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आयुर्वेद में नयी खोजें

सूची आयुर्वेद में नयी खोजें

आयुर्वेद लगभग, 5000 वर्ष पुराना चिकित्‍सा विज्ञान है। इसे भारतवर्ष के विद्वानों ने भारत की जलवायु, भौगालिक परिस्थितियों, भारतीय दर्शन, भारतीय ज्ञान-विज्ञान के द्ष्टकोण को ध्यान में रखते हुये विकसित किया है। वतर्मान में स्‍वतंत्रता के पश्‍चात आयुर्वेद चिकित्‍सा विज्ञान ने बहुत प्रगति की है। भारत सरकार द्वारा स्‍थापित संस्‍था ‘’केन्द्रीय आयुर्वेद एवं सिद्ध अनुसं‍धान परिषद’’ (Central council for research in Ayurveda and Siddha, CCRAS) नई दिल्‍ली, भारत, आयुर्वेद में किये जा रहे अनुसन्‍धान कार्यों को समस्‍त देश में फैले हुये शोध संस्थानों में सम्‍पन्‍न कराता है। बहुत से एन0जी0ओ0 और प्राइवेट संस्थानों तथा अस्‍पताल और व्‍यतिगत आयुर्वेदिक चिकित्‍सक शोध कार्यों में लगे हुये है। इनमें से प्रमुख शोध त्रिफला, अश्वगंधा आदि औषधियों, इलेक्ट्रानिक उपकरणों द्वारा आयुर्वेदिक ढंग से रोगों की पहचान और निदान में सहायता से संबंधित हैं। .

29 संबंधों: ट्राम्‍बे, त्रिदोष, त्रिफला, नाड़ी परीक्षा, पित्‍त, पंचकर्म, पुरीष, बवासीर, भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, भगन्‍दर, मल, मूत्र, राष्ट्रीय नवप्रवर्तन संस्थान, शंखद्राव, सप्‍त धातु, सम्‍पूर्ण ओज, स्‍वेद, वात, ओज, औषधि, आयुर्वेद, इलेक्‍ट्रोत्रिदोषग्राम (ई.टी.जी.), कफ, कर्कट रोग, क्षार (आयुर्वेद), अलजाइमर रोग, अश्वगंधा, अश्‍वगंधा, अग्‍नि बल

ट्राम्‍बे

तुर्भे या ट्राम्बे (Trombay) मुम्बई का उत्तर-पूर्वी उपनगर है। मानखुर्द इससे सबसे निकट रेलवे स्टेशन है। श्रेणी:मुंबई के क्षेत्र.

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त्रिदोष

वात, पित्‍त, कफ इन तीनों को दोष कहते हैं। इन तीनों को धातु भी कहा जाता है। धातु इसलिये कहा जाता है क्‍योंकि ये शरीर को धारण करते हैं। चूंकि त्रिदोष, धातु और मल को दूषित करते हैं, इसी कारण से इनको ‘दोष’ कहते हैं। आयुर्वेद साहित्य शरीर के निर्माण में दोष, धातु मल को प्रधान माना है और कहा गया है कि 'दोष धातु मल मूलं हि शरीरम्'। आयुर्वेद का प्रयोजन शरीर में स्थित इन दोष, धातु एवं मलों को साम्य अवस्था में रखना जिससे स्वस्थ व्यक्ति का स्वास्थ्य बना रहे एवं दोष धातु मलों की असमान्य अवस्था होने पर उत्पन्न विकृति या रोग की चिकित्सा करना है। .

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त्रिफला

एम्ब्लिका ओफिशिनालिस त्रिफला एक प्रसिद्ध आयुर्वेदिक रासायनिक फ़ार्मुला है जिसमें अमलकी (आंवला (Emblica officinalis)), बिभीतक (बहेडा) (Terminalia bellirica) और हरितकी (हरड़ Terminalia chebula) को बीज निकाल कर (1 भाग हरड, 2 भाग बेहड, 3 भाग आंवला) 1:2:3 मात्रा में लिया जाता है। त्रिफला शब्द का शाब्दिक अर्थ है "तीन फल"। संयमित आहार-विहार के साथ त्रिफला का सेवन करने वाले व्यक्तियों को ह्रदयरोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, नेत्ररोग, पेट के विकार, मोटापा आदि होने की संभावना नहीं होती। यह कोई 20 प्रकार के प्रमेह, विविध कुष्ठरोग, विषमज्वर व सूजन को नष्ट करता है। अस्थि, केश, दाँत व पाचन- संसथान को बलवान बनाता है। इसका नियमित सेवन शरीर को निरामय, सक्षम व फुर्तीला बनाता है। यदि गर्म पानी से सोते समय एक चम्मच लेने से क़ब्ज़ नही रहता! .

