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रस (काव्य शास्त्र)

सूची रस (काव्य शास्त्र)

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं। रस का शाब्दिक अर्थ है - निचोड़। काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप अप्रमेय और अनिर्वचनीय है। .

84 संबंधों: चिन्तामणि त्रिपाठी(रीतिग्रंथकार कवि), चंग नृत्य, चेरुश्शेरि नंपूतिरि, ठुमरी, डॉ॰ नगेन्द्र, तोषमणि, दशरूपकम्, धनिक, धमार, ध्वनि सिद्धान्त, नन्दिकेश्वर, नाट्य शास्त्र, नवरस, नवीन, नीलगिरी (यूकलिप्टस), प्रतिमानाटक, बर्मी भाषा, बर्मी साहित्य, बिहारी (साहित्यकार), भारतीय लोकनाट्य, भारतीय कला, भास, भवभूति, भूषण (हिन्दी कवि), माहिया, मृच्छकटिकम्, रस (बहुविकल्पी), रस (काव्य शास्त्र), रस निष्पत्ति, रस और भाव, रसिकप्रिया, रसविद्या, रहीम, राय देवीप्रसाद 'पूर्ण', रासलीला, राजशेखर, रोल्ड डाहल, रीति काल, लोल्लट, श्रीभार्गवराघवीयम्, श्रीसीतारामकेलिकौमुदी, शृंगार रस, षड्रस, सत, सरस्वतीकंठाभरण, साहित्य सिद्धान्त, साहित्य अकादमी पुरस्कार पंजाबी, साहित्य-लहरी, संस्कृत नाटक, संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द, ..., संगीत, सुंदरदास, सूत्रधार, हास्य रस तथा उसका साहित्य, हास्यरस तथा उसका साहित्य (संस्कृत, हिन्दी), हिन्दी साहित्य का इतिहास, ज्ञानेश्वर, ज्ञानेश्वरी, ईहामृग, घनानन्द, वाग्भट, वक्रोक्ति सिद्धान्त, वीर रस, गजानन त्र्यंबक माडखोलकर, गेहूँ, आयुर्वेद, कर्पूरमंजरी, काढ़ा, काव्य, किरातार्जुनीयम्, कविता की परिभाषा, कुमार विश्वास, कुमारव्यास, कृपाराम (काव्यशास्त्री), कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर, अद्भुत रस, अभिनय, अभिनवगुप्त, अमरूशतकम्, अलंकार (साहित्य), अष्टावक्र (महाकाव्य), उत्तररामचरितम्, उजियारे कवि, छ्न्द सूचकांक विस्तार (34 अधिक) »

चिन्तामणि त्रिपाठी(रीतिग्रंथकार कवि)

टिकमापुर, जन्म स्थान चिंतामणि त्रिपाठी हिन्दी के रीतिकाल के कवि हैं। ये यमुना के समीपवर्ती गाँव टिकमापुर या भूषण के अनुसार त्रिविक्रमपुर (जिला कानपुर) के निवासी काश्यप गोत्रीय कान्यकुब्ज त्रिपाठी ब्राह्मण थे। इनका जन्मकाल संo १६६६ विo और रचनाकाल संo १७०० विo माना जाता है। ये रतिनाथ अथवा रत्नाकर त्रिपाठी के पुत्र (भूषण के 'शिवभूषण' की विभिन्न हस्तलिखित प्रतियों में इनके पिता के उक्त दो नामों का उल्लेख मिलता है) और कविवर भूषण, मतिराम तथा जटाशंकर (नीलकंठ) के ज्येष्ठ भ्राता थे। चिंतामणि कभी-कभी अपनी रचनाओं में अपना नाम 'मनिलाल' और 'लालमनि' भी रखते थे। इनका संबंध शाहजहाँ, चित्रकूटाधिपति रुद्रशाह सोलंकी, जैनुद्दीन अहमद और नागपुर के भोंसला राजा मकरदशाह के राजदरबारों से था, जहाँ से इन्हें पर्याप्त सम्मान और प्रतिष्ठा मिली। नागपुर में उस समय कोई मकरदशाह संज्ञक भोंसला राजा नहीं था, इसलिये मकरंदशाह नामधारी इस कवि के आश्रयदाता संभवत: शिवाजी के पितामह ही थे, जो 'मालो जी' नाम से प्रख्यात हैं और भूषण ने जिनका स्मरण 'माल मकरद' कहकर किया है। .

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चंग नृत्य

चंग लोकनृत्य राजस्थान का का प्रसिद्ध लोकनृत्य है। राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र (चुरु, झुंझुनू, सीकर जिला) व बीकानेर जिला इसके प्रमुख क्षेत्र हैं। यह पुरुषों का सामूहिक लोकनृत्य है। इसका आयोजन होली पर्व पर होता है और महाशिवरात्रि से लेकर होली तक चलता है। इस लोकनृत्य में खुले स्थान में परमुखतः 'चंग' नामक वाद्ययंत्र के साथ शरीर की गति या संचालन, नृत्य या तालबद्ध गति के साथ अभिव्यक्त किया जाता है। इस लोकनृत्य की अभिव्यक्ति इतनी प्रभावशाली होती है की चंग पर थाप पड़ते ही लोगों को चंग पर लगातार नाचने व झूमने पर मजबूर कर देती है। चंग लोकनृत्य में गायी जाने वाली लोकगायकी को 'धमाल' के नाम से जाना जाता है। शब्दों के बाण, भावनाओं की उमंग और मौज-मस्ती के रंग मिश्रित धमाल हर किसी को गाने व झुमने के लिये मजबूर कर देती है। .

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चेरुश्शेरि नंपूतिरि

चेरुश्शेरि नंपूतिरि मलयालम कवि। ये मलाबार में पैदा हुए थे तथा उदयवर्मन् के दरबार में रहते थे जो 15वीं शताब्दी में एक छोटे से राज्य कोलत्तुनाड पर शासन करते थे। ये कृष्णगाथा के लेखक हैं। कविता में श्रीकृष्ण के विषय की उन कहानियों का वर्णन है जिनका संबंध उनके जन्म से लेकर अंत तक है। महाकाव्य की समस्त 47 कहानियाँ श्रीमद्महाभागवतम् से ली गई है। चेरुश्शेरि ने सभी रसों के विकास में समान रूप से ध्यान दिया है। महाकाव्य अपने माधुर्य एवं प्रसाद गुण के लिए प्रसिद्ध है। श्रीकृष्ण के बाल्यकाल का विस्तृत निरूपण, रासक्रीड़ा एवं ऋतु इत्यादि के वर्णन पूर्णरूपेण लोकप्रिय है। नंपूतिरि होने के कारण विनोद स्वाभाविक था और वह अनेक उद्धरणों में व्यक्त है। कहीं कहीं उनमें मृदु व्यंग भी है। चेरुश्शेरि ने अपने पूर्ववर्ती लेखकों द्वारा प्रयुत्त संस्कृत एवं तमिल छंदों का बहिष्कार किया है। और अपने महाकाव्य को गाथावृक्त में लिखा है जिसे "मंजरि" कहते हैं। कृष्णगाथा प्रथम महाकाव्य है जिसे विशुद्ध एवं सरल मलयालम में लिखा गया है। कवि कविता की भाषा को बोलचाल की भाषा के निकट लाया है। सबसे प्रथम उन्होंने ही यह प्रदर्शित किया कि मलयालम भाषा में मानव भावनाओं की सूक्ष्म से सूक्ष्म बातों को व्यक्त करने की क्षमता है। उनका काव्य अलंकारों से परिपूर्ण है और वह अपने छंदों के लिए विशेष रूप से प्रशंसा के पात्र हैं। .

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ठुमरी

ठुमरी भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक गायन शैली है। इसमें रस, रंग और भाव की प्रधानता होती है। अर्थात जिसमें राग की शुद्धता की तुलना में भाव सौंदर्य को ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है। यह विविध भावों को प्रकट करने वाली शैली है जिसमें श्रृंगार रस की प्रधानता होती है साथ ही यह रागों के मिश्रण की शैली भी है जिसमें एक राग से दूसरे राग में गमन की भी छूट होती है और रंजकता तथा भावाभिव्यक्ति इसका मूल मंतव्य होता है। इसी वज़ह से इसे अर्ध-शास्त्रीय गायन के अंतर्गत रखा जाता है। .

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डॉ॰ नगेन्द्र

डॉ॰ नगेन्द्र (जन्म: 9 मार्च 1915 अलीगढ़, मृत्यु: 27 अक्टूबर 1999 नई दिल्ली) हिन्दी के प्रमुख आधुनिक आलोचकों में थे। वे एक सुलझे हुए विचारक और गहरे विश्लेषक थे। अपनी सूझ-बूझ तथा पकड़ के कारण वे गहराई में पैठकर केवल विश्लेषण ही नहीं करते, बल्कि नयी उद्भावनाओं से अपने विवेचन को विचारोत्तेजक भी बना देते थे। उलझन उनमें कहीं नहीं थी। 'साधारणीकरण' सम्बन्धी उनकी उद्भावनाओं से लोग असहमत भले ही रहे हों, पर उसके कारण लोगों को उस सम्बन्ध में नये ढंग से विचार अवश्य करना पड़ा है। 'भारतीय काव्य-शास्त्र' (1955ई.) की विद्वत्तापूर्ण भूमिका प्रस्तुत करके उन्होंने हिन्दी में एक बड़े अभाव की पूर्ति की। उन्होंने 'पाश्चात्य काव्यशास्त्र: सिद्धांत और वाद' नामक आलोचनात्मक कृति में अपनी सूक्ष्म विवेचन-क्षमता का परिचय भी दिया। अरस्तू के काव्यशास्त्र की भूमिका-अंश उनका सूक्ष्म पकड़, बारीक विश्लेषण और अध्यवसाय का परिचायक है। बीच-बीच में भारतीय काव्य-शास्त्र से तुलना करके उन्होंने उसे और भी उपयोगी बना दिया है। उन्होंने हिंदी मिथक को भी परिभाषित किया है। .

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तोषमणि

तोषमणि हिन्दी कवि थे। .

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दशरूपकम्

दशरूपकम् नाट्य के दशरूपों के लक्षण और उनकी विशेषताओं का प्रतिपादन करनेवाला ग्रंथ है। अनुष्टुप श्लोकों द्वारा रचित दसवीं शती का यह ग्रंथ धनंजय की कृति है। रचनाकार ने भरत मुनि के नाट्यशास्त्र से बहुत से विचार लिये हैं। दशरूपकम में कुल चार अध्याय हैं जिन्हें 'आलोक' कहा गया है। .

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धनिक

धनिक, नाट्यशास्त्र के ग्रंथ 'दशरूप' के टीकाकार हैं। दशरूप के प्रथम प्रकाश के अंत में 'इति विष्णुसूनोर्धनिकस्य कृतौ दशरूपावलोके' इस निर्देश से ज्ञात होता है कि धनिक दशरूपक के रचयिता, विष्णुसुत धनंजय के भाई थे। दोनों भाई मुंजराज के सभापंडित थे। मुँज (वाक्पतिराज द्वितीय) और उसके उत्तराधिकारी के शासनकाल के अनुसार इनका समय ईसा की दसवीं शताब्दी का अंत और ग्यारहवीं का प्रारंभ माना जाता है। दशरूप 'मुंजमहीशगोष्ठी' के विद्वानों के मन को प्रसन्नता और प्रेम से निबद्ध करनेवाला कहा गया है। धनिक द्वारा इसकी 'अवलोक' नाम की टीका मुंज के उत्तराधिकारी के शासनकाल में लिखी गई। दशरूप मुख्यत: भरतनाट्यशास्त्र का अनुगामी है और उसका एक प्रकार से संक्षिप्त रूप है। चार प्रकाशों में यह ग्रंथ विभक्त है। प्रारंभ के तीन प्रकाशों में नाट्य के भेद, उपभेद, नायक आदि का वर्णन है और चतुर्थ प्रकाश के रसों का। दशरूप में रंगमंच पर विवेचन नहीं किया गया है और न धनिक ने ही इसपर विचार किया है। धनिक की टीका गद्य में है और मूल ग्रंथ के अनुसार है। अनेक काव्यों और नाटकों से संकलित उदाहरणों आदि द्वारा यह मूल ग्रंथ को पूर्ण, बोधगम्य और सरल करती है। कुछ परवर्ती विद्वानों ने धनिक को ही 'दशरूप' का रचयिता माना है और उन्हीं के नाम से 'दशरूप' की कारिकाएँ उद्धृत की हैं, यह भ्रमात्मक है। धनिक अभिधावादी और ध्वनिविरोधी हैं। रसनिष्पत्ति के संबंध में वे भट्टनायक के मत को मानते हैं, पर उसमें भट्ट लोल्लट और शंकुक के मतों का मिश्रण कर देते हैं। इस प्रकार इनका एक स्वतंत्र मत हो जाता है। दशरूप के चतुर्थ प्रकाश में धनिक ने इसपर विस्तृत रूप से विचार किया है। नाटक में शांत रस को धनिक ने स्वीकार नहीं किया है और आठ रस ही माने हैं। शांत को ये अभिनय में सर्वथा निषिद्ध करते हैं, अत: शम को स्थायी भी नहीं मानते। धनिक कवि थे और इन्होंने संस्कृत-प्राकृत काव्य भी लिखा है। 'अवलोक' में इनके अनेक ललित पद्य इधर-उधर उदाहरणों के रूप में बिखरे पड़े हैं। 'अवलोक' से ही यह भी ज्ञात होता है कि धनिक ने साहित्यशास्त्र का एक ग्रंथ और लिखा जिसका नाम 'काव्यनिर्णय' है। दशरूप के चतुर्थ प्रकाश की ३७वीं कारिका की व्याख्या में धनिक ने 'यथावोचाम काव्यनिर्णये' कहा है और उसकी सात कारिकाएँ उद्धृत की हैं। इनमें व्यंजनावादियों के पूर्वपक्ष को उद्धृत कर उनका खंडन किया गया है। श्रेणी:संस्कृत साहित्यकार.

