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हिन्दी विश्वकोश

सूची हिन्दी विश्वकोश

हिन्दी विश्वकोश, नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा हिन्दी में निर्मित एक विश्वकोश है। यह बारह खण्डों में पुस्तक रूप में उपलब्ध है। इसके अलावा यह अन्तरजाल पर पठन के लिये भी नि:शुल्क उपलब्ध है। यह किसी एक विषय पर केन्द्रित नहीं है बल्कि इसमें अनेकानेक विषयों का समावेश है। .

43 संबंधों: एलेक्सिस सेंट लेगर, तुकोजी होल्कर, धर्मशास्त्र का इतिहास (पुस्तक), धीरेन्द्र वर्मा, नट हैमसन, नागरीप्रचारिणी सभा, निकोलाई गोगोल, नगेंद्रनाथ वसु, पेशवा, फूलदेव सहाय वर्मा, बांग्लापीडिया, ब्रिटैनिका विश्वकोष, भगवतशरण उपाध्याय, भगवद्गोमण्डल, माधवराव पेशवा, यूजेन ओ' नील, शब्दकोश, सदाशिवराव भाऊ, संस्कृत के आधुनिक कोश, स्वामी कन्नू पिल्लै, सेल्मा लागरलोफ, सोलह शृंगार, हरिद्वार, हिन्दी से सम्बन्धित प्रथम, हिन्दी की सौ श्रेष्ठ पुस्तकें, हिंदी शब्दसागर, हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास, जुआन रामों जिमनेज़, जॉन मिल्टन, वर्नर हेइदेन्स्ताम, वात्स्यायन, विलियम शेक्सपीयर, विश्वज्ञानकोश, व्लाडिस्लाव रेमांट, ग्रेज़िया डेलेडा, ग्रेगोरी कैलेंडर, गैबरीला मिस्त्राल, गोरख प्रसाद, ओदिसी, इनसाइक्लोपीदी, इलियाड, कोश, अर्नेस्ट हेमिंग्वे

एलेक्सिस सेंट लेगर

एलेक्सिस सेंट लेगर (उपनाम- सेंट जॉन पर्स) (1887-1975) फ्रांस के कवि थे। 1960 ई० में साहित्य में नोबेल पुरस्कार विजेता। .

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तुकोजी होल्कर

तुकोजीराव होल्कर प्रथम (1767-1797) अहिल्याबाई होल्कर का सेनापति था तथा उसकी मृत्यु के बाद होल्करवंश का शासक बन गया था। दूरदर्शिता के अभाव तथा प्रबल महत्वाकांक्षावश इसने महादजी शिन्दे से युद्ध मोल लिया था तथा अंततः पूर्णरूपेण पराजित हुआ था। .

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धर्मशास्त्र का इतिहास (पुस्तक)

धर्मशास्त्र का इतिहास (हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र) भारतरत्न पांडुरंग वामन काणे द्वारा रचित हिन्दू धर्मशास्त्र से सम्बद्ध एक इतिहास ग्रन्थ है, जिसके लिये उन्हें सन् 1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पाँच खण्डों में विभाजित एक बृहत् ग्रन्थ है। साहित्य अकादमी पुरस्कार दिये जाने तक अंग्रेजी में इसके 4 भाग ही प्रकाशित हुए थे (1953 तक)। 1963 में डॉ० पांडुरंग वामन काणे को भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारतरत्न से सम्मानित किया गया। अंतिम भाग (पंचम खंड) का लेखन 1965 में पूरा हुआ। .

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धीरेन्द्र वर्मा

डॉ धीरेन्द्र वर्मा (१८९७ - १९७३), हिन्दी तथा ब्रजभाषा के कवि एवं इतिहासकार थे। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रथम हिन्दी विभागाध्यक्ष थे। धर्मवीर भारती ने उनके ही मार्गदर्शन में अपना शोधकार्य किया। जो कार्य हिन्दी समीक्षा के क्षेत्र में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किया, वही कार्य हिन्दी शोध के क्षेत्र में डॉ॰ धीरेन्द्र वर्मा ने किया था। धीरेन्द्र वर्मा जहाँ एक तरफ़ हिन्दी विभाग के उत्कृष्ट व्यवस्थापक रहे, वहीं दूसरी ओर एक आदर्श प्राध्यापक भी थे। भारतीय भाषाओं से सम्बद्ध समस्त शोध कार्य के आधार पर उन्होंने 1933 ई. में हिन्दी भाषा का प्रथम वैज्ञानिक इतिहास लिखा था। फ्रेंच भाषा में उनका ब्रजभाषा पर शोध प्रबन्ध है, जिसका अब हिन्दी अनुवाद हो चुका है। मार्च, सन् 1959 में डॉ॰ धीरेंद्र वर्मा हिंदी विश्वकोश के प्रधान संपादक नियुक्त हुए। विश्वकोश का प्रथम खंड लगभग डेढ़ वर्षों की अल्पावधि में ही सन् 1960 में प्रकाशित हुआ। .

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नट हैमसन

नट हैमसन (1859-1952) नार्वे के प्रसिद्ध उपन्यासकार एवं नाटककार थे। 1920 ई० में साहित्य में नोबेल पुरस्कार विजेता। .

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नागरीप्रचारिणी सभा

नागरीप्रचारिणी सभा, हिंदी भाषा और साहित्य तथा देवनागरी लिपि की उन्नति तथा प्रचार और प्रसार करनेवाली भारत की अग्रणी संस्था है। भारतेन्दु युग के अनंतर हिंदी साहित्य की जो उल्लेखनीय प्रवृत्तियाँ रही हैं उन सबके नियमन, नियंत्रण और संचालन में इस सभा का महत्वपूर्ण योग रहा है। .

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निकोलाई गोगोल

निकोलाई गोगोल (पूरा नाम- निकोलाई वसील्येविच गोगोल, अन्य उच्चारण- निकोलाय गोगल, निकोलाई वसीलिविच गोगल; २० मार्च, १८०९- २१ फरवरी, १८५२ ई०) यूक्रेन मूल के रूसी साहित्यकार थे जिन्होंने कहानी, लघु उपन्यास एवं नाटक आदि विधाओं में युगीन आवश्यकताओं के अनुरूप प्रभूत लेखन किया है। गोगोल रूसी साहित्य में प्रगतिशील विचारधारा के आरंभिक प्रयोगकर्ताओं में प्रमुख थे व उनकी साहित्यिक प्राथमिकता जनोन्मुखता का पर्याय थी। आरंभिक लेखन में प्रेम-प्रसंग तत्त्व के आधिक्य होने पर भी बहुत जल्दी गोगोल सामाजिक जीवन का व्यापकता तथा गहराई से बहुआयामी चित्रण की ओर केंद्रित होते गये। मीरगोरोद में संकलित कहानियाँ इस तथ्य का जीवंत साक्ष्य हैं। पीटर्सबर्ग की कहानियाँ में संकलित रचनाओं में भी विसंगतियों एवं विडंबनाओं का मार्मिक चित्रण हास्य एवं सूक्ष्म व्यंग्य के माध्यम से अद्भुत है; और इनकी बड़ी विशेषता सामान्य जन के साथ-साथ साहित्यकारों की एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित करना भी है। कहानियों के साथ-साथ नाटकों के माध्यम से गोगोल का मुख्य प्रकार्य युगीन आवश्यकताओं को इस प्रकार साहित्य में ढालना रहा है जिससे जन-सामान्य की स्थिति में परिवर्तनकारी भूमिका निभाने के साथ-साथ वस्तुतः साहित्य की 'साहित्यिकता' भी सुरक्षित रहे, और इसमें आलोचकों ने उसे सफल माना है। .

