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जयसिंह

सूची जयसिंह

जय सिंह नाम के व्यक्ति.

10 संबंधों: परमार वंश, प्रतीच्य चालुक्य, पूर्वी चालुक्य, जय सिंह द्वितीय, जय सिंह प्रथम, जयसिंह तृतीय (पश्चिमी चालुक्य), जयसिंह द्वितीय (पश्चिमी चालुक्य), जयसिंह द्वितीय (पूर्वी चालुक्य), जयसिंह प्रथम (पूर्वी चालुक्य), जयसिंह सिद्धराज

परमार वंश

'''भोज मंदिर''' - राजा भोज द्वारा निर्मित शिव मंदिर परमार या पंवार वंश मध्यकालीन भारत का एक अग्निवंशी राजपूत राजवंश था। इस राजवंश का अधिकार धार और उज्जयिनी राज्यों तक था।और पूरे मध्यप्रदेश क्षेत्र में उनका साम्राज्य था। जब दैत्यों का अत्याचार बध गया तब चार ऋषिओने आबु पर्वत पर एक यज्ञ कीया उस अग्निकुंड में से चार अग्निवंशी क्षत्रिय निकले। परमार,चौहान,सोलकी,और प्रतिहार।उन्हीं के नाम पर उनका वंश चला।ऋषि वशिष्ठ की आहुति देने से एक वीर पुरुष निकला। जो अग्निकुंडसे निकलते समय मार-मार कि त्राड करता निकला और अग्निकूंड से बाहर आते हि पर नामक राक्षस का अंत कर दिया। एसा देखकर ऋषि वशिष्ठ ने प्रसन्न होकर उस विर पुरुष को परमार नाम से संबोधित किया। उसि के वंश पर परमार वंश चला। परमार अर्थ होता हे पर -यानी (पराया)शत्रु।मार का अर्थ होता हे-मारना .

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प्रतीच्य चालुक्य

प्रतीच्य चालुक्य पश्चिमी भारत का राजवंश था जिसने २१६ वर्ष राज किया। प्रतीच्य चालुक्य, c. 1121.

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पूर्वी चालुक्य

पूर्वी चालुक्या पूर्वी चालुक्य गुर्जर या 'वेंगी के चालुक्य' दक्षिणी भारत का एक राजवंश था जिनकी राजधानी वर्तमान आंध्र प्रदेश में वेंगी (वर्तमान एलुरु के पास) थी। पूर्वी चालुक्यों ने ७वीं शताब्दी से आरम्भ करके ११३० ई तक लगभग ५०० वर्षों तक शासन किया। इसके बाद वेंगी राज्य चोल साम्राज्य में विलीन हो गया और ११८९ ई तक चोल साम्राज्य के संरक्षन में इस पर चालुक्य राजाओं ने शासन किया। इसके बाद वेंगी राज्य पर होयसला और यादव राजाओं के अधीन हो गया। पूर्वी चालुक्यों की राजधानी पहले वेंगी थी जो बाद में राजमहेन्द्रवरम (राजमुन्द्री) हो गयी। वेंगी, पश्चिमी गोदावरी जिले के एलुरु के निकट स्थित था। पूर्वी चालुक्यों का बादामी के चालुक्यों से निकट सम्बन्ध था। पूरे इतिहास में वेंगी राज्य को लेकर चोल साम्राज्य और पश्चिमी चालुक्यों में कई युद्ध हुए। पूर्वी चालुक्यों के काल में तेलुगु संस्कृति, कला, साहित्य, काव्य का खूब विकास हुआ। इसे आंध्र प्रदेश का 'स्वर्ण युग' कहा जा सकता है। .

