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जहाँगीर

सूची जहाँगीर

अकबर के तीन लड़के थे। सलीम, मुराद और दानियाल (मुग़ल परिवार)। मुराद और दानियाल पिता के जीवन में शराब पीने की वजह से मर चुके थे। सलीम अकबर की मृत्यु पर नुरुद्दीन मोहम्मद जहांगीर के उपनाम से तख्त नशीन हुआ। १६०५ ई. में कई उपयोगी सुधार लागू किए। कान और नाक और हाथ आदि काटने की सजा रद्द कीं। शराब और अन्य नशा हमलावर वस्तुओं का हकमा बंद। कई अवैध महसूलात हटा दिए। प्रमुख दिनों में जानवरों का ज़बीहह बंद.

93 संबंधों: चिकन की कढ़ाई, चीता, दीपावली, नूर जहाँ, पटना, पटना के पर्यटन स्थल, पठान, पर्चिनकारी, पंजाब का इतिहास, पुंछ, प्रयाग प्रशस्ति, फरीदाबाद, फ़र्रुख़ सियर, फ़ारसी साहित्य, बन्दी छोड़ दिवस, बर्धमान जिला, बहादुर शाह ज़फ़र, बाबर, बिहार का मध्यकालीन इतिहास, बुरहानपुर, बुंदेलखंड के शासक, भारतीय चित्रकला, भारतीय व्यक्तित्व, भूदृश्य वास्तुकला, मतिराम, मध्यकालीन भारत, मरियम उज़-ज़मानी, मलिक अंबर, महाबत खां, महावत खाँ, मंसबदारी, मुमताज़ महल, मुराद चतुर्थ, मुहम्मद शाह (मुगल), मुगल रामायण, मुग़ल शासकों की सूची, मुग़ल साम्राज्य, मेवाड़, रफी उद-दर्जत, रफी उद-दौलत, राजपुताना, राजस्थान की झीलें, राजा बरी, राजा विक्रमाजीत राय रायन, राजा गिरधरदास खण्डेला, रवि भाटिया, रूज़ा शरीफ, लाहौर, शालीमार बाग (श्रीनगर), शाह जहाँ, ..., शाह आलम द्वितीय, शाहजहां तृतीय, श्रीनगर, जम्मू और कश्मीर, शेर शाह सूरी, सलीम, सालिहा बानो बेगम, सावर्ण रायचौधुरी परिवार, संत बखना, सुहेलदेव, हुमायूँ, हुमायूँ का मकबरा, होली, जहाँगीर का मकबरा, जहांदार शाह, जगत गोसाई, जुझारसिंह बुन्देला, जोधा बाई, ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा के यूनियन परिषदों की सूची, खूनी दरवाजा, गंग कवि, गुरु अर्जुन देव, गुलाब, ओड़िशा का इतिहास, औरंगज़ेब, आना सागर झील, आलमगीर द्वितीय, आगरा का किला, इस्लाम शाह सूरी, कंपनी राज, कृष्ण जन्म भूमि, कृष्णदैवज्ञ, अहमद शाह बहादुर, अकबर, अकबरी सराय, उसमान (सूफ़ी कवि), उस्ताद अहमद लाहौरी, १६०५, १६१४, १७ दिसम्बर, २४ अक्टूबर, २६ जुलाई, २८ अक्तूबर, ६ अप्रैल सूचकांक विस्तार (43 अधिक) »

चिकन की कढ़ाई

सूती कुर्ते के उपर चिकन का काम चिकन लखनऊ की प्रसिद्ध शैली है कढाई और कशीदा कारी की। यह लखनऊ की कशीदाकारी का उत्कृष्ट नमूना है और लखनवी ज़रदोज़ी यहाँ का लघु उद्योग है जो कुर्ते और साड़ियों जैसे कपड़ों पर अपनी कलाकारी की छाप चढाते हैं। इस उद्योग का ज़्यादातर हिस्सा पुराने लखनऊ के चौक इलाके में फैला हुआ है। यहां के बाज़ार चिकन कशीदाकारी के दुकानों से भरे हुए हैं। मुर्रे, जाली, बखिया, टेप्ची, टप्पा आदि ३६ प्रकार के चिकन की शैलियां होती हैं। इसके माहिर एवं प्रसिद्ध कारीगरों में उस्ताद फ़याज़ खां और हसन मिर्ज़ा साहिब थे। इस हस्तशिल्प उद्योग का एक खास पहलू यह भी है कि उसमें 95 फीसदी महिलाएं हैं। ज्यादातर महिलाएं लखनऊ में गोमती नदी के पार के पुराने इलाकों में बसी हुई हैं। चिकन की कला, अब लखनऊ शहर तक ही सीमित नहीं है अपितु लखनऊ तथा आसपास के अंचलों के गांव-गांव तक फैल गई है। मुगलकाल से शुरू हुआ चिकनकारी का शानदार सफर सैंकड़ों देशों से होता हुआ आज भी बदस्तूर जारी है। चिकनकारी का एक खूबसूरत आर्ट पीस लंदन के रायल अल्बर्ट म्यूजियम में भी विश्वभर के पर्यटकों को अपनी गाथा सुना रहा है। .

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चीता

बिल्ली के कुल (विडाल) में आने वाला चीता (एसीनोनिक्स जुबेटस) अपनी अदभुत फूर्ती और रफ्तार के लिए पहचाना जाता है। यह एसीनोनिक्स प्रजाति के अंतर्गत रहने वाला एकमात्र जीवित सदस्य है, जो कि अपने पंजों की बनावट के रूपांतरण के कारण पहचाने जाते हैं। इसी कारण, यह इकलौता विडाल वंशी है जिसके पंजे बंद नहीं होते हैं और जिसकी वजह से इसकी पकड़ कमज़ोर रहती है (अतः वृक्षों में नहीं चढ़ सकता है हालांकि अपनी फुर्ती के कारण नीची टहनियों में चला जाता है)। ज़मीन पर रहने वाला ये सबसे तेज़ जानवर है जो एक छोटी सी छलांग में १२० कि॰मी॰ प्रति घंटे ऑलदो एकोर्डिंग टू चीता, ल्यूक हंटर और डेव हम्मन (स्ट्रुइक प्रकाशक, 2003), pp.

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दीपावली

दीपावली या दीवाली अर्थात "रोशनी का त्योहार" शरद ऋतु (उत्तरी गोलार्द्ध) में हर वर्ष मनाया जाने वाला एक प्राचीन हिंदू त्योहार है।The New Oxford Dictionary of English (1998) ISBN 0-19-861263-X – p.540 "Diwali /dɪwɑːli/ (also Divali) noun a Hindu festival with lights...". दीवाली भारत के सबसे बड़े और प्रतिभाशाली त्योहारों में से एक है। यह त्योहार आध्यात्मिक रूप से अंधकार पर प्रकाश की विजय को दर्शाता है।Jean Mead, How and why Do Hindus Celebrate Divali?, ISBN 978-0-237-534-127 भारतवर्ष में मनाए जाने वाले सभी त्यौहारों में दीपावली का सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’ यह उपनिषदों की आज्ञा है। इसे सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं। जैन धर्म के लोग इसे महावीर के मोक्ष दिवस के रूप में मनाते हैं तथा सिख समुदाय इसे बन्दी छोड़ दिवस के रूप में मनाता है। माना जाता है कि दीपावली के दिन अयोध्या के राजा राम अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात लौटे थे। अयोध्यावासियों का ह्रदय अपने परम प्रिय राजा के आगमन से प्रफुल्लित हो उठा था। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीपक जलाए। कार्तिक मास की सघन काली अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी। तब से आज तक भारतीय प्रति वर्ष यह प्रकाश-पर्व हर्ष व उल्लास से मनाते हैं। यह पर्व अधिकतर ग्रिगेरियन कैलन्डर के अनुसार अक्टूबर या नवंबर महीने में पड़ता है। दीपावली दीपों का त्योहार है। भारतीयों का विश्वास है कि सत्य की सदा जीत होती है झूठ का नाश होता है। दीवाली यही चरितार्थ करती है- असतो माऽ सद्गमय, तमसो माऽ ज्योतिर्गमय। दीपावली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व है। कई सप्ताह पूर्व ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती हैं। लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई का कार्य आरंभ कर देते हैं। घरों में मरम्मत, रंग-रोगन, सफ़ेदी आदि का कार्य होने लगता है। लोग दुकानों को भी साफ़ सुथरा कर सजाते हैं। बाज़ारों में गलियों को भी सुनहरी झंडियों से सजाया जाता है। दीपावली से पहले ही घर-मोहल्ले, बाज़ार सब साफ-सुथरे व सजे-धजे नज़र आते हैं। दीवाली नेपाल, भारत, श्रीलंका, म्यांमार, मारीशस, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, सूरीनाम, मलेशिया, सिंगापुर, फिजी, पाकिस्तान और ऑस्ट्रेलिया की बाहरी सीमा पर क्रिसमस द्वीप पर एक सरकारी अवकाश है। .

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नूर जहाँ

सत्रह वर्ष की अवस्था में मेहरुन्निसा का विवाह 'अलीकुली' नामक एक साहसी ईरानी नवयुवक से हुआ था, जिसे जहाँगीर के राज्य काल के प्रारम्भ में शेर अफ़ग़ान की उपाधि और बर्दवान की जागीर दी गई थी। 1607 ई. में जहाँगीर के दूतों ने शेर अफ़ग़ान को एक युद्ध में मार डाला। मेहरुन्निसा को पकड़ कर दिल्ली लाया गया और उसे बादशाह के शाही हरम में भेज दिया गया। यहाँ वह बादशाह अकबर की विधवा रानी 'सलीमा बेगम' की परिचारिका बनी। मेहरुन्निसा को जहाँगीर ने सर्वप्रथम नौरोज़ त्यौहार के अवसर पर देखा और उसके सौन्दर्य पर मुग्ध होकर जहाँगीर ने मई, 1611 ई. में उससे विवाह कर लिया। विवाह के पश्चात् जहाँगीर ने उसे ‘नूरमहल’ एवं ‘नूरजहाँ’ की उपाधि प्रदान की। 1613 ई. में नूरजहाँ को ‘पट्टमहिषी’ या ‘बादशाह बेगम’ बनाया गय.

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पटना

पटना (पटनम्) या पाटलिपुत्र भारत के बिहार राज्य की राजधानी एवं सबसे बड़ा नगर है। पटना का प्राचीन नाम पाटलिपुत्र था। आधुनिक पटना दुनिया के गिने-चुने उन विशेष प्राचीन नगरों में से एक है जो अति प्राचीन काल से आज तक आबाद है। अपने आप में इस शहर का ऐतिहासिक महत्व है। ईसा पूर्व मेगास्थनीज(350 ईपू-290 ईपू) ने अपने भारत भ्रमण के पश्चात लिखी अपनी पुस्तक इंडिका में इस नगर का उल्लेख किया है। पलिबोथ्रा (पाटलिपुत्र) जो गंगा और अरेन्नोवास (सोनभद्र-हिरण्यवाह) के संगम पर बसा था। उस पुस्तक के आकलनों के हिसाब से प्राचीन पटना (पलिबोथा) 9 मील (14.5 कि॰मी॰) लम्बा तथा 1.75 मील (2.8 कि॰मी॰) चौड़ा था। पटना बिहार राज्य की राजधानी है और गंगा नदी के दक्षिणी किनारे पर अवस्थित है। जहां पर गंगा घाघरा, सोन और गंडक जैसी सहायक नदियों से मिलती है। सोलह लाख (2011 की जनगणना के अनुसार 1,683,200) से भी अधिक आबादी वाला यह शहर, लगभग 15 कि॰मी॰ लम्बा और 7 कि॰मी॰ चौड़ा है। प्राचीन बौद्ध और जैन तीर्थस्थल वैशाली, राजगीर या राजगृह, नालन्दा, बोधगया और पावापुरी पटना शहर के आस पास ही अवस्थित हैं। पटना सिक्खों के लिये एक अत्यंत ही पवित्र स्थल है। सिक्खों के १०वें तथा अंतिम गुरु गुरू गोबिंद सिंह का जन्म पटना में हीं हुआ था। प्रति वर्ष देश-विदेश से लाखों सिक्ख श्रद्धालु पटना में हरमंदिर साहब के दर्शन करने आते हैं तथा मत्था टेकते हैं। पटना एवं इसके आसपास के प्राचीन भग्नावशेष/खंडहर नगर के ऐतिहासिक गौरव के मौन गवाह हैं तथा नगर की प्राचीन गरिमा को आज भी प्रदर्शित करते हैं। एतिहासिक और प्रशासनिक महत्व के अतिरिक्त, पटना शिक्षा और चिकित्सा का भी एक प्रमुख केंद्र है। दीवालों से घिरा नगर का पुराना क्षेत्र, जिसे पटना सिटी के नाम से जाना जाता है, एक प्रमुख वाणिज्यिक केन्द्र है। .

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पटना के पर्यटन स्थल

वर्तमान बिहार राज्य की राजधानी पटना को ३००० वर्ष से लेकर अबतक भारत का गौरवशाली शहर होने का दर्जा प्राप्त है। यह प्राचीन नगर पवित्र गंगानदी के किनारे सोन और गंडक के संगम पर लंबी पट्टी के रूप में बसा हुआ है। इस शहर को ऐतिहासिक इमारतों के लिए भी जाना जाता है। पटना का इतिहास पाटलीपुत्र के नाम से छठी सदी ईसापूर्व में शुरू होता है। तीसरी सदी ईसापूर्व में पटना शक्तिशाली मगध राज्य की राजधानी बना। अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक, चंद्रगुप्त द्वितीय, समुद्रगुप्त यहाँ के महान शासक हुए। सम्राट अशोक के शासनकाल को भारत के इतिहास में अद्वितीय स्‍थान प्राप्‍त है। पटना एक ओर जहाँ शक्तिशाली राजवंशों के लिए जाना जाता है, वहीं दूसरी ओर ज्ञान और अध्‍यात्‍म के कारण भी यह काफी लोकप्रिय रहा है। यह शहर कई प्रबुद्ध यात्रियों जैसे मेगास्थनिज, फाह्यान, ह्वेनसांग के आगमन का भी साक्षी है। महानतम कूटनीतिज्ञ कौटिल्‍यने अर्थशास्‍त्र तथा विष्णुशर्मा ने पंचतंत्र की यहीं पर रचना की थी। वाणिज्यिक रूप से भी यह मौर्य-गुप्तकाल, मुगलों तथा अंग्रेजों के समय बिहार का एक प्रमुख शहर रहा है। बंगाल विभाजन के बाद 1912 में पटना संयुक्त बिहार-उड़ीसा तथा आजादी मिलने के बाद बिहार राज्‍य की राजधानी बना। शहर का बसाव को ऐतिहासिक क्रम के अनुसार तीन खंडों में बाँटा जा सकता है- मध्य-पूर्व भाग में कुम्रहार के आसपास मौर्य-गुप्त सम्राटाँ का महल, पूर्वी भाग में पटना सिटी के आसपास शेरशाह तथा मुगलों के काल का नगरक्षेत्र तथा बाँकीपुर और उसके पश्चिम में ब्रतानी हुकूमत के दौरान बसायी गयी नई राजधानी। पटना का भारतीय पर्यटन मानचित्र पर प्रमुख स्‍थान है। महात्‍मा गाँधी सेतु पटना को उत्तर बिहार तथा नेपाल के अन्‍य पर्यटन स्‍थल को सड़क माध्‍यम से जोड़ता है। पटना से चूँकि वैशाली, राजगीर, नालंदा, बोधगया, पावापुरी और वाराणसी के लिए मार्ग जाता है, इसलिए यह शहर हिंदू, बौद्ध और जैन धर्मावलंबियों के लिए पर्यटन गेटवे' के रूप में भी जाना जाता है। ईसाई धर्मावलंबियों के लिए भी पटना अतिमहत्वपूर्ण है। पटना सिटी में हरमंदिर, पादरी की हवेली, शेरशाह की मस्जिद, जलान म्यूजियम, अगमकुँआ, पटनदेवी; मध्यभाग में कुम्‍हरार परिसर, पत्थर की मस्जिद, गोलघर, पटना संग्रहालय तथा पश्चिमी भाग में जैविक उद्यान, सदाकत आश्रम आदि यहां के प्रमुख दर्शनीय स्‍थल हैं। मुख्य पर्यटन स्थलों इस प्रकार हैं: .

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पठान

अफ़्ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के नक़्शे में पश्तून क्षेत्र (नारंगी रंग में) ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान एक पश्तून थे अफ़्ग़ानिस्तान के ख़ोस्त प्रान्त में पश्तून बच्चे अमीर शेर अली ख़ान अपने पुत्र राजकुमार अब्दुल्लाह जान और सरदारों के साथ (सन् १८६९ ई में खींची गई) पश्तून, पख़्तून (पश्तो:, पश्ताना) या पठान (उर्दू) दक्षिण एशिया में बसने वाली एक लोक-जाति है। वे मुख्य रूप में अफ़्ग़ानिस्तान में हिन्दु कुश पर्वतों और पाकिस्तान में सिन्धु नदी के दरमियानी क्षेत्र में रहते हैं हालांकि पश्तून समुदाय अफ़्ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और भारत के अन्य क्षेत्रों में भी रहते हैं। पश्तूनों की पहचान में पश्तो भाषा, पश्तूनवाली मर्यादा का पालन और किसी ज्ञात पश्तून क़बीले की सदस्यता शामिल हैं।, James William Spain, Mouton,...