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नगेंद्रनाथ वसु

नगेन्द्रनाथ बसु (6 जुलाई 1866-1938) बांग्ला भाषा के ज्ञानकोशकार थे। उनके द्वारा संपादित बंगला विश्वकोश ही भारतीय भाषाओं से प्रणीत प्रथम आधुनिक विश्वकोश है। यह सन् 1911 में 22 खंडों में प्रकाशित हुआ। Nagendranath Basu Plate नगेंद्रनाथ वसु ने ही अनेक हिंदी विद्वानों के सहयोग से बंगला विश्वकोश का हिन्दी रूपान्तर 'हिंदी विश्वकोश' की रचना की जो सन् 1916 से 1932 के मध्य 25 खंडों में प्रकाशित हुआ। नगेन्द्रनाथ बसु पुरातत्वविद, इतिहासकार तथा लेखक थे। उनका जन्म कोलकाता में हुआ था। कम आयु में ही उन्होने कविता एवं उपन्यास लिखना शुरू कर दिया था किन्तु शीघ्र वे सम्पादन कार्य में लग गए। 'तपस्विनी' तथा 'भारत' नामक दो मासिक पत्रिकाओं का उन्होने सम्पादन किया। .

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पेशवा

दरबारियों के साथ पेशवा मराठा साम्राज्य के प्रधानमंत्रियों को पेशवा (मराठी: पेशवे) कहते थे। ये राजा के सलाहकार परिषद अष्टप्रधान के सबसे प्रमुख होते थे। राजा के बाद इन्हीं का स्थान आता था। शिवाजी के अष्टप्रधान मंत्रिमंडल में प्रधान मंत्री अथवा वजीर का पर्यायवाची पद था। 'पेशवा' फारसी शब्द है जिसका अर्थ 'अग्रणी' है। पेशवा का पद वंशानुगत नहीं था। आरंभ में, संभवत: पेशवा मर्यादा में अन्य सदस्यों के बराबर ही माना जाता था। छत्रपति राजाराम के समय में पंत-प्रतिनिधि का नवनिर्मित पद, राजा का प्रतिनिधि होने के नाते पेशवा से ज्येष्ठ ठहराया गया था। पेशवाई सत्ता के वास्तविक संस्थापन का, तथा पेशवा पद को वंशपरंपरागत रूप देने का श्रेय ऐतिहासिक क्रम से सातवें पेशवा, बालाजी विश्वनाथ को है। किंतु, यह परिवर्तन छत्रपति शाहू के सहयोग और सहमति द्वारा ही संपन्न हुआ, उसकी असमर्थता के कारण नहीं। यद्यपि बालाजी विश्वनाथ के उत्तराधिकारी बाजीराव ने मराठा साम्राज्य के सीमाविस्तार के साथ साथ अपनी सत्ता को भी सर्वोपरि बना दिया, तथापि वैधानिक रूप से पेशवा की स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन शाहू की मृत्यु के बाद, बाजीराव के पुत्र बालाजी के समय में हुआ। अल्पवयस्क छत्रपति रामराजा की अयोग्यता के कारण समस्त राजकीय शक्ति संगोला के समझौते (२५ सितंबर १७५०) के अनुसार, पेशवा को हस्तांतरित हो गई, तथा शासकीय केंद्र सातारा की अपेक्षा पुणे निर्धारित किया गया। किंतु पेशवा माधवराव के मृत्युपरांत जैसा सातारा राजवंश के साथ हुआ, वैसा ही पेशवा वंश के साथ हुआ। माधवराव के उत्तराधिकारियों की नितांत अयोग्यता के कारण राजकीय सत्ता उनके अभिभावक नाना फडनवीस के हाथों में केंद्रित हो गई। किंतु आँग्ल शक्ति के उत्कर्ष के कारण इस स्थिति में भी शीघ्र ही महान परिवर्तन हुआ। अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय को वसई की संधि के अनुसार (३१ दिसम्बर १८०२) अंग्रेजों का प्रभुत्व स्वीकार करना पड़ा; १३ जून १८१७, की संधि के अनुसार मराठा संघ पर उसे अपना अधिकार छोड़ना पड़ा; तथा अंत में तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध की समाप्ति पर, मराठा साम्राज्य के विसर्जन के बाद, पदच्युत होकर अंग्रेजों की पेंशन ग्रहण करने के लिये विवश होना पड़ा।; पेशवाओं का शासनकाल-.

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फूलदेव सहाय वर्मा

डॉ फूलदेव सहाय वर्मा (जन्म: फरवरी, १८९८), काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में रसायन विज्ञान के विभागाध्यक्ष, हिन्दीप्रेमी तथा लेखक थे। उन्होने हिन्दी में विज्ञान के अनेक ग्रन्थों, पत्रपत्रिकाओं एवं लेखों का प्रणयन किया। उन्होने हिन्दी विश्वकोश का भी सम्पादन किया। .

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बांग्लापीडिया

बांग्लापीडिया या बांग्लादेश का राष्ट्रीय विश्वकोश, एशियाटिक सोसाइटी बांग्लादेश द्वारा प्रकाशित एक द्विभाषी और पहला बांग्लादेशी विश्वकोश है। यह बांग्ला और अंग्रेजी भाषाओं में उपलब्ध है। इसे प्रथम बार 2003 में 500 पृष्ठों वाले 10 खण्डों में प्रकाशित किया गया था। इसमें लगभग 6000 आलेख हैं। मुद्रित और आनलाइन संस्करण के अलावा यह सीडी रोम पर भी उपलब्ध है। इसका प्रस्तावित अद्यतन प्रति 2 वर्षों पश्चात होना तय पाया गया है। बांग्लापीडिया के प्रधान सम्पादक सिराजुल इस्लाम थे। लगभग 1200 बंग्लादेशी और विदेशी लेखकों ने इस विश्वकोश में उपलब्ध लेखों को लिखा है। इस परियोजना का वित्त-पोषण बंग्लादेशी सरकार, निजी क्षेत्र के संगठनों, शैक्षिक संस्थानों और यूनेस्को द्वारा किया गया है। इस परियोजना का मूल बजट 800,000 टका था, पर अंत में इस परियोजना पर एशियाटिक सोसाइटी को लगभग 8 करोड़ टका खर्च करना पड़ा। बांग्लादेश मुक्ति युद्ध और स्वदेशी लोगों पर की गयीं विवादास्पद प्रविष्टियों के बावजूद, दोनों बांग्ला और अंग्रेजी संस्करण प्रकाशन के समय से ही पर पाठकों के बीच लोकप्रिय हैं। बांग्लापीडिया एक सामान्य विश्वकोश न होकर, बांग्लादेश से संबंधित विषयों पर आधारित एक विशेष विश्वकोश है। विश्वकोश के प्रयोजनों के लिए, बांग्लादेश को एक ऐसे क्षेत्र के रूप में परिभाषित किया गया है जो ऐतिहासिक रूप से क्रमश: प्राचीन पूर्वी भारत, सूबा बांग्ला, शाही बंगलाह, मुगल सूबा बंगला, बंगाल प्रेसीडेंसी, बंगाल प्रांत, पूर्वी बंगाल, पूर्वी पाकिस्तान और स्वतंत्र बांग्लादेश के रूप में अस्तित्व में आया। .

