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स्वामी दयानन्द सरस्वती

सूची स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्वामी दयानन्द सरस्वती महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती (१८२४-१८८३) आधुनिक भारत के महान चिन्तक, समाज-सुधारक व देशभक्त थे। उनका बचपन का नाम 'मूलशंकर' था। उन्होंने ने 1874 में एक महान आर्य सुधारक संगठन - आर्य समाज की स्थापना की। वे एक संन्यासी तथा एक महान चिंतक थे। उन्होंने वेदों की सत्ता को सदा सर्वोपरि माना। स्वामीजी ने कर्म सिद्धान्त, पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य तथा सन्यास को अपने दर्शन के चार स्तम्भ बनाया। उन्होने ही सबसे पहले १८७६ में 'स्वराज्य' का नारा दिया जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया। स्वामी दयानन्द के विचारों से प्रभावित महापुरुषों की संख्या असंख्य है, इनमें प्रमुख नाम हैं- मादाम भिकाजी कामा, पण्डित लेखराम आर्य, स्वामी श्रद्धानन्द, पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी, श्यामजी कृष्ण वर्मा, विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, मदनलाल ढींगरा, राम प्रसाद 'बिस्मिल', महादेव गोविंद रानडे, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय इत्यादि। स्वामी दयानन्द के प्रमुख अनुयायियों में लाला हंसराज ने १८८६ में लाहौर में 'दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज' की स्थापना की तथा स्वामी श्रद्धानन्द ने १९०१ में हरिद्वार के निकट कांगड़ी में गुरुकुल की स्थापना की। .

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दयानंद

भारत के इतिहास में दो दयानंद मिलते हैं.

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दयानंद एंग्लो वैदिक विद्यालय

दयानंद एंग्लो वैदिक विद्यालय अविभाजित भारत के कुछ भागों (मुख्यत: पंजाब) में आरम्भ किये गये विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की एक शृंखला का नाम है। इसे आर्य समाज के महान सदस्य एवं शिक्षाविद महात्मा हंसराज ने आरम्भ किया था। ये विद्यालय भारतीय चिंतन और भारतीय संस्कृति के साथ आधुनिक प्रौद्योगिकी के संगम हैं। .

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दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज

डीएवी, "दयानंद एंग्लो वैदिक" का संक्षिप्त रूप है। डीएवी निजी क्षेत्र में भारत का सबसे बड़ी शिक्षण संस्थान है। डीएवी हिंदू आध्यात्मिक नेता स्वामी दयानंद सरस्वती के विचारों पर आधारित है। डीएवी स्कूली शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक की शिक्षा देता है। शायद यह संसार में कुछ ही शिक्षण संस्थानों में है जहां संचालकों में किसी तरह के अहं का टकराव नहीं है। पिछले अक्टूबर मं उन्होंने जालंधर में डीएवी विश्वविद्यालय की स्थापना की। अपने 125 वर्ष के इतिहास में इसके 715 संस्थान हैं जो कि प्रबंध समिति के अध्यक्ष जीपी चोपड़ा के नेतृत्व में कार्य कर रहे हैं। निःसंदेह ईसाइयों ने किसी भी दूसरे समुदाय से ज्यादा स्कूल और कालेज स्थपित किए हैं लेकिन उनमें से ज्यादा विदेशी मिशनरियों की कोशिशों के कारण है। भारतीय ईसाइयों ने इस दिशा में बहुत कम काम किया हैं। .

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दक्षिण अफ्रीका में आर्य समाज

स्वामी दयानन्द सरस्वती की शिक्षाएँ दक्षिण अफ्रीका में २०वीं शती के आरम्भ में पहुँचीं। वहाँ भी आर्य समाज ने भारतीयों को अपने संस्कृति एवं विरासत पर गर्व करने की शिक्षा दी और सामाजिक सुधार एवं शिक्षा के प्रसार का कार्य किया। .

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दुर्गाप्रसाद मिश्र

दुर्गाप्रसाद मिश्र (31 अक्टूबर 1860 -1910) हिन्दी के पत्रकार थे। 19वीं सदी की हिंदी पत्रकारिता में दुर्गाप्रसाद मिश्र का महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। वे हिंदी के ऐसे पत्रकार रहे हैं जिन्हें हिंदी पत्रकारिता के जन्मदाताओं एवं प्रचारकों में शुमार किया जाता है। हिंदी पत्रकारिता को क्रांति एवं राष्ट्रहित के मार्ग पर ले जाने के लिए अनेकों पत्रकारों ने अहोरात्र संघर्ष किया। पं॰ दुर्गाप्रसाद मिश्र ऐसे ही पत्रकार थे। .

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दीपावली

दीपावली या दीवाली अर्थात "रोशनी का त्योहार" शरद ऋतु (उत्तरी गोलार्द्ध) में हर वर्ष मनाया जाने वाला एक प्राचीन हिंदू त्योहार है।The New Oxford Dictionary of English (1998) ISBN 0-19-861263-X – p.540 "Diwali /dɪwɑːli/ (also Divali) noun a Hindu festival with lights...". दीवाली भारत के सबसे बड़े और प्रतिभाशाली त्योहारों में से एक है। यह त्योहार आध्यात्मिक रूप से अंधकार पर प्रकाश की विजय को दर्शाता है।Jean Mead, How and why Do Hindus Celebrate Divali?, ISBN 978-0-237-534-127 भारतवर्ष में मनाए जाने वाले सभी त्यौहारों में दीपावली का सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’ यह उपनिषदों की आज्ञा है। इसे सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं। जैन धर्म के लोग इसे महावीर के मोक्ष दिवस के रूप में मनाते हैं तथा सिख समुदाय इसे बन्दी छोड़ दिवस के रूप में मनाता है। माना जाता है कि दीपावली के दिन अयोध्या के राजा राम अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात लौटे थे। अयोध्यावासियों का ह्रदय अपने परम प्रिय राजा के आगमन से प्रफुल्लित हो उठा था। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीपक जलाए। कार्तिक मास की सघन काली अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी। तब से आज तक भारतीय प्रति वर्ष यह प्रकाश-पर्व हर्ष व उल्लास से मनाते हैं। यह पर्व अधिकतर ग्रिगेरियन कैलन्डर के अनुसार अक्टूबर या नवंबर महीने में पड़ता है। दीपावली दीपों का त्योहार है। भारतीयों का विश्वास है कि सत्य की सदा जीत होती है झूठ का नाश होता है। दीवाली यही चरितार्थ करती है- असतो माऽ सद्गमय, तमसो माऽ ज्योतिर्गमय। दीपावली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व है। कई सप्ताह पूर्व ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती हैं। लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई का कार्य आरंभ कर देते हैं। घरों में मरम्मत, रंग-रोगन, सफ़ेदी आदि का कार्य होने लगता है। लोग दुकानों को भी साफ़ सुथरा कर सजाते हैं। बाज़ारों में गलियों को भी सुनहरी झंडियों से सजाया जाता है। दीपावली से पहले ही घर-मोहल्ले, बाज़ार सब साफ-सुथरे व सजे-धजे नज़र आते हैं। दीवाली नेपाल, भारत, श्रीलंका, म्यांमार, मारीशस, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, सूरीनाम, मलेशिया, सिंगापुर, फिजी, पाकिस्तान और ऑस्ट्रेलिया की बाहरी सीमा पर क्रिसमस द्वीप पर एक सरकारी अवकाश है। .

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नथुराम विनायक गोडसे

नथुराम विनायक गोडसे, या नथुराम गोडसे(१९ मई १९१० - १५ नवंबर १९४९) एक कट्टर हिन्दू राष्ट्रवादी समर्थक थे, जिसने ३० जनवरी १९४८ को नई दिल्ली में गोली मारकर मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या कर दी थी। गोडसे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुणे से पूर्व सदस्य थे। गोडसे का मानना था कि भारत विभाजन के समय गांधी ने भारत और पाकिस्तान के मुसलमानों के पक्ष का समर्थन किया था। जबकि हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार पर अपनी आंखें मूंद ली थी। गोडसे ने नारायण आप्टे और ६ लोगों के साथ मिल कर इस हत्याकाण्ड की योजना बनाई थी। एक वर्ष से अधिक चले मुकद्दमे के बाद ८ नवम्बर १९४९ को उन्हें मृत्युदंड प्रदान किया गया। हालाँकि गांधी के पुत्र, मणिलाल गांधी और रामदास गांधी द्वारा विनिमय की दलीलें पेश की गई थीं, परंतु उन दलीलों को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, महाराज्यपाल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी एवं उपप्रधानमंत्री वल्लभभाई पटेल, तीनों द्वारा ठुकरा दिया गया था। १५ नवम्बर १९४९ को गोडसे को अम्बाला जेल में फाँसी दे दी गई। .

