लोगो
यूनियनपीडिया
संचार
Google Play पर पाएं
नई! अपने एंड्रॉयड डिवाइस पर डाउनलोड यूनियनपीडिया!
मुक्त
ब्राउज़र की तुलना में तेजी से पहुँच!
 

बावड़ी

सूची बावड़ी

बावड़ी श्रेणी:सिंचाई श्रेणी:भारतीय वास्तुशास्त्र श्रेणी:भारत में जल प्रबंधन श्रेणी:भारतीय स्थापत्य कला श्रेणी:बावड़ी.

9 संबंधों: नारायण दास की बावड़ी, प्रतापगढ़, राजस्थान, भारतीय स्थापत्यकला, मार्ग वृक्षपालन, रानी की वाव, शिव मंदिर की बावड़ी, शुक्रनीति, काला चौना, अग्रसेन की बावली

नारायण दास की बावड़ी

श्री पंचमुखी हनुमान मंदिर के पास गोनेर-सिरोली सड़क पर स्थित पुरामहत्व की कलात्मक बावड़ी.

नई!!: बावड़ी और नारायण दास की बावड़ी · और देखें »

प्रतापगढ़, राजस्थान

प्रतापगढ़, क्षेत्रफल में भारत के सबसे बड़े राज्य राजस्थान के ३३वें जिले प्रतापगढ़ जिले का मुख्यालय है। प्राकृतिक संपदा का धनी कभी इसे 'कान्ठल प्रदेश' कहा गया। यह नया जिला अपने कुछ प्राचीन और पौराणिक सन्दर्भों से जुड़े स्थानों के लिए दर्शनीय है, यद्यपि इसके सुविचारित विकास के लिए वन विभाग और पर्यटन विभाग ने कोई बहुत उल्लेखनीय योगदान अब तक नहीं किया है। .

नई!!: बावड़ी और प्रतापगढ़, राजस्थान · और देखें »

भारतीय स्थापत्यकला

सांची का स्तूप अजन्ता गुफा २६ का चैत्य भारत के स्थापत्य की जड़ें यहाँ के इतिहास, दर्शन एवं संस्कृति में निहित हैं। भारत की वास्तुकला यहाँ की परम्परागत एवं बाहरी प्रभावों का मिश्रण है। भारतीय वास्तु की विशेषता यहाँ की दीवारों के उत्कृष्ट और प्रचुर अलंकरण में है। भित्तिचित्रों और मूर्तियों की योजना, जिसमें अलंकरण के अतिरिक्त अपने विषय के गंभीर भाव भी व्यक्त होते हैं, भवन को बाहर से कभी कभी पूर्णतया लपेट लेती है। इनमें वास्तु का जीवन से संबंध क्या, वास्तव में आध्यात्मिक जीवन ही अंकित है। न्यूनाधिक उभार में उत्कीर्ण अपने अलौकिक कृत्यों में लगे हुए देश भर के देवी देवता, तथा युगों पुराना पौराणिक गाथाएँ, मूर्तिकला को प्रतीक बनाकर दर्शकों के सम्मुख अत्यंत रोचक कथाओं और मनोहर चित्रों की एक पुस्तक सी खोल देती हैं। 'वास्तु' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'वस्' धातु से हुई है जिसका अर्थ 'बसना' होता है। चूंकि बसने के लिये भवन की आवश्यकता होती है अतः 'वास्तु' का अर्थ 'रहने हेतु भवन' है। 'वस्' धातु से ही वास, आवास, निवास, बसति, बस्ती आदि शब्द बने हैं। .

नई!!: बावड़ी और भारतीय स्थापत्यकला · और देखें »

मार्ग वृक्षपालन

अंगूठाकार मार्ग वृक्षपालन के अंतर्गत सड़कों के किनारे वृक्ष लगाना और फिर उनका अनुरक्षण करना आता है। वृक्ष विज्ञान से इसका सीधा संबंध है। मार्ग वृक्षपालन के लिए वृक्षों की वृद्धि और उनकी क्रिया-प्रणाली संबंधी ज्ञान तो अनिवार्यत: आवश्यक है ही, साथ ही साथ सजावट के उद्देश्य से, दृढ़ता के आधार पर, प्रतिरोधात्मक गुणों की दृष्टि से पौधों के चुनाव और समूहन संबंधी कौशल भी अपेक्षित हैं। इसलिए मार्ग वृक्षपालन का दायित्व निभाने के लिए पादप-क्रिया-प्रणाली, मृदा-विज्ञान, विकृति आदि का कामचलाऊ ज्ञान होना चाहिए। .