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धमार

धमार का जन्म ब्रज भूमि के लोक संगीत में हुआ। इसका प्रचलन ब्रज के क्षेत्र में लोक- गीत के रूप में बहुत काल से चला आता है। इस लोकगीत में वर्ण्य- विषय राधा- कृष्ण के होली खेलने का था। रस शृंगार था और भाषा थी ब्रज। ग्रामों के उन्मूक्त वातावरण में द्रुत गति के दीपचंदी, धुमाली और कभी अद्धा जैसी ताल में युवक- युवतियों, प्रौढ़ और वृद्धों, सभी के द्वारा यह लोकगीत गाए और नाचे जाते थे। ब्रज के संपूर्ण क्षेत्र में रसिया और होली जन-जन में व्याप्त है। पंद्रहवीं शताब्दी के अंत और सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में उस समय के संगीत परिदृश्य को देखते हुए मानसिंह तोमर और नायक बैजू ने धमार गायकी की नींव डाली। उन्होंने होरी नामक लोकगीत ब्रज का लिया और उसको ज्ञान की अग्नि में तपाकर ढ़ाल दिया। प्राचीन चरचरी प्रबंध के सांचे में, जो चरचरी ताल में ही गाए जाते थे। होरी गायन का प्रिय ताल आदि चाचर (चरचरी) दीपचंदी बन गया। होरी की बंदिश तो पूर्ववत रही, वह विभिन्न रागों में निबद्ध कर दी गई। गायन शैली वही लोक संगीत के आधार पर पहले विलंबित अंत में द्रुत गति में पूर्वाधरित ताल से हट कर कहरवा ताल में होती है और श्रोता को रसाविभूत कर देती है। नायक बैजू ने धमारों की रचना छोटी की। इसकी गायन शैली का आधार ध्रुवपद जैसा ही रखा गया। वर्ण्य-विषय मात्र फाग से संबंधित और रस शृंगार था, वह भी संयोग। वियोग शृंगार को धमार बहुत कम स्थान प्राप्त हैं। इस शैली का उद्देश्य ही रोमांटिक वातावरण उत्पन्न करना था। ध्रुवपद की तरह आलाप, फिर बंदिश गाई जाती थी। पद गायन के बाद लय- बाँट प्रधान उपज होती थी। विभिन्न प्रकार की लयकारियों से गायक श्रोताओं को चमत्कृत करता था। पखावजी के साथ लड़ंत होती थी। सम की लुकाछिपी की जाती थी। श्रेष्ठ कलाकार गेय पदांशों के स्वर सन्निवेशों में भी अंतर करके श्रोताओं को रसमग्न करते थे। इस प्रकार धमार का जन्म हुआ और यह गायन शैली देश भर के संगीतज्ञों में फैल गई। गत एक शताब्दी में धमार के श्रेष्ठ गायक नारायण शास्री, धर्मदास के पुत्र बहराम खाँ, पं॰ लक्ष्मणदास, गिद्धौर वाले मोहम्मद अली खाँ, आलम खाँ, आगरे के गुलाम अब्बास खाँ और उदयपुर के डागर बंधु आदि हुए हैं। ख्याल गायकों के वर्तमान घरानों में से केवल आगरे के उस्ताद फैयाज खाँ नोम-तोम से अलाप करते थे और धमार गायन करते थे। इसी प्रकार समय के साथ-साथ मृदंग और वीणा वादन में भी परिवर्तन होता गया। मृदंग और वीणा प्राचीन काल से ही अधिकांशतया गीतानुगत ही बजाई जाती थीं। मुक्त वादन भी होता था। मृदंग और वीणावादकों ने भी ध्रुवपद और धमार गायकी के अनुरुप अपने को ढाला। वीणा में ध्रुवपदानुरुप आलाप, जोड़ालाप, विलंबित लय की गतें, तान, परनें और झाला आदि बजाए गए। धमार के अनुरुप पखावजी से लय- बाँट की लड़ंत शुरु हुई। पखावजी ने भी ध्रुवपद- धमार में प्रयुक्त तालों में भी अभ्यास किया, साथ ही संगत के लिए विभिन्न तालों और लयों की परनों को रचा। .

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ध्वनि सिद्धान्त

ध्वनि सिद्धान्त, भारतीय काव्यशास्त्र का एक सम्प्रदाय है। भारतीय काव्यशास्त्र के विभिन्न सिद्धान्तों में यह सबसे प्रबल एवं महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। ध्वनि सिद्धान्त का आधार 'अर्थ ध्वनि' को माना गया है। इस सिद्धान्त की स्थापना का श्रेय 'आनंदवर्धन' को है किन्तु अन्य सम्प्रदायों की तरह ध्वनि सिद्धान्त का जन्म आनंदवर्धन से पूर्व हो चुका था। स्वयं आनन्दवर्धन ने अपने पूर्ववर्ती विद्वानों का मतोल्लेख करते हुए कहा हैं कि- आनंदवर्धन के पश्चात 'अभिनवगुप्त' ने 'ध्वन्यालोक' पर 'लोचन टीका' लिखकर ध्वनि सिद्धान्त का प्रबल समर्थन किया। आन्नदवर्धन और अभिनवगुप्त दोनों ने रस और ध्वनि का अटूट संबंध दिखाकर रास मत का ही समर्थन किया था। आन्नदवर्धन ने 'रस ध्वनि' को सर्वश्रेष्ठ ध्वनि माना हैं जबकि अभिनवगुप्त रस-ध्वनि को 'ध्वनित' या 'अभिव्यंजित' मानते हैं। परवर्ती आचार्य मम्मट ने ध्वनि विरोधी मुकुल भट्ट, महिम भट्ट, कुन्तक आदि की युक्तियों का सतर्क खंडन कर ध्वनि सिद्धान्त को प्रबलित किया। उन्होंने व्यंजना को काव्य के लिए अपरिहार्य माना इसीलिए उन्हें 'ध्वनि प्रतिष्ठापक परमाचार्य' कहा जाता है। .

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नन्दिकेश्वर

नंदिकेश्वर (द्वितीय शताब्दी ई.) प्राचीन भारत के महान नाट्य-सिद्धान्तकार थे। उन्होने अभिनयदर्पण की रचना की। अभिनयदर्पण के श्लोक संख्या ३७ में नन्दिकेश्वर कहते हैं- .

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नाट्य शास्त्र

250px नाटकों के संबंध में शास्त्रीय जानकारी को नाट्य शास्त्र कहते हैं। इस जानकारी का सबसे पुराना ग्रंथ भी नाट्यशास्त्र के नाम से जाना जाता है जिसके रचयिता भरत मुनि थे। भरत मुनि का काल ४०० ई के निकट माना जाता है। संगीत, नाटक और अभिनय के संपूर्ण ग्रंथ के रूप में भारतमुनि के नाट्य शास्त्र का आज भी बहुत सम्मान है। उनका मानना है कि नाट्य शास्त्र में केवल नाट्य रचना के नियमों का आकलन नहीं होता बल्कि अभिनेता रंगमंच और प्रेक्षक इन तीनों तत्वों की पूर्ति के साधनों का विवेचन होता है। 37 अध्यायों में भरतमुनि ने रंगमंच अभिनेता अभिनय नृत्यगीतवाद्य, दर्शक, दशरूपक और रस निष्पत्ति से संबंधित सभी तथ्यों का विवेचन किया है। भरत के नाट्य शास्त्र के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाटक की सफलता केवल लेखक की प्रतिभा पर आधारित नहीं होती बल्कि विभिन्न कलाओं और कलाकारों के सम्यक के सहयोग से ही होती है। .

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नवरस

कोई विवरण नहीं।

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नवीन

नवीन का अर्थ होता है नया। .

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नीलगिरी (यूकलिप्टस)

नीलगिरी मर्टल परिवार, मर्टसिया प्रजाति के पुष्पित पेड़ों (और कुछ झाडि़यां) की एक भिन्न प्रजाति है। इस प्रजाति के सदस्य ऑस्ट्रेलिया के फूलदार वृक्षों में प्रमुख हैं। नीलगिरी की 700 से अधिक प्रजातियों में से ज्यादातर ऑस्ट्रेलिया मूल की हैं और इनमें से कुछ बहुत ही अल्प संख्या में न्यू गिनी और इंडोनेशिया के संलग्न हिस्से और सुदूर उत्तर में फिलपिंस द्वीप-समूहों में पाये जाते हैं। इसकी केवल 15 प्रजातियां ऑस्ट्रेलिया के बाहर पायी जाती हैं और केवल 9 प्रजातियां ऑस्ट्रेलिया में नहीं होतीं.

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प्रतिमानाटक

प्रतिमानाटक, संस्कृत का प्रसिद्ध नाटक है। यह भास के सर्वोत्तम नाटकों में से एक है। सात अंकों के इस नाटक में भास की कला पर्याप्त ऊँचाईं को प्राप्त कर चुकी है। इसमें भास ने राम वनगमन से लेकर रावणवध तथा राम राज्याभिषेक तक की घटनाओं को स्थान दिया है। महाराज दशरथ की मृत्यु के उपरान्त ननिहाल से लौट रहे भरत अयोध्या के पास मार्ग में स्थित देवकुल में पूर्वजों की प्रतिमायें देखते हैं, वहाँ दशरथ की प्रतिमा देखकर वे उनकी मृत्यु का अनुमान कर लेते हैं। प्रतिमा दर्शन की घटना प्रधान होने से इसका नाम प्रतिमा नाटक रखा गया है। इस नाटक में भास ने पात्रों का चारित्रिक उत्कर्ष दिखाने का भरसक प्रयास किया है। इतिवृत्त तथा चरित्रचित्रण दोनों दृष्टियों से यह नाटक सफल हुआ है। भावों के अनुकूल भाषा तथा लघु विस्तारी वाक्य भास के नाटकों की अपनी विशेषताएँ हैं। यह करुण रस प्रधान नाटक है तथा अन्य रस इसी में सहायक बनकर आये हैं। प्रतिमा निर्माण की कथा भास की अपनी मौलिकता है। भास ने इस नाटक में मौलिकता लाने में प्रचलित रामचरित से पर्याप्त पार्थक्य ला दिया है। यद्यपि ये सारी घटनायें प्रचलित कथा से भिन्न हैं, पर नाटकीय दृष्टि से इनका महत्व सुतरां ऊँचा है और पाठक अथवा दर्शक की कौतुहल वृद्धि में ये घटनायें सहायक हुई हैं। इस नाटक में रामायणीय कथा से भिन्नतायें इस प्रकार हैं - प्रथम अंक में सीता द्वारा परिहास में वल्कल पहनना भास की मौलिकता है। तृतीय अंक में प्रतिमा का सम्पूर्ण प्रकरण ही कवि कल्पित है और यह कल्पना ही नाटक की आधारभूमि बनायी गयी है। पाँचवें अंक में सीता का हरण भी यहाँ नवीन ढंग से बताया गया है। यहाँ राम के उटज में वर्तमान रहने पर ही रावण वहाँ आता है और दशरथ के श्राद्ध के लिए उन्हें कांचनपार्श्व मृग लाने को कहता है तथा उन्हें कांचन मृग दिखाकर दूर हटाता है। यह सम्पूर्ण प्रसंग नाटककार द्वारा गढ़ा गया है। पांचवें अंक में सुमंत्र का वन में जाना तथा लौटकर भरत से सीताहरण बताना कवि कल्पना का प्रसाद है। कैकयी द्वारा यह कहना भी कि उसने ऋषिवचन सत्य करने के लिए राम को वन भेजा, भास की प्रसृति है। अन्ततः सप्तम अंक में राम का वन में ही राज्याभिषेक इस नाटक में मौलिक ही है। .

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बर्मी भाषा

बर्मी भाषा बोलने वाले क्षेत्र बर्मी भाषा (बर्मी भाषा में: မြန်မာဘာသာ / म्रन्माभासा), स्वतंत्र देश म्यांमार (बर्मा) की राजभाषा है। यह मुख्य रूप से ब्रह्मदेश (बर्मा का संस्कृत नाम) में बोली जाती है। म्यांमार की सीमा से सटे भारतीय राज्यों असम, मणिपुर एवं अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में भी कुछ लोग इस भाषा का प्रयोग करते हैं। .

