विनीकुमार' त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न सूर्य के दो पुत्र। भारतीय दर्शन के विद्वान उदयवीर शास्त्री ने वैशेषिक शास्त्र की व्याख्या में अश्विनों को विद्युत-चुम्बकत्व बताया है जो आपस में जुड़े रहते हैं और सूर्य से उत्पन्न हुए हैं। इसके अलावे ये अश्व (द्रुत) गति से चलने वाले यानि 'आशु' भी हैं - इनके नाम का मूल यही है। .

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अष्टांगसंग्रह

अष्टांगसंग्रह आयुर्वेद का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसके रचयिता वाग्भट हैं। इसके आठ भाग (स्थान) हैं-.

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अष्टाङ्गहृदयम्

अष्टाङ्गहृदयम्, आयुर्वेद का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसके रचयिता वाग्भट हैं। इसका रचनाकाल ५०० ईसापूर्व से लेकर २५० ईसापूर्व तक अनुमानित है। इस ग्रन्थ में ग्रन्थ औषधि (मेडिसिन) और शल्यचिकित्सा दोनो का समावेश है। चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता और अष्टाङ्गहृदयम् को सम्मिलित रूप से वृहत्त्रयी कहते हैं। अष्टांगहृदय में आयुर्वेद के सम्पूर्ण विषय- काय, शल्य, शालाक्य आदि आठों अंगों का वर्णन है। उन्होंने अपने ग्रन्थ के विषय में स्वयं ही कहा है कि, यह ग्रन्थ शरीर रूपी आयुर्वेद के हृदय के समान है। जैसे- शरीर में हृदय की प्रधानता है, उसी प्रकार आयुर्वेद वाङ्मय में अष्टांगहृदय, हृदय के समान है। अपनी विशेषताओं के कारण यह ग्रन्थ अत्यन्त लोकप्रिय हुआ। .

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अस्थि

अस्थियाँ या हड्डियाँ रीढ़धारी जीवों का वह कठोर अंग है जो अन्तःकंकाल का निर्माण करती हैं। यह शरीर को चलाने (स्थानांतरित करने), सहारा देने और शरीर के विभिन्न अंगों की रक्षा करने मे सहायता करती हैं साथ ही यह लाल और सफेद रक्त कोशिकाओं का निर्माण करने और खनिज लवणों का भंडारण का कार्य भी करती हैं। अस्थियाँ विभिन्न आकार और आकृति की होने के साथ वजन मे हल्की पर मजबूत होती हैं। इनकी आंतरिक और बाहरी संरचना जटिल होती है। अस्थि निर्माण का कार्य करने वाले प्रमुख ऊतकों मे से एक उतक को खनिजीय अस्थि ऊतक, या सिर्फ अस्थि ऊतक भी कहते हैं और यह अस्थि को कठोरता और मधुकोशीय त्रिआयामी आंतरिक संरचना प्रदान करते हैं। अन्य प्रकार के अस्थि ऊतकों मे मज्जा, अन्तर्स्थिकला और पेरिओस्टियम, तंत्रिकायें, रक्त वाहिकायें और उपास्थि शामिल हैं। वयस्क मानव के शरीर में 206 हड्डियों होती हैं वहीं एक शिशु का शरीर २७० अस्थियों से मिल कर बनता है। .

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अग्निवेश

अग्निवेश या वह्रिवेश आयुर्वेदाचार्य थे जिन्होंने अग्निवेशतंत्र संहिता की रचनाकी। अग्निवेश, पुनर्वसु आत्रेय के सबसे अधिक प्रतिभाशाली शिष्य थे। इनके अन्य सहपाठी भेल, जतूकर्ण, पराशर, क्षीरपाणि एवं हारीत थे। अग्निवेशतंत्र संहिता का ही प्रतिसंस्कार चरक ने किया तथा उसका नाम चरक संहिता पड़ा। अग्निवेश के नाम से नाड़ी परीक्षा तथा हस्तिशास्त्र भी प्रसिद्ध हैं। इनके लिए वह्रिवेश (चरकसू.-13। 3), हुतावेश (चरक सू. 17। 15) नाम भी आते हैं। वह्रिवेश का समय वही है जो पुनर्वसु आत्रेय (700 ई. पू.) का है। अग्निवेश का नाम उपनिषद् (बृहदा 2। 6। 2-3) में भी आता है। श्रेणी:भारत के प्राचीन वैज्ञानिक श्रेणी:प्राचीन भारत श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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उपवास

दीर्घ उपवास के पश्चात महात्मा बुद्ध कुछ या सभी भोजन, पेय या दोनो के लिये बिना कुछ अवधि तक रहना उपवास (Fasting) कहलाता है। उपवास पूर्ण या आंशिक हो सकता है। यह बहुत छोटी अवधि से लेकर महीनो तक का हो सकता है। उपवास के अनेक रूप हैं। धार्मिक एवं आध्यात्मिक साधना के रूप में प्रागैतिहासिक काल से ही उपवास का प्रचलन है। .

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ऋग्वेद

ऋग्वेद सनातन धर्म का सबसे आरंभिक स्रोत है। इसमें १०२८ सूक्त हैं, जिनमें देवताओं की स्तुति की गयी है इसमें देवताओं का यज्ञ में आह्वान करने के लिये मन्त्र हैं, यही सर्वप्रथम वेद है। ऋग्वेद को इतिहासकार हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की अभी तक उपलब्ध पहली रचनाऔं में एक मानते हैं। यह संसार के उन सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक है जिसकी किसी रूप में मान्यता आज तक समाज में बनी हुई है। यह एक प्रमुख हिन्दू धर्म ग्रंथ है। ऋक् संहिता में १० मंडल, बालखिल्य सहित १०२८ सूक्त हैं। वेद मंत्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है, जिसमें एकदैवत्व तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है। ऋग्वेद में ही मृत्युनिवारक त्र्यम्बक-मंत्र या मृत्युंजय मन्त्र (७/५९/१२) वर्णित है, ऋग्विधान के अनुसार इस मंत्र के जप के साथ विधिवत व्रत तथा हवन करने से दीर्घ आयु प्राप्त होती है तथा मृत्यु दूर हो कर सब प्रकार का सुख प्राप्त होता है। विश्व-विख्यात गायत्री मन्त्र (ऋ० ३/६२/१०) भी इसी में वर्णित है। ऋग्वेद में अनेक प्रकार के लोकोपयोगी-सूक्त, तत्त्वज्ञान-सूक्त, संस्कार-सुक्त उदाहरणतः रोग निवारक-सूक्त (ऋ०१०/१३७/१-७), श्री सूक्त या लक्ष्मी सूक्त (ऋग्वेद के परिशिष्ट सूक्त के खिलसूक्त में), तत्त्वज्ञान के नासदीय-सूक्त (ऋ० १०/१२९/१-७) तथा हिरण्यगर्भ सूक्त (ऋ०१०/१२१/१-१०) और विवाह आदि के सूक्त (ऋ० १०/८५/१-४७) वर्णित हैं, जिनमें ज्ञान विज्ञान का चरमोत्कर्ष दिखलाई देता है। ऋग्वेद के विषय में कुछ प्रमुख बातें निम्नलिखित है-.

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