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शिक्षा (वेदांग)

सूची शिक्षा (वेदांग)

शिक्षा, वेद के छ: अंगों में से एक है। इसका रचनाकाल विभिन्न विद्वानों ने १००० ईसापूर्व से ५०० ईसापूर्व बताया है। भाषावैज्ञानिकों की दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य सामान्य स्वनविज्ञान (फोनेटिक्स) एवं स्वनिमविज्ञान (फोनोलॉजी) माना जा सकता है। शिक्षा ने सभी प्राप्त ध्वनियों का विश्लेषण किया है। इसका उद्देश्य वेद की ऋचाओं का ठीक प्रकार से पाठ करना है। पुराकाल में माता पिता और आचार्य सभी वर्णोच्चारण का विज्ञान अपने पुत्रों और शिष्यों कि बताया करते थे। धीरे-धीरे पुस्तकें लिखी गई और बाद में सूत्र रचना भी होने लगी। वेदमन्त्रों के उच्चारण की शिक्षा ही वर्णोच्चारण शिक्षा के रूप में प्रसिद्ध हो गई। इस विषय में अनेक ऋषि ग्रन्थ लिखें है, जिन्हें प्रातिशख्य और शिक्षा कहा जाता है। महर्षि पाणिनि की शिक्षा विशेष प्रसिद्ध है। इस शिक्षा के चार सोपान थे।.

11 संबंधों: ध्वनि, पाणिनि, प्रातिशाख्य, भाषाविज्ञान, माहेश्वर सूत्र, स्वनिमविज्ञान, स्वनविज्ञान, सूत्र, वेद, वेदांग, छंद

ध्वनि

ड्रम की झिल्ली में कंपन पैदा होता होता जो जो हवा के सम्पर्क में आकर ध्वनि तरंगें पैदा करती है मानव एवं अन्य जन्तु ध्वनि को कैसे सुनते हैं? -- ('''नीला''': ध्वनि तरंग, '''लाल''': कान का पर्दा, '''पीला''': कान की वह मेकेनिज्म जो ध्वनि को संकेतों में बदल देती है। '''हरा''': श्रवण तंत्रिकाएँ, '''नीललोहित''' (पर्पल): ध्वनि संकेत का आवृति स्पेक्ट्रम, '''नारंगी''': तंत्रिका में गया संकेत) ध्वनि (Sound) एक प्रकार का कम्पन या विक्षोभ है जो किसी ठोस, द्रव या गैस से होकर संचारित होती है। किन्तु मुख्य रूप से उन कम्पनों को ही ध्वनि कहते हैं जो मानव के कान (Ear) से सुनायी पडती हैं। .

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पाणिनि

पाणिनि (५०० ई पू) संस्कृत भाषा के सबसे बड़े वैयाकरण हुए हैं। इनका जन्म तत्कालीन उत्तर पश्चिम भारत के गांधार में हुआ था। इनके व्याकरण का नाम अष्टाध्यायी है जिसमें आठ अध्याय और लगभग चार सहस्र सूत्र हैं। संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप देने में पाणिनि का योगदान अतुलनीय माना जाता है। अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण ग्रंथ नहीं है। इसमें प्रकारांतर से तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है। उस समय के भूगोल, सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा और राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिंतन, ख़ान-पान, रहन-सहन आदि के प्रसंग स्थान-स्थान पर अंकित हैं। .