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बर्मी साहित्य

अन्य देशों की भाँति बर्मा का भी अपना साहित्य है जो अपने में पूर्ण एवं समृद्ध है। बर्मी साहित्य का अभ्युदय प्राय: काव्यकला को प्रोत्साहन देनेवाले राजाओं के दरबार में हुआ है इसलिए बर्मी साहित्य के मानवी कवियों का संबंध वैभवशाली महीपालों के साथ स्थापित है। राजसी वातावरण में अभ्युदय एवं प्रसार पाने के कारण बर्मी साहित्य अत्यंत सुश्लिष्ट तथा प्रभावशाली हो गया है। बर्मी साहित्य के अंतर्गत बुद्धवचन (त्रिपिटक), अट्टकथा तथा टीका ग्रंथों के अनुवाद सम्मिलित हैं। बर्मी भाषा में गद्य और पद्य दोनों प्रकार की साहित्य विधाएँ मौलिक रूप से मिलती हैं। इसमें आयुर्वेदिक ग्रंथों के अनुवाद भी हैं। पालि साहित्य के प्रभाव से इसकी शैली भारतीय है तथा बोली अपनी है। पालि के पारिभाषिक तथा मौलिक शब्द इस भाषा में बर्मीकृत रूप में पाए जाते हैं। रस, छंद और अलंकारों की योजना पालि एवं संस्कृत से प्रभावित है। बर्मी साहित्य के विकास को दृष्टि में रखकर विद्वानों ने इसे नौ कालों में विभाजित किया है, जिसमें प्रत्येक युग के साहित्य की अपनी विशेषता है। .

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बिहारी (साहित्यकार)

बिहारीलाल या बिहारी हिंदी के रीति काल के प्रसिद्ध कवि थे। .

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भारतीय लोकनाट्य

भारत में नाट्य की परंपरा अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है। भरत मुनि ने (ई.पू. तृतीय शताब्दी) अपने नाट्यशास्त्र में इस विषय का विशद वर्णन किया है। इसे अतिरिक्त धनंजयकृत 'दशरूपक' में तथा विश्वनाथ कविराजविरचित 'साहित्यदर्पण' में भी एतत्संबंधी बहुमूल्य सामग्री उपलब्ध है, परंतु नाट्यशास्त्र ही नाट्यविद्या का सबसे मौलिक तथा स्रोतग्रंथ माना जाता है। .

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भारतीय कला

अजन्ता गुफा में चित्रित '''बोधि''' नृत्य करती हुई अप्सरा (१२वीं शताब्दी) भारतीय कला का एक नमूना - '''बनीठनी'''; किशनगढ़, जयपुर, राजस्थान कला, संस्कृति की वाहिका है। भारतीय संस्कृति के विविध आयामों में व्याप्त मानवीय एवं रसात्मक तत्व उसके कला-रूपों में प्रकट हुए हैं। कला का प्राण है रसात्मकता। रस अथवा आनन्द अथवा आस्वाद्य हमें स्थूल से चेतन सत्ता तक एकरूप कर देता है। मानवीय संबन्धों और स्थितियों की विविध भावलीलाओं और उसके माध्यम से चेतना को कला उजागार करती है। अस्तु चेतना का मूल ‘रस’ है। वही आस्वाद्य एवं आनन्द है, जिसे कला उद्घाटित करती है। भारतीय कला जहाँ एक ओर वैज्ञानिक और तकनीकी आधार रखती है, वहीं दूसरी ओर भाव एवं रस को सदैव प्राणतत्वण बनाकर रखती है। भारतीय कला को जानने के लिये उपवेद, शास्त्र, पुराण और पुरातत्त्व और प्राचीन साहित्य का सहारा लेना पड़ता है। .

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भास

भास संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध नाटककार थे जिनके जीवनकाल के बारे में अधिक पता नहीं है। स्वप्नवासवदत्ता उनके द्वारा लिखित सबसे चर्चित नाटक है जिसमें एक राजा के अपने रानी के प्रति अविरहनीय प्रेम और पुनर्मिलन की कहानी है। कालिदास जो गुप्तकालीन समझे जाते हैं, ने भास का नाम अपने नाटक में लिया है, जिससे लगता है कि वो गुप्तकाल से पहले रहे होंगे पर इससे भी उनके जीवनकाल का अधिक ठोस प्रमाण नहीं मिलता। आज कई नाटकों में उनका नाम लेखक के रूप में उल्लिखित है पर १९१२ में त्रिवेंद्रम में गणपति शास्त्री ने नाटकों की लेखन शैली में समानता देखकर उन्हें भास-लिखित बताया। इससे पहले भास का नाम संस्कृत नाटककार के रूप में विस्मृत हो गया था। .

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भवभूति

भवभूति, संस्कृत के महान कवि एवं सर्वश्रेष्ठ नाटककार थे। उनके नाटक, कालिदास के नाटकों के समतुल्य माने जाते हैं। भवभूति ने अपने संबंध में महावीरचरित्‌ की प्रस्तावना में लिखा है। ये विदर्भ देश के 'पद्मपुर' नामक स्थान के निवासी श्री भट्टगोपाल के पुत्र थे। इनके पिता का नाम नीलकंठ और माता का नाम जतुकर्णी था। इन्होंने अपना उल्लेख 'भट्टश्रीकंठ पछलांछनी भवभूतिर्नाम' से किया है। इनके गुरु का नाम 'ज्ञाननिधि' था। मालतीमाधव की पुरातन प्रति में प्राप्त 'भट्ट श्री कुमारिल शिष्येण विरचित मिंद प्रकरणम्‌' तथा 'भट्ट श्री कुमारिल प्रसादात्प्राप्त वाग्वैभवस्य उम्बेकाचार्यस्येयं कृति' इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि श्रीकंठ के गुरु कुमारिल थे जिनका 'ज्ञाननिधि' भी नाम था और भवभूति ही मीमांसक उम्बेकाचार्य थे जिनका उल्लेख दर्शन ग्रंथों में प्राप्त होता है और इन्होंने कुमारिल के श्लोकवार्तिक की टीका भी की थी। संस्कृत साहित्य में महान्‌ दार्शनिक और नाटककार होने के नाते ये अद्वितीय हैं। पांडित्य और विदग्धता का यह अनुपम योग संस्कृत साहित्य में दुर्लभ है। शंकरदिग्विजय से ज्ञात होता है कि उम्बेक, मंडन सुरेश्वर, एक ही व्यक्ति के नाम थे। भवभूति का एक नाम 'उम्बेक' प्राप्त होता है अत: नाटककार भवभूति, मीमांसक उम्बेक और अद्वैतमत में दीक्षित सुरेश्वराचार्य एक ही हैं, ऐसा कुछ विद्वानों का मत है। राजतरंगिणी के उल्लेख से इनका समय एक प्रकार से निश्चित सा है। ये कान्यकुब्ज के नरेश यशोवर्मन के सभापंडित थे, जिन्हें ललितादित्य ने पराजित किया था। 'गउडवहो' के निर्माता वाक्यपतिराज भी उसी दरबार में थे अत: इनका समय आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध सिद्ध होता है। .

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भूषण (हिन्दी कवि)

भूषण (१६१३-१७१५) रीतिकाल के तीन प्रमुख कवियों में से एक हैं, अन्य दो कवि हैं बिहारी तथा केशव। रीति काल में जब सब कवि शृंगार रस में रचना कर रहे थे, वीर रस में प्रमुखता से रचना कर भूषण ने अपने को सबसे अलग साबित किया। 'भूषण' की उपाधि उन्हें चित्रकूट के राजा रूद्रसाह के पुत्र हृदयराम ने प्रदान की थी। ये मोरंग, कुमायूँ, श्रीनगर, जयपुर, जोधपुर, रीवाँ, शिवाजी और छत्रसाल आदि के आश्रय में रहे, परन्तु इनके पसंदीदा नरेश शिवाजी और बुंदेला थे। .

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माहिया

माहिया पंजाबी का अत्यन्त लोक प्रचलित शृंगार रस तथा करुण रस से ओतप्रोत लोकगीत है। माहिया में शृंगार के विरह-पक्ष की बहुत मार्मिक अनुभूति होती है। माहिया मात्रिक छन्द है। इसमें पूरा गीत तीन पंक्तियों में होता है। पहली पंक्ति में १२ मात्राएँ, दूसरी पंक्ति में १० और पुनः तीसरी पंक्ति में १२ मात्राएँ होती हैं। .

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मृच्छकटिकम्

राजा रवि वर्मा द्वारा चित्रित '''वसन्तसेना''' मृच्छकटिकम् (अर्थात्, मिट्टी की गाड़ी) संस्कृत नाट्य साहित्य में सबसे अधिक लोकप्रिय रूपक है। इसमें 10 अंक है। इसके रचनाकार महाराज शूद्रक हैं। नाटक की पृष्टभूमि पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) है। भरत के अनुसार दस रूपों में से यह 'मिश्र प्रकरण' का सर्वोत्तम निदर्शन है। ‘मृच्छकटिकम’ नाटक इसका प्रमाण है कि अंतिम आदमी को साहित्य में जगह देने की परम्परा भारत को विरासत में मिली है जहाँ चोर, गणिका, गरीब ब्राह्मण, दासी, नाई जैसे लोग दुष्ट राजा की सत्ता पलट कर गणराज्य स्थापित कर अंतिम आदमी से नायकत्व को प्राप्त होते हैं। .

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रस (बहुविकल्पी)

'रस' से निम्नलिखित का बोध होता है-.

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रस (काव्य शास्त्र)

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं। रस का शाब्दिक अर्थ है - निचोड़। काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप अप्रमेय और अनिर्वचनीय है। .

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रस निष्पत्ति

काव्य से रस किस प्रकार उत्पन्न होता है, यह काव्यशास्त्र का शाश्वत प्रश्न रहा है। संस्कृत काव्यशास्त्र के आद्याचार्य भरत मुनि ने अपने विख्यात रससूत्र में रस निष्पत्ति पर विचार करते हुए लिखा- भट्ट लोल्लट ने निष्पत्ति का अर्थ उत्पत्तिवाद से लिया है तथा संयोग शब्द के तीन अर्थ निकाले हैं। स्थायी भाव के साथ उत्पाद्य- उत्पादक भाव संबंध, अनुभाव के साथ गम्य-गमक भाव संबंध, तथा संचारी भावों के साथ पोष्य-पोषक संबंध। आचार्य शंकुक ने निष्पत्ति का अर्थ अनुमिति से लिया है तथा संयोग का अर्थ लिया है अनुमाप्य-अनुमापक भाव संबंध। भट्ट नायक ने निष्पत्ति से भुक्ति का अर्थ ग्रहण किया है तथा संयोग का भाव के लिए भोज्य-भोजक संबंध माना है। आचार्य अभिनवगुप्त ने निष्पत्ति का अर्थ अभिव्यक्तिवाद से लेकर संयोग का अर्थ व्यंग्य-व्यंजक भाव संबंध के रूप में लिया है। .

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रस और भाव

विभाव वजह या कारण या प्रेरणा होता है। उसे इसीलिए विभाव कहते हैं क्योंकि यह वचन शरीर, इशारों और मानसिक भावनाओं का विवरण करते हैं। विभाव दो प्रकार का होता हे.

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रसिकप्रिया

रसिकप्रिया यह आचार्य केशवदास की प्रसिद्ध रचना है। काव्यशास्त्र में रसविवेचन का प्रमुख स्थान है, इस दृष्टि से केशव ने इस इस ग्रंथ में रस का विशद वर्णन किया है। इसमें कुल १६ प्रकाश हैं। शृंगार रस चूँकि 'रसराज' माना गया है, इसलिये मंगलाचरण के बाद प्रथम प्रकाश में इसी का, इसके भेदों के साथ, वर्णन किया गया है। फिर, दूसरे प्रकाश में नायकभेद और तीसरे में जाति, कर्म, अवस्था, मान के विचार से नायिका के भेद, चतुर्थ में प्रेमोत्पत्ति के चार मुख्य हेतुओं तथा पंचम में दोनों की प्रणय संबंधी चेष्टाओं, मिलनस्थलों, तथा अवसरों के साथ स्वयंदूतत्व का निरूण किया गया है। फिर छठे में भावविभावानुभाव, संचारी भावों के साथ हावादि का कथन हुआ है। अष्टम में पूर्वानुराग तथा प्रियमिलन न होने पर प्रमुख दशाओं का, नवम में मान और दशम में मानमोचन के उपायों का उल्लेख किया गया है। तत्पश्चात् वियोग शृंगार के रूपों तथा सखीभेद, आदि का विचार किया गय है। चौदहवें प्रकाश में अन्य आठ रसों का निरूपण किया गया है। इसमें आधार भरतमुनि का नाट्यशास्त्र ही प्रतीत होता है। फिर भी यह मौलिक है। इस ग्रंथ में उन्होंने किसी विशेष रसग्रंथ से सहायता नहीं ली, वरन् रससिद्धांत का सम्यक् अध्ययन कर स्वतंत्र रूप में ही लिखने का प्रयास किया है। रसों के इन्होंने प्रच्छन्न और प्रकाश नामक दो भेद किए हैं। ऐसा किसी अन्य आचार्य ने नहीं किया। भोजदेव ने अनुराग के ऐसे दो भेद किए हैं। कोककला की पटुता को भी नायकादि के प्रसंग में रखा गया है। नयिका के पद्मिनी आदि कामशास्त्रीय भेद किए गए हैं। कुछ भेदों में नामांतर भी किया गया है। स्वानुभव से भी काम लेकर केशव ने मौलिक लक्षणादि दिए हैं। कितनी बातें उनकी नितांत मौलिक हैं। जाति संबंधी भेद, अगम्या, सहेटस्थल और मिलनावसरादि नवीन वर्णन हैं। बोध हाव भी मौलिक है। इस प्रकार देखने से ज्ञात होता है कि रस तथा रस के अंगों आदि के विवेचन में केशव अधिक मौलिक और सफल हैं। अत: उन्हें रसहीन और केवल अलंकारप्रिय कवि मानना समीचीन नहीं। .

