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लकड़बग्घा

सूची लकड़बग्घा

भूरा लकड़बग्घा लकड़बग्घा, हाइयेनिडी कुल से संबंधित एक मांसाहारी स्तनधारी जीव है। इसका प्राकृतिक आवास एशिया और अफ्रीका दोनो महाद्वीप हैं। वर्तमान काल में इसकी निम्न चार जीवित प्रजाति अस्तित्व में हैं।.

12 संबंधों: चीता, एलेन फोरस्ट जू, दुधवा राष्ट्रीय उद्यान, नीला विल्डबीस्ट, नीलगाय, पालामऊ व्याघ्र आरक्षित वन, भारतीय पशु और पक्षी, स्तंभास्थि, जिराफ़, वन्य जीव, वांसदा राष्ट्रीय उद्यान, विल्डबीस्ट

चीता

बिल्ली के कुल (विडाल) में आने वाला चीता (एसीनोनिक्स जुबेटस) अपनी अदभुत फूर्ती और रफ्तार के लिए पहचाना जाता है। यह एसीनोनिक्स प्रजाति के अंतर्गत रहने वाला एकमात्र जीवित सदस्य है, जो कि अपने पंजों की बनावट के रूपांतरण के कारण पहचाने जाते हैं। इसी कारण, यह इकलौता विडाल वंशी है जिसके पंजे बंद नहीं होते हैं और जिसकी वजह से इसकी पकड़ कमज़ोर रहती है (अतः वृक्षों में नहीं चढ़ सकता है हालांकि अपनी फुर्ती के कारण नीची टहनियों में चला जाता है)। ज़मीन पर रहने वाला ये सबसे तेज़ जानवर है जो एक छोटी सी छलांग में १२० कि॰मी॰ प्रति घंटे ऑलदो एकोर्डिंग टू चीता, ल्यूक हंटर और डेव हम्मन (स्ट्रुइक प्रकाशक, 2003), pp.

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एलेन फोरस्ट जू

1971 में खुला यह चिड़ियाघर भारत के सर्वोत्तम चिड़ियाघरों में एक है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह भारत का तीसरा सबसे बड़ा चिड़ियाघर है। यह कानपुर शहर में स्थित है। यहाँ पर लगभग 1250 जीव-जंतु है। कुछ समय पिकनिट के तौर पर बिताने और जीव-जंतुओं को देखने के लिए यह चिड़ियाघर एक बेहतरीन जगह है। .

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दुधवा राष्ट्रीय उद्यान

दुधवा राष्ट्रीय उद्यान उत्तर प्रदेश (भारत) के खीरी जनपद में स्थित संरक्षित वन क्षेत्र है। यह भारत और नेपाल की सीमाओं से लगे विशाल वन क्षेत्र में फैला है। यह उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा एवं समृद्ध जैव विविधता वाला क्षेत्र है। यह राष्ट्रीय उद्यान बाघों और बारहसिंगा के लिए विश्व प्रसिद्ध है। .

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नीला विल्डबीस्ट

नीला विल्डबीस्ट, सामान्य विल्डबीस्ट या सफ़ेद दाढ़ी वाला विल्डबीस्ट विल्डबीस्ट की दो जातियों में से एक है। इसका सबसे करीबी रिश्तेदार काला विल्डबीस्ट है। यह जाति अफ़्रीका महाद्वीप में पाई जाती है। यह खुले मैदानों में, दक्षिण अफ़्रीका और पूर्वी अफ़्रीका के खुले जंगलों में पाये जाते हैं और २० वर्ष से अधिक उम्र तक जीवित रहते हैं। नर अपने क्षेत्र की रक्षा के मामले में बहुत उग्र होता है और अपने क्षेत्र को जताने के लिए गंध और अन्य तरीकों का इस्तेमाल करता है। इनकी सबसे बड़ी संख्या सेरेंगेटी, तंज़ानिया में है जहाँ यह १० लाख से भी ज़्यादा हैं। इनके प्रमुख शिकारी सिंह, लकड़बग्घे और नील नदी के मगरमच्छ होते हैं। कभी-कभी २ से ३ चीतों को भी इनका शिकार करते देखा गया है। इनका शिकार झुण्ड में अफ़्रीका के जंगली कुत्ते भी करते हैं। नर की कंधे तक औसतन ऊँचाई १४५ से.मी.

