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प्लेटो

सूची प्लेटो

प्लेटो (४२८/४२७ ईसापूर्व - ३४८/३४७ ईसापूर्व), या अफ़्लातून, यूनान का प्रसिद्ध दार्शनिक था। वह सुकरात (Socrates) का शिष्य तथा अरस्तू (Aristotle) का गुरू था। इन तीन दार्शनिकों की त्रयी ने ही पश्चिमी संस्कृति की दार्शनिक आधार तैयार किया। यूरोप में ध्वनियों के वर्गीकरण का श्रेय प्लेटो को ही है। .

97 संबंधों: डिमास्थेने, डेल्फी, तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, द्वंद्वात्मक तर्कपद्धति, देववाद, नागरिक समाज, नागरिकता, नव अफलातूनवाद, न्याय, नोआम चाम्सकी, नीतिशास्त्र का इतिहास, पश्चिमी संस्कृति, पायथागॉरियन प्रमेय, पारमेनीडेस, पाश्चात्य काव्यशास्त्र, पाइथागोरस, पाइथागोरस प्रमेय, पुनर्चक्रण, पुनीत वशिष्ठ, प्रसिद्ध पुस्तकें, प्रहसन, प्रकृतिवाद (दर्शन), प्रोतागोरास, प्लेटो का अनुकरण सिद्धांत, फलित ज्योतिष, फीदो, बोएथिउस, भारत में दर्शनशास्त्र, भाषा, भावना, मानविकी, मार्कस पोर्सियस कातो, मूल्यमीमांसा, यूटोपिया, यूनानी भाषा, यूक्लिड, राफेल, राजनीति विज्ञान, राजनीतिक दर्शन, राजनीतिक सिद्धांतवादियों की सूची, रिपब्लिक (प्लेटो), रेने देकार्त, लुसियन, लेव तोलस्तोय, लोंजाइनस, शिक्षा दर्शन, शोथा रुस्थावेली, षड्यन्त्र का सिद्धान्त, समाजशास्त्र, ..., सर्वसत्तावाद, सामाजिक वर्ग, सिलानिओं, संभ्रांत वर्ग, संकेतविज्ञान, सुकरात, स्टोइक दर्शन, सौन्दर्यशास्त्र, सृजनात्मकता, सोफ़िस्त, हाईपेशिया, हिन्दी पुस्तकों की सूची/श, हेरक्लिटस, जार्ज विल्हेम फ्रेड्रिक हेगेल, ज्यामिति का इतिहास, जॉन राल्स, जोहन्नेस स्कोतुस युरिउगेना, ईसप की दंतकथाएं, ईसाई मत में ईश्वर, विधिवेत्ता, विज्ञान के दार्शनिकों की सूची, विवाह, वुडरो विल्सन, व्यक्तिवाद, खुसरू प्रथम, खेल सिद्धांत, गणित का इतिहास, गाटफ्रीड लैबनिट्ज़, गुफ़ा की कथा, आदर्शवाद, आधुनिक मनोविज्ञान, आध्यात्मिकता, आनंदवाद, आकस्मिकवाद, इमानुएल काण्ट, कला, काव्यशास्त्र, कुलीनतावाद, कृष्णराज वोडेयार चतुर्थ, अधिकार, अनुकरण, अभिजाततंत्र, अरस्तु, अरस्तु का विरेचन सिद्धांत, अरस्तु का अनुकरण सिद्धांत, अल्मागेस्ट, अकादमी सूचकांक विस्तार (47 अधिक) »

डिमास्थेने

डिमास्थेने या डिमास्थेनीज़ (Demosthenes; ग्रीक: Δημοσθένης Dēmosthénēs; 384 – 12 अक्टूबर 322 ईसापूर्व)) विश्वविख्यात यूनानी राजमर्मज्ञ (स्टेट्समैन) तथा वक्ता था। डेमास्थेनीज़ शब्द-प्रभु था, ग्रीक प्रतिभा का उज्ज्वल उदाहरण। डिमास्थेनीज़ का जन्म एथेंस में ३८४ ईसा पूर्व में हुआ था। सात वर्ष की उम्र में ही अनाथ बने इस व्यक्ति ने १८ वर्ष की अल्पायु में ही अपना वाक्कौशल अपने ही पालकों के विरुद्ध न्यायालय में मुकदमा चलाकर, सिद्ध किया। फिर वह न्यायालयों के लिए भाषणलेखक का काम करने लगा। उसकी राजनीतिक तर्कशक्ति के कारण उसका उपयोग प्रशासन की तथा सार्वजनिक संस्थाओं ने दोनों तरफ करना शुरू किया। एथेन्स और मैसेडौन के फिलिप के बीच संघर्ष के समय डिमास्थेनीज की वक्तृत्व कला का बहुत उपयोग किया गया। ३५१ ईसा पूर्व से ३४१ ईसा पूर्व के औलिफियाई और फिलिपी भाषणों के कारण उसे बहुत यश प्राप्त हुआ। इन वक्तव्यों में, जो जनसभाओं में दिए गए थे, डिमास्थेनीज ने फिलिप की चतुराई और धूर्तता का पर्दाफाश किया और तत्कालीन एथेन्स की सहानुभूतिशून्यता को खूब कोसा। प्राचीन आदर्शों की याद दिलाई। ३४० ईसा पूर्व में डिमास्थेनीज को समूचे एथेंस की राजनीति का सर्वेसर्वा बनाया गया। इसकी सलाह में यह विश्वास बहुत विलंबित घटना थी। तब तक मैसेडोन वाला पक्ष बहुत प्रबल हो चुका था और एथेंस को शैरोनिआ में ३३८ ईसा पूर्व में करारी हार खानी पड़ी। जब डिमास्थेनीज की पूर्व नीतियों को मैसिडोनिया पक्ष के ईस्काइनीस ने चुनौती दी, तब ३३० ईसा पूर्व में उसने आन दि क्राउन, नामक ऐसी प्रसिद्ध वक्तृता दी कि सारे विरोधी तर्क खंडित हो गए। बाद में उसको पुन: हार खानी पड़ी। ३२४ ईसा पूर्व में उसे देशनिकाला दिया गया, क्योंकि उसने कुछ घूस ली, ऐसा सिद्ध हुआ। यह घूस अलेक्जैंडर के एक पलायक सेनाधिकारी हारपेलस ने दी थी। ३२३ में वह पुन: लौटकर एंटीपेटर के विरोध में अंतिम मोर्चा लेने के लिए आया जिसमें अयशस्वी होने पर उसने आत्महत्या कर ली। डिमास्थेनीज के ६१ भाषण और छह पत्र उपलब्ध हैं। उनमें से २० भाषण प्रतिक्रियात्मक और खंडनप्रधान हैं। शायद कुछ उसके नाम से कहे जाते हैं। फिर भी उसके निजी भाषणों से तत्कालीन ग्रीस की नैतिक और न्याय विषयक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। उसकी सार्वजनिक वक्तृताएँ निजी भाषणों के समान प्रभावशाली हैं। डेमास्थेनीज की गद्यशैली का सच्चा आनन्द उसे मूल ग्रीक में पढ़ने पर मिल सकता है। उसकी गद्यशैली का प्रभाव बहुत कुछ नाद और शब्द संपदा पर निर्भर करता है। ईसाक्रेटस की नपी तुली, स्वचेतन शैली उसकी नहीं है, यद्यपि उसकी और उक्तिचमत्कारवाली कुशलता डिमास्थेनीज़ में है। डिमास्थेनीज़ तर्कयुक्त विवेचना और भावोद्रेक की वृद्धि के लिए शैली भी काम में लाता है। यद्यपि वह जानता है कि शब्दकला का कैसे, कहाँ उपयोग करना चाहिए, फिर भी डिमास्थेनीज़ कहीं भी व्यर्थ के शब्दालंकार में खो नहीं जाता। कहाँ साम, दंड, भेद काम में लाना है, इसे वह अच्छी तरह जानता था और वैसे ही शब्द और अर्थालंकार खोजता था। अपने देश के संकटकालीन इतिहास में उसने शब्दों से शस्त्रों जैसा काम लिया। यह आवश्यक प्रभाव, क्रोध, अमर्श, जनता का समर्थन, वर्णनशक्ति द्वारा पैदा कर सकता था। सिसेरो की भाँति उसकी शैली साधारणीकृत साहित्यिक शैली नहीं है; वरन् उसकी शैली में उसके व्यक्तित्व की पूरी विशिष्ट छाप है। डिमास्थेनीज़ के भाषणों में हास्य, व्यंग्य, करुणा, प्रसन्नता की पुट उतनी नहीं जितनी भव्यता, प्रामाणिकता और व्यंजनाशक्ति का बाहुल्य है। कुछ आलोचकों ने उसकी वक्तृता पद्धति को अध्ययन का परिणाम माना है, पर अधिकतर उसकी रचनाएँ होमर और प्लेटो की तरह स्फूर्ति और सहज प्रेरणा पर आधारित मानी जाती हैं। श्रेणी:प्राचीन यूनानी राजमर्मज्ञ.

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डेल्फी

डेल्फी (ग्रीक) ग्रीस का एक पुरातात्विक स्थल व आधुनिक नगर दोनों है, जो फोसिस (Phocis) की घाटी में माउंट पर्नासस के दक्षिण-पश्चिमी पर्वत स्कंध पर स्थित है। डेल्फी ग्रीक पौराणिक कथाओं में, डेल्फी की ऑरेकल (Delphic Oracle), प्राचीन ग्रीक विश्व में सर्वाधिक महत्वपूर्ण ऑरेकल, का स्थान और देवता अपोलो, एक देवता, जिन्होंने वहां निवास किया और पृथ्वी की नाभि की रक्षा की, द्वारा अजगर का वध कर दिये जाने के बाद उनकी उपासना का एक मुख्य स्थल था। कुछ लोगों का दावा है कि इस स्थल का मूल नाम पाइथन (Python) (क्रिया पाइथीन (pythein), "सड़ना" से व्युत्पन्न) ही है, जो कि उस अजगर की पहचान है, जिसे अपोलो ने परास्त किया था (मिलर, 95)। होमेरिक हिम टू डेल्फिक अपोलो (Homeric Hymn to Delphic Apollo) याद दिलाती है कि इस स्थल का प्राचीन नाम क्रिसा (Krisa) था। डेल्फी में उनका पवित्र स्थान एक पैनहेलेनिक (panhellenic) गर्भगृह था, जहां 586 ई.पू.

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तर्कशास्त्र

तर्कशास्त्र शब्द अंग्रेजी 'लॉजिक' का अनुवाद है। प्राचीन भारतीय दर्शन में इस प्रकार के नामवाला कोई शास्त्र प्रसिद्ध नहीं है। भारतीय दर्शन में तर्कशास्त्र का जन्म स्वतंत्र शास्त्र के रूप में नहीं हुआ। अक्षपाद! गौतम या गौतम (३०० ई०) का न्यायसूत्र पहला ग्रंथ है, जिसमें तथाकथित तर्कशास्त्र की समस्याओं पर व्यवस्थित ढंग से विचार किया गया है। उक्त सूत्रों का एक बड़ा भाग इन समस्याओं पर विचार करता है, फिर भी उक्त ग्रंथ में यह विषय दर्शनपद्धति के अंग के रूप में निरूपित हुआ है। न्यायदर्शन में सोलह परीक्षणीय पदार्थों का उल्लेख है। इनमें सर्वप्रथम प्रमाण नाम का विषय या पदार्थ है। वस्तुतः भारतीय दर्शन में आज के तर्कशास्त्र का स्थानापन्न 'प्रमाणशास्त्र' कहा जा सकता है। किंतु प्रमाणशास्त्र की विषयवस्तु तर्कशास्त्र की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। .

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दर्शनशास्त्र

दर्शनशास्त्र वह ज्ञान है जो परम् सत्य और प्रकृति के सिद्धांतों और उनके कारणों की विवेचना करता है। दर्शन यथार्थ की परख के लिये एक दृष्टिकोण है। दार्शनिक चिन्तन मूलतः जीवन की अर्थवत्ता की खोज का पर्याय है। वस्तुतः दर्शनशास्त्र स्वत्व, अर्थात प्रकृति तथा समाज और मानव चिंतन तथा संज्ञान की प्रक्रिया के सामान्य नियमों का विज्ञान है। दर्शनशास्त्र सामाजिक चेतना के रूपों में से एक है। दर्शन उस विद्या का नाम है जो सत्य एवं ज्ञान की खोज करता है। व्यापक अर्थ में दर्शन, तर्कपूर्ण, विधिपूर्वक एवं क्रमबद्ध विचार की कला है। इसका जन्म अनुभव एवं परिस्थिति के अनुसार होता है। यही कारण है कि संसार के भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने समय-समय पर अपने-अपने अनुभवों एवं परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवन-दर्शन को अपनाया। भारतीय दर्शन का इतिहास अत्यन्त पुराना है किन्तु फिलॉसफ़ी (Philosophy) के अर्थों में दर्शनशास्त्र पद का प्रयोग सर्वप्रथम पाइथागोरस ने किया था। विशिष्ट अनुशासन और विज्ञान के रूप में दर्शन को प्लेटो ने विकसित किया था। उसकी उत्पत्ति दास-स्वामी समाज में एक ऐसे विज्ञान के रूप में हुई जिसने वस्तुगत जगत तथा स्वयं अपने विषय में मनुष्य के ज्ञान के सकल योग को ऐक्यबद्ध किया था। यह मानव इतिहास के आरंभिक सोपानों में ज्ञान के विकास के निम्न स्तर के कारण सर्वथा स्वाभाविक था। सामाजिक उत्पादन के विकास और वैज्ञानिक ज्ञान के संचय की प्रक्रिया में भिन्न भिन्न विज्ञान दर्शनशास्त्र से पृथक होते गये और दर्शनशास्त्र एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में विकसित होने लगा। जगत के विषय में सामान्य दृष्टिकोण का विस्तार करने तथा सामान्य आधारों व नियमों का करने, यथार्थ के विषय में चिंतन की तर्कबुद्धिपरक, तर्क तथा संज्ञान के सिद्धांत विकसित करने की आवश्यकता से दर्शनशास्त्र का एक विशिष्ट अनुशासन के रूप में जन्म हुआ। पृथक विज्ञान के रूप में दर्शन का आधारभूत प्रश्न स्वत्व के साथ चिंतन के, भूतद्रव्य के साथ चेतना के संबंध की समस्या है। .

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द्वंद्वात्मक तर्कपद्धति

द्वंद्वात्मक तर्कपद्धति (Dialectic या dialectics या dialectical method) असहमति को दूर करने के लिए प्रयुक्त तर्क करने की एक विधि है जो प्राचीनकाल से ही भारतीय और यूरोपीय दर्शन के केन्द्र में रही है। इसका विकास यूनान में हुआ तथा प्लेटो ने इसे प्रसिद्धि दिलायी। द्वन्दात्मक तर्कपद्धति दो या दो से अधिक लोगों के बीच चर्चा करने की विधि है जो किसी विषय पर अलग-अलग राय रखते हैं किन्तु तर्कपूर्ण चर्चा की सहायता से सत्य तक पहुँचने के इच्छुक हैं। .

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देववाद

देववाद के एक समर्थक थॉमस चब्ब देववाद या तटस्थेश्वरवाद (Deism) के अनुसार, सत्य की खोज में बुद्धि प्रमुख अस्त्र और अंतिम अधिकार है। ज्ञान के किसी भाग में भी बुद्धि के अधिकार से बड़ा कोई अन्य अधिकार विद्यमान नहीं। यह दावा धर्म और ज्ञानमीमांसा के क्षेत्रों में विशेष रूप में विवाद का विषय बनता रहा है। ईसाई मत में धर्म की नींव विश्वास पर रखी गई है। जो सत्य ईश्वर की ओर से आविष्कृत हुए है, वे मान्य हैं, चाहे वे बुद्धि की पहुँच के बाहर हों, उसके प्रतिकूल भी हों। 18वीं शती में, इंग्लैंड में कुछ विचारकों ने धर्म को दैवी आविष्कार के बजाय मानव चिंतन की नींव पर खड़ा करने का यत्न किया। आरंभ में अलौकिक या प्रकृतिविरुद्ध सिद्धांत उनके आक्रमण के विषय बने; इसके बाद ऐसी घटनाओं की बारी आई, जिन्हें ऐतिहासिक खोज ने असत्य बताया; और अंत में कहा गया कि जिस जीवनव्यवस्था को ईसाइयत आदर्श व्यवस्था के रूप में उपस्थित करती है, वह स्वीकृति के योग्य नहीं। टोलैंड (John Toland), चब्ब (Thomas Chubb) और बोर्लिगब्रोक (Bolingbroke) बुद्धिवाद के इन तीनों स्वरूपों के प्रतिनिधि तथा प्रसारक थे। ज्ञानमीमांसा में बुद्धिवाद और अनुभववाद का विरोध है। अनुभववाद के अनुसार, मनुष्य का मन एक कोरी तख्ती है, जिस पर अनेक प्रकार के बाह्य प्रभाव अंकित होते हैं; हमारा सारा ज्ञान बाहर से प्राप्त होता है। इसके विपरीत, बुद्धिवाद कहता है कि सारा ज्ञान अंदर से उपजता है। जो कुछ इंद्रियों के द्वारा प्राप्त होता है, उसे प्लेटो ने केवल "संमति" का पद दिया। बुद्धिवाद के अनुसार गणित सत्य ज्ञान का नमूना है। गणित की नींव लक्षणों और स्वयंसिद्ध धारणाओं पर होती है और ये दोनों मन की कृतियाँ हैं। आधुनिक काल में, डेकार्ट ने निर्मल और स्पष्ट प्रत्ययों को सत्य की कसौटी बताया। स्पिनोज़ा ने अपनी विख्यात पुस्तक "नीति" को रेखागणित का आकार दिया। वह कुछ परिभाषाओं और स्वत:सिद्ध धारणाओं से आरंभ करता है और प्रत्येक साध्य को उपयोगी उपपत्ति से प्रमाणित करता है। .

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नागरिक समाज

नागरिक समाज, सरकार द्वारा समर्थित संरचनाओं (राज्य की राजनीतिक प्रणाली का लिहाज़ किए बिना) और बाज़ार के वाणिज्यिक संस्थानों से बिलकुल अलग, क्रियात्मक समाज के आधार को रूप देने वाले स्वैच्छिक नागरिक और सामाजिक संगठनों और संस्थाओं की समग्रता से बना है। क़ानूनी राज्य का सिद्धांत (Rechtsstaat, यानी क़ानून के नियमांतर्गत राज्य) राज्य और नागरिक समाज की समानता को अपनी सबसे महत्वपूर्ण विशेषता मानता है। उदाहरण के लिए, लिथुआनिया गणराज्य का संविधान लिथुआनियाई राष्ट्र को "क़ानून के शासन के तहत एक मुक्त, न्यायोचित और सामंजस्यपूर्ण नागरिक समाज और सरकार के लिए प्रयासरतस" के रूप में परिभाषित करता है। .

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नागरिकता

नागरिकता (Citizenship) एक विशेष सामाजिक, राजनैतिक, राष्ट्रीय, या मानव संसाधन समुदाय का एक नागरिक होने की अवस्था है। सामाजिक अनुबंध के सिद्धांत के तहत नागरिकता की अवस्था में अधिकार और उत्तरदायित्व दोनों शामिल होते हैं। "सक्रिय नागरिकता" का दर्शन अर्थात् नागरिकों को सभी नागरिकों के जीवन में सुधार करने के लिए आर्थिक सहभागिता, सार्वजनिक, स्वयंसेवी कार्य और इसी प्रकार के प्रयासों के माध्यम से अपने समुदाय को बेहतर बनाने की दिशा में कार्य करना चाहिए.

