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नागरीप्रचारिणी सभा

सूची नागरीप्रचारिणी सभा

नागरीप्रचारिणी सभा, हिंदी भाषा और साहित्य तथा देवनागरी लिपि की उन्नति तथा प्रचार और प्रसार करनेवाली भारत की अग्रणी संस्था है। भारतेन्दु युग के अनंतर हिंदी साहित्य की जो उल्लेखनीय प्रवृत्तियाँ रही हैं उन सबके नियमन, नियंत्रण और संचालन में इस सभा का महत्वपूर्ण योग रहा है। .

85 संबंधों: चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी', चन्द्रबली पाण्डेय, चरनदास, चिन्तामणि घोष, ठाकुर शिवकुमार सिंह, ठाकुर गदाधर सिंह, ढोला लोककाव्य, तुलसीदास, दूलह(रीतिग्रंथकार कवि), देवनागरी, देवनागरी का इतिहास, देवीप्रसाद मुंशी, धर्मशास्त्र का इतिहास (पुस्तक), नरोत्तमदास, नागरी आन्दोलन, नागरीप्रचारिणी पत्रिका, नंददुलारे वाजपेयी, नुक़्ता, पारिभाषिक शब्दावली, पुस्तकालय का इतिहास, पृथ्वीराज रासो, बच्चन सिंह, बदरीनाथ भट्ट, बाबूराव विष्णु पराडकर, बालकृष्ण भट्ट, बूँद और समुद्र, भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी, भारतीय शिक्षा का इतिहास, मनीराम मिश्र कन्नौज, मिथिलेश्वर, मुहता नैणसी, रसगंगाधर, राधाकृष्ण दास, राम अवतार शर्मा, रामचन्द्र शुक्ल, रामनारायण मिश्र, रामसहायदास, राजा जयसिंह के नाम शिवाजी का पत्र, रूपसाहि(रीतिग्रंथकार कवि), लाल कवि, शब्दकोश, श्यामसुन्दर दास, सत्यनारायण शास्त्री, सरस्वती पत्रिका, साठोत्तरी हिन्दी साहित्य, सियारामशरण गुप्त, सुधाकर द्विवेदी, सुधाकर पाण्डेय, सुनीति कुमार चटर्जी, सुजान चरित्र, ..., सूदन, सूरदास, हरिकृष्ण 'जौहर', हिन्दी दिवस, हिन्दी पत्रकारिता, हिन्दी साहित्य का इतिहास, हिन्दी विश्वकोश, हिन्दी व्याकरण का इतिहास, हिन्दी आन्दोलन, हिन्दी–उर्दू विवाद, हिंदी शब्दसागर, हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास, हिंदी साहित्य का इतिहास (पुस्तक), जयशंकर प्रसाद, जगन्नाथदास रत्नाकर, जगन्मोहन वर्मा, जगमोहन सिंह, वचनेश मिश्र, विश्वज्ञानकोश, विज्ञान संचार, गौरीदत्त, गोरख प्रसाद, गीतगोविन्द, आचार्य रामचंद्र वर्मा, आरा नागरी प्रचारिणी सभा, आशुलिपि, कामताप्रसाद गुरु, काशी, काशीप्रसाद जायसवाल, किशोरी लाल गोस्वामी, कोश, , अमृतलाल नागर, अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन, उजियारे कवि सूचकांक विस्तार (35 अधिक) »

चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी'

चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' (१८८३ - १२ सितम्बर १९२२) हिन्दी के कथाकार, व्यंगकार तथा निबन्धकार थे। .

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चन्द्रबली पाण्डेय

चंद्रबली पांडेय (संवत् १९६१ विक्रमी - संवत् २०१५) हिन्दी साहित्यकार तथा विद्वान थे। उन्होने हिंदी भाषा और साहित्य के संरक्षण, संवर्धन और उन्नयन में अपने जीवन की आहुति दे दी। वे नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति रहे तथा दक्षिण भारत में हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया। उन्होने हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा का दर्जा प्रदान कराने में ऐतिहासिक भूमिका निभायी। .

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चरनदास

चरनदास एक योगध्यान साधक का नाम है, जिनका जन्म सन १७३० ई. के लगभग हुआ था, इन्होने एक सम्प्रदाय की स्थापना की थी, जिसे "चरनदासी" सम्प्रदाय कहा जाता है, इस सम्प्रदाय का आधार कबीरदासी सम्प्रदाय के समान है, इन्होने धर्मोपदेश अनेक हिन्दी कविता ग्रन्थों में दिये है और रचना की है। चरनदास भार्गव ब्राह्मण तथा अलवर राजस्थान के रहने वाले थे, बाद में यह दिल्ली मे रहने लगे, इनकी दो शिष्यायें थी जो सहजोबाई और दयाबाई के नाम से जानी जाती थी। इन दोनो ने पद्य में योग सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे है, चरनदास का जन्म समय नागरी प्रचारिणी सभा के अनुसार संवत १७६० और देह त्याग का समय संवत १८३८ बताया जाता है, इनके द्वारा रचित जो ग्रन्थ मिले है वे इस प्रकार से हैं:-.

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चिन्तामणि घोष

चिन्तामणि घोष (१८५४ - १९२८) भारत के महान प्रिन्टर एवं इण्डियन प्रेस, प्रयाग के स्वामी थे। उन्होने सन् १८८४ में इस प्रेस की स्थापना की थी जिससे हिन्दी साहित्य की हजारों पुस्तकें प्रिन्ट हुईं। चिंतामणि घोष ने प्रथम सर्वश्रेष्ठ मासिक 'सरस्वती' द्वारा और हिंदी के अनेक ग्रंथों को छापकर हिंदी साहित्य की जितनी सेवा की है, उतनी सेवा हिंदी भाषा भाषी किसी प्रकाशक ने शायद ही की होगी। चिंतामणि घोष ने 1884 में इंडियन प्रेस की स्थापना की और 1899 में नागरी प्रचारिणी सभा से प्रस्ताव किया कि सभा एक सचित्र मासिक पत्रिका के संपादन का भार ले जिसे वे प्रकाशित करेंगे। नागरी प्रचारिणी सभा ने इसका अनुमोदन तो कर दिया किंतु संपादन का भार लेने में अपनी असमर्थता जताई। अंत में संपादन का भार एक समिति को सौंपने पर सहमति बनी। इस समिति में पाँच लोग थे। वे थे बाबू श्याम सुंदर दास, बाबू राधाकृष्ण दास, बाबू कार्तिक प्रसाद, बाबू जगन्नाथ दास और किशोरीलाल गोस्वामी। और इस तरह 'सरस्वती' की योजना को अंतिम रूप मिला। जनवरी 1900 में इसका प्रकाशन प्रारंभ हुआ। प्रवेशांक के मुखपृष्ठ पर पाँच चित्र थे-सबसे ऊपर वीणावादिनी सरस्वती का चित्र था। ऊपर बाईं ओर सूरदास और दाईं ओर तुलसीदास तथा नीचे बाईं ओर राजा शिव प्रसाद सितारेहिंद और बाबू हरिश्चंद्र के चित्र थे। पत्रिका के नाम के नीचे लिखा रहता था-काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अनुमोदन से प्रतिष्ठित। पत्रिका के प्रकाशक चिंतामणि बाबू ने पत्रिका का नीति वक्तव्य इस तरह घोषित किया था- .

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ठाकुर शिवकुमार सिंह

ठाकुर शिवकुमार सिंह (1870-1968) काशी नागरीप्रचारिणी सभा के संस्थापकों में से एक थे। आपने चंदौली के मिडिल स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। तत्पश्चात् स्वर्गीय पं॰ श्री रामनारायण मिश्र और बाबू श्यामसुंदर दास जी तथा अन्य सहयोगियों को साथ लेकर ये सभा की उन्नति में लग गए। अध्ययन के समय तत्कालीन विद्वान् श्री सुधाकर द्विवेदी तथा हिंदी के सर्वप्रथम उपन्यासकार श्री देवकीनंदन खत्री आदि विद्वानों के संपर्क का इनपर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। दसवीं श्रेणी में उत्तीर्ण होने पर आपने लखनऊ के सी.टी.

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ठाकुर गदाधर सिंह

ठाकुर गदाधर सिंह (1869 -- 1918) एक सैनिक एवं हिन्दी साहित्यकार थे। ठाकुर गदाधर सिंह का जन्म एक मध्यमवर्गीय राजपूत परिवार में हुआ था। आरंभ में इन्होंने एक सफल सैनिक का जीवन व्यतीत किया। बाद में यात्रावृत्तांतलेखन की ओर प्रवृत्त हुए। 1900 में इन्होंने एक सैनिक अधिकारी के रूप में चीन की यात्रा की। उसी समय चीन में 'बाक्सर विद्रोह' हुआ था। ब्रिटिश सरकार ने 'बाक्सर विद्रोह' का दमन करने के लिए राजपूत सेना की एक टुकड़ी चीन भेजी थी, ठाकुर साहब उसके एक विशिष्ट सदस्य थे। सम्राट् एडवर्ड के तिलकोत्सव के समारोह में आपको इंग्लैंड जाने का अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ जाकर ठाकुर साहब ने जो कुछ देखा, उसे अपनी लेखनी द्वारा व्यक्त किया। ठाकुर साहब से पहले शायद ही किसी ने यात्रा संस्मरण लिखे हों। सन्‌ 1918 ई. में उनचास वर्ष की अल्पायु में इनका स्वर्गवास हो गया। .