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नाड़ी परीक्षा

नाड़ी परीक्षा नाड़ी परीक्षा हृदयगति (पल्स) जाँचने की भारतीय पद्धति है। इसका उपयोग आयुर्वेद, सिद्ध आदि चिकित्सापद्धतियों में होता है। यह आधुनिक पद्धति से भिन्न है। इसमें तर्जनी, माध्यिका तथा अनामिका अंगुलियों को रोगी के कलाई के पास बहि:प्रकोष्‍ठिका धमनी (radial artery) पर रखते हैं और अलग-अलग दाब देकर वैद्य कफ, वात तथा पित्त- इन तीन दोषों का पता लगाता है। .

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पित्‍त

कोई विवरण नहीं।

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पंचकर्म

'''शिरोधारा''' में सिर के ऊपर तेल की एक पतली धारा निरन्तर बहायी जाती है। पंचकर्म (अर्थात पाँच कर्म) आयुर्वेद की उत्‍कृष्‍ट चिकित्‍सा विधि है। पंचकर्म को आयुर्वेद की विशिष्‍ट चिकित्‍सा पद्धति कहते है। इस विधि से शरीर में होंनें वाले रोगों और रोग के कारणों को दूर करनें के लिये और तीनों दोषों (अर्थात त्रिदोष) वात, पित्‍त, कफ के असम रूप को समरूप में पुनः स्‍थापित करनें के लिये विभिन्‍न प्रकार की प्रक्रियायें प्रयोग मे लाई जाती हैं। लेकिन इन कई प्रक्रियायों में पांच कर्म मुख्‍य हैं, इसीलिये ‘’पंचकर्म’’ कहते हैं। ये पांच कर्मों की प्रक्रियायें इस प्रकार हैं-.

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पुरीष

सन्‍दर्भ ग्रन्‍थ:चरक संहिता सुश्रुत संहिता वाग्‍भट्ट भाव प्रकाश चिकित्‍सा चन्‍द्रोदय यह भी देखें आयुर्वेद बाहरी कडियां श्रेणी:आयुर्वेद.

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बवासीर

बवासीर या पाइल्स या (Hemorrhoid / पाइल्स या मूलव्याधि) एक ख़तरनाक बीमारी है। बवासीर 2 प्रकार की होती है। आम भाषा में इसको ख़ूँनी और बादी बवासीर के नाम से जाना जाता है। कही पर इसे महेशी के नाम से जाना जाता है। 1- खूनी बवासीर:- खूनी बवासीर में किसी प्रकार की तकलीफ नही होती है केवल खून आता है। पहले पखाने में लगके, फिर टपक के, फिर पिचकारी की तरह से सिफॅ खून आने लगता है। इसके अन्दर मस्सा होता है। जो कि अन्दर की तरफ होता है फिर बाद में बाहर आने लगता है। टट्टी के बाद अपने से अन्दर चला जाता है। पुराना होने पर बाहर आने पर हाथ से दबाने पर ही अन्दर जाता है। आखिरी स्टेज में हाथ से दबाने पर भी अन्दर नही जाता है। 2-बादी बवासीर:- बादी बवासीर रहने पर पेट खराब रहता है। कब्ज बना रहता है। गैस बनती है। बवासीर की वजह से पेट बराबर खराब रहता है। न कि पेट गड़बड़ की वजह से बवासीर होती है। इसमें जलन, दर्द, खुजली, शरीर मै बेचैनी, काम में मन न लगना इत्यादि। टट्टी कड़ी होने पर इसमें खून भी आ सकता है। इसमें मस्सा अन्दर होता है। मस्सा अन्दर होने की वजह से पखाने का रास्ता छोटा पड़ता है और चुनन फट जाती है और वहाँ घाव हो जाता है उसे डाक्टर अपनी भाषा में फिशर भी कहते हें। जिससे असहाय जलन और पीड़ा होती है। बवासीर बहुत पुराना होने पर भगन्दर हो जाता है। जिसे अँग्रेजी में फिस्टुला कहते हें। फिस्टुला प्रकार का होता है। भगन्दर में पखाने के रास्ते के बगल से एक छेद हो जाता है जो पखाने की नली में चला जाता है। और फोड़े की शक्ल में फटता, बहता और सूखता रहता है। कुछ दिन बाद इसी रास्ते से पखाना भी आने लगता है। बवासीर, भगन्दर की आखिरी स्टेज होने पर यह केंसर का रूप ले लेता है। जिसको रिक्टम केंसर कहते हें। जो कि जानलेवा साबित होता है। .