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पर्चिनकारी

पोप क्लेमेण्ट अष्टम, पीट्रा ड्यूरे में पीट्रा ड्यूरे (या पर्चिनकारी, दक्षिण एशिया में, या पच्चीकारी हिन्दी में), एक ऐतिहासिक कला है। इसमें उत्कृष्ट पद्धति से कटे, व जड़े हुए, तराशे हुए एवं चमकाए हुए रंगीन पत्थरों के टुकड़ो से पत्थर में चित्रकारी की जाती है। यह सजावटी कला है। इस कार्य को, बनने के बाद, एकत्र किया जाता है, एवं अधः स्तर पर चिपकाया जाता है। यह सब इतनी बारीकी से किया जाता है, कि पत्थरों के बीच का महीनतम खाली स्थान भी अदृश्य हो जाता है। इस पत्थरों के समूह में स्थिरता लाने हेतु इसे जिग सॉ पहेली जैसा बानाया जाता है, जिससे कि प्रत्येक टुकडा़ अपने स्थान पर मजबूती से ठहरा रहे। कई भिन्न रंगीन पत्थर, खासकर संगमर्मर एवं बहुमूल्य पत्थरों का प्रयोग किया जाता है। यह प्रथम रोम में प्रयोग की दिखाई देती है 1500 के आसपास। जो कि अपने चरमोत्कर्ष पर फ्लोरेंस में पहुँची। एतमादौद्दौलाह का मकबरा, आगरा, भारत में मुगल बादशाह जहाँगीर की पत्नी नूरजहाँ द्वारा, अपने पिता मिर्जा़ घियास बेग के लिये बनवाया हुआ, जिन्हें एतमाद-उद्-दौलाह की उपाधि मिली हुई थी। यहां पर्चिनकारी का भरपूर प्रयोग दिखाई देता है। इस स्मारक को प्रायः रत्न-मंजूषा कहा जाता है। यह स्मारक ताजमहल का मूलरूप माना जाता है, क्योंकि ताजमहल के कई वास्तु तत्त्व यहाँ परखे गए थे। पीट्रे ड्यूरे शब्द सख्त पत्थर का इतालवी बहुवचन है, या टिकाउ पाषाण। ताजमहल में पुष्पों का पर्चिनकारी में रूपांकन, जिसमें बहुमूल्य पत्थरों का प्रयोग किया हुआ है। यह अपने आरम्भिक रूप में इटली में थी, परंतु बाद में 1600 शती में, इसके छोटे रूप यूरोप में, यहाँ तक कि मुगल दरबार में भारत पहुँचे।<ref>http://www.rockscape.cc/en/pietredure.asp rockscape.cc</ref> जहाँ इस कला को नए आयाम मिले, स्थानीय/ देशी कलाकारों की शैली में, जिसका सबसे उत्कृष्ट उदाहरण ताजमहल में मिलता है। मुगल भारत में, इसे पर्चिनकारी या पच्चीकारी कहा जाता था, जिसका अर्थ है जड़ना। .

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पंजाब का इतिहास

पंजाब शब्द का सबसे पहला उल्लेख इब्न-बतूता के लेखन में मिलता है, जिसनें 14वीं शताब्दी में इस क्षेत्र की यात्रा की थी। इस शब्द का 16वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में व्यापक उपयोग होने लगा, और इस शब्द का प्रयोग तारिख-ए-शेरशाही सूरी (1580) नामक किताब में किया गया था, जिसमें "पंजाब के शेरखान" द्वारा एक किले के निर्माण का उल्लेख किया गया था। 'पंजाब' के संस्कृत समकक्षों का पहला उल्लेख, ऋग्वेद में "सप्त सिंधु" के रूप में होता है। यह नाम फिर से आईन-ए-अकबरी (भाग 1) में लिखा गया है, जिसे अबुल फजल ने लिखा था, उन्होंने यह भी उल्लेख किया है कि पंजाब का क्षेत्र दो प्रांतों में विभाजित है, लाहौर और मुल्तान। इसी तरह आईन-ए-अकबरी के दूसरे खंड में, एक अध्याय का शीर्षक इसमें 'पंजाद' शब्द भी शामिल है। मुगल राजा जहांगीर ने तुज-ए-जान्हगेरी में भी पंजाब शब्द का उल्लेख किया है। पंजाब, जो फारसी भाषा की उत्पत्ति है और भारत में तुर्की आक्रमणकारियों द्वारा प्रयोग किया जाता था। पंजाब का शाब्दिक अर्थ है "पांच" (पंज) "पानी" (अब), अर्थात पांच नदियों की भूमि, जो इस क्षेत्र में बहने वाली पाँच नदियां का संदर्भ देते हैं। अपनी उपज भूमि के कारण इसे ब्रिटिश भारत का भंडारगृह बनाया गया था। वर्तमान में, तीन नदियाँ पंजाब (पाकिस्तान) में बहती हैं, जबकि शेष दो नदियाँ हिमाचल प्रदेश और पंजाब (भारत) से निकलती है, और अंततः पाकिस्तान में चली जाता है। .

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पुंछ

पुंछ नगर पुंछ जिले में स्थित एक नगर परिषद है, जो कि भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर में स्थित है। इस नगर का उल्लेख महाभारत में मिलता है तथा चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी इस नगर का उल्लेख किया है। .

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प्रयाग प्रशस्ति

प्रयाग प्रशस्ति गुप्त राजवंश के सम्राट समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण द्वारा रचित लेख था। इस लेख को समुद्रगुप्त द्वारा २०० ई में कौशाम्बी से लाये गए अशोक स्तंभ पर खुदवाया गया था। इसमें उन राज्यों का वर्णन है जिन्होंने समुद्रगुप्त से युद्ध किया और हार गये तथा उसके अधीन हो गये। इसके अलावा समुद्रगुप्त ने अलग अलग स्थानों पर एरण प्रशस्ति, गया ताम्र शासन लेख, आदि भी खुदवाये थे। इस प्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का अच्छा विस्तार किया था। उसको क्रान्ति एवं विजय में आनन्द मिलता था। इलाहाबाद के अभिलेखों से पता चलता है कि समुद्रगुप्त ने अपनी विजय यात्रा का प्रारम्भ उत्तर भारत से किया एवं यहां के अनेक राजाओं पर विजय प्राप्त की। .

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फरीदाबाद

फ़रीदाबाद भारत के उतरी प्रांत हरियाणा प्रदेश का प्रमुख शहर है। यह फ़रीदाबाद जिले में आता है। इसे 1607 में शेख फरीद, जहांगीर के खजांची ने बनवाया था। उनका मकसद यहां से गुजरने वाले राजमार्ग की रक्षा करना था। यह दिल्ली से 25 किलोमीटर दक्षिण मे स्थित है। 15 अगस्त 1979 में यह हरियाणा का 12वां जिला बना। आज फ़रीदाबाद अपने उद्यॉगों के लिए प्रसिद्ध है। इसकी स्थापना 1607 ई. में सूफी संत शेख फरीद ने की थी। उन्होंने यहां किले और मस्जिद का निर्माण भी कराया था। समय के साथ यहां की आबादी बढ़ती गई और इसका औद्योगिकरण होता गया। अब यहां पर अनेक औद्योगिक इकाईयों की स्थापना हो चुकी है। हरियाणा की आय का 60 प्रतिशत हिस्सा फरीदाबाद से ही आता है। यह दिल्ली से मात्र १० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सरकार ने इसे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र घोषित कर दिया है। राष्ट्रीय राजमार्ग 2 से पर्यटक आसानी से फरीदाबाद तक पहुंच सकते हैं। सड़क मार्ग के अलावा रेल मार्ग से भी आसानी से फरीदाबाद तक पहुंचा जा सकता है। दिल्ली-मथुरा रेल लाइन पर फरीदाबाद में रेलवे स्टेशन भी बनाया गया है। यहां आने वाले पर्यटक कहीं भी नीरसता या बोरियत महसूस नहीं करते। वह यहां पर शानदार छुट्टियां मना सकते हैं और अनेक पर्यटक स्थलों की यात्रा भी कर सकते हैं। .

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फ़र्रुख़ सियर

फ़र्रुख़ सियर (जन्म: 20 अगस्त 1685 - मृत्यु: 19 अप्रैल 1719) एक मुग़ल बादशाह था जिसने 1713 से 1719 तक हिन्दुस्तान पर हुकूमत की। उसका पूरा नाम अब्बुल मुज़फ़्फ़रुद्दीन मुहम्मद शाह फ़र्रुख़ सियर था। आलिम अकबर सानी वाला, शान पादशाही बह्र-उर्-बार, तथा शाहिदे-मज़्लूम उसके शाही ख़िताबों के नाम हुआ करते थे। 1715 ई. में एक शिष्टमंडल जाॅन सुरमन की नेतृत्व में भारत आया। यह शिष्टमंडल उत्तरवर्ती मुग़ल शासक फ़र्रूख़ सियर की दरबार में 1717 ई. में पहुँचा। उस समय फ़र्रूख़ सियर जानलेवा घाव से पीड़ित था। इस शिष्टमंडल में हैमिल्टन नामक डाॅक्टर थे जिन्होनें फर्रखशियर का इलाज किया था।इससे फ़र्रूख़ सियर खुश हुआ तथा अंग्रेजों को भारत में कहीं भी व्यापार करने की अनुमति तथा अंग्रेज़ों द्वारा बनाऐ गए सिक्के को भारत में सभी जगह मान्यता प्रदान कर दिया गया। फ़र्रूख़ सियर द्वारा जारी किये गए इस घोषणा को ईस्ट इंडिया कंपनी का मैग्ना कार्टा कहा जाता है। मैग्ना कार्टा का सर्वप्रथम 1215 ई. में ब्रिटेन में जाॅन-II के द्वारा हुआ था। .

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फ़ारसी साहित्य

फारसी भाषा और साहित्य अपनी मधुरता के लिए प्रसिद्ध है। फारसी ईरान देश की भाषा है, परंतु उसका नाम फारसी इस कारण पड़ा कि फारस, जो वस्तुत: ईरान के एक प्रांत का नाम है, के निवासियों ने सबसे पहले राजनीतिक उन्नति की। इस कारण लोग सबसे पहले इसी प्रांत के निवासियों के संपर्क में आए अत: उन्होंने सारे देश का नाम 'पर्सिस' रख दिया, जिससे आजकल यूरोपीय भाषाओं में ईरान का नाम पर्शिया, पेर्स, प्रेज़ियन आदि पड़ गया। .

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बन्दी छोड़ दिवस

बन्दी छोड़ दिवस सिख त्योहार है जो कि दीपावली के दिन पड़ता है। दीपावली त्यौहार सिख समुदाय द्वारा ऐतिहासिक रूप से मनाया जाता है। गुरु अमर दास ने इसे सिख उत्सव माना है। 20वीं सदी से सिख धार्मिक नेताओं द्वारा दिवाली को बन्दी छोड़ दिवस कहा जाने लगा। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा इसे मान लिया गया। इस नाम का सम्बद्ध गुरु हरगोबिन्द की रिहाई से है जिन्हें जहाँगीर द्वारा स्वतंत्र किया गया था। बन्दी छोड़ दिवस को दिवाली के समान ही मनाया जाता है, जिसमें घरों और गुरुद्वारों को रोशन किया जाता है, उपहार देना और परिवार के साथ समय बिताना होता है। .

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बर्धमान जिला

वर्धमान भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल का एक जिला है। इसका मुख्यालय दामोदर नदी के किनारे २३ डिग्री २५' उत्तरी अक्षांश तथा ८७ डिग्री ८५' पूर्वी देशान्तर पर स्थित वर्धमान शहर में हैं। प्रदेश की राजधानी कोलकाता से १०० किलोमीटर दूर स्थित इस नगर का गौरवशाली पौराणिक इतिहास है। इसका नामकरण २४वें जैन तीर्थंकर महावीर के नाम पर हुआ है। मुगल काल में इसका नाम शरिफाबाद हुआ करता था। मुगल बादशाह जहांगीर के फरमान पर १७वीं शताब्दी में एक व्यापारी कृष्णराम राय ने वर्धमान में अपनी जमींदारी शूरू की। कृष्णराम राय के वंशजों ने १९५५ तक वर्धमान पर शासन किया। वर्धमान जिले में मिले पाषाण काल के अवशेष तथा सिंहभूमि, पुरूलिया, धनबाद और बांकुड़ा जिले के अवशेषों में समानताएँ हैं। इससे पता चलता है कि यह सम्पूर्ण क्षेत्र एक ही प्रकार की सभ्यता और संस्कृति का पोषक था। वर्धमान नाम अपने आप में ही जैन धर्म के २४वें तीर्थंकर महावीर वर्धमान से जुड़ा हुआ है। पार्श्वनाथ की पहाड़िया जैनों का एक महत्वपूर्ण धार्मिक केन्द्र था। यह भी वर्धमान जिले के सीमा से लगा हुआ है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि महावीर अपने धर्म के प्रचार एवं प्रसार के सिलसिले में वर्धमान आए थे। जिले में विभिन्न तीर्थंकरो की पत्थर की बनी प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं। गुप्त काल एवं सेन युग में वर्धमान का एक महत्वपूर्ण स्थान था। सल्तनत काल एवं मुगलकालों में वर्धमान एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक केन्द्र था। जहांगीर की पत्नी नूरजहां वर्धमान की ही थी। नूरजहाँ का पहला पति शेर अफगान वर्धमान का जागीरदार था। जहांगीर ने नूरजहाँ को हासिल करने के लिए कुतुबुद्दीन को वर्धमान का सूबेदार नियुक्त किया। कुतुबुद्दीन और शेर अफगान के बीच वर्तमान वर्धमान रेलने स्टेशन के निकट भयंकर संग्राम हुआ। अंततः दोनो ही मारे गए। आज भी इनकी समाधियो को एक दूसरे के पास वर्धमान में देखा जा सकता है। अकबर के समय में अबुल फजल और फैजी के षडयंत्रों का शिकार होने से बचने के लिए पीर बहराम ने दिल्ली छोड़ दिया। पीर बहराम को इसी वर्धमान शहर ने आश्रय दिया। आज भी यहाँ के हिन्दू और मुस्लिम उन्हें श्रद्धा-पूर्वक स्मरण करते हैं। वर्धमान में एक बहुत बड़ा आम का बगीचा है। यह बगीचा सैकड़ों हिन्दू औरतों के अपने पति के साथ उनकी चिता पर सती होने का गवाह है। मुगलों ने इस्ट इंडिया कम्पनी को तीन ग्राम- सुतानती, गोविन्दपुर तथा कलिकाता एक संधि के जरिए हस्तांतरित कर दिए थे। इस संधि पर हस्ताक्षर वर्धमान में ही हुआ था। कालांतर में यही तीनो ग्राम विकसीत होकर कोलकाता के रूप में जाने गए। .

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बहादुर शाह ज़फ़र

बहादुर शाह ज़फ़र बहादुर शाह ज़फर (1775-1862) भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह थे और उर्दू के माने हुए शायर थे। उन्होंने १८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया। युद्ध में हार के बाद अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) भेज दिया जहाँ उनकी मृत्यु हुई। .

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बाबर

ज़हिर उद-दिन मुहम्मद बाबर (14 फ़रवरी 1483 - 26 दिसम्बर 1530) जो बाबर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, एक मुगल शासक था, जिनका मूल मध्य एशिया था। वह भारत में मुगल वंश के संस्थापक था। वो तैमूर लंग के परपोते था, और विश्वास रखते था कि चंगेज़ ख़ान उनके वंश के पूर्वज था। मुबईयान नामक पद्य शैली का जन्मदाता बाबर को ही माना जाता है! .

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बिहार का मध्यकालीन इतिहास

बिहार का मध्यकालीन इतिहास का प्रारम्भ उत्तर-पश्‍चिम सीमा पर तुर्कों के आक्रमण से होता है। मध्यकालीन काल में भारत में किसी की भी मजबूत केन्द्रीय सत्ता नहीं थी। पूरे देश में सामन्तवादी व्यवस्था चल रही थी। सभी शासक छोटे-छोटे क्षेत्रीय शासन में विभक्‍त थे। मध्यकालीन बिहार की इतिहास की जानकारी के स्त्रोतों में अभिलेख, नुहानी राज्य के स्त्रोत, विभिन्न राजाओं एवं जमींदारों के राजनीतिक जीवन एवं अन्य सत्ताओं से उनके संघर्ष, दस्तावेज, मिथिला क्षेत्र में लिखे गये ग्रन्थ, यूरोपीय यात्रियों द्वारा दिये गये विवरण इत्यादि महत्वपूर्ण हैं।.

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बुरहानपुर

बुरहानपुर भारत के मध्य प्रदेश का एक प्रमुख शहर है। बुरहानपुर मध्य प्रदेश में ताप्ती नदी के किनारे पर स्थित एक नगर है। यह ख़ानदेश की राजधानी था। इसको चौदहवीं शताब्दी में ख़ानदेश के फ़ारूक़ी वंश के सुल्तान मलिक अहमद के पुत्र नसीर द्वारा बसाया गया। .