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निरुक्त

निरुक्त वैदिक साहित्य के शब्द-व्युत्पत्ति (etymology) का विवेचन है। यह हिन्दू धर्म के छः वेदांगों में से एक है - इसका अर्थ: व्याख्या, व्युत्पत्ति सम्बन्धी व्याख्या। इसमें मुख्यतः वेदों में आये हुए शब्दों की पुरानी व्युत्पत्ति का विवेचन है। निरुक्त में शब्दों के अर्थ निकालने के लिये छोटे-छोटे सूत्र दिये हुए हैं। इसके साथ ही इसमें कठिन एवं कम प्रयुक्त वैदिक शब्दों का संकलन (glossary) भी है। परम्परागत रूप से संस्कृत के प्राचीन वैयाकरण (grammarian) यास्क को इसका जनक माना जाता है। वैदिक शब्दों के दुरूह अर्थ को स्पष्ट करना ही निरुक्त का प्रयोजन है। ऋग्वेदभाष्य भूमिका में सायण ने कहा है अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम् अर्थात् अर्थ की जानकारी की दृष्टि से स्वतंत्ररूप से जहाँ पदों का संग्रह किया जाता है वही निरुक्त है। शिक्षा प्रभृत्ति छह वेदांगों में निरुक्त की गणना है। पाणिनि शिक्षा में "निरुक्त श्रोत्रमुचयते" इस वाक्य से निरुक्त को वेद का कान बतलाया है। यद्यपि इस शिक्षा में निरुक्त का क्रमप्राप्त चतुर्थ स्थान है तथापि उपयोग की दृष्टि से एवं आभ्यंतर तथा बाह्य विशेषताओं के कारण वेदों में यह प्रथम स्थान रखता है। निरुक्त की जानकारी के बिना भेद वेद के दुर्गम अर्थ का ज्ञान संभव नहीं है। काशिकावृत्ति के अनुसार निरूक्त पाँच प्रकार का होता है— वर्णागम (अक्षर बढ़ाना) वर्णविपर्यय (अक्षरों को आगे पीछे करना), वर्णाधिकार (अक्षरों को वदलना), नाश (अक्षरों को छोड़ना) और धातु के किसी एक अर्थ को सिद्ब करना। इस ग्रंथ में यास्क ने शाकटायन, गार्ग्य, शाकपूणि मुनियों के शब्द-व्युत्पत्ति के मतों-विचारों का उल्लेख किया है तथा उसपर अपने विचार दिए हैं। .

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पण्डित लेखराम आर्य

पंडित लेखराम आर्य (१८५८-१८९७), आर्य समाज के प्रमुख कार्यकर्ता एवं प्रचारक थे। उन्होने अपना सारा जीवन आर्य समाज के प्रचार प्रसार में लगा दिया। वे अहमदिया मुस्लिम समुदाय के नेता मिर्जा गुलाम अहमद से शास्त्रार्थ एवं उसके दुस्प्रचारों के खण्डन के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। उनका संदेश था कि तहरीर (लेखन) और तकरीर (शास्त्रार्थ) का काम बंद नहीं होना चाहिए। पंडित लेखराम इतिहास की उन महान हस्तियों में शामिल हैं जिन्होंने धर्म की बलिवेदी पर प्राण न्योछावर कर दिए। जीवन के अंतिम क्षण तक आप वैदिक धर्म की रक्षा में लगे रहे। पंडित लेखराम ने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए हिंदुओं को धर्म परिवर्तन से रोका व शुद्धि अभियान के प्रणेता बने। .

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पद्मसिंह शर्मा

पं.

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भारत में दर्शनशास्त्र

भारत में दर्शनशास्त्र के दशा और दिशा के अध्ययन को हम दो भागों में विभक्त करके कर सकते हैं -.

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भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी

हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में १४ सितम्बर सन् १९४९ को स्वीकार किया गया। इसके बाद संविधान में अनुच्छेद ३४३ से ३५१ तक राजभाषा के साम्बन्ध में व्यवस्था की गयी। इसकी स्मृति को ताजा रखने के लिये १४ सितम्बर का दिन प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। धारा ३४३(१) के अनुसार भारतीय संघ की राजभाषा हिन्दी एवं लिपि देवनागरी है। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिये प्रयुक्त अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतरराष्ट्रीय स्वरूप (अर्थात 1, 2, 3 आदि) है। हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है क्योंकि भारत का संविधान में कोई भी भाषा को ऐसा दर्जा नहीं दिया गया था। संसद का कार्य हिंदी में या अंग्रेजी में किया जा सकता है। परन्तु राज्यसभा के सभापति महोदय या लोकसभा के अध्यक्ष महोदय विशेष परिस्थिति में सदन के किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं। किन प्रयोजनों के लिए केवल हिंदी का प्रयोग किया जाना है, किन के लिए हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का प्रयोग आवश्यक है और किन कार्यों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाना है, यह राजभाषा अधिनियम 1963, राजभाषा नियम 1976 और उनके अंतर्गत समय समय पर राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय की ओर से जारी किए गए निदेशों द्वारा निर्धारित किया गया है। .

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भारतीय राष्ट्रवाद

२६५ ईसापूर्व में मौर्य साम्राज्य भारतीय ध्वज (तिरंगा) मराठा साम्राज्य का ध्वज राष्ट्र की परिभाषा एक ऐसे जन समूह के रूप में की जा सकती है जो कि एक भौगोलिक सीमाओं में एक निश्चित देश में रहता हो, समान परम्परा, समान हितों तथा समान भावनाओं से बँधा हो और जिसमें एकता के सूत्र में बाँधने की उत्सुकता तथा समान राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाएँ पाई जाती हों। राष्ट्रवाद के निर्णायक तत्वों मे राष्ट्रीयता की भावना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्रीयता की भावना किसी राष्ट्र के सदस्यों में पायी जानेवाली सामुदायिक भावना है जो उनका संगठन सुदृढ़ करती है। भारत में अंग्रेजों के शासनकाल मे राष्ट्रीयता की भावना का विशेषरूप से विकास हुआ, इस विकास में विशिष्ट बौद्धिक वर्ग का महत्त्वपूर्ण योगदान है। भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से एक ऐसे विशिष्ट वर्ग का निर्माण हुआ जो स्वतन्त्रता को मूल अधिकार समझता था और जिसमें अपने देश को अन्य पाश्चात्य देशों के समकक्ष लाने की प्रेरणा थी। पाश्चात्य देशों का इतिहास पढ़कर उसमें राष्ट्रवादी भावना का विकास हुआ। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भारत के प्राचीन इतिहास से नई पीढ़ी को राष्ट्रवादी प्रेरणा नहीं मिली है किन्तु आधुनिक काल में नवोदित राष्ट्रवाद अधिकतर अंग्रेजी शिक्षा का परिणाम है। देश में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त किए हुए नवोदित विशिष्ट वर्ग ने ही राष्ट्रीयता का झण्डा उठाया। .

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भारतीय शिक्षाशास्त्रियों के विचार

शिक्षा आद्य शंकराचार्य (७८८-८२० ई.), स्वामी दयानन्द (१८२४-१८८३), स्वामी विवेकानन्द (१८७३-१९०२), श्रीमती एनी बेसेण्ट (१८४७-१९३३), गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर (१८६१-१९४१), महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय (१८६१-१९४५), महात्मा गाँधी (१८६९-१९४८) और महर्षि अरविन्द (१८७२-१९५०) आदि विचारक आधुनिक भारत के महान शिक्षा-शास्त्री माने जाते हैं। वे अन्य विचारकों द्वारा ग्रहण की हुई भारतीय शिक्षा से सम्बन्धित विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। यहाँ भारतीय शिक्षा-शास्त्रियों की मुख्य विचारधारा का अवलोकन किया जायगा और यह भी बतलाने का प्रयत्न किया जायगा कि भारतीय विचारकों के शिक्षा-सम्बन्धी विचारों में मुख्य पाश्चात्य शिक्षा-दर्शन की छाप कहाँ तक पायी जाती है। .

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भारतीय समाजसुधारक

भारतीय समाज सुधारक, जिन्होंने आधुनिक भारत की नींव स्थापित करने में मदद की है एक समृद्ध इतिहास के कुछ मामलों में, राजनीतिक कार्रवाई और दार्शनिक शिक्षाओं के माध्यम से दुनिया भर में अपने प्रभाव से प्रभावित किया है, यह एक साथ समाज सुधारकों जो उम्र के माध्यम से रहता है की एक विस्तृत सूची डाल करने के लिए लगभग असंभव है। नीचे उनमें से कुछ कर रहे हैं।.