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नव अफलातूनवाद

नव अफलातूनवाद (Neoplatonism yaa Neo-Platonism) यूनानी दर्शन का अंतिम संप्रदाय, जिसने ईसा की तीसरी शताब्दी में विकसित होकर, पतनोन्मुख यूनानी दर्शन को, लगभग पौने तीन सौ वर्ष, अथवा 529 ई. में रोमन सम्राट् जस्टिन की आज्ञा से एथेंस की अकादमी के बंद किए जाने तक, जीवित रखा। संस्थापकों ने इस संप्रदाय का नाम अफलातून से जोड़कर, एक ओर तो सर्वश्रेष्ठ समझे जानेवाले यूनानी दार्शनिक के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की; दूसरी ओर, विषम परिस्थितियों में अपने मत की प्रामाणिकता सिद्ध करने का इससे अच्छा कोई उपाय न था। इसके नाम से यह अनुमान करना कि यह अफलातून के मत का अनुवर्तन मात्र था, समीचीन नहीं। यूनानी दर्शन का प्रारंभ पाश्चात्य सभ्यता के शैशव काल में हुआ था। अफलातून तथा उसके शिष्य, अरस्तू, के दर्शन तक उक्त दर्शन अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँच गया था। किंतु, विश्व तथा मानव की मौलिक समस्याओं का काई संतोषप्रद समाधान नहीं दिया जा सका था। अफलातून के दर्शन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यही हैं कि उसमें उन सभी विचारसूत्रों को सहेजकर रखा गया है, जो प्रारंभ से लेकर अफलातून के समय तक के संपूर्ण सांस्कृतिक विकास का चित्र प्रस्तुत कर देते हैं। यह प्रवृत्ति प्लेटो के बाद के अन्य संप्रदायों में भी पाई जाती है। किंतु अंतिम संप्रदाय, नवअफलातूनवाद में, अफलातून के मौलिक विचरों से शिक्षा प्राप्त करने के साथ साथ, परवर्ती दर्शनसंप्रदायों के मतों से भी लाभ प्राप्त किया गया है। इस प्रकार, यह दर्शन यूनानी दर्शन के क्रमिक विकास का फल कहा जा सकता है। इसके संबंध में सबसे आवश्यक तथ्य यह है कि बदलती हुई परिस्थितियों में, इसने धर्मनिरपेक्ष यूनानी दर्शन को रोमन साम्राज्य के मनोनुकूल बनाने का प्रयत्न किया। इसकी गतिविधि समझने के लिए, अफलातून से लेकर ईसा की तीसरी शताब्दी तक बिखरे हुए विचारसूत्रों पर निगाह डालने की आवश्यकता है। यूनान के जीवन तथा दर्शन में क्रांति की लहर दौड़ाने का श्रेय सुकरात (469-399 ई.पू.) को प्राप्त है। उस संत ने आजीवन अपने समय के तथाकथित ज्ञान की आलोचना की और नैतिक चिंतन तथा धार्मिक अनुभव के अभाव पर खीझ प्रकट की। सुकरात से प्रभावित होकर, अफलातून (437-347 ई.पू.) ने पूर्ववर्ती विचारों को व्यवस्थित दर्शन का रूप देने का प्रयत्न किया। उसने पार्मेनाइडिज़ (540-470 ई.पू.) की प्रत्ययात्मक सत्ता को दृष्ट जगत्‌ का मूल कारण मानकर, सूक्ष्म तथा स्थूल, एक एवं अनेक का तथा हेराक्लाइटस (मृत्यु. 475 ई.पू.) के अनुसार चेतन एवं अचेतन का समन्वय करना चाहा था। किंतु, सूक्ष्म प्रत्यय एवं स्थूल वस्तु में यौक्तिक विरोध होने के कारण, उसे दोनों को संबद्ध करने के लिए किसी बीच की कड़ी की जरूरत थी। पूर्ववर्ती भौतिकवादियों के समने यह प्रश्न प्रस्तुत ही नहीं हुआ था, क्योंकि वे विश्व में किसी द्वैत की कल्पना ही नहीं करते थे। पार्मेनाइडिज़ तथा उसके अनुयायी, इलिया के दूसरे सत्तावादियों के सामने भी द्वैत का प्रश्न न था। वे सभी तो अद्वैतवादी थे। हेराक्लाइटस में द्वैत का प्रश्न न था। वे सभी तो अद्वैतवादी थे। हेराक्लाइटस में द्वैत की थोड़ी झलक थी, क्योंकि उसने एक और अनेक का प्रश्न उठाया था। पर, अपने रूपांतर के सिद्धांत से हल भी कर लिया था। यद्यपि रूपांतर के सिद्धांत से हल होता नहीं था, क्योंकि एक और अनेक का रूपांतर मान लेने पर गति, जिसे उसने विश्व का व्यापक नियम माना था, मात्र भ्रम ठहरती थी। अफलातून समन्वय कर रहा था। वह व्यवहार की सार्थकता की दृष्टि से इंद्रियसंवेद्य जगत्‌ को असत्‌ मानना नहीं चाहता था। प्रत्यय भी असत्‌ नहीं हो सकता था, क्योंकि यदि वह प्रत्यय को असत्‌ मान लेता तो सत्‌ की उत्पत्ति असत्‌ से माननी पड़ती। दोनों को कायम रखने के प्रयत्न में, उसने दो संसारों की, प्रत्यय जगत्‌ और वस्तु जगत्‌ की कल्पना की। किंतु दोनों में तारतम्य बनाए रखने के लिए प्रत्ययों को वस्तुओं का सार स्वीकार किया। अरस्तू ने अफलातून द्वारा स्थापित द्वैत को मिटाने का बहुत प्रयत्न किया। पर, वह भी आकार और पदार्थ के द्वैत की ही स्थापना कर सका। अफलातून को नैतिक समस्या सुलझाने में भी कोई बड़ी सफलता न मिल सकी, क्योंकि उसने उच्चतम प्रत्यय में, जिसे उसने संसार का मूल कारण माना था, सत्य, शुभ और सुंदर का समन्वय कर, अपने उत्तरदायित्व से मुक्ति ले ली। र्ध्म की समस्या भी वहीं रह गई थी, जहाँ उसे सुकरात और पाइथागोरस ने छोड़ दिया था। दोनों दार्शनिकों ने मानसिक तन्मयता में उच्चतम सत्य की अनुभूति के साक्ष्य प्रस्तुत किए थे, किंतु उस अनुभूति का कोई सैद्धांतिक विवेचन नहीं किया था। अरस्तू के जीवन (384-323 ई.पू.) के साथ ही साथ यूनानी राजसत्ता का लोप हो गया और एथेंस के दार्शनिकों को समीपवर्ती पूर्वी देशों में शरण लेनी पड़ी। वहाँ, खासकर, अलेक्ज़ेंड्रिया में वे नवोदित ईसाई धर्म के संपर्क में आए। तब उन्हें पता चला कि उस धर्म में भी, अफलातून के दर्शन की भाँति, द्वैत सत्ताओं की कल्पना विद्यमान थी। मध्यस्थ की कल्पना भी उसी प्रकार थी अंतर इतना ही था कि ईसाई धर्म के ईश्वर में व्यक्तित्व था। पर, यह तो काफ़ी जँचनेवाली बात थी। उचचतम प्रत्यय की अपेक्षा ईश्वर व्यक्ति से जगत्‌ के कारण, नियंता एवं पोषक बनने की आकांक्षा करना मानव बुद्धि के लिए अधिक रुचिकर था। अतएव अलेक्ज़ेंड्रिया के दार्शनिकों ने अफलातून की मौलिक सत्ता और ईसाई धर्म के ईश्वर की एकता का प्रतिपादन किया। फ़िलो (20/30 ई.पू.- 40 ई.) के दर्शन में यूनानी दर्शन ओर ईसाई धर्म के मिश्रण के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। कठिनाई यह थी कि ईसाई धर्म में मध्यस्थ की कल्पना समुचित न थी। इसके लिए स्टोइक दार्शनिकों का स्मरण किया गया। स्टोइक भौतिक अद्वैतवादी होने के नाते जगत्‌ तथा ईश्वर दोनों को परस्पर संबद्ध रखने के लिए उन्हें भी किसी मध्यस्थ की कल्पना करनी थी। हेराक्लाइटस ने अग्नि को प्रथम तत्व कहा था। स्टोइकों ने अग्नि तथा बुद्धि में कोई अंतर न पाया। अतएव उन्होंने यह मान लिया कि जैसे अग्नि भौतिक पदार्थ होते हुए भी चारों ओर अपना ताप वितरित करती है, उसी प्रकार ईश्वर बुद्धि का प्रसार करता है, जो संसार और मनुष्य दोनों में व्याप्त हो जाती है। इसी संकेत के आधार पर, फिलो ने 'लोगस' को ईश्वर और जगत्‌ के बीच की कड़ी मान लिया। किंतु फिलो का 'लागस' पदार्थ न था। वह ईश्वर की शक्ति है, विचार है, जो प्रति शरीर भिन्न होकर 'लोगाई' (बहुवचन) भी बन सकता है। पदार्थ को फिलो ने आत्मा का बंधन माना था। इसलिए उसे ईश्वर और लोगस से अलग रखा था। इसी फिलो की विचारधारा ने तीसरी शताब्दी तक नव अफलातूनवाद का रूप लिया। संस्थापक के स्थान पर अमोनियस सैक्कस का नाम लिया जाता है, किंतु वह हमारे लिए केवल एक नाम है। संभवत:, 242 ई. के आसपास उसकी मृत्यु हुई थी। उसके दर्शन का ज्ञान हमें उसके शिष्य, प्लाटिनस, के ग्रंथों से होता है। उसका जन्म मिस्र देश के लाइकोपोलिस नामक स्थान में, 204 ई. के आसपास अनुमित है। 245 ई. में वह रोम चला गया था। वहीं अपने दर्शन की शिक्षा देते हुए 270 ई. में उसकी मृत्यु हुई। अरस्तू के तर्कशास्त्र के व्याख्याकार पॉर्फिरी (232-304) ने प्लाटिनस के ग्रंथों का छह खंडों, में जिनमें से प्रत्येक में नौ ग्रंथ हैं, संपादन किया था, जो उपलब्ध हैं। इसलिए प्लाटिनस ही हमारे लिए नवअफलातूनवाद का संस्थापक है। प्लाटिनस ने अलेक्ज़ेंड्रिया के ईसाई दार्शनिकों के मत में एक बहुत बड़ा परिवर्तन किया था। वे ईश्वर को सर्वोपरि मानते थे, इतना दूर, इतना पृथक्‌ कि अंत में, उन्हें ईश्वर को अज्ञेय कहना पड़ता था। प्लाटिनस ने सुकरात और पाइथागोरस के तन्मयता के विचार से शिक्षा लेकर, तन्मयता की अवस्था में उसे आत्मा का प्राप्य बताया। इसी सिद्धांत के कारण नवअफलातूनवाद को पाश्चात्य दर्शन के रहस्यवाद का जन्मदाता समझा जाता है। इस प्रकार इस दर्शन में सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक दोनों पक्ष सम्मिलित हैं। प्लाटिनस के दर्शन के सैद्धांतिक पक्ष में तीन मुख्य भाग माने जा सकते हैं - (1) प्राथमिक सत्ता, (2) विचारजगत्‌ एवं आत्मा तथा (3) भौतिक जगत्‌। प्लाटिनस की प्राथमिक सत्ता ईश्वर है। वह एक, असीम तथा अपरिमित है। वही सभी सीमित एवं परिमित वस्तुओं का स्रोत तथा उनकी कारणता है। वह शुभ है, क्योंकि सभी वस्तुओं के प्रयोजन उसी में है। पर ईश्वर पर नैतिक गुणों का आरोप नहीं किया जा सकता, क्योंकि गुण सीमा हैं। वह अगुण है। जीवन एवं विचार का आरोप भी संभव नहीं, क्योंकि वह तो सभी सत्ताओं से परे हैं। वह एक सक्रिय शक्ति है, जो बिना किसी गति के, बिना परिवर्तन एवं ह्रास के, निरंतर अपने से भिन्न सत्ताओं को उत्पन्न करता रहता है। उसका उत्पादनकार्य भौतिक नहीं बल्कि प्रसारण (एमिशन) है। प्राथमिक सत्ता, अथवा, प्रथम सत्‌ सबसे पहले 'नाउस' को प्रकट करता है। 'नाउस' सत्‌ का प्रतिरूप एवं सभी वस्तुओं का सार है। वह सत्ता और विचार दोनों है। सत्‌ का प्रतिरूप होने से वह उसी के स्वभाव का है। भिन्न भी है, क्योंकि सत्ता से उत्पन्न हुआ है। इसीलिए, वह ईश्वर और जगत्‌ के बीच मध्यस्थ है। आत्मा इसी 'नाउस' का प्रतिरूप है। अतएव, नाउस से आत्मा के वही संबंध है, जो नाउस के ईश्वर से। स्पष्टतया, आत्मा अपदार्थ है। वह नाउस और व्यवहारजगत्‌ के बीच कीं कड़ी है। किंतु एक अंतर भी है। नाउस अविभाज्य है; किंतु आत्मा विभाज्य है। तभी तो वह शारीर जगत्‌ से संबंध रख सकती है। एक रहते हुए जगत्‌ से संबद्ध होकर वह जगदात्मा बनती है; प्रति शरीर भिन्न होकर वही जीवात्मा बनती है। ये आत्माएँ नाउस के नियमों का पालन कर, पवित्र दैवी जीवन बिता सकती हैं। पर, ऐसा नहीं होता। स्वतंत्र होने की इच्छा से वे नाउस से विमुख होकर जगत्‌ के ऐंद्रिक सुखों में लिप्त हो जाती हैं। तभी बंधन में पड़ती हैं। पर आत्मा का यह बंधन इच्छाकृत होने से स्थायी नहीं है। संसार से विमुख होकर, आत्मा अपना मूल स्वभाव प्राप्त कर सकती है। यहीं प्लाटिनस को अपने दर्शन का व्यावहारिक पक्ष विकसित करने का अवसर मिल जाता है। वह बताता है कि संसार में भटकी हुई आत्मा को पहले अपने आपमें वापस आना पड़ता है। फिर, वह नाउस में स्थित होती है। तब वह ईश्वरमिलन की कामना कर सकती है। इस प्रक्रिया को पूरा करने का प्रयास तीन स्तरों में किया जा सकता है। ये स्तर नैतिक आचरण के अभ्यास के तीन स्तर हैं - नारिक, शोधक तथा दैवी आचरण। पहले, पारस्परिक प्रेम एवं सद्भावना का अभ्यास, फिर पवित्र जीवन और तब ईश्वरोन्मुख होना। इस प्रकार, आत्मा पहले अपने आपमें आती है, फिर नाउस में स्थित होती है और तब ईश्वर, प्रथम सत्‌ या अपने कारण से मिलने की इच्छा करती है। मिलन की कोई अवधि नहीं। सतत ईश्वरचिंतन और मिलने की कामना करते-करते, तन्मयता के वे क्षण कभी भी आ सकते हैं, जिनमें वह कारण में लीन हो जाएगी। प्लाटिनस के अनुसार, तन्मयता के क्षणों में अनिर्वचनीय आनंद प्राप्त होता है और आत्मा नित्य प्रकाश में स्नान करती है। पार्फिरी ने बताया है कि अपने छह वर्ष के अध्ययनकाल में, उसने अपने गुरु को चार बार उस अवस्था में पाया था, जिसका उन्होंने अपने ग्रंथों में उपदेश किया हो। यह कथन सत्य हो या न हो, पार्फिरी अपने गुरु की साधना से बहुत प्रभावित था और जीवन भर उसने उनकी शिक्षाओं का प्रचार किया। आयम्ब्लिकस ने प्लाटिनस के मत का सीरिया में प्रचार किया। आयम्ब्लिकस ने प्लाटिनस के मत का सीरिया में प्रचार किया। आयम्ब्लिकस ने प्लाटिनस के मत का सीरिया में प्रचार किया। छोटे प्लूटार्क (350-433) और प्रोक्लस (411-85) ने एथेंस की अकादमी में उन्हीं शिक्षाओं का उपदेश किया। प्रोक्लस के बाद तो अकादमी बंद ही हो गई। इस प्रकार, प्लाटिनस का नव अफलातूनवाद ही यूनानी दर्शन का अंतिम रूप था। किंतु जीवित संप्रदाय का रूप न रहने पर भी नवअफलातूनवाद पाश्चात्य दर्शन से लुप्त न हुआ। पाइथागोरस और सुकरात ने अपनी रहस्यवादी पद्धति की कोई व्याख्या नहीं की थी। यह पहला अवसर था, जब सत्य के साक्षात्कार की बात व्यवस्थित ढंग से कही गई थी। इसलिए, यह सोचने का पूरा मौका है कि बाद के दर्शन में जहाँ कहीं भी सत्य के साक्षात्कार की बात आती है, वह नव अफलातूनवाद का प्रभाव है। इस प्रकार मध्यकालीन ईसाई संतों में से अनेक को, जैसे टॉमस एक्वीनस, एरिजेना, ब्रूनो आदि को, उक्त मत से प्रभावित समझा जा सकता। यह प्रभाव आधुनिक काल में भी पाया जाता है। अंतर्दृष्टिवादी सभी रहस्यवादी थे। हेनरी बर्गसाँ की मृत्यु 1941 में हुई। उसने तो सभी वस्तुओं के सत्य ज्ञान के लिए बुद्धि को अपर्याप्त बताकर, अंतर्दृष्टि के द्वारा उनके अंतर में घुसकर देखने की सम्मति दी थी। अतएव, यह कहना अयुक्त न होगा कि पाश्चात्य देशों में अब तक प्लाटिनस की पद्धति में विश्वास करनेवाले मौजूद हैं। इतना व्यापक था यह संप्रदाय। .

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न्याय

यह तय करना मानव-जाति के लिए हमेशा से एक समस्या रहा है कि न्याय का ठीक-ठीक अर्थ क्या होना चाहिए और लगभग सदैव उसकी व्याख्या समय के संदर्भ में की गई है। मोटे तौर पर उसका अर्थ यह रहा है कि अच्छा क्या है इसी के अनुसार इससे संबंधित मान्यता में फेर-बदल होता रहा है। जैसा कि डी.डी.

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नोआम चाम्सकी

एवरम नोम चोम्स्की (हीब्रू: אברם נועם חומסקי) (जन्म 7 दिसंबर, 1928) एक प्रमुख भाषावैज्ञानिक, दार्शनिक, by Zoltán Gendler Szabó, in Dictionary of Modern American Philosophers, 1860–1960, ed.

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नीतिशास्त्र का इतिहास

यद्यपि आचारशास्त्र की परिभाषा तथा क्षेत्र प्रत्येक युग में मतभेद के विषय रहे हैं, फिर भी व्यापक रूप से यह कहा जा सकता है कि आचारशास्त्र में उन सामान्य सिद्धांतों का विवेचन होता है जिनके आधार पर मानवीय क्रियाओं और उद्देश्यों का मूल्याँकन संभव हो सके। अधिकतर लेखक और विचारक इस बात से भी सहमत हैं कि आचारशास्त्र का संबंध मुख्यत: मानंदडों और मूल्यों से है, न कि वस्तुस्थितियों के अध्ययन या खोज से और इन मानदंडों का प्रयोग न केवल व्यक्तिगत जीवन के विश्लेषण में किया जाना चाहिए वरन् सामाजिक जीवन के विश्लेषण में भी। नैतिक मतवादों का विकास दो विभिन्न दिशाओं में हुआ है। एक ओर तो आचारशात्रज्ञों ने "नैतिक निर्णय" का विश्लेषण करते हुए उचित-अनुचित संबंधी मानवीय विचारों के मूलभूत आधार का प्रश्न उठाया है। दूसरी ओर उन्होंने नैतिक आदर्शों तथा उन आदर्शों की सिद्धि के लिए अपनाए गए मार्गों का विवेचन किया है। आचारशास्त्र का पहला पक्ष चिंतनशील है, दूसरा निर्देशनशील। इन दोनों को हमें एक साथ देखना होगा, क्योंकि प्रत्यक्षरूप में दोनों संलग्न और अविभाज्य हैं। .

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पश्चिमी संस्कृति

पश्चिमी संस्कृति (जिसे कभी-कभी पश्चिमी सभ्यता या यूरोपीय सभ्यता के समान माना जाता है), यूरोपीय मूल की संस्कृतियों को सन्दर्भित करती है। यूनानियों के साथ शुरू होने वाली पश्चिमी संस्कृति का विस्तार और सुदृढ़ीकरण रोमनों द्वारा हुआ, पंद्रहवी सदी के पुनर्जागरण एवं सुधार के माध्यम से इसका सुधार और इसका आधुनिकीकरण हुआ और सोलहवीं सदी से लेकर बीसवीं सदी तक जीवन और शिक्षा के यूरोपीय तरीकों का प्रसार करने वाले उत्तरोत्तर यूरोपीय साम्राज्यों द्वारा इसका वैश्वीकरण हुआ। दर्शन, मध्ययुगीन मतवाद एवं रहस्यवाद, ईसाई एवं धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद की एक जटिल श्रृंखला के साथ यूरोपीय संस्कृति का विकास हुआ। ज्ञानोदय, प्रकृतिवाद, स्वच्छंदतावाद (रोमेन्टिसिज्म), विज्ञान, लोकतंत्र और समाजवाद के प्रयोगों के साथ परिवर्तन एवं निर्माण के एक लंबे युग के माध्यम से तर्कसंगत विचारधारा विकसित हुई.

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पायथागॉरियन प्रमेय

पायथागॉरियन प्रमेय: दो वर्गों के क्षेत्रों का जोड़ (a और b) पैरों पर कर्ण पर वर्ग के क्षेत्र (c) बराबर होता है। गणित में, पायथागॉरियन प्रमेय (अमेरिकी अंग्रेजी) या पायथागॉरस' प्रमेय (ब्रिटिश अंग्रेजी) युक्लीडीयन ज्यामिति में एक समकोण त्रिकोण(समकोण त्रिकोण - ब्रिटिश अंग्रेजी) के तीन पार्श्वों के बीच एक रिश्ता है। इस प्रमेय को आमतौर पर एक समीकरण के रूप में लिखा जाता है: जहाँ c कर्ण की लंबाई को प्रतिनिधित्व करता है और a और b अन्य दो पार्श्वों की लंबाई को प्रतिनिधित्व करते हैं। शब्दों में:समकोण त्रिकोण के कर्ण का वर्ग अन्य दो पार्श्वों के वर्गों की राशि के बराबर है।पायथागॉरियन प्रमेय यूनानी गणितज्ञ पायथागॉरस के नाम पर रखा गया है, जिन्हें रिवाज से अपनी अपनी खोज और प्रमाण का श्रेय दिया जाता है,हेथ, ग्रंथ I,p.

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पारमेनीडेस

पारमेनीडेस(515 ईसा पूर्व- 460 ईसा पूर्व) यूनानी दार्शनिक था। .

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पाश्चात्य काव्यशास्त्र

पाश्चात्य काव्यशास्त्र (वेस्टर्न पोएटिक्स) के उद्भव के साक्ष्य ईसा के आठ शताब्दी पूर्व से मिलने लगते हैं। होमर और हेसिओड जैसे महाकवियों के काव्य में पाश्चात्य काव्यशास्त्रीय चिंतन के प्रारम्भिक बिंदु मौजूद मिलते हैं। ईसापूर्व यूनान में वक्तृत्वशास्त्रियों का काफ़ी महत्त्व था। समीक्षा की दृष्टि से उस समय की फ़्राग्स तथा क्लाउड्स जैसी कुछ नाट्यकृतियाँ काफ़ी महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय हैं। फ़्राग्स में कविता को लेकर यह प्रश्न किया गया है कि वह उत्कृष्ट क्यों मानी जाती है? काव्य समाज को उपयोगी प्रेरणा तथा मनोरंजन के कारण महत्त्वपूर्ण हैं या आनंद प्रदान करने तथा मनोरंजन के कारण? इस तरह से काव्यशास्त्रीय चिंतन-सूत्र यूनानी समाज में बहुत पहले मौजूद रहे और विधिवत काव्य-समीक्षा की शुरुआत प्लेटो से हुई। .

