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शार्ङ्गधर

सूची शार्ङ्गधर

शार्ङ्गधर मध्यकाल के एक आयुर्वेदाचार्य थे जिन्होने शार्ङ्गधरसंहिता नामक आयुर्वैदिक ग्रन्थ की रचना की। शार्ङ्गधर का जन्म समय १३वीं-१४वीं सदी के आसपास माना गया है। शार्ङ्गधरसंहिता में ग्रन्थकार ने कुछ ही जगह अपने नामों का उल्लेख किया है। इनके पिता पुरातत्ववेत्ता थे जिनका नाम दामोदर एवं पितामह का नाम राघवदेव था। आचार्य शार्ङ्गधर केवल चिकित्साशास्त्र के मर्मज्ञ ही नहीं थे, अपितु कवित्व शक्ति से सम्पन्न एवं विविध शास्त्रों के ज्ञाता थे। आचार्य शार्ङ्गधर के नाम से दो प्रसिद्ध ग्रन्थ है (१) शार्ङ्गधरसंहिता (२) शार्ङ्गधरपद्धति। .

6 संबंधों: शार्ङ्गदेव, शार्ङ्गधरसंहिता, संगीत, संगीतरत्नाकर, आयुर्वेद, कवि

शार्ङ्गदेव

शार्ंगदेव (1210–1247) भारत के संगीतशास्त्री थे जिन्होने संगीतरत्नाकर नामक महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में संगीत व नृत्य का विस्तार से वर्णन है। शार्ंगदेव यादव राजा सिंघण (1210–1247) के दरबारी थे। उनके पूर्वज कश्मीर के थे। उनके पितामह कश्मीर से देवगिरि (महाराष्ट्र) आकर बस गये थे। संगीतरत्नाकार पर १४५६-७७ के बीच विजयनगर के राजा प्रतापदेव के आदेश पर काल्लिनाथ ने टीका लिखी। यह ग्रन्थ ६०० वर्षों से संगीत-शास्त्रियों का पथ प्रदर्शक रहा है। शारंगदेव पर दक्षिणी संगीत का विशेष प्रभाव पड़ा था। उनके ग्रन्थ से पता चलता है कि उनके पूर्ववर्ती संगीतज्ञ दक्षिण में बहुत थे। संगीतरत्नाकार में संगीत पद्धति की जो स्थापना की गई है, उसे अब बहुत कम लोग समझते मानते हैं। शारंगदेव का मुख्य मेल `मुखारी' है यह दक्षिणी संगीत का मुख्य मेल है। श्रेणी:भारतीय संगीतशास्त्रीश्रेणी:कश्मीर के लोग.

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शार्ङ्गधरसंहिता

सार्ङगधरसंहिता, आयुर्वेद का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसके रचयिता शार्ङ्गधर हैं। इसकी रचना १२वीं शताब्दी में हुई थी। इसमें तीन खण्ड हैं - प्रथम खण्ड, मध्यम खण्ड तथा उत्तर खण्ड। श्री शार्ंगधराचार्य ने इस ग्रन्थ की विषयवस्तु को प्राचीन आर्ष ग्रन्थों (चरक एवं सुश्रुत संहिताओं तथा कुछ रसायनशास्त्रीय ग्रन्थों) से संग्रह करके इसमें साररूप में प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ पर कम से कम तीन टीकाएं हैं- हरि स्वामी, सायन और कवीन्द्र के भाष्य। आचार्य ने इसकी भाषा को सरल एवं समझने योग्य रखा है। वे इसमें अति विस्तार से बचे हैं। शार्ङ्गधरसंहिता, लघुत्रयी का एक महत्वपूर्ण संहिता है। इस संहिता में आयुर्वेद की विषयवस्तु चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता से ली गयी है। .