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बुंदेलखंड के शासक

' बुंदेलखंड के ज्ञात इतिहास के अनुसार यहां ३०० ई. प सौरभ तिवारी ब्राह्मण सासक मौर्य शासनकाल के साक्ष्‍य उपलब्‍ध है। इसके पश्‍चात वाकाटक और गुप्‍त शासनकाल, कलचुरी शासनकाल, चंदेल शासनकाल, खंगार1खंगार शासनकाल, बुंदेल शासनकाल (जिनमें ओरछा के बुंदेल भी शामिल थे), मराठा शासनकाल और अंग्रेजों के शासनकाल का उल्‍लेख मिलता है। .

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भारतीय चित्रकला

'''भीमवेटका''': पुरापाषाण काल की भारतीय गुफा चित्रकला भारत मैं चित्रकला का इतिहास बहुत पुराना रहा हैं। पाषाण काल में ही मानव ने गुफा चित्रण करना शुरु कर दिया था। होशंगाबाद और भीमबेटका क्षेत्रों में कंदराओं और गुफाओं में मानव चित्रण के प्रमाण मिले हैं। इन चित्रों में शिकार, शिकार करते मानव समूहों, स्त्रियों तथा पशु-पक्षियों आदि के चित्र मिले हैं। अजंता की गुफाओं में की गई चित्रकारी कई शताब्दियों में तैय्यार हुई थी, इसकी सबसे प्राचिन चित्रकारी ई.पू.

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भारतीय व्यक्तित्व

यहाँ पर भारत के विभिन्न भागों एवं विभिन्न कालों में हुए प्रसिद्ध व्यक्तियों की सूची दी गयी है। .

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भूदृश्य वास्तुकला

भूदृष्य वास्तुकला का एक उदाहरण - न्यूयार्क का केन्द्रीय पार्क भूदृश्य वास्तुकला (Landscape Architecture) स्थल को मानव उपयोग और आमोद के लिये सुव्यस्थित करने और उपयुक्त बनाने की सृजनात्मक कला है। इसका उद्देश्य संपूर्ण विन्यास के फलस्वरूप, मानव मस्तिष्क को अत्यधिक प्रभावित करना और स्थल या संरचना से संबद्ध भावनात्मक प्रेरणाओं को संतुष्ट करना है, ताकि लोग अत्यधिक प्रशंसा करें। इसके अतिरिक्त भूदृश्य वस्तुकला के अंतर्गत भूदृश्य इंजीनियरी, भूदृश्य उद्यानकर्म और भलीभाँति आकल्पित चित्र विचित्र पार्क भी भूदृश्य वास्तुकला में सम्मिलित हैं। .

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मतिराम

मतिराम, हिंदी के प्रसिद्ध ब्रजभाषा कवि थे। इनके द्वारा रचित "रसराज" और "ललित ललाम" नामक दो ग्रंथ हैं; परंतु इधर कुछ अधिक खोजबीन के उपरांत मतिराम के नाम से मिलने वाले आठ ग्रंथ प्राप्त हुए हैं। इन आठों ग्रंथों की रचना शैली तथा उनमें आए और उनसे सम्बंधित विवरणों के आधार पर स्पष्ट ज्ञात होता है कि मतिराम नाम के दो कवि थे। प्रसिद्ध मतिराम फूलमंजरी, रसराज, ललित ललाम और सतसई के रचयिता थे और संभवत: दूसरे मतिराम के द्वारा रचित ग्रंथ अलंकार पंचासिका, छंदसार (पिंगल) संग्रह या वृत्तकौमुदी, साहित्यसार और लक्षणशृंगार हैं। .

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मध्यकालीन भारत

मध्ययुगीन भारत, "प्राचीन भारत" और "आधुनिक भारत" के बीच भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास की लंबी अवधि को दर्शाता है। अवधि की परिभाषाओं में व्यापक रूप से भिन्नता है, और आंशिक रूप से इस कारण से, कई इतिहासकार अब इस शब्द को प्रयोग करने से बचते है। अधिकतर प्रयोग होने वाले पहली परिभाषा में यूरोपीय मध्य युग कि तरह इस काल को छठी शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक माना जाता है। इसे दो अवधियों में विभाजित किया जा सकता है: 'प्रारंभिक मध्ययुगीन काल' 6वीं से लेकर 13वीं शताब्दी तक और 'गत मध्यकालीन काल' जो 13वीं से 16वीं शताब्दी तक चली, और 1526 में मुगल साम्राज्य की शुरुआत के साथ समाप्त हो गई। 16वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक चले मुगल काल को अक्सर "प्रारंभिक आधुनिक काल" के रूप में जाना जाता है, लेकिन कभी-कभी इसे "गत मध्ययुगीन" काल में भी शामिल कर लिया जाता है। एक वैकल्पिक परिभाषा में, जिसे हाल के लेखकों के प्रयोग में देखा जा सकता है, मध्यकालीन काल की शुरुआत को आगे बढ़ा कर 10वीं या 12वीं सदी बताया जाता है। और इस काल के अंत को 18वीं शताब्दी तक धकेल दिया गया है, अत: इस अवधि को प्रभावी रूप से मुस्लिम वर्चस्व (उत्तर भारत) से ब्रिटिश भारत की शुरुआत के बीच का माना जा सकता है। अत: 8वीं शताब्दी से 11वीं शताब्दी के अवधि को "प्रारंभिक मध्ययुगीन काल" कहा जायेगा। .

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मरियम उज़-ज़मानी

मरियम उज़-ज़मानी बेगम साहिबा (नस्तालीक़:; जन्म 1 अक्टूबर 1542, दीगर नाम: रुकमावती साहिबा,राजकुमारी हिराकुँवारी और हरखाबाई) एक राजपूत शहज़ादी थीं जो मुग़ल बादशाह जलाल उद्दीन मुहम्मद अकबर से शादी के बाद मलिका हिन्दुस्तान बनीं। वे जयपुर की राजपूत आमेर रियासत के राजा भारमल की सब से बड़ी बेटी थीं। उनके गर्भ से सल्तनत के वलीअहद और अगले बादशाह नूरुद्दीन जहाँगीर पैदा हुए। .

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मलिक अंबर

मलिक अम्बर मलिक अंबर का जन्म संभवत: 1549 में एक हब्शी परिवार में हुआ। बाल्यकाल में ही उसे दास बनाकर बगदाद के बाजार में ले जाकर ख्वाजा पीर बगदाद के हाथों बेचा गया। ख्वाज़ा मलिक अंबर के साथ दक्षिण भारत गया जहाँ उसे निजामशाह प्रथम के मंत्री चंगे़ज खाँ ने खरीद लिया। मलिक अंबर की बुद्धि कुशाग्र, प्रकृति प्रतिभायुक्त और उदार थी, अत: उसे अन्य गुलामों की अपेक्षा ख्याति पाने में देर न लगी। चंगेज खाँ के संरक्षण में रहकर निज़ामशाही राजनीति तथा सैनिक प्रबंध को समझने का उसको अवसर प्राप्त हुआ। चंगेज खाँ की आकस्मिक मृत्यु होने के कारण वह कुछ समय तक इधर-उधर निजामशाही राज्य में ठोकरें खाता रहा। निजामशाही राज्य पर काले बादलों को आच्छादित होते देखकर तथा दलबंदी के संताप और मुगलों के निरंतर आक्रमणों से भयभीत होकर ख्याति पाने की आशा से वह बीजापुर और गोलकुंडा गया परंतु जब इन राज्यों में भी यथेष्ट सुअवसर प्राप्त न हुआ तक वह अन्य हब्शियों के साथ फिर अहमदनगर लौट आया। वह सेना में भरती हुआ और उसे अमँग खाँ ने 150 अश्वारोहियों का सरदार नियुक्त किया। वह अपने आश्रयदाता के साथ चुनार पहुँचा और उसने मुगल आक्रमणकारियों को परेशान करना प्रारंभ किया। शत्रु के शिविरों पर छापा मारकर वह रसद लूट लेता था और उसके प्रदेश में घुस पड़ता था। इस प्रकार धीरे-धीरे उसकी ख्याति बढ़ने लगी। परंतु जब अहमदनगर पर मुगलों का अधिकार हो गया और निजामशाही राज्य अपनी अंतिम साँसें ले रहा था तब मलिक अंबर को अपने अदम्य साहस, शक्ति एवं गुणों का परिचय देने का अवसर मिला। मराठों की सहायता से उसने एक सेना का निर्माण करके निजामशाही परिवार के अली नाम के व्यक्ति को गद्दी पर बिठाकर परेंदा में नवीन राजधानी स्थापित की। ह्रासग्रस्त राज्य का पुन: संगठन करके और सुख शांति के वातावरण का प्रतिपादन करके उसने एक नवीन जाग्रति पैदा कर दी। निजामशाही राज्य पुन: प्रभुता तथा ऐश्वर्य की ओर उन्मुख हो गया। परिस्थिति उसके अनुकूल थी। राजकुमार सलीम के अकस्मात् विद्रोह के कारण मुगल सेना का दक्षिण से हटना अनिवार्य हो गया था। फलत: मलिक अंबर ने मुगलों द्वारा विजय किए हुए प्रदेशों पर अपना अधिकार करना प्रारंभ कर दिया और अहमदनगर, प्राय: समस्त दक्षिण भाग, हस्तगत कर लिया। परंतु शीघ्र ही उसको एक अन्य कठिनाई का सामना करना पड़ा। सआदत खाँ ने, जो निजामशाही सरदार था, मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली। यह देखकर उसके एक अनुधर राजू ने उसके अधिकृत प्रदेश पर अपना अधिकार जमा लिया और उसने मुगलों से टक्कर लेना प्रारंभ कर दिया। वह भी परेंदा आया पर अन्य निज़ामशाही सेवकों में सम्मिलित हो गया। परंतु आशाजनक पद न पाने के कारण क्रुद्ध होकर वह अपने प्रदेश को वापस चला गया और वहाँ से निजामशाह को अंबर के विरुद्ध भड़काना प्रारंभ किया। फलस्वरूप, अंबर और राजू दोनों एक दूसरे के शत्रु हो गए। लेकिन अपने क्षेत्रों में दोनों मुगलों का मुकाबला करते रहे। इसके बावजूद 1605 तक मलिक अंबर की परिस्थिति दृढ़ ही होती गई। मुगलों की संपूर्ण अहमदनगर राज्य से निकालकर उसने परेंदा को छोड़ दिया और जुन्नार में नई राजधानी बनाई। राजू को परास्त कर उसने बंदी बना लिया और फिर मौत के घाट उतार दिया, तथा उसकी जागीर पर भी अधिकार कर लिया। मुगलों से टक्कर लेते लेते उसने खानेखाना को लोहे के चने चबवा दिए। अपने सेनाध्यक्ष खानेखाना की असफलता पर जहाँगीर को क्रोध आया और इसका कारण जानने के हेतु खानेखाना को दरबार में बुलाया गया। आगरा पहुँचकर खानेखाना ने विषम परिस्थिति का ब्योरा दिया, अतएव मलिक अंबर की बढ़ती हुई सत्ता का दमन करने के अभिप्राय से वह पुन: दक्षिण भेजा गया। अब मलिक अंबर ने बीजापुर और गोलकुंडा से सहायता ली और मुगलों पर टूट पड़ा। उसने खानेखाना की योजना को असफल कर दिया। विवश होकर सम्राट् ने राजकुमार और आसफ खाँ को एक बड़ी सेना के साथ दक्षिण भेजा पर उसे भी कोई सफलता न मिली। मलिक अंबर की शक्ति दिन-प्रति-दिन बढ़ती गई और 1610 में समस्या इतनी गंभीर हो गई कि आसफ खाँ ने सम्राट् से अनुरोध किया कि वह स्वयं ही पधारें। जहाँगीर ने इस सुझाव पर विचार किया और दक्षिण प्रस्थान करने की बात सोची परंतु अन्य अमीरों ने इसका समर्थन न किया। अब दक्षिण की समस्या के हल का उत्तरदायित्व खानेजहाँ को सौंपा गया। परंतु इसके पूर्व कि वह वहाँ पहुँचे खानेखाना ने, अपने बेटों की मदद से वर्षा ऋतु में मलिक अंबर पर अचानक हमले की योजना बनाकर उसपर हमला कर दिया। मलिक अंबर तो तैयार ही बैठा था। उसने मुगलों के छक्के छुड़ा दिए और खानेखाना को बुरहानपुर लौटने पर बाध्य कर दिया। उसको एक संधि पर हस्ताक्षर भी करने पड़े। तत्पश्चात् मलिक अंबर ने अहमदनगर के निकटवर्ती प्रदेशों पर अधिकार करके उसके किले पर घेरा ढाला और उसको भी छीन लिया। बरार और वालाकाट के कुछ भागों को छोड़कर लगभग संपूर्ण निजामशाही राज्य, जिसपर मुगलों ने 1600-1601 में अपना अधिकार जमा लिया था, अब मलिक अंबर ने उनके हाथों से छीन लिया और निजामशाही वंश के राज्य को पुनर्जीवन प्रदान किया। खानजहाँ लोदी ने प्रदेश में पहुँचकर वहाँ के वातावरण से परिचित होने का प्रयास किया। उसने सम्राट् को यह सुझाव दिया कि खानेखाना को हटाकर सेनापति पद का भार उसको ही सौंपा जाए। उसने वचन दिया कि यदि उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया तो वह अहमदनगर तथा बीजापुर के राज्यों पर मुगल सत्ता दो वर्षों के भीतर ही स्थापित कर देगा। जहाँगीर ने उसकी बातें मान लीं और उसे प्रचुर धन और सेना दी। फिर भी जब वह मलिक अंबर के विरुद्ध मैदान में उतरा, तब उसे यह प्रतीत हुआ कि यद्यपि शत्रु की तलवार उसकी तलवार से भारी नहीं, तथापि उसके लड़ने का ढंग अवश्य ही निराला है। कहने का तात्पर्य यह कि उसे भी मलिक अंबर के सामने झुकना पड़ा और उसका गर्व चूर चूर हो गया। मलिक अंबर को परास्त करने के अभिप्राय से सम्राट् ने एक विशाल योजना बनाई जिसका यह उद्देश्य था कि अहमदनगर पर तीन दिशाओं से एक साथ सैनिक अभियान करके मलिक अंबर को घेरकर उसकी सत्ता को नष्ट भ्रष्ट कर दिया जाए। परंतु यह योजना भी असफल सिद्ध हुई और शाही सेना अस्तव्यस्त होकर भाग खड़ी हुई। खोई प्रतिष्ठा को पुन: प्राप्त करने के उद्देश्य से खानेखाना को फिर दक्षिण क्षेत्र में भेजा गया। वह वहाँ 1612 ई में पहुँचा। उसका यह सौभाग्य था कि इस समय निजामशाह के दरबार में आंतरिक फूट फैली थी। इस परिस्थिति से लाभान्वित होकर उसने अनेक दक्षिणी सरदारों को घूस देकर अपने पक्ष में कर लिया। यद्यपि मलिक अंबर को बीजापुर और गोलकुंडा का सहयोग प्राप्त था, तिसपर भी कूटनीति और सबल सेना के सामने उसकी कुछ न चली। 1616 ई के युद्ध में उसे हार खानी पड़ी। विजेताओं ने किर्की को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। यद्यपि खानेखाना ने मुगल प्रतिष्ठा को एक सीमा तक फिर से स्थापित कर दिया था, परंतु उसपर घूसखोरी के आरोप लगते ही रहे। इसीलिए सम्राट् ने राजकुमार खुर्रम को एक विशाल सेना के साथ दक्षिण क्षेत्र में भेजा। राजकुमार के आगमन से दक्षिणी राज्यों में खलबली मच गई। शीघ्र ही बीजापुर तथा गोलकुंडा के नरेशों ने मुगलों से संधि कर ली। ऐसी दशा में जबकि मलिक अंबर मित्रहीन हो गया, उसके समक्ष सर झुकाने के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं रह गया। अतएव विवश होकर उसने बालाघाट का क्षेत्र और अहमदनगर के दुर्ग की कुंजी मुगलों को सौंप दी और इस प्रकार निजामशाही राज्य को लोप होने से बचा लिया। अगले दो वर्षों तक वह चुपचाप अपने साधनों को जुटाने में लगा रहा। इधर मुगल सेना में विद्वेष की प्रचंड अग्नि प्रवाहित हो गई। अत: मलिक अंबर ने पुन: गोलकुंडा और बीजापुर को मिलाकर मुगल विरोधी संघ स्थापित कर लिया। दो वर्ष पूर्व हुई संधि की धाराओं का उल्लंघन कर वह मुगल अधिकृत क्षेत्रों पर टूट पड़ा और तीन मास की लघु अवधि में ही उसने मुगलाई अहमदनगर के अधिकांश भाग और बरार को हस्तगत कर लिया। उसने न केवल बालापुर को लूटा ही बल्कि उसपर घेरा भी डाला। बुरहानपुर की दिशा में पीछे हटती हुई मुगल सेनाओं पर निरंतर वार करता हुआ वह बुरहानपुर तक बढ़ गया। नगर के बाहर घेरा डाला और निकटवर्ती प्रदेश को खूब लूटा। इतना ही नहीं, उसने मालवा में प्रवेश करके मांडू पर भी छापा मारा। इससे नर्मदा के उत्तर और दक्षिण क्षेत्रों में मुगलों की ख्याति को बहुत धक्का लगा। परिस्थिति को निरंतर गंभीर होते हुए देखकर खानेखाना ने सैनिक सहायता की बार बार याचना की। सम्राट् ने राजकुमार शाहजहाँ को यह आदेश दिया वह सेना सहित दक्षिण को प्रस्थान करे। उसके वहाँ पहुँचते ही वातावरण शीघ्रता से बदलने लगा। उसकी सेना आँधी के समान शत्रु के देश पर आच्छादित हो गई। मराठे मांडू से भाग खड़े हुए और शत्रु को बुरहानपुर को दुर्ग भी खाली करना पड़ा। मुगलों ने अब किर्की पर धावा बोल दिया। संभवत: निज़ामशाह अपने परिवार सहित आक्रमणकारियों के हाथ पड़ जाता परंतु मलिक अंबर ने उन लोगों को दौलताबाद भेज दिया था। किर्की से चलकर मुगल सेना अहमदनगर पहुँची और उसको घेरे से मुक्त किया। मलिक अंबर दौलताबाद के दुर्ग से अपने दुर्भाग्य की गतिविधि को देख रहा था। कुछ विपरीत परिस्थितियों के कारण शाहजहाँ इस युद्ध को आगे बढ़ाना नहीं चाहता था। इसलिए उसने संधि करना ही उचित समझा। मलिक अंबर ने उस समस्त क्षेत्र को वापस कर दिया जो उसने गत दो वर्षों में मुगलों से छीन लिया था। इसके अतिरिक्त 14 कोस निकटवर्ती भूमि भी दी। तीनों दक्षिणी रियासतों ने 50 लाख रुपया कर के रूप में देने का वचन दिया 20 लाख गोलकुंडा ने और शेष 12 लाख अहमदनगर ने। इस प्रकार बड़े चातुर्य से मलिक अंबर ने निजामशाही राज्य को काल के मुँह से पुन: निकाल लिया। परंतु उसकी विपत्तियों का अंत न हुआ। फिर भी उसके साहस में कमी न आई। शाहजहाँ ने अपने पिता के प्रति विद्रोह करके मुगल साम्राज्य में राजनीतिक भूकंप पैदा कर दिया। अतएव जब उत्तर में परास्त होकर वह दक्षिण प्रदेश में पहुँचा और उसने मलिक अंबर से सहायता की याचना की, तब सम्राट् की शत्रुता मोल लेने के भय से मलिक अंबर ने इनकार कर दिया। परंतु इसके पीछे नीति भी थी। शोलापुर को लेकर निजामशाह और आदिलशाह में झगड़ा चल रहा था। उसमें उसको मुगलों की सहानुभूति प्राप्त करने की आशा थी। अतएव जब महावत खाँ शाहजहाँ का पीछा करते हुए दक्षिण प्रदेश में पहुँचा, तब आदिलशाह और मलिक अंबर दोनों ने ही मुगलाई सहायता के लिए याचना की। कुछ समय तक तो महावत खाँ ने दोनों को द्विविधा में रखा, परंतु तब शाहजहाँ बंगाल की ओर भाग गया तब मुगल सेनापति ने आदिलशाह को सहायता देने का वचन दिया। परंतु शीघ्र ही उसे बंगाल की ओर जाना पड़ा। इस सुअवसर से मलिक अंबर ने पूरा लाभ उठाया। सुरक्षा हेतु निजामशाह को तो उसने सपरिवार दौलताबाद भेज दिया और स्वयं सेना लेकर गोलकुंडा की सीमा की ओर बढ़ा। कुतुबशाह से धन लेकर संधि करके वह आदिलशाही प्रदेश पर टूट पड़ा। वांछित स्थानों पर अधिकार करके वह बीजापुर की ओर लूटता हुआ अग्रसर होने लगा। आदिलशाह ने मुगलों से सहायता माँगी। भाटवाड़ी की लड़ाई में मुगल आदिलशाही सेना ने मलिक अंबर का डटकर सामना किया। परंतु 15 जून 1625 को मलिक अंबर ने उन्हें बुरी तरह हराया। इस सफलता ने उसके यश और कीर्ति में वृद्धि की। अब वह कुशल सेनापति, राजनीतिज्ञ और प्रबंधकर्ता समझा जाने लगा। उसके साहस और साधनों में भी उन्नति हुई। फलस्वरूप अहमदनगर व शोलापुर पर उसने फिर से अपना आधिपत्य जमा लिया और उसके सेनापति, याकूत खान ने बुरहानपुर के किले पर घेरा डाल दिया। इसी समय महावत खाँ, शाहजहाँ का पीछा करते करते पुन: दक्षिण आ पहुँचा। याकूत खाँ ने बुरहानपुर से अपनी सेना हटा ली। मलिक अंबर इस बार शाहजहाँ को सरंक्षण देने में बिल्कुल न हिचकिचाया। दोनों संयुक्त सेनाओं ने बुरहानपुर पर घेरा डाला, परंतु कोई सफलता प्राप्त न हुई। थोड़े समय बाद शाहजहाँ ने हथियार डाल दिए और अपने को समर्पित कर दिया। ऐसी परिस्थिति में मलिक अंबर के लिए मुगलों का सामना करना कठिन था। अतएव उसने बुरहानपुर के दुर्ग से सेना हटा ली। अगले वर्ष उसे मुगलों से टक्कर लेने का अवसर प्राप्त हुआ। इस समय जहाँगीर रोगग्रस्त था। नूरजहाँ की गुटबंदी ने महावत खाँ को विद्रोह करने पर विवश कर दिया था, तथा संपूर्ण शाही सेनाएँ महावत खाँ का विद्रोह दमन करने में लगी हुई थीं। दक्षिण में कोई भी कुशल सेनापति न रह गया था। इससे पहले कि वह अपनी सेनाओं की गतिविधि मुगलों के विरुद्ध या आदिलशाह के विरुद्ध संचालित करे, मृत्यु ने उसकी आँखें मई 14, 1615 को अस्सी वर्ष की आयु में बंद कर दीं। मलिक अम्बर का मकबरा (१८६० में) 1601 से 1626 तक, मलिक अंबर ने अपनी प्रतिभा, अदम्य साहस, कार्यकुशलता और सैन्य चातुर्य का परिचय दिया। भारतीय इतिहास में ऐसा बिरला ही उदाहरण मिलेगा जब किसी उजड़े हुए राज्य को एक साधारण श्रेणी के व्यक्ति ने नवजीवन प्रदान किया हो। मलिक अंबर की प्रतिभा बहुमुखी थी। वह सुयोग्य सेनापति तो था ही, इसके साथ साथ कुशल नीतिज्ञ और चतुर शासक भी था। उसने मराठों की सैनिक मनोवृत्ति का ठीक मूल्यांकन करके एक नवीन सैनिक प्रणाली का आविष्कार किया। टोडरमल की भूमिकर व्यवस्था को अपने राज्य में प्रचलन करके उसने न केवल रिक्त कोष को ही समृद्धिशाली बनाया बल्कि जनता को भी सुख प्रदान किया। किर्की में उसने अपनी राजधानी बसाई और यहाँ उसने अनेक मस्जिदों, महलों का निर्माण कराया तथा उद्यान लगवाए। सिंचाई के लिए नहरें भी खुदवाईं। महवल दर्रा, दरवाजा नाखुदा महल, काला चबुतरा दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास, जो आज खंडहरों के रूप में दिखाई देते हैं उसकी भावनाओं को प्रमाणित करते हैं। उसने ज्ञान तथा विद्वानों दोनों को सरंक्षण प्रदान किया। अरब से बहुत विद्वान् आए और उसने उन्हें प्रोत्साहन दिया। उनमें से एक अली हैदर था, जिसने 11वीं शताब्दी हिजरी के प्रसिद्ध संतों की जीवनियों पर "इक्व अल जवहार" ग्रंथ की रचना की। फारस से आए हुए विद्वानों को भी उसने आश्रय दिया। उसने किर्की में चितखाना की स्थापना की जहाँ बहुत से हिंदू और मुसलमान विद्वान् ज्ञान की विभिन्न शाखाओं का गंभीर अध्ययन करते थे। .