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ढोला लोककाव्य

ढोला राजस्थान, मालवा, ब्रज और उत्तर भारतीय हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र का लोककाव्य है। वर्षा ऋतु में प्रायः चिकाड़ा पर इसे गाया जाता है। ढोलक और मंजीरे इसके साथ में बजाये जाते हैं। ढोला की कथा राजस्थान के ढोरा-मारू/ढोला-मारू पर आधारित है जिसमें युवा होने पर ढोला अपनी बालपन में ब्याही मरवण को अनेक कठिनाइयों के पश्चात प्राप्त करता है। ढोला मारू रा दूहा ग्रन्थ नागरी प्रचारिणी सभा काशी से प्रकाशित हुआ है।.

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तुलसीदास

गोस्वामी तुलसीदास (1511 - 1623) हिंदी साहित्य के महान कवि थे। इनका जन्म सोरों शूकरक्षेत्र, वर्तमान में कासगंज (एटा) उत्तर प्रदेश में हुआ था। कुछ विद्वान् आपका जन्म राजापुर जिला बाँदा(वर्तमान में चित्रकूट) में हुआ मानते हैं। इन्हें आदि काव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। श्रीरामचरितमानस का कथानक रामायण से लिया गया है। रामचरितमानस लोक ग्रन्थ है और इसे उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद विनय पत्रिका उनका एक अन्य महत्वपूर्ण काव्य है। महाकाव्य श्रीरामचरितमानस को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में ४६वाँ स्थान दिया गया। .

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दूलह(रीतिग्रंथकार कवि)

दूलह रीतिकाल के रीतिग्रंथकार कवि हैं। रामचंद्र शुक्ल ने इनका कविताकाल संवत् १८०४ से सं.

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देवनागरी

'''देवनागरी''' में लिखी ऋग्वेद की पाण्डुलिपि देवनागरी एक लिपि है जिसमें अनेक भारतीय भाषाएँ तथा कई विदेशी भाषाएं लिखीं जाती हैं। यह बायें से दायें लिखी जाती है। इसकी पहचान एक क्षैतिज रेखा से है जिसे 'शिरिरेखा' कहते हैं। संस्कृत, पालि, हिन्दी, मराठी, कोंकणी, सिन्धी, कश्मीरी, डोगरी, नेपाली, नेपाल भाषा (तथा अन्य नेपाली उपभाषाएँ), तामाङ भाषा, गढ़वाली, बोडो, अंगिका, मगही, भोजपुरी, मैथिली, संथाली आदि भाषाएँ देवनागरी में लिखी जाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजराती, पंजाबी, बिष्णुपुरिया मणिपुरी, रोमानी और उर्दू भाषाएं भी देवनागरी में लिखी जाती हैं। देवनागरी विश्व में सर्वाधिक प्रयुक्त लिपियों में से एक है। मेलबर्न ऑस्ट्रेलिया की एक ट्राम पर देवनागरी लिपि .

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देवनागरी का इतिहास

देवनागरी लिपि की जड़ें प्राचीन ब्राह्मी परिवार में हैं। गुजरात के कुछ शिलालेखों की लिपि, जो प्रथम शताब्दी से चौथी शताब्दी के बीच के हैं, नागरी लिपि से बहुत मेल खाती है। ७वीं शताब्दी और उसके बाद नागरी का प्रयोग लगातार देखा जा सकता है। .

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देवीप्रसाद मुंशी

देवीप्रसाद मुंशी (माघ शुक्ला 14, संवत्‌ 1904 वि. - संवत्‌ 1980 वि.) प्राचीन इतिहास के पण्डित तथा महान हिन्दी सेवी थे। .

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धर्मशास्त्र का इतिहास (पुस्तक)

धर्मशास्त्र का इतिहास (हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र) भारतरत्न पांडुरंग वामन काणे द्वारा रचित हिन्दू धर्मशास्त्र से सम्बद्ध एक इतिहास ग्रन्थ है, जिसके लिये उन्हें सन् 1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पाँच खण्डों में विभाजित एक बृहत् ग्रन्थ है। साहित्य अकादमी पुरस्कार दिये जाने तक अंग्रेजी में इसके 4 भाग ही प्रकाशित हुए थे (1953 तक)। 1963 में डॉ० पांडुरंग वामन काणे को भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारतरत्न से सम्मानित किया गया। अंतिम भाग (पंचम खंड) का लेखन 1965 में पूरा हुआ। .

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नरोत्तमदास

नरोत्तमदास हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार थे। महाकवि नरोत्तमदास .

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नागरी आन्दोलन

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में भारत में उर्दू लिपि के स्थान पर देवनागरी लिपि अपनाने का आन्दोलन चला जिसे नागरी आन्दोलन या हिन्दी-नागरी आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। .

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नागरीप्रचारिणी पत्रिका

नागरीप्रचारिणी पत्रिका का प्रकाशन नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा १८९६ में आरम्भ हुआ था। उस समय यह हिन्दी की त्रैमासिक पत्रिका थी। श्यामसुन्दर दास, महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी, कालीदास और राधाकृष्ण दास इसके सम्पादक थे। १९०७ ई. में यह मासिक पत्रिका में परिवर्तित कर दी गई और इसके सम्पादक श्यामसुन्दर दास, रामचन्द्र शुक्ल, रामचन्द्र शर्मा और वेणीप्रसाद बनाए गए। नागरी प्रचारिणी पत्रिका हिंदी की सबसे प्राचीन शोध पत्रिका है। इसका सारे जगत में खोज जगत में मान है। इसका शीर्षक होता था, 'नागरीप्रचारिणी पत्रिका, अर्थात् प्राचीन शोधसम्बन्धी त्रैमासिक पत्रिका'। इस पत्रिका के संपादक मंडल में बाबू श्याम सुंदर दास, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, जयचंद विद्यालंकार, डॉ. सम्पूर्णानन्द, आचार्य नरेन्द्र देव, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वान रहे। .

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नंददुलारे वाजपेयी

नन्ददुलारे वाजपेयी (१९०६ - २१ अगस्त, १९६७ उज्जैन) हिन्दी के साहित्यकार, पत्रकार, संपादक, समीक्षक और अंत में प्रशासक भी रहे। इनको छायावादी कविता के शीर्षस्थ आलोचक के रूप में मान्यता प्राप्त है। हिंदी साहित्य: बींसवीं शताब्दी, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचन्द, आधुनिक साहित्य, नया साहित्य: नये प्रश्न इनकी प्रमुख आलोचना पुस्तकें हैं। वे शुक्लोत्तर युग के प्रख्यात समीक्षक थे। .

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नुक़्ता

नुक़्ता देवनागरी, गुरमुखी और अन्य ब्राह्मी परिवार की लिपियों में किसी व्यंजन अक्षर के नीचे लगाए जाने वाले बिंदु को कहते हैं। इस से उस अक्षर का उच्चारण परिवर्तित होकर किसी अन्य व्यंजन का हो जाता है। मसलन 'ज' के नीचे नुक्ता लगाने से 'ज़' बन जाता है और 'ड' के नीचे नुक्ता लगाने से 'ड़' बन जाता है। नुक़्ते ऐसे व्यंजनों को बनाने के लिए प्रयोग होते हैं जो पहले से मूल लिपि में न हों, जैसे कि 'ढ़' मूल देवनागरी वर्णमाला में नहीं था और न ही यह संस्कृत में पाया जाता है। अरबी-फ़ारसी लिपि में भी अक्षरों में नुक़्तों का प्रयोग होता है, उदाहरणार्थ '' का उच्चारण 'र' है जबकि इसी अक्षर में नुक़्ता लगाकर '' लिखने से इसका उच्चारण 'ज़' हो जाता है। इन भाषाओं में ज एवं ज़, दोनों ही शब्द उपलब्ध एवं प्रयोग होते हैं, एनके अलावा एक अन्य ज़ भी होता है जिनके लिये निम्न शब्द प्रयोग होते हैं: ज के लिये जीम, ज़ के लिये ज़्वाद (ض)/ज़े (ژ‬)/ ज़ाल(ذ)/ज़ोए (ظ) - ये चार अक्षर होते हैं। यहां ध्यान योग्य ये है कि चार अक्षर ज़ के लिये होने के बावजूद ज के लिये जीम (ج) होता ही है। अतः जीम का प्रयोग भी होता है, जैसे जज़्बा में ज एवं ज़ दोनों ही प्रयुक्त हैं। ऐसे ही बहुत स्थानों पर ग के लिये गाफ़ (گ) एवं ग़ (غ) के लिये ग़ैन का भी प्रयोग होता है। मूल रूप से 'नुक़्ता' अरबी भाषा का शब्द है और इसका मतलब 'बिंदु' होता है। साधारण हिन्दी-उर्दू में इसका अर्थ 'बिंदु' ही होता है।, John T. Platts, pp.

