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भट्टनायक

सूची भट्टनायक

भट्टनायक भारतीय आलंकारिक थे। .

5 संबंधों: डॉ॰ नगेन्द्र, धनिक, रस (काव्य शास्त्र), रस निष्पत्ति, संस्कृत साहित्य

डॉ॰ नगेन्द्र

डॉ॰ नगेन्द्र (जन्म: 9 मार्च 1915 अलीगढ़, मृत्यु: 27 अक्टूबर 1999 नई दिल्ली) हिन्दी के प्रमुख आधुनिक आलोचकों में थे। वे एक सुलझे हुए विचारक और गहरे विश्लेषक थे। अपनी सूझ-बूझ तथा पकड़ के कारण वे गहराई में पैठकर केवल विश्लेषण ही नहीं करते, बल्कि नयी उद्भावनाओं से अपने विवेचन को विचारोत्तेजक भी बना देते थे। उलझन उनमें कहीं नहीं थी। 'साधारणीकरण' सम्बन्धी उनकी उद्भावनाओं से लोग असहमत भले ही रहे हों, पर उसके कारण लोगों को उस सम्बन्ध में नये ढंग से विचार अवश्य करना पड़ा है। 'भारतीय काव्य-शास्त्र' (1955ई.) की विद्वत्तापूर्ण भूमिका प्रस्तुत करके उन्होंने हिन्दी में एक बड़े अभाव की पूर्ति की। उन्होंने 'पाश्चात्य काव्यशास्त्र: सिद्धांत और वाद' नामक आलोचनात्मक कृति में अपनी सूक्ष्म विवेचन-क्षमता का परिचय भी दिया। अरस्तू के काव्यशास्त्र की भूमिका-अंश उनका सूक्ष्म पकड़, बारीक विश्लेषण और अध्यवसाय का परिचायक है। बीच-बीच में भारतीय काव्य-शास्त्र से तुलना करके उन्होंने उसे और भी उपयोगी बना दिया है। उन्होंने हिंदी मिथक को भी परिभाषित किया है। .

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धनिक

धनिक, नाट्यशास्त्र के ग्रंथ 'दशरूप' के टीकाकार हैं। दशरूप के प्रथम प्रकाश के अंत में 'इति विष्णुसूनोर्धनिकस्य कृतौ दशरूपावलोके' इस निर्देश से ज्ञात होता है कि धनिक दशरूपक के रचयिता, विष्णुसुत धनंजय के भाई थे। दोनों भाई मुंजराज के सभापंडित थे। मुँज (वाक्पतिराज द्वितीय) और उसके उत्तराधिकारी के शासनकाल के अनुसार इनका समय ईसा की दसवीं शताब्दी का अंत और ग्यारहवीं का प्रारंभ माना जाता है। दशरूप 'मुंजमहीशगोष्ठी' के विद्वानों के मन को प्रसन्नता और प्रेम से निबद्ध करनेवाला कहा गया है। धनिक द्वारा इसकी 'अवलोक' नाम की टीका मुंज के उत्तराधिकारी के शासनकाल में लिखी गई। दशरूप मुख्यत: भरतनाट्यशास्त्र का अनुगामी है और उसका एक प्रकार से संक्षिप्त रूप है। चार प्रकाशों में यह ग्रंथ विभक्त है। प्रारंभ के तीन प्रकाशों में नाट्य के भेद, उपभेद, नायक आदि का वर्णन है और चतुर्थ प्रकाश के रसों का। दशरूप में रंगमंच पर विवेचन नहीं किया गया है और न धनिक ने ही इसपर विचार किया है। धनिक की टीका गद्य में है और मूल ग्रंथ के अनुसार है। अनेक काव्यों और नाटकों से संकलित उदाहरणों आदि द्वारा यह मूल ग्रंथ को पूर्ण, बोधगम्य और सरल करती है। कुछ परवर्ती विद्वानों ने धनिक को ही 'दशरूप' का रचयिता माना है और उन्हीं के नाम से 'दशरूप' की कारिकाएँ उद्धृत की हैं, यह भ्रमात्मक है। धनिक अभिधावादी और ध्वनिविरोधी हैं। रसनिष्पत्ति के संबंध में वे भट्टनायक के मत को मानते हैं, पर उसमें भट्ट लोल्लट और शंकुक के मतों का मिश्रण कर देते हैं। इस प्रकार इनका एक स्वतंत्र मत हो जाता है। दशरूप के चतुर्थ प्रकाश में धनिक ने इसपर विस्तृत रूप से विचार किया है। नाटक में शांत रस को धनिक ने स्वीकार नहीं किया है और आठ रस ही माने हैं। शांत को ये अभिनय में सर्वथा निषिद्ध करते हैं, अत: शम को स्थायी भी नहीं मानते। धनिक कवि थे और इन्होंने संस्कृत-प्राकृत काव्य भी लिखा है। 'अवलोक' में इनके अनेक ललित पद्य इधर-उधर उदाहरणों के रूप में बिखरे पड़े हैं। 'अवलोक' से ही यह भी ज्ञात होता है कि धनिक ने साहित्यशास्त्र का एक ग्रंथ और लिखा जिसका नाम 'काव्यनिर्णय' है। दशरूप के चतुर्थ प्रकाश की ३७वीं कारिका की व्याख्या में धनिक ने 'यथावोचाम काव्यनिर्णये' कहा है और उसकी सात कारिकाएँ उद्धृत की हैं। इनमें व्यंजनावादियों के पूर्वपक्ष को उद्धृत कर उनका खंडन किया गया है। श्रेणी:संस्कृत साहित्यकार.