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भारतीय स्वतंत्रता का क्रांतिकारी आन्दोलन

महान क्रान्तिकारी '''यतीन्द्रनाथ मुखर्जी'' भारत की स्वतंत्रता के लिये अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन दो प्रकार का था एक अहिंसक आन्दोलन एवं दूसरा सशस्त्र क्रान्तिकारी आन्दोलन। भारत की आज़ादी के लिए 1757 से 1947 के बीच जितने भी प्रयत्न हुए, उनमें स्वतंत्रता का सपना संजोये क्रान्तिकारियों और शहीदों की उपस्थित सबसे अधिक प्रेरणादायी सिद्ध हुई। वस्तुतः भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग है। भारत (यतीन्द्रनाथ मुखर्जी)की धरती के जितनी भक्ति और मातृ-भावना उस युग में थी, उतनी कभी नहीं रही। मातृभूमि की सेवा और उसके लिए मर-मिटने की जो भावना उस समय थी, आज उसका नितांत अभाव हो गया है। क्रांतिकारी आंदोलन का समय सामान्यतः लोगों ने सन् 1857 से 1942 तक माना है। श्रीकृष्ण सरल का मत है कि इसका समय सन् 1757 अर्थात् प्लासी के युद्ध से सन् 1961 अर्थात् गोवा मुक्ति तक मानना चाहिए। सन् 1961 में गोवा मुक्ति के साथ ही भारतवर्ष पूर्ण रूप से स्वाधीन हो सका है। जिस प्रकार एक विशाल नदी अपने उद्गम स्थान से निकलकर अपने गंतव्य अर्थात् सागर मिलन तक अबाध रूप से बहती जाती है और बीच-बीच में उसमें अन्य छोटी-छोटी धाराएँ भी मिलती रहती हैं, उसी प्रकार हमारी मुक्ति गंगा का प्रवाह भी सन् 1757 से सन् 1961 तक अजस्र रहा है और उसमें मुक्ति यत्न की अन्य धाराएँ भी मिलती रही हैं। भारतीय स्वतंत्रता के सशस्त्र संग्राम की विशेषता यह रही है कि क्रांतिकारियों के मुक्ति प्रयास कभी शिथिल नहीं हुए। भारत की स्वतंत्रता के बाद आधुनिक नेताओं ने भारत के सशस्त्र क्रान्तिकारी आन्दोलन को प्रायः दबाते हुए उसे इतिहास में कम महत्व दिया गया और कई स्थानों पर उसे विकृत भी किया गया। स्वराज्य उपरांत यह सिद्ध करने की चेष्टा की गई कि हमें स्वतंत्रता केवल कांग्रेस के अहिंसात्मक आंदोलन के माध्यम से मिली है। इस नये विकृत इतिहास में स्वाधीनता के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले, सर्वस्व समर्पित करने वाले असंख्य क्रांतिकारियों, अमर हुतात्माओं की पूर्ण रूप से उपेक्षा की गई। .

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भाष्य

संस्कृत साहित्य की परम्परा में उन ग्रन्थों को भाष्य (शाब्दिक अर्थ - व्याख्या के योग्य), कहते हैं जो दूसरे ग्रन्थों के अर्थ की वृहद व्याख्या या टीका प्रस्तुत करते हैं। मुख्य रूप से सूत्र ग्रन्थों पर भाष्य लिखे गये हैं। भाष्य, मोक्ष की प्राप्ति हेतु अविद्या (ignorance) का नाश करने के साधन के रूप में जाने जाते हैं। पाणिनि के अष्टाध्यायी पर पतंजलि का व्याकरणमहाभाष्य और ब्रह्मसूत्रों पर शांकरभाष्य आदि कुछ प्रसिद्ध भाष्य हैं। .

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भगवानदीन आर्य कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय

भगवानदीन आर्यकन्या पी0 जी0 कालेज उत्तर प्रदेश के लखीमपुर-खीरी में स्थित एक कन्या महाविद्यालय है। संस्था का नामकरण आर्य विचारों के मर्मज्ञ विद्वान् पंडित भगवानदीन के नाम पर है। स्वामी दयानन्द सरस्वती के स्वप्नों को साकार रूप देने में अग्रगण्य यह कन्या महाविद्यालय जनपद में स्त्री शिक्षा का महत्वपूर्ण स्तम्भ है। .

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मथुरा

मथुरा उत्तरप्रदेश प्रान्त का एक जिला है। मथुरा एक ऐतिहासिक एवं धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। लंबे समय से मथुरा प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का केंद्र रहा है। भारतीय धर्म,दर्शन कला एवं साहित्य के निर्माण तथा विकास में मथुरा का महत्त्वपूर्ण योगदान सदा से रहा है। आज भी महाकवि सूरदास, संगीत के आचार्य स्वामी हरिदास, स्वामी दयानंद के गुरु स्वामी विरजानंद, कवि रसखान आदि महान आत्माओं से इस नगरी का नाम जुड़ा हुआ है। मथुरा को श्रीकृष्ण जन्म भूमि के नाम से भी जाना जाता है। .

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मानवेन्द्रनाथ राय

मानवेंद्रनाथ राय मानवेंद्रनाथ राय (1887–1954) भारत के स्वतंत्रता-संग्राम के राष्ट्रवादी क्रान्तिकारी तथा विश्वप्रसिद्ध राजनीतिक सिद्धान्तकार थे। उनका मूल नाम 'नरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य' था। वे मेक्सिको और भारत दोनों के ही कम्युनिस्ट पार्टियों के संस्थापक थे। वे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की कांग्रेस के प्रतिनिधिमण्डल में भी सम्मिलित थे। .

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यशपाल

---- यशपाल (३ दिसम्बर १९०३ - २६ दिसम्बर १९७६) का नाम आधुनिक हिन्दी साहित्य के कथाकारों में प्रमुख है। ये एक साथ ही क्रांतिकारी एवं लेखक दोनों रूपों में जाने जाते है। प्रेमचंद के बाद हिन्दी के सुप्रसिद्ध प्रगतिशील कथाकारों में इनका नाम लिया जाता है। अपने विद्यार्थी जीवन से ही यशपाल क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़े, इसके परिणामस्वरुप लम्बी फरारी और जेल में व्यतीत करना पड़ा। इसके बाद इन्होने साहित्य को अपना जीवन बनाया, जो काम कभी इन्होने बंदूक के माध्यम से किया था, अब वही काम इन्होने बुलेटिन के माध्यम से जनजागरण का काम शुरु किया। यशपाल को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन १९७० में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। .

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राम प्रसाद नौटियाल

लैंसडौन विधान सभा' क्षेत्र से विधायक के रूप में: प्रथम कार्यकाल:- 1951 to 1957, द्वितीय कार्यकाल - 1957 to 1962 राम प्रसाद नौटियाल (1 अगस्त, 1905 - 24 दिसम्बर, 1980) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी तथा राजनेता। .

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रामपाल (हरियाणा)

रामपाल या संत रामपाल (अंग्रेजी:Rampal) एक भारतीय धार्मिक नेता है जो कबीर पंथ के लीडर है। ये सतलोक आश्रम के स्थापक भी है जो कि भारतीय राज्य हरियाणा के हिसार क्षेत्र में स्थित है। .

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राजधर्म

राजधर्म राजधर्म का अर्थ है - 'राजा का धर्म' या 'राजा का कर्तव्य'। राजवर्ग को देश का संचालन कैसे करना है, इस विद्या का नाम ही 'राजधर्म' है। राजधर्म की शिक्षा के मूल वेद हैं। मनुस्मृति, शुक्रनीति, महाभारत के विदुर प्रजागर तथा शान्तिपर्व तथा चाणक्य द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रन्थ अर्थशास्त्र आदि में भी राजधर्म की बहुत सी व्याख्या है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी सत्यार्थ प्रकाश में एक पूरा समुल्लास राजधर्म पर लिखा है। महाभारत में इसी नाम का एक उपपर्व है जिसमें राजधर्म का विस्तृत विवेचन किया गया है। धर्मसूत्रों में भी राजधर्म का विवेचन किया गया है। .

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रुद्र

रुद्र देवता वैदिक वाङ्मय में एक शक्तिशाली देवता माने गये हैं। ये ऋग्वेद में वर्णन की मात्रात्मक दृष्टि से गौण देवता के रूप में ही वर्णित हैं। ऋग्वेद में रुद्र की स्तुति 'बलवानों में सबसे अधिक बलवान' कहकर की गयी है। यजुर्वेद का रुद्राध्याय रुद्र देवता को समर्पित है। इसके अन्तर्गत आया हुआ मंत्र शैव सम्प्रदाय में भी बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। रुद्र को ही कल्याणकारी होने से शिव कहा गया है। वैदिक वाङ्मय में मुख्यतः एक ही रुद्र की बात कही गयी हैं; परन्तु पुराणों में एकादश रुद्र की मान्यता अत्यधिक प्रधान हो गयी है। .

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लाला लाजपत राय

लालाजी (१९०८ में) लाला लाजपत राय (पंजाबी: ਲਾਲਾ ਲਾਜਪਤ ਰਾਏ, जन्म: 28 जनवरी 1865 - मृत्यु: 17 नवम्बर 1928) भारत के जैन धर्म के अग्रवंश मे जन्मे एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे। इन्हें पंजाब केसरी भी कहा जाता है। इन्होंने पंजाब नैशनल बैंक और लक्ष्मी बीमा कम्पनी की स्थापना भी की थी। ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में गरम दल के तीन प्रमुख नेताओं लाल-बाल-पाल में से एक थे। सन् 1928 में इन्होंने साइमन कमीशन के विरुद्ध एक प्रदर्शन में हिस्सा लिया, जिसके दौरान हुए लाठी-चार्ज में ये बुरी तरह से घायल हो गये और अन्तत: १७ नवम्बर सन् १९२८ को इनकी महान आत्मा ने पार्थिव देह त्याग दी। .

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शिवकर बापूजी तलपदे

शिवकर बापूजी तलपदे (१८६४ - १७ सितम्बर १९१७) कला एवं संस्कृत के विद्वान तथा आधुनिक समय के विमान के प्रथम आविष्कर्ता थे। .

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शुद्धि आंदोलन

स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुन: हिंदू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि आंदोलन चलाया था। इस आंदोलन के तहत लाखों मुसलमानों तथा ईसाइयों की शुद्धि कराकर सत्य सनातन वैदिक धर्म में वापसी कराई थी।यह 11फरबरी 1923 को भारतीय शूदि सभा की स्थापना करते समय स्वामी दयानंद सरस्वती दारा सुद्री आंदोलन आरंभ किया गया .

