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रस (काव्य शास्त्र) और सूत्रधार

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

रस (काव्य शास्त्र) और सूत्रधार के बीच अंतर

रस (काव्य शास्त्र) vs. सूत्रधार

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं। रस का शाब्दिक अर्थ है - निचोड़। काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप अप्रमेय और अनिर्वचनीय है। . सूत्रधार नाटक के सभी सूत्र अपने हाथों में धारण करता है। वही नाटक का प्रारंभ करता है और वही अंत भी करता है। कभी कभी नाटक के बीच में भी उसकी उपस्थिति होती है। कभी कभी वह मंच के पीछे अर्थात नेपथ्य से भी नाटक का संचालन करता है। भारतीय रंगपरंपरा में सूत्रधार को अपने नाम के अनुरूप महत्व प्राप्त है। भारतीय समाज में संसार को रंगमंच, जीवन को नाट्य, मनुष्य या जीव को अभिनेता और ईश्वर को सूत्रधार कहा जाता है। यह माना जाता है कि ईश्वर ही वह सूत्रधार है, जिसके हाथ में सारे सूत्र होते हैं और वह मनुष्य या जीव रूपी अभिनेता को संसार के रंगमंच पर जीवन के नाट्य में संचालित करता है। सूत्रधार की यह नियामक भूमिका हमारी रंगपरंपरा में स्पष्ट देखने को मिलती है। वह एक शक्तिशाली रंगरूढ़ि के रूप में संस्कृत रंगमंच पर उपलब्ध रहा है। पारंपारिक नाट्यरूपों के निर्माण और विकास में भी सूत्रधार के योगदान को रेखांकित किया जा सकता है। आधुनिक रंगकर्म के लिए सूत्रधार अनेक रंगयुक्तियों को रचने में सक्षम है, जिसके कारण रंगमंच के नए आयाम सामने आ सकते हैं। यह एक ऐसा रूढ़ चरित्र है, जिसे बार-बार आविष्कृत करने का प्रयास किया गया है और आज भी वह नई रंगजिज्ञासा पैदा करने में समर्थ है। वह अभिनेता, दर्शक और नाटक के बीच सूत्र बनाए रखने का महत्वपूर्ण काम करता है। सूत्रधार के सूत्र संस्कृत रंगपरंपरा से गहरे जुड़े हुए हैं। वहाँ इसे संपूर्ण अर्थ का प्रकाशक, नांदी के पश्चात मंच पर संचरण करने वाला पात्र तथा शिल्पी कहा गया है। सूचक और बीजदर्शक के रूप में भी सूत्रधार को मान्यता मिली है। सूत्रभृत, सूत्री और सूत्रकृत आदि नामों से भी यह संबोधित किया जाता रहा है। 'भाव' का संबोधन भी इसे मिला है। अमरकोष 'भाव' को विद्वान का पर्याय मानता है। नाट्याचार्य भी सूत्रधार के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता रहा है। पर्याय के रूप में प्रयुक्त होने वाले सूत्रधार के विविध नामों के भीतर छिपे गुणों के आधार पर लक्षणग्रंथों और शास्त्रों में सूत्रधार की विवेचना होती रही है। नाट्यशास्त्र में भरत मुनि सूत्रधार को भावयुक्त गीतों, वाद्य तथा पाठ्य के सूत्रों का ज्ञाता मानते हैं और उपदेष्टा भी कहते हैं। नाट्याचार्य की उपाधि उसे उपदेष्टा होने के कारण प्राप्त हुई। प्राचीन आचार्यों ने सूत्रधार के लक्षणों की विवेचना करते हुए उसे 'संगीत सर्वस्व' भी माना है। नृत्य, नाट्य और कथा के सूत्रों को आपस में गूँथने के कारण भी उसे सूत्रधार की संज्ञा दी गई। वह प्रस्तुत किए जाने वाले काव्य (रूपक) की वस्तु, नेता और रस को सूत्र रूप में सूचित करता है। नायक और कवि (रूपककार या नाटककार) तथा वस्तु के वैशिष्ट्य को भी सूत्रबद्ध करता है। वह प्रसाधन में दक्ष (रंगप्रसाधन प्रौढः) होता है। रूपक की प्रस्तावना को उपस्थापित करने वाला यह चरित्र सभी अभिनेताओं का प्रधान माना गया है। सूत्रधार के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए नाट्यशास्त्र के आचार्य मातृगुप्त उसे चार प्रकार के प्रकाश में निष्णात, अनेक भाषाओं का ज्ञाता, विविध प्रकार के भाषणों (संवादों) का तत्वज्ञ, नीतिशास्त्र वेत्ता, वेशभूषा का जानकार, समाज का दीर्घदर्शी, गतिप्रचार जानने वाला, रसभाव विशारद, नाट्य-प्रयोग तथा विविध शिल्प कलाओं में दक्ष, छंदोविधान का मर्मज्ञ, शास्त्रों का पंडित, गीतों के लिए लय-ताल का ज्ञाता और दूसरों को शिक्षित करने में निपुण माना है। प्राचीन आचार्य शांतकर्णि सूत्रधार के लक्षणों को प्रतिपादित करते हुए अनुष्ठान (रंग अनुष्ठान) को प्रयोग का सूत्र और उसे धारण करने वाले को सूत्रधार मानते हैं। हालाँकि सूत्रधार की भूमिका को किंचित संकुचित करते हुए शांतकर्णि मानते हैं कि वह नाटक में कोई भूमिका नहीं करता, अतः वह बाह्य-पात्र है। आचार्य कोहल यह माँग करते हैं कि सूत्रधार को नांदी संबोधित किया जाना चाहिए क्योंकि वह नांदी पाठ करता है। भास उसे प्रस्तावना, प्रस्तुति और समापन-तीनों का नियामक मानते हैं। .