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पाइथागोरस

सामोस के पाईथोगोरस (Ὁ Πυθαγόρας ὁ Σάμιος, ओ पुथागोरस ओ समिओस, "पाईथोगोरस दी समियन (Samian)," या साधारण रूप से; उनका जन्म 580 और 572 ई॰पू॰ के बीच हुआ और मृत्यु 500 और 490 ई॰पू॰ के बीच हुई), या फ़ीसाग़ोरस, एक अयोनिओयन (Ionian) ग्रीक (Greek)गणितज्ञ (mathematician) और दार्शनिक थे और पाईथोगोरियनवाद (Pythagoreanism) नामक धार्मिक आन्दोलन के संस्थापक थे। उन्हें अक्सर एक महान गणितज्ञ, रहस्यवादी (mystic) और वैज्ञानिक (scientist) के रूप में सम्मान दिया जाता है; हालाँकि कुछ लोग गणित और प्राकृतिक दर्शन में उनके योगदान की संभावनाओं पर सवाल उठाते हैं। हीरोडोट्स उन्हें "यूनानियों के बीच सबसे अधिक सक्षम दार्शनिक" मानते हैं। उनका नाम उन्हें पाइथिआ (Pythia) और अपोलो से जोड़ता है; एरिस्तिपस (Aristippus) ने उनके नाम को यह कह कर स्पष्ट किया कि "वे पाइथियन (पाइथ-) से कम सच (एगोर-) नहीं बोलते थे," और लम्ब्लिकास (Iamblichus) एक कहानी बताते हैं कि पाइथिआ ने भविष्यवाणी की कि उनकी गर्भवती माँ एक बहुत ही सुन्दर, बुद्धिमान बच्चे को जन्म देगी जो मानव जाती के लिए बहुत ही लाभकारी होगा। (The Savisier-) उन्हें मुख्यतः पाईथोगोरस की प्रमेय (Pythagorean theorem) के लिए जाना जाता है, जिसका नाम उनके नाम पर दिया गया है। पाइथोगोरस को "संख्या के जनक" के रूप में जाना जाता है, छठी शताब्दी ईसा पूर्व में धार्मिक शिक्षण और दर्शनमें उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। पूर्व सुकराती (pre-Socratic) काल के अन्य लोगों की तुलना में उनके कार्य ने कथा कहानियों को अधिक प्रभावित किया, उनके जीवन और शिक्षाओं के बारे में अधिक विश्वास के साथ कहा जा सकता है। हम जानते हैं कि पाइथोगोरस और उनके शिष्य मानते थे कि सब कुछ गणित से सम्बंधित है और संख्याओं में ही अंततः वास्तविकता है और गणित के माध्यम से हर चीज के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है तथा हर चीज को एक ताल बद्ध प्रतिरूप या चक्र के रूप में मापा जा सकता है। लम्बलीकस (Iamblichus) के अनुसार, पाइथोगोरस ने कहा कि "संख्या ही विचारों और रूपों का शासक है और देवताओं और राक्षसों का कारण है।" वो पहले आदमी थे जो अपने आप को एक दार्शनिक, या बुद्धि का प्रेमी कहते थे, और पाइथोगोरस के विचारों ने प्लेटो पर एक बहुत गहरा प्रभाव डाला। दुर्भाग्य से, पाइथोगोरस के बारे में बहुत कम तथ्य ज्ञात हैं, क्योंकि उन के लेखन में से बहुत कम ही बचे हैं। पाइथोगोरस की कई उपलब्धियां वास्तव में उनके सहयोगियों और उत्तराधिकारियों की उपलब्धियां हैं। पाईथोगोरस का जन्म सामोस (Samos) में हुआ, जो एशिया माइनर (Asia Minor) के किनारे पर, पूर्वी ईजियन में एक यूनानी द्वीप है। उनकी माँ पायथायस (समोस की निवासी) और पिता मनेसार्चस (टायर (Tyre) के एक फोनिसियन (Phoenicia) व्यापारी) थे। जब वे जवान थे तभी उन्होंने, अपने जन्म स्थान को छोड़ दिया और पोलिक्रेट्स (Polycrates) की अत्याचारी (tyrannical) सरकार से बच कर दक्षिणी इटलीमें क्रोटोन (Croton) केलेब्रिया (Calabria) में चले गए। लम्ब्लिकस (Iamblichus) के अनुसार थेल्स (Thales) उनकी क्षमताओं से बहुत अधिक प्रभावित था, उसने पाइथोगोरस को इजिप्त में मेम्फिस (Memphis) को चलने और वहाँ के पुजारियों के साथ अध्ययन करने की सलाह दी जो अपनी बुद्धि के लिए जाने जाते थे। वे फोनेशिया में टायर और बैब्लोस में शिष्य बन कर भी रहे। इजिप्ट में उन्होंने कुछ ज्यामितीय सिद्धांतों को सिखा जिससे प्रेरित होकर उन्होंने अंततः प्रमेय दी जो अब उनके नाम से जानी जाती है। यह संभव प्रेरणा बर्लिन पेपाइरस (Berlin Papyrus) में एक असाधारण समस्या के रूप में प्रस्तुत है। समोस से क्रोटोन (Croton), केलेब्रिया (Calabria), इटली, आने पर उन्होंने एक गुप्त धार्मिक समाज की स्थापना की जो प्रारंभिक ओर्फिक कल्ट (Orphic cult) से बहुत अधिक मिलती जुलती थी और संभवतः उससे प्रभावित भी थी। Vatican) पाइथोगोरस ने क्रोटन के सांस्कृतिक जीवन में सुधर लाने की कोशिश की, नागरिकों को सदाचार का पालन करने के लिए प्रेरित किया और अपने चारों और एक अनुयायियों का समूह स्थापित कर लिया जो पाइथोइगोरियन कहलाते हैं। इस सांस्कृतिक केन्द्र के संचालन के नियम बहुत ही सख्त थे। उसने लड़कों और लड़कियों दोनों के liye सामान रूप से अपना विद्यालय खोला.जिन लोगों ने पाइथोगोरस के सामाज के अंदरूनी हिस्से में भाग लिए वे अपने आप को मेथमेटकोई कहते थे। वे स्कूल में ही रहते थे, उनकी अपनी कोई निजी संपत्ति नहीं थी, उन्हें मुख्य रूप से शाकाहारी भोजन खाना होता था, (बलि दिया जाने वाला मांस खाने की अनुमति थी) अन्य विद्यार्थी जो आस पास के क्षेत्रों में रहते थे उन्हें भी पाइथोगोरस के स्कूल में भाग लेने की अनुमति थी। उन्हें अकउसमेटीकोई के नाम से जाना जाता था और उन्हें मांस खाने और अपनी निजी सम्पति रखने की अनुमति थी। रिचर्ड ब्लेक्मोर ने अपनी पुस्तक दी ले मोनेस्ट्री (१७१४) में पाइथोगोरियनो के धार्मिक प्रेक्षणों को बताया, "यह इतिहास में दर्ज संन्यासी जीवन का पहला उदाहरण था। लम्ब्लिकास (Iamblichus) के अनुसार, पाइथोगोरस ने धार्मिक शिक्षण, सामान्य भोजन, व्यायाम, पठन और दार्शनिक अध्ययन से युक्त जीवन का अनुसरण किया। संगीत इस जीवन का एक आवश्यक आयोजन कारक था: शिष्य अपोलो के लिए नियमित रूप से मिल जुल कर भजन गाते थे; वे आत्मा या शरीर की बीमारी का इलाज करने के लिए वीणा (lyre) का उपयोग करते थे; याद्दाश्त को बढ़ाने के लिए सोने से पहले और बाद में कविता पठन किया जाता था। फ्लेवियस जोजेफस (Flavius Josephus), एपियन के विरुद्ध (Against Apion), यहूदी धर्म की रक्षा में ग्रीक दर्शनशास्त्र (Greek philosophy) के खिलाफ कहा कि समयरना के हर्मिपस (Hermippus of Smyrna) के अनुसार पाइथोगोरस यहूदी विश्वासों से परिचित था, उसने उनमें से कुछ को अपने दर्शन में शामिल किया। जिंदगी के अंतिम चरण में उसके और उसके अनुयायियों के खिलाफ क्रोतों के एक कुलीन सैलों (Cylon) द्वारा रचित शाजिश की वजह से वह मेतापोंतुम (Metapontum) भाग गया। वह अज्ञात कारणों से मेटापोंटम म में ९० साल की उम्र में मर गया। बर्ट्रेंड रसेल, ने पश्चिमी दर्शन के इतिहास (History of Western Philosophy), में बताया कि पाइथोगोरस का प्लेटो और अन्य लोगों पर इतना अधिक प्रभाव था कि वह सभी पश्चिमी दार्शनिकों में सबसे ज्यादा प्रभावी माना जाता था। .

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पाइथागोरस प्रमेय

'''बौधायन का प्रमेय''': समकोण त्रिभुज की दो भुजाओं की लम्बाइयों के वर्गों का योग कर्ण की लम्बाई के वर्ग के बराबर होता है। पाइथागोरस प्रमेय (या, बौधायन प्रमेय) यूक्लिडीय ज्यामिति में किसी समकोण त्रिभुज के तीनों भुजाओं के बीच एक सम्बन्ध बताने वाला प्रमेय है। इस प्रमेय को आमतौर पर एक समीकरण के रूप में निम्नलिखित तरीके से अभिव्यक्त किया जाता है- जहाँ c समकोण त्रिभुज के कर्ण की लंबाई है तथा a और b अन्य दो भुजाओं की लम्बाई है। पाइथागोरस यूनान के गणितज्ञ थे। परम्परानुसार उन्हें ही इस प्रमेय की खोज का श्रेय दिया जाता है,हेथ, ग्रंथ I,p.

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पुनर्चक्रण

पुनरावर्तन में संभावित उपयोग में आने वाली सामग्रियों के अपशिष्ट की रोकथाम कर नए उत्पादों में संसाधित करने की प्रक्रिया ताजे कच्चे मालों के उपभोग को कम करने के लिए, उर्जा के उपयोग को घटाने के लिए वायु-प्रदूषण को कम करने के लिए (भस्मीकरण से) तथा जल प्रदूषण (कचरों से जमीन की भराई से) पारंपरिक अपशिष्ट के निपटान की आवश्यकता को कम करने के लिए, तथा अप्रयुक्त विशुद्ध उत्पाद की तुलना में ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को कम करने के लिए पुनरावर्तन में प्रयुक्त पदार्थों को नए उत्पादों में प्रसंस्करण की प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं। पुनरावर्तन आधुनिक अपशिष्ट को कम करने में प्रमुख तथा अपशिष्ट को "कम करने, पुनः प्रयोग करने, पुनरावर्तन करने" की क्रम परम्परा का तीसरा घटक है। पुनरावर्तनीय पदार्थों में कई किस्म के कांच, कागज, धातु, प्लास्टिक, कपड़े, एवं इलेक्ट्रॉनिक्स शामिल हैं। हालांकि प्रभाव में एक जैसा ही लेकिन आमतौर पर जैविक विकृतियों के अपशेष से खाद बनाने अथवा अन्य पुनः उपयोग में लाने - जैसे कि भोजन (पके अन्न) तथा बाग़-बगीचों के कचरों को पुनरावर्तन के लायक नहीं समझा जाता है। पुनरावर्तनीय सामग्रियों को या तो किसी संग्रह शाला में लाया जाता है अथवा उच्छिस्ट स्थान से ही उठा लिया जाता है, तब उन्हें नए पदार्थों में उत्पादन के लिए छंटाई, सफाई तथा पुनर्विनीकरण की जाती है। सही मायने में, पदार्थ के पुनरावर्तन से उसी सामग्री की ताजा आपूर्ति होगी, उदाहरणार्थ, इस्तेमाल में आ चुका कागज़ और अधिक कागज़ उत्पादित करेगा, अथवा इस्तेमाल में आ चुका फोम पोलीस्टाइरीन से अधिक पोलीस्टाइरीन पैदा होगा। हालांकि, यह कभी-कभार या तो कठिन अथवा काफी खर्चीला हो जाता है (दूसरे कच्चे मालों अथवा अन्य संसाधनों से उसी उत्पाद को उत्पन्न करने की तुलना में), इसीलिए कई उत्पादों अथवा सामग्रियों के पुनरावर्तन में अन्य सामग्रियों के उत्पादन में (जैसे कि कागज़ के बोर्ड बनाने में) बदले में उनकें ही अपने ही पुनः उपयोग शामिल हैं। पुनरावर्तन का एक और दूसरा तरीका मिश्र उत्पादों से, बचे हुए माल को या तो उनकी निजी कीमत के कारण (उदाहरणार्थ गाड़ियों की बैटरी से शीशा, या कंप्यूटर के उपकरणों में सोना), अथवा उनकी जोखिमी गुणवत्ता के कारण (जैसे कि, अनेक वस्तुओं से पारे को अलग निकालकर उसे पुनर्व्यव्हार में लाना) फिर से उबारकर व्यवहार योग्य बनाना है। पुनरावर्तन की प्रक्रिया में आई लागत के कारण आलोचकों में निवल आर्थिक और पर्यावरणीय लाभों को लेकर मतभेद हैं और उनके सुझाव के अनुसार पुनरावर्तन के प्रस्तावक पदार्थों को और भी बदतर बना देते हैं तथा अनुभोदन एवं पुष्टिकरण के पक्षपातपूर्ण पूर्वग्रह झेलना पड़ता है। विशेषरूप से, आलोचकों का इस मामले में तर्क है कि संग्रहीकरण एवं ढुलाई में लगने वाली लागत एवं उर्जा उत्पादन कि प्रक्रिया में बचाई गई लागत और उर्जा से घट जाती (तथा भारी पड़ जाती हैं) और साथ ही यह भी कि पुनरावर्त के उद्योग में उत्पन्न नौकरियां लकड़ी उद्योग, खदान एवं अन्य मौलिक उत्पादनों से जुड़े उद्योगों की नौकरियां को निकृष्ट सकझा जाती है; और सामग्रियों जैसे कि कागज़ की लुग्दी आदि का पुनरावर्तक सामग्री के अपकर्षण से कुछ ही बार पहले हो सकता है जो और आगे पुनरावर्तन के लिए बाधक हैं। पुनरावर्तन के प्रस्तावकों के ऐसे प्रत्येक दावे में विवाद है और इस संदर्भ में दोनों ही पक्षों से तर्क की प्रामाणिकता ने लम्बे विवाद को जन्म दिया है। .

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पुनीत वशिष्ठ

पुनीत वशिष्ठ बॉलीवुड और टेलीविजन उद्योग में काम कर रहे एक भारतीय अभिनेता है। उन्होने मज़ा (2009) से फ़िल्मों मे कार्य आरंभ किया। वे ज्यादातर नकारात्मक / प्रतिपक्षी भूमिका निभाते है। उन्होंने टेलीविजन धारावाहिकों में भी अभिनय किया है। यह आल दि बेस्ट: फन बीगिन्स (२००९) में अजय देवगन व जोश में सलमान खान के साथ कार्य किया है। .

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प्रसिद्ध पुस्तकें

कोई विवरण नहीं।

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प्रहसन

काव्य को मुख्यत: दो वर्गो में विभक्त किया गया है - श्रव्य काव्य और दृश्य काव्य। श्रव्य काव्य के अंतर्गत साहित्य की वे सभी विधाएँ आती हैं जिनकी रसानुभूति श्रवण द्वारा होती है जब कि दृश्य काव्य का वास्तविक आनंद मुख्यतया नेत्रों के द्वारा प्राप्त किया जाता है अर्थात् अभिनय उसका व्यावर्तक धर्म है। भरतमुनि ने दृश्य काव्य के लिये "नाट्य" शब्द का व्यवहार किया है। आचार्यों ने "नाट्य" के दो रूप माने हैं - रूपक तथा उपरूपक। इन दोनों के पुन: अनेक उपभेद किए गए हैं। रूपक के दस भेद है; प्रहसन इन्हीं में से एक है - नाटक, प्रकरण, भाण, व्यायोग, समवकार, डिम, ईहामून, अंक, वीथी, प्रहसन। .

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प्रकृतिवाद (दर्शन)

प्रकृतिवाद (Naturalism) पाश्चात्य दार्शनिक चिन्तन की वह विचारधारा है जो प्रकृति को मूल तत्त्व मानती है, इसी को इस बरह्माण्ड का कर्ता एवं उपादान (कारण) मानती है। यह वह 'विचार' या 'मान्यता' है कि विश्व में केवल प्राकृतिक नियम (या बल) ही कार्य करते हैं न कि कोई अतिप्राकृतिक या आध्यातिम नियम। अर्थात् प्राक्रितिक संसार के परे कुछ भी नहीं है। प्रकृतिवादी आत्मा-परमात्मा, स्पष्ट प्रयोजन आदि की सत्ता में विश्वास नहीं करते। यूनानी दार्शनिक थेल्स (६४० ईसापूर्व-५५० इसापूर्व) का नाम सबसे पहले प्रकृतिवादियों में आता है जिसने इस सृष्टि की रचना जल से सिद्ध करने का प्रयास किया था। किन्तु स्वतन्त्र दर्शन के रूप में इसका बीजारोपण डिमोक्रीटस (४६०-३७० ईसापूर्व) ने किया। प्रकृतिवादी विचारक बुद्धि को विशेष महत्व देते हैं परन्तु उनका विचार है कि बुद्धि का कार्य केवल वाह्य परिस्थितियों तथा विचारों को काबू में लाना है जो उसकी शक्ति से बाहर जन्म लेते हैं। इस प्रकार प्रकृतिवादी आत्मा-परमात्मा, स्पष्ट प्रयोजन इत्यादि की सत्ता में विश्वास नहीं करते हैं। प्रो.

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प्रोतागोरास

प्रोतागोरास यूनानी दार्शनिक थे। .

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प्लेटो का अनुकरण सिद्धांत

ग्रीक दार्शनिक एवं विचारक प्लेटो ने अपनी पुस्तक रिपब्लिक में काव्य को मूल प्रत्यय के अनुकरण का अनुकरण कहा है। जैसे बढ़ई महान शिल्पी ईश्वर के द्वारा निर्मित मूल बिंब का अनुकरण करके पलंग बनाता है। चित्रकार इस पलंग का अनुकरण कर चित्र बनाता है। साहित्यकार भी उसी बढ़ई द्वारा बनाए गए अनुकरण को अपनी रचनाओं का विषय बनाता है। इस तरह कला और काव्य सत्य से तिहरी दूरी पर होते हैं। इसलिये उन्होंने कला और काव्य को महत्वपूर्ण नहीं माना है। श्रेणी:पाश्चात्य काव्यशास्त्र.

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फलित ज्योतिष

फलित ज्योतिष उस विद्या को कहते हैं जिसमें मनुष्य तथा पृथ्वी पर, ग्रहों और तारों के शुभ तथा अशुभ प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। ज्योतिष शब्द का यौगिक अर्थ ग्रह तथा नक्षत्रों से संबंध रखनेवाली विद्या है। इस शब्द से यद्यपि गणित (सिद्धांत) ज्योतिष का भी बोध होता है, तथापि साधारण लोग ज्योतिष विद्या से फलित विद्या का अर्थ ही लेते हैं। ग्रहों तथा तारों के रंग भिन्न-भिन्न प्रकार के दिखलाई पड़ते हैं, अतएव उनसे निकलनेवाली किरणों के भी भिन्न भिन्न प्रभाव हैं। इन्हीं किरणों के प्रभाव का भारत, बैबीलोनिया, खल्डिया, यूनान, मिस्र तथा चीन आदि देशों के विद्वानों ने प्राचीन काल से अध्ययन करके ग्रहों तथा तारों का स्वभाव ज्ञात किया। पृथ्वी सौर मंडल का एक ग्रह है। अतएव इसपर तथा इसके निवासियों पर मुख्यतया सूर्य तथा सौर मंडल के ग्रहों और चंद्रमा का ही विशेष प्रभाव पड़ता है। पृथ्वी विशेष कक्षा में चलती है जिसे क्रांतिवृत्त कहते हैं। पृथ्वी फलित ज्योतिष उस विद्या को कहते हैं जिसमें मनुष्य तथा पृथ्वी पर, ग्रहों और तारों के शुभ तथा अशुभ प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। ज्योतिष शब्द का यौगिक अर्थ ग्रह तथा नक्षत्रों से संबंध रखनेवाली विद्या है। इस शब्द से यद्यपि गणित (सिद्धांत) ज्योतिष का निवासियों को सूर्य इसी में चलता दिखलाई पड़ता है। इस कक्षा के इर्द गिर्द कुछ तारामंडल हैं, जिन्हें राशियाँ कहते हैं। इनकी संख्या है। मेष राशि का प्रारंभ विषुवत् तथा क्रांतिवृत्त के संपातबिंदु से होता है। अयन की गति के कारण यह बिंदु स्थिर नहीं है। पाश्चात्य ज्योतिष में विषुवत् तथा क्रातिवृत्त के वर्तमान संपात को आरंभबिंदु मानकर, 30-30 अंश की 12 राशियों की कल्पना की जाती है। भारतीय ज्योतिष में सूर्यसिद्धांत आदि ग्रंथों से आनेवाले संपात बिंदु ही मेष आदि की गणना की जाती है। इस प्रकार पाश्चात्य गणनाप्रणाली तथा भारतीय गणनाप्रणाली में लगभग 23 अंशों का अंतर पड़ जाता है। भारतीय प्रणाली निरयण प्रणाली है। फलित के विद्वानों का मत है कि इससे फलित में अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि इस विद्या के लिये विभिन्न देशों के विद्वानों ने ग्रहों तथा तारों के प्रभावों का अध्ययन अपनी अपनी गणनाप्रणाली से किया है। भारत में 12 राशियों के 27 विभाग किए गए हैं, जिन्हें नक्षत्र कहते हैं। ये हैं अश्विनी, भरणी आदि। फल के विचार के लिये चंद्रमा के नक्षत्र का विशेष उपयोग किया जाता है। .

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फीदो

फीदो (ग्रीक: Φαίδων ὁ Ἠλεῖος, जीवनकाल- चौथी शताब्दी ईसापूर्व) यूनान का दार्शनिक तथा प्राचीन यूनानी दर्शन के इतिहास में सुकरातवादियों के 'ईलियायी संप्रदाय' का संस्थापक था। वह पाँचवीं शती ई.पू.

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बोएथिउस

अनिसिउस मनिलिउस सेवेरिनुस बोएथिउस सामान्यता बोएथिउस के नाम से जाने जाते हैं। ये एक रोमन दार्शनिक थे। ये नव-प्लातोवादी दार्शनिक थे। (१९९१) दि न्यू एन्सायिकलोपेडिया ब्रित्तान्निका(संस्करण:१५), खंड २, पृष्ठ ३२०, (प्रकाशक: एन्सायिकलोपेडिया ब्रित्तान्निका), शिकागो, ISBN 0-85229-529-4 .

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भारत में दर्शनशास्त्र

भारत में दर्शनशास्त्र के दशा और दिशा के अध्ययन को हम दो भागों में विभक्त करके कर सकते हैं -.

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भाषा

भाषा वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को व्यक्त करते है और इसके लिये हम वाचिक ध्वनियों का उपयोग करते हैं। भाषा मुख से उच्चारित होनेवाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह है जिनके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है। किसी भाषा की सभी ध्वनियों के प्रतिनिधि स्वन एक व्यवस्था में मिलकर एक सम्पूर्ण भाषा की अवधारणा बनाते हैं। व्यक्त नाद की वह समष्टि जिसकी सहायता से किसी एक समाज या देश के लोग अपने मनोगत भाव तथा विचार एक दूसरे पर प्रकट करते हैं। मुख से उच्चारित होनेवाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह जिनके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है। बोली। जबान। वाणी। विशेष— इस समय सारे संसार में प्रायः हजारों प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं जो साधारणतः अपने भाषियों को छोड़ और लोगों की समझ में नहीं आतीं। अपने समाज या देश की भाषा तो लोग बचपन से ही अभ्यस्त होने के कारण अच्छी तरह जानते हैं, पर दूसरे देशों या समाजों की भाषा बिना अच्छी़ तरह नहीं आती। भाषाविज्ञान के ज्ञाताओं ने भाषाओं के आर्य, सेमेटिक, हेमेटिक आदि कई वर्ग स्थापित करके उनमें से प्रत्येक की अलग अलग शाखाएँ स्थापित की हैं और उन शाखाकों के भी अनेक वर्ग उपवर्ग बनाकर उनमें बड़ी बड़ी भाषाओं और उनके प्रांतीय भेदों, उपभाषाओं अथाव बोलियों को रखा है। जैसे हमारी हिंदी भाषा भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषाओं के आर्य वर्ग की भारतीय आर्य शाखा की एक भाषा है; और ब्रजभाषा, अवधी, बुंदेलखंडी आदि इसकी उपभाषाएँ या बोलियाँ हैं। पास पास बोली जानेवाली अनेक उपभाषाओं या बोलियों में बहुत कुछ साम्य होता है; और उसी साम्य के आधार पर उनके वर्ग या कुल स्थापित किए जाते हैं। यही बात बड़ी बड़ी भाषाओं में भी है जिनका पारस्परिक साम्य उतना अधिक तो नहीं, पर फिर भी बहुत कुछ होता है। संसार की सभी बातों की भाँति भाषा का भी मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद से अब तक बराबर विकास होता आया है; और इसी विकास के कारण भाषाओं में सदा परिवर्तन होता रहता है। भारतीय आर्यों की वैदिक भाषा से संस्कुत और प्राकृतों का, प्राकृतों से अपभ्रंशों का और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है। सामान्यतः भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है। भाषा आभ्यंतर अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। यही नहीं वह हमारे आभ्यंतर के निर्माण, विकास, हमारी अस्मिता, सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का भी साधन है। भाषा के बिना मनुष्य सर्वथा अपूर्ण है और अपने इतिहास तथा परम्परा से विच्छिन्न है। इस समय सारे संसार में प्रायः हजारों प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं जो साधारणतः अपने भाषियों को छोड़ और लोगों की समझ में नहीं आतीं। अपने समाज या देश की भाषा तो लोग बचपन से ही अभ्यस्त होने के कारण अच्छी तरह जानते हैं, पर दूसरे देशों या समाजों की भाषा बिना अच्छी़ तरह सीखे नहीं आती। भाषाविज्ञान के ज्ञाताओं ने भाषाओं के आर्य, सेमेटिक, हेमेटिक आदि कई वर्ग स्थापित करके उनमें से प्रत्येक की अलग अलग शाखाएँ स्थापित की हैं और उन शाखाओं के भी अनेक वर्ग-उपवर्ग बनाकर उनमें बड़ी बड़ी भाषाओं और उनके प्रांतीय भेदों, उपभाषाओं अथाव बोलियों को रखा है। जैसे हिंदी भाषा भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषाओं के आर्य वर्ग की भारतीय आर्य शाखा की एक भाषा है; और ब्रजभाषा, अवधी, बुंदेलखंडी आदि इसकी उपभाषाएँ या बोलियाँ हैं। पास पास बोली जानेवाली अनेक उपभाषाओं या बोलियों में बहुत कुछ साम्य होता है; और उसी साम्य के आधार पर उनके वर्ग या कुल स्थापित किए जाते हैं। यही बात बड़ी बड़ी भाषाओं में भी है जिनका पारस्परिक साम्य उतना अधिक तो नहीं, पर फिर भी बहुत कुछ होता है। संसार की सभी बातों की भाँति भाषा का भी मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद से अब तक बराबर विकास होता आया है; और इसी विकास के कारण भाषाओं में सदा परिवर्तन होता रहता है। भारतीय आर्यों की वैदिक भाषा से संस्कृत और प्राकृतों का, प्राकृतों से अपभ्रंशों का और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है। प्रायः भाषा को लिखित रूप में व्यक्त करने के लिये लिपियों की सहायता लेनी पड़ती है। भाषा और लिपि, भाव व्यक्तीकरण के दो अभिन्न पहलू हैं। एक भाषा कई लिपियों में लिखी जा सकती है और दो या अधिक भाषाओं की एक ही लिपि हो सकती है। उदाहरणार्थ पंजाबी, गुरूमुखी तथा शाहमुखी दोनो में लिखी जाती है जबकि हिन्दी, मराठी, संस्कृत, नेपाली इत्यादि सभी देवनागरी में लिखी जाती है। .