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श्यामजी कृष्ण वर्मा

Nizil Shah) श्यामजी कृष्ण वर्मा (जन्म: 4 अक्टूबर 1857 - मृत्यु: 30 मार्च 1930) क्रान्तिकारी गतिविधियों के माध्यम से भारत की आजादी के संकल्प को गतिशील करने वाले अध्यवसायी एवं कई क्रान्तिकारियों के प्रेरणास्रोत थे। वे पहले भारतीय थे, जिन्हें ऑक्सफोर्ड से एम॰ए॰ और बार-ऐट-ला की उपाधियाँ मिलीं थीं। पुणे में दिये गये उनके संस्कृत के भाषण से प्रभावित होकर मोनियर विलियम्स ने वर्माजी को ऑक्सफोर्ड में संस्कृत का सहायक प्रोफेसर बना दिया था। उन्होंने लन्दन में इण्डिया हाउस की स्थापना की जो इंग्लैण्ड जाकर पढ़ने वाले छात्रों के परस्पर मिलन एवं विविध विचार-विमर्श का एक प्रमुख केन्द्र था। .

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सत्यार्थ प्रकाश

सत्यार्थ प्रकाश की रचना आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने की। यद्यपि उनकी मातृभाषा गुजराती थी और संस्कृत का इतना ज्ञान था कि संस्कृत में धाराप्रवाह बोल लेते थे, तथापि इस ग्रन्थ को उन्होंने हिन्दी में रचा। कहते हैं कि जब स्वामी जी 1872 में कलकत्ता में केशवचन्द्र सेन से मिले तो उन्होंने स्वामी जी को यह सलाह दी कि आप संस्कृत छोड़कर हिन्दी बोलना आरम्भ कर दें तो भारत का असीम कल्याण हो। तभी से स्वामी जी के व्याख्यानों की भाषा हिन्दी हो गयी और शायद इसी कारण स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश की भाषा भी हिन्दी ही रखी। स्वामी जी पूरे देश में घूम-घूमकर शास्त्रार्थ एवं व्याख्यान कर रहे थे। इससे उनके अनुयायियों ने अनुरोध किया कि यदि इन शास्त्रार्थों एवं व्याख्यानों को लिपिबद्ध कर दिया जाय तो ये अमर हो जायेंगे। सत्यार्थ प्रकाश की रचना उनके अनुयायियों के इस अनुरोध के कारण ही सम्भव हुई। सत्यार्थ प्रकाश की रचना का प्रमुख उद्देश्य आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार था। इसके साथ-साथ इसमें ईसाई, इस्लाम एवं अन्य कई पन्थों व मतों का खण्डन भी है। उस समय हिन्दू शास्त्रों का गलत अर्थ निकाल कर हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को बदनाम करने का षड्यन्त्र भी चल रहा था। इसी को ध्यान में रखकर महर्षि दयानन्द ने इसका नाम सत्यार्थ प्रकाश (सत्य+अर्थ+प्रकाश) अर्थात् सही अर्थ पर प्रकाश डालने वाला (ग्रन्थ) रखा। .

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सनातन धर्म

सनातन धर्म: (हिन्दू धर्म, वैदिक धर्म) अपने मूल रूप हिन्दू धर्म के वैकल्पिक नाम से जाना जाता है।वैदिक काल में भारतीय उपमहाद्वीप के धर्म के लिये 'सनातन धर्म' नाम मिलता है। 'सनातन' का अर्थ है - शाश्वत या 'हमेशा बना रहने वाला', अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त।सनातन धर्म मूलत: भारतीय धर्म है, जो किसी ज़माने में पूरे वृहत्तर भारत (भारतीय उपमहाद्वीप) तक व्याप्त रहा है। विभिन्न कारणों से हुए भारी धर्मान्तरण के बाद भी विश्व के इस क्षेत्र की बहुसंख्यक आबादी इसी धर्म में आस्था रखती है। सिन्धु नदी के पार के वासियो को ईरानवासी हिन्दू कहते, जो 'स' का उच्चारण 'ह' करते थे। उनकी देखा-देखी अरब हमलावर भी तत्कालीन भारतवासियों को हिन्दू और उनके धर्म को हिन्दू धर्म कहने लगे। भारत के अपने साहित्य में हिन्दू शब्द कोई १००० वर्ष पूर्व ही मिलता है, उसके पहले नहीं। हिन्दुत्व सनातन धर्म के रूप में सभी धर्मों का मूलाधार है क्योंकि सभी धर्म-सिद्धान्तों के सार्वभौम आध्यात्मिक सत्य के विभिन्न पहलुओं का इसमें पहले से ही समावेश कर लिया गया था। .

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सिख धर्म की आलोचना

सिख धर्म की आलोचना अक्सर अन्य धर्मों या सिद्धांतों के मानने वालों के द्वारा की गई है। .

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संतसाहित्य

संतसाहित्य का इस लेख में अर्थ है- वह साहित्य जो निर्गुणिए भक्तों द्वारा रचा जाए। यह आवश्यक नहीं कि सन्त उसे ही कहा जाए जो निर्गुण ब्रह्म का उपासक हो। इसके अंतर्गत लोकमंगलविधायी सभी सत्पुरुष आ जाते हैं, किंतु आधुनिक कतिपय साहित्यकारों ने निर्गुणिए भक्तों को ही "संत" की अभिधा दे दी और अब यह शब्द उसी वर्ग में चल पड़ा है। "संत" शब्द संस्कृत "सत्" के प्रथमा का बहुवचनान्त रूप है, जिसका अर्थ होता है सज्जन और धार्मिक व्यक्ति। हिन्दी में साधु पुरुषों के लिए यह शब्द व्यवहार में आया। कबीर, सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास आदि पुराने कवियों ने इस शब्द का व्यवहार साधु और परोपकारी, पुरुष के अर्थ में बहुलांश: किया है और उसके लक्षण भी दिए हैं। लोकोपकारी संत के लिए यह आवश्यक नहीं कि यह शास्त्रज्ञ तथा भाषाविद् हो। उसका लोकहितकर कार्य ही उसके संतत्व का मानदंड होता है। हिंदी साहित्यकारों में जो "निर्गुणिए संत" हुए उनमें अधिकांश अनपढ़ किंवा अल्पशिक्षित ही थे। शास्त्रीय ज्ञान का आधार न होने के कारण ऐसे लोग अपने अनुभव की ही बातें कहने को बाध्य थे। अत: इनके सीमित अनुभव में बहुत सी ऐसी बातें हो सकती हैं, जो शास्त्रों के प्रतिकूल ठहरें। अल्पशिक्षित होने के कारण इन संतों ने विषय को ही महत्व दिया है, भाषा को नहीं। इनकी भाषा प्राय: अनगढ़ और पंचरंगी हो गई है। काव्य में भावों की प्रधानता को यदि महत्व दिया जाए तो सच्ची और खरी अनुभूतियों की सहज एवं साधारणोकृत अभिव्यक्ति के कारण इन संतों में कइयों की बहुवेरी रचनाएँ उत्तम कोटि के काव्य में स्थान पाने की अधिकारिणी मानी जा सकती है। परंपरापोषित प्रत्येक दान का आँख मूँदकर वे समर्थन नहीं करते। इनके चिंतन का आकार सर्वमानववाद है। ये मानव मानव में किसी प्रकार का अंतर नहीं मानते। इनका कहना है कि कोई भी व्यक्ति अपने कुलविशेष के कारण किसी प्रकार वैशिष्ट्य लिए हुए उत्पन्न नहीं होता। इनकी दृष्टि में वैशिष्ट्य दो बातों को लेकर मानना चाहिए: अभिमानत्यागपूर्वक परोपकार या लोकसेवा तथा ईश्वरभक्ति। इस प्रकार स्वतंत्र चिंतन के क्षेत्र में इन संतों ने एक प्रकार की वैचारिक क्रांति को जन्म दिया। .

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स्वामी श्रद्धानन्द

स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती (२ फरवरी, १८५६ - २३ दिसम्बर, १९२६) भारत के शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के संन्यासी थे जिन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं का प्रसार किया। वे भारत के उन महान राष्ट्रभक्त संन्यासियों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपना जीवन स्वाधीनता, स्वराज्य, शिक्षा तथा वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया था। उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय आदि शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की और हिन्दू समाज को संगठित करने तथा १९२० के दशक में शुद्धि आन्दोलन चलाने में महती भूमिका अदा की। .

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स्वामी विरजानन्द

स्वामी विरजानन्द(1778-1868), एक संस्कृत विद्वान, वैदिक गुरु और आर्य समाज संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती के गुरु थे। इनको मथुरा के अंधे गुरु के नाम से भी जाना जाता था। .

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स्वामी विरजानन्द (बहुविकल्पी)

स्वामी विरजानन्द नाम से भारत में दो प्रसिद्ध महात्मा हुए हैं- (१) स्वामी विरजानन्द: जो स्वामी दयानन्द सरस्वती के गुरु थे। (२) स्वामी विरजानन्द (रामकृष्ण मिशन).

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स्वामी विरजानन्द (रामकृष्ण मिशन)

स्वामी विरजानन्द स्वामी विरजानन्द (10 जून 1873 – 30 मई 1951) रामकृष्ण मिशन के पूर्व अध्यक्ष थे। उनका मूल नाम कलिकृष्ण बसु था। वे सारदा देवी के शिष्य थे। .