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नीलगाय

नीलगाय एक बड़ा और शक्तिशाली जानवर है। कद में नर नीलगाय घोड़े जितना होता है, पर उसके शरीर की बनावट घोड़े के समान संतुलित नहीं होती। पृष्ठ भाग अग्रभाग से कम ऊंचा होने से दौड़ते समय यह अत्यंत अटपटा लगता है। अन्य मृगों की तेज चाल भी उसे प्राप्त नहीं है। इसलिए वह बाघ, तेंदुए और सोनकुत्तों का आसानी से शिकार हो जाता है, यद्यपि एक बड़े नर को मारना बाघ के लिए भी आसान नहीं होता। छौनों को लकड़बग्घे और गीदड़ उठा ले जाते हैं। परन्तु कई बार उसके रहने के खुले, शुष्क प्रदेशों में उसे किसी भी परभक्षी से डरना नहीं पड़ता क्योंकि वह बिना पानी पिए बहुत दिनों तक रह सकता है, जबकि परभक्षी जीवों को रोज पानी पीना पड़ता है। इसलिए परभक्षी ऐसे शुष्क प्रदेशों में कम ही जाते हैं। वास्तव में "नीलगाय" इस प्राणी के लिए उतना सार्थक नाम नहीं है क्योंकि मादाएं भूरे रंग की होती हैं। नीलापन वयस्क नर के रंग में पाया जाता है। वह लोहे के समान सलेटी रंग का अथवा धूसर नीले रंग का शानदार जानवर होता है। उसके आगे के पैर पिछले पैर से अधिक लंबे और बलिष्ठ होते हैं, जिससे उसकी पीठ पीछे की तरफ ढलुआं होती है। नर और मादा में गर्दन पर अयाल होता है। नरों की गर्दन पर सफेद बालों का एक लंबा और सघन गुच्छा रहता है और उसके पैरों पर घुटनों के नीचे एक सफेद पट्टी होती है। नर की नाक से पूंछ के सिरे तक की लंबाई लगभग ढाई मीटर और कंधे तक की ऊंचाई लगभग डेढ़ मीटर होती है। उसका वजन 250 किलो तक होता है। मादाएं कुछ छोटी होती हैं। केवल नरों में छोटे, नुकीले सींग होते हैं जो लगभग 20 सेंटीमीटर लंबे होते हैं। नीलगाय (मादा) नीलगाय भारत में पाई जानेवाली मृग जातियों में सबसे बड़ी है। मृग उन जंतुओं को कहा जाता है जिनमें स्थायी सींग होते हैं, यानी हिरणों के शृंगाभों के समान उनके सींग हर साल गिरकर नए सिरे से नहीं उगते। नीलगाय दिवाचर (दिन में चलने-फिरने वाला) प्राणी है। वह घास भी चरती है और झाड़ियों के पत्ते भी खाती है। मौका मिलने पर वह फसलों पर भी धावा बोलती है। उसे बेर के फल खाना बहुत पसन्द है। महुए के फूल भी बड़े चाव से खाए जाते हैं। अधिक ऊंचाई की डालियों तक पहुंचने के लिए वह अपनी पिछली टांगों पर खड़ी हो जाती है। उसकी सूंघने और देखने की शक्ति अच्छी होती है, परंतु सुनने की क्षमता कमजोर होती है। वह खुले और शुष्क प्रदेशों में रहती है जहां कम ऊंचाई की कंटीली झाड़ियां छितरी पड़ी हों। ऐसे प्रदेशों में उसे परभक्षी दूर से ही दिखाई दे जाते हैं और वह तुरंत भाग खड़ी होती है। ऊबड़-खाबड़ जमीन पर भी वह घोड़े की तरह तेजी से और बिना थके काफी दूर भाग सकती है। वह घने जंगलों में भूलकर भी नहीं जाती। सभी नर एक ही स्थान पर आकर मल त्याग करते हैं, लेकिन मादाएं ऐसा नहीं करतीं। ऐसे स्थलों पर उसके मल का ढेर इकट्ठा हो जाता है। ये ढेर खुले प्रदेशों में होते हैं, जिससे कि मल त्यागते समय यह चारों ओर आसानी से देख सके और छिपे परभक्षी का शिकार न हो जाए। .