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रस (काव्य शास्त्र)

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं। रस का शाब्दिक अर्थ है - निचोड़। काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप अप्रमेय और अनिर्वचनीय है। .

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रस निष्पत्ति

काव्य से रस किस प्रकार उत्पन्न होता है, यह काव्यशास्त्र का शाश्वत प्रश्न रहा है। संस्कृत काव्यशास्त्र के आद्याचार्य भरत मुनि ने अपने विख्यात रससूत्र में रस निष्पत्ति पर विचार करते हुए लिखा- भट्ट लोल्लट ने निष्पत्ति का अर्थ उत्पत्तिवाद से लिया है तथा संयोग शब्द के तीन अर्थ निकाले हैं। स्थायी भाव के साथ उत्पाद्य- उत्पादक भाव संबंध, अनुभाव के साथ गम्य-गमक भाव संबंध, तथा संचारी भावों के साथ पोष्य-पोषक संबंध। आचार्य शंकुक ने निष्पत्ति का अर्थ अनुमिति से लिया है तथा संयोग का अर्थ लिया है अनुमाप्य-अनुमापक भाव संबंध। भट्ट नायक ने निष्पत्ति से भुक्ति का अर्थ ग्रहण किया है तथा संयोग का भाव के लिए भोज्य-भोजक संबंध माना है। आचार्य अभिनवगुप्त ने निष्पत्ति का अर्थ अभिव्यक्तिवाद से लेकर संयोग का अर्थ व्यंग्य-व्यंजक भाव संबंध के रूप में लिया है। .

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संस्कृत साहित्य

बिहार या नेपाल से प्राप्त देवीमाहात्म्य की यह पाण्डुलिपि संस्कृत की सबसे प्राचीन सुरक्षित बची पाण्डुलिपि है। (११वीं शताब्दी की) ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक संस्कृत भाषा के माध्यम से सभी प्रकार के वाङ्मय का निर्माण होता आ रहा है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी के छोर तक किसी न किसी रूप में संस्कृत का अध्ययन अध्यापन अब तक होता चल रहा है। भारतीय संस्कृति और विचारधारा का माध्यम होकर भी यह भाषा अनेक दृष्टियों से धर्मनिरपेक्ष (सेक्यूलर) रही है। इस भाषा में धार्मिक, साहित्यिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक और मानविकी (ह्यूमैनिटी) आदि प्राय: समस्त प्रकार के वाङ्मय की रचना हुई। संस्कृत भाषा का साहित्य अनेक अमूल्य ग्रंथरत्नों का सागर है, इतना समृद्ध साहित्य किसी भी दूसरी प्राचीन भाषा का नहीं है और न ही किसी अन्य भाषा की परम्परा अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में इतने दीर्घ काल तक रहने पाई है। अति प्राचीन होने पर भी इस भाषा की सृजन-शक्ति कुण्ठित नहीं हुई, इसका धातुपाठ नित्य नये शब्दों को गढ़ने में समर्थ रहा है। संस्कृत साहित्य इतना विशाल और scientific है तो भारत से संस्कृत भाषा विलुप्तप्राय कैसे हो गया? .

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