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स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती

स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती (1820 ई -) काशी के पण्डित (विद्वान) थे जिनके साथ 16 नवम्बर, 1869 ई. स्वामी दयानन्द सरस्वती का शास्त्रार्थ हुआ था। उनका जन्म सन् 1820 ई. में उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के वाडी नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता पं.

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स्वीकारपत्र

स्वीकारपत्र आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा रचित एक लघु पुस्तिका है। यह मूलतः राजकीय मुद्रा पत्र पर लिखित एक वसीयतनामे की तरह है जिसमें उन्होंने अपने देह त्यागने के बाद अपना काम आगे बढ़ाने के लिए परोपकारिणी सभा का वर्णन किया है। .

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हरिजन आन्दोलन

हिंदू समाज में जिन जातियों या वर्गों के साथ अस्पृश्यता का व्यवहार किया जाता था और आज भी कुछ हद तक वैसा ही विषम व्यवहार कहीं कहीं पर सुनने और देखने में आता है, उनको अस्पृश्य, अंत्यज या दलित नाम से पुकारते थे। यह देखकर कि ये सारे ही नाम अपमानजनक हैं, सन् 1932 के अंत में गुजरात के एक अंत्यज ने ही महात्मा गांधी को एक गुजराती भजन का हवाला देकर लिखा कि अंत्यजों को "हरिजन" जैसा सुंदर नाम क्यों न दिया जाए। उस भजन में हरिजन ऐसे व्यक्ति को कहा गया है, जिसका सहायक संसार में, सिवाय एक हरि के, कोई दूसरा नहीं है। गांधी जी ने यह नाम पसंद कर लिया और यह प्रचलित हो गया। .

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हिन्दू धर्म की आलोचना

चित्रित: सती प्रथा के अनुसार हिन्दू विधवा अपना पति की लाश से उसका अपना शरीर को भी जीवित होने पर जलाया जाता है - अतः उसकी आत्महत्या करायी गयी हिन्दू धर्म की आलोचना से तात्पर्य हिन्दू धर्म के अनुयायियों द्वारा आयोजित प्रथाओं तथा विश्वासों की आलोचना से है। यह आलोचना दोनों हिन्दू एवं ग़ैर-हिन्दू विचारकों द्वारा की गई है। धार्मिक आलोचना एक संवेदनशील मुद्दा है तथा धर्म के अनुयायी इससे असहमत भी होते हैं किंतु गौरतलब है कि आलोचनाओं के फलस्वरूप ही कई सामाजिक सुधार संभव हो पाए। प्रारंभिक हिन्दू सुधारकों ने भी भेदभाव व कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाई तथा कई हिन्दू समाजसुधारक आंदोलन भी चलाए गए। Encyclopædia Britannica Premium Service.

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हिन्दू संस्कार का इतिहास

संस्कारों के विवरण हेतु देखें - सनातन धर्म के संस्कार संस्कार शब्द का अर्थ है - शुद्धिकरण; अर्थात् मन, वाणी और शरीर का सुधार। हमारी सारी प्रवृतियों का संप्रेरक हमारे मन में पलने वाला संस्कार होता है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में व्यक्ति निर्माण पर जोर दिया गया है। हिन्दू संस्कारों का इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है। .

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हिन्दू गुरु व सन्त

* कबीर.

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हिन्दी

हिन्दी या भारतीय विश्व की एक प्रमुख भाषा है एवं भारत की राजभाषा है। केंद्रीय स्तर पर दूसरी आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है। यह हिन्दुस्तानी भाषा की एक मानकीकृत रूप है जिसमें संस्कृत के तत्सम तथा तद्भव शब्द का प्रयोग अधिक हैं और अरबी-फ़ारसी शब्द कम हैं। हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। हालांकि, हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है क्योंकि भारत का संविधान में कोई भी भाषा को ऐसा दर्जा नहीं दिया गया था। चीनी के बाद यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा भी है। विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार यह विश्व की दस शक्तिशाली भाषाओं में से एक है। हिन्दी और इसकी बोलियाँ सम्पूर्ण भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत और अन्य देशों में भी लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की और नेपाल की जनता भी हिन्दी बोलती है।http://www.ethnologue.com/language/hin 2001 की भारतीय जनगणना में भारत में ४२ करोड़ २० लाख लोगों ने हिन्दी को अपनी मूल भाषा बताया। भारत के बाहर, हिन्दी बोलने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में 648,983; मॉरीशस में ६,८५,१७०; दक्षिण अफ्रीका में ८,९०,२९२; यमन में २,३२,७६०; युगांडा में १,४७,०००; सिंगापुर में ५,०००; नेपाल में ८ लाख; जर्मनी में ३०,००० हैं। न्यूजीलैंड में हिन्दी चौथी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। इसके अलावा भारत, पाकिस्तान और अन्य देशों में १४ करोड़ १० लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली उर्दू, मौखिक रूप से हिन्दी के काफी सामान है। लोगों का एक विशाल बहुमत हिन्दी और उर्दू दोनों को ही समझता है। भारत में हिन्दी, विभिन्न भारतीय राज्यों की १४ आधिकारिक भाषाओं और क्षेत्र की बोलियों का उपयोग करने वाले लगभग १ अरब लोगों में से अधिकांश की दूसरी भाषा है। हिंदी हिंदी बेल्ट का लिंगुआ फ़्रैंका है, और कुछ हद तक पूरे भारत (आमतौर पर एक सरल या पिज्जाइज्ड किस्म जैसे बाजार हिंदुस्तान या हाफ्लोंग हिंदी में)। भाषा विकास क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी हिन्दी प्रेमियों के लिए बड़ी सन्तोषजनक है कि आने वाले समय में विश्वस्तर पर अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की जो चन्द भाषाएँ होंगी उनमें हिन्दी भी प्रमुख होगी। 'देशी', 'भाखा' (भाषा), 'देशना वचन' (विद्यापति), 'हिन्दवी', 'दक्खिनी', 'रेखता', 'आर्यभाषा' (स्वामी दयानन्द सरस्वती), 'हिन्दुस्तानी', 'खड़ी बोली', 'भारती' आदि हिन्दी के अन्य नाम हैं जो विभिन्न ऐतिहासिक कालखण्डों में एवं विभिन्न सन्दर्भों में प्रयुक्त हुए हैं। .

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हिन्दी पुस्तकों की सूची/प

* पंच परमेश्वर - प्रेम चन्द्र.

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हिन्दी पुस्तकों की सूची/श

संवाद शीर्षक से कविता संग्रह-ईश्वर दयाल गोस्वाामी.

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हिन्दी आन्दोलन

हिन्दी आन्दोलन भारत में हिन्दी एवं देवनागरी को विविध सामाजिक क्षेत्रों में आगे लाने के लिये विशेष प्रयत्न हैं। यह भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय आरम्भ हुआ। इस आन्दोलन में साहित्यकारों, समाजसेवियों (नवीन चन्द्र राय, श्रद्धाराम फिल्लौरी, स्वामी दयानन्द सरस्वती, पंडित गौरीदत्त, पत्रकारों एवं स्वतंत्रतता संग्राम-सेनानियों (महात्मा गांधी, मदनमोहन मालवीय, पुरुषोत्तमदास टंडन आदि) का विशेष योगदान था। .

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वचनेश मिश्र

वचनेश मिश्र (वैशाख शुक्ल 4, संवत् 1932 विक्रमी - सन् 1958 ई.) हिन्दी साहित्यकार, पत्रकार, कोशकार थे। उन्होने नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा सम्पादित हिन्दीशब्दसागर में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे उदार, शालीन, काव्यक्षेत्र में परंपरावादी, अछूतोद्वार पक्षपाती, विधवा-विवाह-समर्थक, तलाक प्रथा को प्रेम के लिए हानिकारक समझनेवाले, दहेज विरोधी और भूत प्रेत तथा शकुन-अपशकुन आदि को व्यर्थ माननेवाले थे। .

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व्यवहारभानु

व्यवहारभानु आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा रचित एक लघु पुस्तिका है। इसका उद्देश्य 'मनुष्यों के व्यवहार में सुधार लाना' है। .

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वेद

वेद प्राचीन भारत के पवितत्रतम साहित्य हैं जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के, मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं, जो ईश्वर की वाणी है। ये विश्व के उन प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथों में हैं जिनके पवित्र मन्त्र आज भी बड़ी आस्था और श्रद्धा से पढ़े और सुने जाते हैं। 'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् शब्द से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान के ग्रंथ' है। इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं। आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है -.