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जय सिंह द्वितीय

सवाई जयसिंह या द्वितीय जयसिंह (०३ नवम्बर १६८८ - २१ सितम्बर १७४३) अठारहवीं सदी में भारत में राजस्थान प्रान्त के नगर/राज्य आमेर के कछवाहा वंश के सर्वाधिक प्रतापी शासक थे। सन १७२७ में आमेर से दक्षिण छः मील दूर एक बेहद सुन्दर, सुव्यवस्थित, सुविधापूर्ण और शिल्पशास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर आकल्पित नया शहर 'सवाई जयनगर', जयपुर बसाने वाले नगर-नियोजक के बतौर उनकी ख्याति भारतीय-इतिहास में अमर है। काशी, दिल्ली, उज्जैन, मथुरा और जयपुर में, अतुलनीय और अपने समय की सर्वाधिक सटीक गणनाओं के लिए जानी गयी वेधशालाओं के निर्माता, सवाई जयसिह एक नीति-कुशल महाराजा और वीर सेनापति ही नहीं, जाने-माने खगोल वैज्ञानिक और विद्याव्यसनी विद्वान भी थे। उनका संस्कृत, मराठी, तुर्की, फ़ारसी, अरबी, आदि कई भाषाओं पर गंभीर अधिकार था। भारतीय ग्रंथों के अलावा गणित, रेखागणित, खगोल और ज्योतिष में उन्होंने अनेकानेक विदेशी ग्रंथों में वर्णित वैज्ञानिक पद्धतियों का विधिपूर्वक अध्ययन किया था और स्वयं परीक्षण के बाद, कुछ को अपनाया भी था। देश-विदेश से उन्होंने बड़े बड़े विद्वानों और खगोलशास्त्र के विषय-विशेषज्ञों को जयपुर बुलाया, सम्मानित किया और यहाँ सम्मान दे कर बसाया। .

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जय सिंह प्रथम

मिर्जा राजा जयसिंह (15 जुलाई, 1611 – 28 अगस्त, 1667) आम्बेर के राजा तथा मुगल साम्राज्य के वरिष्ठ सेनापति (मिर्जा राजा) थे। राजा भाऊ सिंह उसके पिता थे जिन्होने 1614 से1621 तक शासन किया। .

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जयसिंह तृतीय (पश्चिमी चालुक्य)

जयसिंह तृतीय, सोमेश्वर द्वितीय और विक्रमादित्य षष्ठ का अनुज था। अपने पिता (सोमेश्वर प्रथम) के समय में वह तर्दवाडि का प्रांतपाल था। १०६१ ई. में वह कूडल् के युद्ध में वीर राजेंद्र के विरुद्ध लड़ा था किंतु चालुक्य पक्ष की गहरी हार हुई थी। सोमेश्वर द्वितीय ने सिंहासन पर बैठने पर जयसिंह को भी प्रांतों का शासन दिया। १०६८ ई. में वह कोगलि, कदंबलिगे और बल्लकुंदे पर राज्य कर रहा था। बाद में वह नोलंबवाडि और सिंदवाडि का प्रांतपाल नियुक्त हुआ जिस पद पर वह १०७३ ई. तक बना रहा। बीच-बीच में उसे अन्य प्रांतों का भी अधिकार मिल जाता था। विरुद सहित उसका पूरा नाम "त्रैलोक्यमल्लनोलंम-पल्लव पेर्माडि जयसिंहदेव" था। विक्रमादित्य षष्ठ और सोमेश्वर द्वितीय के संघर्ष में दोनों बार उसने विक्रमादित्य का पक्ष लिया। १०७६ ई. में वह भी विक्रमादित्य के साथ कुलोत्तुंग प्रथम के हाथों पराजित हुआ था, जिसने सोमेश्वर का पक्ष लिया था। किंतु उसकी सहायता से विक्रमादित्य ने चोल नरेश को पराजित करके सिंहासन प्राप्त किया। विक्रमादित्य ने जयसिंह की सहायता का उचित महत्व स्वीकार किया और उसे बेल्वोल और पुलिगेरे का प्रांत दिया जो प्राय: युवराज को दिया जाता था। बाद में बनवासि और संतलिगे भी उसके अधिकार में कर दिए गए। १०८३ ई. तक जससिंह ने विक्रमादित्य की अधीनता में शासन किया। फिर उसने प्रजा को अनेक प्रकार से उत्पीड़ित करके धन एकत्र किया जिससे उसने एक विशाल सेना बनाई, चोल नरेश से भी मित्रता की, वन-जातियों से संधि की, विक्रमादित्य की सेना में फूल डालने का प्रयत्न किया और सिंहासन पर अपना अधिकार करने के लिये कृष्णा के तट पर आया जहाँ अनेक सामंत उससे मिल गए। पहले तो विक्रमादित्य ने शांतिपूर्ण उपायें से काम लेना चाहा किन्तु अंत में विवश होकर उसे युद्ध करना पड़ा। जयसिंह को प्रारंभ में विजय मिलती हुई सी लगी, किंतु अंत में विक्रमादित्य की वीरता के कारण वह पराजित होकर बंदी बना। बिल्हण के अनुसार विक्रमादित्य ने उसे क्षमा कर दिया। वास्तविकता कदाचित् उससे कुछ भिन्न थी; इसके बाद इतिहास में जयसिंह का कोई चिह्न नहीं मिलता। .