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पारिभाषिक शब्दावली

पारिभाषिक शब्दावली या परिभाषा कोश, "ग्लासरी" (glossary) का प्रतिशब्द है। "ग्लासरी" मूलत: "ग्लॉस" शब्द से बना है। "ग्लॉस" ग्रीक भाषा का glossa है जिसका प्रारंभिक अर्थ "वाणी" था। बाद में यह "भाषा" या "बोली" का वाचक हो गया। आगे चलकर इसमें और भी अर्थपरिवर्तन हुए और इसका प्रयोग किसी भी प्रकार के शब्द (पारिभाषिक, सामान्य, क्षेत्रीय, प्राचीन, अप्रचलित आदि) के लिए होने लगा। ऐसे शब्दों का संग्रह ही "ग्लॉसरी" या "परिभाषा कोश" है। ज्ञान की किसी विशेष विधा (कार्य क्षेत्र) में प्रयोग किये जाने वाले शब्दों की उनकी परिभाषा सहित सूची पारिभाषिक शब्दावली (glossary) या पारिभाषिक शब्दकोश कहलाती है। उदाहरण के लिये गणित के अध्ययन में आने वाले शब्दों एवं उनकी परिभाषा को गणित की पारिभाषिक शब्दावली कहते हैं। पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग जटिल विचारों की अभिव्यक्ति को सुचारु बनाता है। महावीराचार्य ने गणितसारसंग्रहः के 'संज्ञाधिकारः' नामक प्रथम अध्याय में कहा है- इसके बाद उन्होने लम्बाई, क्षेत्रफल, आयतन, समय, सोना, चाँदी एवं अन्य धातुओं के मापन की इकाइयों के नाम और उनकी परिभाषा (परिमाण) दिया है। इसके बाद गणितीय संक्रियाओं के नाम और परिभाषा दी है तथा अन्य गणितीय परिभाषाएँ दी है। द्विभाषिक शब्दावली में एक भाषा के शब्दों का दूसरी भाषा में समानार्थक शब्द दिया जाता है व उस शब्द की परिभाषा भी की जाती है। अर्थ की दृष्टि से किसी भाषा की शब्दावली दो प्रकार की होती है- सामान्य शब्दावली और पारिभाषिक शब्दावली। ऐसे शब्द जो किसी विशेष ज्ञान के क्षेत्र में एक निश्चित अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, वह पारिभाषिक शब्द होते हैं और जो शब्द एक निश्चित अर्थ में प्रयुक्त नहीं होते वह सामान्य शब्द होते हैं। प्रसिद्ध विद्वान आचार्य रघुवीर बड़े ही सरल शब्दों में पारिभाषिक और साधारण शब्दों का अन्तर स्पष्ट करते हुए कहते हैं- पारिभाषिक शब्दों को स्पष्ट करने के लिए अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार से परिभाषाएं निश्चित करने का प्रयत्न किया है। डॉ॰ रघुवीर सिंह के अनुसार - डॉ॰ भोलानाथ तिवारी 'अनुवाद' के सम्पादकीय में इसे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं- .

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पुस्तकालय का इतिहास

आधुनिक भारत में पुस्तकालयों का विकास बड़ी धीमी गति से हुआ है। हमारा देश परतंत्र था और विदेशी शासन के कारण शिक्षा एवं पुस्तकालयों की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया गया। इसी से पुस्तकालय आंदोलन का स्वरूप राष्ट्रीय नहीं था और न इस आंदोलन को कोई कानूनी सहायता ही प्राप्त थीं। बड़ौदा राज्य का योगदान इस दिशा में प्रशंसनीय रहा है। यहाँ पर 1910 ई. में पुस्तकालय आंदोलन प्रारंभ किया गया। राज्य में एक पुस्तकालय विभाग खोला गया और पुस्तकालयों चार श्रेणियों में विभक्त किया गया- जिला पुस्तकालय, तहसील पुस्तकालय, नगर पुस्तकालय, एवं ग्राम पुस्तकालय आदि। पूरे राज्य में इनका जाल बिछा दिया गया था। भारत में सर्वप्रथम चल पुस्तकालय की स्थापना भी बड़ौदा राज्य में ही हुई। श्री डब्ल्यू.

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पृथ्वीराज रासो

'''पृथ्वीराज रासो''' के प्रथम खंड का द्वितीय संस्करण पृथ्वीराज रासो हिन्दी भाषा में लिखा एक महाकाव्य है जिसमें पृथ्वीराज चौहान के जीवन और चरित्र का वर्णन किया गया है। इसके रचयिता राव चंद बरदाई भट्ट पृथ्वीराज के बचपन के मित्र और उनके राजकवि थे और उनकी युद्ध यात्राओं के समय वीर रस की कविताओं से सेना को प्रोत्साहित भी करते थे। ११६५ से ११९२ के बीच जब पृथ्वीराज चौहान का राज्य अजमेर से दिल्ली तक फैला हुआ था। पृथ्वीराजरासो ढाई हजार पृष्ठों का बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसमें ६९ समय (सर्ग या अध्याय) हैं। प्राचीन समय में प्रचलित प्रायः सभी छंदों का इसमें व्यवहार हुआ है। मुख्य छन्द हैं - कवित्त (छप्पय), दूहा(दोहा), तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या। जैसे कादंबरी के संबंध में प्रसिद्ध है कि उसका पिछला भाग बाण भट्ट के पुत्र ने पूरा किया है, वैसे ही रासो के पिछले भाग का भी चंद के पुत्र जल्हण द्वारा पूर्ण किया गया है। रासो के अनुसार जब शहाबुद्दीन गोरी पृथ्वीराज को कैद करके ग़ज़नी ले गया, तब कुछ दिनों पीछे चंद भी वहीं गए। जाते समय कवि ने अपने पुत्र जल्हण के हाथ में रासो की पुस्तक देकर उसे पूर्ण करने का संकेत किया। जल्हण के हाथ में रासो को सौंपे जाने और उसके पूरे किए जाने का उल्लेख रासो में है - रासो में दिए हुए संवतों का ऐतिहासिक तथ्यों के साथ अनेक स्थानों पर मेल न खाने के कारण अनेक विद्वानों ने पृथ्वीराजरासो के समसामयिक किसी कवि की रचना होने में संदेह करते है और उसे १६वीं शताब्दी में लिखा हुआ ग्रंथ ठहराते हैं। इस रचना की सबसे पुरानी प्रति बीकानेर के राजकीय पुस्तकालय मे मिली है कुल ३ प्रतियाँ है। रचना के अन्त मे प्रथवीराज द्वारा शब्द भेदी बाण चला कर गौरी को मारने की बात भी की गयी है। .

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बच्चन सिंह

बच्चन सिंह (जन्म: 2 जुलाई 1919 जौनपुर, मृत्यु: 5 अप्रैल 2008 वाराणसी) एक हिन्दी साहित्यकार, आलोचक एवं इतिहासकार थे। हिन्दी साहित्य में बच्चन सिंह की ख्याति सैद्धान्तिक लेखन के क्षेत्र में असंदिग्ध है। .

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बदरीनाथ भट्ट

Badrinath Temple, Uttarakhand.jpg बदरीनाथ बदरीनाथ भट्ट (संवत् 1948 वि. की चैत्र शुक्ल तृतीया - 1 मई सन् 1934) हिन्दी के साहित्यकार, पत्रकार एवं भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। .

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बाबूराव विष्णु पराडकर

बाबूराव विष्णु पराड़कर (16 नवम्बर 1883 - 12 जनवरी 1955) हिन्दी के जाने-माने पत्रकार, साहित्यकार एवं हिन्दीसेवी थे। उन्होने हिन्दी दैनिक 'आज' का सम्पादन किया। भारत की आजादी के आंदोलन में अखबार को बाबूराव विष्णु पराड़कर ने एक तलवार की तरह उपयोग किया। उनकी पत्रकारिता ही क्रांतिकारिता थी। उनके युग में पत्रकारिता एक मिशन हुआ करता था। एक जेब में पिस्तौल, दूसरी में गुप्त पत्र 'रणभेरी' और हाथों में 'आज', 'संसार' जैसे पत्रों को संवारने, जुझारू तेवर देने वाली लेखनी के धनी पराडकरजी ने जेल जाने, अखबार की बंदी, अर्थदंड जैसे दमन की परवाह किए बगैर पत्रकारिता का वरण किया। मुफलिसी में सारा जीवन न्यौछावर करने वाले पराडकर जी ने आजादी के बाद देश की आर्थिक गुलामी के खिलाफ धारदार लेखनी चलाई। मराठीभाषी होते हुए भी हिंदी के इस सेवक की जीवनयात्रा अविस्मरणीय है। .

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बालकृष्ण भट्ट

पंडित बाल कृष्ण भट्ट (३ जून १८४४- २० जुलाई १९१४) हिन्दी के सफल पत्रकार, नाटककार और निबंधकार थे। उन्हें आज की गद्य प्रधान कविता का जनक माना जा सकता है। हिन्दी गद्य साहित्य के निर्माताओं में भी उनका प्रमुख स्थान है। .

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बूँद और समुद्र

बूँद और समुद्र (1956) साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित सुप्रसिद्ध हिन्दी उपन्यासकार अमृतलाल नागर का सर्वोत्कृष्ट उपन्यास माना जाता है। इस उपन्यास में लखनऊ को केंद्र में रखकर अपने देश के मध्यवर्गीय नागरिक और उनके गुण-दोष भरे जीवन का कलात्मक चित्रण किया गया है। पात्रों का सजीव चरित्रांकन इस उपन्यास में विशेषतया दृष्टिगोचर होता है। .

