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होली लोकगीत

सूची होली लोकगीत

ग्रामीण लोकगायकहोली उत्तर भारत का एक लोकप्रिय लोकगीत है। इसमें होली खेलने का वर्णन होता है। यह हिंदी के अतिरिक्त राजस्थानी, पहाड़ी, बिहारी, बंगाली आदि अनेक प्रदेशों की अनेक बोलियों में गाया जाता है। इसमें देवी देवताओं के होली खेलने से अलग अलग शहरों में लोगों के होली खेलने का वर्णन होता है। देवी देवताओं में राधा-कृष्ण, राम-सीता और शिव के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं। इसके अतिरिक्त होली की विभिन्न रस्मों की वर्णन भी होली में मिलता है। इस लोकगीत को शास्त्रीय या उप-शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद, धमार, ठुमरी या चैती के रूप में भी गाया जाता है। .

14 संबंधों: चैती, ठुमरी, धमार, ध्रुपद, पहाड़ी भाषाएँ, फगुआ, बाङ्ला भाषा, बिहारी, राजस्थानी, हठयोग, होली, विरेचन, १९ मार्च, २००८

चैती

चैती उत्तर प्रदेश का, चैत माह पर केंद्रित लोक-गीत है। इसे अर्ध-शास्त्रीय गीत विधाओं में भी सम्मिलित किया जाता है तथा उपशास्त्रीय बंदिशें गाई जाती हैं। चैत्र के महीने में गाए जाने वाले इस राग का विषय प्रेम, प्रकृति और होली रहते है। चैत श्री राम के जन्म का भी मास है इसलिए इस गीत की हर पंक्ति के बाद अक्सर रामा यह शब्द लगाते हैं। संगीत की अनेक महफिलों केवल चैती, टप्पा और दादरा ही गाए जाते है। ये अक्सर राग वसंत या मिश्र वसंत में निबद्ध होते हैं। चैती, ठुमरी, दादरा, कजरी इत्यादि का गढ़ पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा मुख्यरूप से वाराणसी है। पहले केवल इसी को समर्पित संगीत समारोह हुआ करते थे जिसे चैता उत्सव कहा जाता था। आज यह संस्कृति लुप्त हो रही है, फिर भी चैती की लोकप्रियता संगीत प्रेमियों में बनी हुई है। बारह मासे में चैत का महीना गीत संगीत के मास के रूप में चित्रित किया गया है। उदाहरण चैती चढ़त चइत चित लागे ना रामा/ बाबा के भवनवा/ बीर बमनवा सगुन बिचारो/ कब होइहैं पिया से मिलनवा हो रामा/ चढ़ल चइत चित लागे ना रामा .

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ठुमरी

ठुमरी भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक गायन शैली है। इसमें रस, रंग और भाव की प्रधानता होती है। अर्थात जिसमें राग की शुद्धता की तुलना में भाव सौंदर्य को ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है। यह विविध भावों को प्रकट करने वाली शैली है जिसमें श्रृंगार रस की प्रधानता होती है साथ ही यह रागों के मिश्रण की शैली भी है जिसमें एक राग से दूसरे राग में गमन की भी छूट होती है और रंजकता तथा भावाभिव्यक्ति इसका मूल मंतव्य होता है। इसी वज़ह से इसे अर्ध-शास्त्रीय गायन के अंतर्गत रखा जाता है। .