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भावना

thumb भावना मूड, स्वभाव, व्यक्तित्व तथा ज़ज्बात और प्रेरणासे संबंधित है। अंग्रेजी शब्द 'emotion' की उत्पत्ति फ्रेंच शब्द émouvoir से हुई है। यह लैटिन शब्द emovere पर आधारित है जहां e- (ex - का प्रकार) का अर्थ है 'बाहर' और movere का अर्थ है 'चलना'.

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मानविकी

सिलानिओं द्वारा दार्शनिक प्लेटो का चित्र मानविकी वे शैक्षणिक विषय हैं जिनमें प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञानों के मुख्यतः अनुभवजन्य दृष्टिकोणों के विपरीत, मुख्य रूप से विश्लेषणात्मक, आलोचनात्मक या काल्पनिक विधियों का इस्तेमाल कर मानवीय स्थिति का अध्ययन किया जाता है। प्राचीन और आधुनिक भाषाएं, साहित्य, कानून, इतिहास, दर्शन, धर्म और दृश्य एवं अभिनय कला (संगीत सहित) मानविकी संबंधी विषयों के उदाहरण हैं। मानविकी में कभी-कभी शामिल किये जाने वाले अतिरिक्त विषय हैं प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी), मानव-शास्त्र (एन्थ्रोपोलॉजी), क्षेत्र अध्ययन (एरिया स्टडीज), संचार अध्ययन (कम्युनिकेशन स्टडीज), सांस्कृतिक अध्ययन (कल्चरल स्टडीज) और भाषा विज्ञान (लिंग्विस्टिक्स), हालांकि इन्हें अक्सर सामाजिक विज्ञान (सोशल साइंस) के रूप में माना जाता है। मानविकी पर काम कर रहे विद्वानों का उल्लेख कभी-कभी "मानवतावादी (ह्यूमनिस्ट)" के रूप में भी किया जाता है। हालांकि यह शब्द मानवतावाद की दार्शनिक स्थिति का भी वर्णन करता है जिसे मानविकी के कुछ "मानवतावाद विरोधी" विद्वान अस्वीकार करते हैं। .

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मार्कस पोर्सियस कातो

मार्कस पोर्सियस कातो (९५ - ९ ई० पू०) रोमन दार्शनिक जो राजनीति और युद्ध में भी रूचि लेता था। पांपे और जूलियस सीजर के बीच हुए युद्ध में उसने पांपे का पक्ष लिया जिसकी पराजय होने पर उसने आत्महत्या कर ली। बताया जाता है कि मरते समय तक प्लेटो के 'डायलागॅ' के आत्मा की अमरता वाला भाग पढ़ता रहा, यद्यपि स्वंय उसने भविष्य की अपेक्षा तात्कालिक कर्त्तव्य को सदैव अधिक महत्वपूर्ण समझा। इसी तरह राजनीति में तो वह अराजकवादी था किंतु सिद्धांतत: स्वतंत्र राज्य का समर्थक था। मृत्यु के उपरांत उसका चरित्र चर्चा का विषय बना। सिसरो ने 'कातो' लिखा और सीजर ने 'एंटाकातो'। ब्रूटस ने कातो को सद्गुणों और आत्मत्याग का आदर्श बताया।.

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मूल्यमीमांसा

मूल्यमीमांसा (Axiology) दर्शन की एक शाखा है। मूल्यमीमांसा अंग्रेजी शब्द "एग्जियोलॉजी" का हिंदी रूपांतर है। "एग्जियोलॉजी" शब्द "एक्सियस" शब्द यूनानी शब्द "एक्सियस" और "लागस" का अर्थ मूल्य या कीमत है तथा "लागस" का अर्थ तर्क, सिद्धांत या मीमांसा है। अत: "एग्जियोलॉजी" या मूल्यमोमांसा का तात्पर्य उस विज्ञान से है। जिसके अंतर्गत मूल्य स्वरूप, प्रकार और उसकी तात्विक सत्ता का अध्ययन या विवेचन किया जाता है। किसी वस्तु के दो पक्ष हो सकते है-तथ्य और उसका मूल्य। तथ्य पर विचार करना उस वस्तु का वर्णन कहलाएगा और उसके मूल्य का निरूपण उसका गुणादषारण। मूल्य विषयक निर्णय वस्तु की किसी आदर्श से तुलना करके किसी व्यक्ति द्वारा उपस्थित किया जाता है। हमारे सभी अनुभवों में मूल्यों मापदंड ही होते हैं। सौंदर्यशास्त्र में सुंदर-असुंदर का मूल्यांकन, संगीत, साहित्य और कला में माधुर्य और सरसता का मूल्यांकन और धर्म में मूल्यों के संरक्षण का प्रयत्न तो सभी को स्वीकृत है किंतु साथ ही यह भी ध्यान देने की बात है कि आचारशास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति, विज्ञान आदि में भी मूल्यों की समस्याओं पर ही विचार किया जाता है। मूल्यमीमांसा के अंतर्गत इन सभी शास्त्रों और विज्ञानों के मूल्यों का अलग विवेचन नहीं किया जाता वरन् इन सर्वव्यापी मूल्यों के स्वरूप और प्रकृति पर विचार किया जाता है। इस प्रकार आधुनिक युग में मूल्यमीमांसा दर्शन की एक शाखा बनकर द्रुत गति से पल्लवित हो रही है। मूल्य का तात्पर्य किसी मूल्य का भाव हो सकता है या उसका अभाव हो सकता है। इसके अतिरिक्त भाव या अभाव न होकर कोई मूल्य तटस्थ भी हो सकता है। "मूल्य" शब्द का प्रयोग इनमें से किसी भी स्थिति के लिये हो सकता है। इसलिये मूल्यमीमांसा को मूल्य का विज्ञान कहना अधिक युक्तिसंगत नहीं हे। फिर भी सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि जिस प्रकार आचार शास्त्र का विवेचन सही और गलत पर केंद्रित रहता है वैसे ही मूल्यमीमांसा का विवेचन प्राय: अच्छे और बुरे से संबंधित होता है। पश्चिमी दर्शन में प्लेटो के प्रत्यय सिद्धांत के साथ मूल्यमीमांसा का उदय हुआ और अरस्तू के आचारशास्त्र, राजनीति और तत्वविज्ञान में उसका विकास हुआ। स्टोइक और एपीक्यूरियन लोगों ने जीवन के उच्चादर्श खोजे। ईसाई दार्शनिकों ने अरस्तू के उच्चतम मूल्य का ईश्वर से तादात्म्य दिखाने का प्रयत्न किया। आधुनिक दार्शनिकों ने स्वतंत्र रूप से विभिन्न मूल्यों का स्वरूप निर्धारण किया। कांट ने सौंदर्य और धर्म विषयक मूल्यों की सबसे प्रथम गहन विवेचना की। हीगेल के अध्यात्मवाद में आचार, कला और धर्म सर्वोपरि मान्य ठहराए गए। इन्हीं के समन्वय से निरपेक्ष प्रत्यय की उद्भावना होती है। 19वीं शताब्दी के विकासवादी सिद्धांत, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र के अंतर्गत मूल्यों की व्यावहारिक विवेचना की जाने लगी। उसके तात्विक स्वरूप के निरूपण और एकत्व की ओर उतना ध्यान नहीं दिया गया। नीत्शे ने इस अभाव की पूर्ति का प्रयत्न किया। ब्रेंटानों प्रेम को ही एकमात्र मूल्य मानता था। डब्ल्यू0 एम0 अरबन ने 20वीं शताब्दी में सबसे पहले मूल्यमीमांसा पर एक व्यवस्थित ग्रंथ (वेलूएशन, 1909) लिखा। समकालीन प्रमुख रचनाएँ, बी0 बोसांके की "दि प्रिंसिपल ऑव इंडीविजुएलटी ऐंड वेल्यू" (1912); डब्ल्यू0 आर0 सरले की "मारल वेल्यूज" (1918) और "दि आइडिया ऑव गॉड" (1921), एस0 एलेक्जेंडर की "स्पेस, टाइम एण्ड डाइटी"(1920), एन0 ह्वाइटमैन की "एथिके" (1926), आर0 वी0 पेरी की "जनरल थ्योरी ऑव वेल्यू" (1926) और जे0 लेयर्ड की "दि आइडिया ऑफ वेल्यू" आदि पुस्तकें है। मूल्यमीमांसा के अंतर्गत मुख्यत: मूल्य का स्वरूप, मूल्य के प्रकार, मूल्य का भाव सिद्धांत और मूल्य के तात्विक संस्तरण का अध्ययन किया जाता है। दार्शनिकों ने मूल्य के स्वरूप की अवधारणा विभिन्न प्रकार से की है। स्पिनोजा आदि ने उसी को मूल्य माना है जिससे किसी इच्छा की तृप्ति होती है। एपीक्यूरस, बेंथम, मीनांग आदि सुखवादी दर्शनिक सुख को ही मूल्य मानते हैं। मूल्य का स्वरूप पैरी की दृष्टि में अभिरूचि, मार्टीन्यू के विचार से वरीयता (प्रिफेरेंस), स्टाइक, कांट और रायस के लिये शुद्ध तर्कसंगत इच्छा, टी0 एच0 ग्रीन के लिये व्यक्तित्व के एकत्व का सामान्य अनुभव है; नीत्शे और अन्य उत्क्रांतिवादी उसी अनुभव को मूल्य मानते हैं जो जीवन के विकास में किसी प्रकार सहायक हो। कुछ दार्शनिक जैसे स्पिनोजा, लोट्ज या डीवी आदि फलवादी मूल्य को व्यक्तिगत मानते हैं। उसकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। वह तो व्यक्ति की रूचि, अरूचि और उसकी मानसिक स्थिति तथा आवश्यकताओं पर निर्भर करता है। इसके विपरीत लेयर्ड, मूर आदि मनीषी मूल्य को रूप, रस, गंध की भँाति विषयगत मानते हैं। एलेक्जेंडर की स्थिति इन दोनों मतों के मध्य में हे। व्यक्ति, जो मूल्य का अनुभव करता है और वस्तु जिसके मूल्य का अनुभव किया जाता है, दोनों के संबंध में ही मूल्य का अस्तित्व है। व्यक्ति और वस्तु के संबंध से पृथक् अथवा स्वतंत्र रीति से दो में से किसी एक में मूल्य की उपलब्धि नहीं हो सकती। ए0 जी0 आयर को तार्किक भाववादी दृष्टिकोण है, इसलिये वे मूल्य को अर्थहीन कहते हैं। मूल्य विभिन्न प्रकार के होते हैं। उनका कई प्रकार से विभाजन किया जा सकता है। प्राय: दार्शनिक अंतर्वर्ती और बहिर्वर्ती मूल्यों का भेद करते है। अंतर्वर्ती मूल्य का स्वतंत्र रूप से अपने लिये ही मूल्य होता है। इन मूल्यों को पाने का प्रयत्न इसलिये नहीं किया जाता कि उनके द्वारा किसी दूसरे उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है। वस्तुत: इन मूल्यों को पा लेना ही अंतिम लक्ष्य होता है। बाह्यमूल्य अंतर्वर्ती मूल्यों की प्राप्ति के लिये एक साधन या यंत्र मात्र होते हैं। एक ओर ऐसे वेदांती हैं जिनका विश्वास है कि निर्गुण बाह्यरूप में अंतर्वर्ती मूल्य की ही अंतिम सत्ता है, उसके अतिरिक्त सभी बहिर्वर्ती मूल्य हैं जो भ्रांति मात्र है। दूसरी ओर ऐसे फलवादी हैं जो यंत्रवादी सिद्धांत (इंस्टØ मेंटलिज्म) का समर्थन करते हैं और अंतर्वर्ती मूल्यों का खंडन करते हैं। द्वैतवादी मूल्यमीमांसक अंतर्वर्ती और बहिर्वर्ती दोनों प्रकार के मूल्यों का अस्तित्व मानते हैं। एक शाश्वत होते है और दूसरे नश्वर अधिकांश दार्शनिक इसी सिद्धांत को थोड़े बहुत हेर फेर से स्वीकार करते हैं। कुछ अंतर्वर्ती मूल्यों को प्रधानता देते है और बहिर्वर्ती मूल्यों को उनके अधीनस्थ मानते हैं। कुछ लोग बहिर्वर्ती मूल्यों को प्रधानता देते हैं और अंतर्वर्ती मूल्यों को बहिर्वर्ती मूल्यों की उत्पत्ति या परिणाम मानते हैं। कुछ दार्शनिक (बाहम) ऐसे भी हैं जो सभी वस्तुओं में दोनों प्रकार के मूल्य अपरिहार्य रूप से मानते हैं। वे यह नहीं अस्वीकार करते कि कहीं एक की प्रधानता होती है तो कहीं दूसरे की। किंतु ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसमें शुद्ध अंतर्वर्ती या बिल्कुल बहिर्वर्ती मूल्य ही हों। सामान्य रूप से शुभ, सत्य, शिव, सुंदर और पवित्र ही अंतर्वर्ती मूल्य माने जाते हैं। कुछ लोग इनके साथ दैहिक कल्याण, संबंध, कार्य और क्रीड़ा को भी अंतर्वर्ती मूल्य मान लेते हैं। मांटेग के विचार से सत्य को सही रूप में मूल्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि कुछ सत्य मूल्यहीन होता है और कुछ तटस्थ अर्थात् उसमें मूल्य होने न होने का प्रश्न ही नहीं होता। धार्मिक मूल्यों के संबंध में भी दार्शनिकों में मतभेद है। कुछ लोग उसे एक विशिष्ट प्रकार का मूल्य मानते हैं और कुछ लोग अन्य मूल्यों के प्रति एक विशिष्ट प्रकार के दृष्टिकोण को ही धार्मिक मूल्य समझते हैं। मूल्य का माप सिद्धांत मनोवैज्ञानिक हो सकता है और तार्किक भी। सुखवादी दार्शनिक मूल्य की माप सुखानुभूति से करते हैं। एरेस्टीपस व्यक्ति के सुख और बेंथम समाज के सुख का मूल्य को मापदंड मानते हैं। बेंथम ने ऐसे सुखगणक की खोज की थी जिसमें सुख की गहनता, स्थायित्व, निश्चितता, निकटत्व, उपयोगिता, पवित्रता व्यापकत्व आदि के अंक निर्धारित कर सुख को मापा जा सकता है। यह मूल्य के मापन का मनोवैज्ञानिक प्रयास है। मारटेन्यू और ब्रेंटानों अंतदृष्टि से मूल्य की माप संभव समझते हैं। कुछ अध्यात्मवादियों ने वस्तुगत आदर्श निश्चित कर रखे हैं और उन्हीं से तुलना करके मूल्यों का मापन करते हैं। कुछ दार्शनिक समष्टि और सामंजस्य में ही मूल्य का गुणावधारण उचित बतलाते हैं। प्रकृतिवादी दार्शनिक जैविक विकास और वातावरण से समंजन को मूल्य की माप मानते हें। जिस वस्तु, क्रिया या परिस्थिति में जीव का विकास अधिक द्रुत गति से होता है उसका अधिक मूल्य है इसके विपरीत जिनसे जीवन में बाधा उपस्थित होती है, उनको मूल्य नहीं दिया जाता। मूल्य का तात्विक संस्तरण निर्धारित करते समय चरमतत्व से उसका संबंध निश्चित किया जाता है। यदि मूल तत्व सत् है तो मूल्य का उससे क्या संबंध है? इस संबंध में मुख्यत: तीन सिद्धांत हैं---व्यक्तिवादी, तार्किक वस्तुवादी और तात्विक वस्तुवादी। व्यक्तिवादी मूल्य को मानवी अनुभव से संबद्ध और आश्रित मानते हैं। मूल्य व्यक्ति के मन की ही उत्पत्ति है। वस्तु से उसका संबंध नहीं है। व्यक्ति अपनी परितृप्ति के अनुसार वस्तु में मूल्य का आरोपण करता है। ""प्रियो-प्रिय उपेक्ष्यश्चेत्याकारा मणिग्रास्य:, सृष्टा जीवैरीशसृष्टं रूपं साधारणां मिषु"" (पंचदशी,4122) प्रिय, अप्रिय और उपेक्षा करने योग्य मणि के तीन आकार जीवरचित हैं तथा उसका साधारण मणिरूप ईश्वर निर्मित है। प्रिय, अप्रिय और उपेक्षा भाव व्यक्ति व्यक्ति में भिन्न होने के कारण निश्चय ही व्यक्ति के मन की रचनाएँ हैं। सुखवादी, भाववादी और प्रकृतिवादी भी इसी से मिलते-जुलते मतों का समर्थन करते हें। वस्तुवादी इस सिद्धांत का खंडन करते हैं। वे मूल्य को मानसिक रचना मात्र नहीं मानते हैं। मूल्य का वस्तु में स्वतंत्र अस्तित्व है। व्यक्ति उस मूल्य को पहिचाने न पहिचाने, फिर भी वह अपना अस्तित्व सुरक्षित रखता है। सभी वस्तुवादियों का एक मत नहीं हैं। कुछ वस्तुवादी मूल्य का तार्किक विश्लेषण करते हैं और तार्किक वस्तुवादी कहलाते हैं। कुछ वस्तुवादी तात्विक दृष्टि से मूल्य का निर्धारण करते हैं। वे तात्विक वस्तुवादी (मेटाफिजीकल आब्जेक्टिविस्ट) कहे जा सकते हैं। तार्किक वस्तुवादी मूल्य को मानस रचना न मानने के कारण उसे एक सार या द्रव्य मानते हैं। वह वस्तु में रहते हुए भी कोई ऐसी स्वतंत्र सत्ता नहीं रखता जो वस्तु या सत् पर कोई प्रभाव डाल सके या परिवर्तन कर सके। यहाँ सत् और मूल्य में स्पष्ट भेद रखा जाता है। तात्विक वास्तुवादी मूल्य की तात्विक यथार्थता स्वीकार करते हें और उस सत् का ही एक अंग मानते हैं। श्रेणी:दर्शन की शाखाएँ.

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यूटोपिया

लेफ्ट पेनल (द अर्थली पैराडाइज, गार्डन ऑफ ईडन), हिरोनमस बॉश के द गार्डेन ऑफ अर्थली डिलाइट्स. यूटोपिया एक आदर्श समुदाय या समाज के लिए एक नाम है जो कि 1516 में सर थॉमस मोर द्वारा लिखी गयी पुस्तक ऑफ द बैस्ट स्टेट ऑफ ए रिपब्लिक एण्ड ऑफ द न्यू आइलैण्ड यूटोपिए से लिया गया है जिसमें अटलांटिक महासागर के एक काल्पनिक टापू के एक बिल्कुल उत्कृष्ट लगने वाले सामाजिक-राजनीतिक-कानूनी तंत्र का वर्णन किया गया है। इस पद को सुविचारित समुदायों जिन्होने एक आदर्श समाज बनाने की कोशिश की और साहित्य में चित्रित काल्पनिक समाज दोनों का वर्णन करने के लिए उपयोग किया जाता रहा है। इसने दूसरी अवधारणाओं को जन्म दिया, जिसमें सबसे प्रमुख है आतंक राज्य.

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यूनानी भाषा

यूनानी या ग्रीक (Ελληνικά या Ελληνική γλώσσα), हिन्द-यूरोपीय (भारोपीय) भाषा परिवार की स्वतंत्र शाखा है, जो ग्रीक (यूनानी) लोगों द्वारा बोली जाती है। दक्षिण बाल्कन से निकली इस भाषा का अन्य भारोपीय भाषा की तुलना में सबसे लंबा इतिहास है, जो लेखन इतिहास के 34 शताब्दियों में फैला हुआ है। अपने प्राचीन रूप में यह प्राचीन यूनानी साहित्य और ईसाईयों के बाइबल के न्यू टेस्टामेंट की भाषा है। आधुनिक स्वरूप में यह यूनान और साइप्रस की आधिकारिक भाषा है और करीबन 2 करोड़ लोगों द्वारा बोली जाती है। लेखन में यूनानी अक्षरों का उपयोग किया जाता है। यूनानी भाषा के दो ख़ास मतलब हो सकते हैं.

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यूक्लिड

यूक्लिड यूक्लिड (Euclid; 300 ईसा पूर्व), या उकलैदिस, प्राचीन यूनान का एक गणितज्ञ था। उसे "ज्यामिति का जनक" कहा जाता है। उसकी एलिमेण्ट्स (Elements) नामक पुस्तक गणित के इतिहास में सफलतम् पुस्तक है। इस पुस्तक में कुछ गिने-चुने स्वयंसिद्धों (axioms) के आधार पर ज्यामिति के बहुत से सिद्धान्त निष्पादित (deduce) किये गये हैं। इनके नाम पर ही इस तरह की ज्यामिति का नाम यूक्लिडीय ज्यामिति पड़ा। हजारों वर्षों बाद भी गणितीय प्रमेयों को सिद्ध करने की यूक्लिड की विधि सम्पूर्ण गणित का रीढ़ बनी हुई यूक्लिड ने शांकवों, गोलीय ज्यामिति और संभवत: द्विघातीय तलों पर भी पुस्तकें लिखीं। .