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भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र

भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र मुम्बई में स्थित है। यह भारत सरकार के परमाणु उर्जा विभाग के अन्तर्गत नाभिकिय विज्ञान एवं अभियांत्रिकी एवं अन्य संबन्धित क्षेत्रों का बहु-विषयी नाभीकीय अनुसंधान केन्द्र है। भारत का परमाणु कार्यक्रम डा॰ होमी जहांगीर भाभा के नेतृत्व में आरम्भ हुआ। ३ जनवरी सन् १९५३ को परमाणु उर्जा आयोग के द्वारा परमाणु उर्जा संस्थान (ए ई ई टी) के नाम से आरम्भ हुआ और तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा २० जनवरी सन् १९५७ को राष्ट्र को समर्पित किया गया। इसके बाद परमाणु उर्जा संस्थान को पुनर्निर्मित कर १२ जनवरी सन् १९६७ को इसका नया नाम भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र किया गया, जो कि २४ जनवरी सन् १९६६ में डा॰ भाभा की विमान दुर्घटना में आकस्मिक मृत्यु के लिये एक विनम्र श्रद्धांजलि थी। .

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भगन्‍दर

नालव्रण या भगन्दर एक रोग है। .

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मल

घोड़े की लीद (मल) एवं घोड़ा मल (Feces, faeces, or fæces) वह वर्ज्य पदार्थ (waste product) है जिसे जानवर अपने पाचन नली से मलद्वार के रास्ते निकलते हैं। .

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मूत्र

मानव का मूत्र-तंत्र मूत्र, मानव और अन्य कशेरुकी जीवों मे वृक्क (गुर्दे) द्वारा स्रावित एक तरल अपशिष्ट उत्पाद है। कोशिकीय चयापचय के परिणामस्वरूप कई अपशिष्ट यौगिकों का निर्माण होता है, जिनमे नाइट्रोजन की मात्रा अधिक हो स्कती है और इनका रक्त परिसंचरण तंत्र से निष्कासन अति आवश्यक होता है। आयुर्वेद अनुसार मूत्र को तीन प्रकार के मलो में शामिल किया है एवं शरीर मे इसका प्रमाण 4 अंजली माना गया है । .

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राष्ट्रीय नवप्रवर्तन संस्थान

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार का स्वायत्तशासी संस्थान राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान- भारत, भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग का स्वायत्तशासी संस्थान है। इसका मुख्यालय भारत के गुजरात राज्य के गांधीनगर शहर में स्थित है। हनी बी नेटवर्क के दर्शन पर आधारित व संस्थापित राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान-भारत (रानप्र) ने मार्च, 2000 में तृणमूल प्रौद्योगिकीय नवप्रवर्तनों एवं विशिष्ठ पारंपरिक ज्ञान को सशक्त करने की राष्ट्रीय पहल के रूप में कार्य करना आरंभ किया। इसका ध्येय तृणमूल प्रौद्योगिकीय नवप्रवर्तकों के लिए नीतियों के विस्तार और सांस्थानिक फैलाव के जरिए एक सृजनात्मक एवं ज्ञान आधारित समाज बनाने का है। रानप्र तृणमूल नवप्रवर्तकों एवं विशिष्ठ पारम्परिक ज्ञानधारकों को पहचान दिलाने के साथ उन्हें सम्मानित और पुरस्कृत करता है। दस्तावेजीकरण, मूल्य परिवर्धन, बौद्धिक संपदा प्रबंधन के साथ नवप्रवर्तनों के व्यवसायिक व गैरव्यवसायिक प्रसार के जरिए रानप्र भारत को नवप्रवर्तनशील राष्ट्र बनाने के लिए प्रतिबद्ध है।   परिकल्पना या दृष्टि  भारत को नवप्रवर्तनशील राष्ट्र बनाने के साथ इसके विशिष्ठ पारम्परिक ज्ञान के आधार को आगे बढ़ाना।   ध्येय रानप्र का ध्येय नवप्रवर्तनशील एवं सृजनशील समाज के जरिए भारत को वहनीय प्रौद्योगिकियों में विश्व में अग्रणी देश के रूप में स्थापित करने का है, जिससे बिना किसी सामाजिक और आर्थिक बाधाओं के नए तृणमूल नवप्रवर्तनों का क्रम विकास और प्रसार होता रहे। विषय सूची 1   नवप्रवर्तकों को मिल रही पहचान 1.1.    राष्ट्रीय द्विवार्षिक प्रतियोगिता 1.2.    डॉ.