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धमार

धमार का जन्म ब्रज भूमि के लोक संगीत में हुआ। इसका प्रचलन ब्रज के क्षेत्र में लोक- गीत के रूप में बहुत काल से चला आता है। इस लोकगीत में वर्ण्य- विषय राधा- कृष्ण के होली खेलने का था। रस शृंगार था और भाषा थी ब्रज। ग्रामों के उन्मूक्त वातावरण में द्रुत गति के दीपचंदी, धुमाली और कभी अद्धा जैसी ताल में युवक- युवतियों, प्रौढ़ और वृद्धों, सभी के द्वारा यह लोकगीत गाए और नाचे जाते थे। ब्रज के संपूर्ण क्षेत्र में रसिया और होली जन-जन में व्याप्त है। पंद्रहवीं शताब्दी के अंत और सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में उस समय के संगीत परिदृश्य को देखते हुए मानसिंह तोमर और नायक बैजू ने धमार गायकी की नींव डाली। उन्होंने होरी नामक लोकगीत ब्रज का लिया और उसको ज्ञान की अग्नि में तपाकर ढ़ाल दिया। प्राचीन चरचरी प्रबंध के सांचे में, जो चरचरी ताल में ही गाए जाते थे। होरी गायन का प्रिय ताल आदि चाचर (चरचरी) दीपचंदी बन गया। होरी की बंदिश तो पूर्ववत रही, वह विभिन्न रागों में निबद्ध कर दी गई। गायन शैली वही लोक संगीत के आधार पर पहले विलंबित अंत में द्रुत गति में पूर्वाधरित ताल से हट कर कहरवा ताल में होती है और श्रोता को रसाविभूत कर देती है। नायक बैजू ने धमारों की रचना छोटी की। इसकी गायन शैली का आधार ध्रुवपद जैसा ही रखा गया। वर्ण्य-विषय मात्र फाग से संबंधित और रस शृंगार था, वह भी संयोग। वियोग शृंगार को धमार बहुत कम स्थान प्राप्त हैं। इस शैली का उद्देश्य ही रोमांटिक वातावरण उत्पन्न करना था। ध्रुवपद की तरह आलाप, फिर बंदिश गाई जाती थी। पद गायन के बाद लय- बाँट प्रधान उपज होती थी। विभिन्न प्रकार की लयकारियों से गायक श्रोताओं को चमत्कृत करता था। पखावजी के साथ लड़ंत होती थी। सम की लुकाछिपी की जाती थी। श्रेष्ठ कलाकार गेय पदांशों के स्वर सन्निवेशों में भी अंतर करके श्रोताओं को रसमग्न करते थे। इस प्रकार धमार का जन्म हुआ और यह गायन शैली देश भर के संगीतज्ञों में फैल गई। गत एक शताब्दी में धमार के श्रेष्ठ गायक नारायण शास्री, धर्मदास के पुत्र बहराम खाँ, पं॰ लक्ष्मणदास, गिद्धौर वाले मोहम्मद अली खाँ, आलम खाँ, आगरे के गुलाम अब्बास खाँ और उदयपुर के डागर बंधु आदि हुए हैं। ख्याल गायकों के वर्तमान घरानों में से केवल आगरे के उस्ताद फैयाज खाँ नोम-तोम से अलाप करते थे और धमार गायन करते थे। इसी प्रकार समय के साथ-साथ मृदंग और वीणा वादन में भी परिवर्तन होता गया। मृदंग और वीणा प्राचीन काल से ही अधिकांशतया गीतानुगत ही बजाई जाती थीं। मुक्त वादन भी होता था। मृदंग और वीणावादकों ने भी ध्रुवपद और धमार गायकी के अनुरुप अपने को ढाला। वीणा में ध्रुवपदानुरुप आलाप, जोड़ालाप, विलंबित लय की गतें, तान, परनें और झाला आदि बजाए गए। धमार के अनुरुप पखावजी से लय- बाँट की लड़ंत शुरु हुई। पखावजी ने भी ध्रुवपद- धमार में प्रयुक्त तालों में भी अभ्यास किया, साथ ही संगत के लिए विभिन्न तालों और लयों की परनों को रचा। .

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ध्रुपद

नाट्यशास्र के अनुसार वर्ण, अलंकार, गान- क्रिया, यति, वाणी, लय आदि जहाँ ध्रुव रूप में परस्पर संबद्ध रहें, उन गीतों को ध्रुवा कहा गया है। जिन पदों में उक्त नियम का निर्वाह हो रहा हो, उन्हें ध्रुवपद अथवा ध्रुपद कहा जाता है। शास्रीय संगीत के पद, ख़याल, ध्रुपद आदि का जन्म ब्रजभूमि में होने के कारण इन सबकी भाषा ब्रज है और ध्रुपद का विषय समग्र रूप ब्रज का रास ही है। कालांतर में मुग़लकाल में ख्याल उर्दू की शब्दावली का प्रभाव भी ध्रुपद रचनाओँ पर पड़ा। वृंदावन के निधिवन निकुंज निवासी स्वामी श्री हरिदास ने इनके वर्गीकरण और शास्त्रीयकरण का सबसे पहले प्रयास किया। स्वामी हरिदास की रचनाओं में गायन, वादन और नृत्य संबंधी अनेक पारिभाषिक शब्द, वाद्ययंत्रों के बोल एवं नाम तथा नृत्य की तालों व मुद्राओं के स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं। सूरदास द्वारा रचित ध्रुवपद अपूर्व नाद- सौंदर्य, गमक एवं विलक्षण शब्द- योजना से ओतप्रोत दिखाई देते हैं। .