नई!!: बावड़ी और मार्ग वृक्षपालन · और देखें »

रानी की वाव

'''रानी की वाव''' का ऊपर से लिया गया चित्र रानी की वाव भारत के गुजरात राज्य के पाटण में स्थित प्रसिद्ध बावड़ी (सीढ़ीदार कुआँ) है। 22 जून 2014 को इसे यूनेस्को के विश्व विरासत स्थल में सम्मिलित किया गया। पाटण को पहले 'अन्हिलपुर' के नाम से जाना जाता था, जो गुजरात की पूर्व राजधानी थी। कहते हैं कि रानी की वाव (बावड़ी) वर्ष 1063 में सोलंकी शासन के राजा भीमदेव प्रथम की प्रेमिल स्‍मृति में उनकी पत्नी रानी उदयामति ने बनवाया था। रानी उदयमति जूनागढ़ के चूड़ासमा शासक रा' खेंगार की पुत्री थीं। सोलंकी राजवंश के संस्‍थापक मूलराज थे। सीढ़ी युक्‍त बावड़ी में कभी सरस्वती नदी के जल के कारण गाद भर गया था। यह वाव 64 मीटर लंबा, 20 मीटर चौड़ा तथा 27 मीटर गहरा है। यह भारत में अपनी तरह का अनूठा वाव है। वाव के खंभे सोलंकी वंश और उनके वास्तुकला के चमत्कार के समय में ले जाते हैं। वाव की दीवारों और स्तंभों पर अधिकांश नक्काशियां, राम, वामन, महिषासुरमर्दिनी, कल्कि, आदि जैसे अवतारों के विभिन्न रूपों में भगवान विष्णु को समर्पित हैं। 'रानी की वाव' को विश्व विरासत की नई सूची में शामिल किए जाने का औपचारिक ऐलान कर दिया गया है। 11वीं सदी में निर्मित इस वाव को यूनेस्को की विश्व विरासत समिति ने भारत में स्थित सभी बावड़ी या वाव (स्टेपवेल) की रानी का भी खिताब दिया है। इसे जल प्रबंधन प्रणाली में भूजल संसाधनों के उपयोग की तकनीक का बेहतरीन उदाहरण माना है। 11वीं सदी का भारतीय भूमिगत वास्तु संरचना का अनूठे प्रकार का सबसे विकसित एवं व्यापक उदाहरण है यह, जो भारत में वाव निर्माण के विकास की गाथा दर्शाता है। सात मंजिला यह वाव मारू-गुर्जर शैली का साक्ष्य है। ये करीब सात शताब्दी तक सरस्वती नदी के लापता होने के बाद गाद में दबी हुई थी। इसे भारतीय पुरातत्व सर्वे ने वापस खोजा। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने सायआर्क और स्कॉटिस टेन के सहयोग से वाव के दस्तावेजों का डिजिटलाइजेशन भी कर लिया है। .

नई!!: बावड़ी और रानी की वाव · और देखें »

शिव मंदिर की बावड़ी

नीलकण्ठेश्वर महादेव मंदिर जोकि लगभग 450 ई. से भी अधिक प्राचीन है इसी बावड़ी पर स्थित है.

नई!!: बावड़ी और शिव मंदिर की बावड़ी · और देखें »

शुक्रनीति

शुक्रनीति एक प्रसिद्ध नीतिग्रन्थ है। इसकी रचना करने वाले शुक्र का नाम महाभारत में 'शुक्राचार्य' के रूप में मिलता है। शुक्रनीति के रचनाकार और उनके काल के बारे में कुछ भी पता नहीं है। शुक्रनीति में २००० श्लोक हैं जो इसके चौथे अध्याय में उल्लिखित है। उसमें यह भी लिखा है कि इस नीतिसार का रात-दिन चिन्तन करने वाला राजा अपना राज्य-भार उठा सकने में सर्वथा समर्थ होता है। इसमें कहा गया है कि तीनों लोकों में शुक्रनीति के समान दूसरी कोई नीति नहीं है और व्यवहारी लोगों के लिये शुक्र की ही नीति है, शेष सब 'कुनीति' है। शुक्रनीति की सामग्री कामन्दकीय नीतिसार से भिन्न मिलती है। इसके चार अध्यायों में से प्रथम अध्याय में राजा, उसके महत्व और कर्तव्य, सामाजिक व्यवस्था, मन्त्री और युवराज सम्बन्धी विषयों का विवेचन किया गया है। .