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महाबत खां

महाबत खां (محابت خان) (पूरा नाममहाबत खान खान-ए-खाना सिपह-सालार ज़माना बेग काबुली, जन्म नाम ज़माना बेग) (मृत्यु १६३४), मुगल सम्राट जहांगीर के राज्य में एक प्रमुख सेनापति/सिपहसालार था। श्रेणी:मुगल.

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महावत खाँ

महावत खां मुगल राज्य का एक मनसबदार और दरबारी था।महावत खां का प्रभाव तब बढ़ने लगा जब परवेज़ और महावत खां ने खुर्रमको उन्होंने पराजित किया था,इससे नूरजहाँ चिंतित हो गई और उसका प्रभाव समाप्त करने के लिए उसे बंगाल का सूबेदार बना कर बंगाल भेज दिया।इसके अलावा नूरजहाँ ने महावत को अपमानित करने के लिए उस पर कई आरोप लगाए और बँगाल व बिहार से मिले हाथियो का तथा प्रांत के आय व व्यय का हिसाब भी माँगा। नूरजहाँ ने आरोप लगाया कि महावत खान ने सम्राट की आज्ञा के बिना ही अपनी पुत्री की शादी ख्वाजा उमर नक्शबंदी के पुत्र से कर दी है,इस पर उस युवक को अपमानित कर जेल में दाल दिया तथा वो सारा धन व वस्तुएं उस युवक से जब्त कर ली थी जो महावत खां ने उसे दी थी। इस से महावत खान बहुत ही दुखी हुआ। अंत मार्च 1625 ईस्वी महावत खान अपने चुने हुए 4-5 हज़ार राज पूत सैनिको को लेकर जहाँगीर के शिविर के पास पंहुचा।उस समय जहांगीर कश्मीर से लौट कर काबुल जा रहा था। महावत ने जहाँगीर को सरलता से बन्दी बना लिया और नूरजहाँ को भी बन्दी बना लिया।नूरजहाँ ने अपनी सूझ बूझ से महावत खां के सैनिकों में फूट डाल कर जहाँगीर को तथा स्वयं को आज़ाद कराया। महावत खान दक्षिण में भाग गया और खुर्रम के सरंक्षण में रहने लगा। श्रेणी:मुग़ल साम्राज्य श्रेणी:मध्यकालीन भारत श्रेणी:बंगाल का इतिहास.

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मंसबदारी

फ़ारसी में 'मंसबदार' का अर्थ है मंसब (पद या श्रेणी) रखनेवाला। मुगल साम्राज्य में मंसब से तात्पर्य उस पदस्थिति से था जो बादशाह अपने पदाधिकारियों को प्रदान करता था। मंसब दो प्रकार के होते थे, 'जात' और 'सवार'। मंसब की प्रथा का आरंभ सर्वप्रथम अकबर ने सन् 1575 में किया। 'जात' से तात्पर्य मंसबदार की उस स्थिति से था जो उसे प्रशासकीय पदश्रेणी में प्राप्त थी। उसका वेतन भी उसी अनुपात में उन वेतन सूचियों के आधार पर जो कि उस समय लागू थीं निर्धारित होता था। सवार श्रेणी से अभिप्राय था कि कितना सैनिक दल एक मंसबदार को बनाए रखना है; और इसके लिये उसे कितना वेतन मिलेगा। इसका निर्धारण प्रचलित वेतनक्रम को सवारों की संख्या से गुणा करके होता था। कहा जाता है, मंसब प्रथा की उत्पत्ति प्रारंभिक तुर्की और मंगोल सेना के 'दशमलवात्मक' संगठन में देखी जा सकती है और इसी को आधार मानकर अकबर न केवल वर्तमान सैनिक श्रेणी को 'जात' श्रेणी में परिवर्तित किया और एक नई 'सवार' श्रेणी को जन्म देकर उस उद्देश्य को पूरा किया जो कि प्राचीन श्रेणी करती थी। लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि 1575 से पूर्व भी मंसब दिए जाते थे। इससे यही प्रतीत होता है कि 'जात' तथा 'सवार' श्रेणियों का आरम्भ एक साथ ही उसी वर्ष किया गया। अकबर के समय में सवार श्रेणी प्राय: या तो जात श्रेणी के बराबर अथवा कम ही होती थी। जहाँगीर ने मंसबदारी पद्धति में एक महत्वपूर्ण प्रयोग किया अर्थात् दो अश्व और तीन अश्व श्रेणी का प्रारंभ। दो अश्व व तीन अश्व श्रेणी को सवार श्रेणी का ही भाग माना जाता था। दो अश्व तीन अश्व श्रेणी प्राप्त करनेवाले का वेतन तथा सैनिक जिम्मेदारियाँ दोनो ही दोहरे हो जाते थे। 'जात' श्रेणी पर वेतन प्रत्येक श्रेणी के लिये अलग-अलग निर्धारित था। वेतन में वृद्धि श्रेणी में वृद्धि होने के समानुपात में नहीं हाती थी। पाँच हजार से नीचे की जात श्रेणी पर वेतन तीन वर्गो में अलग अलग निर्धारित था- प्रथम, जब सवार श्रेणी जात श्रेणी के बराबर हो; द्वितीय, जब 'सवार' श्रेणी 'जात' श्रेणी से कम तो हो परंतु आधे से कम न हो; तृतीय जब आधे से भी कम हो। प्रथम वर्गवालों का वेतन द्वितीय वर्ग से, तथा द्वितीय वर्गवालों का वेतन तृतीय वर्ग से अधिक होता था। सवार श्रेणी पर वेतन श्रेणियों के अनुसार अलग अलग निश्चित नहीं था; लेकिन प्रति इकाई पर वेतन की दर स्थायी रूप से बताई गई है। शाहजहाँ से लेकर बाद तक 'सवार' श्रेणी के प्रति इकाई की वेतन की दर आठ हजार दाम थी। सवार श्रेणी का वेतन इस योग (8 हजार दाम) को सवार संख्या से गुणा करके निकाला जा सकता है। मंसबदार को वेतन या तो नकद अथवा जागीर के रूप में दिया जाता था। शाहजहाँ के राज्यकाल में 'मासिक अनुपात' व्यवस्था का जन्म हुआ। यह व्यवस्था नकद वेतनों पर भी लागू की गई। इसके परिणामस्वरूप मंसबदारों के वेतन, सुविधाओं तथा कर्तव्यों में कमी आ गई। 'निश्चित वेतन' में बहुत सी कटौतियाँ होती थीं। सबसे अधिक कटौती दक्खिनी मंसबदारों के वेतनों में की जाती थी और यह दामों में एक चौथाई की कमी होती थी। विशेष रूप से न माफ होने पर निम्नलिखित कटौतियाँ सभी मंसबदारों पर लागू की जाती थीं- पशुओं के लिये चारा, रसद के लिये माँग तथा रूपए में दो दाम। मंसब के साथ-साथ अकबर ने 1575 में दागने की प्रथा का प्रारंभ किया। इसका उद्देश्य प्रतयेक मंसबदार को उतने घोड़े तथा घुड़सवार वास्तविक रूप में बनाए रखने के लिये मजबूर करना था, जितने उससे राजकीय सेवा के लिये अपेक्षित थे। फलस्वरूप सैनिक जिम्मेदारियों से बचाव को रोकने के लिये अकबर ने घोड़ों को दागने तथा व्यक्तियों के लिये 'चेहरा' की प्रथा को अपनाया। अबुलफ़ज्ल के विवरण से पता चलता है कि अकबर के समय में मंसबदार से उम्मीद की जाती थी कि वह उतने सैनिक प्रस्तुत करेगा जितनी कि उसकी 'सवार' श्रेणी हो। ऐसा न करने पर उसे दंडित किया जाता था। विचारणीय बात रह जाती है कि मंसबदार से उसकी 'सवार' श्रेणी के अनुरूप जो संख्या प्रत्याशित होती थी वह घोड़ों की थी अथवा सैनिकों की ? शाहजहाँ के समय में 'तृतीयांश' नियम के अंतर्गत, 100 सवार श्रेणी वाले मंसबदार को 33 सवार और 66 घोड़े रखने पड़ते थे। इससे यही प्रतीत होता है कि अकबर के समय में 100 'सवार' श्रेणी के लिये 50 सवार और 100 घोड़ों से अधिक नहीं माँगे जाते होंगे। शाहजहाँ ने नए सिरे से मंसबदारी पद्धति को संगठित किया। जो मंसबदार उन प्रदेशों में ही नियुक्त थे जहाँ उनको जागीरें प्राप्त थीं, उनसे यह उम्मीद की जाती थी कि वे अपनी 'सवार' श्रेणी के एक तिहाई सवार प्रस्तुत करेंगे; ऐसे प्रदेशों में नियुक्त होने पर जहाँ उनकी जागीरें नहीं थीं केवल एक चौथाई; और बल्ख या बदकशाँ में नियुक्त होने पर पंचमांश। जिन मंसबदारों को वेतन नकद मिलता था उनपर भी पांचवें हिस्से का नियम लागू होता था। पंचमांश नियम के अंतर्गत वार्षिक व्यवस्था में 5000 'सवार' श्रेणी पर 1000 सवार तथा 2200 घोड़े रहेंगे। सिद्धांतरूप में समस्त मंसबदारों की नियुक्ति बादशाह द्वारा होती थी। प्राय: मुगलों की सैनिक भर्ती जाति अथवा वंश के आधार पर ही की जाती थी, योग्यता के लिये कोई विशेष स्थान नहीं था। उच्चवंशीय न होने पर व्यक्ति के राजकीय सेवा में प्रवेश के अवसर सीमित थे। श्रेणी:मुगल शासन.