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रसविद्या

रसविद्या, मध्यकालीन भारत की किमियागारी (alchemy) की विद्या है जो दर्शाती है कि भारत भौतिक संस्कृति में भी अग्रणी था। भारत में केमिस्ट्री (chemistry) के लिये "रसायन शास्त्र", रसविद्या, रसतन्त्र, रसशास्त्र और रसक्रिया आदि नाम प्रयोग में आते थे। जहाँ रसविद्या से सम्बन्धित क्रियाकलाप किये जाते थे उसे रसशाला कहते थे। इस विद्या के मर्मज्ञों को रसवादिन् कहा जाता था। रसविद्या का बड़ा महत्व माना गया है। रसचण्डाशुः नामक ग्रन्थ में कहा गया है- इसी तरह- .

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रहीम

अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना या सिर्फ रहीम, एक मध्यकालीन कवि, सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, एवं विद्वान थे। वे भारतीय सामासिक संस्कृति के अनन्य आराधक तथा सभी संप्रदायों के प्रति समादर भाव के सत्यनिष्ठ साधक थे। उनका व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न था। वे एक ही साथ कलम और तलवार के धनी थे और मानव प्रेम के सूत्रधार थे। जन्म से एक मुसलमान होते हुए भी हिंदू जीवन के अंतर्मन में बैठकर रहीम ने जो मार्मिक तथ्य अंकित किये थे, उनकी विशाल हृदयता का परिचय देती हैं। हिंदू देवी-देवताओं, पर्वों, धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं का जहाँ भी आपके द्वारा उल्लेख किया गया है, पूरी जानकारी एवं ईमानदारी के साथ किया गया है। आप जीवन भर हिंदू जीवन को भारतीय जीवन का यथार्थ मानते रहे। रहीम ने काव्य में रामायण, महाभारत, पुराण तथा गीता जैसे ग्रंथों के कथानकों को उदाहरण के लिए चुना है और लौकिक जीवन व्यवहार पक्ष को उसके द्वारा समझाने का प्रयत्न किया है, जो भारतीय सांस्कृति की वर झलक को पेश करता है। .

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राय देवीप्रसाद 'पूर्ण'

राय देवीप्रसाद 'पूर्ण' (मार्गशीर्ष कृष्ण १३, संवत् १९२५ वि. - संवत् १९७२) हिन्दी के कवि थे। .

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रासलीला

रासलीला या कृष्णलीला में युवा और बालक कृष्ण की गतिविधियों का मंचन होता है। कृष्ण की मनमोहक अदाओं पर गोपियां यानी बृजबालाएं लट्टू थीं। कान्हा की मुरली का जादू ऐसा था कि गोपियां अपनी सुतबुत गंवा बैठती थीं। गोपियों के मदहोश होते ही शुरू होती थी कान्हा के मित्रों की शरारतें। माखन चुराना, मटकी फोड़ना, गोपियों के वस्त्र चुराना, जानवरों को चरने के लिए गांव से दूर-दूर छोड़ कर आना ही प्रमुख शरारतें थी, जिन पर पूरा वृन्दावन मोहित था। जन्माष्टमी के मौके पर कान्हा की इन सारी अठखेलियों को एक धागे में पिरोकर यानी उनको नाटकीय रूप देकर रासलीला या कृष्ण लीला खेली जाती है। इसीलिए जन्माष्टमी की तैयारियों में श्रीकृष्ण की रासलीला का आनन्द मथुरा, वृंदावन तक सीमित न रह कर पूरे देश में छा जाता है। जगह-जगह रासलीलाओं का मंचन होता है, जिनमें सजे-धजे श्री कृष्ण को अलग-अलग रूप रखकर राधा के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करते दिखाया जाता है। इन रास-लीलाओं को देख दर्शकों को ऐसा लगता है मानो वे असलियत में श्रीकृष्ण के युग में पहुंच गए हों। .

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राजशेखर

राजशेखर (विक्रमाब्द 930- 977 तक) काव्यशास्त्र के पण्डित थे। वे गुर्जरवंशीय नरेश महेन्द्रपाल प्रथम एवं उनके बेटे महिपाल के गुरू एवं मंत्री थे। उनके पूर्वज भी प्रख्यात पण्डित एवं साहित्यमनीषी रहे थे। काव्यमीमांसा उनकी प्रसिद्ध रचना है। समूचे संस्कृत साहित्य में कुन्तक और राजशेखर ये दो ऐसे आचार्य हैं जो परंपरागत संस्कृत पंडितों के मानस में उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं जितने रसवादी या अलंकारवादी अथवा ध्वनिवादी हैं। राजशेखर लीक से हट कर अपनी बात कहते हैं और कुन्तक विपरीत धारा में बहने का साहस रखने वाले आचार्य हैं। .

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रोल्ड डाहल

रोल्ड डाहल, सउथ वेलस् के कार्डिफ शहर, १३ सितंबर १९१६, एक नॉरवे से आए परिवार में पैदा हुए थे। डाहल तीन साल के थे, जब उनकी साथ साल की बहन की मृत्यु हो गयी। और कुछ सप्ताह के बाद, उनके पिता भी चल बसे। इस हाद्से के बाद, उनकी माँ डाहल को अंग्रेजी स्कूलों में दाखिला दिलाकर उन्होने मृत पति की इच्छा का पालन किया। डाहल को लांडाल्फ नामक एक स्कूल में भरती करने के बाद, वाहाँ वे ज़्यादा दिन नहीं रहे, इसलिये क्यों कि वे वहाँ जाना पसन्द नहीं करते थे। तो, फिर से और कई बार स्कूल बदलते गये। रेपटन नामक जगह से अपनी शिक्षा पूरी की। डाहल ने दूसरे विश्व युध में अपनी हवाई जहाज़ उडाने की प्रतिभा दिखाकर, विंग कमांडर के पद को हासिल किया। उनको १९४० में एक लेखक के रूप में दुनिया ने देखा। डाहल ज़्यादातर बच्चों की कहनियाँ लिखते थे, लेकिन उनके जीवनकाल में उन्होने बच्चों से लेकर, बडों तक के आयु वर्गों के लिये किताबें लिखी हैं। बीसवी सदी के सबसे बडे लेखकों में से एक माना जाता है। साहित्य में उनके योगदान के लिए अन्य पुरस्कारों में; १९८३ में 'वोर्ल्ड फांटसी अवार्ड फार लाइफटाइम अचीवमेंट' पुरस्कार प्राप्त हुअ, और १९९० में, ब्रिटिश बुक अवार्डस् में, उनको उस वर्ष के सबसे उत्तम लेखक बताया। डाहल की लघु कहानियाँ उनकी अप्रत्याशित और अभावुक अंत के लिये जानी जाती हैं, और्र अक्सर अपनी पुस्तकों में हास्य रस का ज़्यादा उपयोग करके पाठकों का ध्यान बेहलाए रखने के लिये जाने जाते है। उनकी प्रसिद्ध लेखनाओं में 'जेम्स आंड द जाइंट पीच', 'मटिल्डा', 'चार्ली आंड द चोक्लेट फाक्टरी', 'द विचस', 'मै अंकल आस्वाल्ड' थोडे हैं। .

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रीति काल

सन् १७०० ई. के आस-पास हिंदी कविता में एक नया मोड़ आया। इसे विशेषत: तात्कालिक दरबारी संस्कृति और संस्कृत साहित्य से उत्तेजना मिली। संस्कृत साहित्यशास्त्र के कतिपय अंशों ने उसे शास्त्रीय अनुशासन की ओर प्रवृत्त किया। हिंदी में 'रीति' या 'काव्यरीति' शब्द का प्रयोग काव्यशास्त्र के लिए हुआ था। इसलिए काव्यशास्त्रबद्ध सामान्य सृजनप्रवृत्ति और रस, अलंकार आदि के निरूपक बहुसंख्यक लक्षणग्रंथों को ध्यान में रखते हुए इस समय के काव्य को 'रीतिकाव्य' कहा गया। इस काव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों की पुरानी परंपरा के स्पष्ट संकेत संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, फारसी और हिंदी के आदिकाव्य तथा कृष्णकाव्य की शृंगारी प्रवृत्तियों में मिलते हैं। इस काल में कई कवि ऐसे हुए हैं जो आचार्य भी थे और जिन्होंने विविध काव्यांगों के लक्षण देने वाले ग्रंथ भी लिखे। इस युग में शृंगार की प्रधानता रही। यह युग मुक्तक-रचना का युग रहा। मुख्यतया कवित्त, सवैये और दोहे इस युग में लिखे गए। कवि राजाश्रित होते थे इसलिए इस युग की कविता अधिकतर दरबारी रही जिसके फलस्वरूप इसमें चमत्कारपूर्ण व्यंजना की विशेष मात्रा तो मिलती है परंतु कविता साधारण जनता से विमुख भी हो गई। रीतिकाल के अधिकांश कवि दरबारी थे। केशवदास (ओरछा), प्रताप सिंह (चरखारी), बिहारी (जयपुर, आमेर), मतिराम (बूँदी), भूषण (पन्ना), चिंतामणि (नागपुर), देव (पिहानी), भिखारीदास (प्रतापगढ़-अवध), रघुनाथ (काशी), बेनी (किशनगढ़), गंग (दिल्ली), टीकाराम (बड़ौदा), ग्वाल (पंजाब), चन्द्रशेखर बाजपेई (पटियाला), हरनाम (कपूरथला), कुलपति मिश्र (जयपुर), नेवाज (पन्ना), सुरति मिश्र (दिल्ली), कवीन्द्र उदयनाथ (अमेठी), ऋषिनाथ (काशी), रतन कवि (श्रीनगर-गढ़वाल), बेनी बन्दीजन (अवध), बेनी प्रवीन (लखनऊ), ब्रह्मदत्त (काशी), ठाकुर बुन्देलखण्डी (जैतपुर), बोधा (पन्ना), गुमान मिश्र (पिहानी) आदि और अनेक कवि तो राजा ही थे, जैसे- महाराज जसवन्त सिंह (तिर्वा), भगवन्त राय खीची, भूपति, रसनिधि (दतिया के जमींदार), महाराज विश्वनाथ, द्विजदेव (महाराज मानसिंह)। रीतिकाव्य रचना का आरंभ एक संस्कृतज्ञ ने किया। ये थे आचार्य केशवदास, जिनकी सर्वप्रसिद्ध रचनाएँ कविप्रिया, रसिकप्रिया और रामचंद्रिका हैं। कविप्रिया में अलंकार और रसिकप्रिया में रस का सोदाहरण निरूपण है। लक्षण दोहों में और उदाहरण कवित्तसवैए में हैं। लक्षण-लक्ष्य-ग्रंथों की यही परंपरा रीतिकाव्य में विकसित हुई। रामचंद्रिका केशव का प्रबंधकाव्य है जिसमें भक्ति की तन्मयता के स्थान पर एक सजग कलाकार की प्रखर कलाचेतना प्रस्फुटित हुई। केशव के कई दशक बाद चिंतामणि से लेकर अठारहवीं सदी तक हिंदी में रीतिकाव्य का अजस्र स्रोत प्रवाहित हुआ जिसमें नर-नारी-जीवन के रमणीय पक्षों और तत्संबंधी सरस संवेदनाओं की अत्यंत कलात्मक अभिव्यक्ति व्यापक रूप में हुई। .