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शंखद्राव

शंखद्राव आयुर्वेद की औषधि है। चूंकि इस दृव अवस्‍था वाली औषधि में शंख, कौड़ी, प्रवाल और मुक्‍ता जैसे द्रव्‍यों को मिला देंनें से उक्‍त द्रव्‍य गल जातें हैं, इस कारण इसे शखद्राव कहते हैं। श्रेणी:आयुर्वेद.

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सप्‍त धातु

चरक संहिता.

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सम्‍पूर्ण ओज

सन्‍दर्भ ग्रन्‍थ:चरक संहिता सुश्रुत संहिता वाग्‍भट्ट भाव प्रकाश चिकित्‍सा चन्‍द्रोदय यह भी देखें आयुर्वेद बाहरी कडियां श्रेणी:आयुर्वेद.

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स्‍वेद

सन्‍दर्भ ग्रन्‍थ:चरक संहिता सुश्रुत संहिता वाग्‍भट्ट भाव प्रकाश चिकित्‍सा चन्‍द्रोदय यह भी देखें आयुर्वेद बाहरी कडियां श्रेणी:आयुर्वेद.

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वात

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ओज

कोई विवरण नहीं।

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औषधि

thumb औषधि वह पदार्थ है जिन की निश्चित मात्रा शरीर में निश्चित प्रकार का असर दिखाती है। इनका प्रयोजन चिकित्सा में होता है। किसी भी पदार्थ को औषधि के रूप में प्रयोग करके के लिए उस पदार्थ का गुण, मात्रा अनुसार व्यवहार, शरीर पर विभिन्न मात्राओं में होने वाला प्रभाव आदि की जानकारी अपरिहार्य है। औषधियाँ रोगों के इलाज में काम आती हैं। प्रारंभ में औषधियाँ पेड़-पौधों, जीव जंतुओं से आयुर्वेद के अनुसार प्राप्त की जाती थीं, लेकिन जैसे-जैसे रसायन विज्ञान का विस्तार होता गया, नए-नए तत्वों की खोज हुई तथा उनसे नई-नई औषधियाँ कृत्रिम विधि से तैयार की गईं। .

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आयुर्वेद

आयुर्वेद के देवता '''भगवान धन्वन्तरि''' आयुर्वेद (आयुः + वेद .

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इलेक्‍ट्रोत्रिदोषग्राम (ई.टी.जी.)

