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नलचम्पू

सूची नलचम्पू

नलचम्पू एक चम्पूकाव्य है जिसके रचयिता त्रिविक्रम भट्ट हैं। संस्कृत साहित्य में चम्पूकाव्य का प्रथम निदर्शन इसी ग्रन्थ में हुआ है। इसमें चंपू का वैशिष्ट्य स्फुटतया उद्भासित हुआ है। दक्षिण भारत के राष्ट्रकूटवंशी राजा कृष्ण (द्वितीय) के पौत्र, राजा जगतुग और लक्ष्मी के पुत्र, इंद्रराज (तृतीय) के आश्रय में रहकर त्रिविक्रम ने इस रुचिर चंपू की रचना की थी। इंद्रराज का राज्याभिषेक वि॰सं॰ 972 (915 ई.) में हुआ था और उनके आश्रित होने से कवि का भी वही समय है- दशम शती का पूर्वार्ध। इस चंपू के सात उच्छ्वासों में नल तथा दमयंती की विख्यात प्रणयकथा का बड़ा ही चमत्कारी वर्णन किया गया है। काव्य में सर्वत्र शुभग संभग श्लेष का प्रसाद लक्षित होता है। .

5 संबंधों: चंपू, त्रिविक्रम भट्ट, नल-दमयन्ती, राष्ट्रकूट राजवंश, संस्कृत साहित्य

चंपू

चम्पू श्रव्य काव्य का एक भेद है, अर्थात गद्य-पद्य के मिश्रित् काव्य को चम्पू कहते हैं। गद्य तथा पद्य मिश्रित काव्य को "चंपू" कहते हैं। काव्य की इस विधा का उल्लेख साहित्यशास्त्र के प्राचीन आचार्यों- भामह, दण्डी, वामन आदि ने नहीं किया है। यों गद्य पद्यमय शैली का प्रयोग वैदिक साहित्य, बौद्ध जातक, जातकमाला आदि अति प्राचीन साहित्य में भी मिलता है। चम्पूकाव्य परंपरा का प्रारम्भ हमें अथर्व वेद से प्राप्त होता है। चम्पू नाम के प्रकृत काव्य की रचना दसवीं शती के पहले नहीं हुई। त्रिविक्रम भट्ट द्वारा रचित 'नलचम्पू', जो दसवीं सदी के प्रारम्भ की रचना है, चम्पू का प्रसिद्ध उदाहरण है। इसके अतिरिक्त सोमदेव सुरि द्वारा रचित यशःतिलक, भोजराज कृत चम्पू रामायण, कवि कर्णपूरि कृत आनन्दवृन्दावन, गोपाल चम्पू (जीव गोस्वामी), नीलकण्ठ चम्पू (नीलकण्ठ दीक्षित) और चम्पू भारत (अनन्त कवि) दसवीं से सत्रहवीं शती तक के उदाहरण हैं। यह काव्य रूप अधिक लोकप्रिय न हो सका और न ही काव्यशास्त्र में उसकी विशेष मान्यता हुई। हिन्दी में यशोधरा (मैथिलीशरण गुप्त) को चम्पू-काव्य कहा जाता है, क्योंकि उसमें गद्य-पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है। गद्य और पद्य के इस मिश्रण का उचित विभाजन यह प्रतीत होता है कि भावात्मक विषयों का वर्णन पद्य के द्वारा तथा वर्णनात्मक विषयों का विवरण गद्य के द्वारा प्रस्तुत किया जाय। परन्तु चंपूरचयिताओं ने इस मनोवैज्ञानिक वैशिष्ट्य पर विशेष ध्यान न देकर दोनों के संमिश्रण में अपनी स्वतंत्र इच्छा तथा वैयक्तिक अभिरुचि को ही महत्व दिया है। .

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त्रिविक्रम भट्ट

त्रिविक्रमः भट्ट, नलचम्पू तथा मदालसाचम्पू के रचयिता हैं। वे सिंहादित्य नाम से भी प्रसिद्ध हैं। उपलब्ध चम्पूकाव्यों में नलचम्पू साहित्यिकदृष्टि से प्रप्रथ तथा महत्त्वपूर्ण साहित्य अस्ति। त्रिविक्रभट्ट प्रौढ कवि थे, अतः उनकी रचना में भी पौढ शैली का दर्शन होता है। क्रियापदों की विविधता, शब्दरूपों का विशिष्टप्रयोग उनकी रचनाओं में देखा जा सकता है। श्रेणी:संस्कृत कवि श्रेणी:संस्कृत विद्वान श्रेणी:संस्कृत साहित्यकार.