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लोल्लट

आचार्य अभिनवगुप्त ने "अभिनवभारती" में लोल्लट का उल्लेख भरतमुनि के नाट्यसूत्र के मान्य टीकाकार आचार्य के रूप में किया है। भरत के रसपरक सिद्धांत की व्याख्या करनेवाले सर्वप्रथम विद्वान् लोल्लट ही हैं। रसनिष्पत्ति के सबंध में इनका स्वतंत्र मत साहित्यजगत् में विख्यात हैं। ये मीमांसक और अभिधावादी थे। इनके मत में शब्द के प्रत्येक अर्थ की प्रतिपत्ति अभिधा से ठीक उसी तरह हो जाती है, जैसे एक ही बाण कवच को भेदते हुए शरीर में घुसकर प्राणों को पी जाता है। इनकी दृष्टि से महाकाव्य के प्रधान रस तथा उसके विभिन्न अंगों में पूरा सामंजस्य होना आवश्यक है। ये रस की स्थिति रामादि अनुकार्य पात्रों में मानते हैं, नटों एवं सहृदयों में नहीं मानते। औचित्यसमर्थक आचार्यों में इनका एक महत्वपूर्ण स्थान है। इनके कथनानुसार अर्थ के समुदाय का अंत नहीं है, किंतु काव्य में रसवाले अर्थ का ही निबंधन उचित एवं युक्त है, नीरस का नहीं। कोई भी वर्णन सरस भले ही हो, किंतु यदि वह प्रकृत रस के साथ सामंजस्य नहीं रखता तो इसका विस्तार नहीं करना चाहिए। महाकाव्यों में यमक तथा चित्रकाव्य का निबंधन कवि के अभिमान का ही परिचायक होता है, वह काव्य के मुख्य रस का अभिव्यंजक नहीं होता। अलंकार संप्रदाय के मान्य अनुयायी आचार्य उद्भट के इस सिद्धांत की कि वृत्तियाँ तीन ही हैं और वे भरत द्वारा निर्दिष्ट चार वृतियों से भिन्न हैं, लोल्लट ने कड़ी आलोचना की है और उद्भट द्वारा निरूपित न्यायवृत्ति, अन्यायवृत्ति और फलवृत्ति को न मानते हुए उसकी कल्पना को अमान्य ठहराते हैं। "शकली गर्भ" नाम से नाट्यशास्त्र के आचार्य का भी इन्होंने खंडन किया है, जिन्होंने उद्भट का खंडन किया है पर "भरत" की वृत्ति चतुष्टयी को मानते हुए "आत्मसंवित्ति" नाम की एक पाँचवीं वृत्ति की उद्भावना की है। भट्ट लोल्लट के तीन पद्यों को राजशेखर, हेमचंद्र तथा नमिसाधु ने उद्धृत किया है जो औचित्यविचार की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। राजशेखर ने इन पद्यों को "काव्यमीमांसा" में "इति आपराजिति: यदाह" कहकर आपराजिति के नाम से उद्धृत किया है और हेमचंद्र ने "काव्यानुशासन" में इनमें से दो पद्यों को भट्ट लोल्लट के नाम से उद्धृत किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि इनका एक नाम आपराजिति था। संभवत: ये अपराजित पुत्र थे। ध्वन्यालोक की टीका में इनका मत प्रभाकर के अनुसार कह गया है- "भाट्टं प्राभाकरं वैयाकरणं च पक्षं सूचयति"। इनके समय का तथा ग्रंथ आदि का निश्चित पता नहीं। अभिनयभारती, ध्वन्यालोक आदि में इनके कुछ स्फुट विचार प्राप्त होते हैं, जिनसे इनकी विद्वत्ता और सिद्धांत का परिज्ञान होता है। काव्यप्रकाश की संकेत टीका से और शंकुक आदि आचार्यों द्वारा इनका खंडन करने से ज्ञात होता है कि ये शंकुक के पूववर्ती थे। शंकुक का समय ई. 850 है। अत: इनका समय नवीं सदी के प्रथम चरण के लगभग ठहरता है। ये कश्मीरी थे। श्रेणी:साहित्यशास्त्री श्रेणी:काव्यशास्त्र.

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श्रीभार्गवराघवीयम्

श्रीभार्गवराघवीयम् (२००२), शब्दार्थ परशुराम और राम का, जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००२ ई में रचित एक संस्कृत महाकाव्य है। इसकी रचना ४० संस्कृत और प्राकृत छन्दों में रचित २१२१ श्लोकों में हुई है और यह २१ सर्गों (प्रत्येक १०१ श्लोक) में विभक्त है।महाकाव्य में परब्रह्म भगवान श्रीराम के दो अवतारों परशुराम और राम की कथाएँ वर्णित हैं, जो रामायण और अन्य हिंदू ग्रंथों में उपलब्ध हैं। भार्गव शब्द परशुराम को संदर्भित करता है, क्योंकि वह भृगु ऋषि के वंश में अवतीर्ण हुए थे, जबकि राघव शब्द राम को संदर्भित करता है क्योंकि वह राजा रघु के राजवंश में अवतीर्ण हुए थे। इस रचना के लिए, कवि को संस्कृत साहित्य अकादमी पुरस्कार (२००५) तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। महाकाव्य की एक प्रति, कवि की स्वयं की हिन्दी टीका के साथ, जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा ३० अक्टूबर २००२ को किया गया था। .

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श्रीसीतारामकेलिकौमुदी

श्रीसीतारामकेलिकौमुदी (२००८), शब्दार्थ: सीता और राम की (बाल) लीलाओं की चन्द्रिका, हिन्दी साहित्य की रीतिकाव्य परम्परा में ब्रजभाषा (कुछ पद मैथिली में भी) में रचित एक मुक्तक काव्य है। इसकी रचना जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००७ एवं २००८ में की गई थी।रामभद्राचार्य २००८, पृष्ठ "क"–"ड़"काव्यकृति वाल्मीकि रामायण एवं तुलसीदास की श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड की पृष्ठभूमि पर आधारित है और सीता तथा राम के बाल्यकाल की मधुर केलिओं (लीलाओं) एवं मुख्य प्रसंगों का वर्णन करने वाले मुक्तक पदों से युक्त है। श्रीसीतारामकेलिकौमुदी में ३२४ पद हैं, जो १०८ पदों वाले तीन भागों में विभक्त हैं। पदों की रचना अमात्रिका, कवित्त, गीत, घनाक्षरी, चौपैया, द्रुमिल एवं मत्तगयन्द नामक सात प्राकृत छन्दों में हुई है। ग्रन्थ की एक प्रति हिन्दी टीका के साथ जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन ३० अक्टूबर २००८ को किया गया था। .

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शृंगार रस

श्रृंगार रस रसों में से एक प्रमुख रस है। यह रति भाव को दर्शाता है। .

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षड्रस

आयुर्वेद में स्वाद के छः भेद बताए गये हैं, जिन्हें षड्रस (छः रस) कहते हैं। ये छः रस ये हैं - मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त तथा कसाय। .

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सत

सत सत्य का रूप है, इस शब्द का अर्थ अधिकतर सत्यता के लिये प्रयोग किया जाता है, तत्व के परिणाम को भी सत कहा जाता है,फ़ल के रस को भी सत के नाम से जाना जाता है। भारतीय दर्शन में जीवों के गुण तीन प्रकार होते हैं - सत रज और तम। सत वो है जो उचित-अनुचित, अच्छा-बुरा और सुख-दुख में भेद और परिमाण हर स्थिति में बता सके। सतोगुण के लोग इस ज्ञान से भरे होते हैं कि किस स्थिति में क्या करना चाहिए और इस तरह उन्हें घबराहट नहीं होती क्योंकि वे तत्वदर्शी होते हैं। रजोगुणी को ये ज्ञान थोड़ा कम और तमोगुणी को अत्यंत कम होता है। गीता में इसका उल्लेख सातवें अध्याय में हुआ है (अन्यत्र भी)। ये गुण है और किसी मनुष्य की प्रकृति अलग समयों पर अलग हो सकती है। इस गुण के प्रधान होने के समय सतोगुणी मनुष्य सुख में अहंकार से और दुःख में मोह और क्रोध जैसे भावों से बचता है। जिसको यह ज्ञान होता है वो ब्रह्म के निकट माना जाता है और ब्राह्मण कहलाता है। वंशानुगत ब्राह्मण बनने की परंपरा बाद में शुरु हुई।.

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सरस्वतीकंठाभरण

सरस्वतीकंठाभरण, (शाब्दिक अर्थ - 'सरस्वती के कण्ठ की माला') काव्यतत्व का विवेचन करनेवाला संस्कृत-साहित्य-शास्त्र का एक माननीय ग्रंथ है जिसकी रचना धारेश्वर के महाराज भोजराज ने की। .

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साहित्य सिद्धान्त

साहित्य सिद्धान्त (Literary theory) साहित्य की प्रकृति का क्रमबद्ध अध्ययन एवं साहित्य के विश्लेषण की विधि है। वह विद्या या शास्त्र जिसमें रचनाओं के साहित्य पक्ष तथा स्वरूप पर शास्त्रीय ढंग से विचार किया जाता है। प्राचीन काव्यशास्त्र, जिसमें रसों, अलंकारों रीतियों आदि पर विचार किया जाता था, भी साहित्यशास्त्र है। .

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साहित्य अकादमी पुरस्कार पंजाबी

साहित्य अकादमी पुरस्कार एक साहित्यिक सम्मान है जो कुल २४ भाषाओं में प्रदान किया जाता हैं और पंजाबी भाषा इन में से एक भाषा हैं। .

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साहित्य-लहरी

साहित्यलहरी ११८ पदों की एक लघु रचना है। इसके अन्तिम पद में सूरदास का वंशवृक्ष दिया है, जिसके अनुसार सूरदास का नाम 'सूरजदास' है और वे चन्दबरदायी के वंशज सिद्ध होते हैं। अब इसे प्रक्षिप्त अंश माना गया है ओर शेष रचना पूर्ण प्रामाणिक मानी गई है। इसमें रस, अलंकार और नायिका-भेद का प्रतिपादन किया गया है। इस कृति का रचना-काल स्वयं कवि ने दे दिया है जिससे यह संवत् १६०७ विक्रमी में रचित सिद्ध होती है। रस की दृष्टि से यह ग्रन्थ विशुद्ध श्रृंगार की कोटि में आता है। .

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संस्कृत नाटक

संस्कृत नाटक (कोडियट्टम) में सुग्रीव की भूमिका संस्कृत नाटक रसप्रधान होते हैं। इनमें समय और स्थान की अन्विति नही पाई जाती। अपनी रचना-प्रक्रिया में नाटक मूलतः काव्य का ही एक प्रकार है। सूसन के लैंगर के अनुसार भी नाटक रंगमंच का काव्य ही नहीं, रंगमंच में काव्य भी है। संस्कृत नाट्यपरम्परा में भी नाटक काव्य है और एक विशेष प्रकार का काव्य है,..दृश्यकाव्य। ‘काव्येषु नाटकं रम्यम्’ कहकर उसकी विशिष्टता ही रेखांकित की गयी है। लेखन से लेकर प्रस्तुतीकरण तक नाटक में कई कलाओं का संश्लिष्ट रूप होता है-तब कहीं वह अखण्ड सत्य और काव्यात्मक सौन्दर्य की विलक्षण सृष्टि कर पाता है। रंगमंच पर भी एक काव्य की सृष्टि होती है विभिन्न माध्यमों से, कलाओं से जिससे रंगमंच एक कार्य का, कृति का रूप लेता है। आस्वादन और सम्प्रेषण दोनों साथ-साथ चलते हैं। अनेक प्रकार के भावों, अवस्थाओं से युक्त, रस भाव, क्रियाओं के अभिनय, कर्म द्वारा संसार को सुख-शान्ति देने वाला यह नाट्य इसीलिए हमारे यहाँ विलक्षण कृति माना गया है। आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में नाट्य को तीनों लोकों के विशाल भावों का अनुकीर्तन कहा है तथा इसे सार्ववर्णिक पंचम वेद बतलाया है। भरत के अनुसार ऐसा कोई ज्ञान शिल्प, विद्या, योग एवं कर्म नहीं है जो नाटक में दिखाई न पड़े - .

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संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द

हिन्दी भाषी क्षेत्र में कतिपय संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द प्रचलित हैं। जैसे- सप्तऋषि, सप्तसिन्धु, पंच पीर, द्वादश वन, सत्ताईस नक्षत्र आदि। इनका प्रयोग भाषा में भी होता है। इन शब्दों के गूढ़ अर्थ जानना बहुत जरूरी हो जाता है। इनमें अनेक शब्द ऐसे हैं जिनका सम्बंध भारतीय संस्कृति से है। जब तक इनकी जानकारी नहीं होती तब तक इनके निहितार्थ को नहीं समझा जा सकता। यह लेख अभी निर्माणाधीन हॅ .

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संगीत

नेपाल की नुक्कड़ संगीत-मण्डली द्वारा पारम्परिक संगीत सुव्यवस्थित ध्वनि, जो रस की सृष्टि करे, संगीत कहलाती है। गायन, वादन व नृत्य ये तीनों ही संगीत हैं। संगीत नाम इन तीनों के एक साथ व्यवहार से पड़ा है। गाना, बजाना और नाचना प्रायः इतने पुराने है जितना पुराना आदमी है। बजाने और बाजे की कला आदमी ने कुछ बाद में खोजी-सीखी हो, पर गाने और नाचने का आरंभ तो न केवल हज़ारों बल्कि लाखों वर्ष पहले उसने कर लिया होगा, इसमें संदेह नहीं। गान मानव के लिए प्राय: उतना ही स्वाभाविक है जितना भाषण। कब से मनुष्य ने गाना प्रारंभ किया, यह बतलाना उतना ही कठिन है जितना कि कब से उसने बोलना प्रारंभ किया। परंतु बहुत काल बीत जाने के बाद उसके गान ने व्यवस्थित रूप धारण किया। जब स्वर और लय व्यवस्थित रूप धारण करते हैं तब एक कला का प्रादुर्भाव होता है और इस कला को संगीत, म्यूजिक या मौसीकी कहते हैं। .