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जयसिंह द्वितीय (पश्चिमी चालुक्य)

जय सिंह द्वितीय से भ्रमित न हों। जयसिंह भी देखें। ---- पुरानी कन्नड में जयसिंह द्वितीय का एक अभिलेख जयसिंह द्वितीय (1015 - 1042), पश्चिमी भारत में प्रतीच्य चालुक्य राजवंश का राजा था। उसने "जगदेकमल्ल" की पदवी धारण की थी, इसलिए उसे जगदेकमल्ल प्रथम के नाम से भी जाना जाता है। इसके अलावा उसे 'मल्लिकामोद' के नाम से भी जानते हैं। कल्याणि के चालुक्य घराने में विक्रमादित्य पंचम की मृत्यु के एक वर्ष के भीतर ही उसके दो छोटे भाई सिंहासन पर बैठे- अय्यन और उसके बाद जयसिंह द्वितीय। जयसिंह के विरुदों (पदवी) में 'जगदेकमल्ल' भी है और वह "जगदेकमल्ल प्रथम" के नाम से भी प्रसिद्ध है। जयसिंह का नाम सिंगदेव भी था और 'त्रैलोक्यमल्ल', 'मल्लिकामोद' और 'विक्रमसिंह' उसके दूसरे विरुद थे। जयसिंह द्वितीय का राज्यकाल सन् १०१५ से १०४३ ई. तक था। जयसिंह के राज्यकाल के पूर्वार्ध में अनेक युद्ध हुए। भोज परमार ने आक्रमण कर उत्तरी कोंकण की विजय कर ली थी और वह कोल्हापुर तक पहुँच गया था। उत्तर में उसकी दिग्विजय की योजनाएँ थी किन्तु उनके विषय में स्पष्टतः कुछ ज्ञात नहीं है। इन युद्धों में उसकी सफलता उसके सेनापति चावनरस, चट्टुग कदंब और कुंदमरस के कारण हुई थी। राजेन्द्र चोल प्रथम की व्यस्तता से लाभ उठाकर जयसिंह ने सत्याश्रय के समय चालुक्यों के विजित प्रदेशों को चोलों से फिर से लेने के लिए और वेंगि के सिंहासन पर चोल राजकन्या की संतान राजराज के स्थान पर अपने व्यक्ति को आसीन कराने का प्रयत्न किया। इन युद्धों में भी जयसिंह को अपने सेनापतियों के कारण प्रारंभ में सफलता प्राप्त हुई। उसने रायचूर द्वाब पर अधिकार कर लिया और उसकी सेना तुंगभद्रा पार करती हुई बेल्लारि और संभवत: गंगवाडि तक पहुँच तक गई थी। दूसरी ओर वेंगि में बेजवाड़ा पर उसकी सेना ने अधिकार कर लिया और राजराज दो-तीन वर्ष तक वेंगि के सिंहासन पर न बैठ सका। किंतु शीघ्र ही राजेंद्र चोल ने दोनों ही क्षेत्रों में विजय प्राप्त की। १०२२ ई. में राजराज का वेंगि के सिंहासन के लिये अभिषेक हुआ। दूसरी ओर राजेन्द्र की विजय करती हुई सेना का जयसिंह की सेना के साथ १०२०-२१ ई. में मुशंगि (मस्की) में घमासान युद्ध हुआ। विजय यद्यपि राजेंद्र की हुई और जयसिंह को युद्ध से भागना पड़ा किंतु शीघ्र ही