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ब्रिटैनिका विश्वकोष

एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (Encyclopædia Britannica; हिन्दी अर्थ: 'ब्रितानी विश्वकोश') ब्रिटैनिका कंपनी द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी भाषा का विश्वकोष है। कंपनी ने 32 खंडों में प्रकाशित होने वाले इस प्रिंट संस्करण का प्रकाशन बंद कर दिया है (मार्च, २०१२) और अब डिजिटल संस्करण पर ध्यान दिये जाने की बात कही है। इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका को सबसे पहले 1768 में स्कॉटलैंड में प्रकाशित किया गया था। इसके नये संस्करण प्रत्येक दो साल में प्रकाशित होते थे। इसे अंतिम बार 2010 में प्रकाशित किया गया था। हर दो साल पर प्रकाशित होने वाले 32 खंडों के प्रिंटेड संस्करण की कीमत 1400 अमेरिकी डॉलर (करीब 69,900 रुपये) थी। लेकिन अब इसके ऑनलाइन संस्करण के लिए प्रति वर्ष केवल 70 अमेरिकी डॉलर (करीब 2800 रुपये) कीमत चुकानी होगी। इसके अलावा, कंपनी ने लोगों की सुविधानुसार प्रति माह के हिसाब से ऑनलाइन सदस्यता शुल्क 1.99 से लेकर 4.99 अमेरिकी डॉलर तक भी शुरू कर दिया है। .

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भगवतशरण उपाध्याय

भगवतशरण उपाध्याय का जन्म 1910 ई0 को उजियारपुर, जिला- बलिया (उ0प्र0) में हुआ। निधन 12 अगस्त 1982 ई0 को हुआ। उपाध्याय जी ने संस्कृत, हिन्दी साहित्य, इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व का गहन अध्ययन किया। आपकी भाषा शैली तत्सम् शब्दों से युक्त साहित्यिक खड़ीबोली है। आपने विवेचनात्मक भावुकता पूर्ण, चित्रात्मक भाषा का प्रयोग तथा कहीं-कहीं रेखाचित्र शैली का प्रयोग किया है।;रचनाएँ- विश्व साहित्य की रूपरेखा, कालिदास का भारत, कादम्बरी, ठूँठा आम, लाल चीन, गंगा-गोदावरी, बुद्ध वैभव, साहित्य और कला, सागर की लहरों पर।;संपादन- बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की शोध पत्रिका का संपादन। हिन्दी विश्वकोश संपादक-मंडल के सदस्य। विशेष-मारीशस में भारते के राजदूत तथा विक्रम विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर रहे। .

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भगवद्गोमण्डल

भगवद्गोमण्डल (Gujarati: ભગવદ્ગોમન્ડલ) गुजराती भाषा में एक विश्वकोश तथा गुजराती-से-गुजराती शब्दकोश है। इसकी परिकल्पना गोंडल के राजा भगवतसिंह ने सन् १९२८ में की थी। यह विश्वकोश ९ भागों में ९५०० पन्नों वाला विश्वकोश है। इसमें कोई २८१,३७७ शब्दों के अर्थ एवं उनकी व्याख्या दी हुई है। .

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माधवराव पेशवा

पेशवा माधवराव प्रथम (शासनकाल- 1761-1772 ई०) मराठा साम्राज्य के चौथे पूर्णाधिकार प्राप्त पेशवा थे। वे मराठा साम्राज्य के महानतम पेशवा के रूप में मान्य हैं जिनके अल्पवयस्क होने के बावजूद अद्भुत दूरदर्शिता एवं संगठन-क्षमता के कारण पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की खोयी शक्ति एवं प्रतिष्ठा की पुनर्प्राप्ति संभव हो पायी। 11 वर्षों की अपनी अल्पकालीन शासनावधि में भी आरंभिक 2 वर्ष गृहकलह में तथा अंतिम वर्ष क्षय रोग की पीड़ा में गुजर जाने के बावजूद उन्होंने न केवल उत्तम शासन-प्रबंध स्थापित किया, बल्कि अपनी दूरदर्शिता से योग्य सरदारों को एकजुट कर तथा नाना फडणवीस एवं महादजी शिंदे दोनों का सहयोग लेकर मराठा साम्राज्य को भी सर्वोच्च विस्तार तक पहुँचा दिया। .

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यूजेन ओ' नील

यूजेन ग्लेडस्टोन ओ' नील (Eugene Gladstone O'Neill) अमेरिकी नाटककार थे। 1936 ई० में साहित्य में नोबेल पुरस्कार विजेता। .

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शब्दकोश

शब्दकोश (अन्य वर्तनी:शब्दकोष) एक बडी सूची या ऐसा ग्रंथ जिसमें शब्दों की वर्तनी, उनकी व्युत्पत्ति, व्याकरणनिर्देश, अर्थ, परिभाषा, प्रयोग और पदार्थ आदि का सन्निवेश हो। शब्दकोश एकभाषीय हो सकते हैं, द्विभाषिक हो सकते हैं या बहुभाषिक हो सकते हैं। अधिकतर शब्दकोशों में शब्दों के उच्चारण के लिये भी व्यवस्था होती है, जैसे - अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक लिपि में, देवनागरी में या आडियो संचिका के रूप में। कुछ शब्दकोशों में चित्रों का सहारा भी लिया जाता है। अलग-अलग कार्य-क्षेत्रों के लिये अलग-अलग शब्दकोश हो सकते हैं; जैसे - विज्ञान शब्दकोश, चिकित्सा शब्दकोश, विधिक (कानूनी) शब्दकोश, गणित का शब्दकोश आदि। सभ्यता और संस्कृति के उदय से ही मानव जान गया था कि भाव के सही संप्रेषण के लिए सही अभिव्यक्ति आवश्यक है। सही अभिव्यक्ति के लिए सही शब्द का चयन आवश्यक है। सही शब्द के चयन के लिए शब्दों के संकलन आवश्यक हैं। शब्दों और भाषा के मानकीकरण की आवश्यकता समझ कर आरंभिक लिपियों के उदय से बहुत पहले ही आदमी ने शब्दों का लेखाजोखा रखना शुरू कर दिया था। इस के लिए उस ने कोश बनाना शुरू किया। कोश में शब्दों को इकट्ठा किया जाता है। .