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सुंदरदास

सुन्दरदास (चैत्र शुक्ल ९, सं. १६५३ वि. - कार्तिक शुक्ल ८, सं. १७४६ वि.) भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि थे। वे निर्गुण भक्त कवियों में सबसे अधिक शास्त्र निष्णात और सुशिक्षित संत कवि थे। सास्त्रज्ञानसंपन्न और काव्य कला निपुण कवि के रूप में सुंदरदास का हिंदी संत-काव्य-धारा के कवियों में विशिष्ट स्थान है। .

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सूत्रधार

सूत्रधार नाटक के सभी सूत्र अपने हाथों में धारण करता है। वही नाटक का प्रारंभ करता है और वही अंत भी करता है। कभी कभी नाटक के बीच में भी उसकी उपस्थिति होती है। कभी कभी वह मंच के पीछे अर्थात नेपथ्य से भी नाटक का संचालन करता है। भारतीय रंगपरंपरा में सूत्रधार को अपने नाम के अनुरूप महत्व प्राप्त है। भारतीय समाज में संसार को रंगमंच, जीवन को नाट्य, मनुष्य या जीव को अभिनेता और ईश्वर को सूत्रधार कहा जाता है। यह माना जाता है कि ईश्वर ही वह सूत्रधार है, जिसके हाथ में सारे सूत्र होते हैं और वह मनुष्य या जीव रूपी अभिनेता को संसार के रंगमंच पर जीवन के नाट्य में संचालित करता है। सूत्रधार की यह नियामक भूमिका हमारी रंगपरंपरा में स्पष्ट देखने को मिलती है। वह एक शक्तिशाली रंगरूढ़ि के रूप में संस्कृत रंगमंच पर उपलब्ध रहा है। पारंपारिक नाट्यरूपों के निर्माण और विकास में भी सूत्रधार के योगदान को रेखांकित किया जा सकता है। आधुनिक रंगकर्म के लिए सूत्रधार अनेक रंगयुक्तियों को रचने में सक्षम है, जिसके कारण रंगमंच के नए आयाम सामने आ सकते हैं। यह एक ऐसा रूढ़ चरित्र है, जिसे बार-बार आविष्कृत करने का प्रयास किया गया है और आज भी वह नई रंगजिज्ञासा पैदा करने में समर्थ है। वह अभिनेता, दर्शक और नाटक के बीच सूत्र बनाए रखने का महत्वपूर्ण काम करता है। सूत्रधार के सूत्र संस्कृत रंगपरंपरा से गहरे जुड़े हुए हैं। वहाँ इसे संपूर्ण अर्थ का प्रकाशक, नांदी के पश्चात मंच पर संचरण करने वाला पात्र तथा शिल्पी कहा गया है। सूचक और बीजदर्शक के रूप में भी सूत्रधार को मान्यता मिली है। सूत्रभृत, सूत्री और सूत्रकृत आदि नामों से भी यह संबोधित किया जाता रहा है। 'भाव' का संबोधन भी इसे मिला है। अमरकोष 'भाव' को विद्वान का पर्याय मानता है। नाट्याचार्य भी सूत्रधार के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता रहा है। पर्याय के रूप में प्रयुक्त होने वाले सूत्रधार के विविध नामों के भीतर छिपे गुणों के आधार पर लक्षणग्रंथों और शास्त्रों में सूत्रधार की विवेचना होती रही है। नाट्यशास्त्र में भरत मुनि सूत्रधार को भावयुक्त गीतों, वाद्य तथा पाठ्य के सूत्रों का ज्ञाता मानते हैं और उपदेष्टा भी कहते हैं। नाट्याचार्य की उपाधि उसे उपदेष्टा होने के कारण प्राप्त हुई। प्राचीन आचार्यों ने सूत्रधार के लक्षणों की विवेचना करते हुए उसे 'संगीत सर्वस्व' भी माना है। नृत्य, नाट्य और कथा के सूत्रों को आपस में गूँथने के कारण भी उसे सूत्रधार की संज्ञा दी गई। वह प्रस्तुत किए जाने वाले काव्य (रूपक) की वस्तु, नेता और रस को सूत्र रूप में सूचित करता है। नायक और कवि (रूपककार या नाटककार) तथा वस्तु के वैशिष्ट्य को भी सूत्रबद्ध करता है। वह प्रसाधन में दक्ष (रंगप्रसाधन प्रौढः) होता है। रूपक की प्रस्तावना को उपस्थापित करने वाला यह चरित्र सभी अभिनेताओं का प्रधान माना गया है। सूत्रधार के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए नाट्यशास्त्र के आचार्य मातृगुप्त उसे चार प्रकार के प्रकाश में निष्णात, अनेक भाषाओं का ज्ञाता, विविध प्रकार के भाषणों (संवादों) का तत्वज्ञ, नीतिशास्त्र वेत्ता, वेशभूषा का जानकार, समाज का दीर्घदर्शी, गतिप्रचार जानने वाला, रसभाव विशारद, नाट्य-प्रयोग तथा विविध शिल्प कलाओं में दक्ष, छंदोविधान का मर्मज्ञ, शास्त्रों का पंडित, गीतों के लिए लय-ताल का ज्ञाता और दूसरों को शिक्षित करने में निपुण माना है। प्राचीन आचार्य शांतकर्णि सूत्रधार के लक्षणों को प्रतिपादित करते हुए अनुष्ठान (रंग अनुष्ठान) को प्रयोग का सूत्र और उसे धारण करने वाले को सूत्रधार मानते हैं। हालाँकि सूत्रधार की भूमिका को किंचित संकुचित करते हुए शांतकर्णि मानते हैं कि वह नाटक में कोई भूमिका नहीं करता, अतः वह बाह्य-पात्र है। आचार्य कोहल यह माँग करते हैं कि सूत्रधार को नांदी संबोधित किया जाना चाहिए क्योंकि वह नांदी पाठ करता है। भास उसे प्रस्तावना, प्रस्तुति और समापन-तीनों का नियामक मानते हैं। .

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हास्य रस तथा उसका साहित्य

जैसे जिह्वा के आस्वाद के छह रस प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार हृदय के आस्वाद के नौ रस प्रसिद्ध हैं। जिह्वा के आस्वाद को लौकिक आनंद की कोटि में रखा गया है क्योंकि उसका सीधा संबंध लौकिक वस्तुओं से है। हृदय के आस्वाद को अलौकिक आनंद की कोटि में माना जाता है क्योंकि उसका सीधा संब .

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हास्यरस तथा उसका साहित्य (संस्कृत, हिन्दी)

भारतीय काव्याचार्यों ने रसों की संख्या प्राय: नौ ही मानी है जिनमें से हास्य रस प्रमुख रस है। जैसे जिह्वा के आस्वाद के छह रस प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार हृदय के आस्वाद के नौ रस प्रसिद्ध हैं। जिह्वा के आस्वाद को लौकिक आनंद की कोटि में रखा गया है क्योंकि उसका सीधा संबंध लौकिक वस्तुओं से है। हृदय के आस्वाद को अलौकिक आनंद की कोटि में माना जाता है क्योंकि उसका सीधा संबंध वस्तुओं से नहीं किंतु भावानुभूतियों से है। भावानुभूति और भावानुभूति के आस्वाद में अंतर है। भारतीय काव्याचार्यों ने रसों की संख्या प्राय: नौ ही मानी है क्योंकि उनके मत से नौ भाव ही ऐसे हैं जो मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों से घनिष्ठतया संबंधित होकर स्थायित्व की पूरी क्षमता रखते हैं और वे ही विकसित होकर वस्तुत: रस संज्ञा की प्राप्ति के अधिकारी कहे जा सकते हैं। यह मान्यता विवादास्पद भी रही है, परंतु हास्य की रसरूपता को सभी से निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है। मनोविज्ञान के विशेषज्ञों ने भी हास को मूल प्रवृत्ति के रूप में समुचित स्थान दिया है और इसके विश्लेषण में पर्याप्त मनन चिंतन किया है। इस मनन चिंतन को पौर्वात्य काव्याचार्यों की अपेक्षा पाश्चात्य काव्याचार्यों ने विस्तारपूर्वक अभिव्यक्ति दी है, परंतु फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने इस तत्व का पूरी व्यापकता के साथ अध्ययन कर लिया है और या हास्यरस या हास की काव्यगत अभिव्यंजना की ही कोई ऐसी परिभाषा दे दी है जो सभी सभी प्रकार के उदाहरणों को अपने में समेट सके। भारतीय आचार्यों ने एक प्रकार के सूत्ररूप में ही इसका प्रख्यापन किया है किंतु उनकी संक्षिप्त उक्तियों में पाश्चात्य समीक्षकों के प्राय: सभी निष्कर्षों और तत्वों का सरलतापूर्वक अंतर्भाव देखा जा सकता है। .

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हिन्दी साहित्य का इतिहास

हिन्दी साहित्य पर यदि समुचित परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास अत्यंत विस्तृत व प्राचीन है। सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ० हरदेव बाहरी के शब्दों में, हिन्दी साहित्य का इतिहास वस्तुतः वैदिक काल से आरम्भ होता है। यह कहना ही ठीक होगा कि वैदिक भाषा ही हिन्दी है। इस भाषा का दुर्भाग्य रहा है कि युग-युग में इसका नाम परिवर्तित होता रहा है। कभी 'वैदिक', कभी 'संस्कृत', कभी 'प्राकृत', कभी 'अपभ्रंश' और अब - हिन्दी। आलोचक कह सकते हैं कि 'वैदिक संस्कृत' और 'हिन्दी' में तो जमीन-आसमान का अन्तर है। पर ध्यान देने योग्य है कि हिब्रू, रूसी, चीनी, जर्मन और तमिल आदि जिन भाषाओं को 'बहुत पुरानी' बताया जाता है, उनके भी प्राचीन और वर्तमान रूपों में जमीन-आसमान का अन्तर है; पर लोगों ने उन भाषाओं के नाम नहीं बदले और उनके परिवर्तित स्वरूपों को 'प्राचीन', 'मध्यकालीन', 'आधुनिक' आदि कहा गया, जबकि 'हिन्दी' के सन्दर्भ में प्रत्येक युग की भाषा का नया नाम रखा जाता रहा। हिन्दी भाषा के उद्भव और विकास के सम्बन्ध में प्रचलित धारणाओं पर विचार करते समय हमारे सामने हिन्दी भाषा की उत्पत्ति का प्रश्न दसवीं शताब्दी के आसपास की प्राकृताभास भाषा तथा अपभ्रंश भाषाओं की ओर जाता है। अपभ्रंश शब्द की व्युत्पत्ति और जैन रचनाकारों की अपभ्रंश कृतियों का हिन्दी से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए जो तर्क और प्रमाण हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में प्रस्तुत किये गये हैं उन पर विचार करना भी आवश्यक है। सामान्यतः प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश-अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है। उस समय अपभ्रंश के कई रूप थे और उनमें सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही पद्य-रचना प्रारम्भ हो गयी थी। साहित्य की दृष्टि से पद्यबद्ध जो रचनाएँ मिलती हैं वे दोहा रूप में ही हैं और उनके विषय, धर्म, नीति, उपदेश आदि प्रमुख हैं। राजाश्रित कवि और चारण नीति, शृंगार, शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य-रुचि का परिचय दिया करते थे। यह रचना-परम्परा आगे चलकर शौरसेनी अपभ्रंश या 'प्राकृताभास हिन्दी' में कई वर्षों तक चलती रही। पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का प्रयोग निरन्तर बढ़ता गया। इस भाषा को विद्यापति ने देसी भाषा कहा है, किन्तु यह निर्णय करना सरल नहीं है कि हिन्दी शब्द का प्रयोग इस भाषा के लिए कब और किस देश में प्रारम्भ हुआ। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में हिन्दी शब्द का प्रयोग विदेशी मुसलमानों ने किया था। इस शब्द से उनका तात्पर्य 'भारतीय भाषा' का था। .

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ज्ञानेश्वर

संत ज्ञानेश्वर महाराष्ट्र तेरहवीं सदी के एक महान सन्त थे जिन्होंने ज्ञानेश्वरी की रचना की। संत ज्ञानेश्वर की गणना भारत के महान संतों एवं मराठी कवियों में होती है। ये संत नामदेव के समकालीन थे और उनके साथ इन्होंने पूरे महाराष्ट्र का भ्रमण कर लोगों को ज्ञान-भक्ति से परिचित कराया और समता, समभाव का उपदेश दिया। वे महाराष्ट्र-संस्कृति के 'आद्य-प्रवर्तकों' में भी माने जाते हैं। .

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ज्ञानेश्वरी

ज्ञानेश्वरी महाराष्ट्र के संत कवि ज्ञानेश्वर द्वारा मराठी भाषा में रची गई श्रीमदभगवतगीता पर लिखी गई सर्वप्रथम भावार्थ रचना है। वस्तुत: यह काव्यमलेकनय प्रवचन है जिसे संत ज्ञानेश्वर ने अपने जेष्ठ बंधू तथा गुरू निवृत्तिनाथ के निदर्शन किया था। इसमें गीता के मूल ७०० श्लोकों का मराठी भाषा की ९००० ओवियों में अत्यंत रसपूर्ण विशद विवेचन है। अंतर केवल इतना ही है कि यह श्री शंकराचार्य के समान गीता का प्रतिपद भाष्य नहीं है। यथार्थ में यह गीता की भावार्थदीपिका है। .