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राफेल

राफेल का चित्र राफेल (Raffaello Sanzio da Urbino या Raphael, 1483 – 1520) परम पुनरुत्थान काल के इटली के महान चित्रकार एवं वास्तुशिल्पी थे। लियोनार्डो दा विन्ची, माइकल एंजेलो और राफेल अपने युग के महान कलाकार हैं। राफेल को शताब्दियों तक समूह संयोजन का आचार्य माना जाता रहा है। व्यक्तियों के समूह, समूहों का सम्पूर्ण चित्र में अनुपात, चित्र की उंचाई और गहराई का अनुपात, और व्यक्तियों की विभिन्न मुद्राएं - इन सब में उसने कमाल कर दिखाया है। रैफेल की सर्वाधिक ख्याति उसके मैडोन्ना चित्रों से है। रैफेल की कला से ही बरोक शैली का विकास हुआ। माइकेल एंजेलो की अपेक्षा राफेल का काम शान्त, मधुर और नारीसुलभ मोहिनी से भरपूर है। राफेल की नारी और बाल चित्रण में विशेष अभिरुचि थी। .

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राजनीति विज्ञान

राजनीति विज्ञान एक सामाजिक विज्ञान है जो सरकार और राजनीति के अध्ययन से सम्बन्धित है। राजनीति विज्ञान अध्ययन का एक विस्तृत विषय या क्षेत्र है। राजनीति विज्ञान में ये तमाम बातें शामिल हैं: राजनीतिक चिंतन, राजनीतिक सिद्धान्त, राजनीतिक दर्शन, राजनीतिक विचारधारा, संस्थागत या संरचनागत ढांचा, तुलनात्मक राजनीति, लोक प्रशासन, अंतर्राष्ट्रीय कानून और संगठन आदि। .

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राजनीतिक दर्शन

राजनीतिक दर्शन (Political philosophy) के अन्तर्गत राजनीति, स्वतंत्रता, न्याय, सम्पत्ति, अधिकार, कानून तथा सत्ता द्वारा कानून को लागू करने आदि विषयों से सम्बन्धित प्रश्नों पर चिन्तन किया जाता है: ये क्या हैं, उनकी आवश्यकता क्यों हैं, कौन सी वस्तु सरकार को 'वैध' बनाती है, किन अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करना सरकार का कर्तव्य है, विधि क्या है, किसी वैध सरकार के प्रति नागरिकों के क्या कर्त्तव्य हैं, कब किसी सरकार को उकाड़ फेंकना वैध है आदि। प्राचीन काल में सारा व्यवस्थित चिंतन दर्शन के अंतर्गत होता था, अतः सारी विद्याएं दर्शन के विचार क्षेत्र में आती थी। राजनीति सिद्धान्त के अन्तर्गत राजनीति के भिन्न भिन्न पक्षों का अध्ययन किया जाता हैं। राजनीति का संबंध मनुष्यों के सार्वजनिक जीवन से हैं। परम्परागत अध्ययन में चिन्तन मूलक पद्धति की प्रधानता थी जिसमें सभी तत्वों का निरीक्षण तो नहीं किया जाता हैं, परन्तु तर्क शक्ति के आधार पर उसके सारे संभावित पक्षों, परस्पर संबंधों प्रभावों और परिणामों पर विचार किया जाता हैं। .

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राजनीतिक सिद्धांतवादियों की सूची

राजनीतिक सिद्धांतवादी वह होता है जो राजनीतिक सिद्धांत व राजनीतिक दर्शन का निर्माण या मूल्यांकन करने में शामिल होता है। सिद्धांतवादी या तो शिक्षाविद या स्वतंत्र विद्वान हो सकते हैं। .

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रिपब्लिक (प्लेटो)

रिपब्लिक (मूल यूनानी नाम: Πολιτεία / पॉलीतिया) प्लेटो द्वारा ३८० ईसापूर्व के आसपास रचित ग्रन्थ है जिसमें सुकरात की वार्ताएँ वर्णित हैं। इन वार्ताओं में न्याय (δικαιοσύνη), नगर तथा न्यायप्रिय मानव की चर्चा है। यह प्लेटो की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में विभिन्न व्यक्तियों के मध्य हुए लम्बे संवादों के माध्यम से स्पष्ट किया है कि हमारा न्याय से सरोकार होना चाहिए। रिपब्लिक के केन्द्रीय प्रश्न तथा उपशीर्षक न्याय से ही सम्बन्धित हैं, जिनमें वह न्याय की स्थापना हेतु व्यक्तियों के कर्तव्य-पालन पर बल देते हैं। प्लेटो कहते हैं कि मनुष्य की आत्मा के तीन मुख्य तत्त्व हैं – तृष्णा या क्षुधा (Appetite), साहस (Spirit), बुद्धि या ज्ञान (Wisdom)। यदि किसी व्यक्ति की आत्मा में इन सभी तत्वों को समन्वित कर दिया जाए तो वह मनुष्य न्यायी बन जाएगा। ये तीनों गुण कुछेक मात्रा में सभी मनुष्यों में पाए जाते हैं लेकिन प्रत्येक मनुष्य में इन तीनों गुणों में से किसी एक गुण की प्रधानता रहती है। इसलिए राज्य में इन तीन गुणों के आधार पर तीन वर्ग मिलते हैं। पहला, उत्पादक वर्ग – आर्थिक कार्य (तृष्णा), दूसरा, सैनिक वर्ग – रक्षा कार्य (साहस), तीसरा, शासक वर्ग – दार्शनिक कार्य (ज्ञान/बुद्धि)। प्लेटो के अनुसार जब सभी वर्ग अपना कार्य करेंगे तथा दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे और अपना कर्तव्य निभाएंगे तब समाज व राज्य में न्याय की स्थापना होगी। अर्थात् जब प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्य का निर्वाह करेगा, तब समाज में न्याय स्थापित होगा और बना रहेगा। .

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रेने देकार्त

रने डॅकार्ट (फ़्रांसिसी भाषा: René Descartes; लातिनी भाषा: Renatus Cartesius; 31 मार्च 1596 - 11 फ़रवरी 1650) एक फ़्रांसिसी गणितज्ञ, भौतिकीविज्ञानी, शरीरक्रियाविज्ञानी तथा दार्शनिक थे। .

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लुसियन

लूसियन (लगभग ११७ - १८० ई.) यूनानी वक्ता तथा लेखक। वह अपनी आलंकारिक एवं वैधिक वक्तृताओं तथा हास्य व्यंग्य संवादों के लिए प्राचीन साहित्य के इतिहास में प्रसिद्ध है। .

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लेव तोलस्तोय

लेव तोलस्तोय (रूसी:Лев Никола́евич Толсто́й, 9 सितम्बर 1828 - 20 नवंबर 1910) उन्नीसवीं सदी के सर्वाधिक सम्मानित लेखकों में से एक हैं। उनका जन्म रूस के एक संपन्न परिवार में हुआ था। उन्होंने रूसी सेना में भर्ती होकर क्रीमियाई युद्ध (1855) में भाग लिया, लेकिन अगले ही वर्ष सेना छोड़ दी। लेखन के प्रति उनकी रुचि सेना में भर्ती होने से पहले ही जाग चुकी थी। उनके उपन्यास युद्ध और शान्ति (1865-69) तथा आन्ना करेनिना (1875-77) साहित्यिक जगत में क्लासिक रचनाएँ मानी जाती है। धन-दौलत व साहित्यिक प्रतिभा के बावजूद तोलस्तोय मन की शांति के लिए तरसते रहे। अंततः 1890 में उन्होंने अपनी धन-संपत्ति त्याग दी। अपने परिवार को छोड़कर वे ईश्वर व गरीबों की सेवा करने हेतु निकल पड़े। उनके स्वास्थ्य ने अधिक दिनों तक उनका साथ नहीं दिया। आखिरकार 20 नवम्बर 1910 को अस्तापवा नामक एक छोटे से रेलवे स्टेशन पर इस धनिक पुत्र ने एक गरीब, निराश्रित, बीमार वृद्ध के रूप में मौत का आलिंगन कर लिया। .

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लोंजाइनस

लोंगिनुस (अंग्रेजी: Longinus; ग्रीक: Λογγῖνος, Longĩnos) परम्परागत रूप से "काव्य में उदात्त तत्व" (On the Sublime / Περὶ ὕψους / Perì hýpsous) नामक कृति का रचनाकार माना जाता है। इस कृति में अच्छे लेखन के प्रभावों की चर्चा है। लोंगिनुस का असली नाम ज्ञात नहीं है। वह यूनानी काव्यालोचन का शिक्षक था। उसका काल पहली से लेकर तीसरी शदी तक होने का अनुमान है। लोंजाइनस ने काव्य को श्रेष्ठ बनाने वाले तत्वों पर विचार करते हुए इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। वे उदात्त को काव्य को श्रेष्ठ बनाने वाला तथा कवि को प्रतिष्ठा दिलाने वाला तत्व मानते हैं। यह उदात्त महान विचारों संगठित अलंकार योजना, अभिजात्य पद रचना तथा प्रभाव की गरिमा में निहित है। वे वागाडंबर बालेयता और भावाडंबर को उदाद्त्ता में बाधक तत्व मानते हैं। .

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शिक्षा दर्शन

गाँधीजी महान शिक्षा-दार्शनिक भी थे। शिक्षा और दर्शन में गहरा सम्बन्ध है। अनेकों महान शिक्षाशास्त्री स्वयं महान दार्शनिक भी रहे हैं। इस सह-सम्बन्ध से दर्शन और शिक्षा दोनों का हित सम्पादित हुआ है। शैक्षिक समस्या के प्रत्येक क्षेत्र में उस विषय के दार्शनिक आधार की आवश्यकता अनुभव की जाती है। फिहते अपनी पुस्तक "एड्रेसेज टु दि जर्मन नेशन" में शिक्षा तथा दर्शन के अन्योन्याश्रय का समर्थन करते हुए लिखते हैं - "दर्शन के अभाव में ‘शिक्षण-कला’ कभी भी पूर्ण स्पष्टता नहीं प्राप्त कर सकती। दोनों के बीच एक अन्योन्य क्रिया चलती रहती है और एक के बिना दूसरा अपूर्ण तथा अनुपयोगी है।" डिवी शिक्षा तथा दर्शन के संबंध को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि दर्शन की जो सबसे गहन परिभाषा हो सकती है, यह है कि "दर्शन शिक्षा-विषयक सिद्धान्त का अत्यधिक सामान्यीकृत रूप है।" दर्शन जीवन का लक्ष्य निर्धारित करता है, इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए शिक्षा उपाय प्रस्तुत करती है। दर्शन पर शिक्षा की निर्भरता इतनी स्पष्ट और कहीं नहीं दिखाई देती जितनी कि पाठ्यक्रम संबंधी समस्याओं के संबंध में। विशिष्ट पाठ्यक्रमीय समस्याओं के समाधान के लिए दर्शन की आवश्यकता होती है। पाठ्यक्रम से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ प्रश्न उपयुक्त पाठ्यपुस्तकों के चुनाव का है और इसमें भी दर्शन सन्निहित है। जो बात पाठ्यक्रम के संबंध में है, वही बात शिक्षण-विधि के संबंध में कही जा सकती है। लक्ष्य विधि का निर्धारण करते हैं, जबकि मानवीय लक्ष्य दर्शन का विषय हैं। शिक्षा के अन्य अंगों की तरह अनुशासन के विषय में भी दर्शन की महत्वपूर्ण भूमिका है। विद्यालय के अनुशासन निर्धारण में राजनीतिक कारणों से भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण कारण मनुष्य की प्रकृति के संबंध में हमारी अवधारणा होती है। प्रकृतिवादी दार्शनिक नैतिक सहज प्रवृत्तियों की वैधता को अस्वीकार करता है। अतः बालक की जन्मजात सहज प्रवृत्तियों को स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्ति के लिए छोड़ देता है; प्रयोजनवादी भी इस प्रकार के मापदण्ड को अस्वीकार करके बालक व्यवहार को सामाजिक मान्यता के आधार पर नियंत्रित करने में विश्वास करता है; दूसरी ओर आदर्शवादी नैतिक आदर्शों के सर्वोपरि प्रभाव को स्वीकार किए बिना मानव व्यवहार की व्याख्या अपूर्ण मानता है, इसलिए वह इसे अपना कर्त्तव्य मानता है कि बालक द्वारा इन नैतिक आधारों को मान्यता दिलवाई जाये तथा इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाए कि वह शनैःशनैः इन्हें अपने आचरण में उतार सके। शिक्षा का क्या प्रयोजन है और मानव जीवन के मूल उद्देश्य से इसका क्या संबंध है, यही शिक्षा दर्शन का विजिज्ञास्य प्रश्न है। चीन के दार्शनिक मानव को नीतिशास्त्र में दीक्षित कर उसे राज्य का विश्वासपात्र सेवक बनाना ही शिक्षा का उद्देश्य मानते थे। प्राचीन भारत में सांसारिक अभ्युदय और पारलौकिक कर्मकांड तथा लौकिक विषयों का बोध होता था और परा विद्या से नि:श्रेयस की प्राप्ति ही विद्या के उद्देश्य थे। अपरा विद्या से अध्यात्म तथा रात्पर तत्व का ज्ञान होता था। परा विद्या मानव की विमुक्ति का साधन मान जाती थी। गुरुकुलों और आचार्यकुलों में अंतेवासियों के लिये ब्रह्मचर्य, तप, सत्य व्रत आदि श्रेयों की प्राप्ति परमाभीष्ट थी और तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला आदि विश्वविद्यालय प्राकृतिक विषयों के सम्यक् ज्ञान के अतिरिक्त नैष्ठिक शीलपूर्ण जीवन के महान उपस्तंभक थे। भारतीय शिक्षा दर्शन का आध्यात्मिक धरातल विनय, नियम, आश्रममर्यादा आदि पर सदियों तक अवलंबित रहा। .

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शोथा रुस्थावेली

कलाकार सर्गो कोबुलाद्ज़े द्वारा महाकवि शोथा रुस्थावेली की चित्राकृति शोथा रुस्थावेली (जॉर्ज. შოთა რუსთაველი, जन्म और मृत्यु के वर्ष अज्ञात हैं) — बारहवीं शताब्दी का जॉर्जियाई महाकवि तथा काव्य शेर की खाल वाला वीर का रचयिता था। रुस्थावेली के जीवन से संबंधित बहुत कम जानकारी मिलती है। संभव है कि कवि का उपनाम रुस्थावेली उस के जन्म-स्थान रुस्थावी से उत्पन्न हुआ हो। रुस्थावेली ने यूनान में शिक्षा पाई; फिर वह थामार-रानी के दरबार में कोषाध्यक्ष बन गया (सन 1190 के एक अभिलेख में रुस्थावेली का हस्ताक्षर उपस्थित है)। बारहवीं शताब्दी में जहाँ एक ओर जॉर्जियाई राज्य की राजनैतिक शक्ति का उत्थान हो रहा था वहीं दूसरी ओर थामार-रानी के भव्य दरबार में गीतिकाव्य का विकास अपनी चरम सीमा पर था। इसी समय तत्कालीन रुस्थावेली का मनोहर शेर की खाल वाला वीर नामक महाकाव्य रचा गया जो जॉर्जियाई साहित्य का अभिमान है। महाकाव्य से पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस का रचयिता होमर के काव्यों, प्लेटो के दर्शन शास्त्र तथा अरबी और फ़ारसी साहित्य से परिचित था। श्रेणी:जॉर्जिया श्रेणी:जॉर्जिया वासी श्रेणी:जॉर्जिया के कवि और साहित्यकार.

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षड्यन्त्र का सिद्धान्त

षड्यंत्र का सिद्धांत एक ऐसा शब्द है, जो मूलत: किसी नागरिक, आपराधिक या राजनीतिक षड्यंत्र के दावे के एक तटस्थ विवरणक के लिए उपयोग किया जाता है। हालांकि, यह बाद में काफी अपमानजनक हो गया और पूरी तरह सिर्फ हाशिये पर स्थित उस सिद्धांत के लिए प्रयुक्त होने लगा, जो किसी ऐतिहासिक या वर्तमान घटना को लगभग अतिमानवीय शक्ति प्राप्त और चालाक षड़यंत्रकारियों की गुप्त साजिश के परिणाम के रूप में व्याख्यायित करता है। षड्यंत्र के सिद्धांत को विद्वानों द्वारा संदेह के साथ देखा जाता है, क्योंकि वह शायद ही किसी निर्णायक सबूत द्वारा समर्थित होता है और संस्थागत विश्लेषण के विपरीत होता है, जो सार्वजनिक रूप से ज्ञात संस्थाओं में लोगों के सामूहिक व्यवहार पर केंद्रित होती है और जो ऐतिहासिक और वर्तमान घटनाओं की व्या‍ख्या के लिए विद्वतापूर्ण सामग्रियों और मुख्यधारा की मीडिया रपटों में दर्ज तथ्यों पर आधा‍रित होती है, न कि घटना के मकसद और व्यक्तियों की गुप्त सांठगांठ की कार्रवाइयों की अटकलों पर.

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समाजशास्त्र

समाजशास्त्र मानव समाज का अध्ययन है। यह सामाजिक विज्ञान की एक शाखा है, जो मानवीय सामाजिक संरचना और गतिविधियों से संबंधित जानकारी को परिष्कृत करने और उनका विकास करने के लिए, अनुभवजन्य विवेचनगिडेंस, एंथोनी, डनेर, मिशेल, एप्पल बाम, रिचर्ड.

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सर्वसत्तावाद

सर्वसत्तावाद, सर्वाधिकारवाद (Totalitarianism) या समग्रवादी व्यवस्था उस राजनीतिक व्यवस्था का नाम है जिसमें शासन अपनी सत्ता की कोई सीमारेखा नहीं मानता और लोगों के जीवन के सभी पहलुओं को यथासम्भव नियंत्रित करने को उद्यत रहता है। ऐसा शासन प्रायः किसी एक व्यक्ति, एक वर्ग या एक समूह के नियंत्रण में रहता है। समग्रवादी व्यवस्था लक्ष्यों, साधनों एवं नीतियों के दृष्टिकोण से प्रजातांत्रिक व्यवस्था के बिल्कुल विपरीत होता है। यह एक तानाशाह या शक्तिशाली समूह की इच्छाओं एवं संकल्पनाओं पर आधारित होता है। इसमें राजनैतिक शक्ति का केन्द्रीकरण होता है अर्थात् राजनैतिक शक्ति एक व्यक्ति, समूह या दल के हाथ में होती है। ये आर्थिक क्रियाओं का सम्पूर्ण नियंत्रण करता है। इसमें एक सर्वशक्तिशाली केन्द्र से सम्पूर्ण व्यवस्था को नियंत्रित किया जाता है। इसमें सांस्कृतिक विभिन्नता को समाप्त कर दिया जाता है और सम्पूर्ण समाज को सामान्य संस्कृति के अधीन करने का प्रयत्न किया जाता है। ऐसा प्रयत्न वास्तव में दृष्टिकोणों की विभिन्नता की समाप्ति के लिये किया जाता है और ऐसा करके केन्द्र द्वारा दिये जाने वाले आदेशों और आज्ञाओं के पालन में पड़ने वाली रूकावटों को दूर करने का प्रयत्न किया जाता है। समग्रवादी व्यवस्था का सम्बन्ध एक सर्वशक्तिशाली राज्य से है। इसमें पूर्ण या समग्र को वास्तविक मानकर इसके हितों की पूर्ति के लिये आयोजन किया जाता है। किन वस्तुओं का उत्पादन किया जाएगा, कब, कहाँ, कैसे और किनके द्वारा किया जायेगा और कौन लोग इसमें लाभान्वित होगें, इसका निश्चय मात्र एक राजनैतिक दल, समूह या व्यक्ति द्वारा किया जाता है। इसमें व्यक्तिगत साहस व क्रिया के लिये स्थान नहीं होता है। सम्पूर्ण सम्पत्ति व उत्पादन के समस्त साधनों पर राज्य का अधिकार होता है। इस व्यवस्था में दबाव का तत्व विशेष स्थान रखता है। इसके दो प्रमुख रूप रहे हैं - अधिनायकतंत्र तथा साम्यवादी तंत्र। .

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सामाजिक वर्ग

सामाजिक वर्ग समाज में आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्थाओं का समूह है। समाजशास्त्रियों के लिये विश्लेषण, राजनीतिक वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों, मानवविज्ञानियों और सामाजिक इतिहासकारों आदि के लिये वर्ग एक आवश्यक वस्तु है। सामाजिक विज्ञान में, सामाजिक वर्ग की अक्सर 'सामाजिक स्तरीकरण' के संदर्भ में चर्चा की जाती है। आधुनिक पश्चिमी संदर्भ में, स्तरीकरण आमतौर पर तीन परतों: उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग, निम्न वर्ग से बना है। प्रत्येक वर्ग और आगे छोटे वर्गों (जैसे वृत्तिक) में उपविभाजित हो सकता है। शक्तिशाली और शक्तिहीन के बीच ही सबसे बुनियादी वर्ग भेद है। महान शक्तियों वाले सामाजिक वर्गों को अक्सर अपने समाजों के अंदर ही कुलीन वर्ग के रूप में देखा जाता है। विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक सिद्धांतों का कहना है कि भारी शक्तियों वाला सामाजिक वर्ग कुल मिलाकर समाज को नुकसान पहुंचाने के लिये अपने स्वयं के स्थान को अनुक्रम में निम्न वर्गों के ऊपर मज़बूत बनाने का प्रयास करता है। इसके विपरीत, परंपरावादियों और संरचनात्मक व्यावहारिकतावादियों ने वर्ग भेद को किसी भी समाज की संरचना के लिए स्वाभाविक तथा उस हद तक अनुन्मूलनीय रूप में प्रस्तुत किया है। मार्क्सवाधी सिद्धांत में, दो मूलभूत वर्ग विभाजन कार्य और संपत्ति की बुनियादी आर्थिक संरचना की देन हैं: बुर्जुआ और सर्वहारा.

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सिलानिओं

सिलानिओं प्राचीन यूनान के मशहूर शिल्पकार थे, जिन्होंने करीब चौथी सदी ईसा पूर्व अपना काम किया। ये प्लेटो की मूर्ति बनाने में काफी मशहूर थे। .

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संभ्रांत वर्ग

संभ्रांत वर्ग या ऍलीट​ (elite) समाजशास्त्र और राजनीति में किसी समाज या समुदाय में उस छोटे से गुट को कहते हैं जो अपनी संख्या से कहीं ज़्यादा धन, राजनैतिक शक्ति या सामाजिक प्रभाव रखता है।, Yitzhak Sternberg, BRILL, 2002, ISBN 978-90-04-12873-6,...

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संकेतविज्ञान

भाषाविज्ञान में, संकेत प्रक्रियाओं (लाक्षणिकता), या अभिव्यंजना और संप्रेषण, लक्षण और प्रतीक का अध्ययन संकेतविज्ञान (Semiotics या semiotic studies या semiology) कहलाता है। इसे आम तौर पर निम्नलिखित तीन शाखाओं में विभाजित किया जाता है.