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पालामऊ व्याघ्र आरक्षित वन

पलामू व्याघ्र आरक्षित वन झारखंड के छोटा नागपुर पठार के लातेहर जिले में स्थित है। यह १९७४ में बाघ परियोजना के अंतर्गत गठित प्रथम ९ बाघ आरक्षों में से एक है। पलामू व्याघ्र आरक्ष १,०२६ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है, जिसमें पलामू वन्यजीव अभयारण्य का क्षेत्रफल 980 वर्ग किलोमीटर है। अभयारण्य के कोर क्षेत्र 226 वर्ग किलोमीटर को बेतला राष्ट्रीय उद्यान के रूप में अधिसूचित किया गया है। पलामू आरक्ष के मुख्य आकर्षणों में शामिल हैं बाघ, हाथी, तेंदुआ, गौर, सांभर और चीतल। पलामू ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। सन १८५७ की क्रांति में पलामू ने अहम भूमिका निभाई थी। चेरो राजाओं द्वारा निर्मित दो किलों के खंडहर पलामू व्याघ्र आरक्ष में विद्यमान हैं। पलामू में कई प्रकार के वन पाए जाते हैं, जैसे शुष्क मिश्रित वन, साल के वन और बांस के झुरमुट, जिनमें सैकड़ों वन्य जीव रहते हैं। पलामू के वन तीन नदियों के जलग्रहण क्षेत्र को सुरक्षा प्रदान करते हैं। ये नदियां हैं उत्तर कोयल औरंगा और बूढ़ा। २०० से अधिक गांव पलामू व्याघ्र आरक्ष पर आर्थिक दृष्टि से निर्भर हैं। इन गांवों की मुख्य आबादी जनजातीय है। इन गांवों में लगभग १,००,००० लोग रहते हैं। पलामू के खूबसूरत वन, घाटियां और पहाड़ियां तथा वहां के शानदार जीव-जंतु बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। .

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भारतीय पशु और पक्षी

भारत विशाल देश है। इसमें पशु-पक्षी भी नाना प्रकार, रंग रूप तथा गुणों के पाए जाते हैं। कुछ बृहदाकार हैं तो कुछ सूक्ष्माकार। भारत के प्राचीन ग्रथों में पशुपक्षियों का विस्तृत वर्णन मिलता है। उस समय उनका अधिक महत्व उनके मांस के कारण था। अत: आयुर्वेदिक ग्रंथों में उनका विशेष उल्लेख मिलता है। .

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स्तंभास्थि

रैकून की स्तंभास्थि. स्तंभास्थि (अंग्रेजी:baculum) जिसे शिश्नास्थि या लिंग की हड्डी, भी कहा जाता है प्रायः सभी स्तनधारियों के शिश्न में पायी जाती है। परन्तु यह मनुष्यों, अश्व परिवार के सदस्यों (घोडा़, गधा आदि), शिशुधानी वाले जीवों (कंगारू), शशक परिवार के सदस्यों (खरगोश, खरहा) और लकड़बग्घों मे अनुपस्थित होती है। इसका प्रयोग संभोग के लिए किया जाता है और अलग प्रजातियों मे इसका आकार और आकृति अलग अलग होती है। इसकी विशेषताओं का उपयोग कभी कभी प्रजातियों के बीच अंतर करने के लिए किया जाता है। बड़े उत्तरी मांसाहारी जानवरों जैसे वॉलरस आदि की एक चमकाई हुई और नक़्क़ाशीदार स्तंभास्थि को अलास्काई संस्कृति मे उसिक (oosik) कहा जाता है। रैकून की स्तंभास्थि को कभी कभी किस्मत या यौनाकर्षण के लिए पहना जाता है। .

