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रस निष्पत्ति

सूची रस निष्पत्ति

काव्य से रस किस प्रकार उत्पन्न होता है, यह काव्यशास्त्र का शाश्वत प्रश्न रहा है। संस्कृत काव्यशास्त्र के आद्याचार्य भरत मुनि ने अपने विख्यात रससूत्र में रस निष्पत्ति पर विचार करते हुए लिखा- भट्ट लोल्लट ने निष्पत्ति का अर्थ उत्पत्तिवाद से लिया है तथा संयोग शब्द के तीन अर्थ निकाले हैं। स्थायी भाव के साथ उत्पाद्य- उत्पादक भाव संबंध, अनुभाव के साथ गम्य-गमक भाव संबंध, तथा संचारी भावों के साथ पोष्य-पोषक संबंध। आचार्य शंकुक ने निष्पत्ति का अर्थ अनुमिति से लिया है तथा संयोग का अर्थ लिया है अनुमाप्य-अनुमापक भाव संबंध। भट्ट नायक ने निष्पत्ति से भुक्ति का अर्थ ग्रहण किया है तथा संयोग का भाव के लिए भोज्य-भोजक संबंध माना है। आचार्य अभिनवगुप्त ने निष्पत्ति का अर्थ अभिव्यक्तिवाद से लेकर संयोग का अर्थ व्यंग्य-व्यंजक भाव संबंध के रूप में लिया है। .

2 संबंधों: भट्टनायक, रस (काव्य शास्त्र)

भट्टनायक

भट्टनायक भारतीय आलंकारिक थे। .

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रस (काव्य शास्त्र)

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं। रस का शाब्दिक अर्थ है - निचोड़। काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप अप्रमेय और अनिर्वचनीय है। .

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