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सुकरात

सुकरात को सूफियों की भाँति मौलिक शिक्षा और आचार द्वारा उदाहरण देना ही पसंद था। वस्तुत: उसके समसामयिक भी उसे सूफी समझते थे। सूफियों की भाँति साधारण शिक्षा तथा मानव सदाचार पर वह जोर देता था और उन्हीं की तरह पुरानी रूढ़ियों पर प्रहार करता था। वह कहता था, ""सच्चा ज्ञान संभव है बशर्ते उसके लिए ठीक तौर पर प्रयत्न किया जाए; जो बातें हमारी समझ में आती हैं या हमारे सामने आई हैं, उन्हें तत्संबंधी घटनाओं पर हम परखें, इस तरह अनेक परखों के बाद हम एक सचाई पर पहुँच सकते हैं। ज्ञान के समान पवित्रतम कोई वस्तु नहीं हैं।' बुद्ध की भाँति सुकरात ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा। बुद्ध के शिष्यों ने उनके जीवनकाल में ही उपदेशों को कंठस्थ करना शुरु किया था जिससे हम उनके उपदेशों को बहुत कुछ सीधे तौर पर जान सकते हैं; किंतु सुकरात के उपदेशों के बारे में यह भी सुविधा नहीं। सुकरात का क्या जीवनदर्शन था यह उसके आचरण से ही मालूम होता है, लेकिन उसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न लेखक भिन्न-भिन्न ढंग से करते हैं। कुछ लेखक सुक्रात की प्रसन्नमुखता और मर्यादित जीवनयोपभोग को दिखलाकर कहते हैं कि वह भोगी था। दूसरे लेखक शारीरिक कष्टों की ओर से उसकी बेपर्वाही तथा आवश्यकता पड़ने पर जीवनसुख को भी छोड़ने के लिए तैयार रहने को दिखलाकर उसे सादा जीवन का पक्षपाती बतलाते हैं। सुकरात को हवाई बहस पसंद न थी। वह अथेन्स के बहुत ही गरीब घर में पैदा हुआ था। गंभीर विद्वान् और ख्यातिप्राप्त हो जाने पर भी उसने वैवाहिक जीवन की लालसा नहीं रखी। ज्ञान का संग्रह और प्रसार, ये ही उसके जीवन के मुख्य लक्ष्य थे। उसके अधूरे कार्य को उसके शिष्य अफलातून और अरस्तू ने पूरा किया। इसके दर्शन को दो भागों में बाँटा जा सकता है, पहला सुक्रात का गुरु-शिष्य-यथार्थवाद और दूसरा अरस्तू का प्रयोगवाद। तरुणों को बिगाड़ने, देवनिंदा और नास्तिक होने का झूठा दोष उसपर लगाया गया था और उसके लिए उसे जहर देकर मारने का दंड मिला था। सुकरात ने जहर का प्याला खुशी-खुशी पिया और जान दे दी। उसे कारागार से भाग जाने का आग्रह उसे शिष्यों तथा स्नेहियों ने किया किंतु उसने कहा- भाइयो, तुम्हारे इस प्रस्ताव का मैं आदर करता हूँ कि मैं यहाँ से भाग जाऊँ। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और प्राण के प्रति मोह होता है। भला प्राण देना कौन चाहता है? किंतु यह उन साधारण लोगों के लिए हैं जो लोग इस नश्वर शरीर को ही सब कुछ मानते हैं। आत्मा अमर है फिर इस शरीर से क्या डरना? हमारे शरीर में जो निवास करता है क्या उसका कोई कुछ बिगाड़ सकता है? आत्मा ऐसे शरीर को बार बार धारण करती है अत: इस क्षणिक शरीर की रक्षा के लिए भागना उचित नहीं है। क्या मैंने कोई अपराध किया है? जिन लोगों ने इसे अपराध बताया है उनकी बुद्धि पर अज्ञान का प्रकोप है। मैंने उस समय कहा था-विश्व कभी भी एक ही सिद्धांत की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता। मानव मस्तिष्क की अपनी सीमाएँ हैं। विश्व को जानने और समझने के लिए अपने अंतस् के तम को हटा देना चाहिए। मनुष्य यह नश्वर कायामात्र नहीं, वह सजग और चेतन आत्मा में निवास करता है। इसलिए हमें आत्मानुसंधान की ओर ही मुख्य रूप से प्रवृत्त होना चाहिए। यह आवश्यक है कि हम अपने जीवन में सत्य, न्याय और ईमानदारी का अवलंबन करें। हमें यह बात मानकर ही आगे बढ़ना है कि शरीर नश्वर है। अच्छा है, नश्वर शरीर अपनी सीमा समाप्त कर चुका। टहलते-टहलते थक चुका हूँ। अब संसार रूपी रात्रि में लेटकर आराम कर रहा हूँ। सोने के बाद मेरे ऊपर चादर उड़ देना। .

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स्टोइक दर्शन

साइप्रस के सिटियम का निवासी जेनो स्टोइक दर्शन (Stoicism) अरस्तू के बाद यूनान में विकसित हुआ था। स्टोइक दर्शन या स्टोइकवाद एक प्राचीन ग्रीक दर्शन है जो कि 300 BC के आसपास सिटियम के निवासी जेनो द्वारा तपस्यावाद के परिष्करण के रूप में विकसित किया गया। यह विनाशकारी भावनाओं पर काबू पाने के साधन के रूप में तथा आत्म-नियंत्रण और दृढ़ता के विकास को सिखाता है। यह भावनाओं को प्रतिस्पर्धात्मक रूप से बुझाने की कोशिश नहीं करता है, बल्कि उन्हें एक आकस्मिक असंतोष (सांसारिक सुख से स्वैच्छिक रोकथाम) द्वारा बदलने की कोशिश करता है, जो एक व्यक्ति को स्पष्ट निर्णय, आंतरिक शांति और पीड़ा से स्वतंत्रता प्राप्त करने में सक्षम बनाता है (जिसे अंतिम लक्ष्य माना जाता है)। सिकंदर महान् की मृत्यु के बाद ही विशाल यूनानी साम्रज्य के टुकड़े होने लगे थे। कुछ ही समय में वह रोम की विस्तारनीति का लक्ष्य बन गया और पराधीन यूनान में अफलातून तथा अरस्तू के आदर्श दर्शन का आकर्षण बहुत कम हो गया। यूनानी समाज भौतिकवाद की ओर झुक चुका था। एपीक्यूरस ने सुखवाद (भोगवाद) की स्थापना (306 ई. पू.) कर, पापों के प्रति देवताओं के आक्रोश तथा भावी जीवन में बदला चुकाने के भय को कम करने का प्रयत्न आरंभ कर दिया था। तभी ज़ीनो ने रंगबिरंगे मंडप (स्टोआ) में स्टोइक दर्शन की शिक्षा द्वारा, अंधविश्वासों को मिटाते हुए, अपने समाज को नैतिक जीवन का मूल्य बताना प्रारंभ किया। इस दर्शनपरंपरा को पुष्ट करनेवालों में ज़ीनों के अतिरिक्त, क्लिऐंथिस और क्रिसिप्पस के नाम लिए जाते हैं। "स्टोइक दर्शन" को तीन भागों में प्रस्तुत किया जाता है- तर्क, भौतिकी तथा नीति। .

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सौन्दर्यशास्त्र

प्रकृति में सर्वत्र सौन्दर्य विद्यमान है। सौंदर्यशास्त्र (Aesthetics) संवेदनात्म-भावनात्मक गुण-धर्म और मूल्यों का अध्ययन है। कला, संस्कृति और प्रकृति का प्रतिअंकन ही सौंदर्यशास्त्र है। सौंदर्यशास्त्र, दर्शनशास्त्र का एक अंग है। इसे सौन्दर्यमीमांसा ताथा आनन्दमीमांसा भी कहते हैं। सौन्दर्यशास्त्र वह शास्त्र है जिसमें कलात्मक कृतियों, रचनाओं आदि से अभिव्यक्त होने वाला अथवा उनमें निहित रहने वाले सौंदर्य का तात्विक, दार्शनिक और मार्मिक विवेचन होता है। किसी सुंदर वस्तु को देखकर हमारे मन में जो आनन्ददायिनी अनुभूति होती है उसके स्वभाव और स्वरूप का विवेचन तथा जीवन की अन्यान्य अनुभूतियों के साथ उसका समन्वय स्थापित करना इनका मुख्य उद्देश्य होता है। .

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सृजनात्मकता

सृजनात्मकता सर्जनात्मकता अथवा रचनात्मकता किसी वस्तु, विचार, कला, साहित्य से संबद्ध किसी समस्या का समाधान निकालने आदि के क्षेत्र में कुछ नया रचने, आविष्कृत करने या पुनर्सृजित करने की प्रक्रिया है। यह एक मानसिक संक्रिया है जो भौतिक परिवर्तनों को जन्म देती है। सृजनात्मकता के संदर्भ में वैयक्तिक क्षमता और प्रशिक्षण का आनुपातिक संबन्ध है। काव्यशास्त्र में सृजनात्मकता प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास के सहसंबंधों की परिणति के रूप में व्यवहृत किया जाता है। .

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सोफ़िस्त

आधुनिक प्रचलन में, सोफ़िस्त वह व्यक्ति है, जो दूसरों को अपने मत में करने के लिए युक्तियों, एवं व्याख्याओं का आविष्कार कर सके। किंतु यह "सोफ़िस्त" का मूल अर्थ नहीं है। प्राचीन यूनानी दर्शनकाल में, ज्ञानाश्रयी दार्शनिक ही सोफ़िस्त थे। तब "फ़िलॉसफ़ॉस" का प्रचलन न था। ईसा पूर्व पाँचवीं तथा चौथी शताब्दियों में यूनान के कुछ सीमावर्ती दार्शनिकों ने सांस्कृतिक विचारों के विरुद्ध आंदोलन किया। एथेंस नगर प्राचीन यूनानी संस्कृति का केंद्र था। वहाँ इस आंदोलन की हँसी उड़ाई गई। अफलातून (प्लेटो) के कुछ संवादों के नाम सोफ़िस्त कहे जानेवाले दार्शनिकों के नामों पर हैं। उनमें सुकरात और प्रमुख सोफ़िस्तों के बीच विवाद प्रस्तुत करते हुए अंत में सोफ़िस्तों को निरुतर करा दिया गया है। सुकरात के आत्मत्याग से यूनान में उसका सम्मान इतना अधिक हो गया था कि सुकरात को सोफिस्त आंदोलन का विरोधी समझकर, परंपरा ने "सोफ़िस्त" शब्द अपमानसूचक मान लिया। .

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हाईपेशिया

हाईपेशिया (/ˌhaɪˈpeɪʃə, -ʃi.ə/;; Ὑπατία Hupatía; जन्म 350–370; मृत्यु 415),, MacTutor History of Mathematics, School of Mathematics and Statistics, Univ.

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हिन्दी पुस्तकों की सूची/श

संवाद शीर्षक से कविता संग्रह-ईश्वर दयाल गोस्वाामी.

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हेरक्लिटस

हेरक्लिटस(535 ईसा पूर्व -475 ईसा पूर्व) यूनानी दार्शनिक था। .

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जार्ज विल्हेम फ्रेड्रिक हेगेल

जार्ज विलहेम फ्रेड्रिक हेगेल (1770-1831) सुप्रसिद्ध दार्शनिक थे। वे कई वर्ष तक बर्लिन विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे और उनका देहावसान भी उसी नगर में हुआ। .

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ज्यामिति का इतिहास

1728 साइक्लोपीडिया से ज्यामिति की तालिका. ज्यामिति (यूनानी भाषा γεωμετρία; जियो .

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जॉन राल्स

जॉन रॉल्स (John Bordley Rawls; 21 फ़रवरी 1921 – 24 नवम्बर 2002) बीसवीं सदी के महानतम नैतिक विचारक व अमेरिकी उदारवाद के दार्शनिक थे। उन्होंने 1971 में अपनी पुस्तक 'अ थिअरी ऑफ जस्टिस' (A Theory of Justice) का प्रकाशन करके राजनीतिक चिन्तन के पुनरोदय के द्वार खोल दिए। इस पुस्तक के कारण रॉल्स को राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में वही स्थान प्राप्त हें जो प्लेटो, एक्विनॉस, कॉण्ट, कार्ल मार्क्स तथा मैकियावेली को प्राप्त है। रॉल्स के आगमन से राजनीतिक चिन्तन की शास्त्रीय परम्परा का पुनरोदय हुआ है। रॉल्स ने राजनीतिक चिन्तन की डूबती नाव को बचाकर अपना नाम राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में सुनहरी अक्षरों में लिखवाने का गौरव प्राप्त है। उनकी रचना 'अ थिअरी ऑफ जस्टिस' ने उदारवाद को नई दिशा व चेतना प्रदान की है।गॉर्डन, डेविड (२८ जुलाई २००८) (अंग्रेज़ी में), द अमेरिकन कंजरवेटिव इस पुस्तक में ‘सामाजिक न्याय’ की संकल्पना विकसित करके रॉल्स ने एक आदर्श राजनीतिक व्यवस्था के निर्माण का मार्ग तैयार किया है।कैंब्रिज डिक्शनरी ऑफ़ फिलोसपी, "राल्स, जॉन," कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय प्रेस, पृ॰ 774-775.

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जोहन्नेस स्कोतुस युरिउगेना

जोहन्नेस स्कोतुस युरिउगेना(815 इसवी - 877 इसवी) एक आयरिश दार्शनिक और कवी थे। .

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ईसप की दंतकथाएं

हार्टमन शेडेल द्वारा नूर्नबर्ग क्रॉनिकल में एसोप.यहां वह 15वीं सदी के जर्मन कपड़े पहने दिखाए जा रहे हैं ईसप की दंतकथाएं या ईसपिका दंतकथाओं का एक संग्रह है जिसका श्रेय 620 ईपू से 520 ईपू के बीच प्राचीन यूनान में रहने वाले एक गुलाम और कथक ईसप को जाता है। उसकी दंतकथाएं विश्व की कुछ सर्वाधिक प्रसिद्ध दंतकथाओं में से हैं। ये दंतकथाएं अजकल के बच्चों के लिए नैतिक शिक्षा का लोकप्रिय विकल्प बनी हुई हैं। ईसप की दंतकथाओं में शामिल कई कहनियां, जैसे लोमड़ी और अंगूर (जिससे “अंगूर खट्टे हैं” मुहावरा निकला).

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ईसाई मत में ईश्वर

बाइबिल में कहीं भी ईश्वर के स्वरूप का दार्शनिक विवेचन तो नहीं मिलता किंतु मनुष्यों के साथ ईश्वर के व्यवहार का जो इतिहास इसमें प्रस्तुत किया गया है उसपर ईश्वर के अस्तित्व तथा उसके स्वरूप के विषय में ईसाइयों की धारण आधारित है। (१) बाइबिल के पूर्वार्ध का वर्ण्य विषय संसार की सृष्टि तथा यहूदियों का धार्मिक इतिहास है। उससे ईश्वर के विषय में निम्नलिखित शिक्षा मिलती है: एक ही ईश्वर है- अनादि और अनंत; सर्वशक्तिमान और अपतिकार्य, विश्व का सृष्टिकर्ता, मनुष्य मात्र का आराध्य। वह सृष्ट संसार के परे होकर उससे अलग है तथा साथ-साथ अपनी शक्ति से उसमें व्याप्त भी रहता है। कोई मूर्ति उसका स्वरूप व्यक्त करने में असमर्थ है। वह परमपावन होकर मनुष्य को पवित्र बनने का आदेश देता है, मनुष्य ईश्वरीय विधान ग्रहण कर ईश्वर की आराधना करे तथा ईश्वर के नियमानुसार अपना जीवन बितावे। जो ऐसा नहीं करता वह परलोक में दंडित होगा क्योंकि ईश्वर सब मनुष्यों का उनके कर्मों के अनुसार न्याय करेगा। पाप के कारण मनुष्य की दुर्गति देखकर ईश्वर ने प्रारंभ से ही मुक्ति की प्रतिज्ञा की थी। उस मुक्ति का मार्ग तैयार करने के लिए उसने यहूदी जाति को अपनी ही प्रजा के रूप में ग्रहण किया तथा बहुत से नबियों को उत्पन्न करके उस जाति में शुद्ध एकेश्वरवाद बनाए रखा। यद्यपि बाइबिल के पूर्वार्ध में ईश्वर का परमपावन न्यायकर्ता का रूप प्रधान है, तथापि यहूदी जाति के साथ उसके व्यवहार के वर्णन में ईश्वर की दयालुता तथा सत्यप्रतिज्ञा पर भी बहुत ही बल दिया गया है। (२) बाइबिल के उत्तरार्ध से पता चलता है कि ईसा ने ईश्वर के स्वरूप के विषय में एक नए रहस्य का उद्घाटन किया है। ईश्वर तिर्यकू है, अर्थात् एक ही ईश्वर में तीन व्यक्ति हैं- पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा। तीनों समान रूप से अनादि, अनंत और सर्वशक्तिमान् हैं क्योंकि वे तत्वत: एक हैं। ईश्वर के आभ्यंतर जीवन का वास्तविक स्वरूप है-पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा का अनर्विचनीय प्रेम। प्रेम से ही प्रेरित होकर ईश्वर ने मनुष्य को अपने आभ्यंतर जीवन का भागी बनाने के उद्देश्य से उसकी सृष्टि की थी किंतु प्रथम मनुष्य ने ईश्वर की इस योजना को ठुकरा दिया जिससे संसार में पाप का प्रवेश हुआ। मनुष्यों को पाप से मुक्त करने के लिए ईश्वर ईसा में अवतरित हुआ जिससे ईश्वर का प्रेम और स्पष्ट रूप से परिलिक्षित होता है। ईसा ने क्रूस पर मरकर मानव जाति के सब पापों का प्रायश्चित किया तथा मनुष्य मात्र के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर दिया। जो कोई सच्चे हृदय से पछतावा करे वह ईसा के पुण्यफलों द्वारा पापक्षमा प्राप्त कर सकता है और अनंतकाल तक पिता-पुत्र-पवित्र आत्मा के आभ्यंतर जीवन का साझी बन सकता है। इस प्रकार ईश्वर का वास्तविक स्वरूप प्रेम ही है। मनुष्य की दृष्टि से वह दयालु पिता है जिसके प्रति प्रेमपूर्ण आत्मसमर्पण होना चाहिए। बाइबिल के उत्तरार्ध में ईश्वर को लगभग ३०० बार 'पिता' कहकर पुकारा गया है। (३) बाइबिल के आधार पर ईसाइयों का विश्वास है कि मनुष्य अपनी बुद्धि के बल पर भी ईश्वर का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। अपूर्ण होते हुए भी यह ज्ञान प्रामाणिक ही है। ईसाई धर्म का किसी एक दर्शन के साथ अनिवार्य संबंध तो नहीं है, किंतु ऐतिहासिक परिस्थितियों के फलस्वरूप ईसाई तत्वज्ञ प्राय: अफलातून अथवा अरस्तू के दर्शन का सहारा लेकर ईश्वरवाद का प्रतिपादन करते हैं। ईश्वर का अस्तित्व प्राय: कार्य-कारण-संबंध के आधार पर प्रमाणित किया जाता है। ईश्वर निर्गुण, अमूर्त, अभौतिक है। वह परिवर्तनीय, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, अनंत और अनादि है। वह सृष्टि के परे होते हुए भी इसमें व्याप्त रहता है; वह अंतर्यामी है। ईसाई दार्शनिक एक ओर तो सर्वेश्वरवाद तथा अद्वैत का विरोध करते हुए सिखलाते हैं कि समस्त सृष्टि (अत: जीवात्मा भी) तत्वत: ईश्वर से भिन्न है, दसूरी ओर वे अद्वैत को भी पूर्ण रूप से ग्रहण नहीं सकते, क्योंकि उनकी धारणा है कि समस्त सृष्टि अपने अस्तित्व के लिए निरंतर ईश्वर पर निर्भर रहती है। .

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विधिवेत्ता

कानून के विद्वान को विधिवेत्ता कहते हैं। भारत के विश्वविख्यात विधिवेत्ता डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर है। .

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विज्ञान के दार्शनिकों की सूची

दार्शनिकों की एक लंबी परंपरा रही है जिन्होंने वैज्ञानिक चिंतन के माध्यम से वस्तुनिष्ठ और आत्मनिष्ठ ज्ञान के सहसंबंध को विश्व से अवगत कराया है। इन दार्शनिकों की एक कालक्रमानुसार सूची निम्नवत है। .

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विवाह

हिन्दू विवाह का सांकेतिक चित्रण विवाह, जिसे शादी भी कहा जाता है, दो लोगों के बीच एक सामाजिक या धार्मिक मान्यता प्राप्त मिलन है जो उन लोगों के बीच, साथ ही उनके और किसी भी परिणामी जैविक या दत्तक बच्चों तथा समधियों के बीच अधिकारों और दायित्वों को स्थापित करता है। विवाह की परिभाषा न केवल संस्कृतियों और धर्मों के बीच, बल्कि किसी भी संस्कृति और धर्म के इतिहास में भी दुनिया भर में बदलती है। आमतौर पर, यह मुख्य रूप से एक संस्थान है जिसमें पारस्परिक संबंध, आमतौर पर यौन, स्वीकार किए जाते हैं या संस्वीकृत होते हैं। एक विवाह के समारोह को विवाह उत्सव (वेडिंग) कहते है। विवाह मानव-समाज की अत्यंत महत्वपूर्ण प्रथा या समाजशास्त्रीय संस्था है। यह समाज का निर्माण करने वाली सबसे छोटी इकाई- परिवार-का मूल है। यह मानव प्रजाति के सातत्य को बनाए रखने का प्रधान जीवशास्त्री माध्यम भी है। .

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वुडरो विल्सन

वुडरो विल्सन (Woodrow Wilson) (१८५६-१९२४) अमेरिका के २८ वें राष्ट्रपति थे। विल्सन को लोक प्रशासन के प्रकार्यों की व्याख्या करने वाले अकादमिक विद्वान, प्रशासक, इतिहासकार, विधिवेत्ता और राजनीतिज्ञ के रूप में जाना जाता है। .

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व्यक्तिवाद

व्यक्तिवाद एक नैतिक (एथिकल), राजनैतिक एवं सामाजिक दर्शन (outlook) है जो व्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं व्यक्तिगत आत्मनिर्भरता पर बल देता है और उसका समर्थन करता है। साधारण अर्थ में, स्वार्थ के समर्थन की, अथवा विशिष्ट समझे जानेवाले व्यक्तियों की महत्ता स्वीकार करने की प्रवृत्ति। दर्शन में, प्रत्येक व्यक्ति को विशिष्ट व्यक्ति ठहराने की प्रवृत्ति। .

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खुसरू प्रथम

खुसरू प्रथम एक न्यायप्रिय राजा था। (तेहरान राजदरबार में) खुसरू प्रथम कवाध या कोवाद प्रथम का प्रिय पुत्र और फारस के ससानीद वंश का सबसे गौरवशाली राजा था। इसे 'नौशेरवाँ आदिल', 'नौशेरवाँ' या 'अनुशेरवाँ' भी कहते हैं। पश्चिमी लेखकों ने इसे 'खोसरोज' अर्थात् खुसरू और अरबों ने 'किसरा' कहा है। .