रस (काव्य शास्त्र) और सूत्रधार के बीच समानता

रस (काव्य शास्त्र) और सूत्रधार आम में 4 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): नाटक, भरत मुनि, रस (काव्य शास्त्र), संस्कृत भाषा

नाटक

नाटक, काव्य का एक रूप है। जो रचना श्रवण द्वारा ही नहीं अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराती है उसे नाटक या दृश्य-काव्य कहते हैं। नाटक में श्रव्य काव्य से अधिक रमणीयता होती है। श्रव्य काव्य होने के कारण यह लोक चेतना से अपेक्षाकृत अधिक घनिष्ठ रूप से संबद्ध है। नाट्यशास्त्र में लोक चेतना को नाटक के लेखन और मंचन की मूल प्रेरणा माना गया है। .

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भरत मुनि

भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र लिखा। इनका समय विवादास्पद हैं। इन्हें 400 ई॰पू॰ 100 ई॰ सन् के बीच किसी समय का माना जाता है। भरत बड़े प्रतिभाशाली थे। इतना स्पष्ट है कि भरतमुनि रचित नाट्यशास्त्र से परिचय था। इनका 'नाट्यशास्त्र' भारतीय नाट्य और काव्यशास्त्र का आदिग्रन्थ है।इसमें सर्वप्रथम रस सिद्धांत की चर्चा तथा इसके प्रसिद्द सूत्र -'विभावानुभाव संचारीभाव संयोगद्रस निष्पति:" की स्थापना की गयी है| इसमें नाट्यशास्त्र, संगीत-शास्त्र, छंदशास्त्र, अलंकार, रस आदि सभी का सांगोपांग प्रतिपादन किया गया है। 'भारतीय नाट्यशास्त्र' अपने विषय का आधारभूत ग्रन्थ माना जाता है। कहा गया है कि भरतमुनि रचित प्रथम नाटक का अभिनय, जिसका कथानक 'देवासुर संग्राम' था, देवों की विजय के बाद इन्द्र की सभा में हुआ था। आचार्य भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति ब्रह्मा से मानी है क्योकि शंकर ने ब्रह्मा को तथा ब्रह्मा ने अन्य ऋषियो को काव्य शास्त्र का उपदेश दिया। विद्वानों का मत है कि भरतमुनि रचित पूरा नाट्यशास्त्र अब उपलब्ध नहीं है। जिस रूप में वह उपलब्ध है, उसमें लोग काफ़ी क्षेपक बताते हैं श्रेणी:संस्कृत आचार्य.

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रस (काव्य शास्त्र)

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं। रस का शाब्दिक अर्थ है - निचोड़। काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप अप्रमेय और अनिर्वचनीय है। .

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संस्कृत भाषा

संस्कृत (संस्कृतम्) भारतीय उपमहाद्वीप की एक शास्त्रीय भाषा है। इसे देववाणी अथवा सुरभारती भी कहा जाता है। यह विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है। संस्कृत एक हिंद-आर्य भाषा हैं जो हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार का एक शाखा हैं। आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसे, हिंदी, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, नेपाली, आदि इसी से उत्पन्न हुई हैं। इन सभी भाषाओं में यूरोपीय बंजारों की रोमानी भाषा भी शामिल है। संस्कृत में वैदिक धर्म से संबंधित लगभग सभी धर्मग्रंथ लिखे गये हैं। बौद्ध धर्म (विशेषकर महायान) तथा जैन मत के भी कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ संस्कृत में लिखे गये हैं। आज भी हिंदू धर्म के अधिकतर यज्ञ और पूजा संस्कृत में ही होती हैं। .

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सूची के ऊपर निम्न सवालों के जवाब

रस (काव्य शास्त्र) और सूत्रधार के बीच तुलना

रस (काव्य शास्त्र) 65 संबंध है और सूत्रधार 13 है। वे आम 4 में है, समानता सूचकांक 5.13% है = 4 / (65 + 13)।

संदर्भ

यह लेख रस (काव्य शास्त्र) और सूत्रधार के बीच संबंध को दर्शाता है। जानकारी निकाला गया था, जिसमें से एक लेख का उपयोग करने के लिए, कृपया देखें:

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