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सदाशिवराव भाऊ

300px सदाशिवराव भाऊ (4 अगस्त 1730 – 20 जनवरी 1761) मराठा सेना के सेनानायक थे। उन्के पिता चिमनाजी अप्पा एवं माता राखमबाई थीं। .

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संस्कृत के आधुनिक कोश

भारत में आधुनिक पद्धति पर बने संस्कृत कोशों की दो वर्गों में रखा जा सकता है.

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स्वामी कन्नू पिल्लै

दीवान बहादुर लेविस डोमिनिक स्वामी कन्नू पिळ्ळै (L.D. SWAMIKANNU PILLAI) भारतीय राजनीतिज्ञ, इतिहासज्ञ, भाषाशास्त्री, गणितज्योतिषी एवं प्रशासक थे। .

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सेल्मा लागरलोफ

सेल्मा लागरलोफ (1858-1940) स्वीडिश उपन्यासकार थी। 1909 ई० में साहित्य में नोबेल पुरस्कार विजेता। .

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सोलह शृंगार

भारतीय साहित्य में सोलह शृंगारी (षोडश शृंगार) की यह प्राचीन परंपरा रही हैं। आदि काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों प्रसाधन करते आए हैं और इस कला का यहाँ इतना व्यापक प्रचार था कि प्रसाधक और प्रसाधिकाओं का एक अलग वर्ग ही बन गया था। इनमें से प्राय: सभी शृंगारों के दृश्य हमें रेलिंग या द्वारस्तंभों पर अंकित (उभारे हुए) मिलते हैं। अर्थात् अंगों में उबटन लगाना, स्नान करना, स्वच्छ वस्त्र धारण करना, माँग भरना, महावर लगाना, बाल सँवारना, तिलक लगाना, ठोढी़ पर तिल बनाना, आभूषण धारण करना, मेंहदी रचाना, दाँतों में मिस्सी, आँखों में काजल लगाना, सुगांधित द्रव्यों का प्रयोग, पान खाना, माला पहनना, नीला कमल धारण करना। स्नान के पहले उबटन का बहुत प्रचार था। इसका दूसरा नाम अंगराग है। अनेक प्रकार के चंदन, कालीयक, अगरु और सुगंध मिलाकर इसे बनाते थे। जाड़े और गर्मी में प्रयोग के हेतु यह अलग अलग प्रकार का बनाया जाता था। सुगंध और शीतलता के लिए स्त्री पुरुष दोनों ही इसका प्रयोग करते थे। स्नान के अनेक प्रकार काव्यों में वर्णित मिलते हैं पर इनमें सबसे अधिक लोकप्रिय जलविहार या जलक्रीड़ा था। अधिकांशत: स्नान के जल को पुष्पों से सुरभित कर लिया जाता था जैसे आजकल "बाथसाल्ट" का प्रयत्न किया जाता है। एक प्रकार के साबुन का भी प्रयोग होता था जो "फेनक" कहलाता था और जिसमें से झाग भी निकलते थे। वसन वे स्वच्छ वस्त्र थे जो नहाने के बाद नर नारी धारण करते थे। पुरुष एक उत्तरीय और अधोवस्त्र पहनते थे और स्त्रियाँ चोली और घाघरा। यद्यपि वस्त्र रंगीन भी पहने जाते थे तथापि प्राचीन नर-नारी श्वेत उज्जवल वस्त्र अधिक पसंद करते थे। इनपर सोने, चाँदी और रत्नों के काम कर और भी सुंदर बनाने की अनेक विधियाँ थीं। स्नान के उपरांत सभी सुहागवती स्त्रिययाँ सिंदूर से माँग भरती थीं। वस्तुत: वारवनिताओं को छोड़कर अधिकतर विवाहित स्त्रियों के शृंगार प्रसाधनों का उल्लेख मिलता है, कन्याओं का नहीं। सिंदूर के स्थान पर कभी कभी फूलों और मोतियों से भी माँग सजाने की प्रथा थी। बाल सँवारने के तो तरीके हर समय के अपने थे। स्नान के बाद केशों से जल निचोड़ लिया जाता था। ऐसे अनेक दृश्य पत्थर पर उत्कीर्ण मिलते हैं। सूखे बालों को धूप और चंदन के धुँए से सुगंधित कर अपने समय के अनुसार अनेक प्रकार की वेणियों, अलकों और जूड़ों से सजाया जाता था। बालों में मोती और फूल गूँथने का आम रिवाज था। विरहिणियाँ और परित्यक्ता वधुएँ सूखे अलकों वाली ही काव्यों में वर्णित की गई हैं; वे प्रसाधन नहीं करती थीं। महावर लगाने की रीति तो आज भी प्रचलित है, विशेषकर त्यौहारों या मांगलिक अवसरों पर। इनसे नाखून और पैर के तलवे तो रचाए ही जाते थे, साथ ही इसे होठों पर लगाकर आधुनिक "लिपिस्टिक" का काम भी लिया जाता था। होठों पर महावर लगाकर लोध्रचूर्ण छिड़क देने से अत्यंत मनमोहक पांडुता का आभास मिलता था। मुँह का प्रसाधन तो नारियों को विशेष रूप से प्रिय था। इसके "पत्ररचना", विशेषक, पत्रलेखन और भक्ति आदि अनेक नाम थे। लाल और श्वेत चंदन के लेप से गालों, मस्तक और भवों के आस पास अनेक प्रकार के फूल पत्ते और छोटी बड़ी बिंदियाँ बनाई जाती थीं। इसमें गीली या सूखी केसर या कुमकुम का भी प्रयोग होता था। बाद में इसका स्थान बिंदी ने ले लिया जो आज भी इस देश की स्त्रियों का प्रिय प्रसाधन है। कभी केवल काजल की अकेली बिंदी भी लगाने की रीति थी। आजकल की भाँति ही बीच ठोढ़ी पर दो छोटे छोटे काजल के तिल लगाकर सौंदर्य को आकर्षक बनाने का चलन था। आजकल की तरह प्राचीन भारत में भी हथेली और नाखूनों को मेहँदी से लाल करने का आम रिवाज था। आभूषणों की तो अनंत परंपरा थी जिसे नर नारी दोनों ही धारण करते थे। मध्यकाल में तो आभूषणों का प्रयोग इतना बढ़ा कि शरीर का शायद ही कोई भाग बचा हो जहाँ गहने न पहने जाते हों। आँखों में काजल या अंजन का प्रयोग व्यापक रूप से होता था। मूर्तिकला में बहुधा शलाका से अंजन लगाती हुई नारी का चित्रण हुआ है। अरगजा एक प्रकार का लेप है जिसे केसर, चंदन, कपूर आदि मिलाकर बनाते थे। आधुनिक इत्र या सेंट की तरह शरीर को सुगंधित करने के लिए इसका अधिकतर प्रयोग किया जाता था। मुँह को सुगंधित करने के लिए स्त्री और पुरुष दोनों ही तांबूल या पान खाते थे। राजाओं की परिचारिकाओं में तांबूलवाहिनी का अपना विशेष स्थान था। भारतीय नारी को अपने प्रसाधन में फूलों के प्रति विशेष मोह है। जूड़े में, वेणियों में, कानों, हाथों, बाहों कलाइयों और कटिप्रदेश में कमल, कुंद, मंदार, शिरीष, केसर आदि के फूल और गजरों का प्रयोग करती थीं। शृंगार का सोलहवाँ अंग है नीला कमल, जिसे स्त्रियाँ पूर्वोक्त पंद्रह शृंगारों से सज्जित हो पूर्ण विकसित पुष्प या कली के दंड सहित धारण करती थीं। नीले कमलों का चित्रण प्राचीन मूर्तिकला में प्रभूत रूप से हुआ है। .