नई!!: बावड़ी और शुक्रनीति · और देखें »

काला चौना

काला चौना एक गॉंव है। यह रामगंगा नदी के पूर्वी किनारे पर चौखुटिया तहसील के तल्ला गेवाड़ नामक पट्टी में, भारतवर्ष के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के अल्मोड़ा जिले में स्थित है। यह गॉंव मूलरूप से कनौंणियॉं नामक उपनाम से विख्यात कुमांऊॅंनी हिन्दू राजपूतों का प्राचीन और पुश्तैनी चार गाँवों में से एक है। दक्षिणी हिमालय की तलहटी में बसा यह काला चौना अपनी ऐतिहासिक व सॉंस्कृतिक विरासत, ठेठ कुमांऊॅंनी सभ्यता व संस्कृति, पर्वतीय जीवन शैली, प्रकृति संरक्षण, अलौकिक प्राकृतिक छटा तथा समतल-उपजाऊ भूमि के लिए पहचाना जाता है। .

नई!!: बावड़ी और काला चौना · और देखें »

अग्रसेन की बावली

अग्रसेन की बावली अग्रसेन की बावली, एक संरक्षित पुरातात्विक स्थल हैं जो नई दिल्ली में कनॉट प्लेस के पास स्थित है।इस बावली में सीढ़ीनुमा कुएं में करीब 105 सीढ़ीयां हैं। 14वीं शताब्दी में महाराजा अग्रसेन ने इसे बनाया था। सन 2012 में भारतीय डाक अग्रसेन की बावली पर डाक टिकट जारी किया गया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) और अवशेष अधिनियम 1958 के तहत भारत सरकार द्वारा संरक्षित हैं। इस बावली का निर्माण लाल बलुए पत्थर से हुआ है। अनगढ़ तथा गढ़े हुए पत्थर से निर्मित यह दिल्ली की बेहतरीन बावलियों में से एक है। क़रीब 60 मीटर लंबी और 15 मीटर ऊंची इस बावली के बारे में विश्वास है कि महाभारत काल में इसका निर्माण कराया गया था। बाद में अग्रवाल समाज ने इस बावली का जीर्णोद्धार कराया। यह दिल्ली की उन गिनी चुनी बावलियों में से एक है, जो अभी भी अच्छी स्थिति में हैं। जंतर मंतर के निकट, हेली रोड पर यह बावली मौजूद है। यहाँ पर नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली के लोग कभी तैराकी सीखने के लिए आते थे। बावली की स्थापत्य शैली उत्तरकालीन तुग़लक़ तथा लोदी काल (13वी-16वी ईस्वी) से मेल खाती है। लाल बलुए पत्थर से बनी इस बावली की वास्तु संबंधी विशेषताएँ तुग़लक़ और लोदी काल की तरफ़ संकेत कर रहे हैं, लेकिन परंपरा के अनुसार इसे अग्रहरि एवं अग्रवाल समाज के पूर्वज अग्रसेन ने बनवाया था। इमारत की मुख्य विशेषता है कि यह उत्तर से दक्षिण दिशा में 60 मीटर लम्बी तथा भूतल पर 15 मीटर चौड़ी है। पश्चिम की ओर तीन प्रवेश द्वार युक्त एक मस्जिद है। यह एक ठोस ऊँचे चबूतरे पर किनारों की भूमिगत दालानों से युक्त है। इसके स्थापत्य में ‘व्हेल मछली की पीठ के समान’ छत, ‘चैत्य आकृति’ की नक़्क़ाशी युक्त चार खम्बों का संयुक्त स्तम्भ, चाप स्कन्ध में प्रयुक्त पदक अलंकरण इसको विशिष्टता प्रदान करता है। .

नई!!: बावड़ी और अग्रसेन की बावली · और देखें »

यहां पुनर्निर्देश करता है:

बावली, वाव

निवर्तमानआने वाली
अरे! अब हम फेसबुक पर हैं! »