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खेल सिद्धांत

खेल सिद्धांत या गेम थ्योरी (game theory) व्यवहारिक गणित की एक शाखा है जिसका प्रयोग समाज विज्ञान, अर्थशास्त्र, जीव विज्ञान, इंजीनियरिंग, राजनीति विज्ञान, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, कम्प्यूटर साइंस और दर्शन में किया जाता है। खेल सिद्धांत कूटनीतिक परिस्थितियों में (जिसमें किसी के द्वारा विकल्प चुनने की सफलता दूसरों के चयन पर निर्भर करती है) व्यवहार को बूझने का प्रयास करता है। यूँ तो शुरू में इसे उन प्रतियोगिताओं को समझने के लिए विकसित किया गया था जिनमें एक व्यक्ति का दूसरे की गलतियों से फायदा होता है (ज़ीरो सम गेम्स), लेकिन इसका विस्तार ऐसी कई परिस्थितियों के लिए करा गया है जहाँ अलग-अलग क्रियाओं का एक-दूसरे पर असर पड़ता हो। आज, "गेम थ्योरी" समाज विज्ञान के तार्किक पक्ष के लिए एक छतरी या 'यूनीफाइड फील्ड' थ्योरी की तरह है जिसमें 'सामाजिक' की व्याख्या मानव के साथ-साथ दूसरे खिलाड़ियों (कम्प्युटर, जानवर, पौधे) को सम्मिलित कर की जाती है। गेम थ्योरी के पारंपरिक अनुप्रयोगों में इन गेमों में साम्यावस्थाएं खोजने का प्रयास किया जाता है। साम्यावस्था में गेम का प्रत्येक खिलाड़ी एक नीति अपनाता है जो वह संभवतः नहीं बदलता है। इस विचार को समझने के लिए साम्यावस्था की कई सारी अवधारणाएं विकसित की गई हैं (सबसे प्रसिद्ध नैश इक्विलिब्रियम)। साम्यावस्था के इन अवधारणाओं की अभिप्रेरणा अलग-अलग होती है और इस बात पर निर्भर करती है कि वे किस क्षेत्र में प्रयोग की जा रहीं हैं, हालाँकि उनके मायने कुछ हद तक एक दूसरे में मिले-जुले होते हैं और मेल खाते हैं। यह पद्धति आलोचना रहित नहीं है और साम्यावस्था की विशेष अवधारणाओं की उपयुक्तता पर, साम्यवास्थाओं की उपयुक्तता पर और आमतौर पर गणितीय मॉडलों की उपयोगिता पर वाद-विवाद जारी रहते हैं। हालाँकि इसके पहले ही इस क्षेत्र में कुछ विकास चुके थे, गेम थ्योरी का क्षेत्र जॉन वॉन न्युमन्न और ऑस्कर मॉर्गनस्टर्न की 1944 की पुस्तक थ्योरी ऑफ गेम्स ऐंड इकोनोमिक बिहेविअर के साथ आस्तित्व में आया। इस सिद्धांत का विकास बड़े पैमाने पर 1950 के दशक में कई विद्वानों द्वारा किया गया। बाद में गेम थ्योरी स्पष्टतया 1970 के दशक में जीव विज्ञान में प्रयुक्त किया गया, हालाँकि ऐसा 1930 के दशक में ही शुरू हो चुका था। गेम थ्योरी की पहचान व्यापक रूप से कई क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में की गई है। आठ गेम थ्योरिस्ट्स अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार जीत चुके हैं और जॉन मेनार्ड स्मिथ को गेम थ्योरी के जीव विज्ञान में प्रयोग के लिए क्रफूर्ड पुरस्कार से सम्मानित किया गया। .

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गणित का इतिहास

ब्राह्मी अंक, पहली शताब्दी के आसपास अध्ययन का क्षेत्र जो गणित के इतिहास के रूप में जाना जाता है, प्रारंभिक रूप से गणित में अविष्कारों की उत्पत्ति में एक जांच है और कुछ हद तक, अतीत के अंकन और गणितीय विधियों की एक जांच है। आधुनिक युग और ज्ञान के विश्व स्तरीय प्रसार से पहले, कुछ ही स्थलों में नए गणितीय विकास के लिखित उदाहरण प्रकाश में आये हैं। सबसे प्राचीन उपलब्ध गणितीय ग्रन्थ हैं, प्लिमपटन ३२२ (Plimpton 322)(बेबीलोन का गणित (Babylonian mathematics) सी.१९०० ई.पू.) मास्को गणितीय पेपाइरस (Moscow Mathematical Papyrus)(इजिप्ट का गणित (Egyptian mathematics) सी.१८५० ई.पू.) रहिंद गणितीय पेपाइरस (Rhind Mathematical Papyrus)(इजिप्ट का गणित सी.१६५० ई.पू.) और शुल्बा के सूत्र (Shulba Sutras)(भारतीय गणित सी. ८०० ई.पू.)। ये सभी ग्रन्थ तथाकथित पाईथोगोरस की प्रमेय (Pythagorean theorem) से सम्बंधित हैं, जो मूल अंकगणितीय और ज्यामिति के बाद गणितीय विकास में सबसे प्राचीन और व्यापक प्रतीत होती है। बाद में ग्रीक और हेल्लेनिस्टिक गणित (Greek and Hellenistic mathematics) में इजिप्त और बेबीलोन के गणित का विकास हुआ, जिसने विधियों को परिष्कृत किया (विशेष रूप से प्रमाणों (mathematical rigor) में गणितीय निठरता (proofs) का परिचय) और गणित को विषय के रूप में विस्तृत किया। इसी क्रम में, इस्लामी गणित (Islamic mathematics) ने गणित का विकास और विस्तार किया जो इन प्राचीन सभ्यताओं में ज्ञात थी। फिर गणित पर कई ग्रीक और अरबी ग्रंथों कालैटिन में अनुवाद (translated into Latin) किया गया, जिसके परिणाम स्वरुप मध्यकालीन यूरोप (medieval Europe) में गणित का आगे विकास हुआ। प्राचीन काल से मध्य युग (Middle Ages) के दौरान, गणितीय रचनात्मकता के अचानक उत्पन्न होने के कारण सदियों में ठहराव आ गया। १६ वीं शताब्दी में, इटली में पुनर् जागरण की शुरुआत में, नए गणितीय विकास हुए.

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गाटफ्रीड लैबनिट्ज़

गाटफ्रीड विलहेल्म लाइबनिज (Gottfried Wilhelm von Leibniz / १ जुलाई १६४६ - १४ नवम्बर १७१६) जर्मनी के दार्शनिक, वैज्ञानिक, गणितज्ञ, राजनयिक, भौतिकविद्, इतिहासकार, राजनेता, विधिकार थे। उनका पूरा नाम 'गोतफ्रीत विल्हेल्म फोन लाइब्नित्स' था। गणित के इतिहास तथा दर्शन के इतिहास में उनका प्रमुख स्थान है। .

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गुफ़ा की कथा

प्लेटो के गुफ़ा कथा पर सन् १६०४ में बनी एक तस्वीर गुफ़ा कथा का एक और चित्रण गुफ़ा की सीख (अंग्रेज़ी: Allegory of the Cave), जिसे प्लेटो की गुफ़ा और गुफ़ा की रूपक कथा भी कहा जाता है, एक सिद्धांत दर्शाने वाली रूपक कथा है जिसे यूनानी दार्शनिक प्लेटो (अफ़लातून) ने अपने प्रसिद्ध रिपब्लिक नामक ग्रन्थ में 'हमारे प्राकृतिक ज्ञान और अज्ञान' पर प्रकाश डालने के लिए सम्मिलित किया था। यह कथा प्लेटो के मित्र सुकरात और प्लेटो को भाई ग्लाउकोन के बीच हुई बातचीत के रूप में लिखी गई है।, Benjamin Rand (editor), pp.

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आदर्शवाद

विचारवाद या आदर्शवाद या प्रत्ययवाद (Idealism; Ideal.

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आधुनिक मनोविज्ञान

मनोविज्ञान आधुनिक युग की नवीनतम विद्या है। वैसे तो मनोविज्ञान की शुरूआत आज से 2,000 वर्ष पूर्व यूनान में हुई। प्लेटो ओर अरस्तू के लेखों में उसे हम देखते हैं। मध्यकाल में मनोविज्ञान चिंतन की योरप में कमी हो गई थी। आधुनिक युग में इसका प्रारंभ ईसा की अठारहवी शताब्दी में हुआ। परंतु उस समय मनोविज्ञान केवल दर्शनशास्त्रों का सहयोगी था। उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था। मनोविज्ञान का स्वतंत्र अस्तित्व 19 वीं शताब्दी में हुआ, परंतु इस समय भी विद्वानों को मनुष्य के चेतन मन का ही ज्ञान था। उन्हें उसके अचेतन मन का ज्ञान नहीं था। जब अचेतन मन की खोज हुई तो पता चला कि जो ज्ञान मन के विषय में था वह उसके क्षुद्र भाग का ही था। आधुनिक मनोविज्ञान की खोज, चिकित्सा विज्ञान के कार्यकर्ताओं की देन हैं। इन खोजों की शुरुआत डॉ॰ फ्रायड ने की। उनके शिष्य अलफ्रेड एडलर चार्ल्स युगं विलियम स्टेकिल और फ्रेंकजी ने इसे आगे बढ़ाया। डॉ॰ फ्रायड स्वयं प्रारंभ में शारीरिक रोगों के चिकित्सक थे। उनके यहाँ कुछ ऐसे रोगी आए जिनकी सब प्रकार की शारीरिक चिकित्सा होते हुए भी रोग जाता नहीं था। ऐसे कुछ जटिल रोगियों का उपचार डॉ॰ ब्रूअर ने केवल प्रतिदिन बातचीत करके तथा रोगी की व्यथा को प्रति दिन सुनकर किया। डॉ॰ ब्रूअर के इस अनुभव से यह पता चला कि मनुष्य के बहुत से शारीरिक ओर मानसिक रोग ऐसे भी होते हैं, जो किसी प्रकार की प्रबल भावनाओं के दमित होने से उत्पन्न हो जाते हैं, ओर जब इन भावनाओं का धीरे-धीरे प्रकाशन हो जाता है तो ये समाप्त भी हो जाते हैं। डॉ॰ फ़्रायड की प्रमुख देन दमित भावनाओं की खोज की ही है। इनकी खोज करते हुए उन्हें पता चला कि मुनष्य के मन के कई भाग हैं। साधारणतया जिस भाग को वह जानता है, वह उसका चेतन मन ही है। इस मन के परे मन का वह भाग है जहाँ मनुष्य का वह ज्ञान संचित रहता है जिसे वह बड़े परिश्रम के साथ इकट्ठा करता है। इस भाग में ऐसी इच्छाएँ भी उपस्थित रहती हैं जो वर्तमान में कार्यन्वित नहीं हो रही होतीं, परंतु जिन्हें व्यक्ति ने बरबस दबा दिया है। मन का यह भाग अवचेतन मन कहा जाता है। इसके परे मनुष्य का अचेतन मन है। मन के इस भाग में मुनष्य की ऐसी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, स्मृतियाँ और संवेग रहते हैं, जिन्हें उसे बरबस दबाना और भूल जाना पड़ता है। ये दमित भाव तथा इच्छाएँ व्यक्ति के अचेतन मन में संगठित हो जाती हैं और फिर वे उसके व्यक्तित्व में खिंचाव और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न कर देती हैं। इस प्रकार के दमित भावों, इच्छाओं ओर स्मृतियों को मानसिक ग्रंथियाँ कहा जाता हैं। मानसिक रोगी के मन में ऐसी अने प्रबल ग्रंथियाँ रहती हैं इनका रोगी को स्वयं ज्ञान नहीं रहता और उनकी स्वीकृति भी वह करना नहीं चाहता। ऐसी ही दमित ग्रंथियाँ अनेक प्रकार के मानसिक तथा शारीरिक रोगों में व्याप्त होती हैं। हिस्टीरिया का रोग उन्हीं में से एक हैं। यह रोग कभी कभी शारीरिक रोग बनकर प्रगट होता है तब इसे रूपांतररित हिस्टीरिया कहा जाता है। मनुष्य के अचेतन मन में न केवल दमित अवांछनीय और अनैतिक भाव रहते हैं, वरन् उन्हें दमन करनेवाली नैतिक धारणाएँ भी रहती हैं। इन नैतिक धारणाओं का ज्ञान व्यक्ति के चेतन मन को न होने के कारण उनमें सरलता से परविर्तन नहीं किया जा सकता। मनुष्य के सुस्वत्व और उसके अचेतन मन में उपस्थित वासनात्मक, असामाजिक भावों और इच्छाओं का संघर्ष मुनष्य के अनजाने ही होता है। मुनष्य का सुस्वत्व उस कुत्ते के समान है जो मनुष्य के अचेतन मन में उपस्थित असामाजिक विचारों और इच्छाओं को चेतना के स्तर पर आकर प्रकाशित नहीं होने देता। फिर ये दमित भाव अपना रूप बदलकर मनुष्य की जाग्रत अवस्था में अथवा उसकी स्वप्नावस्था में, जबकि उसका सुस्वत्व कुछ ढीला हो जाता है, रूप बदलकर प्रकाशित होते हैं। यही भाव अनेक प्रकार के रूप बदलकर शारीरिक रोगों अथवा आचरण के दोषों में प्रकाशित होते हैं। डॉ॰ फ्रायड ने स्वप्न के लिए नया विज्ञान ही खड़ा कर दिया। उनके कथनानुसार स्वप्न अचेतन मन में उपस्थित दमित भावनाओं के कार्यों का परिणाम है। किसी व्यक्ति के स्वप्न को जानकर और उसका ठीक अर्थ लगाकर हम उसके दमित भावों को जान सकते हैं और उसके मानसिक विभाजन को समाप्त करने में उसकी सहायता कर सकते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान की खोज डॉ॰ फ़्रायड के उपर्श्युक्त खोजों के आगे भी गई हैं। उनके शिष्य डॉ॰ युंग ने बताया कि मनुष्य के सुस्वत्व की जड़ केवल उसके व्यक्तिगत अनुभव में नहीं है, वरन् यह संपूर्ण मानवसमाज के अनुभव में है। इसी कारण जब मनुष्य समाज की मान्यताओं के प्रतिकूल आचरण करता है तो उसके भीतरी मन में अकारण ही दंड का भय उत्पन्न हो जाता है। यह भय तब तक नहीं जाता जब तक मनुष्य अपनी नैतिकता संबंधी भूल स्वीकार नहीं कर लेता और उसका प्रायश्चित नहीं कर डालता। इस तरह की आत्मस्वीकृति और प्रायश्चित से मनुष्य के भोगवादी स्वत्व और सुस्वत्व अर्थात् समाजहितकारी उपस्थित स्वत्व में एकता स्थापित हो जाती है। मनुष्य को मानसिक शांति न तो भोगवादी स्वत्व की अवहेलना से मिलती है और न सुस्वत्व की अवहेलना से। दोनों के समन्वय से ही मानसिक स्वास्थ्य और प्रसन्नता का अनुभव होता है। इंग्लैंड के एक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डॉ॰ विलियम ब्राउन मन के उपर्युक्त सभी स्तरों के परे मनुष्य के व्यक्तित्व में उपस्थित एक ऐसी सत्ता को भी बताते हैं, जो देश और काल की सीमा के परे है। इसकी अनुभूति मनुष्य को मानसिक और शारीरिक शिथिलीकरण की अवस्था में होती है। उनका कथन है कि जब मनुष्य अपने सभी प्रकार के चिंतन को समाप्त कर देता है और जब वह इस प्रकार शांत अवस्था में पड़ जाता है, तब वह अपने ही भीतर उपस्थित एक ऐसी सत्ता से एकत्व स्थापित कर लेता है जो अपार शक्ति का केंद्र है और जिससे थोड़े समय के लिए भी एकत्व स्थापित करने पर अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक रोग शांत हो जाते हैं। इससे एकत्व स्थापित करने के बाद मनुष्य के विचार एक नया मोड़ ले लेते हैं। फिर ए विचार रोगमूलक न होकर स्वास्थ्यमूलक हो जाते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान अब भगवान बुद्ध और महर्षि पातंजलि की खोजों की ओर जा रहा है। मन के उपर्युक्त तीन भागों के परे एक ऐसी स्थिति भी है जिसे एक ओर शून्य रूप और दूसरी ओर अनंत ज्ञानमय कहा जा सकता है। इस अवस्था में द्रष्टा और दृश्य एक हो जाते हैं और त्रिपुटी जन्य ज्ञान की समाप्ति हो जाती है। श्रेणी:मनोविज्ञान.

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आध्यात्मिकता

हेलिक्स नेब्युला, कभी-कभी इसे "भगवान की आंख" कहा जाता है आध्यात्मिकता, मूर्तिपूजा शब्द के समान ही कई अलग मान्यताओं और पद्धतियों के लिए प्रयुक्त शब्द है, यद्यपि यह उन लोगों के साथ विश्वासों को साझा नहीं करती है जो मूर्तिपूजक हैं अथवा अनिवार्यतः आत्मा के अस्तित्व में विश्वास या अविश्वास से निर्मित नहीं है। आध्यात्मिकता की एक सामान्य परिभाषा यह हो सकती है कि यह ईश्वरीय उद्दीपन की अनुभूति प्राप्त करने का एक दृष्टिकोण है, जो धर्म से अलग है। आध्यात्मिकता को, ऐसी परिस्थितियों में अक्सर धर्म की अवधारणा के विरोध में रखा जाता है, जहां धर्म को संहिताबद्ध, प्रामाणिक, कठोर, दमनकारी, या स्थिर के रूप में ग्रहण किया जाता है, जबकि अध्यात्म एक विरोधी स्वर है, जो आम बोलचाल की भाषा में स्वयं आविष्कृत प्रथाओं या विश्वासों को दर्शाता है, अथवा उन प्रथाओं और विश्वासों को, जिन्हें बिना किसी औपचारिक निर्देशन के विकसित किया गया है। इसे एक अभौतिक वास्तविकता के अभिगम के रूप में उल्लिखित किया गया है; एक आंतरिक मार्ग जो एक व्यक्ति को उसके अस्तित्व के सार की खोज में सक्षम बनाता है; या फिर "गहनतम मूल्य और अर्थ जिसके साथ लोग जीते हैं।" आध्यात्मिक व्यवहार, जिसमें ध्यान, प्रार्थना और चिंतन शामिल हैं, एक व्यक्ति के आतंरिक जीवन के विकास के लिए अभिप्रेत है; ऐसे व्यवहार अक्सर एक बृहद सत्य से जुड़ने की अनुभूति में फलित होती है, जिससे अन्य व्यक्तियों या मानव समुदाय के साथ जुड़े एक व्यापक स्व की उत्पत्ति होती है; प्रकृति या ब्रह्मांड के साथ; या दैवीय प्रभुता के साथ.

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आनंदवाद

आनंदवाद उस विचारधारा का नाम है जिसमें आनंद को ही मानव जीवन का मूल लक्ष्य माना जाता है। विश्व की विचारधारा में आनंदवाद के दो रूप मिलते हैं। प्रथम विचार के अनुसार आनंद इस जीवन में मनुष्य का चरम लक्ष्य है और दूसरी धारा के अनुसार इस जीवन में कठोर नियमों का पालन करने पर ही भविष्य में मनुष्य को परम आनंद की प्राप्ति होती है। प्रथम धारा का प्रधान प्रतिपादक ग्रीक दार्शनिक एपिक्यूरस (341-270 ई.पू.) था। उसके अनुसार इस जीवन में आनंद की प्राप्ति सभी चाहते हैं। व्यक्ति जन्म से ही आनंद चाहता है और दु:ख से दूर रहना चाहता है। सभी आनंद अच्छे हैं, सभी दु:ख बुरे हैं। किंतु मनुष्य न तो सभी आनंदों का उपभोग कर सकता है और न सभी दु:खों से दूर रह सकता है। कभी आनंद के बाद दु:ख मिलता है और कभी दु:ख के बाद आनंद। जिस कष्ट के बाद 'आनंद' मिलता है वह कष्ट उस आनंद से अच्छा है जिसके बाद दु:ख मिलता है। अत: आनंद को चुनने में सावधानी की आवश्यकता है। आनंद के भी कई भेद होते हैं जिनमें मानसिक आनंद शारीरिक आनंद से श्रेष्ठ है। आदर्श रूप में वही आनंद सर्वोच्च है जिसमें दु:ख का लेश भी न हो, किंतु समाज और राज्य द्वारा निर्धारित नियमों की अवहेलना करके जो आनंद प्राप्त होता है वह दु:ख से भी बुरा है, क्योंकि मनुष्य को उस अवहेलना का दंड भोगना पड़ता है। सदाचारी और निरपराध व्यक्ति ही अपनी मनोवृत्ति को संयमित करके आचरण के द्वारा उच्च आनंद प्राप्त कर सकता है। इस दृष्टि एपिक्यूरस का आनंदवाद विषयोपभोग की शिक्षा नहीं देता, अपितु आनंदप्राप्ति के लिए सद्गुणों को अत्यावश्यक मानता है। एपिक्यूरस का यह मत कालांतर में हेय दृष्टि से देखा जाने लगा क्योंकि इसके माननेवाले सद्गुणों की उपेक्षा करके विषयोपभोग को ही प्रधानता देने लगे। आधुनिक पाश्चात्य दर्शन में जान लाक (1632-1704), डेविड ह्यूम (1711-1776), बेंथम (1739-1832) तथा जान स्टुअर्ट मिल (1806-1873) इस विचारधारा के प्रबल समर्थकों में से थे। मिल की उपयोगितावाद के अनुसार वह आनंद जिससे अधिक से अधिक लोगों का अधिक से अधिक लाभ हो, सर्वश्रेष्ठ है। केवल परिमाण के अनुसार ही नहीं, अपितु गुण के अनुसार भी आनंद के कई भेद हैं। मूर्ख और विद्वान्‌ के आनंद में गुणगत भेद है, परिमाणगत नहीं। पापी का आनंद सद्गुणी के आनंद से हीन है अत: लोगों को सद्गुणी बनकर सच्चा आनंद प्राप्त करना चाहिए। भारत में चार्वाक दर्शन ने परलोक, ईश्वर आदि का खंडन करते हुए इस संसार में ही उपलब्ध आनंद के पूर्ण उपभोग को प्राणिमात्र का कर्तव्य माना है। काम ही सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ है। सभी कर्तव्य काम की पूर्ति के लिए किए जाते हैं। वात्स्यायन ने धर्म और अर्थ को काम का सहायक माना है। इसका तात्पर्य यह है कि सामाजिक आचरणों के सामान्य नियमों (धर्म) का उल्लंघन करते हुए काम की तृप्ति करना ही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। दूसरी विचारधारा के अनुसार संसार के नश्वर पदार्थों के उपभोग से उत्पन्न आनंद नाश्वान्‌ है। अत: प्राणी को अविनाशी आनंद की खोज करनी चाहिए। इसके लिए हमें इस संसार का त्याग करना पड़े तो वह भी स्वीकार होगा। उपनिषदों में सर्वप्रथम इस विचारधारा का प्रतिपादन मिलता है। मनुष्य की इंद्रियों को प्रिय लगनेवाला आनंद (प्रेय) अंत में दु:ख देता है। इसलिए उस आनंद की खोज करनी चाहिए जिसका परिणाम कल्याणकारी हो (श्रेय)। आनंद का मूल आत्मा मानी गई है और आत्मा को आनंदरूप कहा गया है। विद्वान्‌ संसार में भटकने की अपेक्षा अपने आप में स्थित आनंद को ढूँढ़ते हैं। आनंदावस्था जीव की पूर्णता है। अपनी शुद्ध आत्मा को प्राप्त करने के बाद आनंद अपने आप प्राप्त हो जाता है। उपनिषदों के दर्शन को आधार मानकर चलनेवाले सभी धार्मिक और दार्शनिक संप्रदायों में आनंद को आत्मा की चरम अभिव्यक्ति माना गया है। शंकर, रामानुज, मध्व, वल्लभ, निंबार्क, चैतन्य और तांत्रिक संप्रदाय तथा अरविंद दर्शन किसी न रूप में आनंद को आत्मा की पूर्णता का रूप मानते हैं। बौद्ध दर्शन में संसार को दु:खमय माना गया है। दु:खमय संसार को त्यागकर निर्वाणपद प्राप्त करना प्रत्येक बौद्ध का लक्ष्य है। निर्वाणावस्था को आनंदावस्था और महासुख कहा गया है। जैन संप्रदाय में भी शरीर घोर कष्ष्ट देने के बाद नित्य 'ऊर्घ्व्गमन' करता हुआ असीम आनंदोपलब्धि करता है। पूर्वमीमांसा में सांसारिक आनंद को 'अनर्थ' कहकर तिरस्कृत किया गया है और उस धर्म के पालन का विधान है जो वेदों द्वारा विहित है और जिसका परिणाम आनंद है। अफ़लातून के अनुसार सद्गुणी जीवन पूर्णानंद का जीवन है, यद्यपि आनंद स्वयं व्यक्ति का ध्येय नहीं है। अरस्तू के अनुसार वे सभी कर्म जिनसे मनुष्य-मनुष्य बनता है, कर्तव्य के अंतर्गत आते हैं। इन्हीं कर्मों का परिणाम आनंद है। एडिमोनिज्म स्तोइक दर्शन में सांसारिक आनंद को आत्मा का रोग माना गया है। इस रोग से मुक्त रहकर सद्गुणों का निरपेक्ष भाव से सेवन करने पर आध्यात्मिक आनंद प्राप्त करना ही मनुष्य का सच्चा लक्ष्य है। नव्य अफ़लातूनी दर्शन में सांसारिक विषयों की अपेक्षा ईश्वर और जीव की अभेदावस्था से उत्पन्न आनंद को उच्च माना गया है। ईसाई दार्शनिक आगस्तिन (353-430) ने बड़े जोरदार शब्दों में ईश्वरसाक्षात्कार से उत्पन्न आनंद की तुलना में सांसारिक आनंद को मरे व्यक्ति का आनंद माना है। स्पिनोज़ा (1632-1677) ने कहा, "नित्य और अनंत तत्व के प्रति जो प्रेम उत्पन्न होता है वह ऐसा आनंद प्रदान करता है जिसमें दु:ख का लेश भी नहीं है।" इमानुएल कांट (1724-1804) का कहना है कि सर्वोत्तम श्रेय (गुड) इस संसार में नहीं प्राप्त हो सकता, क्योंकि यहाँ लोग अभाव और कामनाओं के शिकार होते हैं। आचार के अनुल्लंघनीय नियमों को (एथिकल इंपरेटिव) पहचानकर चलने पर मनुष्य अपनी इंद्रियों की भूख का दमन कर सकता है। मनुष्य की इच्छा स्वतंत्र है। उसका कुछ कर्तव्य है, अत: वह करता है। कर्तव्य-कर्तव्य के लिए है। कर्तव्य का अन्य कोई लक्ष्य नहीं है। निर्विकार भाव से कर्तव्यपथ पर चलनेवाले व्यक्ति को सच्चे आनंद की प्राप्ति होनी चाहिए, किंतु इस संसार में कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति को आनंद की प्राप्ति आवश्यक नहीं है। अत: कांट के अनुसार भी वास्तविक आनंद सांसारिक नहीं, कर्तव्यपालन से उत्पन्न पारमार्थिक आनंद ही पूर्ण आनंद है। .