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पहाड़ी भाषाएँ

हिमालय पर्वतश्रृंखलाओं के दक्षिणवर्ती भूभाग में कश्मीर के पूर्व से लेकर नेपाल तक पहाड़ी भाषाएँ बोली जाती हैं। ग्रियर्सन ने आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का वर्गीकरण करते समय पहाड़ी भाषाओं का एक स्वतंत्र समुदाय माना है। चैटर्जी ने इन्हें पैशाची, दरद अथवा खस प्राकृत पर आधारित मानकर मध्यका में इनपर राजस्थान की प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं का प्रभाव घोषित किया है। एक नवीन मत के अनुसार कम से कम मध्य पहाड़ी भाषाओं का उद्गम शौरसेनी प्राकृत है, जो राजस्थानी का मूल भी है। पहाड़ी भाषाओं के शब्दसमूह, ध्वनिसमूह, व्याकरण आदि पर अनेक जातीय स्तरों की छाप पड़ी है। यक्ष, किन्नर, किरात, नाग, खस, शक, आर्य आदि विभिन्न जातियों की भाषागत विशेषताएँ प्रयत्न करने पर खोजी जा सकती हैं जिनमें अब यहाँ आर्य-आर्येतर तत्व परस्पर घुल मिल गए हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसा विदित होता है कि प्राचीन काल में इनका कुछ पृथक् स्वरूप अधिकांश मौखिक था। मध्यकाल में यह भूभाग राजस्थानी भाषा भाषियों के अधिक संपर्क में आया और आधुनिक काल में आवागमन की सुविधा के कारण हिंदी भाषाई तत्व यहाँ प्रवेश करते जा रहे हैं। पहाड़ी भाषाओं का व्यवहार एक प्रकार से घरेलू बोलचाल, पत्रव्यवहार आदि तक ही सीमित हो चला है। पहाड़ी भाषाओं में दरद भाषाओं की कुछ ध्वन्यात्मक विशेषताएँ मिलती हैं जैसे घोष महाप्राण के स्थान पर अघोष अल्पप्राण ध्वनि हो जाना। पश्चिमी तथा मध्य पहाड़ी प्रदेश का नाम प्राचीन काल में संपादलक्ष था। यहाँ मध्यकाल में गुर्जरों एवं अन्य राजपूत लोगों का आवागमन होता रहा जिसका मुख्य कारण मुसलमानी आक्रमण था। अत: स्थानीय भाषाप्रयोगों में जो अधिकांश "न" के स्थान पर "ण" तथा अकारांत शब्दों की ओकारांत प्रवृत्ति लक्षित होती है, वह राजस्थानी प्रभाव का द्योतक है। पूर्वी हिंदी को भी एकाधिक प्रवृत्तियाँ मध्य पहाड़ी भाषाओं में विद्यमान हैं क्योंकि यहाँ का कत्यूर राजवंश सूर्यवंशी अयोध्या नरेशों से संबंध रखता था। इस आधार पर पहाड़ी भाषाओं का संबंध अर्ध-मागधी-क्षेत्र के साथ भी स्पष्ट हो जाता है। इनके वर्तमान स्वरूप पर विचार करते हुए दो तत्व मुख्यत: सामने आते हैं। एक तो यह कि पहाड़ी भाषाओं की एकाधिक विशेषता इन्हें हिंदी भाषा से भिन्न करती हैं। दूसरे कुछ तत्व दोनों के समान हैं। कहीं तो हिंदी शब्द स्थानीय शब्दों के साथ वैकल्पिक रूप से प्रयुक्त होते हैं और कहीं हिंदी शब्द ही स्थानीय शब्दों का स्थान ग्रहण करते जा रहे हैं। खड़ी बोली के माध्यम से कुछ विदेशी शब्द, जैसे "हजामत", "अस्पताल", "फीता", "सीप", "डागदर" आदि भी चल पड़े हैं। .