दोनों राज्य की सीमा तुंगभद्रा बनी। जयसिंह के शासन के अंतिम २० वर्षों में उल्लेखनीय युद्ध नहीं हुआ। अभिलेखों से इस काल की शांत स्थिति का ज्ञान होता है। ऐसे तो कल्याणी, चालुक्य राज्य की राजधानी बन गई थी किंतु मान्यखेट का महत्व बना रहा। इसके अतिरिक्त कई उपराजधानियों के भी उल्लेख मिलते हैं यथा, एतगिरि, कोल्लिपाके होट्टलकेरे तथा घट्टदकेरे। उसके अधीन शासन करनेवाले कुछ सामंतों के नाम हैं, कुंदमरस, सत्याश्रय, षष्ठदेव कदंब, जगदेकमल्ल, नोलंब-पल्लव उदयादित्य, खेरस हैहय और नागादित्य सिंद। उसकी बहिन अक्कादेवी अपने पति मयूरवर्मन् के साथ बवासि, वेल्बोल और पुलिणेर पर राज्य करती थी। उसकी दो रानियों के नाम मालूम हैं- सुग्गलदेवी जिसके बारे में अनुश्रुति है कि उसने अपने जैन पति को शैव बनाया, और दूसरी नोलंब राजकुमारी देवलदेवी। उसकी पुत्री हंमा अथवा आवल्लदेवी का विवाह भिल्लम तृतीय से से हुआ था। जयसिंह के सोने के सिक्के दो शैलियों में मिलते हैं। उसके अभिलेख उस काल की शासन-व्यवस्था के ज्ञान के लिये महत्वपूर्ण हैं। एक अभिलेख में उल्लेख है कि उसने धर्मबोलल के सोलह सेट्टियों को छत्र, चामर और शासन देकर सम्मानित किया। पार्श्वनाथचरित और यशोधर चरित्र के रचयिता जैन विद्वान् वादिराज इसी के दरबार में थे। इनके मंत्री दुर्गसिंह ने कन्नड में पंचतंत्र नाम के चंपू की रचना की थी। श्रेणी: भारत का इतिहास श्रेणी: दक्षिण भारत का इतिहास.

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जयसिंह द्वितीय (पूर्वी चालुक्य)

विजयसिद्धि प्रथम के बाद उसके पुत्र जयसिंह द्वितीय ने ७०६ से ७१८ ई. तक राज्य किया। 'सर्वसिद्धि' उसका भी विरुद (उपाधि) था। श्रेणी:भारत के शासक.

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जयसिंह प्रथम (पूर्वी चालुक्य)

जयसिंह प्रथम (६४१-६७३ ई.) विष्णुवर्धन का पुत्र था। कुब्ज विष्णुवर्धन के पश्चात वह गद्दी पर बैठा और ३२ वर्ष की लम्बी अवधि तक शासन किया। वह भागवत था। 'सर्वसिद्धि' उसका विरुद था। उसके राज्यकाल की कोई राजनीतिक घटना विदित नहीं हैं। किंतु वह स्वयं विद्वान् था। असनपुर में उच्च शिक्षा का विद्यालय (घटिका) था। उसका एक अभिलेख तेलुगु के प्राचीनतम उपलब्ध अभिलेखों में से एक है। उसके बाद उसका छोटा भाई इन्द्र भट्टारक सिंहासन पर बैठा। श्रेणी:भारत के राजा श्रेणी:पूर्वी चालुक्य राजवंश.