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वेद प्रताप वैदिक

डॉ॰ वेद प्रताप वैदिक (जन्म: 30 दिसम्बर 1944, इंदौर, मध्य प्रदेश) भारतवर्ष के वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक विश्लेषक, पटु वक्ता एवं हिन्दी प्रेमी हैं। हिन्दी को भारत और विश्व मंच पर स्थापित करने की दिशा में सदा प्रयत्नशील रहते हैं। भाषा के सवाल पर स्वामी दयानन्द सरस्वती, महात्मा गांधी और डॉ॰ राममनोहर लोहिया की परम्परा को आगे बढ़ाने वालों में डॉ॰ वैदिक का नाम अग्रणी है। वैदिक जी अनेक भारतीय व विदेशी शोध-संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों में ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ रहे हैं। भारतीय विदेश नीति के चिन्तन और संचालन में उनकी भूमिका उल्लेखनीय है। अपने पूरे जीवन काल में उन्होंने लगभग 80 देशों की यात्रायें की हैं। अंग्रेजी पत्रकारिता के मुकाबले हिन्दी में बेहतर पत्रकारिता का युग आरम्भ करने वालों में डॉ॰ वैदिक का नाम अग्रणी है। उन्होंने सन् 1958 से ही पत्रकारिता प्रारम्भ कर दी थी। नवभारत टाइम्स में पहले सह सम्पादक, बाद में विचार विभाग के सम्पादक भी रहे। उन्होंने हिन्दी समाचार एजेन्सी भाषा के संस्थापक सम्पादक के रूप में एक दशक तक प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया में काम किया। सम्प्रति भारतीय भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष तथा नेटजाल डाट काम के सम्पादकीय निदेशक हैं। .

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गाय

अभारतीय गाय जर्सीगाय गाय एक महत्त्वपूर्ण पालतू जानवर है जो संसार में प्राय: सर्वत्र पाई जाती है। इससे उत्तम किस्म का दूध प्राप्त होता है। हिन्दू, गाय को 'माता' (गौमाता) कहते हैं। इसके बछड़े बड़े होकर गाड़ी खींचते हैं एवं खेतों की जुताई करते हैं। भारत में वैदिक काल से ही गाय का विशेष महत्त्व रहा है। आरंभ में आदान प्रदान एवं विनिमय आदि के माध्यम के रूप में गाय उपयोग होता था और मनुष्य की समृद्धि की गणना उसकी गोसंख्या से की जाती थी। हिन्दू धार्मिक दृष्टि से भी गाय पवित्र मानी जाती रही है तथा उसकी हत्या महापातक पापों में की जाती है।; गाय व भैंस में गर्भ से संबन्धित जानकारी.

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गुड़ी पड़वा

गुड़ी पड़वा (मराठी-पाडवा) के दिन हिन्दू नव संवत्सरारम्भ माना जाता है। चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा या वर्ष प्रतिपदा या उगादि (युगादि) कहा जाता है। इस दिन हिन्दु नववर्ष का आरम्भ होता है। 'गुड़ी' का अर्थ 'विजय पताका' होता है। कहते हैं शालिवाहन नामक एक कुम्हार-पुत्र ने मिट्टी के सैनिकों की सेना से प्रभावी शत्रुओं का पराभव किया। इस विजय के प्रतीक रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ इसी दिन से होता है। ‘युग‘ और ‘आदि‘ शब्दों की संधि से बना है ‘युगादि‘। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में ‘उगादि‘ और महाराष्ट्र में यह पर्व 'ग़ुड़ी पड़वा' के रूप में मनाया जाता है।इसी दिन चैत्र नवरात्रि का प्रारम्भ होता है। .

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गुरुदत्त विद्यार्थी

पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी (२६ अप्रैल १८६४ - १८९०), महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनन्य शिष्य एवं कालान्तर में आर्यसमाज के प्रमुख नेता थे। उनकी गिनती आर्य समाज के पाँच प्रमुख नेताओं में होती है। २६ वर्ष की अल्पायु में ही उनका देहान्त हो गया किन्तु उतने ही समय में उन्होने अपनी विद्वता की छाप छोड़ी और अनेकानेक विद्वतापूर्ण ग्रन्थों की रचना की। .

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गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर

गुरुकुल महाविद्यालय, उत्तराखण्ड के हरिद्वार जनपद के ज्वालापुर में स्थित एक महाविद्यालय है। इसकी स्थापना १९०७ में हुई थी। गुरुकुल महाविद्यलय ज्वालापुर, उत्तराचंल प्रदेश में अवस्थित जनपद हरिद्वार के ज्वालापुर नामक उपनगर से आधा किमी दूरी पर भागीरथी की नहर के दक्षिणी तट पर रेलवे लाइन से बिल्कुल सटा हुआ, लोहे के पुल के दक्षिण की ओर सुविस्तृत एवं परम रमणीक भूमि में स्थित है। इसकी स्थापना वैशाख शुक्ला 3 (अक्षय तृतीया) सम्वत 1964 वि0 (तदनुसार 30 जून सन् 1907 ई0) को दानवीर स्वर्गीय बाबू सीताराम जी, इंसपेक्टर ऑफ पुलिस ज्वालापुर, के सुरम्य उद्यान में संस्कृत-शिक्षा के प्रचार एवं विलुप्त 'ब्रह्मचर्याश्रम’ प्रणाली के पुनरुद्धार के विशेष उद्देश्य को लेकर शास्त्रार्थ-महारथी, उद्भट विद्वान् प्रसिद्धवाग्मी स्वनामधन्य तार्किकशिरोमणि वीतराग श्री 108 स्वामी दर्शनानन्द जी सरस्वती के करकमलों द्वारा केवल तीन बीघा भूमि में बारह आने के स्थिर कोष से हुई थी। इस महाविद्यालय की विशेषता है कि यह प्राचीन ब्रह्मचर्याश्रम प्रणाली के आधार पर आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा निर्दिष्ट पद्धति के अनुसार निर्धन एवं धनवान् छात्रो को सर्वथा समान भाव से वैदिक वाङ्मय की उच्चतम निःशुल्क शिक्षा देता है। शिक्षा का माध्यम आर्य-भाषा हिन्दी है। इस संस्था में वेद, वेदांग, उपनिषद्, दर्शनशास्त्र, संस्कृत साहित्य, धर्मशास्त्र आदि प्राच्य विषयों के अतिरिक्त हिन्दी, गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान (भूगोल, इतिहास, नागरिक शास्त्र), कम्प्यूटर और अंग्रेजी भाषा की भी यथोचित शिक्षा दी जाती है। यहाँ से शिक्षा प्राप्त करके सहस्राधिक छात्र स्नातक बनकर देश के धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में बड़ी तत्परता और कुशलता के साथ कार्य कर रहे हैं। यह संस्था संस्कृत साहित्य के ज्ञान और उसके ठोस पाण्डित्य में अपना विशेष स्थान और प्रभाव रखती है। यहाँ का जीवन सरल और रहन-सहन सादा है। स्नातकों तथा छात्रों मे शास्त्रीय विषयों के प्रौढ़ पाण्डित्य के साथ-साथ ग्रन्थ-लेखन, पत्रकारिता, कवित्व-शक्ति, कुशल अध्यापकत्व, व्याख्यान-कला आदि में विशेष प्रगतिशीलता है। इसके पास 300 बीघा भूमि है, जिससे कृषि और वाटिका आदि के द्वारा पर्याप्त सहायता प्राप्त होती है। संस्था में बड़े-बड़े विशाल भवन हैं, जो यहाँ के सौन्दर्य में अपना विशेष स्थान रखते हैं। यहाँ के कार्यकर्ता एवं आचार्य सदा से त्यागी, तपस्वी, सरस्वती के सच्चे उपासक एवं अनन्य भक्त रहे हैं, जो सांसारिक प्रलोभनों से भी उदासीन हैं। इसी का यह सपरिणाम है कि आज की विषम परिस्थितियों में भी सह संस्था किसी न किसी रूप में दुःख-सुख भोगकर दपना अस्तित्व सुरक्षित रखो हुए है। इसे पूर्णरूपेण न राज्याश्रय प्राप्त है और न ही अपेक्षित रूप से जनता का आश्रय ही प्राप्त हुआ है। केवल भगवान् के भरोसे पर उसी दीनबन्धु के विश्वास और आदर्श-संन्यासी श्री स्वामी दर्शानानन्द जी सरस्वती के एकमात्र भोगवाद के दृढ़ सिद्धान्त पर इसका संचालन निर्बाध रूप से हो रहा है। .

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गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय

गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय भारत के उत्तराखण्ड राज्य के हरिद्वार शहर में स्थित है। इसकी स्थापना सन् १९०२ में स्वामी श्रद्धानन्द ने की थी। भारत में लार्ड मैकाले द्वारा प्रतिपादित अंग्रेजी माध्यम की पाश्चात्य शिक्षा नीति के स्थान पर राष्ट्रीय विकल्प के रूप में राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम से भारतीय साहित्य, भारतीय दर्शन, भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के साथ-साथ आधुनिक विषयों की उच्च शिक्षा के अध्ययन-अध्यापन तथा अनुसंधान के लिए यह विश्वविद्यालय स्थापित किया गया था। इस विश्वविद्यालय का प्रमुख उद्देश्य जाति और छुआ-छूत के भेदभाव के बिना गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत् अध्यापकों एवं विद्यार्थियों के मध्य निरन्तर घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित कर छात्र-छात्राओं को प्राचीन एवं आधुनिक विषयों की शिक्षा देकर उनका मानसिक और शारीरिक विकास कर चरित्रवान आदर्श नागरिक बनाना है। विश्वविद्यालय हरिद्वार रेलवे स्टेशन से लगभग 5 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। जून 1962 में भारत सरकार ने इस शिक्षण संस्था के राष्ट्रीय स्वरूप तथा शिक्षा के क्षेत्र में इसके अप्रतिम् योगदान को दृष्टि में रखते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के एक्ट 1956 की धारा 3 के अन्तर्गत् समविश्वविद्यालय (डीम्ड यूनिवर्सिटी) की मान्यता प्रदान की और वैदिक साहित्य, संस्कृत साहित्य, दर्शन, हिन्दी साहित्य, अंग्रेजी, मनोविज्ञान, गणित तथा प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्त्व विषयों में स्नातकोत्तर अध्ययन की व्यवस्था की गई। उपरोक्त विषयों के अतिरिक्त वर्तमान में विश्वविद्यालय में भौतिकी, रसायन विज्ञान, कम्प्यूटर विज्ञान, अभियांत्रिकी, आयुर्विज्ञान व प्रबन्धन के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा स्थापित स्वायत्तशासी संस्थान ‘राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद्’ (NACC) द्वारा मई 2002 में विश्वविद्यालय को चार सितारों (****) से अलंकृत किया गया था। परिषद् के सदस्यों ने विश्वविद्यालय की संस्तुति यहां के परिवेश, शैक्षिक वातावरण, शुद्ध पर्यावरण, बृहत् पुस्तकालय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर के संग्रहालय आदि से प्रभावित होकर की थी। विश्वविद्यालय की सभी उपाधियां भारत सरकार/विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा मान्य हैं। यह विश्वविद्यालय भारतीय विश्वविद्यालय संघ (A.I.U.) तथा कामनवैल्थ विश्वविद्यालय संघ का सदस्य है। .

