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भारतीय नैयायिक

सूची भारतीय नैयायिक

न्याय दर्शन के विद्वान नैयायिक कहलाते हैं। ब्राह्मण न्याय (वैदिक न्याय), जैन न्याय और बौद्ध न्याय के अत्यंत सुप्रसिद्ध नैयायिक विद्वानों में निम्नलिखित हैं: .

3 संबंधों: न्याय दर्शन, वसुबन्धु, आर्यदेव

न्याय दर्शन

न्याय दर्शन भारत के छः वैदिक दर्शनों में एक दर्शन है। इसके प्रवर्तक ऋषि अक्षपाद गौतम हैं जिनका न्यायसूत्र इस दर्शन का सबसे प्राचीन एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ है। जिन साधनों से हमें ज्ञेय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, उन्हीं साधनों को ‘न्याय’ की संज्ञा दी गई है। देवराज ने 'न्याय' को परिभाषित करते हुए कहा है- दूसरे शब्दों में, जिसकी सहायता से किसी सिद्धान्त पर पहुँचा जा सके, उसे न्याय कहते हैं। प्रमाणों के आधार पर किसी निर्नय पर पहुँचना ही न्याय है। यह मुख्य रूप से तर्कशास्त्र और ज्ञानमीमांसा है। इसे तर्कशास्त्र, प्रमाणशास्त्र, हेतुविद्या, वादविद्या तथा अन्वीक्षिकी भी कहा जाता है। वात्स्यायन ने प्रमाणैर्थपरीक्षणं न्यायः (प्रमाणों द्वारा अर्थ (सिद्धान्त) का परीक्षण ही न्याय है।) इस दृष्टि से जब कोई मनुष्य किसी विषय में कोई सिद्धान्त स्थिर करता है तो वहाँ न्याय की सहायता अपेक्षित होती है। इसलिये न्याय-दर्शन विचारशील मानव समाज की मौलिक आवश्यकता और उद्भावना है। उसके बिना न मनुष्य अपने विचारों एवं सिद्धान्तों को परिष्कृत एवं सुस्थिर कर सकता है न प्रतिपक्षी के सैद्धान्तिक आघातों से अपने सिद्धान्त की रक्षा ही कर सकता है। न्यायशास्त्र उच्चकोटि के संस्कृत साहित्य (और विशेषकर भारतीय दर्शन) का प्रवेशद्वार है। उसके प्रारम्भिक परिज्ञान के बिना किसी ऊँचे संस्कृत साहित्य को समझ पाना कठिन है, चाहे वह व्याकरण, काव्य, अलंकार, आयुर्वेद, धर्मग्रन्थ हो या दर्शनग्रन्थ। दर्शन साहित्य में तो उसके बिना एक पग भी चलना असम्भव है। न्यायशास्त्र वस्तुतः बुद्धि को सुपरिष्कृत, तीव्र और विशद बनाने वाला शास्त्र है। परन्तु न्यायशास्त्र जितना आवश्यक और उपयोगी है उतना ही कठिन भी, विशेषतः नव्यन्याय तो मानो दुर्बोधता को एकत्र करके ही बना है। वैशेषिक दर्शन की ही भांति न्यायदर्शन में भी पदार्थों के तत्व ज्ञान से निःश्रेयस् की सिद्धि बतायी गयी है। न्यायदर्शन में १६ पदार्थ माने गये हैं-.

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वसुबन्धु

वसुबन्धु बौद्ध नैयायिक थे। वे असंग के कनिष्ठ भ्राता थे। वसुबन्धु पहले हीनयानी वैभाषिकवेत्ता थे, बाद में असंग की प्रेरणा से इन्होंने महायान मत स्वीकार किया था। योगाचार के सिद्धांतों पर इनके अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। ये उच्चकोटि की प्रतिभा से संपन्न महान नैयायिक थे। "तर्कशास्त्र" नामक इनका ग्रंथ बौद्ध न्याय का बेजोड़ ग्रंथ माना जाता है। अपने जीवन का लंबा भाग इन्होंने शाकल, कौशांबी और अयोध्या में बिताया था। ये कुमारगुप्त, स्कंदगुप्त और बालादित्य के समकालिक थे। 490 ई. के लगभग 80 वर्ष की अवस्था में इनका देहांत हुआ था। .

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आर्यदेव

आर्यदेव (तृतीय शताब्दी) नागार्जुन के प्रधान शिष्य एवं महायान माध्यमक बौद्ध सम्प्रदाय के अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों के रचयिता थे। उन्हें 'काणदेव' (जेन परम्परा में) तथा 'बोधिसत्त्वदेव' (श्री लंका में) भी कहते हैं। आर्यदेव का जन्म श्री लंका में हुआ था। आर्यदेव ने कई महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे जिनमें सर्वप्रधान 'चतु:शतक' है। आर्यदेव माध्यमिक शाखा के प्रसिद्ध नैयायिक और ग्रंथकार थे। ये दक्षिण भारत के निवासी और नागार्जुन के प्रधान शिष्य थे। इन्होंने महाकोशल, स्त्रुघ्न, प्रयग और वैशाली आदि की अपनी यात्रा में अनेक ख्यातनामा विद्वानों को शास्त्रार्थ में अभिभूत किया था। नालंदा में इन्होंने अनेक वर्ष तक पंडित के पद पर आसीन होने का गौरव प्राप्त किया था। इन्होंने "शतकशास्त्र" "ब्रह्मप्रमथनयुक्तिहेतुसिद्धि" आदि विशिष्ट ग्रंथों का प्रणयन किया था। लंका के महाप्रज्ञ एकचक्षु भिक्षु आर्यदेव अपनी ज्ञानपिपासा शांत करने के लिए नालंदा के आचार्य नागार्जुन के पास पहुँचे। आचार्य ने उनकी प्रतिभा की परीक्षा करने के लिए उनके पास स्वच्छ जल से पूर्ण एक पात्र भेज दिया। आर्यदेव ने उसमें एक सुई डालकर उसे इन्हीं के पास लौटा दिया। आचार्य बड़े प्रसन्न हुए और उन्हें शिष्य के रूप में स्वीकार किया। जलपूर्ण पात्र से उनके ज्ञान की निर्मलता और पूर्णता का संकेत किया गया था और उसमें सूई डालकर उन्होंने निर्देश किया कि वे उस ज्ञान तक पहुँचना चाहते हैं। .

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