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जयसिंह सिद्धराज

गुजरात के चालुक्य नरेश कर्ण और मयणल्लदेवी का पुत्र जयसिंह सिद्धराज (1094-1143 ई) कई अर्थों में उस वंश का सर्वश्रेष्ठ सम्राट् था। सिद्धराज उसका विरुद था। उसका जन्म 1094 ई. में हुआ था। पिता की मृत्यु के समय वह अल्पवयस्क था अतएव उसकी माता मयणल्लदेवी ने कई वर्षों तक अभिभाविका के रूप में शासन किया था। वयस्क होने और शासनसूत्र सँभालने के पश्चात् जयसिंह ने अपना ध्यान समीपवर्ती राज्यों की विजय की ओर दिया। अनेक युद्धों के अनंतर ही वह सौराष्ट्र के आभीर शासक नवघण अथवा खंगार को पराजित कर सका। विजित प्रदेश के शासन के लिए उसने सज्जन नाम के अधिकारी को प्रांतपाल नियुक्त किया किंतु संभवत: जयसिंह का अधिकार चिरस्थायी नहीं हो पाया। जयसिंह ने चालुक्यों के पुराने शत्रु नाडोल के चाहमान वंश के आशाराज को अधीनता स्वीकार करने और सामंत के रूप में शासन करने के लिए बाध्य किया। उसने उत्तर में शाकंभरी के चाहमान राज्य पर भी आक्रमण किया और उसकी राजधानी पर अधिकार कर लिया। किंतु एक कुशलनीतिज्ञ के समान उसने अपने पक्ष को शक्तिशाली बनाने के लिए अपनी पुत्री का विवाह चाहमान नरेश अर्णोराज के साथ कर दिया और अर्णोराज को सामंत के रूप में शासन करने दिया। मालव के परमार नरेश नरवर्मन् के विरुद्ध उसे आशाराज और अर्णोराज से सहायता प्राप्त हुई थी। दीर्घकालीन युद्ध के पश्चात् नरवर्मन् बंदी हुआ लेकिन जयसिंह ने बाद में उसे मुक्त कर दिया। नरवर्मन् के पुत्र यशोवर्मन् ने भी युद्ध को चालू रखा। अंत में विजय फिर भी जयसिंह की ही हुई। बंदी यशोवर्मन् को कुछ समय तक कारागार में रहना पड़ा। इस विजय के उपलक्ष में जयसिंह ने अवंतिनाथ का विरुद धारण किया और अंवतिमंडल के शासन के लिए महादेव को नियुक्त किया। किंतु जयसिंह के राज्यकाल के अंतिम वर्षों में यशोवर्मन् के पुत्र जयवर्मन् ने मालवा राज्य के कुछ भाग को स्वतंत्र कर लिया था। जयसिंह ने भिनमाल के परमारवंशीय सोमेश्वर को अपने राज्य के कुछ भाग को स्वतंत्र कर लिया था। जयसिह ने भिनमाल के परमारवंशीय सोमेश्वर को अपने राज्य पर पुनः अधिकार प्राप्त करने में सहायता की थी और संभवत: उसके साथ पूर्वी पंजाब पर आक्रमण किया था। जयसिंह को चंदेल नरेश मदनवर्मन् के विरुद्ध कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं प्राप्त हो सकी। संभवत: मालव में मदनवर्मन् की सफलताओं से आशांकित होकर ही उसने त्रिपुरी के कलचुरि और गहड़वालों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए। कल्याण के पश्चिमी चालुक्य वंश के विक्रमादित्य षष्ठ ने नर्मदा के उत्तर में और लाट तथा गुर्जर पर कई विजयों का उल्लेख किय है। किंतु ये क्षणिक अभियान मात्र रहे होंगे और चालुक्य राज्य पर इनका कोई भी प्रभाव नहीं