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फगुआ

बिहार में वसंत पंचमी के बाद ही पूर्वांचल के जनपदों में होली के गीत गाए जाने लगते हैं और ये सिलसिला होली तक बरकरार रहता है कुछ लोग इन गीतों को फाग भी कहते हैं लेकिन अंग प्रदेश में इसे फगुआ कहते हैं। फगुआ मतलब फागुन, होली। होली के दिन की परम्परा यह है कि सुबह सुबह धूल-कीचड़ से होली खेलकर, दोपहर में नहाकर रंग खेला जाता है, फिर शाम को अबीर लगाकर हर दरवाजे पर घूमके फगुआ गाया जाय। पर फगुआ और भांग की मस्ती में यह क्रम पूरी तरह बिसरा दिया जाता है। फगुआ का विशेष पकवान पिड़की (गुझिया) हर घर में बनता है और मेलमिलाप का समा बना रहता है। .

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बाङ्ला भाषा

बाङ्ला भाषा अथवा बंगाली भाषा (बाङ्ला लिपि में: বাংলা ভাষা / बाङ्ला), बांग्लादेश और भारत के पश्चिम बंगाल और उत्तर-पूर्वी भारत के त्रिपुरा तथा असम राज्यों के कुछ प्रान्तों में बोली जानेवाली एक प्रमुख भाषा है। भाषाई परिवार की दृष्टि से यह हिन्द यूरोपीय भाषा परिवार का सदस्य है। इस परिवार की अन्य प्रमुख भाषाओं में हिन्दी, नेपाली, पंजाबी, गुजराती, असमिया, ओड़िया, मैथिली इत्यादी भाषाएँ हैं। बंगाली बोलने वालों की सँख्या लगभग २३ करोड़ है और यह विश्व की छठी सबसे बड़ी भाषा है। इसके बोलने वाले बांग्लादेश और भारत के अलावा विश्व के बहुत से अन्य देशों में भी फ़ैले हैं। .

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बिहारी

कोई विवरण नहीं।

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राजस्थानी

राजस्थानी उचित संज्ञा शब्द राजस्थान का विशेषण रूप है। इसका उपयोग निम्न में से किसी एक लिए किया गया हो.

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हठयोग

हठयोग चित्तवृत्तियों के प्रवाह को संसार की ओर जाने से रोककर अंतर्मुखी करने की एक प्राचीन भारतीय साधना पद्धति है, जिसमें प्रसुप्त कुंडलिनी को जाग्रत कर नाड़ी मार्ग से ऊपर उठाने का प्रयास किया जाता है और विभिन्न चक्रों में स्थिर करते हुए उसे शीर्षस्थ सहस्त्रार चक्र तक ले जाया जाता है। हठयोग प्रदीपिका इसका प्रमुख ग्रंथ है। हठयोग, योग के कई प्रकारों में से एक है। योग के अन्य प्रकार ये हैं- मंत्रयोग, लययोग, राजयोग। हठयोग के आविर्भाव के बाद प्राचीन 'अष्टांग योग' को 'राजयोग' की संज्ञा दे दी गई। हठयोग साधना की मुख्य धारा शैव रही है। यह सिद्धों और बाद में नाथों द्वारा अपनाया गया। मत्स्येन्द्र नाथ तथा गोरख नाथ उसके प्रमुख आचार्य माने गए हैं। गोरखनाथ के अनुयायी प्रमुख रूप से हठयोग की साधना करते थे। उन्हें नाथ योगी भी कहा जाता है। शैव धारा के अतिरिक्त बौद्धों ने भी हठयोग की पद्धति अपनायी थी। .

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होली

होली (Holi) वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता है। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहाँ भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है। नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया,नमकीन व ठंडाई से किया जाता है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है। .

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विरेचन

विरेचन भारतीय चिकित्साशास्त्र (आयुर्वेद) का पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है- रोचक औषधि के द्वारा शारीरिक विकारों अर्थात् उदर के विकारों की शुद्धि। यह पंचकर्मों में से एक है। आयुर्वेद के अनुसार त्वचारोगों के उपचार के लिए विरेचन सर्वोत्तम चिकित्सा है। .

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१९ मार्च

१९ मार्च ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का ७८वाँ (लीप वर्ष मे ७९वाँ) दिन है। वर्ष मे अभी और २८७ दिन बाकी है। जार्ज बुश दवारा इराक युद्ध का आगज्। .

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२००८

२००८ ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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