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संगीत

नेपाल की नुक्कड़ संगीत-मण्डली द्वारा पारम्परिक संगीत सुव्यवस्थित ध्वनि, जो रस की सृष्टि करे, संगीत कहलाती है। गायन, वादन व नृत्य ये तीनों ही संगीत हैं। संगीत नाम इन तीनों के एक साथ व्यवहार से पड़ा है। गाना, बजाना और नाचना प्रायः इतने पुराने है जितना पुराना आदमी है। बजाने और बाजे की कला आदमी ने कुछ बाद में खोजी-सीखी हो, पर गाने और नाचने का आरंभ तो न केवल हज़ारों बल्कि लाखों वर्ष पहले उसने कर लिया होगा, इसमें संदेह नहीं। गान मानव के लिए प्राय: उतना ही स्वाभाविक है जितना भाषण। कब से मनुष्य ने गाना प्रारंभ किया, यह बतलाना उतना ही कठिन है जितना कि कब से उसने बोलना प्रारंभ किया। परंतु बहुत काल बीत जाने के बाद उसके गान ने व्यवस्थित रूप धारण किया। जब स्वर और लय व्यवस्थित रूप धारण करते हैं तब एक कला का प्रादुर्भाव होता है और इस कला को संगीत, म्यूजिक या मौसीकी कहते हैं। .

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संगीतरत्नाकर

संगीतरत्नाकर (13 वीं सदी) शार्ंगदेव द्वारा रचित संगीतशास्त्रीय ग्रंथ है। यह भारत के सबसे महत्वपूर्ण संगीतशास्त्रीय ग्रंथों में से है जो हिन्दुस्तानी संगीत तथा कर्नाटक संगीत दोनो द्वारा समादृत है। इसे 'सप्ताध्यायी' भी कहते हैं क्योंकि इसमें सात अध्याय हैं। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के बाद संगीत रत्नाकर ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। बारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लिखे सात अध्यायों वाले इस ग्रंथ में संगीत व नृत्य का विस्तार से वर्णन है। शार्ंगदेव यादव राजा 'सिंहण' के राजदरबारी थे। सिंहण की राजधानी दौलताबाद के निकट देवगिरि थी। इस ग्रंथ के कई भाष्य हुए हैं जिनमें सिंहभूपाल (1330 ई) द्वारा रचित 'संगीतसुधाकर' तथा कल्लिनाथ (१४३० ई) द्वारा रचित 'कलानिधि' प्रमुख हैं। इस ग्रंथ के प्रथम छः अध्याय - स्वरगताध्याय, रागविवेकाध्याय, प्रकीर्णकाध्याय, प्रबन्धाध्याय, तालाध्याय तथा वाद्याध्याय संगीत और वाद्ययंत्रों के बारे में हैं। इसका अन्तिम (सातवाँ) अध्याय 'नर्तनाध्याय' है जो नृत्य के बारे में है। संगीत रत्नाकर में कई तालों का उल्लेख है। इस ग्रंथ से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय पारंपरिक संगीत में अब बदलाव आने शुरू हो चुके थे व संगीत पहले से उदार होने लगा था। १०००वीं सदी के अंत तक, उस समय प्रचलित संगीत के स्वरूप को 'प्रबन्ध' कहा जाने लगा। प्रबंध दो प्रकार के हुआ करते थे - निबद्ध प्रबन्ध व अनिबद्ध प्रबन्ध। निबद्ध प्रबन्ध को ताल की परिधि में रहकर गाया जाता था जबकि अनिबद्ध प्रबन्ध बिना किसी ताल के बन्धन के, मुक्त रूप में गाया जाता था। प्रबन्ध का एक अच्छा उदाहरण है जयदेव रचित गीत गोविन्द। .

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आयुर्वेद

आयुर्वेद के देवता '''भगवान धन्वन्तरि''' आयुर्वेद (आयुः + वेद .

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कवि

कवि वह है जो भावों को रसाभिषिक्त अभिव्यक्ति देता है और सामान्य अथवा स्पष्ट के परे गहन यथार्थ का वर्णन करता है। इसीलिये वैदिक काल में ऋषय: मन्त्रदृष्टार: कवय: क्रान्तदर्शिन: अर्थात् ऋषि को मन्त्रदृष्टा और कवि को क्रान्तदर्शी कहा गया है। "जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि" इस लोकोक्ति को एक दोहे के माध्यम से अभिव्यक्ति दी गयी है: "जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ, कवि पहुँचे तत्काल। दिन में कवि का काम क्या, निशि में करे कमाल।।" ('क्रान्त' कृत मुक्तकी से साभार) .

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