था। अपने एक अभिलेख में जयसिंह ने पेर्मार्दि पर अपनी विजय का उल्लेख किया है किंतु संभावना है कि पराजित नरेश कोई साधारण राजा था, प्रसिद्ध चालुक्य नरेश नहीं। जयसिंह को सिंधुराज पर विजय का भी श्रेय दिया गया है जो सिंध का कोई स्थानीय मुस्लिम सामंत रहा होगा। जयसिंह ने बर्बरक को भी पराजित किया जो संभवत: गुजरात में रहनेवाली किसी अनार्य जाति का व्यक्ति था और सिद्धपुर के साधुओं को त्रास देता था। अपनी विजयों के फलस्वरूप जयसिंह ने चालुक्य साम्राज्य की सीमाओं का जो विस्तार किया वह उस वंश के अन्य किसी भी शासक के समय में सम्भव नहीं हुआ। उत्तर में उसका अधिकार जोधपुर और जयपुर तक तथा पश्चिम में भिलसा तक फैला हुआ था। काठियावाड़ और कच्छ भी उसके राज्य में सम्मिलित थे। जयसिंह पुत्रहीन था। इस कारण उसके जीवन के अंतिम वर्ष दुःखपूर्ण थे। उसकी मृत्यु के बाद सिंहासन उसके पितृव्य क्षेमराज के प्रपौत्र कुमारपाल को मिला। किन्तु क्षेमराज औरस पुत्र नहीं था, इसलिए जयसिंह ने अपने मंत्री उदयन के पुत्र बाहड को अपना दत्तक पुत्र बनाया था। रुद्र महालय मन्दिर के भग्नावशेष अपनी विजयों से अधिक जयसिंह अपने सांस्कृतिक कृत्यों के कारण स्मरणीय है। जयसिंह ने कवियों और विद्वानों को प्रश्रय देकर गुजरात को शिक्षा और साहित्य के केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। इन साहित्यकारों में से रामचंद्र, आचार्य जयमंगल, यशःचन्द्र और वर्धमान के नाम उल्लेखनीय हैं। श्रीपाल को उसने कवीन्द्र की उपाधि दी थी और उसे अपना भाई कहता था। लेकिन इन सभी से अधिक विद्वान् और प्रसिद्ध तथा जयसिंह का विशेष प्रिय और स्नेहपात्र जिसकी बहुमुखी प्रतिभा के कारण अन्य समकालीन विद्वानों का महत्व चमक नहीं पाया, जैन पंडित हेमचंद्र था। अपने व्याकरण ग्रंथ सिद्धहेमचंद्र के द्वारा उसने सिद्धराज का नाम अमर कर दिया है। जयसिह शैवमतावलंबी था। मेरुत्तुंग के अनुसार उसने अपना माता के कहने पर बाहुलोड में यात्रियों से लिया जानेवाला कर समाप्त कर दिया। लेकिन धार्मिक मामले में उसकी नीति उदार और समदर्शी थी। उसके समकालीन अधिकांश विद्वान् जैन थे। किंतु इनको संरक्षण देने में उसका जैनियों के प्रति कोई पक्षपात नहीं था। एक बार उसने ईश्वर और धर्म के विषय में सत्य को जानने के लिए विभिन्न मतों के आचार्यों से पूछा किन्तु अंत में हेमचंद्र के प्रभाव में सदाचार के मार्ग को ही सर्वश्रेष्ठ समझा। इस्लाम के प्रति भी उसकी नीति उदार थी। उसकी सर्वप्रमुख कृति सिद्धपुर में रुद्रमहालय का मंदिर था जो अपने विस्तार के लिय भारत के मंदिरों में प्रसिद्ध है। उसने सहस्रलिंग झील भी निर्मित की और उसके समीप एक कीर्तिस्तम्भ बनवाया। सरस्वती के तटपर उसने दशावतार नारायण का मंदिर भी बनवाया था। .

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