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आकस्मिकवाद

आकस्मिकवाद (accidentalism) दार्शनिक मत; घटनाओं के अकारण घटित होने का सिद्धांत। यूनान के महान दार्शनिक प्लेटो ने इसका प्रतिपादन किया। सीमाविशेष तक अरस्तू भी इसके समर्थक थे। संसार की गतिविधि के संचालन में अनेक आकस्मिक संयोगों का विशेष महत्व है। अत: इत मत को आकस्मिकवाद कहा गया। पाश्चात्य देशों में वैज्ञानिक विवेचन का प्राधान्य होने पर इस विचारधारा की मान्यता नहीं रही। उत्तरकालीन यूनानी दार्शनिकों ने भी "विधि" और "कारण" को प्रधानता देकर आकस्मिकवाद के सिद्धांत को अस्वीकार किया। बौद्ध धर्म के व्यापक प्रसार के पूर्व भारत में आकस्मिकवाद की दार्शनिक मान्यता "यदृच्छावाद" के रूप में थी। ब्रह्मांड की संरचना और संचालन "आकस्मिकता" तथा "अकारणत्व" को कारण माना गया। सांख्य दर्शन में सूक्ष्म, अज्ञात और आकस्मिक तत्व को कार्य का प्रेरक बताया गया। भारतीय दर्शन में "आकस्मिकता" की "स्वेच्छा" तथा "अनवरतता" के रूप में भी मान्यता रही है। "आकस्मिकवाद" स्पष्टत: मानता है कि सृष्टि की सभी घटनाएँ तथा समस्त कार्य अकारण और संयोगवश संपन्न हो रहे हैं। इस मत के आलोचकों का कथन है कि "कारण" का सूक्ष्म स्वरूप ज्ञात न होने पर उसे भ्रमवश "आकस्मिक" और "संयोगबद्ध" कहना युक्तिसंगत नहीं है। अपने ज्ञान, कल्पना और साधनों के सीमित और असमर्थ होने के कारण ही हमें कार्य, घटना अथवा रचना के "कारण" का बोध नहीं हो पाता और इस स्थिति को "आकस्मिक" कह दिया जाता है। संप्रति "आकस्मिकवाद" वैज्ञानिक चिंतनविधि के कारण मान्य नहीं है। नीतिशास्त्रीय चिंतन में "आकस्मिकवाद" इस तथ्य का प्रतिपादन करता है कि मानसिक परिवर्तन आकस्मिक और अकारण भी होते हैं, तथा पूर्वनिश्चित कारणों एवं प्रेरक तत्वों के अभाव में भी स्वेच्छया संचालित मानसिक व्यापार स्वत: गतिशील रहते हैं; चित्रकला में "आकस्मिकवाद" प्रकाश के आकस्मिक प्रभावों के विवेचन से संबंधित हैं। श्रेणी:दर्शन श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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इमानुएल काण्ट

इमानुएल कांट (1724-1804) जर्मन वैज्ञानिक, नीतिशास्त्री एवं दार्शनिक थे। उसका वैज्ञानिक मत "कांट-लाप्लास परिकल्पना" (हाइपॉथेसिस) के नाम से विख्यात है। उक्त परिकल्पना के अनुसार संतप्त वाष्पराशि नेबुला से सौरमंडल उत्पन्न हुआ। कांट का नैतिक मत "नैतिक शुद्धता" (मॉरल प्योरिज्म) का सिद्धांत, "कर्तव्य के लिए कर्तव्य" का सिद्धांत अथवा "कठोरतावाद" (रिगॉरिज्म) कहा जाता है। उसका दार्शनिक मत "आलोचनात्मक दर्शन" (क्रिटिकल फ़िलॉसफ़ी) के नाम से प्रसिद्ध है। इमानुएल कांट अपने इस प्रचार से प्रसिद्ध हुये कि मनुष्य को ऐसे कर्म और कथन करने चाहियें जो अगर सभी करें तो वे मनुष्यता के लिये अच्छे हों। .

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कला

राजा रवि वर्मा द्वारा चित्रित 'गोपिका' कला (आर्ट) शब्द इतना व्यापक है कि विभिन्न विद्वानों की परिभाषाएँ केवल एक विशेष पक्ष को छूकर रह जाती हैं। कला का अर्थ अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है, यद्यपि इसकी हजारों परिभाषाएँ की गयी हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार कला उन सारी क्रियाओं को कहते हैं जिनमें कौशल अपेक्षित हो। यूरोपीय शास्त्रियों ने भी कला में कौशल को महत्त्वपूर्ण माना है। कला एक प्रकार का कृत्रिम निर्माण है जिसमे शारीरिक और मानसिक कौशलों का प्रयोग होता है। .

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काव्यशास्त्र

काव्यशास्त्र काव्य और साहित्य का दर्शन तथा विज्ञान है। यह काव्यकृतियों के विश्लेषण के आधार पर समय-समय पर उद्भावित सिद्धांतों की ज्ञानराशि है। युगानुरूप परिस्थितियों के अनुसार काव्य और साहित्य का कथ्य और शिल्प बदलता रहता है; फलत: काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों में भी निरंतर परिवर्तन होता रहा है। भारत में भरत के सिद्धांतों से लेकर आज तक और पश्चिम में सुकरात और उसके शिष्य प्लेटो से लेकर अद्यतन "नवआलोचना' (नियो-क्रिटिसिज्म़) तक के सिद्धांतों के ऐतिहासिक अनुशीलन से यह बात साफ हो जाती है। भारत में काव्य नाटकादि कृतियों को 'लक्ष्य ग्रंथ' तथा सैद्धांतिक ग्रंथों को 'लक्षण ग्रंथ' कहा जाता है। ये लक्षण ग्रंथ सदा लक्ष्य ग्रंथ के पश्चाद्भावनी तथा अनुगामी है और महान्‌ कवि इनकी लीक को चुनौती देते देखे जाते हैं। काव्यशास्त्र के लिए पुराने नाम 'साहित्यशास्त्र' तथा 'अलंकारशास्त्र' हैं और साहित्य के व्यापक रचनात्मक वाङमय को समेटने पर इसे 'समीक्षाशास्त्र' भी कहा जाने लगा। मूलत: काव्यशास्त्रीय चिंतन शब्दकाव्य (महाकाव्य एवं मुक्तक) तथा दृश्यकाव्य (नाटक) के ही सम्बंध में सिद्धांत स्थिर करता देखा जाता है। अरस्तू के "पोयटिक्स" में कामेडी, ट्रैजेडी, तथा एपिक की समीक्षात्मक कसौटी का आकलन है और भरत का नाट्यशास्त्र केवल रूपक या दृश्यकाव्य की ही समीक्षा के सिद्धांत प्रस्तुत करता है। भारत और पश्चिम में यह चिंतन ई.पू.

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कुलीनतावाद

कुलीनतावाद राजनीति विज्ञान की वह विचारधारा है जिसमें कुलीन तंत्र की श्रेष्ठता को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की जाती है। प्लेटो एवं अरस्तू, को कुलीनतावाद का उन्नायक विचारक माना जाता है। इस सिद्धांत के अंतर्गत वंश, कुल तथा प्रजाति को आभिजात्य का प्रतिमान माना जाता है। सामान्यतः एक अल्पसंख्यक विशेषाधिकृत वर्ग को ही शासन सत्ता के परिचालन के योग्य माना जाता है। .

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कृष्णराज वोडेयार चतुर्थ

कृष्ण राज वाडियार चतुर्थ (4 जून 1884 - 3 अगस्त 1940 ನಾಲ್ವಡಿ ಕೃಷ್ಣರಾಜ ಒಡೆಯರು बेंगलोर पैलेस), नलवडी कृष्ण राज वाडियार ನಾಲ್ವಡಿ ಕೃಷ್ಣರಾಜ ಒಡೆಯರು के नाम से भी लोकप्रिय थे, वे 1902 से लेकर 1940 में अपनी मृत्यु तक राजसी शहर मैसूर के सत्तारूढ़ महाराजा थे। जब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था तब भी वे भारतीय राज्यों के यशस्वी शासकों में गिने जाते थे। अपनी मौत के समय, वे विश्व के सर्वाधिक धनी लोगों में गिने जाते थे, जिनके पास 1940 में $400 अरब डॉलर की व्यक्तिगत संपत्ति थी जो 2010 की कीमतों के अनुसार $56 बिलियन डॉलर के बराबर होगी.

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अधिकार

अधिकार, किसी वस्तु को प्राप्त करने या किसी कार्य को संपादित करने के लिए उपलब्ध कराया गया किसी व्यक्ति की कानूनसम्मत या संविदासम्मत सुविधा, दावा या विशेषाधिकार है। कानून द्वारा प्रदत्त सुविधाएँ अधिकारों की रक्षा करती हैं। दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे के बिना संभव नहीं। जहाँ कानून अधिकारों को मान्यता देता है वहाँ इन्हें लागू करने या इनकी अवहेलना पर नियंत्रण स्थापित करने की व्यवस्था भी करता है। .

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अनुकरण

यहाँ 'अनुकरण' शब्द यूनानी (ग्रीक) भाषा के ‘मिमेसिस’ (Mimesis) के पर्याय रूप में प्रयुक्त हुआ है। ‘मिमेसिस’ का अंग्रेजी अनुवाद है - ‘इमिटेशन’ (imitation) किन्तु ‘इमिटेशन’ से ‘मिमेसिस’ का पूरा अर्थ व्यक्त नहीं होता, क्योंकि यूनानी भाषा के बहुत सारे शब्दों की अर्थवत्ता या अर्थछटा अंग्रेजी में यथावत् व्यक्त नहीं हो पाती। हिन्दी में ‘अनुकरण’ अंग्रेजी के ‘इमिटेशन’ शब्द से रूपान्तर होकर आया है। अनुकरण का सामान्य अर्थ है- नकल या प्रतिलिपि या प्रतिछाया, जबकि वर्तमान सन्दर्भ में उसका मान्य अर्थ है- ‘‘अभ्यास के लिए लेखकों और कवियों को उपलब्ध उत्कृष्ट रचनाओं का अध्ययन एवं अनुसरण करना।’’ यूनानी भाषा में कला के प्रसंग में अनुकरण का व्यवहार अरस्तू का मौलिक प्रयोग नहीं है। अरस्तू से पूर्व प्लेटो ने अनुकरण का प्रतिपादन कविता को हेय तथा हानिकारक सिद्ध करने के हेतु किया था। .

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अभिजाततंत्र

अभिजाततंत्र (अरिस्टॉक्रैसी) वह शासनतंत्र है जिसमें राजनीतिक सत्ता अभिजन के हाथ में हो। इस संदर्भ में "अभिजन" का अर्थ है कुलीन, विद्वान, सद्गुणी, उत्कृष्ट। पश्चिम में "अरिस्टॉक्रैसी" का अर्थ भी लगभग यही है। अफ़लातून (प्लेटो) और उसके शिष्य अरस्तू ने अपनी पुस्तकों में अरिस्टाक्रैसी को बुद्धिमान, सद्गुणी व्यक्तियों का शासनतंत्र माना है। .

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अरस्तु

अरस्तु अरस्तु (384 ईपू – 322 ईपू) यूनानी दार्शनिक थे। वे प्लेटो के शिष्य व सिकंदर के गुरु थे। उनका जन्म स्टेगेरिया नामक नगर में हुआ था ।  अरस्तु ने भौतिकी, आध्यात्म, कविता, नाटक, संगीत, तर्कशास्त्र, राजनीति शास्त्र, नीतिशास्त्र, जीव विज्ञान सहित कई विषयों पर रचना की। अरस्तु ने अपने गुरु प्लेटो के कार्य को आगे बढ़ाया। प्लेटो, सुकरात और अरस्तु पश्चिमी दर्शनशास्त्र के सबसे महान दार्शनिकों में एक थे।  उन्होंने पश्चिमी दर्शनशास्त्र पर पहली व्यापक रचना की, जिसमें नीति, तर्क, विज्ञान, राजनीति और आध्यात्म का मेलजोल था।  भौतिक विज्ञान पर अरस्तु के विचार ने मध्ययुगीन शिक्षा पर व्यापक प्रभाव डाला और इसका प्रभाव पुनर्जागरण पर भी पड़ा।  अंतिम रूप से न्यूटन के भौतिकवाद ने इसकी जगह ले लिया। जीव विज्ञान उनके कुछ संकल्पनाओं की पुष्टि उन्नीसवीं सदी में हुई।  उनके तर्कशास्त्र आज भी प्रासांगिक हैं।  उनकी आध्यात्मिक रचनाओं ने मध्ययुग में इस्लामिक और यहूदी विचारधारा को प्रभावित किया और वे आज भी क्रिश्चियन, खासकर रोमन कैथोलिक चर्च को प्रभावित कर रही हैं।  उनके दर्शन आज भी उच्च कक्षाओं में पढ़ाये जाते हैं।  अरस्तु ने अनेक रचनाएं की थी, जिसमें कई नष्ट हो गई। अरस्तु का राजनीति पर प्रसिद्ध ग्रंथ पोलिटिक्स है। .

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अरस्तु का विरेचन सिद्धांत

विरेचन सिद्धांत (Catharsis / कैथार्सिस) द्वारा अरस्तु ने प्रतिपादित किया कि कला और साहित्य के द्वारा हमारे दूषित मनोविकारों का उचित रूप से विरेचन हो जाता है। सफल त्रासदी विरेचन द्वारा करुणा और त्रास के भावों को उद्बुद करती है, उनका सामंजन करती है और इस प्रकार आनंद की भूमिका प्रस्तुत करती है। विरेचन से भावात्मक विश्रांति ही नहीं होती, भावात्मक परिष्कार भी होता है। इस तरह अरस्तु ने कला और काव्य को प्रशंसनीय, ग्राह्य और सायास रक्षनीय सिद्ध किया है। अरस्तु ने इस सिद्धांत के द्वारा कला और काव्य की महत्ता को पुनर्प्रतिष्ठित करने का सफल प्रयास किया। अरस्तु के गुरु प्लेटो ने कवियों और कलाकारों को अपने आदर्श राज्य के बाहर रखने की सिफारिश की थी। उनका मानना था कि काव्य हमारी वासनाओं को पोषित करने और भड़काने में सहायक है इसलिए निंदनीय और त्याज्य है। धार्मिक और उच्च कोटि का नैतिक साहित्य इसका अपवाद है किंतु अधिकांश साहित्य इस आदर्श श्रेणी में नहीं आता है। विरेचन सिद्धान्त का महत्त्व बहुविध है। प्रथम तो यह है कि उसने प्लेटो द्वारा काव्य पर लगाए गए आक्षेप का निराकरण किया और दूसरा यह कि उसने गत कितने ही वर्षों के काव्यशास्त्रीय चिन्तन को किसी-न-किसी रूप में अवश्य ही प्रभावित किया। .

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अरस्तु का अनुकरण सिद्धांत

अरस्तु का अनुकरण सिद्धांत एक स्तर पर प्लेटो का अनुकरण सिद्धांत की प्रतिक्रिया है और दूसरे स्तर पर उसका विकास भी। महान दार्शनिक प्लेटो ने कला और काव्य को सत्य से तिहरी दूरी पर कहकर उसका महत्व बहुत कम कर दिया था। उसके शिष्य अरस्तु ने अनुकरण में पुनर्रचना का समावेश किया। उनके अनुसार अनुकरण हूबहू नकल नहीं है बल्कि पुनः प्रस्तुतिकरण है जिसमें पुनर्रचना भी शामिल होती है। अनुकरण के द्वारा कलाकार सार्वभौम को पहचानकर उसे सरल तथा इन्द्रीय रूप से पुनः रूपागत करने का प्रयत्न करता है। कवि प्रतियमान संभाव्य अथवा आदर्श तीनों में से किसी का भी अनुकरण करने के लिये स्वतंत्र है। वह संवेदना, ज्ञान, कल्पना, आदर्श आदि द्वारा अपूर्ण को पूर्ण बनाता है। .

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अल्मागेस्ट

ज्यामितीय निर्माण का प्रयोग हिप्पारकस ने सूर्य से चंद्रमा की दूरी के अपने निर्धारण में किया था। अल्मागेस्ट, सितारों और ग्रहीय पथों की प्रत्यक्ष गतियों पर दूसरी सदीं का एक गणितीय और खगोलीय ग्रंथ है | मिस्र के रोमन युग के एक विद्वान, क्लोडिअस टॉलेमी द्वारा यूनानी में लिखा गया, यह सभी समय के सबसे प्रभावशाली वैज्ञानिक ग्रंथों में से एक है | यह भूकेन्द्रीय मॉडल के साथ, हेलेनिस्टिक सिकन्दरिया में अपने मूल से, मध्ययुगीन बीजान्टिन और इस्लामी दुनिया में, मध्य युगों से होकर पश्चिमी यूरोप में और अंततः कोपर्निकस तक, बारह सौ वर्षों से अधिक के लिए स्वीकार किया गया | अल्मागेस्ट, प्राचीन यूनानी खगोल विज्ञान पर जानकारी का एक महत्वपूर्ण स्रोत है | यह गणित के छात्रों के लिए भी मूल्यवान कर दिया गया है क्योंकि यह प्राचीन यूनानी गणितज्ञ हिप्पारकस के कार्य का प्रमाण प्रस्तुत करता है, जो कि खो गया है | हिप्पारकस ने त्रिकोणमिति के बारे में लिखा था, परन्तु चूँकि उनका कार्य अधिक समय के लिए विद्यमान नहीं रहा, गणितज्ञ टॉलेमी की पुस्तक का उपयोग सामान्य रूप में हिप्पारकस के कार्य और प्राचीन यूनानी त्रिकोणमिति के लिए एक स्रोत के रूप में करते है | ग्रंथ का पारंपरिक यूनानी शीर्षक Μαθηματικὴ Σύνταξις (Mathēmatikē Syntaxis (गणितीय वाक्यविन्यास)) है और यह ग्रंथ लैटिन रूप, सैंटेक्सीस मेथेमेटिका द्वारा भी जाना जाता है | बाद में इसका शीर्षक Hē Megalē Syntaxis (एक महान ग्रंथ) था और इसका एक श्रेष्ठतम प्रपत्र (प्राचीन यूनानी: μεγίστη, "सबसे बड़ा"), अरबी नाम al-majisṭī (المجسطي) के पीछे निहित है, जिनमें से अंग्रेजी नाम अल्मागेस्ट व्युत्पन्न हुआ | टॉलेमी ने सन् १४७ या १४८ में, केनोपस, मिस्र में एक सार्वजनिक शिलालेख तैयार किया | .

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अकादमी

राफेल (1509–1510), द्वारा चित्रित 'एथेंस का स्कूल' अकादमी, मूलतः प्राचीन यूनान में एथेंस नगर में स्थित एक स्थानीय वीर 'अकादेमस' के व्यक्तिगत उद्यान का नाम था। कालांतर में यह वहाँ के नागरिकों को जनोद्यान के रूप में भेंट कर दिया गया था और उनेक लिए खेल, व्यायाम, शिक्षा और चिकित्सा का केंद्र बन गया था। प्रसिद्ध दार्शनिक अफलातून (प्लेटो) ने इसी जनोद्यान में एथेंस के प्रथम दर्शन विद्यापीठ की स्थापना की। आगे चलकर इस विद्यापीठ को ही अकादमी कहा जाने लगा। एथेंस की यह एक ही ऐसी संस्था थी जिसमें नगरवासियों के अतिरिक्त बाहर के लोग भी सम्मिलित हो सकते थे। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

अफलातून, अफ़लातून, अफ़्लातून

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