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हरिद्वार

हरिद्वार, उत्तराखण्ड के हरिद्वार जिले का एक पवित्र नगर तथा हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थ है। यह नगर निगम बोर्ड से नियंत्रित है। यह बहुत प्राचीन नगरी है। हरिद्वार हिन्दुओं के सात पवित्र स्थलों में से एक है। ३१३९ मीटर की ऊंचाई पर स्थित अपने स्रोत गोमुख (गंगोत्री हिमनद) से २५३ किमी की यात्रा करके गंगा नदी हरिद्वार में मैदानी क्षेत्र में प्रथम प्रवेश करती है, इसलिए हरिद्वार को 'गंगाद्वार' के नाम से भी जाना जाता है; जिसका अर्थ है वह स्थान जहाँ पर गंगाजी मैदानों में प्रवेश करती हैं। हरिद्वार का अर्थ "हरि (ईश्वर) का द्वार" होता है। पश्चात्कालीन हिंदू धार्मिक कथाओं के अनुसार, हरिद्वार वह स्थान है जहाँ अमृत की कुछ बूँदें भूल से घड़े से गिर गयीं जब God Dhanwantari उस घड़े को समुद्र मंथन के बाद ले जा रहे थे। ध्यातव्य है कि कुम्भ या महाकुम्भ से सम्बद्ध कथा का उल्लेख किसी पुराण में नहीं है। प्रक्षिप्त रूप में ही इसका उल्लेख होता रहा है। अतः कथा का रूप भी भिन्न-भिन्न रहा है। मान्यता है कि चार स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरी थीं। वे स्थान हैं:- उज्जैन, हरिद्वार, नासिक और प्रयाग। इन चारों स्थानों पर बारी-बारी से हर १२वें वर्ष महाकुम्भ का आयोजन होता है। एक स्थान के महाकुम्भ से तीन वर्षों के बाद दूसरे स्थान पर महाकुम्भ का आयोजन होता है। इस प्रकार बारहवें वर्ष में एक चक्र पूरा होकर फिर पहले स्थान पर महाकुम्भ का समय आ जाता है। पूरी दुनिया से करोड़ों तीर्थयात्री, भक्तजन और पर्यटक यहां इस समारोह को मनाने के लिए एकत्रित होते हैं और गंगा नदी के तट पर शास्त्र विधि से स्नान इत्यादि करते हैं। एक मान्यता के अनुसार वह स्थान जहाँ पर अमृत की बूंदें गिरी थीं उसे हर की पौड़ी पर ब्रह्म कुण्ड माना जाता है। 'हर की पौड़ी' हरिद्वार का सबसे पवित्र घाट माना जाता है और पूरे भारत से भक्तों और तीर्थयात्रियों के जत्थे त्योहारों या पवित्र दिवसों के अवसर पर स्नान करने के लिए यहाँ आते हैं। यहाँ स्नान करना मोक्ष प्राप्त करवाने वाला माना जाता है। हरिद्वार जिला, सहारनपुर डिवीजनल कमिशनरी के भाग के रूप में २८ दिसम्बर १९८८ को अस्तित्व में आया। २४ सितंबर १९९८ के दिन उत्तर प्रदेश विधानसभा ने 'उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक, १९९८' पारित किया, अंततः भारतीय संसद ने भी 'भारतीय संघीय विधान - उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम २०००' पारित किया और इस प्रकार ९ नवम्बर २०००, के दिन हरिद्वार भारतीय गणराज्य के २७वें नवगठित राज्य उत्तराखंड (तब उत्तरांचल), का भाग बन गया। आज, यह अपने धार्मिक महत्त्व के अतिरिक्त भी, राज्य के एक प्रमुख औद्योगिक केन्द्र के रूप में, तेज़ी से विकसित हो रहा है। तेज़ी से विकसित होता औद्योगिक एस्टेट, राज्य ढांचागत और औद्योगिक विकास निगम, SIDCUL (सिडकुल), भेल (भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड) और इसके सम्बंधित सहायक इस नगर के विकास के साक्ष्य हैं। .

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हिन्दी से सम्बन्धित प्रथम

यहाँ पर हिन्दी से सम्बन्धित सबसे पहले साहित्यकारों, पुस्तकों, स्थानों आदि के नाम दिये गये हैं।.

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हिन्दी की सौ श्रेष्ठ पुस्तकें

चित्र:|350px|हिन्दी की सौ श्रेष्ठ पुस्तकें जयप्रकाश भारती की रचना है। इसमें सौ श्रेष्ठ हिन्दी पुस्तकों का प्रत्येक के लिये तीन-चार पृष्ठों में सकारात्मक परिचय दिया गया है। किताब में विवेचित अधिकतर पुस्तकें पुरस्कृत हैं और अपने विषय और प्रस्तुति में अनूठी हैं। इसमें स्वाधीनता से पहले की चौबीस और बाद की चौहत्तर पुस्तकों की चर्चा है। इस पुस्तक में हिन्दी के बाइस काव्यों और पच्चीस उपन्यासों पर चर्चा है। पुस्तक में रचनाओं का परिचय देते हुए लेखक की शब्द-संपदा, शैली और भाषा प्रवाह की झलक के लिए जहां-तहां उनकी कुछ पंक्तियां उद्धृत की हैं। हर पुस्तक का प्रथम प्रकाशन-वर्ष भी दिया है और पुस्तक को प्राप्त प्रमुख पुरस्कार-सम्मान का उल्लेख भी है। कृति-विशेष का परिचय देने के बाद लेखक की कुछ अन्य पुस्तकों का उल्लेख भी अंत में किया गया है। .