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गौरीदत्त

पंडित गौरीदत्त (1836 - 8 फ़रवरी 1906), देवनागरी के प्रथम प्रचारक व अनन्य भक्त थे। बच्चों को नागरी लिपि सिखाने के अलावा आप गली-गली में घूमकर उर्दू, फारसी और अंग्रेजी की जगह हिंदी और देवनागरी लिपि के प्रयोग की प्रेरणा दिया करते थे। कुछ दिन बाद आपने मेरठ में ‘नागरी प्रचारिणी सभा‘ की स्थापना भी की और सन् 1894 में उसकी ओर से सरकार को इस आशय का एक ज्ञापन दिया कि अदालतों में नागरी-लिपि को स्थान मिलना चाहिए। हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में पंडित गौरीदत्त जी ने जो उल्लेखनीय कार्य किया था उससे उनकी ध्येयनिष्ठा और कार्य-कुशलता का परिचय मिलता है। नागरी लिपि परिषद ने उनके सम्मान में उनके नाम पर 'गौरीदत्त नागरी सेवी सम्मान' आरम्भ किया है। .

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गोरक्षा आन्दोलन

वर्ष १८८२ में स्वामी दयानन्द सरस्वती के गोरक्षिणी सभा की स्थापना के बाद भारत में गोरक्षा आंदोलन शुरू हुआ।अक्‍तूबर-नवम्बर १९६६ ई० में अखिल भारतीय स्तर पर गोरक्षा आन्दोलन चला। भारत साधु-समाज, आर्यसमाज, सनातन धर्म, जैन धर्म आदि सभी भारतीय धार्मिक समुदायों ने इसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया। ७ नवम्बर १९६६ को संसद् पर हुये ऐतिहासिक प्रदर्शन में देशभर के लाखों लोगों ने भाग लिया। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने निहत्थे हिंदुओं पर गोलियाँ चलवा दी थी जिसमें अनेक गौ भक्तों का बलिदान हुआ था। इस आन्दोलन में चारों शंकराचार्य तथा स्वामी करपात्री जी भी जुटे थे। जैन मुनि सुशीलकुमार जी तथा सार्वदेशिक सभा के प्रधान लाला रामगोपाल शालवाले और हिन्दू महासभा के प्रधान प्रो॰ रामसिंह जी भी बहुत सक्रिय थे। श्री संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी तथा पुरी के जगद्‍गुरु शंकराचार्य श्री स्वामी निरंजनदेव तीर्थ तथा महात्मा रामचन्द्र वीर के आमरण अनशन ने आन्दोलन में प्राण फूंक दिये थे किन्तु जनसंघ इसका प्रारम्भ से अपने राजनैतिक लाभ के लिये एक हथियार के रूप में प्रयोग कर रहा था। उसका उद्देश्य मात्र कांग्रेस सरकार के खिलाफ इस आन्दोलन के द्वारा असन्तोष फैलाकर राजनैतिक उल्लू सीधा करना था। इसलिये उसने प्रभुदत्त ब्रह्मचारी से पहले तो अनशन कराया और फिर जब आन्दोलन का उद्देश्य प्राप्‍त होने का समय आया तो उनका अनशन तुड़वा दिया। इसी प्रकार शंकराचार्य जी का अनशन समाप्‍त कराने के लिए स्वामी करपात्री जी को तैयार किया। वे वायुयान से उनके पास गये और अनशन खुलवा आये जबकि सरकार की ओर से गोरक्षा के संबन्ध में कोई आश्वासन तक भी नहीं मिल पाया था। जनसंघियों ने सन् १९६७ के आम चुनाव निकट देख, सरसंघ चालक गुरु गोलवरकर को बीच में डाल, यह सब खेल खेला। वहां तो जनता द्वारा किये कराये पर पानी फेरने के लिये पहले से ही दुरभिसन्धि हो चुकी थी। इसलिए सभी नेताओं को इकट्ठा कर बातचीत की गई। परन्तु जनसंघियों को चुनाव लड़ने की जल्दी थी। अतः उन्होंने जनता के साथ विश्वासघात कर समझौता कर सत्याग्रह बन्द कर दिया। साधु संन्यासी सादे होते ही हैं, वे इनके बहकावे में आ गये और अनेक लोगों का बलिदान व्यर्थ गया। मवेशी वध, विशेष रूप से गाय वध, भारत में एक विवादास्पद विषय है क्योंकि इस्लाम में कई लोगों द्वारा मांस के स्वीकार्य स्रोत के रूप में माना जाने वाला मवेशियों के विपरीत हिंदू धर्म, सिख धर्म, जैन धर्म में कई लोगों के लिए एक सम्मानित और सम्मानित जीवन के रूप में मवेशी की पारंपरिक स्थिति के रूप में, ईसाई धर्म के साथ-साथ भारतीय धर्मों के कुछ अनुयायियों। अधिक विशेष रूप से, हिंदू धर्म में भगवान कृष्ण से जुड़े होने के कई कारणों से गाय की हत्या को छोड़ दिया गया है, मवेशियों को ग्रामीण आजीविका का एक अभिन्न हिस्सा और एक आवश्यक आर्थिक आवश्यकता के रूप में सम्मानित किया जा रहा है। अहिंसा (अहिंसा) के नैतिक सिद्धांत और पूरे जीवन की एकता में विश्वास के कारण विभिन्न भारतीय धर्मों द्वारा मवेशी वध का भी विरोध किया गया है। इसको रोकने के लिये भारत के विभिन्न राज्यों में कानून भी बनाये गये हैं। भारत के संविधान के अनुच्छेद 48 में राज्यों को गायों और बछड़ों और अन्य दुश्मनों और मसौदे के मवेशियों की हत्या को प्रतिबंधित करने का आदेश दिया गया है। 26 अक्टूबर 2005 को, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय में भारत में विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा अधिनियमित विरोधी गाय हत्या कानूनों की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। भारत में 29 राज्यों में से 20 में वर्तमान में हत्या या बिक्री को प्रतिबंधित करने वाले विभिन्न नियम हैं गायों का केरल, पश्चिम बंगाल, गोवा, कर्नाटक, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मेघालय, नागालैंड और त्रिपुरा ऐसे राज्य हैं जहां गाय वध पर कोई प्रतिबंध नहीं है। भारत में मौजूदा मांस निर्यात नीति के अनुसार, गोमांस (गाय, बैल का मांस और बछड़ा) का निर्यात प्रतिबंधित है। मांस, शव, बफेलो के आधे शव में भी हड्डी निषिद्ध है और इसे निर्यात करने की अनुमति नहीं है। केवल भैंस के बेनालेस मांस, बकरी और भेड़ों और पक्षियों के मांस को निर्यात के लिए अनुमति है। .

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गोविन्द चन्द्र पाण्डेय

डॉ॰ गोविन्द चन्द्र पाण्डेय (30 जुलाई 1923 - 21 मई 2011) संस्कृत, लेटिन और हिब्रू आदि अनेक भाषाओँ के असाधारण विद्वान, कई पुस्तकों के यशस्वी लेखक, हिन्दी कवि, हिन्दुस्तानी अकादमी इलाहबाद के सदस्य राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति और सन २०१० में पद्मश्री सम्मान प्राप्त, बीसवीं सदी के जाने-माने चिन्तक, इतिहासवेत्ता, सौन्दर्यशास्त्री और संस्कृतज्ञ थे। .

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गोकरुणानिधि

गोकरुणानिधि आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा रचित एक लघु पुस्तिका है। .

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आधुनिक हिंदी गद्य का इतिहास

हिंदी साहित्य का आधुनिक काल भारत के इतिहास के बदलते हुए स्वरूप से प्रभावित था। स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीयता की भावना का प्रभाव साहित्य में भी आया। भारत में औद्योगीकरण का प्रारंभ होने लगा था। आवागमन के साधनों का विकास हुआ। अंग्रेजी और पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव बढा और जीवन में बदलाव आने लगा। ईश्वर के साथ साथ मानव को समान महत्व दिया गया। भावना के साथ-साथ विचारों को पर्याप्त प्रधानता मिली। पद्य के साथ-साथ गद्य का भी विकास हुआ और छापेखाने के आते ही साहित्य के संसार में एक नई क्रांति हुई। आधुनिक हिन्दी गद्य का विकास केवल हिन्दी भाषी क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रहा। पूरे भारत में और हर प्रदेश में हिन्दी की लोकप्रियता फैली और अनेक अन्य भाषी लेखकों ने हिन्दी में साहित्य रचना करके इसके विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। हिन्दी गद्य के विकास को विभिन्न सोपानों में विभक्त किया जा सकता है- .