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मुमताज़ महल

ताज महल मुमताज़ महल (फ़ारसी: ممتاز محل; उच्चारण /, अर्थ: महल का प्यारा हिस्सा) अर्जुमंद बानो बेगम का अधिक प्रचलित नाम है। इनका जन्म अप्रैल 1593 में आगरा में हुआ था। इनके पिता अब्दुल हसन असफ़ ख़ान एक फारसी सज्जन थे जो नूरजहाँ के भाई थे। नूरजहाँ बाद में सम्राट जहाँगीर की बेगम बनीं। १९ वर्ष की उम्र में अर्जुमंद का निकाह शाहजहाँ से 10 मई, 1612 को हुआ। अर्जुमंद शाहजहाँ की तीसरी पत्नी थी पर शीघ्र ही वह उनकी सबसे पसंदीदा पत्नी बन गईं। उनका निधन बुरहानपुर में 17 जून, 1631 को १४वीं संतान, बेटी गौहरारा बेगम को जन्म देते वक्त हुआ। उनको आगरा में ताज महल में दफनाया गया। .

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मुराद चतुर्थ

मुराद चतुर्थ (مراد رابع, मुराद-ए राबीʿ; 26/27 जुलाई 1612 – 8 फ़रवरी 1640) 1623 से 1640 तक उस्मानिया साम्राज्य के सुल्तान रहे। उन्होंने राज्य पर सुल्तान के शासन की पुनःस्थापना की थी और उन्हें अपने गतिविधियों की क्रूरता के लिए जाने जाते हैं। उनका जन्म क़ुस्तुंतुनिया में हुआ था। वे सुल्तान अहमद प्रथम (दौर: 1603–17) और यूनानी मूल की कौसम सुल्तान के पुत्र थे। उनके चाचा मुस्तफ़ा प्रथम (दौर: 1617–18, 1622–23) को सुल्तान के पद से निकालने की साज़िश कामयाब होने के बाद मुराद चतुर्थ तख़्त पर आसीन हुए। उस वक़्त उनकी उम्र सिर्फ़ 11 साल की थी। उनके दौर में उस्मानी-सफ़वी युद्ध (1623–39) हुआ, जिसके नतीजे में संपूर्ण क़फ़क़ाज़ क्षेत्र दोनों साम्राज्यों के दरमियान विभाजित हुआ। इस विभजन ने लगभग वर्तमान तुर्की-ईरान-इराक़ देशों की सरहदों की नींव रखी। .

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मुहम्मद शाह (मुगल)

मुहम्मद शाह ((1748 &ndash; १७०२) जिन्हें रोशन अख्तर भी कहते थे, मुगल सम्राट था। इनका शासन काल १७१९-१७४८ रहा। Available on Project Gutenberg. मुहम्मद शह की मृत्यु १७४८ में ४६ वर्ष की आयु में हुई थी। .

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मुगल रामायण

मुगल बादशाह अकबर द्वारा रामायण का फारसी अनुवाद करवाया था। उसके बाद हमीदाबानू बेगम, रहीम और जहाँगीर ने भी अपने लिये रामायण का अनुवाद करवाया था। .

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मुग़ल शासकों की सूची

मुग़ल सम्राटों की सूची कुछ इस प्रकार है।.

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मुग़ल साम्राज्य

मुग़ल साम्राज्य (फ़ारसी:, मुग़ल सलतनत-ए-हिंद; तुर्की: बाबर इम्परातोरलुग़ु), एक इस्लामी तुर्की-मंगोल साम्राज्य था जो 1526 में शुरू हुआ, जिसने 17 वीं शताब्दी के आखिर में और 18 वीं शताब्दी की शुरुआत तक भारतीय उपमहाद्वीप में शासन किया और 19 वीं शताब्दी के मध्य में समाप्त हुआ। मुग़ल सम्राट तुर्क-मंगोल पीढ़ी के तैमूरवंशी थे और इन्होंने अति परिष्कृत मिश्रित हिन्द-फारसी संस्कृति को विकसित किया। 1700 के आसपास, अपनी शक्ति की ऊँचाई पर, इसने भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश भाग को नियंत्रित किया - इसका विस्तार पूर्व में वर्तमान बंगलादेश से पश्चिम में बलूचिस्तान तक और उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में कावेरी घाटी तक था। उस समय 40 लाख किमी² (15 लाख मील²) के क्षेत्र पर फैले इस साम्राज्य की जनसंख्या का अनुमान 11 और 13 करोड़ के बीच लगाया गया था। 1725 के बाद इसकी शक्ति में तेज़ी से गिरावट आई। उत्तराधिकार के कलह, कृषि संकट की वजह से स्थानीय विद्रोह, धार्मिक असहिष्णुता का उत्कर्ष और ब्रिटिश उपनिवेशवाद से कमजोर हुए साम्राज्य का अंतिम सम्राट बहादुर ज़फ़र शाह था, जिसका शासन दिल्ली शहर तक सीमित रह गया था। अंग्रेजों ने उसे कैद में रखा और 1857 के भारतीय विद्रोह के बाद ब्रिटिश द्वारा म्यानमार निर्वासित कर दिया। 1556 में, जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर, जो महान अकबर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, के पदग्रहण के साथ इस साम्राज्य का उत्कृष्ट काल शुरू हुआ और सम्राट औरंगज़ेब के निधन के साथ समाप्त हुआ, हालाँकि यह साम्राज्य और 150 साल तक चला। इस समय के दौरान, विभिन्न क्षेत्रों को जोड़ने में एक उच्च केंद्रीकृत प्रशासन निर्मित किया गया था। मुग़लों के सभी महत्वपूर्ण स्मारक, उनके ज्यादातर दृश्य विरासत, इस अवधि के हैं। .

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मेवाड़

राजस्थान के अन्तर्गत मेवाड़ की स्थिति मेवाड़ राजस्थान के दक्षिण-मध्य में एक रियासत थी। इसे 'उदयपुर राज्य' के नाम से भी जाना जाता था। इसमें आधुनिक भारत के उदयपुर, भीलवाड़ा, राजसमंद, तथा चित्तौडगढ़ जिले थे। सैकड़ों सालों तक यहाँ रापपूतों का शासन रहा और इस पर गहलौत तथा सिसोदिया राजाओं ने १२०० साल तक राज किया। बाद में यह अंग्रेज़ों द्वारा शासित राज बना। १५५० के आसपास मेवाड़ की राजधानी थी चित्तौड़। राणा प्रताप सिंह यहीं का राजा था। अकबर की भारत विजय में केवल मेवाड़ का राणा प्रताप बाधक बना रहा। अकबर ने सन् 1576 से 1586 तक पूरी शक्ति के साथ मेवाड़ पर कई आक्रमण किए, पर उसका राणा प्रताप को अधीन करने का मनोरथ सिद्ध नहीं हुआ स्वयं अकबर, प्रताप की देश-भक्ति और दिलेरी से इतना प्रभावित हुआ कि प्रताप के मरने पर उसकी आँखों में आंसू भर आये। उसने स्वीकार किया कि विजय निश्चय ही राणा की हुई। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि देश के स्वतंत्रता संग्राम में प्रताप जैसे महान देशप्रेमियों के जीवन से ही प्रेरणा प्राप्त कर अनेक देशभक्त हँसते-हँसते बलिवेदी पर चढ़ गए। महाराणा प्रताप की मृत्यु पर उसके उत्तराधिकारी अमर सिंह ने मुगल सम्राट जहांगीर से संधि कर ली। उसने अपने पाटवी पुत्र को मुगल दरबार में भेजना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार १०० वर्ष बाद मेवाड़ की स्वतंत्रता का भी अन्त हुआ। .

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रफी उद-दर्जत

रफी उद-दर्जत(३० नवम्बर १६९९-१७१९), रफ़ी-उस-शहान का कनिष्ठ पुत्र (अज़ीम उश शान का भाई) दसवां मुगल सम्राट था। यह फर्रुख्शियार के बाद २८ फ़रवरी १७१९ को सैयद भ्राता द्वारा बादशाह घोषित किया गया। रफी-उद-दज्रत की मौत Lung Cancer से या फिर उसे सैयद भाइयों ने १७१९ में मार डाला था। .

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रफी उद-दौलत

रफी उद-दौलत (رفی الدولت) जिसे शाहजहां द्वितीय (شاه جہان ۲) भी कहा गया है (जन्म १६९६) १७१९ में अति लघु-काल के लिए मुगल सम्राट बना था। यह अपने भाई रफी उल-दर्जत की मृत्यु उपरांट गद्दी पर बैठा था। इसे भि उसी की तरह सैयद भ्राता ने बाद्शाह घोषित किया था। १७१९ में ही इसकी हत्या कर दी गयी थी। .

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राजपुताना

राजस्थान पहले राजपुताना के रूप में जाना जाता था। 1909 का ब्रिटिशकालीन नक्शा मौजूदा राजस्थान के ज़िलों का मानचित्र राजपुताना जिसे रजवाड़ा भी कहा जाता है। राजपूतों की राजनीतिक सत्ता आयी तथा ब्रिटिशकाल में यह राजपुताना (राजपूतों का देश) नाम से जाने जाना लगा। इस प्रदेश का आधुनिक नाम राजस्थान है, जो उत्तर भारत के पश्चिमी भाग में अरावली की पहाड़ियों के दोनों ओर फैला हुआ है। इसका अधिकांश भाग मरुस्थल है। यहाँ वर्षा अत्यल्प और वह भी विभिन्न क्षेत्रों में असमान रूप से होती है। यह मुख्यत: वर्तमान राजस्थान राज्य की भूतपूर्व रियासतों का समूह है, जो भारत का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। .

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राजस्थान की झीलें

प्राचीन काल से ही राजस्थान में अनेक प्राकृतिक झीलें विद्यमान है। मध्य काल तथा आधुनिक काल में रियासतों के राजाओं ने भी अनेक झीलों का निर्माण करवाया। राजस्थान में मीठे और खारे पानी की झीलें हैं जिनमें सर्वाधिक झीलें मीठे पानी की है। .

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राजा बरी

राजा बरी का जन्म सन १५८० में गोरखपुर, उत्तर प्रदेश के पास हुआ था। उन्के पिता का नाम भीश्मबरी था और माता का नाम कुन्ति देवि था। वे सब्से बड़े पुत्र थे। उन्के ६ और भाइ थे। वे गोरखपुर के राजा सन १६८० में बने। उन्होने २० साल तक गोरखपुर पर राज किया। "व्यहवरिक जीवन" राजा बरी ने तीन शादीया की। उन्की पहली शादि बान्सगाउन् की राजकुमारी कमला देवी से हुइ थी। कमला देवि से राजा बरी को दो पुत्र मिले। कम्ला देवि अप्ने दुस्रे पुत्र वीर बरी को जनम देते हुए छल बसै। राजा बरी ने दो और शादीया कि एक भीम्नगर कि राज्कुमरी से और एक और अप्ने बछ्पन के प्यार वाघ्वति से की। "राज्पाट" राजा बरी कई कलाओ के धनि थे। वे शस्त्रकला मैं निपुर्न थे और उन्के राज मैं उन्के राजय मैं कई अछे बद्लव आये। वे दिल्ली के राजा जहांगिर के एअस्त इन्दिअ क्ँपनि को सुरत मैं कारखाने खोल्ने कि अन्यौमति देने के खिलाफ थे। वे एक हिन्दु देश भारत का निर्मान करना छाते थे। "मृत्यु" राजा बरी कि मृत्यु सन १६४० मैं हुइ थि, उस्स समय राजा कि उम्र ६० साल थि। उन्के बाद उनके पहली पत्नी से दुस्र पुत्र वीर बरी राजा बना।.

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राजा विक्रमाजीत राय रायन

विक्रमाजीत राय रायन का मूल नाम 'राजा सुंदरदास' था। ये ब्राह्मण थे। मुगल सम्राट् जहांगीर के दरबार में राजकुमार शाहजहाँ का सेवक नियुक्त हुआ। कार्यदक्ष होने के कारण लेखक से मीरे-सामान बनाया गया। 'विक्रमाजीत' और 'रायरायन' नाम इसे उपाधिस्वरूप प्राप्त हुए थे। 1617 में गुजरात प्रांत का अध्यक्ष नियुक्त हुआ। अपनी अध्यक्षता में उसे प्रदेश की सीमाएँ दूर दूर तक विस्तृत कीं। राजा वसू के पुत्र सूरजमल के विदोह को शाहजहाँ के साथ सफलतापूर्वक दमन करके मऊ और महरी के दुर्ग जीत लिए। काँगड़ा दुर्ग पर चौदह मास तक घेरा डाल रखने के उपरात सन्‌ 1621 ई. में अधिकार किया। लगभग इसी समय मलिक अंबर ने विद्रोह करके अहमदनगर और बरनार के आसपास अधिकर कर लिया और बुरहानपुर को घेर लिया। राजा ने अन्य सरदारों के साथ पहुँचकर वीरता से मलिक अंबर का दमन किया। शाहजहाँ के विद्रोह के समय राजा मर गया। यह पाँच हजारी मंसब तक पहुँच चुका था। श्रेणी:भारत का इतिहास श्रेणी:भारत के राजा.

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राजा गिरधरदास खण्डेला

गिरधरदास खण्डेला के राजा थे, इन्होने अकबर के दक्षिण भारतीय युद्ध अभियानों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा कई युद्ध इनकी वीरता से जीते गए। इनके वंशज ही आज गिरधरदासोत शेखावत ने उपनाम से जाने जाते है। .

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रवि भाटिया

रवि भाटिया (जन्म: ३० नवम्बर १९८८) भारतीय टेलिविजन अभिनेता हैं। वर्तमान में वो धारावाहिक जोधा अकबर में नूरुद्दीन मुहम्मद सलीम का अभिनय कर रहे हैं। .

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रूज़ा शरीफ

रोज़ा शरीफ या शेख अहमद फारुकी सरहिंद (दरियाह के मुजदाद, अल्फ-सानी) के रूप में जाना जाता हैगुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब के उत्तर में एक छोटे से दूरी पर सरहिंद -बस्सी पठाना रोड पर स्थित है। शेख अहमद फारूकी 1563 से 1624 तक अकबर और जहांगीर के समय इस स्थान पर रहते थे। .

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लाहौर

लाहौर (لہور / ਲਹੌਰ, لاہور) पाकिस्तान के प्रांत पंजाब की राजधानी है एवं कराची के बाद पाकिस्तान में दूसरा सबसे बडा आबादी वाला शहर है। इसे पाकिस्तान का दिल नाम से भी संबोधित किया जाता है क्योंकि इस शहर का पाकिस्तानी इतिहास, संस्कृति एवं शिक्षा में अत्यंत विशिष्ट योगदान रहा है। इसे अक्सर पाकिस्तान बागों के शहर के रूप में भी जाना जाता है। लाहौर शहर रावी एवं वाघा नदी के तट पर भारत पाकिस्तान सीमा पर स्थित है। लाहौर का ज्यादातर स्थापत्य मुगल कालीन एवं औपनिवेशिक ब्रिटिश काल का है जिसका अधिकांश आज भी सुरक्षित है। आज भी बादशाही मस्जिद, अली हुजविरी शालीमार बाग एवं नूरजहां तथा जहांगीर के मकबरे मुगलकालीन स्थापत्य की उपस्थिती एवं उसकी अहमियत का आभास करवाता है। महत्वपूर्ण ब्रिटिश कालीन भवनों में लाहौर उच्च न्यायलय जनरल पोस्ट ऑफिस, इत्यादि मुगल एवं ब्रिटिश स्थापत्य का मिलाजुला नमूना बनकर लाहौर में शान से उपस्थित है एवं ये सभी महत्वपूर्ण पर्यटक स्थल के रूप में लोकप्रिय हैं। मुख्य तौर पर लाहौर में पंजाबी को मातृ भाषा के तौर पर इस्तेमाल की जाती है हलाकि उर्दू एवं अंग्रेजी भाषा भी यहां काफी प्रचलन में है एवं नौजवानों में काफी लोकप्रिय है। लाहौर की पंजाबी शैली को लाहौरी पंजाबी के नाम से भी जाना जाता है जिसमे पंजाबी एवं उर्दू का काफी सुंदर मिश्रण होता है। १९९८ की जनगणना के अनुसार शहर की आबादी लगभग ७ लाख आंकी गयी थी जिसके जून २००६ में १० लाख होने की उम्मीद जतायी गयी थी। इस अनुमान के मुताबिक लाहौर दक्षिण एशिया में पांचवी सबसे बडी आबादी वाला एवं दुनिया में २३वीं सबसे बडी आबादी वाला शहर है।.