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नल-दमयन्ती

'''नल-दमयन्ती''': राजा रवि वर्मा की कृति नल और दमयन्ती की कथा भारत के महाकाव्य, महाभारत में आती है। युधिष्ठिर को जुए में अपना सब-कुछ गँवा कर अपने भाइयों के साथ वनवास करना पड़ा। वहीं एक ऋषि ने उन्हें नल और दमयन्ती की कथा सुनायी। नल निषध देश के राजा थे। वे वीरसेन के पुत्र थे। नल बड़े वीर थे और सुन्दर भी। शस्त्र-विद्या तथा अश्व-संचालन में वे निपुण थे। दमयन्ती विदर्भ (पूर्वी महाराष्ट्र) नरेश की मात्र पुत्री थी। वह भी बहुत सुन्दर और गुणवान थी। नल उसके सौंदर्य की प्रशंसा सुनकर उससे प्रेम करने लगा। उनके प्रेम का सन्देश दमयन्ती के पास बड़ी कुशलता से पहुंचाया एक हंस ने। और दमयन्ती भी अपने उस अनजान प्रेमी की विरह में जलने लगी। इस कथा में प्रेम और पीड़ा का ऐसा प्रभावशाली पुट है कि भारत के ही नहीं देश-विदेश के लेखक व कवि भी इससे आकर्षित हुए बिना न रह सके। बोप लैटिन में तथा डीन मिलमैन ने अंग्रेजी कविता में अनुवाद करके पश्चिम को भी इस कथा से भली भांति परिचित कराया है। विदर्भ देश में भीष्मक नाम के एक राजा राज्य करते थे। उनकी पुत्री का नाम दमयन्ती थी। दमयन्ती लक्ष्मी के समान रूपवती थी। उन्हीं दिनों निषध देश में वीरसेन के पुत्र नल राज्य करते थे। वे बड़े ही गुणवान्, सत्यवादी तथा ब्राह्मण भक्त थे। निषध देश से जो लोग विदर्भ देश में आते थे, वे महाराज नल के गुणों की प्रशंसा करते थे। यह प्रशंसा दमयन्ती के कानों तक भी पहुँची थी। इसी तरह विदर्भ देश से आने वाले लोग राजकुमारी के रूप और गुणों की चर्चा महाराज नल के समक्षकरते। इसका परिणाम यह हुआ कि नल और दमयन्ती एक-दूसरे के प्रति आकृष्ण होते गये। .

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राष्ट्रकूट राजवंश

राष्ट्रकूट (ರಾಷ್ಟ್ರಕೂಟ) दक्षिण भारत, मध्य भारत और उत्तरी भारत के बड़े भूभाग पर राज्य करने वाला राजवंश था। .

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संस्कृत साहित्य

बिहार या नेपाल से प्राप्त देवीमाहात्म्य की यह पाण्डुलिपि संस्कृत की सबसे प्राचीन सुरक्षित बची पाण्डुलिपि है। (११वीं शताब्दी की) ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक संस्कृत भाषा के माध्यम से सभी प्रकार के वाङ्मय का निर्माण होता आ रहा है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी के छोर तक किसी न किसी रूप में संस्कृत का अध्ययन अध्यापन अब तक होता चल रहा है। भारतीय संस्कृति और विचारधारा का माध्यम होकर भी यह भाषा अनेक दृष्टियों से धर्मनिरपेक्ष (सेक्यूलर) रही है। इस भाषा में धार्मिक, साहित्यिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक और मानविकी (ह्यूमैनिटी) आदि प्राय: समस्त प्रकार के वाङ्मय की रचना हुई। संस्कृत भाषा का साहित्य अनेक अमूल्य ग्रंथरत्नों का सागर है, इतना समृद्ध साहित्य किसी भी दूसरी प्राचीन भाषा का नहीं है और न ही किसी अन्य भाषा की परम्परा अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में इतने दीर्घ काल तक रहने पाई है। अति प्राचीन होने पर भी इस भाषा की सृजन-शक्ति कुण्ठित नहीं हुई, इसका धातुपाठ नित्य नये शब्दों को गढ़ने में समर्थ रहा है। संस्कृत साहित्य इतना विशाल और scientific है तो भारत से संस्कृत भाषा विलुप्तप्राय कैसे हो गया? .

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नलचंपू

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