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प्रातिशाख्य

प्रातिशाख्य शब्द का अर्थ है: 'प्रति' अर्थात्‌ तत्तत्‌ 'शाखा' से संबंध रखनेवाला शास्त्र अथवा अध्ययन। यहाँ 'शाखा' से अभिप्राय वेदों की शाखाओं से है। वैदिक शाखाओं से संबद्ध विषय अनेक हो सकते थे। उदाहरणार्थ, प्रत्येक वैदिक शाखा से संबद्ध कर्मकांड, आचार आदि की अपनी अपनी परंपरा थी। उन सब विषयों से प्रातिशाख्यों का संबंध न होकर केवल वैदिक मंत्रों के शुद्ध उच्चारण, वैदिक संहिताओं और उनके पदपाठों आदि के सधिप्रयुक्त वर्णपरिवर्तन अथवा स्वरपरिवर्तन के पारस्परिक संबंध और कभी कभी छंदोविचार जैसे विषयों से था। यहाँ वैदिक शाखाओं के प्रारंभ, स्वरूप और प्रवृत्ति को संक्षेप में समझ लेना आवश्यक है। भारतीय वैदिक संस्कृति के इतिहास में एक समय ऐसा आया जबकि आर्य जाति के मनीषियों ने परंपराप्राप्त वैदिक मंत्रों को वैदिक संहिताओं के रूप में संगृहीत किया। उस समय अध्ययनाध्यापन का आधार केवल मौखिक था। गुरु शिष्य की श्रवण परंपरा द्वारा ही वैदिक संहिताओं की रक्षा हो सकती थी। देशभेद और कालभेद से वैदिक संहिताओं की क्रमश: विभिन्न शाखाएँ हो गईं। वैदिक मंत्रों और उनकी संहिताओं को प्रारंभ से ही आर्य जाति की पवित्रतम निधि समझा जाता रहा है। उनकी सुरक्षा और अध्ययन की ओर आर्य मनीषियों का सदा से ध्यान रहा है। इसी दृष्टि ने भारत में वेद के षडंगों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष) को जन्म दिया था। वैदिक संहिताओं की सुरक्षा और अर्थज्ञान की दृष्टि से ही वैदिक विद्वानों ने तत्तत्‌ संहिताओं के पदपाठ का निर्माण किया। कुछ काल के अनंतर क्रमश: क्रमपाठ आदि पाठों का भी प्रारंभ हुआ। वेद के षडंगों के विकास के साथ साथ प्रत्येक शाखा का यह प्रयत्न रहा कि वह अपनी अपनी परंपरा में वैदिक संहिताओं के शुद्ध उच्चारण की सुरक्षा करे और पदपाठ एवं यथासंभव क्रमपाठ की सहायता से वेद के प्रत्येक पद के स्वरूप का और संहिता में होने वाले उन पदों के वर्णपरिवर्तनों और स्वरपरिवर्तनों का यथार्थत: अध्ययन करे। मूलत: प्रातिशाख्यों का विषय यही था। कभी कभी छंदोविषयक अध्ययन भी प्रातिशाख्य की परिधि में आ जाता था। वैदिक शाखाओं के अध्येतृवर्ग 'चरण' कहलाते थे। इन चरणों की विद्वत्सभाओं या विद्यासभाओं को 'परिषद्' (या 'पर्षद्') कहा जाता था। प्रतिशाख्यों की रचना बहुत करके सूत्र शैली में की जाती थी इसीलिए प्रातिशाख्यों के लिए प्रायेण 'पार्षदसूत्र' का भी व्यवहार प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। यास्काचार्य के निरुक्त में कहा गया है: अर्थात्‌, पदों के आधार पर संहिता रहती है और सब शाखाओं के प्रतिशाख्यों की प्रवृत्ति पदों को ही संहिता का आधार मानकर हुई है। इससे यह ध्वनि निकलती है कि प्राचीन काल में सब वैदिक शाखाओं के अपने-अपने प्रातिशाख्य रहे होंगे। संभवत: वैदिक शाखाओं समान, उनके प्रातिशाख्य भी लुप्त हो गए। वर्तमान उपलब्ध विशिष्ट प्रातिशाख्य नीचे दिए जाते हैं। .

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भाषाविज्ञान

भाषाविज्ञान भाषा के अध्ययन की वह शाखा है जिसमें भाषा की उत्पत्ति, स्वरूप, विकास आदि का वैज्ञानिक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाता है। भाषा विज्ञान के अध्ययेता 'भाषाविज्ञानी' कहलाते हैं। भाषाविज्ञान, व्याकरण से भिन्न है। व्याकरण में किसी भाषा का कार्यात्मक अध्ययन (functional description) किया जाता है जबकि भाषाविज्ञानी इसके आगे जाकर भाषा का अत्यन्त व्यापक अध्ययन करता है। अध्ययन के अनेक विषयों में से आजकल भाषा-विज्ञान को विशेष महत्त्व दिया जा रहा है। .

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माहेश्वर सूत्र

माहेश्वर सूत्र (संस्कृत: शिवसूत्राणि या महेश्वर सूत्राणि) को संस्कृत व्याकरण का आधार माना जाता है। पाणिनि ने संस्कृत भाषा के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत एवं नियमित करने के उद्देश्य से भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों यथा ध्वनि-विभाग (अक्षरसमाम्नाय), नाम (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण), पद, आख्यात, क्रिया, उपसर्ग, अव्यय, वाक्य, लिंग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों का समावेश अष्टाध्यायी में किया है। अष्टाध्यायी में ३२ पाद हैं जो आठ अध्यायों मे समान रूप से विभक्त हैं व्याकरण के इस महनीय ग्रन्थ मे पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग ४००० सूत्रों में किया है, जो आठ अध्यायों में (संख्या की दृष्टि से असमान रूप से) विभाजित हैं। तत्कालीन समाज मे लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता को ध्यान में रखते हुए पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है। पुनः, विवेचन को अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों के साथ-साथ स्वयं भी अनेक उपकरणों का प्रयोग किया है जिनमे शिवसूत्र या माहेश्वर सूत्र सबसे महत्वपूर्ण हैं। .

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स्वनिमविज्ञान

स्वनिमविज्ञान (Phonology) भाषाविज्ञान की वह शाखा है जो किसी भी मानव भाषा में ध्वनि के सम्यक उपयोग द्वारा अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति से सम्बन्धित मुद्दों का अध्ययन करती है। किसी भाषा की सार्थक ध्वनियों की व्यवस्था का अध्ययन ही स्वनिमविज्ञान कहलाता है। स्वनिमविज्ञान अपनी मूल इकाई के रूप में स्वनिम (फोनीम) की संकल्पना करता है और इसके उपरांत स्वनिम तथा सहस्वन, उनके वितरण तथा अनुक्रम आदि का अध्ययन करता है। यह 'शब्द' के स्तर के नीचे के स्तर पर अध्यन करता है। .