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शालीमार बाग (श्रीनगर)

शालीमार बाग़,(शालीमार बाग़; شالیمار باغ) भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य में विख्यात उद्यान है जो मुगल बाग का एक उदाहरण है। इसे मुगल बादशाह जहाँगीर ने श्रीनगर में बनवाया था। श्रीनगर भारत के उत्तरतम राज्य जम्मू एवं कश्मीर की ग्रीष्म-कालीन राजधानी है। इसे जहाँगीर ने अपनी प्रिय एवं बुद्धिमती पत्नी मेहरुन्निसा के लिये बनवाया था, जिसे नूरजहाँ की उपाधि दी गई थी। इस बाग में चार स्तर पर उद्यान बने हैं एवं जलधारा बहती है। इसकी जलापूर्ति निकटवर्ती हरिवन बाग से होती है। उच्चतम स्तर पर उद्यान, जो कि निचले स्तर से दिखाई नहीं देता है, वह हरम की महिलाओं हेतु बना था। यह उद्यान ग्रीष्म एवं पतझड़ में सर्वोत्तम कहलाता है। इस ऋतु में पत्तों का रंग बदलता है एवं अनेकों फूल खिलते हैं। ग्रीष्म ऋतु में शालीमार बाग यही उद्यान अन्य बागों की प्रेरणा बना, खासकर इसी नाम से लाहौर, पाकिस्तान में निर्मित और विकसित बाग की। यह वर्तमान में एक सार्वजनिक बाग़ है। इसके पूर्ण निर्माण होने पर जहाँगीर ने फारसी की वह प्रसिद्ध अभिव्यक्ति कही थी: .

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शाह जहाँ

शाह जहाँ (उर्दू: شاہجہان)पांचवे मुग़ल शहंशाह था। शाह जहाँ अपनी न्यायप्रियता और वैभवविलास के कारण अपने काल में बड़े लोकप्रिय रहे। किन्तु इतिहास में उनका नाम केवल इस कारण नहीं लिया जाता। शाहजहाँ का नाम एक ऐसे आशिक के तौर पर लिया जाता है जिसने अपनी बेग़म मुमताज़ बेगम के लिये विश्व की सबसे ख़ूबसूरत इमारत ताज महल बनाने का यत्न किया। सम्राट जहाँगीर के मौत के बाद, छोटी उम्र में ही उन्हें मुगल सिंहासन के उत्तराधिकारी के रूप में चुन लिया गया था। 1627 में अपने पिता की मृत्यु होने के बाद वह गद्दी पर बैठे। उनके शासनकाल को मुग़ल शासन का स्वर्ण युग और भारतीय सभ्यता का सबसे समृद्ध काल बुलाया गया है। .

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शाह आलम द्वितीय

The Mughal Emperor Shah Alam II, negotiates territorial changes with a member of the British East India Company शाह आलम द्वितीय (१७२८-१८०६), जिसे अली गौहर भी कहा गया है, भारत का मुगल सम्राट रहा। इसे गद्दी अपने पिता, आलमगीर द्वितीय से १७६१ में मिली। १४ सितंबर १८०३ को इसका राज्य ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन आ गया और ये मात्र कठपुतली बनकर रह गया। १८०५ में इसकी मृत्यु हुई। इसकी कब्र १३ शताब्दी के संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की महरौली में दरगाह के निकट एक संगमर्मर के परिसर में बहादुर शाह प्रथम (जिसे शाह आलम प्रथम भी कहा जाता है) एवं अकबर द्वितीय के साथ बनी है। .

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शाहजहां तृतीय

शाहजहां तृतीय (شاه جہان ۳) जिसे मुही-उल-मिल्लत भू कहा गया है, मुगल सम्राट थे। ये मुही उस-सुन्नत का पुत्र और मुहम्मद कम बख्श का ज्येष्ठ पुत्र था, जो औरंगज़ेब का कनिष्ठ पुत्र था। इसे १७५९ में गद्दी पर बैठाया गया किंतु १७६० में ही अपने ही वज़ीर द्वारा हटा दित्या गया। १७५९ में दिल्ली पर मराठा सेनाओं का कुछ कब्ज़ा हो गया था। .

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श्रीनगर, जम्मू और कश्मीर

श्रीनगर भारत के जम्मू और कश्मीर प्रान्त की राजधानी है। कश्मीर घाटी के मध्य में बसा यह नगर भारत के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से हैं। श्रीनगर एक ओर जहां डल झील के लिए प्रसिद्ध है वहीं दूसरी ओर विभिन्न मंदिरों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। 1700 मीटर ऊंचाई पर बसा श्रीनगर विशेष रूप से झीलों और हाऊसबोट के लिए जाना जाता है। इसके अलावा श्रीनगर परम्परागत कश्मीरी हस्तशिल्प और सूखे मेवों के लिए भी विश्व प्रसिद्ध है। श्रीनगर का इतिहास काफी पुराना है। माना जाता है कि इस जगह की स्थापना प्रवरसेन द्वितीय ने 2,000 वर्ष पूर्व की थी। इस जिले के चारों ओर पांच अन्य जिले स्थित है। श्रीनगर जिला कारगिल के उत्तर, पुलवामा के दक्षिण, बुद्धगम के उत्तर-पश्चिम के बगल में स्थित है। श्रीनगर जम्मू और कश्मीर राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी है। ये शहर और उसके आस-पार के क्षेत्र एक ज़माने में दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत पर्यटन स्थल माने जाते थे -- जैसे डल झील, शालिमार और निशात बाग़, गुलमर्ग, पहलग़ाम, चश्माशाही, आदि। यहाँ हिन्दी सिनेमा की कई फ़िल्मों की शूटिंग हुआ करती थी। श्रीनगर की हज़रत बल मस्जिद में माना जाता है कि वहाँ हजरत मुहम्मद की दाढ़ी का एक बाल रखा है। श्रीनगर में ही शंकराचार्य पर्वत है जहाँ विख्यात हिन्दू धर्मसुधारक और अद्वैत वेदान्त के प्रतिपादक आदि शंकराचार्य सर्वज्ञानपीठ के आसन पर विराजमान हुए थे। डल झील और झेलम नदी (संस्कृत: वितस्ता, कश्मीरी: व्यथ) में आने जाने, घूमने और बाज़ार और ख़रीददारी का ज़रिया ख़ास तौर पर शिकारा नाम की नावें हैं। कमल के फूलों से सजी रहने वाली डल झील पर कई ख़ूबसूरत नावों पर तैरते घर भी हैं जिनको हाउसबोट कहा जाता है। इतिहासकार मानते हैं कि श्रीनगर मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बसाया गया था। डल झील में एक शिकारा श्रीनगर से कुछ दूर एक बहुत पुराना मार्तण्ड (सूर्य) मन्दिर है। कुछ और दूर अनन्तनाग ज़िले में शिव को समर्पित अमरनाथ की गुफ़ा है जहाँ हज़ारों तीर्थयात्री जाते हैं। श्रीनगर से तीस किलोमीटर दूर मुस्लिम सूफ़ी संत शेख़ नूरुद्दिन वली की दरगाह चरार-ए-शरीफ़ है, जिसे कुछ वर्ष पहले इस्लामी आतंकवादियों ने ही जला दिया था, पर बाद में इसकी वापिस मरम्मत हुई। .

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शेर शाह सूरी

शेरशाह सूरी (1472-22 मई 1545) (फारसी/पश्तो: فريد خان شير شاہ سوري, जन्म का नाम फ़रीद खाँ) भारत में जन्मे पठान थे, जिन्होनें हुमायूँ को 1540 में हराकर उत्तर भारत में सूरी साम्राज्य स्थापित किया था। शेरशाह सूरी ने पहले बाबर के लिये एक सैनिक के रूप में काम किया था जिन्होनें उन्हे पदोन्नति कर सेनापति बनाया और फिर बिहार का राज्यपाल नियुक्त किया। 1537 में, जब हुमायूँ कहीं सुदूर अभियान पर थे तब शेरशाह ने बंगाल पर कब्ज़ा कर सूरी वंश स्थापित किया था। सन् 1539 में, शेरशाह को चौसा की लड़ाई में हुमायूँ का सामना करना पड़ा जिसे शेरशाह ने जीत लिया। 1540 ई. में शेरशाह ने हुमायूँ को पुनः हराकर भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया और शेर खान की उपाधि लेकर सम्पूर्ण उत्तर भारत पर अपना साम्रज्य स्थापित कर दिया। एक शानदार रणनीतिकार, शेर शाह ने खुद को सक्षम सेनापति के साथ ही एक प्रतिभाशाली प्रशासक भी साबित किया। 1540-1545 के अपने पांच साल के शासन के दौरान उन्होंने नयी नगरीय और सैन्य प्रशासन की स्थापना की, पहला रुपया जारी किया है, भारत की डाक व्यवस्था को पुनः संगठित किया और अफ़गानिस्तान में काबुल से लेकर बांग्लादेश के चटगांव तक ग्रांड ट्रंक रोड को बढ़ाया। साम्राज्य के उसके पुनर्गठन ने बाद में मुगल सम्राटों के लिए एक मजबूत नीव रखी विशेषकर हुमायूँ के बेटे अकबर के लिये। .

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सलीम

सलीम अनेक संदर्भ में प्रयुक्त शब्द है।.

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सालिहा बानो बेगम

सालिहा बानो बेगम (नस्तालीक़:; मौत 10 जून 1620) जहाँगीर की बीवी और मुग़लिया सल्तनत की मलिका थी। वह पादशाह बानो बेगम या पादशाह महल के नामों से भी जानी जाती है। .

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सावर्ण रायचौधुरी परिवार

सावर्ण रायचौधुरी परिवार कोलकाता शहर का प्रथम परिवार कहलाता है क्योंकि इस परिवार से ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने तीनन गांव खरीद कर कोलकाता शहर को बसाना चालू किया था। औरंगजेब के पौत्र आजिम उस शान के हुकुम से १० नवम्बर १६९८ को कोलकाता, सुतानुटि और गोबिन्दपुर - इन तीन गांव के प्रजास्वत्व ईस्ट इण्डिया कम्पनी को हस्तान्तर किये थे। सावर्णचौधुरीयों को सुंदरवन इलाके में जो जागिरदारी मिली थी, उसका एक अंश थे ये तीन गांव। उन लोगों को यह इलाका मिला था जहांगीर से। हालांकि वे लोग ब्राह्मण परिवार थे, उनके सदस्यों ने मुगलों के सेना में उच्च पद पर आसीन थे। परिवार के पहला सदस्य जो गंगोपाध्याय से रायचौधुरी हुये वह थे लक्ष्मीकान्त (१५७०-१६४९)। उनको अकबर से राय खिताब और जहांगीर से चौधुरी खिताब मिला था। .

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संत बखना

अंगूठाकार संत बखना जी, गायक संत थे। वे संत दादू दयाल के बावन प्रधान शिष्यों में से एक थे। पदों की रचना करते और घूम-घूम कर तथा साधु संतों की संगत में बैठकर गाते। वे गृहस्थ संत थे। संत दादू से उनका बड़ा गहरा लगाव था। दादू की मृत्यु होने पर बखना जी ने जो पद गाया था, उससे पता चलता है कि उनके मन में गुरु के लिए कितनी श्रद्धा थी- ‘बीछड़या राम सनेही रे, म्हारे मन पछतावो ये ही रे। बिलखी सखी सहेली रे, ज्यों जन बिन नागर वेली रे। बखना बहुत बिसूरे रे, दरसन के कारण झूरे रे।’ वे राजस्थान के नरायणा नगर के रहने वाले थे। वे मुसलमान थे लेकिन ऐसे सांसारिक बंधन पूरी तरह भुला चुके थे। दादू की शिष्य परंपरा में रज्जब, बाजिद, बखना जी - सभी ने साम्प्रदायिक सद्भाव का प्रचार किया। बखना जी कहते थे कि हमें अपना जीवन ‘राम’ की चेतना से जगृत कर लेना चाहिए। रामनाम का गुणगान करने में जो समय बीतता है, वही सार्थक होता है, शेष व्यर्थ है। उनका कहना था कि धन की सेवा, अहंकार और वंश स्वामीपन - एक ही मानसिकता के दो पक्ष हैं- ‘बखना हम तो कहेंगे, रीस करो मत कोई। माया अरु स्वामी पणी, दोइ-दोई बात न होइ।।’ संत बखना आत्म ज्योति जगाने की बात पर बल देते थे। यदि हम सच्ची साधना करें तो परमात्मा स्वयं आकर हमसे मिलेंगे- ‘ढूंढै दीप पतंग नै, तो वखनां विरद लै जई। दीपक मांहै जोति व्है, तो घणां मिलैगा आई।’ कहते हैं अजमेर जते हुए सम्राट जहांगीर नरायणा में ठहरे थे। उसने बखना जी की परीक्षा लेने के लिए काजी और पंडितों से पूछा कि परमात्मा ने यह सृष्टि किस समरू रची? संत बखणा जी ने कहा- ‘जिहुं विरिया यह सब हुआ, सो हम किया विचार। बखना वरियां खुशी की, करता सिरजनहार।’ वे कहते थे कि साधु संतों की वाणी को अपनाना चाहिए, क्योंकि वही समाज को धोकर निर्मल बनाती है। ‘वाणी बरसे सबद हुहाव। कनरस भरि-भरि हरिरस भाव।’ श्रेणी:सन्त कवि.

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सुहेलदेव

सुहेलदेव श्रावस्ती से अर्ध-पौराणिक भारतीय राजा हैं, जिन्होंने 11वीं शताब्दी की शुरुआत में बहराइच में ग़ज़नवी सेनापति सैयद सालार मसूद ग़ाज़ी को पराजित कर और मार डाला था। 17वीं शताब्दी के फारसी भाषा के ऐतिहासिक कल्पित कथा मिरात-ए-मसूदी में उनका उल्लेख है। 20वीं शताब्दी के बाद से, विभिन्न हिंदू राष्ट्रवादी समूहों ने उन्हें एक हिंदू राजा के रूप में चिह्नित किया है जिसने एक मुस्लिम आक्रमणकारियों को हरा दिया। .

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हुमायूँ

मिर्जा मुहम्मद हाकिम, पुत्र अकीकेह बेगम, पुत्री बख्शी बानु बेगम, पुत्री बख्तुन्निसा बेगम, पुत्री | --> हुमायूँ एक मुगल शासक था। प्रथम मुग़ल सम्राट बाबर के पुत्र नसीरुद्दीन हुमायूँ (६ मार्च १५०८ – २२ फरवरी, १५५६) थे। यद्यपि उन के पास साम्राज्य बहुत साल तक नही रहा, पर मुग़ल साम्राज्य की नींव में हुमायूँ का योगदान है। बाबर की मृत्यु के पश्चात हुमायूँ ने १५३० में भारत की राजगद्दी संभाली और उनके सौतेले भाई कामरान मिर्ज़ा ने काबुल और लाहौर का शासन ले लिया। बाबर ने मरने से पहले ही इस तरह से राज्य को बाँटा ताकि आगे चल कर दोनों भाइयों में लड़ाई न हो। कामरान आगे जाकर हुमायूँ के कड़े प्रतिद्वंदी बने। हुमायूँ का शासन अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और उत्तर भारत के हिस्सों पर १५३०-१५४० और फिर १५५५-१५५६ तक रहा। भारत में उन्होने शेरशाह सूरी से हार पायी। १० साल बाद, ईरान साम्राज्य की मदद से वे अपना शासन दोबारा पा सके। इस के साथ ही, मुग़ल दरबार की संस्कृति भी मध्य एशियन से इरानी होती चली गयी। हुमायूँ के बेटे का नाम जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर था। .

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हुमायूँ का मकबरा

हुमायूँ का मकबरा इमारत परिसर मुगल वास्तुकला से प्रेरित मकबरा स्मारक है। यह नई दिल्ली के दीनापनाह अर्थात् पुराने किले के निकट निज़ामुद्दीन पूर्व क्षेत्र में मथुरा मार्ग के निकट स्थित है। गुलाम वंश के समय में यह भूमि किलोकरी किले में हुआ करती थी और नसीरुद्दीन (१२६८-१२८७) के पुत्र तत्कालीन सुल्तान केकूबाद की राजधानी हुआ करती थी। यहाँ मुख्य इमारत मुगल सम्राट हुमायूँ का मकबरा है और इसमें हुमायूँ की कब्र सहित कई अन्य राजसी लोगों की भी कब्रें हैं। यह समूह विश्व धरोहर घोषित है- अभिव्यक्ति। १७ अप्रैल २०१०।, एवं भारत में मुगल वास्तुकला का प्रथम उदाहरण है। इस मक़बरे में वही चारबाग शैली है, जिसने भविष्य में ताजमहल को जन्म दिया। यह मकबरा हुमायूँ की विधवा बेगम हमीदा बानो बेगम के आदेशानुसार १५६२ में बना था। इस भवन के वास्तुकार सैयद मुबारक इब्न मिराक घियाथुद्दीन एवं उसके पिता मिराक घुइयाथुद्दीन थे जिन्हें अफगानिस्तान के हेरात शहर से विशेष रूप से बुलवाया गया था। मुख्य इमारत लगभग आठ वर्षों में बनकर तैयार हुई और भारतीय उपमहाद्वीप में चारबाग शैली का प्रथम उदाहरण बनी। यहां सर्वप्रथम लाल बलुआ पत्थर का इतने बड़े स्तर पर प्रयोग हुआ था। १९९३ में इस इमारत समूह को युनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया। इस परिसर में मुख्य इमारत मुगल सम्राट हुमायूँ का मकबरा है। हुमायूँ की कब्र के अलावा उसकी बेगम हमीदा बानो तथा बाद के सम्राट शाहजहां के ज्येष्ठ पुत्र दारा शिकोह और कई उत्तराधिकारी मुगल सम्राट जहांदर शाह, फर्रुख्शियार, रफी उल-दर्जत, रफी उद-दौलत एवं आलमगीर द्वितीय आदि की कब्रें स्थित हैं। देल्ही थ्रु एजेज़। एस.आर.बख्शी। प्रकाशक:अनमोल प्रकाशन प्रा.लि.। १९९५।ISBN 81-7488-138-7। पृष्ठ:२९-३५ इस इमारत में मुगल स्थापत्य में एक बड़ा बदलाव दिखा, जिसका प्रमुख अंग चारबाग शैली के उद्यान थे। ऐसे उद्यान भारत में इससे पूर्व कभी नहीं दिखे थे और इसके बाद अनेक इमारतों का अभिन्न अंग बनते गये। ये मकबरा मुगलों द्वारा इससे पूर्व निर्मित हुमायुं के पिता बाबर के काबुल स्थित मकबरे बाग ए बाबर से एकदम भिन्न था। बाबर के साथ ही सम्राटों को बाग में बने मकबरों में दफ़्न करने की परंपरा आरंभ हुई थी। हिस्ट‘ओरिक गार्डन रिव्यु नंबर १३, लंदन:हिस्टॉरिक गार्डन फ़ाउडेशन, २००३ अपने पूर्वज तैमूर लंग के समरकंद (उज़्बेकिस्तान) में बने मकबरे पर आधारित ये इमारत भारत में आगे आने वाली मुगल स्थापत्य के मकबरों की प्रेरणा बना। ये स्थापत्य अपने चरम पर ताजमहल के साथ पहुंचा। .