इलेक्‍ट्रो-त्रिदोष-ग्राफ मशीन का आविष्‍कार करके इसकी सहायता लेकर ‘इलेक्‍ट्रो-त्रिदोष-ग्राम’ प्राप्त करने की तकनीक का अविष्‍कार किया गया है। इस तकनीक द्वारा नाडी परीक्षण के समस्‍त ज्ञान को कागज की पट्टी पर अंकित कर‍के साक्ष्‍य रूप में प्रस्‍तुत करने का सफल प्रयास किया गया है। इस तकनीक के आविष्‍कारक, एक भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्‍सक, कानपुर शहर, उत्‍तर प्रदेश राज्‍य के डॉ॰ देश बन्‍धु बाजपेई (जन्‍म 20 नवम्‍बर 1945) नें 14 वर्षों के अथक प्रयासों के पश्‍चात प्राप्‍त किया है। वर्तमान में भी शोध, परीक्षण और विकास कार्य अनवरत जारी है। आयुर्वेद लगभग पांच हजार वर्ष प्राचीन चिकित्‍सा विज्ञान है। सम्‍पूर्ण आयुर्वेद त्रिदोष सिद्धान्‍त, “सप्‍त धातुओं” तथा “मल” यानी दोष-दूष्य-मल के आधार पर व्यवस्थित है। त्रिदोषो का शरीर में मौजूदगी का क्या आकलन है, क्या स्तर है, यह ज्ञात करने के लिये अभी तक परम्‍परागत तौर तरीकों में नाडी परीक्षण ही एकमात्र उपाय है। नाड़ी परीक्षण द्वारा त्रिदोषों के विषय में प्राप्त जानकारी अकेले आयुर्वेद के चिकित्सक के नाड़ी ज्ञान पर आधारित होता है। इस नाड़ी परीक्षण की प्रक्रिया और नाड़ी-परीक्षण के परिणामों को केवल मस्तिष्क द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है, लेकिन भौतिक रूप से देखा नही जा सकता है। आयुर्वेद चिकित्सक त्रिदोष, त्रिदोष के प्रत्येक के पांच भेद, सप्त धातु, मल इत्यादि को मानसिक रूप से स्वयं किस स्तर पर स्वीकार करते हैं अथवा किस प्रकार अपने विवेक का उपयोग करके दोष-दूष्‍य-मल का निर्धारण करते हैं और इन सब बिन्‍दुओं को किस प्रकार से और कैसे व्‍यक्‍त किया जायेगा यह सब भौतिक रूप में साक्ष्‍य अथवा सबूत के रूप में संभव नहीं है। जैसे कि आजकल वर्तमान में इवीडेन्‍स-बेस्‍ड-मेडिसिन "प्रत्‍यक्ष प्रमाण आधारित चिकित्‍सा" की बात की जाती है। उदाहरण के लिये एक्‍स-रे चित्र, सीटी स्‍कैन, एमआरआई, ईसीजी, पै‍थालाजी रिपोर्ट इत्‍यादि तकनीकें रोगों के निदान के लिये साक्ष्‍य अथवा सबूत के लिये प्रत्‍यक्षदर्शी है। .

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कफ

कोई विवरण नहीं।

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कर्कट रोग

कर्कट (चिकित्सकीय पद: दुर्दम नववृद्धि) रोगों का एक वर्ग है जिसमें कोशिकाओं का एक समूह अनियंत्रित वृद्धि (सामान्य सीमा से अधिक विभाजन), रोग आक्रमण (आस-पास के उतकों का विनाश और उन पर आक्रमण) और कभी कभी अपररूपांतरण अथवा मेटास्टैसिस (लसिका या रक्त के माध्यम से शरीर के अन्य भागों में फ़ैल जाता है) प्रदर्शित करता है। कर्कट के ये तीन दुर्दम लक्षण इसे सौम्य गाँठ (ट्यूमर या अबुर्द) से विभेदित करते हैं, जो स्वयं सीमित हैं, आक्रामक नहीं हैं या अपररूपांतरण प्रर्दशित नहीं करते हैं। अधिकांश कर्कट एक गाँठ या अबुर्द (ट्यूमर) बनाते हैं, लेकिन कुछ, जैसे रक्त कर्कट (श्वेतरक्तता) गाँठ नहीं बनाता है। चिकित्सा की वह शाखा जो कर्कट के अध्ययन, निदान, उपचार और रोकथाम से सम्बंधित है, ऑन्कोलॉजी या अर्बुदविज्ञान कहलाती है। कर्कट सभी उम्र के लोगों को, यहाँ तक कि भ्रूण को भी प्रभावित कर सकता है, लेकिन अधिकांश किस्मों का जोखिम उम्र के साथ बढ़ता है। कर्कट में से १३% का कारण है। अमेरिकन कैंसर सोसायटी के अनुसार, २००७ के दौरान पूरे विश्व में ७६ लाख लोगों की मृत्यु कर्कट के कारण हुई। कर्कट सभी जानवरों को प्रभावित कर सकता है। लगभग सभी कर्कट रूपांतरित कोशिकाओं के आनुवंशिक पदार्थ में असामान्यताओं के कारण होते हैं। ये असामान्यताएं कार्सिनोजन या का कर्कटजन (कर्कट पैदा करने वाले कारक) के कारण हो सकती हैं जैसे तम्बाकू धूम्रपान, विकिरण, रसायन, या संक्रामक कारक.