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ईहामृग

ईहामृग रूपक का एक भेद है। .

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घनानन्द

घनानंद की काव्य रचनाओं का अंग्रेज़ी अनुवाद घनानंद (१६७३- १७६०) रीतिकाल की तीन प्रमुख काव्यधाराओं- रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त के अंतिम काव्यधारा के अग्रणी कवि हैं। ये 'आनंदघन' नाम स भी प्रसिद्ध हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रीतिमुक्त घनानन्द का समय सं.

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वाग्भट

वाग्भट नाम से कई महापुरुष हुए हैं। इनका वर्णन इस प्रकार है: .

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वक्रोक्ति सिद्धान्त

वक्रोक्ति दो शब्दों 'वक्र' और 'उक्ति' की संधि से निर्मित शब्द है। इसका शाब्दिक अर्थ है- ऐसी उक्ति जो सामान्य से अलग हो। भामह ने वक्रोक्ति को एक अलंकार माना था। उनके परवर्ती कुंतक ने वक्रोक्ति को एक संपूर्ण सिद्धांत के रूप में विकसित कर काव्य के समस्त अंगों को इसमें समाविष्ट कर लिया। इसलिए कुंतक को वक्रोक्ति संप्रदाय का प्रवर्तक आचार्य माना जाता है। .

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वीर रस

वीर रस हिन्दी भाषा में रस का एक प्रकार है। जब किसी रचना या वाक्य आदि से वीरता जैसे स्थायी भाव की उत्पत्ति होती है, तो उसे वीर रस कहा जाता है। .

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गजानन त्र्यंबक माडखोलकर

गजानन त्र्यंबक माडखोलकर (28 दिसम्बर, 1900 - 27 नवम्बर, 1976)), मराठी उपन्यासकार, आलोचक तथा पत्रकार थे। .

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गेहूँ

गेहूँ गेहूं (Wheat; वैज्ञानिक नाम: Triticum spp.),Belderok, Bob & Hans Mesdag & Dingena A. Donner.

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आयुर्वेद

आयुर्वेद के देवता '''भगवान धन्वन्तरि''' आयुर्वेद (आयुः + वेद .

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कर्पूरमंजरी

कर्पूरमंजरी संस्कृत के प्रसिद्ध नाटककार एवं काव्यमीमांसक राजशेखर द्वारा रचित प्राकृत का नाटक (सट्टक) है। प्राकृत भाषा की विशुद्ध साहित्यिक रचनाओं में इस कृति का विशिष्ट स्थान है। .

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काढ़ा

जल में पत्तियाँ, तना, फल, फूल या कोई अन्य रसायन डालकर उसे उबालने पर जो पदार्थ बनता है उसे क्वाथ या काढ़ा कहते हैं। तंत्र के अनुसार इन पाँच वृक्षों —जामुन, सेमर, खिरैटी, मोलसिरी ओर बेर का कषाय 'पंचकषाय' कहलाता है। यह कषाय छाल को पानी में भिगोकर निकाला जाता है और दुर्गा के पूजन में काम आता है। .

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काव्य

काव्य, कविता या पद्य, साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी कहानी या मनोभाव को कलात्मक रूप से किसी भाषा के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। भारत में कविता का इतिहास और कविता का दर्शन बहुत पुराना है। इसका प्रारंभ भरतमुनि से समझा जा सकता है। कविता का शाब्दिक अर्थ है काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो छन्दों की शृंखलाओं में विधिवत बांधी जाती है। काव्य वह वाक्य रचना है जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो। अर्थात् वहजिसमें चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है। रसगंगाधर में 'रमणीय' अर्थ के प्रतिपादक शब्द को 'काव्य' कहा है। 'अर्थ की रमणीयता' के अंतर्गत शब्द की रमणीयता (शब्दलंकार) भी समझकर लोग इस लक्षण को स्वीकार करते हैं। पर 'अर्थ' की 'रमणीयता' कई प्रकार की हो सकती है। इससे यह लक्षण बहुत स्पष्ट नहीं है। साहित्य दर्पणाकार विश्वनाथ का लक्षण ही सबसे ठीक जँचता है। उसके अनुसार 'रसात्मक वाक्य ही काव्य है'। रस अर्थात् मनोवेगों का सुखद संचार की काव्य की आत्मा है। काव्यप्रकाश में काव्य तीन प्रकार के कहे गए हैं, ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य और चित्र। ध्वनि वह है जिस, में शब्दों से निकले हुए अर्थ (वाच्य) की अपेक्षा छिपा हुआ अभिप्राय (व्यंग्य) प्रधान हो। गुणीभूत ब्यंग्य वह है जिसमें गौण हो। चित्र या अलंकार वह है जिसमें बिना ब्यंग्य के चमत्कार हो। इन तीनों को क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम भी कहते हैं। काव्यप्रकाशकार का जोर छिपे हुए भाव पर अधिक जान पड़ता है, रस के उद्रेक पर नहीं। काव्य के दो और भेद किए गए हैं, महाकाव्य और खंड काव्य। महाकाव्य सर्गबद्ध और उसका नायक कोई देवता, राजा या धीरोदात्त गुंण संपन्न क्षत्रिय होना चाहिए। उसमें शृंगार, वीर या शांत रसों में से कोई रस प्रधान होना चाहिए। बीच बीच में करुणा; हास्य इत्यादि और रस तथा और और लोगों के प्रसंग भी आने चाहिए। कम से कम आठ सर्ग होने चाहिए। महाकाव्य में संध्या, सूर्य, चंद्र, रात्रि, प्रभात, मृगया, पर्वत, वन, ऋतु, सागर, संयोग, विप्रलम्भ, मुनि, पुर, यज्ञ, रणप्रयाण, विवाह आदि का यथास्थान सन्निवेश होना चाहिए। काव्य दो प्रकार का माना गया है, दृश्य और श्रव्य। दृश्य काव्य वह है जो अभिनय द्वारा दिखलाया जाय, जैसे, नाटक, प्रहसन, आदि जो पढ़ने और सुनेन योग्य हो, वह श्रव्य है। श्रव्य काव्य दो प्रकार का होता है, गद्य और पद्य। पद्य काव्य के महाकाव्य और खंडकाव्य दो भेद कहे जा चुके हैं। गद्य काव्य के भी दो भेद किए गए हैं- कथा और आख्यायिका। चंपू, विरुद और कारंभक तीन प्रकार के काव्य और माने गए है। .

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किरातार्जुनीयम्

अर्जुन शिव को पहचान जाते हैं और नतमस्तक हो जाते हैं। (राजा रवि वर्मा द्वारा१९वीं शती में चित्रित) किरातार्जुनीयम् महाकवि भारवि द्वारा सातवीं शती ई. में रचित महाकाव्य है जिसे संस्कृत साहित्य में महाकाव्यों की 'वृहत्त्रयी' में स्थान प्राप्त है। महाभारत में वर्णित किरातवेशी शिव के साथ अर्जुन के युद्ध की लघु कथा को आधार बनाकर कवि ने राजनीति, धर्मनीति, कूटनीति, समाजनीति, युद्धनीति, जनजीवन आदि का मनोरम वर्णन किया है। यह काव्य विभिन्न रसों से ओतप्रोत है किन्तु यह मुख्यतः वीर रस प्रधान रचना है। संस्कृत के छ: प्रसिद्ध महाकाव्य हैं – बृहत्त्रयी और लघुत्रयी। किरातार्जनुयीयम्‌ (भारवि), शिशुपालवधम्‌ (माघ) और नैषधीयचरितम्‌ (श्रीहर्ष)– बृहत्त्रयी कहलाते हैं। कुमारसम्भवम्‌, रघुवंशम् और मेघदूतम् (तीनों कालिदास द्वारा रचित) - लघुत्रयी कहलाते हैं। किरातार्जुनीयम्‌ भारवि की एकमात्र उपलब्ध कृति है, जिसने एक सांगोपांग महाकाव्य का मार्ग प्रशस्त किया। माघ-जैसे कवियों ने उसी का अनुगमन करते हुए संस्कृत साहित्य भण्डार को इस विधा से समृद्ध किया और इसे नई ऊँचाई प्रदान की। कालिदास की लघुत्रयी और अश्वघोष के बुद्धचरितम्‌ में महाकाव्य की जिस धारा का दर्शन होता है, अपने विशिष्ट गुणों के होते हुए भी उसमें वह विषदता और समग्रता नहीं है, जिसका सूत्रपात भारवि ने किया। संस्कृत में किरातार्जुनीयम्‌ की कम से कम 37 टीकाएँ हुई हैं, जिनमें मल्लिनाथ की टीका घंटापथ सर्वश्रेष्ठ है। सन 1912 में कार्ल कैप्पलर ने हारवर्ड ओरियेंटल सीरीज के अंतर्गत किरातार्जुनीयम् का जर्मन अनुवाद किया। अंग्रेजी में भी इसके भिन्न-भिन्न भागों के छ: से अधिक अनुवाद हो चुके हैं। .

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कविता की परिभाषा

"कविता" की परिभाषा को कविता के माध्यम से समझें। युवा शायर और कवि बाग़ी विकास (इलाहाबाद) कहते हैं कि, " 'कविता' राजा-रानी के सिंहासन का गुणगान नहीं 'कविता' चंदरबरदाई की पीढ़ी का अभियान नहीं 'कविता' नारी के शरीर की सुन्दरता का शोध नहीं 'कविता' केवल कुछ शब्दों की तुकबंदी का बोध नहीं...

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कुमार विश्वास

कुमार विश्वास हिन्दी के एक अग्रणी कवि तथा सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता हैं। कविता के क्षेत्र में शृंगार के गीत इनकी विशेषता है। .

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कुमारव्यास

कुमार व्यास नरनप्प, जल्दी 15 वीं सदी में कन्नड़ भाषा के एक प्रभावशाली और शास्त्रीय कवि की कलम नाम है कुमारव्यास कन्नड के लोकप्रिय कवि थे। इनका मूल नाम नाराणप्प था। उन्होंने व्यासरचित महाभारत के आधार पर एक प्रबंध काव्य रचा और व्यास के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करने के हेतु अपने काव्य का नाम 'कुमारव्यास भारत' रखा। सभंवतः इसी कारण नारणप्प कुमारव्यास के नाम से प्रसिद्ध हुए। .

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कृपाराम (काव्यशास्त्री)

कृपाराम हिंदी काव्यशास्त्र के प्रथम लेखक थे जो सोलहवीं शती के पूर्वार्द्ध में हुए थे। इनकी एकमात्र ज्ञात रचना हिततरंगिणी है। .

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कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर

कृष्णजी प्रभाकर खाडिलकर (1872 - 1948 ई.) मराठी साहित्यकार, नाट्याचार्य, पत्रकार तथा लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के सहयोगी थे। वे काका साहब खाडिलकर के नाम से विशेष प्रसिद्ध थे। एक महान् देशभक्त के रूप में आज भी उनका पर्याप्त सम्मान है। मराठी नाटय-सृष्टि में उन्होंने बहुमूल्य कार्य किया। मराठी नाट्य प्रेमियों ने अत्यंत स्नेह भाव से उन्हें ‘नाट्याचार्य’ की पदवी से विभूषित किया। महाराष्ट्र में आधुनिक पत्रकारिता की नींव उन्हीं ने डाली थी। वे श्रेष्ठ चिंतक तथा वैदिक साहित्य के अभ्यासक थे। वे सादगी, सदाचार और ईमानदारी, देशभक्ति, स्वाभिमान व नेकी आदि गुणों की प्रत्यक्ष मूर्ति ही थे। .