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भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी

हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में १४ सितम्बर सन् १९४९ को स्वीकार किया गया। इसके बाद संविधान में अनुच्छेद ३४३ से ३५१ तक राजभाषा के साम्बन्ध में व्यवस्था की गयी। इसकी स्मृति को ताजा रखने के लिये १४ सितम्बर का दिन प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। धारा ३४३(१) के अनुसार भारतीय संघ की राजभाषा हिन्दी एवं लिपि देवनागरी है। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिये प्रयुक्त अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतरराष्ट्रीय स्वरूप (अर्थात 1, 2, 3 आदि) है। हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है क्योंकि भारत का संविधान में कोई भी भाषा को ऐसा दर्जा नहीं दिया गया था। संसद का कार्य हिंदी में या अंग्रेजी में किया जा सकता है। परन्तु राज्यसभा के सभापति महोदय या लोकसभा के अध्यक्ष महोदय विशेष परिस्थिति में सदन के किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं। किन प्रयोजनों के लिए केवल हिंदी का प्रयोग किया जाना है, किन के लिए हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का प्रयोग आवश्यक है और किन कार्यों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाना है, यह राजभाषा अधिनियम 1963, राजभाषा नियम 1976 और उनके अंतर्गत समय समय पर राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय की ओर से जारी किए गए निदेशों द्वारा निर्धारित किया गया है। .

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भारतीय शिक्षा का इतिहास

शिक्षा का केन्द्र: तक्षशिला का बौद्ध मठ भारतीय शिक्षा का इतिहास भारतीय सभ्यता का भी इतिहास है। भारतीय समाज के विकास और उसमें होने वाले परिवर्तनों की रूपरेखा में शिक्षा की जगह और उसकी भूमिका को भी निरंतर विकासशील पाते हैं। सूत्रकाल तथा लोकायत के बीच शिक्षा की सार्वजनिक प्रणाली के पश्चात हम बौद्धकालीन शिक्षा को निरंतर भौतिक तथा सामाजिक प्रतिबद्धता से परिपूर्ण होते देखते हैं। बौद्धकाल में स्त्रियों और शूद्रों को भी शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मिलित किया गया। प्राचीन भारत में जिस शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया गया था वह समकालीन विश्व की शिक्षा व्यवस्था से समुन्नत व उत्कृष्ट थी लेकिन कालान्तर में भारतीय शिक्षा का व्यवस्था ह्रास हुआ। विदेशियों ने यहाँ की शिक्षा व्यवस्था को उस अनुपात में विकसित नहीं किया, जिस अनुपात में होना चाहिये था। अपने संक्रमण काल में भारतीय शिक्षा को कई चुनौतियों व समस्याओं का सामना करना पड़ा। आज भी ये चुनौतियाँ व समस्याएँ हमारे सामने हैं जिनसे दो-दो हाथ करना है। १८५० तक भारत में गुरुकुल की प्रथा चलती आ रही थी परन्तु मकोले द्वारा अंग्रेजी शिक्षा के संक्रमण के कारण भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था का अंत हुआ और भारत में कई गुरुकुल तोड़े गए और उनके स्थान पर कान्वेंट और पब्लिक स्कूल खोले गए। .

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मनीराम मिश्र कन्नौज

मनीराम मिश्र कन्नौज ‘सरोज सर्वेक्षण’ में मनीराम नामक तीन कवियों का उल्लेख मिलता है, जिनमें दो मिश्र हैं- मनीराम मिश्र, सांडी, कानपुर और मनीराम मिश्र कन्नौज। कन्नौज वाले मनीराम मिश्र का उपस्थित काल सं0-1839 है। मनीराम मिश्र ने ‘छंद छप्पनी’ नामक एक सुन्दर ग्रंथ की रचना की है, जिसमें पिंगल के संकेतों को भली-भाँति खोला गया है। नागरी प्रचारिणी सभा काशी की खोज रिर्पोट 1912/106 में छंद छप्पनी का उल्लेख है। श्रेणी:हिन्दी साहित्य श्रेणी:हिन्दी गद्यकार.

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मिथिलेश्वर

मिथिलेश्वर (जन्म: 31 दिसंबर 1950) हिंदी साहित्य में मुख्यतः साठोत्तरी पीढ़ी से सम्बद्ध प्रमुख कथाकार हैं। मुख्यतः ग्रामीण जीवन से सम्बद्ध कथानकों के प्रति समर्पित कथाकार मिथिलेश्वर सीधी-सादी शैली में विशिष्ट रचनात्मक प्रभाव उत्पन्न करने में सिद्धहस्त माने जाते हैं। .

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मुहता नैणसी

मुहता नैणसी (1610–1670) महाराजा जसवन्त सिंह के राज्यकाल में मारवाड़ के दीवान थे। वे भारत के उन क्षेत्रों का अध्यन करने के लिये प्रसिद्ध हैं जो वर्तमान में राजस्थान कहलाता है। 'मारवाड़ रा परगना री विगत' तथा 'नैणसी री ख्यात' उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। .

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रसगंगाधर

रसगंगाधर संस्कृत साहित्यशास्त्र पर प्रौढ़ एवं सर्वथा मौलिक कृति है। इसके निर्माता सर्वतंत्र स्वतंत्र पंडितराज जगन्नाथ हैं जो नवाव शाहाबुद्दीन के आश्रित तथा आसफ खाँ के द्वारा सम्मानित राजकवि थे। यह दाराशिकोह के समकालिक थे। पंडितराज न केवल मार्मिक, सहृदय एवं सूक्ष्म समालोचक ही थे अपितु एक प्रतिभाशाली निसर्ग कवि भी। .

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राधाकृष्ण दास

राधाकृष्ण दास (१८६५- २ अप्रैल १९०७) हिन्दी के प्रमुख सेवक तथा साहित्यकार थे। वे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के फुफेरे भाई थे। शारीरिक कारणों से औपचारिक शिक्षा कम होते हुए भी स्वाध्याय से इन्होने हिन्दी, बंगला, गुजराती, उर्दू, आदि का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। वे प्रसिद्ध सरस्वती पत्रिका के सम्पादक मडल में रहे। वे नागरी प्रचारिणी सभा के प्रथम अध्यक्ष भी थे। इनके पिता का नाम कल्याणदास तथा माता का नाम गंगाबीबी था, जो भारतेंदु हरिश्चंद्र की बूआ थीं। शरीर से प्रकृत्या अस्वस्थ तथा अशक्त होने के कारण इनकी शिक्षा साधारण ही रही पर विद्याध्ययन की ओर रुचि होने से इन्होंने हिंदी, बँगला, उर्दू आदि में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। पंद्रह वर्ष की अवस्था में ही 'दुःखिनी बाला' नामक छोटा रूपक लिखा। इसके एक ही वर्ष बाद 'निस्सहाय हिंदू' नामक सामाजिक उपन्यास लिखा। इसी के अनंतर 'स्वर्णजता' आदि पुस्तकों का बँगला से हिंदी में अनुवाद किया। भारतीय इतिहास की ओर रुचि हो जाने से इसी काल में 'आर्यचरितामृत' रूप में बाप्पा रावल की जीवनी तथा 'महारानी पद्मावती' रूपक भी लिखा। समाजसुधार पर भी इन्होंने कई लेख लिखे। यह अत्यन्त कृष्णभक्त थे। 'धर्मालाप' रचना में अनेक धर्मों का वार्तालाप कराकर हरिभक्ति को ही अंत में प्रधानता दी है। इन्होंने तीर्थयात्रा कर अनेक कृष्णलीला-भूमियों का दर्शन किया और उनका जो विवरण लिया है वह बड़ा हृदयग्राही है। काशी नागरीप्रचारिणी सभा, हरिश्चन्द्र विद्यालय आदि अनेक सभा संथाओं के उन्नयन में इन्होंने सहयोग दिया। सरस्वती पत्रिका का प्रकाशनारम्भ इन्हीं के सम्पादकत्व में हुआ और अदालतों में नागरी के प्रचार के लिए भी इन्होंने प्रयत्न किया। सभा के हिन्दी पुस्तकों के खोज विभाग के कार्य का शुभारम्भ इन्हीं के द्वारा हुआ। स्वास्थ्य ठीक न रहने से रोगाक्रान्त होकर यह बहत्तर वर्ष की अवस्था में १ अप्रैल, सन् १९०७ ई. को गोलोक सिधारे। इनकी अन्य रचनाएँ नागरीदास का जीवन चरित, हिंदी भाषा के पत्रों का सामयिक इतिहास, राजस्थान केसरी वा महाराणा प्रताप सिंह नाटक, भारतेन्दु जी की जीवनी, रहिमन विलास आदि हैं। 'दुःखिनी बाला', 'पद्मावती' तथा 'महाराणा प्रताप' नामक उनके नाटक बहुत प्रसिद्ध हुए। १८८९ में लिखित उपन्यास 'निस्सहाय हिन्दू' में हिन्दुओं की निस्सहायता और मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता का चित्रण है। भारतेन्दु विरचित अपूर्ण हिन्दी नाटक 'सती प्रताप' को इन्होने इस योग्यता से पूर्ण किया है कि पाठकों को दोनों की शैलियों में कोई अन्तर ही नहीं प्रतीत होता। .