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क्षार (आयुर्वेद)

क्षार एक आयुर्वेदिक औषधि है जिसका वर्णन कई आयुर्वेदिक ग्रन्थों में मिलता है। यह विभिन्न रोगों की चिकित्सा में प्रयुक्त किया जाता है। 'क्षार' शब्द 'क्षर्' से व्युत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है- पिघलना या गलना (क्षर् स्यन्दने)। आचार्य सुश्रुत ने इसे दोषों को नष्ट करने वाले पदार्थ के रूप में परिभाषित किया है। .

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अलजाइमर रोग

अल्जाइमर रोग(अंग्रेज़ी:Alzheimer's Disease) रोग 'भूलने का रोग' है। इसका नाम अलोइस अल्जाइमर पर रखा गया है, जिन्होंने सबसे पहले इसका विवरण दिया। इस बीमारी के लक्षणों में याददाश्त की कमी होना, निर्णय न ले पाना, बोलने में दिक्कत आना तथा फिर इसकी वजह से सामाजिक और पारिवारिक समस्याओं की गंभीर स्थिति आदि शामिल हैं। रक्तचाप, मधुमेह, आधुनिक जीवनशैली और सर में कई बार चोट लग जाने से इस बीमारी के होने की आशंका बढ़ जाती है। अमूमन 60 वर्ष की उम्र के आसपास होने वाली इस बीमारी का फिलहाल कोई स्थायी इलाज नहीं है।। घमासान.कॉम।।१० अक्टूबर, २००९ हालांकि बीमारी के शुरूआती दौर में नियमित जांच और इलाज से इस पर काबू पाया जा सकता है। मस्तिष्क के स्त्रायुओं के क्षरण से रोगियों की बौद्धिक क्षमता और व्यावहारिक लक्षणों पर भी असर पड़ता है। हम जैसे-जैसे बूढ़े होते हैं, हमारी सोचने और याद करने की क्षमता भी कमजोर होती है। लेकिन इसका गंभीर होना और हमारे दिमाग के काम करने की क्षमता में गंभीर बदलाव उम्र बढ़ने का सामान्य लक्षण नहीं है। यह इस बात का संकेत है कि हमारे दिमाग की कोशिकाएं मर रही हैं। दिमाग में एक सौ अरब कोशिकाएं (न्यूरान) होती हैं। हरेक कोशिका बहुत सारी अन्य कोशिकाओं से संवाद कर एक नेटवर्क बनाती हैं। इस नेटवर्क का काम विशेष होता है। कुछ सोचती हैं, सीखती हैं और याद रखती हैं। अन्य कोशिकाएं हमें देखने, सुनने, सूंघने आदि में मदद करती हैं। इसके अलावा अन्य कोशिकाएं हमारी मांसपेशियों को चलने का निर्देश देती हैं। अपना काम करने के लिए दिमाग की कोशिकाएं लघु उद्योग की तरह काम करती हैं। वे सप्लाई लेती हैं, ऊर्जा पैदा करती हैं, अंगों का निर्माण करती हैं और बेकार चीजों को बाहर निकालती हैं। कोशिकाएं सूचनाओं को जमा करती हैं और फिर उनका प्रसंस्करण भी करती हैं। शरीर को चलते रहने के लिए समन्वय के साथ बड़ी मात्रा में ऑक्सीजन और ईंधन की जरूरत होती है। अल्जाइमर रोग में कोशिकाओं की उद्योग का हिस्सा काम करना बंद कर देता है, जिससे दूसरे कामों पर भी असर पड़ता है। जैसे-जैसे नुकसान बढ़ता है, कोशिकाओं में काम करने की ताकत कम होती जाती है और अंततः वे मर जाती हैं। .

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अश्वगंधा

अवश्गंधा (Withania somnifera) एक पौधा (क्षुप) है जिससे आयुर्वेदिक औषधि बनती है। .

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अश्‍वगंधा

निम्नलिखित रसायनिक घटक अश्वगंधा की जड़ में उपस्थित रहते है, जब तक अन्यथा न कहा जाए.

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अग्‍नि बल

सन्‍दर्भ ग्रन्‍थ:चरक संहिता सुश्रुत संहिता वाग्‍भट्ट भाव प्रकाश चिकित्‍सा चन्‍द्रोदय यह भी देखें आयुर्वेद बाहरी कडियां श्रेणी:आयुर्वेद श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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