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स्वनविज्ञान

स्वानिकी या स्वनविज्ञान (Phonetics), भाषाविज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत मानव द्वारा बोली जाने वाली ध्वनियों का अध्ययन किया जाता है। यह बोली जाने वाली ध्वनियों के भौतिक गुण, उनके शारीरिक उत्पादन, श्रवण ग्रहण और तंत्रिका-शारीरिक बोध की प्रक्रियाओं से संबंधित है। .

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सूत्र

सूत्र, किसी बड़ी बात को अतिसंक्षिप्त रूप में अभिव्यक्त करने का तरीका है। इसका उपयोग साहित्य, व्याकरण, गणित, विज्ञान आदि में होता है। सूत्र का शाब्दिक अर्थ धागा या रस्सी होता है। जिस प्रकार धागा वस्तुओं को आपस में जोड़कर एक विशिष्ट रूप प्रदान करतअ है, उसी प्रकार सूत्र भी विचारों को सम्यक रूप से जोड़ता है। हिन्दू (सनातन धर्म) में सूत्र एक विशेष प्रकार की साहित्यिक विधा का सूचक भी है। जैसे पतंजलि का योगसूत्र और पाणिनि का अष्टाध्यायी आदि। सूत्र साहित्य में छोटे-छोटे किन्तु सारगर्भित वाक्य होते हैं जो आपस में भलीभांति जुड़े होते हैं। इनमें प्रायः पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्दों का खुलकर किया जाता है ताकि गूढ से गूढ बात भी संक्षेप में किन्तु स्पष्टता से कही जा सके। प्राचीन काल में सूत्र साहित्य का महत्व इसलिये था कि अधिकांश ग्रन्थ कंठस्थ किये जाने के ध्येय से रचे जाते थे; अतः इनका संक्षिप्त होना विशेष उपयोगी था। चूंकि सूत्र अत्यन्त संक्षिप्त होते थे, कभी-कभी इनका अर्थ समझना कठिन हो जाता था। इस समस्या के समाधान के रूप में अनेक सूत्र ग्रन्थों के भाष्य भी लिखने की प्रथा प्रचलित हुई। भाष्य, सूत्रों की व्याख्या (commentary) करते थे। बौद्ध धर्म में सूत्र उन उपदेशपरक ग्रन्थों को कहते हैं जिनमें गौतम बुद्ध की शिक्षाएं संकलित हैं। .

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वेद

वेद प्राचीन भारत के पवितत्रतम साहित्य हैं जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के, मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं, जो ईश्वर की वाणी है। ये विश्व के उन प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथों में हैं जिनके पवित्र मन्त्र आज भी बड़ी आस्था और श्रद्धा से पढ़े और सुने जाते हैं। 'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् शब्द से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान के ग्रंथ' है। इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं। आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है -.

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वेदांग

वेदांग हिन्दू धर्म ग्रन्थ हैं। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरूक्त - ये छ: वेदांग है।.

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छंद

छन्द संस्कृत वाङ्मय में सामान्यतः लय को बताने के लिये प्रयोग किया गया है। विशिष्ट अर्थों में छन्द कविता या गीत में वर्णों की संख्या और स्थान से सम्बंधित नियमों को कहते हैं जिनसे काव्य में लय और रंजकता आती है। छोटी-बड़ी ध्वनियां, लघु-गुरु उच्चारणों के क्रमों में, मात्रा बताती हैं और जब किसी काव्य रचना में ये एक व्यवस्था के साथ सामंजस्य प्राप्त करती हैं तब उसे एक शास्त्रीय नाम दे दिया जाता है और लघु-गुरु मात्राओं के अनुसार वर्णों की यह व्यवस्था एक विशिष्ट नाम वाला छन्द कहलाने लगती है, जैसे चौपाई, दोहा, आर्या, इन्द्र्वज्रा, गायत्री छन्द इत्यादि। इस प्रकार की व्यवस्था में मात्रा अथवा वर्णॊं की संख्या, विराम, गति, लय तथा तुक आदि के नियमों को भी निर्धारित किया गया है जिनका पालन कवि को करना होता है। इस दूसरे अर्थ में यह अंग्रेजी के मीटर अथवा उर्दू फ़ारसी के रुक़न (अराकान) के समकक्ष है। हिन्दी साहित्य में भी परंपरागत रचनाएँ छन्द के इन नियमों का पालन करते हुए रची जाती थीं, यानि किसी न किसी छन्द में होती थीं। विश्व की अन्य भाषाओँ में भी परंपरागत रूप से कविता के लिये छन्द के नियम होते हैं। छन्दों की रचना और गुण-अवगुण के अध्ययन को छन्दशास्त्र कहते हैं। चूँकि, आचार्य पिंगल द्वारा रचित 'छन्दःशास्त्र' सबसे प्राचीन उपलब्ध ग्रन्थ है, इस शास्त्र को पिंगलशास्त्र भी कहा जाता है। .

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