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राम अवतार शर्मा

महामहोपाध्याय पण्डित राम अवतार शर्मा (1877 - 1929) संस्कृत के विद्वान, भारतविद् तथा इतिहासकार थे। अपनी विद्वत्ता और तार्किकता के कारण वे पूरे देश में विख्यात थे। वे संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन सहित भारत की अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होने दर्शन, काव्य, साहित्य, व्याकरण, इतिहास, धर्मशास्त्र, भाषाविज्ञान, आदि सभी विषयों पर निबन्ध लिखे। उनकी बहुत बड़ी देन है कि जो ज्ञान अंग्रेजी भाषा के माध्यम से उपलब्ध था उसे संस्कृत में उपलब्ध कराया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद उनके प्रिय शिष्यों में से एक थे। उनके पुत्र नलिन विलोचन शर्मा भी पटना विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक थे जिन्होने 'नई कविता' आन्दोलन का श्रीगणेश किया। .

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रामचन्द्र शुक्ल

आचार्य रामचंद्र शुक्ल (४ अक्टूबर, १८८४- २ फरवरी, १९४१) हिन्दी आलोचक, निबन्धकार, साहित्येतिहासकार, कोशकार, अनुवादक, कथाकार और कवि थे। उनके द्वारा लिखी गई सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक है हिन्दी साहित्य का इतिहास, जिसके द्वारा आज भी काल निर्धारण एवं पाठ्यक्रम निर्माण में सहायता ली जाती है। हिंदी में पाठ आधारित वैज्ञानिक आलोचना का सूत्रपात उन्हीं के द्वारा हुआ। हिन्दी निबन्ध के क्षेत्र में भी शुक्ल जी का महत्वपूर्ण योगदान है। भाव, मनोविकार संबंधित मनोविश्लेषणात्मक निबंध उनके प्रमुख हस्ताक्षर हैं। शुक्ल जी ने इतिहास लेखन में रचनाकार के जीवन और पाठ को समान महत्व दिया। उन्होंने प्रासंगिकता के दृष्टिकोण से साहित्यिक प्रत्ययों एवं रस आदि की पुनर्व्याख्या की। .

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रामनारायण मिश्र

पंडित रामनारायण मिश्र (1873-1953) महान हिन्दीसेवी थे जिन्होने श्यामसुन्दर दास और ठाकुर शिवकुमार सिंह के साथ मिलकर नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना की थी। वे सन् १९३७ में इसके सभापति हुए। रामनारायण मिश्र का जन्म १८७३ में अमृतसर में हुआ था। आप अपने माता-पिता के साथ बनारस आ गये और आकर यहीं के हो गये। बनारस के क्वींस कॉलेज में शिक्षा के दौरान ही श्यामसुन्दर दास और ठाकुर शिवकुमार सिंह के साथ मिलकर नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना की। शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होने शिक्षा विभाग में सब डिप्टी इंस्पेक्तर तथा डिप्टी इंस्पेटर के पद पर काम किया। उन्होने स्कूलों में 'जय-जय प्यारा देश' तथा 'मातु पितु सहायक सखा तुमही एकनाथ हमारे हो' आदि प्रार्थनाएँ शुरू कीं। इससे अविभावकों एवं विद्यार्थियों का ध्यान हिन्दी भाषा की ओर गया। १९५३ में आपका देहावसान हो गया। .

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रामसहायदास

रामसहायदास हिन्दी के रीतिमुक्त कवि थे। ये 'भगत' नाम से प्रसिद्ध थे और इसी नाम से कविताएँ भी लिखते थे। .

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राजा जयसिंह के नाम शिवाजी का पत्र

भारतीय इतिहास में दो ऐसे पत्र मिलते हैं जिन्हें दो विख्यात महापुरुषों ने दो कुख्यात व्यक्तिओं को लिखे थे। इनमे पहिला पत्र "जफरनामा" कहलाता है जिसे श्री गुरु गोविन्द सिंह ने औरंगजेब को भाई दया सिंह के हाथों भेजा था। यह दशम ग्रन्थ में शामिल है जिसमे कुल 130 पद हैं। दूसरा पत्र छ्त्रपति शिवाजी ने आमेर के राजा जयसिंह को भेजा था जो उसे 3 मार्च 1665 को मिल गया था। इन दोनों पत्रों में यह समानताएं हैं की दोनों फारसी भाषा में शेर के रूप में लिखे गए हैं। दोनों की पृष्टभूमि और विषय एक जैसी है। दोनों में देश और धर्म के प्रति अटूट प्रेम प्रकट किया गया है। शिवाजी पत्र बरसों तक पटना साहेब के गुरुद्वारे के ग्रंथागार में रखा रहा। बाद में उसे "बाबू जगन्नाथ रत्नाकर" ने सन 1909 अप्रैल में काशी में काशी नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित किया था। बाद में अमर स्वामी सरस्वती ने उस पत्र का हिन्दी में पद्य और गद्य ने अनुवाद किया था। फिर सन 1985 में अमरज्योति प्रकाशन गाजियाबाद ने पुनः प्रकाशित किया था। राजा जयसिंह आमेर का राजा था। वह उसी राजा मानसिंह का नाती था, जिसने अपनी बहिन अकबर से ब्याही थी। जयसिंह सन 1627 में गद्दी पर बैठा था और औरंगजेब का मित्र था। शाहजहाँ ने उसे 4000 घुड सवारों का सेनापति बना कर "मिर्जा राजा" की पदवी दी थी। औरंगजेब पूरे भारत में इस्लामी राज्य फैलाना चाहता था लेकिन शिवाजी के कारण वह सफल नही हो रहा था। औरंगजेब चालाक और मक्कार था। उसने पाहिले तो शिवाजी से से मित्रता करनी चाही। और दोस्ती के बदले शिवाजी से 23 किले मांगे। लेकिन शिवाजी उसका प्रस्ताव ठुकराते हुए 1664 में सूरत पर हमला कर दिया और मुगलों की वह सारी संपत्ति लूट ली जो उनहोंने हिन्दुओं से लूटी थी। फिर औरंगजेब ने अपने मामा शाईश्ता खान को चालीस हजार की फ़ौज लेकर शिवाजी पर हमला करावा दिया और शिवाजी ने पूना के लाल महल में उसकी उंगलियाँ काट दीं और वह भाग गया। फिर औरंगजेब ने जयसिंह को कहा की वह शिवाजी को परास्त कर दे। जयसिंह खुद को राम का वंशज मानता था। उसने युद्ध में जीत हासिल करने के लिए एक सहस्त्र चंडी यज्ञ भी कराया। शिवाजी को इसकी खबर मिल गयी थी जब उन्हें पता चला की औरंगजेब हिन्दुओं को हिन्दुओं से लड़ाना चाहता है। जिस से दोनों तरफ से हिन्दू ही मरेंगे। तब शिवाजी ने जयसिंह को समझाने के लिए जो पत्र भेजा था। उसके कुछ अंश नीचे दिये हैं - 1 जिगरबंद फर्जानाये रामचंद ज़ि तो गर्दने राजापूतां बुलंद। 2 शुनीदम कि बर कस्दे मन आमदी -ब फ़तहे दयारे दकन आमदी। 3 न दानी मगर कि ईं सियाही शवद कज ईं मुल्को दीं रा तबाही शवद। 4 बगर चारा साजम ब तेगोतबर दो जानिब रसद हिंदुआं रा जरर 5 बि बायद कि बर दुश्मने दीं ज़नी बुनी बेख इस्लाम रा बर कुनी। 6 बिदानी कि बर हिन्दुआने दीगर न यामद चि अज दस्त आं कीनावर। 7 ज़ि पासे वफ़ा गर बिदानी सखुन चि कर्दी ब शाहे जहां याद कुन 8 मिरा ज़हद बायद फरावां नमूद -पये हिन्दियो हिंद दीने हिनूद 9 ब शमशीरो तदबीर आबे दहम ब तुर्की बतुर्की जवाबे दहम। 10 तराज़ेम राहे सुए काम ख्वेश - फरोज़ेम दर दोजहाँ नाम ख्वेश .

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रूपसाहि(रीतिग्रंथकार कवि)

रूपसाहि रीतिकाल के रीतिग्रंथकार कवि हैं। ये बागमहल पन्ना (बुंदेलखंड) के रहनेवाले और जाति के गुनियार कायस्थ थे। इनके पिता का नाम कमलनैन तथा पितामह का शिवराम था। इनके आश्रयदाता थे छत्रसालवंशीय महाराज हिंदूपति सिंह (सं. 1815-1834 वि.)। कवि ने इन्हीं के प्रीत्यर्थ अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'रूपविलास' की रचना की, जिसकी समाप्ति 4 सितंबर सन्‌ 1756 ई. को हुई थी। नागरीप्रचारिणी सभा, काशी के याज्ञिक संग्रहालय में इसकी एक हस्तलिखित प्रति वर्तमान है। पूरे ग्रंथ में 900 दोहे हैं और वह 14 'विलासों' में विभक्त है। यह रीतिग्रंथ काव्य के सर्वांग (विविधांग) पर विचार करता है- काव्यलक्षण, छंद (पिंगल), नौ रस, नायक नायिका, अलंकार और षड्ऋतु, आदि आदि। अलंकारों के वर्णन में कवि ने, 'भाषाभूषण' की परिपाटी को ग्रहण कर लक्षण और उदाहरण एक ही दोहे में दिए है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इन्होंने अनेक काव्यवृत्तियों को विभिन्न रसों का समर्वाय माना है। इस प्रकार, कवि का कृतित्व जितना काव्यशास्त्रीय विवेचन की दृष्टि से महत्व का है उतना कवित्व के विचार से नहीं। .