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हिंदी शब्दसागर

हिंदी शब्दसागर हिन्दी भाषा के लिए बनाया गया एक वृहत शब्द-संग्रह तथा प्रथम मानक कोश है। 'हि‍न्‍दी शब्‍दसागर' का नि‍मार्ण नागरी प्रचारिणी सभा, काशी ने कि‍या था। इसका प्रथम प्रकाशन १९२२ - १९२९ के बीच हुआ। यह वैज्ञानिक एवं विधिवत शब्दकोश मूल रूप में चार खण्डों में बना। इसके प्रधान सम्पादक श्यामसुन्दर दास थे तथा बालकृष्ण भट्ट, लाला भगवानदीन, अमीर सिंह एवं जगन्मोहन वर्मा सहसम्पादक थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल एवं आचार्य रामचंद्र वर्मा ने भी इस महान कार्य में सर्वश्रेष्ठ योगदान किया। इसमें लगभग एक लाख शब्द थे। बाद में सन् १९६५ - १९७६ के बीच इसका का परिवर्धित संस्काण ११ खण्डों में प्रकाशित हुआ। .

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हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास

हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी द्वारा 16 खंडों में प्रकाशित। मुख्यतः 1960 ई० तक की अवधि से पूर्व हिंदी साहित्य के आद्यन्त विस्तार को समाहित करने वाला, अनेकानेक विद्वानों द्वारा लिखित एवं संपादित, बृहत् साहित्येतिहास ग्रंथ। .

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जुआन रामों जिमनेज़

जुआन रामों जिमनेज़ (Juan Ramón Jiménez) स्पेनिश कवि थे। 1956 ई० में साहित्य में नोबेल पुरस्कार विजेता। .

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जॉन मिल्टन

जॉन मिल्टन (John Milton) पैराडाइज लॉस्ट नामक अमर महाकाव्य के रचयिता जॉन मिल्टन अंग्रेजी के सार्वकालिक महान् कवियों में परिगणित हैं। कलाप्रेमी पिता की संतान होने से आरंभ से ही सुसंस्कृत मिल्टन ने उच्च शिक्षा भी प्राप्त की। इसके साथ ही तीव्र अध्यवसाय की स्वाभाविक प्रवृत्ति ने उन्हें परम पांडित्य प्रदान किया, जिसका सहज प्रभाव उनके साहित्य पर भी पड़ा। राजनीतिक सक्रियता के बाद सत्ता में उच्च पद प्राप्त करने तथा उच्च वर्गीय महिला से विवाह करने के बावजूद दोनों ही स्थितियाँ मिल्टन के लिए अंततः अत्यधिक दुःखद सिद्ध हुई। पूर्णतः नेत्रहीन हो जाने तथा विविध कष्टों को झेलने के बावजूद उन्होंने अपने दुःख को भी रचनात्मकता का पाथेय बना डाला और इस तरह एक दुःखपूर्ण जीवन की परिणति दुःखान्त न होकर सुखान्त हो गयी। .

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वर्नर हेइदेन्स्ताम

वर्नर हेइदेन्स्ताम (1859-1940) स्वीडिश कवि एवं उपन्यासकार थे। 1916 ई० में साहित्य में नोबेल पुरस्कार विजेता। .

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वात्स्यायन

वात्स्यायन या मल्लंग वात्स्यायन भारत के एक प्राचीन दार्शनिक थे। जिनका समय गुप्तवंश के समय (६ठी शती से ८वीं शती) माना जाता है। उन्होने कामसूत्र एवं न्यायसूत्रभाष्य की रचना की। महर्षि वात्स्यायन ने कामसूत्र में न केवल दाम्पत्य जीवन का श्रृंगार किया है वरन कला, शिल्पकला एवं साहित्य को भी संपदित किया है। अर्थ के क्षेत्र में जो स्थान कौटिल्य का है, काम के क्षेत्र में वही स्थान महर्षि वात्स्यायन का है। .

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विलियम शेक्सपीयर

विलियम शेक्सपीयर विलियम शेक्सपीयर (William Shakespeare; 23 अप्रैल 1564 (बपतिस्मा हुआ) – 23 अप्रैल 1616) अंग्रेजी के कवि, काव्यात्मकता के विद्वान नाटककार तथा अभिनेता थे। उनके नाटकों का लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद हुआ है। शेक्सपियर में अत्यंत उच्च कोटि की सर्जनात्मक प्रतिभा थी और साथ ही उन्हें कला के नियमों का सहज ज्ञान भी था। प्रकृति से उन्हें मानो वरदान मिला था अत: उन्होंने जो कुछ छू दिया वह सोना हो गया। उनकी रचनाएँ न केवल अंग्रेज जाति के लिए गौरव की वस्तु हैं वरन् विश्ववांमय की भी अमर विभूति हैं। शेक्सपियर की कल्पना जितनी प्रखर थी उतना ही गंभीर उनके जीवन का अनुभव भी था। अत: जहाँ एक ओर उनके नाटकों तथा उनकी कविताओं से आनंद की उपलब्धि होती है वहीं दूसरी ओर उनकी रचनाओं से हमको गंभीर जीवनदर्शन भी प्राप्त होता है। विश्वसाहित्य के इतिहास में शेक्सपियर के समकक्ष रखे जानेवाले विरले ही कवि मिलते हैं। .

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विश्वज्ञानकोश

विश्वज्ञानकोश, विश्वकोश या ज्ञानकोश (Encyclopedia) ऐसी पुस्तक को कहते हैं जिसमें विश्वभर की तरह तरह की जानने लायक बातों को समावेश होता है। विश्वकोश का अर्थ है विश्व के समस्त ज्ञान का भंडार। अत: विश्वकोश वह कृति है जिसमें ज्ञान की सभी शाखाओं का सन्निवेश होता है। इसमें वर्णानुक्रमिक रूप में व्यवस्थित अन्यान्य विषयों पर संक्षिप्त किंतु तथ्यपूर्ण निबंधों का संकलन रहता है। यह संसार के समस्त सिद्धांतों की पाठ्यसामग्री है। विश्वकोश अंग्रेजी शब्द "इनसाइक्लोपीडिया" का समानार्थी है, जो ग्रीक शब्द इनसाइक्लियॉस (एन .

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व्लाडिस्लाव रेमांट

व्लाडिस्लाॅ स्टेनिस्लाॅ रेमाॅन्ट (Wladyslaw Stanislaw Remont) पोलैंड के उपन्यासकार थे। 1924 ई० में साहित्य में नोबेल पुरस्कार विजेता। .

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ग्रेज़िया डेलेडा

ग्रेज़िया डेलेडा (Grazia Deledda; हिंदी में अन्य उच्चारण- ग्राजिया देलेदा) इटली की कथाकार, नाटककार एवं कवयित्री थी। 1926 ई० में साहित्य में नोबेल पुरस्कार विजेता। .