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जिराफ़

जिराफ़ (जिराफ़ा कॅमेलोपार्डेलिस) अफ़्रीका के जंगलों मे पाया जाने वाला एक शाकाहारी पशु है। यह सभी थलीय पशुओं मे सबसे ऊँचा होता है तथा जुगाली करने वाला सबसे बड़ा जीव है। इसका वैज्ञानिक नाम ऊँट जैसे मुँह तथा तेंदुए जैसी त्वचा के कारण पड़ा है। .

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वन्य जीव

गिलहरियाँ अक्सर वनों से बाहर शहरों में रहती हैं, लेकिन जंगली जीव ही समझी जाती हैं बाघ एक प्रमुख वन्य जीव है जंगली जीव हर उस वृक्ष, पौधे, जानवर और अन्य जीव को कहते हैं जिसे मानवों द्वारा पालतू न बनाया गया हो। जंगली जीव दुनिया के सभी परितंत्रों (ईकोसिस्टम​) में पाए जाते हैं, जिनमें रेगिस्तान, वन, घासभूमि, मैदान, पर्वत और शहरी क्षेत्र सभी शामिल हैं।, Dilys Roe, IIED, 2002, ISBN 978-1-84369-215-7,...

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वांसदा राष्ट्रीय उद्यान

वांसदा राष्ट्रीय उद़्यान का प्रवेशद्वार वांसदा राष्ट्रीय उद्यान भारत के गुजरात राज्य के नवसारी ज़िले में स्थित एक राष्ट्रीय उद्यान है जो सन् १९७९ में स्थापित किया गया था। राष्ट्रीय उद्यान स्थापित होने से पहले यह क्षेत्र वांसदा के महाराजा का निजि इलाका था। इसी कारण से इस उद्यान का नाम भी वांसदा राष्ट्रीय उद्यान पड़ा। .

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विल्डबीस्ट

विल्डबीस्ट जिसे ग्नू भी कहते हैं अफ़्रीका में पाया जाने वाला द्विखुरीयगण प्राणी है जो कि सींग वाले हिरनों की बिरादरी का है। इसके नाम का डच (हॉलैंड) भाषा में मतलब होता है जंगली जानवर या जंगली मवेशी क्योंकि अफ़्रीकान्स भाषा में beest का मतलब मवेशी होता है जबकि इसका वैज्ञानिक नाम कॉनोकाइटिस यूनानी भाषा के दो शब्दों से बना है — konnos जिसका मतलब दाढ़ी होता है और khaite जिसका मतलब लहराते बाल होता है। ग्नू नाम खोइखोइ भाषा से उद्घृत है। यह बोविडी कुल का प्राणी है, जिसमें बारहसिंगा, मवेशी, बकरी और कुछ अन्य सम-अंगुली सींगवाले खुरदार प्राणी होते हैं। कॉनोकाइटिस प्रजाति में दो जातियाँ समाविष्ट हैं और यह दोनों ही अफ़्रीका के मूल निवासी हैं: काला विल्डबीस्ट (कॉनोकाइटिस नू) और नीला विल्डबीस्ट या सामान्य विल्डबीस्ट (कॉनोकाइटिस टॉरिनस)। जीवाश्म सबूत बताते हैं कि उपरोक्त दोनों जातियाँ लगभग १० लाख साल पहले विभाजित हो गई थीं, जिसके कारण उत्तरी (नीला विल्डबीस्ट) तथा दक्षिणी (काला विल्डबीस्ट) जातियाँ अलग-अलग हो गईं। नीली जाति में अपने पूर्वजों से शायद ही कोई बदलाव आया, जबकि काली जाति को ख़ुद को खुले मैदानों के अनुरूप ढालना पड़ा। .

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