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लाल कवि

गोरेलाल (उपनाम लाल कवि), हिन्दी के कवि थे। .

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शब्दकोश

शब्दकोश (अन्य वर्तनी:शब्दकोष) एक बडी सूची या ऐसा ग्रंथ जिसमें शब्दों की वर्तनी, उनकी व्युत्पत्ति, व्याकरणनिर्देश, अर्थ, परिभाषा, प्रयोग और पदार्थ आदि का सन्निवेश हो। शब्दकोश एकभाषीय हो सकते हैं, द्विभाषिक हो सकते हैं या बहुभाषिक हो सकते हैं। अधिकतर शब्दकोशों में शब्दों के उच्चारण के लिये भी व्यवस्था होती है, जैसे - अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक लिपि में, देवनागरी में या आडियो संचिका के रूप में। कुछ शब्दकोशों में चित्रों का सहारा भी लिया जाता है। अलग-अलग कार्य-क्षेत्रों के लिये अलग-अलग शब्दकोश हो सकते हैं; जैसे - विज्ञान शब्दकोश, चिकित्सा शब्दकोश, विधिक (कानूनी) शब्दकोश, गणित का शब्दकोश आदि। सभ्यता और संस्कृति के उदय से ही मानव जान गया था कि भाव के सही संप्रेषण के लिए सही अभिव्यक्ति आवश्यक है। सही अभिव्यक्ति के लिए सही शब्द का चयन आवश्यक है। सही शब्द के चयन के लिए शब्दों के संकलन आवश्यक हैं। शब्दों और भाषा के मानकीकरण की आवश्यकता समझ कर आरंभिक लिपियों के उदय से बहुत पहले ही आदमी ने शब्दों का लेखाजोखा रखना शुरू कर दिया था। इस के लिए उस ने कोश बनाना शुरू किया। कोश में शब्दों को इकट्ठा किया जाता है। .

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श्यामसुन्दर दास

हिन्दी के महान सेवक: बाबू श्यामसुन्दर दास डॉ॰ श्यामसुंदर दास (सन् 1875 - 1945 ई.) हिंदी के अनन्य साधक, विद्वान्, आलोचक और शिक्षाविद् थे। हिंदी साहित्य और बौद्धिकता के पथ-प्रदर्शकों में उनका नाम अविस्मरणीय है। हिंदी-क्षेत्र के साहित्यिक-सांस्कृतिक नवजागरण में उनका योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने और उनके साथियों ने मिलकर काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की। विश्वविद्यालयों में हिंदी की पढ़ाई के लिए अगर बाबू साहब के नाम से मशहूर श्याम सुंदर दास ने पुस्तकें तैयार न की होतीं तो शायद हिंदी का अध्ययन-अध्यापन आज सबके लिए इस तरह सुलभ न होता। उनके द्वारा की गयी हिंदी साहित्य की पचास वर्षों तक निरंतर सेवा के कारण कोश, इतिहास, भाषा-विज्ञान, साहित्यालोचन, सम्पादित ग्रंथ, पाठ्य-सामग्री निर्माण आदि से हिंदी-जगत समृद्ध हुआ। उन्हीं के अविस्मरणीय कामों ने हिंदी को उच्चस्तर पर प्रतिष्ठित करते हुए विश्वविद्यालयों में गौरवपूर्वक स्थापित किया। बाबू श्याम सुंदर दास ने अपने जीवन के पचास वर्ष हिंदी की सेवा करते हुए व्यतीत किए उनकी इस हिंदी सेवा को ध्यान में रखते हुए ही राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ने निम्न पंक्तियाँ लिखी हैं- डॉ॰ राधा कृष्णन के शब्दों में, बाबू श्याम सुंदर अपनी विद्वत्ता का वह आदर्श छोड़ गए हैं जो हिंदी के विद्वानों की वर्तमान पीढ़ी को उन्नति करने की प्रेरणा देता रहेगा। .

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सत्यनारायण शास्त्री

सत्यनारायण शास्त्री (1887 -- 23 सितंबर 1969) आधुनिक आयुर्वेदजगत्‌ के प्रख्यात पंडित और चिकित्साशास्त्री थे। आयुर्वेद की धवल परंपरा को सजीव बनाए रखने के लिए आपने जीवन भर कार्य किया। उन्हें चिकित्सा विज्ञान क्षेत्र में पद्म भूषण से १९५४ में सम्मानित किया गया। .

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सरस्वती पत्रिका

सरस्वती हिन्दी साहित्य की प्रसिद्ध रूपगुणसम्पन्न प्रतिनिधि पत्रिका थी। इस पत्रिका का प्रकाशन इलाहाबाद से सन १९०० ई० के जनवरी मास में प्रारम्भ हुआ था। ३२ पृष्ठ की क्राउन आकार की इस पत्रिका का मूल्य ४ आना मात्र था। १९०३ ई० में महावीर प्रसाद द्विवेदी इसके संपादक हुए और १९२० ई० तक रहे। इसका प्रकाशन पहले झाँसी और फिर कानपुर से होने लगा था। महवीर प्रसाद द्विवेदी के बाद पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, देवी दत्त शुक्ल, श्रीनाथ सिंह, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, देवीलाल चतुर्वेदी और श्रीनारायण चतुर्वेदी सम्पादक हुए। १९०५ ई० में काशी नागरी प्रचारिणी सभा का नाम मुखपृष्ठ से हट गया। 1903 में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसका कार्यभार संभाला। एक ओर भाषा के स्तर पर और दूसरी ओर प्रेरक बनकर मार्गदर्शन का कार्य संभालकर द्विवेदी जी ने साहित्यिक और राष्ट्रीय चेतना को स्वर प्रदान किया। द्विवेदी जी ने भाषा की समृद्धि करके नवीन साहित्यकारों को राह दिखाई। उनका वक्तव्य है: महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से ज्ञानवर्धन करने के साथ-साथ नए रचनाकारों को भाषा का महत्त्व समझाया व गद्य और पद्य के लिए राह निर्मित की। महावीर प्रसाद द्विवेदी की यह पत्रिका मूलतः साहित्यिक थी और हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त से लेकर कहीं-न-कहीं निराला के निर्माण में इसी पत्रिका का योगदान था परंतु साहित्य के निर्माण के साथ राष्ट्रीयता का प्रसार करना भी इनका उद्देश्य था। भाषा का निर्माण करना साथ ही गद्य-पद्य के लिए खड़ी बोली को ही प्रोत्साहन देना इनका सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य था। मई १९७६ के बाद इसका प्रकाशन बन्द हो गया।लगभग अस्सी वर्षों तक यह पत्रिका निकली I अंतिम बीस वर्षों तक इसका सम्पादन पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी ने किया I .

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साठोत्तरी हिन्दी साहित्य

साठोत्तरी हिन्दी साहित्य हिन्दी साहित्य के इतिहास के अन्तर्गत सन् 1960 ई० के बाद मुख्यतः नवलेखन (नयी कविता, नयी कहानी आदि) युग से काफी हद तक भिन्नता की प्रतीति कराने वाली ऐसी पीढ़ी के द्वारा रचित साहित्य है जिनमें विद्रोह एवं अराजकता का स्वर प्रधान था। हालाँकि इसके साथ-साथ सहजता एवं जनवादी चेतना की समानान्तर धारा भी साहित्य-क्षेत्र में प्रवहमान रही जो बाद में प्रधान हो गयी। साठोत्तरी लेखन में विद्रोही चेतनायुक्त आन्दोलन प्राथमिक रूप से कविता के क्षेत्र में मुखर हुई। इसलिए इससे सम्बन्धित सारे आन्दोलन मुख्यतः कविता के आन्दोलन रहे। हालाँकि कहानी एवं अन्य विधाओं पर भी इसका असर पर्याप्त रूप से पड़ा और कहानी के क्षेत्र में भी 'अकहानी' जैसे आन्दोलन ने रूप धारण किया। .

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सियारामशरण गुप्त

सियारामशरण गुप्त (४ सितंबर १८९५ - २९ मार्च १९६३) (भाद्र पूर्णिमा सम्वत १९५२ विक्रमी) हिन्दी के साहित्यकार थे। .

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सुधाकर द्विवेदी

पंडित सुधाकर द्विवेदी महामहोपाध्याय पण्डित सुधाकर द्विवेदी (अनुमानतः २६ मार्च १८५५ -- २८ नवंबर, १९१० ई. (मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी सोमवार संवत् १९६७)) भारत के आधुनिक काल के महान गणितज्ञ एवं उद्भट ज्योतिर्विद थे। आप हिन्दी साहित्यकार एवं नागरी के प्रबल पक्षधर भी थे। .