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होली

होली (Holi) वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता है। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहाँ भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है। नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया,नमकीन व ठंडाई से किया जाता है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है। .

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जहाँगीर का मकबरा

जहांगीर का मकबरा, शाहदरा, लाहौर लाहौर में शाहदरा नगर के निकट स्थित जहांगीर मकबरा मुगल सम्राट जहांगीर को समर्पित है। इसे जहांगीर की मृत्‍यु के १० साल बाद उनके पुत्र शाहजहां ने बनवाया था। एक बगीचे के अंदर स्थित मकबरे की मीनारें ३० मीटर ऊंची हैं। मकबरे के भीतरी हिस्से में भित्तिचित्रों की सुंदर सजावट है। .

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जहांदार शाह

जहांदार शाह (१६६१-१७१३) हिन्दुस्तान का मुगल सम्राट था। इसने यहां १७१२-१७१३ तक राज्य किया। बहादुरशाह का ज्येष्ठ पुत्र जहाँदारशाह १६६१ में उत्पन्न हुआ। पिता की मृत्यु के पश्चात् सत्ता के लिये इसे अपने भाइयों से संघर्ष करना पड़ा। मीर बख्शी जुल्फिकार खाँ ने इसे सहायता दी। इसका एक भाई अजीम-अल-शान लाहौर के निकट युद्ध में मारा गया। शेष दो भाइयों- जहानशाह और रफी-अल-शान को पदच्युतकर सम्राट् बनने में यह सफल हुआ। विलासी प्रकृति के जहाँदारशाह ने समूचे राज्य के प्रति उपेक्षा बरती। १७१२ में अब्दुल्लाखाँ, हुसेन अलीखाँ और फर्रुखसियर ने इसके विरुद्ध पटना से कूच किया। आगरा में जहाँदारशाह ने टक्कर ली। पराजित होकर इसने दिल्ली में जुल्फिकार खाँ के पिता असदखाँ के यहाँ शरण ली। असदखाँ ने इसे दिल्ली के किले में कैद कर लिया। फर्रुखसियर ने विजयी होते ही इसकी हत्या करवा दी। .

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जगत गोसाई

जगत गोसाई (नस्तालीक़:, अन्य नाम: जोधाबाई, राजकुमारी मानवती बाईजी लाल सहिबा, राजकुमारी मनमती, मनभावती बाई) जोधपुर की मारवाड़ रियासत की राजपूत राजकुमारी थी, जो मुग़ल बादशाह जहाँगीर की पत्नी और पाँचवें मुग़ल बादशाह शाहजहाँ की माँ के तौर पर जानी जाती हैं। उनकी मृत्यु के बाद उन्हें बिलक़िस मकानी के नाम से सम्मानित किया गया था। .

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जुझारसिंह बुन्देला

जुझारसिंह बुंदेला, ओरछा के राजा वीरसिंह देव के पुत्र थे। जहाँगीर शासन के अंतिम काल में इन्हें राजा की उपाधि मिली और ये चार हजारी मंसबदार बने। सन् १६२७ ईo शाहजहाँ ने इन्हें उपहारों से सम्मानित किया। किंतु कुछ समय पश्चात् अशुद्ध करलेखा की शाहजहाँ द्वारा जाँच किए जाने की सूचना से डरकर ये आगरे से भागकर ओरछा चले गए। वहाँ अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने लगे। जब जहांगीर को ये समाचार ज्ञात हुआ तो उसने सेनाएँ भेजकर ओरछा में घेरा डलवा दिया। फलत: युद्ध हुआ, किंतु 'एरिच' दुर्ग बादशाही सेनाओं के अधिकार में आ जाने से जुझारसिंह के पराजय की संभावना उत्पन्न हो गई। तब इन्होंने महावत खाँ की शरण में जाकर, जो बादशाही सेना के एक भाग का नेतृत्व कर रहा था, क्षमा माँगी। महावत खाँ इन्हें शाहजहाँ के दरबार में ले आया। शाहजहाँ ने इन्हें क्षमा कर दिया। शाहजहाँ जब खानजहाँ लोदी और निजामुल्मुल्क पर आक्रमण करने के उद्देश्य से दक्षिण की ओर गया तब यह भी दक्षिण के सूबेदार आज़म खाँ के साथ नियुक्त हुए। तत्पश्चात् ये चंदावल में नियुक्त हुए। दक्षिण प्रांत पूर्णत: विजित होने पर कुछ दिनों के लिये अपने देश चले गए। देश पहुँचने पर इन्होंने चौरागढ़ दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। जब जहांगीर को यह सूचना मिली तो उसने एक आदेश जुझारसिंह के लिये जारी किया कि विजित प्रांत और कोष की संपत्ति का बहुत बड़ा भाग बादशाह को सौंप दे। किंतु वह टाल गए और अपने पुत्र को भी, जो दक्षिण में था, बुलवा लिया। शाहजहाँ ने उन्हें दंडित करने के लिये सेनाएँ भेजीं। वह अपने पुत्र के साथ सारा सामान लिये इधर से उधर भागते फिरते रहे। इस बीच इनका बहुत सा बहुमूल्य सामान इनसे छिनता गया। किंतु अपने पुत्र विक्रमाजीत सिंह के साथ ये जंगलों में छिपे रहे। सन् १६४४ ईo में देवगढ़ के गोंड़ों ने इन दोनों को मार डाला। खानेदौराँ ने दोनों के सर कटवाकर बादशाह के पास भिजवा दिए। चौरागढ़ के कोष से प्राप्त १ करोड़ रुपया भी दरबार में भेज दिया गया। .

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जोधा बाई

'जोधा बाई' या 'जोध बाई' से निम्नलिखित व्यक्तियों का बोध होता है-.

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ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा के यूनियन परिषदों की सूची

यूनियन परिषद या यूनियन काउंसिल पाकिस्तान का हीनतम् प्रशासनिक इकाई होती है। क्रमशः यह पाकिस्तान में छठे स्तर का प्रशासनिक निकाय है: यानी पहले संघीय सरकार, फिर प्रांत, फिर प्रमंडल, फिर जिले फिर तहसील और अंत्यतः यूनियन परिषद। लेकिन 2007 के बाद परिमंडल को समाप्त कर दिया गया इसलिए अब यूनियन परिषद पांचवें-स्तर की इकाई है। संघ परिषद स्थानीय सरकार का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। संघ परिषद में 21 पार्षद होते हैं जिनकी अध्यक्षता नाज़िम और उप मॉडरेटर करते हैं। पाकिस्तान में इस समय 6000 से अधिक संघ परिषद हैं। .

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खूनी दरवाजा

खूनी दरवाजा (उर्दू خونی دروازہ), जिसे लाल दरवाजा भी कहा जाता है, दिल्ली में बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग पर दिल्ली गेट के निकट स्थित है। यह दिल्ली के बचे हुए १३ ऐतिहासिक दरवाजों में से एक है। यह पुरानी दिल्ली के लगभग आधा किलोमीटर दक्षिण में, फ़िरोज़ शाह कोटला मैदान के सामने स्थित है। इसके पश्चिम में मौलाना आज़ाद चिकित्सीय महाविद्यालय का द्वार है। यह असल में दरवाजा न होकर तोरण है। भारतीय पुरातत्व विभाग ने इसे सुरक्षित स्मारक घोषित किया है। .

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गंग कवि

कवि गंग या 'गंग कवि' (1538 -1625 ई.) हिन्दी के कवि थे। उनका वास्तविक नाम गंगाधर था। वे अकबर के दरबारी कवि थे। जन्म, निधनतिथि तथा जन्मस्थान विवादास्पद है। वैसे ये इकनौर (जिला इटावा) के ब्रह्मभट्ट(चंडिसा राव) कहे जाते हैं। शिवसिंह सेंगर के आधार पर मिश्रबंधु इनका जन्म सं.

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गुरु अर्जुन देव

गुरु अर्जन देव के ५वे गुरु बनने की घोषणा अर्जुन देव या गुरू अर्जुन देव (15 अप्रेल 1563 – 30 मई 1606) सिखों के ५वे गुरु थे। गुरु अर्जुन देव जी शहीदों के सरताज एवं शान्तिपुंज हैं। आध्यात्मिक जगत में गुरु जी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उन्हें ब्रह्मज्ञानी भी कहा जाता है। गुरुग्रंथ साहिब में तीस रागों में गुरु जी की वाणी संकलित है। गणना की दृष्टि से श्री गुरुग्रंथ साहिब में सर्वाधिक वाणी पंचम गुरु की ही है। ग्रंथ साहिब का संपादन गुरु अर्जुन देव जी ने भाई गुरदास की सहायता से 1604में किया। ग्रंथ साहिब की संपादन कला अद्वितीय है, जिसमें गुरु जी की विद्वत्ता झलकती है। उन्होंने रागों के आधार पर ग्रंथ साहिब में संकलित वाणियों का जो वर्गीकरण किया है, उसकी मिसाल मध्यकालीन धार्मिक ग्रंथों में दुर्लभ है। यह उनकी सूझबूझ का ही प्रमाण है कि ग्रंथ साहिब में 36महान वाणीकारोंकी वाणियां बिना किसी भेदभाव के संकलित हुई। .

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गुलाब

गुलाब एक बहुवर्षीय, झाड़ीदार, कंटीला, पुष्पीय पौधा है जिसमें बहुत सुंदर सुगंधित फूल लगते हैं। इसकी १०० से अधिक जातियां हैं जिनमें से अधिकांश एशियाई मूल की हैं। जबकि कुछ जातियों के मूल प्रदेश यूरोप, उत्तरी अमेरिका तथा उत्तरी पश्चिमी अफ्रीका भी है। भारत सरकार ने १२ फरवरी को 'गुलाब-दिवस' घोषित किया है। गुलाब का फूल कोमलता और सुंदरता के लिये प्रसिद्ध है, इसी से लोग छोटे बच्चों की उपमा गुलाब के फूल से देते हैं। .

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ओड़िशा का इतिहास

प्राचीन काल से मध्यकाल तक ओडिशा राज्य को कलिंग, उत्कल, उत्करात, ओड्र, ओद्र, ओड्रदेश, ओड, ओड्रराष्ट्र, त्रिकलिंग, दक्षिण कोशल, कंगोद, तोषाली, छेदि तथा मत्स आदि नामों से जाना जाता था। परन्तु इनमें से कोई भी नाम सम्पूर्ण ओडिशा को इंगित नहीं करता था। अपितु यह नाम समय-समय पर ओडिशा राज्य के कुछ भाग को ही प्रस्तुत करते थे। वर्तमान नाम ओडिशा से पूर्व इस राज्य को मध्यकाल से 'उड़ीसा' नाम से जाना जाता था, जिसे अधिकारिक रूप से 04 नवम्बर, 2011 को 'ओडिशा' नाम में परिवर्तित कर दिया गया। ओडिशा नाम की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द 'ओड्र' से हुई है। इस राज्य की स्थापना भागीरथ वंश के राजा ओड ने की थी, जिन्होने अपने नाम के आधार पर नवीन ओड-वंश व ओड्र राज्य की स्थापना की। समय विचरण के साथ तीसरी सदी ई०पू० से ओड्र राज्य पर महामेघवाहन वंश, माठर वंश, नल वंश, विग्रह एवं मुदगल वंश, शैलोदभव वंश, भौमकर वंश, नंदोद्भव वंश, सोम वंश, गंग वंश व सूर्य वंश आदि सल्तनतों का आधिपत्य भी रहा। प्राचीन काल में ओडिशा राज्य का वृहद भाग कलिंग नाम से जाना जाता था। सम्राट अशोक ने 261 ई०पू० कलिंग पर चढ़ाई कर विजय प्राप्त की। कर्मकाण्ड से क्षुब्द हो सम्राट अशोक ने युद्ध त्यागकर बौद्ध मत को अपनाया व उनका प्रचार व प्रसार किया। बौद्ध धर्म के साथ ही सम्राट अशोक ने विभिन्न स्थानों पर शिलालेख गुदवाये तथा धौली व जगौदा गुफाओं (ओडिशा) में धार्मिक सिद्धान्तों से सम्बन्धित लेखों को गुदवाया। सम्राट अशोक, कला के माध्यम से बौद्ध धर्म का प्रचार करना चाहते थे इसलिए सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को और अधिक विकसित करने हेतु ललितगिरि, उदयगिरि, रत्नागिरि व लगुन्डी (ओडिशा) में बोधिसत्व व अवलोकेतेश्वर की मूर्तियाँ बहुतायत में बनवायीं। 232 ई०पू० सम्राट अशोक की मृत्यु के पश्चात् कुछ समय तक मौर्य साम्राज्य स्थापित रहा परन्तु 185 ई०पू० से कलिंग पर चेदि वंश का आधिपत्य हो गया था। चेदि वंश के तृतीय शासक राजा खारवेल 49 ई० में राजगद्दी पर बैठा तथा अपने शासन काल में जैन धर्म को विभिन्न माध्यमों से विस्तृत किया, जिसमें से एक ओडिशा की उदयगिरि व खण्डगिरि गुफाऐं भी हैं। इसमें जैन धर्म से सम्बन्धित मूर्तियाँ व शिलालेख प्राप्त हुए हैं। चेदि वंश के पश्चात् ओडिशा (कलिंग) पर सातवाहन राजाओं ने राज्य किया। 498 ई० में माठर वंश ने कलिंग पर अपना राज्य कर लिया था। माठर वंश के बाद 500 ई० में नल वंश का शासन आरम्भ हो गया। नल वंश के दौरान भगवान विष्णु को अधिक पूजा जाता था इसलिए नल वंश के राजा व विष्णुपूजक स्कन्दवर्मन ने ओडिशा में पोडागोड़ा स्थान पर विष्णुविहार का निर्माण करवाया। नल वंश के बाद विग्रह एवं मुदगल वंश, शैलोद्भव वंश और भौमकर वंश ने कलिंग पर राज्य किया। भौमकर वंश के सम्राट शिवाकर देव द्वितीय की रानी मोहिनी देवी ने भुवनेश्वर में मोहिनी मन्दिर का निर्माण करवाया। वहीं शिवाकर देव द्वितीय के भाई शान्तिकर प्रथम के शासन काल में उदयगिरी-खण्डगिरी पहाड़ियों पर स्थित गणेश गुफा (उदयगिरी) को पुनः निर्मित कराया गया तथा साथ ही धौलिगिरी पहाड़ियों पर अर्द्यकवर्ती मठ (बौद्ध मठ) को निर्मित करवाया। यही नहीं, राजा शान्तिकर प्रथम की रानी हीरा महादेवी द्वारा 8वीं ई० हीरापुर नामक स्थान पर चौंसठ योगनियों का मन्दिर निर्मित करवाया गया। 6वीं-7वीं शती कलिंग राज्य में स्थापत्य कला के लिए उत्कृष्ट मानी गयी। चूँकि इस सदी के दौरान राजाओं ने समय-समय पर स्वर्णाजलेश्वर, रामेश्वर, लक्ष्मणेश्वर, भरतेश्वर व शत्रुघनेश्वर मन्दिरों (6वीं सदी) व परशुरामेश्वर (7वीं सदी) में निर्माण करवाया। मध्यकाल के प्रारम्भ होने से कलिंग पर सोमवंशी राजा महाशिव गुप्त ययाति द्वितीय सन् 931 ई० में गद्दी पर बैठा तथा कलिंग के इतिहास को गौरवमयी बनाने हेतु ओडिशा में भगवान जगन्नाथ के मुक्तेश्वर, सिद्धेश्वर, वरूणेश्वर, केदारेश्वर, वेताल, सिसरेश्वर, मारकण्डेश्वर, बराही व खिच्चाकेश्वरी आदि मन्दिरों सहित कुल 38 मन्दिरों का निर्माण करवाया। 15वीं शती के अन्त तक जो गंग वंश हल्का पड़ने लगा था उसने सन् 1038 ई० में सोमवंशीयों को हराकर पुनः कलिंग पर वर्चस्व स्थापित कर लिया तथा 11वीं शती में लिंगराज मन्दिर, राजारानी मन्दिर, ब्रह्मेश्वर, लोकनाथ व गुन्डिचा सहित कई छोटे व बड़े मन्दिरों का निर्माण करवाया। गंग वंश ने तीन शताब्दियों तक कलिंग पर अपना राज्य किया तथा राजकाल के दौरान 12वीं-13वीं शती में भास्करेश्वर, मेघेश्वर, यमेश्वर, कोटी तीर्थेश्वर, सारी देउल, अनन्त वासुदेव, चित्रकर्णी, निआली माधव, सोभनेश्वर, दक्क्षा-प्रजापति, सोमनाथ, जगन्नाथ, सूर्य (काष्ठ मन्दिर) बिराजा आदि मन्दिरों को निर्मित करवाया जो कि वास्तव में कलिंग के स्थापत्य इतिहास में अहम भूमिका का निर्वाह करते हैं। गंग वंश के शासन काल पश्चात् 1361 ई० में तुगलक सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने कलिंग पर राज्य किया। यह वह दौर था जब कलिंग में कला का वर्चस्व कम होते-होते लगभग समाप्त ही हो चुका था। चूँकि तुगलक शासक कला-विरोधी रहे इसलिए किसी भी प्रकार के मन्दिर या मठ का निर्माण नहीं हुअा। 18वीं शती के आधुनिक काल में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का सम्पूर्ण भारत पर अधिकार हो गया था परन्तु 20वीं शती के मध्य में अंग्रेजों के निगमन से भारत देश स्वतन्त्र हुआ। जिसके फलस्वरूप सम्पूर्ण भारत कई राज्यों में विभक्त हो गया, जिसमें से भारत के पूर्व में स्थित ओडिशा (पूर्व कलिंग) भी एक राज्य बना। .