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अद्भुत रस

अद्भुत रस रसों मे से एक है। यह आश्चर्य भाव को दर्शाता है। उदाहरण--- कनक भूधराकार सरीरा समर भयंकर अतिबल बीरा। रस, अद्भुत श्रेणी:हिन्दी साहित्य श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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अभिनय

अभिनय करती हुई श्रीनिका पुरोहित अभिनय किसी अभिनेता या अभिनेत्री के द्वारा किया जाने वाला वह कार्य है जिसके द्वारा वे किसी कथा को दर्शाते हैं, साधारणतया किसी पात्र के माध्यम से। अभिनय का मूल ग्रन्थ नाट्यशास्त्र माना जाता है। इसके रचयिता भरतमुनि थे। जब प्रसिद्ध या कल्पित कथा के आधार पर नाट्यकार द्वारा रचित रूपक में निर्दिष्ट संवाद और क्रिया के अनुसार नाट्यप्रयोक्ता द्वारा सिखाए जाने पर या स्वयं नट अपनी वाणी, शारीरिक चेष्टा, भावभंगी, मुखमुद्रा वेषभूषा के द्वारा दर्शकों को, शब्दों को शब्दों के भावों का प्रिज्ञान और रस की अनुभूति कराते हैं तब उस संपूर्ण समन्वित व्यापार को अभिनय कहते हैं। भरत ने नाट्यकारों में अभिनय शब्द की निरुक्ति करते हुए कहा है: "अभिनय शब्द 'णीं' धातु में 'अभि' उपसर्ग लगाकर बना है। अभिनय का उद्देश्य होता है किसी पद या शब्द के भाव को मुख्य अर्थ तक पहुँचा देना; अर्थात्‌ दर्शकों या सामाजिकों के हृदय में भाव या अर्थ से अभिभूत करना"। कविराज विश्वनाथ ने सहित्य दर्पण के छठे परिच्छेद के आरम्भ में कहा है: 'भवेदभिनयोSवस्थानुकार:' अर्थात् अवस्था का अनुकरण ही अभिनय कहलाता है। अभिनय करने की प्रवृत्ति बचपन से ही मनुष्य में तथा अन्य अनेक जीवों में होती है। हाथ, पैर, आँख, मुंह, सिर चलाकर अपने भाव प्रकट करने की प्रवृत्ति सभ्य और असभ्य जातियों में समान रूप से पाई जाती है। उनके अनुकरण कृत्यों का एक उद्देश्य तो यह रहता है कि इससे उन्हें वास्तविक अनुभव जैसा आनंद मिलता है और दूसरा यह कि इससे उन्हें दूसरों को अपना भाव बताने में सहायता मिलती है। इसी दूसरे उद्देश्य के कारण शारीरिक या आंगिक चेष्टाओं और मुखमुद्राओं का विकास हुआ जो जंगली जातियों में बोली हुई भाषा के बदले या उसकी सहायक होकर अभिनय प्रयोग में आती है। .

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अभिनवगुप्त

अभिनवगुप्त (975-1025) दार्शनिक, रहस्यवादी एवं साहित्यशास्त्र के मूर्धन्य आचार्य। कश्मीरी शैव और तन्त्र के पण्डित। वे संगीतज्ञ, कवि, नाटककार, धर्मशास्त्री एवं तर्कशास्त्री भी थे। अभिनवगुप्त का व्यक्तित्व बड़ा ही रहस्यमय है। महाभाष्य के रचयिता पतंजलि को व्याकरण के इतिहास में तथा भामतीकार वाचस्पति मिश्र को अद्वैत वेदांत के इतिहास में जो गौरव तथा आदरणीय उत्कर्ष प्राप्त हुआ है वही गौरव अभिनव को भी तंत्र तथा अलंकारशास्त्र के इतिहास में प्राप्त है। इन्होंने रस सिद्धांत की मनोवैज्ञानिक व्याख्या (अभिव्यंजनावाद) कर अलंकारशास्त्र को दर्शन के उच्च स्तर पर प्रतिष्ठित किया तथा प्रत्यभिज्ञा और त्रिक दर्शनों को प्रौढ़ भाष्य प्रदान कर इन्हें तर्क की कसौटी पर व्यवस्थित किया। ये कोरे शुष्क तार्किक ही नहीं थे, प्रत्युत साधनाजगत् के गुह्य रहस्यों के मर्मज्ञ साधक भी थे। अभिनवगुप्त के आविर्भावकाल का पता उन्हीं के ग्रंथों के समयनिर्देश से भली भाँति लगता है। इनके आरंभिक ग्रंथों में क्रमस्तोत्र की रचना 66 लौकिक संवत् (991 ई.) में और भैरवस्तोत्र की 68 संवत (993 ई.) में हुई। इनकी ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विमर्षिणी का रचनाकाल 90 लौकिक संवत् (1015 ई.) है। फलत: इनकी साहित्यिक रचनाओं का काल 990 ई. से लेकर 1020 ई. तक माना जा सकता है। इस प्रकार इनका समय दशम शती का उत्तरार्ध तथा एकादश शती का आरंभिक काल स्वीकार किया जा सकता है। .

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अमरूशतकम्

नायक की प्रतीक्षा में नायिका (अमरूकशतक परा आधारित सत्रहवीं सदी के आरम्भिक काल की पेंटिंग) अमरूशतकम् संस्कृत का एक गीतिकाव्य है। इसके रचयिता अमरु या अमरूक हैं। इसका रचना काल नवीं शती माना जाता है। इसमें १०० श्लोक हैं जो अत्यन्त शृंगारपूर्ण एवं मनोरम हैं। .

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अलंकार (साहित्य)

अलंकार अलंकृति; अलंकार: अलम् अर्थात् भूषण। जो भूषित करे वह अलंकार है। अलंकार, कविता-कामिनी के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले तत्व होते हैं। जिस प्रकार आभूषण से नारी का लावण्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार अलंकार से कविता की शोभा बढ़ जाती है। कहा गया है - 'अलंकरोति इति अलंकारः' (जो अलंकृत करता है, वही अलंकार है।) भारतीय साहित्य में अनुप्रास, उपमा, रूपक, अनन्वय, यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा, संदेह, अतिशयोक्ति, वक्रोक्ति आदि प्रमुख अलंकार हैं। इस कारण व्युत्पत्ति से उपमा आदि अलंकार कहलाते हैं। उपमा आदि के लिए अलंकार शब्द का संकुचित अर्थ में प्रयोग किया गया है। व्यापक रूप में सौंदर्य मात्र को अलंकार कहते हैं और उसी से काव्य ग्रहण किया जाता है। (काव्यं ग्राह्ममलंकारात्। सौंदर्यमलंकार: - वामन)। चारुत्व को भी अलंकार कहते हैं। (टीका, व्यक्तिविवेक)। भामह के विचार से वक्रार्थविजा एक शब्दोक्ति अथवा शब्दार्थवैचित्र्य का नाम अलंकार है। (वक्राभिधेतशब्दोक्तिरिष्टा वाचामलं-कृति:।) रुद्रट अभिधानप्रकारविशेष को ही अलंकार कहते हैं। (अभिधानप्रकाशविशेषा एव चालंकारा)। दंडी के लिए अलंकार काव्य के शोभाकर धर्म हैं (काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते)। सौंदर्य, चारुत्व, काव्यशोभाकर धर्म इन तीन रूपों में अलंकार शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है और शेष में शब्द तथा अर्थ के अनुप्रासोपमादि अलंकारों के संकुचित अर्थ में। एक में अलंकार काव्य के प्राणभूत तत्व के रूप में ग्रहीत हैं और दूसरे में सुसज्जितकर्ता के रूप में। .

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अष्टावक्र (महाकाव्य)

अष्टावक्र (२०१०) जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०–) द्वारा २००९ में रचित एक हिन्दी महाकाव्य है। इस महाकाव्य में १०८-१०८ पदों के आठ सर्ग हैं और इस प्रकार कुल ८६४ पद हैं। महाकाव्य ऋषि अष्टावक्र की कथा प्रस्तुत करता है, जो कि रामायण और महाभारत आदि हिन्दू ग्रंथों में उपलब्ध है। महाकाव्य की एक प्रति का प्रकाशन जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा किया गया था। पुस्तक का विमोचन जनवरी १४, २०१० को कवि के षष्टिपूर्ति महोत्सव के दिन किया गया। इस काव्य के नायक अष्टावक्र अपने शरीर के आठों अंगों से विकलांग हैं। महाकाव्य अष्टावक्र ऋषि की संपूर्ण जीवन यात्रा को प्रस्तुत करता है जोकि संकट से प्रारम्भ होकर सफलता से होते हुए उनके उद्धार तक जाती है। महाकवि, जो स्वयं दो मास की अल्पायु से प्रज्ञाचक्षु हैं, के अनुसार इस महाकाव्य में विकलांगों की सार्वभौम समस्याओं के समाधानात्मक सूत्र प्रस्तुत किए गए हैं। उनके अनुसार महाकाव्य के आठ सर्ग विकलांगों की आठ मनोवृत्तियों के विश्लेषण मात्र हैं।रामभद्राचार्य २०१०, पृष्ठ क-ग। .

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उत्तररामचरितम्

उत्तररामचरितम् महाकवि भवभूति का प्रसिद्ध संस्कृत नाटक है, जिसके सात अंकों में राम के उत्तर जीवन की कथा है। भवभूति एक सफल नाटककार हैं। उत्तररामचरितम् में उन्होने ऐसे नायक से संबंधित इतिवृत्त का चयन किया है जो भारतीय संस्कृति की आत्मा है। इस कथानक का आकर्षण भारत के साथ साथ विदेशी जनमानस में भी सदा से रहा है और रहेगा। अपनी लेखनी चातुर्य से कवि ने राम के पत्नी परित्याग रूपी चरित्र के दोष को सदा के लिये दूर करदिया। साथ ही सीता को वनवास देने वाले राम का रुदन दिखाकर कवि ने सीता के अपमानित तथा दुःख भरे हृदय को बहुत शान्त किया हैं। साहित्य शास्त्र में जहॉं नाटकों में श्रृंगार अथवा वीर रस की प्रधानता का विधान है वही भवभूति ने उसके विपरीत करुण रस प्रधान नाटक लिखकर नाट्यजगत में एक अपूर्व क्रान्ति ला दी। भवभूति तो यहॉं तक कहते हैं कि करुण ही एकमात्र रस है। वही करुण निमित्त भेद से अन्य रूपों में व्यक्त हुआ है। विवाह से पूर्व नायक नायिका का श्रृंगार वर्णन तो प्रायः सभी कवियों ने सफलता के साथ किया है परन्तु भवभूति ने दाम्पत्य प्रेम का जैसा उज्जवल एवं विशद चित्र खींचा है वैसा अन्यत्र दुलर्भ है। सात अंकों में निबद्ध उत्तररामचरितम भवभूति की सर्वश्रेष्ठ नाट्यकृति है। इसमें रामराज्यमिषेक के पश्चात् जीवन का लोकोत्तर चरित वर्णित है जो महावीरचरित का ही उत्तर भाग माना जाता है।। संस्कृत नाट्यसाहित्य में मर्यादापुरषोत्तम श्री रामचन्द्र के पावन चरित्र से सम्बद्ध अनेक नाटक है किन्तु उनमें भवभूति का उत्तरराम चरितम् अपना एक अलग ही वैशिष्ट्य रखता है। काव्य शास्त्र में जहॉं नाटकों में श्रृंगार अथवा वीर रस की प्रधानता का विधान है वहीं भवभूति ने उसके विपरीत करुण रस प्रधान नाटक रचकर नाट्यजगत में एक अपूर्व क्रान्तिला दी है। उत्तररामचरितम् में प्रेम का जैसा शुद्ध रूप देखने को मिलता है वैसा अन्य कवियों की कृत्तियों में दुर्लभ है। कवि ने इस नाटक के माध्यम से राजा का वह आदर्श रूप प्रस्तुत किया है जो स्वार्थ और त्याग की मूर्ति है तथा प्रजारंजन ही जिसका प्रधान धर्म है। प्रजा सुख के लिये प्राणप्रिया पत्नी का भी त्याग करने में जिसे कोई हिचक नहीं है। इस नाटक में प्रकृति के कोमल तथा मधुर रूप के वर्णन की अपेक्षा उसके गम्भीर तथा विकट रूप का अधिक वर्णन हुआ है जो अद्वितीय एवं श्लाघनीय हैं। वास्तव में यह नाटक अन्य नाटकों की तुलना में निराला ही है। इसी कारण संस्कृत नाट्य जगत में इसका विशेष स्थान है। सार रूप में यही कहा जा सकता है कि विश्वास की महिमा में, प्रेम की पवित्रता में, भावनाओं की तरंगक्रीड़ा में, भाषा के गम्भीर्य में और हृदय के माहात्म्य में उत्तररामचरितम् श्रेष्ठ एवं अतुलनीय नाटक है। .

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उजियारे कवि

उजियारे कवि एक हिन्दी कवि थे। वे बृंदावननिवासी नवलशाह के पुत्र थे। इनके लिखे दो ग्रंथ मिलते हैं: (१) जुगल-रस-प्रकाश तथा (२) रसचंद्रिका। उक्त दोनों ग्रंथों की हस्तलिखित प्रतियाँ नागरीप्रचारिणी सभा, काशी के याज्ञिक संग्रहालय में सुरक्षित हैं। देखा जाए तो उक्त दोनों ग्रंथ एक ही हैं। दोनों में समान लक्षण उदाहरण दिए गए हैं। कवि ने अपने आश्रयदाताओं, हाथरस के दीवान जुगलकिशोर तथा जयपुर के दौलतराम के नाम पर एक ही ग्रंथ के क्रमश: जुगल-रस-प्रकाश तथा रसचंद्रिका नाम रख दिए हैं। जुगल-रस-प्रकाश की रचनातिथि संवत्.

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छ्न्द

वर्णों की संख्या, क्रम, मात्रा और गति-यति के नियमों से नियोजित पद्य रचना छन्द कहलाती है। छंद का सबसे पहले उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। छंद को पद्य रचना का मापदंड कहा जा सकता है। बिना कठिन साधना के कविता में छंद योजना को साकार नहीं किया जा सकता। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

नव रस, रस, रस सिद्धांत, रस, छंद तथा अलंकार, रस–सिद्धांत, शांत रस, करुण रस

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