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सुधाकर पाण्डेय

सुधाकर पाण्डेय हिन्दी साहित्यकार, सांसद एवं नागरीप्रचारिणी सभा के प्रधानमंत्री थे। .

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सुनीति कुमार चटर्जी

सुनीति कुमार चटर्जी (बांग्ला: সুনীতি কুমার চ্যাটার্জী) (26 अक्टूबर, 1890 - 29 मई, 1977) भारत के जानेमाने भाषाविद्, साहित्यकार तथा भारतविद् के रूप में विश्वविख्यात व्यक्तित्व थे। वे एक लोकप्रिय कला-प्रेमी भी थे। .

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सुजान चरित्र

सुजानचरित्र सूदन नमक कवि की वीररसप्रधान कृति है। इसमें कवि ने भरतपुर के शासक सुजानसिंह के युद्धों का वर्णन किया है। इस प्रबंध काव्य में संवत्‌ 1802 से लेकर संवत्‌ 1810 वि.

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सूदन

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सूरदास

सूरदास का नाम कृष्ण भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त कवियों में सर्वोपरि है। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। हिंदी कविता कामिनी के इस कमनीय कांत ने हिंदी भाषा को समृद्ध करने में जो योगदान दिया है, वह अद्वितीय है। सूरदास हिंन्दी साहित्य में भक्ति काल के सगुण भक्ति शाखा के कृष्ण-भक्ति उपशाखा के महान कवि हैं। .

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हरिकृष्ण 'जौहर'

हरिकृष्ण 'जौहर' (संवत्‌ 1937 वि - 11 फ़रवरी 1945) हिन्दी साहित्यकार तथा पत्रकार थे। .

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हिन्दी दिवस

हिन्दी दिवस प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को मनाया जाता है। 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर वर्ष 1953 से पूरे भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। .

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हिन्दी पत्रकारिता

हिन्दी पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी है। हिन्दी पत्रकारिता के आदि उन्नायक जातीय चेतना, युगबोध और अपने महत् दायित्व के प्रति पूर्ण सचेत थे। कदाचित् इसलिए विदेशी सरकार की दमन-नीति का उन्हें शिकार होना पड़ा था, उसके नृशंस व्यवहार की यातना झेलनी पड़ी थी। उन्नीसवीं शताब्दी में हिन्दी गद्य-निर्माण की चेष्टा और हिन्दी-प्रचार आन्दोलन अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में भयंकर कठिनाइयों का सामना करते हुए भी कितना तेज और पुष्ट था इसका साक्ष्य ‘भारतमित्र’ (सन् 1878 ई, में) ‘सार सुधानिधि’ (सन् 1879 ई.) और ‘उचित वक्ता’ (सन् 1880 ई.) के जीर्ण पृष्ठों पर मुखर है। वर्तमान में हिन्दी पत्रकारिता में अंग्रेजी पत्रकारिता के दबदबे को खत्म कर दिया है। पहले देश-विदेश में अंग्रेजी पत्रकारिता का दबदबा था लेकिन आज हिन्दी भाषा का झण्डा चंहुदिश लहरा रहा है। ३० मई को 'हिन्दी पत्रकारिता दिवस' के रूप में मनाया जाता है। .

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हिन्दी साहित्य का इतिहास

हिन्दी साहित्य पर यदि समुचित परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास अत्यंत विस्तृत व प्राचीन है। सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ० हरदेव बाहरी के शब्दों में, हिन्दी साहित्य का इतिहास वस्तुतः वैदिक काल से आरम्भ होता है। यह कहना ही ठीक होगा कि वैदिक भाषा ही हिन्दी है। इस भाषा का दुर्भाग्य रहा है कि युग-युग में इसका नाम परिवर्तित होता रहा है। कभी 'वैदिक', कभी 'संस्कृत', कभी 'प्राकृत', कभी 'अपभ्रंश' और अब - हिन्दी। आलोचक कह सकते हैं कि 'वैदिक संस्कृत' और 'हिन्दी' में तो जमीन-आसमान का अन्तर है। पर ध्यान देने योग्य है कि हिब्रू, रूसी, चीनी, जर्मन और तमिल आदि जिन भाषाओं को 'बहुत पुरानी' बताया जाता है, उनके भी प्राचीन और वर्तमान रूपों में जमीन-आसमान का अन्तर है; पर लोगों ने उन भाषाओं के नाम नहीं बदले और उनके परिवर्तित स्वरूपों को 'प्राचीन', 'मध्यकालीन', 'आधुनिक' आदि कहा गया, जबकि 'हिन्दी' के सन्दर्भ में प्रत्येक युग की भाषा का नया नाम रखा जाता रहा। हिन्दी भाषा के उद्भव और विकास के सम्बन्ध में प्रचलित धारणाओं पर विचार करते समय हमारे सामने हिन्दी भाषा की उत्पत्ति का प्रश्न दसवीं शताब्दी के आसपास की प्राकृताभास भाषा तथा अपभ्रंश भाषाओं की ओर जाता है। अपभ्रंश शब्द की व्युत्पत्ति और जैन रचनाकारों की अपभ्रंश कृतियों का हिन्दी से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए जो तर्क और प्रमाण हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में प्रस्तुत किये गये हैं उन पर विचार करना भी आवश्यक है। सामान्यतः प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश-अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है। उस समय अपभ्रंश के कई रूप थे और उनमें सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही पद्य-रचना प्रारम्भ हो गयी थी। साहित्य की दृष्टि से पद्यबद्ध जो रचनाएँ मिलती हैं वे दोहा रूप में ही हैं और उनके विषय, धर्म, नीति, उपदेश आदि प्रमुख हैं। राजाश्रित कवि और चारण नीति, शृंगार, शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य-रुचि का परिचय दिया करते थे। यह रचना-परम्परा आगे चलकर शौरसेनी अपभ्रंश या 'प्राकृताभास हिन्दी' में कई वर्षों तक चलती रही। पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का प्रयोग निरन्तर बढ़ता गया। इस भाषा को विद्यापति ने देसी भाषा कहा है, किन्तु यह निर्णय करना सरल नहीं है कि हिन्दी शब्द का प्रयोग इस भाषा के लिए कब और किस देश में प्रारम्भ हुआ। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में हिन्दी शब्द का प्रयोग विदेशी मुसलमानों ने किया था। इस शब्द से उनका तात्पर्य 'भारतीय भाषा' का था। .

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हिन्दी विश्वकोश

हिन्दी विश्वकोश, नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा हिन्दी में निर्मित एक विश्वकोश है। यह बारह खण्डों में पुस्तक रूप में उपलब्ध है। इसके अलावा यह अन्तरजाल पर पठन के लिये भी नि:शुल्क उपलब्ध है। यह किसी एक विषय पर केन्द्रित नहीं है बल्कि इसमें अनेकानेक विषयों का समावेश है। .

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हिन्दी व्याकरण का इतिहास

उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण हिन्दी भाषा का व्याकरण लिखने के प्रयास काफी पहले आरम्भ हो चुके थे। अद्यतन जानकारी के अनुसार हिन्दी व्याकरण का सबसे पुराना ग्रंथ बनारस के दामोदर पण्डित द्वारा रचित द्विभाषिक ग्रंथ उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण सिद्ध होता है। यह बारहवीं शताब्दी का है। यह समय हिंदी का क्रमिक विकास इसी समय से प्रारंभ हुआ माना जाता है। इस ग्रंथ में हिन्दी की पुरानी कोशली या अवधी बोली बोलने वालों के लिए संस्कृत सिखाने वाला एक मैनुअल है, जिसमें पुरानी अवधी के व्याकरणिक रूपों के समानान्तर संस्कृत रूपों के साथ पुरानी कोशली एवं संस्कृत दोनों में उदाहरणात्मक वाक्य दिये गये हैं। 'कोशली' का लोक प्रचलित नाम वर्तमान में 'अवधी' या 'पूर्वीया हिन्दी' है। १६७५ई.

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हिन्दी आन्दोलन

हिन्दी आन्दोलन भारत में हिन्दी एवं देवनागरी को विविध सामाजिक क्षेत्रों में आगे लाने के लिये विशेष प्रयत्न हैं। यह भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय आरम्भ हुआ। इस आन्दोलन में साहित्यकारों, समाजसेवियों (नवीन चन्द्र राय, श्रद्धाराम फिल्लौरी, स्वामी दयानन्द सरस्वती, पंडित गौरीदत्त, पत्रकारों एवं स्वतंत्रतता संग्राम-सेनानियों (महात्मा गांधी, मदनमोहन मालवीय, पुरुषोत्तमदास टंडन आदि) का विशेष योगदान था। .