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आधुनिक काल

हिंदी साहित्य का आधुनिक काल तत्कालीन राजनैतिक गतिविधियों से प्रभावित हुआ। इसको हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ युग माना जा सकता है, जिसमें पद्य के साथ-साथ गद्य, समालोचना, कहानी, नाटक व पत्रकारिता का भी विकास हुआ। सं 1800 वि.

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आर्य

आर्य समस्त हिन्दुओं तथा उनके मनुकुलीय पूर्वजों का वैदिक सम्बोधन है। इसका सरलार्थ है श्रेष्ठ अथवा कुलीन। .

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आर्य समाज

आर्य समाज एक हिन्दू सुधार आंदोलन है जिसकी स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती ने १८७५ में बंबई में मथुरा के स्वामी विरजानंद की प्रेरणा से की थी। यह आंदोलन पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदू धर्म में सुधार के लिए प्रारंभ हुआ था। आर्य समाज में शुद्ध वैदिक परम्परा में विश्वास करते थे तथा मूर्ति पूजा, अवतारवाद, बलि, झूठे कर्मकाण्ड व अंधविश्वासों को अस्वीकार करते थे। इसमें छुआछूत व जातिगत भेदभाव का विरोध किया तथा स्त्रियों व शूद्रों को भी यज्ञोपवीत धारण करने व वेद पढ़ने का अधिकार दिया था। स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रन्थ आर्य समाज का मूल ग्रन्थ है। आर्य समाज का आदर्श वाक्य है: कृण्वन्तो विश्वमार्यम्, जिसका अर्थ है - विश्व को आर्य बनाते चलो। प्रसिद्ध आर्य समाजी जनों में स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, पंडित गुरुदत्त, स्वामी आनन्दबोध सरस्वती, स्वामी अछूतानन्द, चौधरी चरण सिंह, पंडित वन्देमातरम रामचन्द्र राव, बाबा रामदेव आदि आते हैं। .

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आर्योद्देश्यरत्नमाला

आर्योद्देश्यरत्नमाला आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा संवत १९२५ (१८७३ ईसवीं) में रचित एक लघु पुस्तिका है। .

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कर्णवास

कर्णवास, उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर के निकट गंगा तट पर स्थित एक ऐतिहासिक नगर है। यह प्राचीन भृगु-क्षेत्र माना गया है जहाँ कल्याणी देवी और कर्ण शिला दर्शनीय तीर्थ हैं। अलीगढ़-बरेली रेलमार्ग से नरौरा रेलवे स्टेशन पर उतर कर यहाँ पहुंचा जा सकता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कर्णवास में तपस्या की थी। महाभारत काल के कर्ण का इस स्थान से सम्बन्ध बताया जाता है, जिसका नामकरण महाभारत के नायक कर्ण के नाम पर किया गया है। राजा कर्ण परोपकार के लिए काफी प्रसिद्ध थे, इसलिए उन्हें ‘दानवीर कर्ण’ के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार कर्ण ने उस समय हर दिन 50 किग्रा सोना दान किया करते थे। पर्यटक यहां महाभारत काल के देवी कल्याणी मंदिर भी घूम सकते हैं। कर्णवास बुलंदशहर से ज्यादा दूर नहीं हैं और ऑटो रिक्शा व टैक्सी के जरिए यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। श्रेणी:उत्तर प्रदेश के नगर.

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काशी विश्वनाथ मन्दिर

काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्‍वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्‍ट स्‍थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्‍नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य, सन्त एकनाथ रामकृष्ण परमहंस, स्‍वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, गोस्‍वामी तुलसीदास सभी का आगमन हुआ हैं। यहिपर सन्त एकनाथजीने वारकरी सम्प्रदायका महान ग्रन्थ श्रीएकनाथी भागवत लिखकर पुरा किया और काशिनरेश तथा विद्वतजनोद्वारा उस ग्रन्थ कि हाथी पर से शोभायात्रा खुब धुमधामसे निकाली गयी।महाशिवरात्रि की मध्य रात्रि में प्रमुख मंदिरों से भव्य शोभा यात्रा ढोल नगाड़े इत्यादि के साथ बाबा विश्वनाथ जी के मंदिर तक जाती है। .

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कृष्ण यजुर्वेद

कृष्ण यजुर्वेद, यजुर्वेद की एक शाखा है। चारों वेदों में से यजुर्वेद दो प्रकार का मिलता है, शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद। इसके इन दोनों नामों का कारण है कि शुक्ल यजुर्वेद में केवल मन्त्र भाग है, अर्थात् इसमें मूल मन्त्र होने से शुक्ल (शुद्ध) वेद कहलाता है। कृष्ण यजुर्वेद विनियोग, मन्त्र व्याया आदि से मिश्रित होने के कारण मूल न होकर मिश्रित वा कृष्ण यजुर्वेद कहलाता है। मुय रूप से यही शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद है। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएँ वर्तमान में मिलती हैं, वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता और काण्व संहिता। दोनों में चालीस अध्याय हैं, काण्व संहिता का चालीसवां अध्याय ईशोपनिषद् के रूप में प्रख्यात है। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएँ मिलती हैं- तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक और कठ कपिष्ठल शाखा। महर्षि दयानन्द के अनुसार मूल वेद शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा है। इसी का महर्षि ने भाष्य किया है। इस विषय में पौराणिकों ने इन दोनों शुक्ल, कृष्ण को सिद्ध करने के लिए अपनी कथाएँ कल्पित कर रखी हैं। इन कत्थित कथाओं को छोड़ शुक्ल-कृष्ण का यथार्थ कारण उपरोक्त ही है। वेदों की कुल शाखा 1127 होने का प्रमाण पातंजल महाभाष्य में मिलता है। वहाँ लिखा है- एकविंशतिधा वाह्वृच्यम्, एकशतम् अध्वर्युशाखाः, सहस्रवर्त्मा सामवेदः, नवधाऽथर्वणो वेदः, अर्थात् इक्कीस शाखा ऋग्वेद की, एक सौ एक शाखा यजुर्वेद की, एक हजार शाखा सामवेद की और नौ शाखा अथर्ववेद की। यजुर्वेद की एक सौ एक शाखाओं में से छः शाखाएँ उपलध होती हैं। जो कि ऊपर कह दिया है। शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण शतपथ ब्राह्मण है, जिसके रचयिता महर्षि याज्ञवल्क्य हैं। कृष्ण यजुर्वेद का ब्राह्मण तैत्तिरीय ब्राह्मण है, जिसकी रचना तित्तिरि आचार्य ने की है। शुक्ल यजुर्वेद का श्रौतसूत्र कात्यायन कृत है जो कात्यायन श्रौतसूत्र कहलाता है। कृष्ण यजुर्वेद से सबन्धित आठ श्रौतसूत्र हैं- महर्षि दयानन्द यजुर्वेद के प्रतिपाद्य विषय के सबन्ध में अपने भाष्य के प्रारभिक प्रकरण में लिखते हैं कि श्रेणी:धर्मग्रन्थ श्रेणी:वेद श्रेणी:हिन्दू धर्म.

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केशवचन्द्र सेन

समाज सुधारक '''केशवचन्द्र सेन''' केशवचन्द्र सेन (बंगला: কেশব চন্দ্র সেন केशोब चोन्दो शेन) (19 नवम्बर 1838 - 8 जनवरी 1884) बंगाल के हिन्दू दार्शनिक, धार्मिक उपदेशक एवं समाज सुधारक थे। 1856 मेंब्रह्मसमाज के अंतर्गत केशवचंद्र सेन के आगमन के साथ द्रुत गति से प्रसार पानेवाले इस आध्यात्मिक आंदोलन के सबसे गतिशील अध्याय का आरंभ हुआ। केशवचन्द्र सेन ने ही आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती को सलाह दी की वे सत्यार्थ प्रकाश की रचना हिन्दी में करें। .

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ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका

ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रणीत ग्रन्थ है। महर्षि ने वेद और वेदार्थ के प्रति अपने मन्तव्य को स्पष्टरूप से प्रतिपादित करने के लिये इस ग्रन्थ का का प्रणयन किया है। महर्षि ने सत्यार्थ-प्रकाश को जहाँ मूलतः हिन्दी में लिखा है, वहीं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका को संस्कृत में। यद्यपि महर्षि ने हिन्दी में भी प्रकरणगतभाव को व्यक्त करने का प्रयास किया है, परन्तु अनेकशः उनमें संगति का अभाव दृष्टिगोचर होता है। महर्षि कतिपय स्थलों पर ऐसा अनुभव करते हैं कि जो वचनीय था वह संस्कृत में कह दिया है, अतः उक्त विषय को पुनः हिन्दी में कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। .

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दयानन्द, दयानन्द सरस्वती, दयानंद सरस्वती, महर्षि दयानन्द सरस्वती, महर्षि दयानंद, स्वामी दयानन्द, स्वामी दयानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती

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