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ग्रेगोरी कैलेंडर

ग्रेगोरियन कैलेंडर (Gregorian calendar), दुनिया में लगभग हर जगह उपयोग किया जाने वाला कालदर्शक या तिथिपत्रक है। यह जूलियन कालदर्शक (Julian calendar) का रूपान्तरण है। इसे पोप ग्रेगोरी (Pope Gregory XIII) ने लागू किया था। इससे पहले जूलियन कालदर्शक प्रचलन में था, लेकिन उसमें अनेक त्रुटियाँ थीं, जिन्हें ग्रेगोरी कालदर्शक में दूर कर दिया गया। .

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गैबरीला मिस्त्राल

गैबरीला मिस्त्राल (1889-1957) चिली की कवयित्री थी। 1945 ई० में साहित्य में नोबेल पुरस्कार विजेता। .

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गोरख प्रसाद

गोरखप्रसाद (28 मार्च 1896 - 5 मई 1961) गणितज्ञ, हिंदी विश्वकोश के संपादक तथा हिंदी में वैज्ञानिक साहित्य के लब्धप्रतिष्ठ और बहुप्रतिभ लेखक थे। .

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ओदिसी

ओडेसी का प्राचीन ज़ूनानी निदर्श चित्र ओदिसी (प्राचीन यूनानी भाषा: Ὀδυσσεία Odusseia), होमरकृत दो प्रख्यात यूनानी महाकाव्यों में से एक है। इलियड में होमर ने ट्रोजन युद्ध तथा उसके बाद की घटनाओं का वर्णन किया है जबकि ओदिसी में ट्राय के पतन के बाद ईथाका के राजा ओदिसियस की, जिसे यूलिसीज़ नाम से भी जाना जाता है, उस रोमांचक यात्रा का वर्णन है जिसमें वह अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए, 10 वर्ष बाद अपने घर पहुँचता है। ओडेसी ई.पू.

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इनसाइक्लोपीदी

इनसाइक्लोपीदी का शीर्षक पृष्ट इनसाइक्लोपीदी (Encyclopédie) फ्रांस में 1751 एवं 1772 के बीच प्रकाशित एक सामान्य विश्वकोश था। इसका पूरा नाम Encyclopédie, ou dictionnaire raisonné des sciences, des arts et des métiers (हिन्दी: विश्वकोश, या विज्ञान, कला और शिल्प का सुनियोजित कोश) था। इनसाइक्लोपीदी कई दृष्टियों से नयापन लिए हुए थी। यह पहला विश्वकोश था जिसमें बहुत से नामित योगकर्ताओं के लेख सम्मिलित किए गये थे। यह पहला सामान्य विश्वकोश था जिसने 'यांत्रिक कलाओं' पर ध्यान दिया था। किन्तु इन सब बातों से परे इनसाइक्लोपीदी इसलिए भी प्रसिद्ध है कि इसने की ज्ञानोदय (इनलाइटमेन्ट) का विचार प्रस्तुत किया। देनिश दिदेरो ने 'इन्साक्लोपीदी' नामक लेख में लिखा था कि इसका उद्देश्य लोगों के सोचने के तरीके में ही परिवर्तन ला देना है। उसकी इच्छा थी कि विश्व के सारे ज्ञान को इनसाइक्लोपीदी में समेट दिया जाय और वर्तमान तथा भावी पीढ़ियों में यह ज्ञान फैल जाय। इसकी रचना "चैंबर्स साइक्लोपीडिया" के फ्रेंच अनुवाद के रूप में अंग्रेज विद्वान् जॉन मिल्स द्वारा उसके फ्रांस आवासकाल में प्रारंभ हुई, जिसे उसने मॉटफ़ी सेल्स की सहायता से सन् 1745 में समाप्त किया। पर वह इसे प्रकाशित न कर सका और इंग्लैंड वापस चला गया। इसके संपादन हेतु एक-एक कर कई विद्वानों की सेवाएँ प्राप्त की गईं और अनेक संघर्षों के पश्चात् यह विश्वकोश प्रकाशित हो सका। इनसाइक्लोपीदी अठारहवीं शती की महत्तम साहित्यिक उपलब्धि है। यह मात्र संदर्भ ग्रंथ नहीं था; यह निर्देश भी प्रदान करता था। यह आस्था और अनास्था का विचित्र संगम था। इसने उस युग के सर्वाधिक शक्तिसंपन्न चर्च और शासन पर प्रहार किया। संभवत: अन्य कोई ऐसा विश्वकोश नहीं है, जिसे इतना राजनीतिक महत्व प्राप्त हो और जिसने किसी देश के इतिहास और साहित्य पर क्रांतिकारी प्रभाव डाला हो। पर इन विशिष्टताओं के होते हुए भी यह विश्वकोश उच्च कोटि की कृति नहीं है। इसमें स्थल-स्थल पर त्रुटियाँ एवं विसंगतियाँ थीं। यह लगभग समान अनुपात में उच्च और निम्न कोटि के निबंधों का मिश्रण था। इस विश्वकोश की कटु आलोचनाएँ भी हुईं। दिदेरो और अ’लम्बर्त ने तय किया कि उनका इनसाइक्लोपीदी समस्त ज्ञान का दस्तावेज़ीकरण करेगा, सभी तरह की कलाओं और हस्तकौशल को गम्भीर अध्ययन का विषय मानते हुए उनके बारे में जानकारियाँ देगा, ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के वर्गीकरण और उनके अंतर-संबंधों पर विशेष ध्यान देगा और ज्ञानोदय से उद्भूत विचारों की रोशनी में चिंतन-मनन की सामान्य विधियों को स्थायी रूप से बदलने का प्रयास करेगा। पहले तीनों लक्ष्य तो हैरिस और चेम्बर्स ने भी वेधने की कोशिश की थी लेकिन यह चौथा मकसद कुछ ख़ास तरह का था। सम्पादक-द्वय चाहते थे कि मध्ययुगीन तत्त्वमीमांसा ख़ारिज करके इंद्रियानुभववाद की रोशनी में वैज्ञानिक चिंतन की अनिवार्यता स्थापित की जाए, ताकि भविष्य की पीढ़ियाँ नये तरह से सोचने के लिए मजबूर हो जाएँ। उनके लिए इंद्रियानुभववाद का सीधा मतलब था इंद्रियों को सभी तरह के ज्ञान का एकमात्र प्रामाणिक स्रोत मानना और तब तक किसी भी दावे को ज्ञान की संज्ञा न देना जब तक वह अनुभव और प्रयोग की कसौटी पर खरा न साबित हो जाए। पाँच इंद्रियों के माध्यम से प्राप्त अनुभव पर ज़ोर देने वाले इस सिद्धांत के मुताबिक ज्ञान की प्रमाण- पुष्टि भी इंद्रियजनित प्रेक्षणीय अनुभव से ही होनी चाहिए थी। इंद्रियानुभववाद की जड़ें इस विचार में निहित थीं कि यह जगत केवल उतना ही है जितना वह हमें अपने बारे में बताने के लिए तैयार है। इसलिए इस जगत का हमें तटस्थ रूप से बिना किसी राग-द्वेष के प्रेक्षण करना चाहिए। प्रेक्षणीय सूचना प्राप्त करने के रास्ते में डाली गयी कोई भी बाधा ज्ञान को विकृत करके उसे मनमानी कल्पना का शिकार बना देगी। इंद्रियानुभववाद के गर्भ से ही प्रेक्षण, अनुभव और प्रयोग के वे आग्रह निकले जिन्होंने आगे चल कर आगमनात्मक तर्कपद्धति को प्रमुखता देते हुए विज्ञान के दर्शन पर अमिट छाप छोड़ी। मानवीय इंद्रियजनित अनुभव को ज्ञानमीमांसक प्राथमिकता मिलने के सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक फलितार्थ होने लाज़मी थे। मनुष्य और उसके इहलौकिक संसार को सभी तरह के चिंतन और समझ के केंद्र में आ जाना था। इनसाइक्लोपीदी का पाठक उस जिज्ञासु के रूप में सामने आया जो दावा कर सकता था कि उसमें तथ्य को मिथ्या से अलग करके जाँचने-परखने की क्षमता है। यह पाठक अपने इस मूल्य-निर्णय के लिए किसी उच्चतर प्राधिकार द्वारा थमाये गये प्रमाण की आवश्यकता से इनकार करने वाला था। स्वाभाविक तौर पर आँसिएँ रेज़ीम की नुमाइंदगी करने वाली तत्कालीन सामाजिक और राजकीय व्यवस्था इस नये ज्ञान और उसके आधार पर बनने वाले नये व्यक्ति में निहित सम्भवानाओं के प्रति किसी किस्म की गफ़लत में नहीं रह सकती थी। उसने जल्दी ही भाँप लिया कि दिदेरो और अ’लम्बर्त जिस ज्ञान-कोश का खण्ड दर खण्ड प्रकाशन करते जा रहे हैं, वह अंततः राजशाही की वैधता के क्षय का ख़ामोश औज़ार साबित होगा। इसी के परिणामस्वरूप केवल तीन साल के भीतर 1751 में पेरिस के आर्कबिशप ने इनसाइक्लोपीदी की भर्त्सना की और अगले साल रॉयल कौंसिल ऑफ़ स्टेट ने उसके प्रकाशन को प्रतिबंधित कर दिया। 1759 में पेरिस की संसद ने भी ज्ञान- कोश रचने की इस परियोजना की निंदा की और एक आदेश के ज़रिये वे तमाम सुविधाएँ वापस ले ली गयीं जो दिदेरो और द’अलम्बर्त को मिली हुई थीं। इस तरह 1766 तक कोश रचने का यह प्रोजेक्ट सरकारी दमन का शिकार हो कर ठप पड़ा रहा। इस कोश के लेखकों में रूसो और कोंदोर्स जैसी हस्तियाँ शामिल थीं। अंततः सत्रह खण्डों में पूरे हुए इस विशाल ज्ञान-कोश ने फ़्रांसीसी और अमेरिकी क्रांतियों की नेतृत्वकारी हस्तियों के चिंतन पर निर्णायक असर डाला। बेंजामिन फ़्रैंकलिन, जॉन ऐडम्स और थॉमस जेफ़रसन ने न केवल व्यक्तिगत रूप से इस कोश  को ख़रीदा, बल्कि अपने राजनीतिक-बौद्धिक दायरों में इसे पढ़ने की सिफ़ारिश भी की। अगले दो सौ साल तक इनसाइक्लोपीदी की आधारभूत अवधारणाओं ने समाज- विज्ञानों के विमर्श को अपनी पकड़ में बनाये रखा। इसकी प्रतिक्रिया भी हुई। कोई बीस साल बाद स्कॉटलैण्ड में इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका का पहला संस्करण प्रकाशित हुआ, जो घोषित रूप से दिदेरो और अ’लम्बर्त के कोश को ‘विधर्मी’ और ‘अप्रामाणिक’ मान कर उसके जवाब के तौर पर रचा गया था। इनसाइक्लोपीदी को विधर्मी इसलिए कहा गया था कि वह मानवीय ज्ञान के स्रोतों की नयी परिभाषा करने में लगा हुआ था और वह अप्रामाणिक इसलिए करार दिया गया कि दिदेरो और अ’लम्बर्त की लेखक-मण्डली फ़्रांस की मशहूर बौद्धिक हस्तियों से बनी थी और सम्पादक-द्वय उनके द्वारा लिखी गयी लम्बी-लम्बी प्रविष्टियों में उल्लखित तथ्यों की सच्चाई सुनिश्चित करने के फेर में नहीं पड़े थे। .