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औरंगज़ेब

अबुल मुज़फ़्फ़र मुहिउद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब आलमगीर (3 नवम्बर १६१८ – ३ मार्च १७०७) जिसे आमतौर पर औरंगज़ेब या आलमगीर (प्रजा द्वारा दिया हुआ शाही नाम जिसका अर्थ होता है विश्व विजेता) के नाम से जाना जाता था भारत पर राज्य करने वाला छठा मुग़ल शासक था। उसका शासन १६५८ से लेकर १७०७ में उसकी मृत्यु होने तक चला। औरंगज़ेब ने भारतीय उपमहाद्वीप पर आधी सदी से भी ज्यादा समय तक राज्य किया। वो अकबर के बाद सबसे ज्यादा समय तक शासन करने वाला मुग़ल शासक था। अपने जीवनकाल में उसने दक्षिणी भारत में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार करने का भरसक प्रयास किया पर उसकी मृत्यु के पश्चात मुग़ल साम्राज्य सिकुड़ने लगा। औरंगज़ेब के शासन में मुग़ल साम्राज्य अपने विस्तार के चरमोत्कर्ष पर पहुंचा। वो अपने समय का शायद सबसे धनी और शातिशाली व्यक्ति था जिसने अपने जीवनकाल में दक्षिण भारत में प्राप्त विजयों के जरिये मुग़ल साम्राज्य को साढ़े बारह लाख वर्ग मील में फैलाया और १५ करोड़ लोगों पर शासन किया जो की दुनिया की आबादी का १/४ था। औरंगज़ेब ने पूरे साम्राज्य पर फ़तवा-ए-आलमगीरी (शरियत या इस्लामी क़ानून पर आधारित) लागू किया और कुछ समय के लिए ग़ैर-मुस्लिमों पर अतिरिक्त कर भी लगाया। ग़ैर-मुसलमान जनता पर शरियत लागू करने वाला वो पहला मुसलमान शासक था। मुग़ल शासनकाल में उनके शासन काल में उसके दरबारियों में सबसे ज्यादा हिन्दु थे। और सिखों के गुरु तेग़ बहादुर को दाराशिकोह के साथ मिलकर बग़ावत के जुर्म में मृत्युदंड दिया गया था। .

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आना सागर झील

आना सागर झील, आनासागर झील या आणा सागर झील भारत में राजस्थान राज्य के अजमेर संभाग में स्थित एक कृत्रिम झील है। .

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आलमगीर द्वितीय

अज़ीज़-उद्दीन आलमगीर द्वितीय (१६९९-१७५९) (उर्दु:عالمگير) ३ जून १७५४ से ११ दिसम्बर १७५९ तक भारत में मुगल सम्राट रहा। ये जहांदार शाह का पुत्र था। .

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आगरा का किला

आगरा का किला एक यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व धरोहर स्थल है। यह किला भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के आगरा शहर में स्थित है। इसके लगभग 2.5 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में ही विश्व प्रसिद्ध स्मारक ताज महल मौजूद है। इस किले को कुछ इतिहासकार चारदीवारी से घिरी प्रासाद महल नगरी कहना बेहतर मानते हैं। यह भारत का सबसे महत्वपूर्ण किला है। भारत के मुगल सम्राट बाबर, हुमायुं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां और औरंगज़ेब यहां रहा करते थे, व यहीं से पूरे भारत पर शासन किया करते थे। यहां राज्य का सर्वाधिक खजाना, सम्पत्ति व टकसाल थी। यहाँ विदेशी राजदूत, यात्री व उच्च पदस्थ लोगों का आना जाना लगा रहता था, जिन्होंने भारत के इतिहास को रचा। .

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इस्लाम शाह सूरी

इस्लाम शाह सूरी सूर वंश का द्वितीय शासक था। उसका वास्तविक नाम जलाल खान था, एवं वह शेरशाह सूरी का पुत्र था। उसने सात वर्ष (1545–53) दिल्ली पर शासन किया। इस्लाम शाह सूरी के बारह वर्षीय पुत्र फिरोज़ शाह सूरी उसका उत्तराधिकारी था। परंतु गद्दी पर बैठने के कुछ ही दिन बाद शेर शाह के भतीजे मुहम्मद मुबरीज़ द्वारा उसको मौत के घाट उतार दिया गया, एवं मुबरीज़ ने मुहम्मद शाह आदिल के नाम से शासन किया। .

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कंपनी राज

कंपनी राज का अर्थ है ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भारत पर शासन। यह 1773 में शुरू किया है, जब कंपनी कोलकाता में एक राजधानी की स्थापना की है, अपनी पहली गवर्नर जनरल वार्रन हास्टिंग्स नियुक्त किया और संधि का एक परिणाम के रूप में बक्सर का युद्ध के बाद सीधे प्रशासन, में शामिल हो गया है लिया जाता है1765 में, जब बंगाल के नवाब कंपनी से हार गया था, और दीवानी प्रदान की गई थी, या बंगाल और बिहार में राजस्व एकत्रित करने का अधिकार हैशा सन १८५८ से,१८५७ जब तक चला और फलस्वरूप भारत सरकार के अधिनियम १८५८ के भारतीय विद्रोह के बाद, ब्रिटिश सरकार सीधे नए ब्रिटिश राज में भारत के प्रशासन के कार्य ग्रहण किया। .

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कृष्ण जन्म भूमि

कृष्ण जन्म भूमि मथुरा का एक प्रमुख धार्मिक स्थान है जहाँ हिन्दू धर्म के अनुयायी कृष्ण भगवान का जन्म स्थान मानते हैं। यह विवादों में भी घिरा हुआ है क्योंकि इससे लगी हुई जामा मस्जिद मुसलमानों के लिये धार्मिक स्थल है। भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि का ना केवल राष्द्रीय स्तर पर महत्व है बल्कि वैश्विक स्तर पर जनपद मथुरा भगवान श्रीकृष्ण के जन्मस्थान से ही जाना जाता है। आज वर्तमान में महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी की प्रेरणा से यह एक भव्य आकर्षण मन्दिर के रूप में स्थापित है। पर्यटन की दृष्टि से विदेशों से भी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए यहाँ प्रतिदिन आते हैं। भगवान श्रीकृष्ण को विश्व में बहुत बड़ी संख्या में नागरिक आराध्य के रूप में मानते हुए दर्शनार्थ आते हैं। .

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कृष्णदैवज्ञ

कृष्ण दैवज्ञ भारतीय गणितज्य थे। वे जहाँगीर के प्रधान सभापण्डित थे। इनकी माता का नाम गोजि तथा पिता का नाम श्री वल्लभ था। उन्होने भास्कराचार्य के बीजगणित की 'नवांकुर' नाम से टीका लिखी है। श्रेणी:भारतीय गणितज्ञ.

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अहमद शाह बहादुर

अहमद शाह बहादुर (१७२५-१७७५) मुहम्मद शाह (मुगल) का पुत्र था और अपने पिता के बाद १७४८ में २३ वर्ष की आयु में १५वां मुगल सम्राट बना। इसकी माता उधमबाई थी, जो कुदसिया बेगम के नाम से प्रसिद्ध थीं। .

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अकबर

जलाल उद्दीन मोहम्मद अकबर (१५ अक्तूबर, १५४२-२७ अक्तूबर, १६०५) तैमूरी वंशावली के मुगल वंश का तीसरा शासक था। अकबर को अकबर-ऐ-आज़म (अर्थात अकबर महान), शहंशाह अकबर, महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है। अंतरण करने वाले के अनुसार बादशाह अकबर की जन्म तिथि हुमायुंनामा के अनुसार, रज्जब के चौथे दिन, ९४९ हिज़री, तदनुसार १४ अक्टूबर १५४२ को थी। सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और नासिरुद्दीन हुमायूं एवं हमीदा बानो का पुत्र था। बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से संबंधित था अर्थात उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। अकबर के शासन के अंत तक १६०५ में मुगल साम्राज्य में उत्तरी और मध्य भारत के अधिकाश भाग सम्मिलित थे और उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था। बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह था, जिसे हिन्दू मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की। उसका दरबार सबके लिए हर समय खुला रहता था। उसके दरबार में मुस्लिम सरदारों की अपेक्षा हिन्दू सरदार अधिक थे। अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला जज़िया ही नहीं समाप्त किया, बल्कि ऐसे अनेक कार्य किए जिनके कारण हिन्दू और मुस्लिम दोनों उसके प्रशंसक बने। अकबर मात्र तेरह वर्ष की आयु में अपने पिता नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायुं की मृत्यु उपरांत दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा था। अपने शासन काल में उसने शक्तिशाली पश्तून वंशज शेरशाह सूरी के आक्रमण बिल्कुल बंद करवा दिये थे, साथ ही पानीपत के द्वितीय युद्ध में नवघोषित हिन्दू राजा हेमू को पराजित किया था। अपने साम्राज्य के गठन करने और उत्तरी और मध्य भारत के सभी क्षेत्रों को एकछत्र अधिकार में लाने में अकबर को दो दशक लग गये थे। उसका प्रभाव लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर था और इस क्षेत्र के एक बड़े भूभाग पर सम्राट के रूप में उसने शासन किया। सम्राट के रूप में अकबर ने शक्तिशाली और बहुल हिन्दू राजपूत राजाओं से राजनयिक संबंध बनाये और उनके यहाँ विवाह भी किये। अकबर के शासन का प्रभाव देश की कला एवं संस्कृति पर भी पड़ा। उसने चित्रकारी आदि ललित कलाओं में काफ़ी रुचि दिखाई और उसके प्रासाद की भित्तियाँ सुंदर चित्रों व नमूनों से भरी पड़ी थीं। मुगल चित्रकारी का विकास करने के साथ साथ ही उसने यूरोपीय शैली का भी स्वागत किया। उसे साहित्य में भी रुचि थी और उसने अनेक संस्कृत पाण्डुलिपियों व ग्रन्थों का फारसी में तथा फारसी ग्रन्थों का संस्कृत व हिन्दी में अनुवाद भी करवाया था। अनेक फारसी संस्कृति से जुड़े चित्रों को अपने दरबार की दीवारों पर भी बनवाया। अपने आरंभिक शासन काल में अकबर की हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता नहीं थी, किन्तु समय के साथ-साथ उसने अपने आप को बदला और हिन्दुओं सहित अन्य धर्मों में बहुत रुचि दिखायी। उसने हिन्दू राजपूत राजकुमारियों से वैवाहिक संबंध भी बनाये। अकबर के दरबार में अनेक हिन्दू दरबारी, सैन्य अधिकारी व सामंत थे। उसने धार्मिक चर्चाओं व वाद-विवाद कार्यक्रमों की अनोखी शृंखला आरंभ की थी, जिसमें मुस्लिम आलिम लोगों की जैन, सिख, हिन्दु, चार्वाक, नास्तिक, यहूदी, पुर्तगाली एवं कैथोलिक ईसाई धर्मशस्त्रियों से चर्चाएं हुआ करती थीं। उसके मन में इन धार्मिक नेताओं के प्रति आदर भाव था, जिसपर उसकी निजि धार्मिक भावनाओं का किंचित भी प्रभाव नहीं पड़ता था। उसने आगे चलकर एक नये धर्म दीन-ए-इलाही की भी स्थापना की, जिसमें विश्व के सभी प्रधान धर्मों की नीतियों व शिक्षाओं का समावेश था। दुर्भाग्यवश ये धर्म अकबर की मृत्यु के साथ ही समाप्त होता चला गया। इतने बड़े सम्राट की मृत्यु होने पर उसकी अंत्येष्टि बिना किसी संस्कार के जल्दी ही कर दी गयी। परम्परानुसार दुर्ग में दीवार तोड़कर एक मार्ग बनवाया गया तथा उसका शव चुपचाप सिकंदरा के मकबरे में दफना दिया गया। .

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अकबरी सराय

अकबरी सराय का निर्माण मुगल बादशाह जहांगीर के शासनकाल में हुआ था। इस ऐतिहासिक इमारत के दरवाजे के ऊपर फारसी भाषा में एक शिलापट्ट जड़ा हुआ है, जिसमें दर्ज है कि इस शाही इमारत का निर्माण लशकर खां की निगरानी में हुआ था। इतिहासकार कमरूद्दीन फलक के अभिलेखों के अनुसार मुगलकाल की इस सराय के कमरों के गुंबद पर हवा के आवागमन के लिये छेद बने हुए हैं। इनमें भूसा भरकर बर्फ रखी जाती थी और उस पर नमक डालते रहते थे। कमरों के अंदर एक हत्था था जिससे ठंडी हवा को बंद-चालू कर सकते थे। .

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उसमान (सूफ़ी कवि)

उसमान की गणना सूफ़ी कवियों में की जाती है। ये मुग़ल बादशाह जहाँगीर के समय जीवित थे। .

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उस्ताद अहमद लाहौरी

उस्ताद अहमद लाहौरी, ताजमहल के प्रधान वास्तुकार होने के अधिकारी हैं। यह दावा उनके वंशज लुत्फुल्लह मुहांदी द्वारा लिखित दावे पर आधारित है।Asher, p.212Begley and Desai, p.65 जीवन परिचय उस्ताद अहमद लाहौरी, ताजमहल के प्रधान वास्तुकार होने के अधिकारी हैं। यह दावा उनके वंशज लुत्फुल्लह मुहांदी द्वारा लिखित दावे पर आधारित है। शाहजहाँ के दरबार का इतिहास उसकी निर्माण में वैयक्तिक रुचि दर्शाती है। यह सत्य भी है, कि किसी अन्य मुगल बादशाह की तुलना में उसने सर्वाधिक उत्साह दिखाया निर्माण में। वह अपने वास्तुकारों से नियमित बैठक रखता था। उसके वृत्तांतकार लाहौरी लिखते हैं, कि उसने सदा ही प्रतिभावान वास्तुकारों द्वारा बनाई गईं इमारतों के रूपांकनों में कोई उचित परिवर्तन दिखाया, एवं बुद्धिमत के प्रश्न भी पूछे। "Koch, p.89 दो वास्तुकार जो कि नाम से उल्लेखित किये जाते हैं, वे हैं उस्ताद अहमद लाहौरी Begley and Desai (1989), p.65 एवं मीर अब्दुल करीम लाहौरी के पुत्र लुत्फुल्लाह मुहन्दीस के लेखानुसार। उस्ताद अहमद लाहौरी ने ही दिल्ली के लाल किले की नींव रखी थी। मीर अब्दुल करीम पूर्व बादशाह जहाँगीर का प्रिय वास्तुकार रहा था, जिसे मक्रामत खाँ के साथ, पर्यवेक्षक नियुक्त किया हुआ था। ताजमहल के निर्माण हेतु। .

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१६०५

1605 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१६१४

1614 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१७ दिसम्बर

17 दिसंबर ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 351वॉ (लीप वर्ष मे 352 वॉ) दिन है। साल में अभी और 14 दिन बाकी है। .

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२४ अक्टूबर

24 अक्टूबर ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 297वॉ (लीप वर्ष मे 298 वॉ) दिन है। साल मे अभी और 68 दिन बाकी है।.

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२६ जुलाई

२६ जुलाई ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का २०७वॉ (लीप वर्ष मे २०८ वॉ) दिन है। साल मे अभी और १५८ दिन बाकी है। .

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२८ अक्तूबर

28 अक्टूबर ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 301वॉ (लीप वर्ष में 302 वॉ) दिन है। साल में अभी और 64 दिन बाकी है। .

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६ अप्रैल

6 अप्रैल ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 96वॉ (लीप वर्ष मे 97 वॉ) दिन है। साल मे अभी और 269 दिन बाकी है। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

सलीम (इतिहास), जहांगीर, ज़हांगीर

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