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इलियाड

इलियड का प्राचीन ज़ूनानी निदर्श चित्र इलियड या ईलियद (ILIAD, प्राच. यून. Ἰλιάς Iliás) — प्राचीन यूनानी शास्त्रीय (क्लासिकल) महाकाव्य है, जो यूरोप के आदिकवि होमर की रचना मानी जाती है। इसका नामकरण ईलियन नगर (ट्राय) के युद्ध के वर्णन के कारण हुआ है। समग्र रचना 24 पुस्तकों में विभक्त है और इसमें 15,693 पंक्तियाँ हैं। इलियड में ट्राय राज्य के साथ ग्रीक लोंगो के युद्ध का वर्णन है। इस महाकाव्य में ट्राय के विजय और ध्वंस की कहानी तथा युनानी वीर एकलिस के वीरत्व की गाथाएं हैं। .

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कोश

कोश एक ऐसा शब्द है जिसका व्यवहार अनेक क्षेत्रों में होता है और प्रत्येक क्षेत्र में उसका अपना अर्थ और भाव है। यों इस शब्द का व्यापक प्रचार वाङ्मय के क्षेत्र में ही विशेष है और वहाँ इसका मूल अर्थ 'शब्दसंग्रह' (lexicon) है। किंतु वस्तुत: इसका प्रयोग प्रत्येक भाषा में अक्षरानुक्रम अथवा किसी अन्य क्रम से उस भाषा अथवा किसी अन्य भाषा में शब्दों की व्याख्या उपस्थित करनेवाले ग्रंथ के अर्थ में होता है। .

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अर्नेस्ट हेमिंग्वे

अर्नेस्ट हेमिंग्वे (1899-1961) अमेरिकन उपन्यासकार तथा कहानीकार थे। 1954 ई० में साहित्य में नोबेल पुरस्कार विजेता। अपने संघर्षपूर्ण जीवन के बहुविध अनुभवों का इन्होंने सफलतम सर्जनात्मक उपयोग किया तथा अनेक ऐसी रचनाएँ दीं जो आत्म-अनुभवजन्य होने का संकेत देती हुई भी कलात्मकता के शिखर को छूती है। अर्नेस्ट हेमिंग्वे .

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