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हिन्दी–उर्दू विवाद

भारत में राजमार्ग चिह्नों में उर्दू और हिन्दी। हिन्दी–उर्दू विवाद भारतीय उपमहाद्वीप में १९वीं सदी में आरम्भ हुआ भाषाई विवाद है। इस विवाद के कुछ मूल प्रश्न ये थे- उत्तरी भारत तथा उत्तरी-पश्चिमी भारत की भाषा का स्वरूप क्या हो, सरकारी कार्यों में किस भाषा/लिपि का प्रयोग हो, हिन्दी और उर्दू एक ही भाषा के दो रूप शैली हैं या अलग-अलग हैं (हिन्दुस्तानी देखें।) हिन्दी और उर्दू हिन्दी भाषा की खड़ी बोली की रूप को कहा जाता है और यह लगभग भारत की ४५% जनसंख्या की भाषा है जिसे विभिन्न हिन्दी, हिन्दुस्तानी और उर्दू के रूप में जाना जाता है। वास्तव में हिन्दी–उर्दू विवाद अंग्रेजी काल में शुरू हुआ था और ब्रितानी शासन ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस विवाद को बढ़ाने में मदद की। इसी क्रम में ब्रितानी शासन समाप्त होने के बाद उर्दू पाकिस्तान की राजभाषा घोषित की गयी (१९४६ में) और हिन्दी भारत की राजभाषा (१९५० में)। वर्तमान समय में कुछ मुस्लिमों के अनुसार हिन्दुओं ने उर्दू को परित्यक्त किया जबकि कुछ हिन्दुओं का विश्वास है कि मुस्लिम राज के दौरान उर्दू को कृत्रिम रूप से जनित किया गया। हिंदी और उर्दू हिंदी की खड़ी बोली के दो भिन्न साहित्यिक रूप हैं। खड़ी बोली का एक फ़ारसीकृत रूप, जो विभिन्नता से हिंदी, हिंदुस्तानी और उर्दू कहलाता था, दक्षिण एशिया के दिल्ली सल्तनत (1206-1526 AD) और मुगल सल्तनत (1526–1858 AD) के दौरान आकार लेने लगी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने आधुनिक भारत के हिंदी बोलने वाले उत्तरी प्रांतों में फ़ारसी भाषा की जगह उर्दू लिपि में लिखित उर्दू को सरकारी मानक भाषा का दर्रजा दे दिया, अंग्रेज़ी के साथ। उन्नीसवीं सदी के आखिरी कुछ दशकों में उत्तर पश्चिमी प्रांतों और अवध में हिंदी-उर्दू विवाद का प्रस्फुटन हुआ। हिंदी और उर्दू के समर्थक क्रमशः देवनागरी और फ़ारसी लिपि में लिखित हिंदुस्तानी का पक्ष लेने लगे थे। हिंदी के आंदोलन जो देवनागरी का विकास और आधिकारिक दर्जे को हिमायत दे रहे थे उत्तरी हिंद में स्थापित हुए। बाबू शिव प्रसाद और मदनमोहन मालवीय इस आंदोलन के आरंभ के उल्लेखनीय समर्थक थे। इस के नतीजे में उर्दू आंदोलनों का निर्माण हुआ, जिन्होंने उर्दू के आधिकारिक दर्जे को समर्थन दिया; सैयद अहमद ख़ान उनके एक प्रसिद्ध समर्थक थे। सन् 1900 में, सरकार ने हिन्दी और उर्दू दोनों को समान प्रतीकात्मक दर्जा प्रदान किया जिसका मुस्लिमों ने विरोध किया और हिन्दूओं ने खुशी व्यक्त की। हिन्दी और उर्दू का भाषायीं विवाद बढ़ता गया क्योंकि हिन्दी में फारसी-व्युत्पन्न शब्दों के तुल्य औपचारिक और शैक्षिक शब्दावली का मूल संस्कृत को लिया गया। इससे हिन्दू-मुस्लिम मतभेद बढ़ने लगे और महात्मा गांधी ने मानकों का पुनः शुद्धीकरण करके पारम्परिक शब्द हिन्दुस्तानी के अन्दर उर्दू अथवा देवनागरी लिपि काम में लेने का सुझाव दिया। इसका कांग्रेस के सदस्यों तथा भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल कुछ नेताओं ने समर्थन किया। इसके फलस्वरूप 1950 में भारतीय संविधान के लिए बनी संस्था ने अंग्रेज़ी के साथ उर्दू के स्थान पर हिन्दी को देवनागरी लिपि में राजभाषा के रूप में स्वीकार किया। .

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हिंदी शब्दसागर

हिंदी शब्दसागर हिन्दी भाषा के लिए बनाया गया एक वृहत शब्द-संग्रह तथा प्रथम मानक कोश है। 'हि‍न्‍दी शब्‍दसागर' का नि‍मार्ण नागरी प्रचारिणी सभा, काशी ने कि‍या था। इसका प्रथम प्रकाशन १९२२ - १९२९ के बीच हुआ। यह वैज्ञानिक एवं विधिवत शब्दकोश मूल रूप में चार खण्डों में बना। इसके प्रधान सम्पादक श्यामसुन्दर दास थे तथा बालकृष्ण भट्ट, लाला भगवानदीन, अमीर सिंह एवं जगन्मोहन वर्मा सहसम्पादक थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल एवं आचार्य रामचंद्र वर्मा ने भी इस महान कार्य में सर्वश्रेष्ठ योगदान किया। इसमें लगभग एक लाख शब्द थे। बाद में सन् १९६५ - १९७६ के बीच इसका का परिवर्धित संस्काण ११ खण्डों में प्रकाशित हुआ। .

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हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास

हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी द्वारा 16 खंडों में प्रकाशित। मुख्यतः 1960 ई० तक की अवधि से पूर्व हिंदी साहित्य के आद्यन्त विस्तार को समाहित करने वाला, अनेकानेक विद्वानों द्वारा लिखित एवं संपादित, बृहत् साहित्येतिहास ग्रंथ। .

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हिंदी साहित्य का इतिहास (पुस्तक)

हिन्दी साहित्य के अब तक लिखे गए इतिहासों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा लिखे गए हिन्दी साहित्य का इतिहास को सबसे प्रामाणिक तथा व्यवस्थित इतिहास माना जाता है। आचार्य शुक्ल जी ने इसे हिन्दी शब्दसागर की भूमिका के रूप में लिखा था जिसे बाद में स्वतंत्र पुस्तक के रूप में १९२९ ई० में प्रकाशित कराया गया। .

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जयशंकर प्रसाद

जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1890 - 15 नवम्बर 1937)अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद', सं०-पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-2001ई०,पृ०-2(तिथि एवं संवत् के लिए)।(क)हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग-10, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी; संस्करण-1971ई०, पृ०-145(तारीख एवं ईस्वी के लिए)। (ख)www.drikpanchang.com (30.1.1890 का पंचांग; तिथ्यादि से अंग्रेजी तारीख आदि के मिलान के लिए)।, हिन्दी कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा निबन्धकार थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिंदी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में न केवल कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया। बाद के प्रगतिशील एवं नयी कविता दोनों धाराओं के प्रमुख आलोचकों ने उसकी इस शक्तिमत्ता को स्वीकृति दी। इसका एक अतिरिक्त प्रभाव यह भी हुआ कि खड़ीबोली हिन्दी काव्य की निर्विवाद सिद्ध भाषा बन गयी। आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास में इनके कृतित्व का गौरव अक्षुण्ण है। वे एक युगप्रवर्तक लेखक थे जिन्होंने एक ही साथ कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में हिंदी को गौरवान्वित होने योग्य कृतियाँ दीं। कवि के रूप में वे निराला, पन्त, महादेवी के साथ छायावाद के प्रमुख स्तंभ के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं; नाटक लेखन में भारतेंदु के बाद वे एक अलग धारा बहाने वाले युगप्रवर्तक नाटककार रहे जिनके नाटक आज भी पाठक न केवल चाव से पढ़ते हैं, बल्कि उनकी अर्थगर्भिता तथा रंगमंचीय प्रासंगिकता भी दिनानुदिन बढ़ती ही गयी है। इस दृष्टि से उनकी महत्ता पहचानने एवं स्थापित करने में वीरेन्द्र नारायण, शांता गाँधी, सत्येन्द्र तनेजा एवं अब कई दृष्टियों से सबसे बढ़कर महेश आनन्द का प्रशंसनीय ऐतिहासिक योगदान रहा है। इसके अलावा कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी उन्होंने कई यादगार कृतियाँ दीं। विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करुणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन। ४८ वर्षो के छोटे से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएँ की। उन्हें 'कामायनी' पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था। उन्होंने जीवन में कभी साहित्य को अर्जन का माध्यम नहीं बनाया, अपितु वे साधना समझकर ही साहित्य की रचना करते रहे। कुल मिलाकर ऐसी बहुआयामी प्रतिभा का साहित्यकार हिंदी में कम ही मिलेगा जिसने साहित्य के सभी अंगों को अपनी कृतियों से न केवल समृद्ध किया हो, बल्कि उन सभी विधाओं में काफी ऊँचा स्थान भी रखता हो। .

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जगन्नाथदास रत्नाकर

जगन्नाथदास रत्नाकर (१८६६ - २१ जून १९३२) आधुनिक युग के श्रेष्ठ ब्रजभाषा कवि थे। .

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जगन्मोहन वर्मा

बाबू जगन्मोहन वर्म्मा हिन्दी साहित्यकार थे। हिन्दीशब्दसागर के निर्माण में उनका अप्रतिम योगदान था। .

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जगमोहन सिंह

भारतेन्दुयुगीन हिन्दी साहित्यकार '''ठाकुर जगमोहन सिंह''' ठाकुर जगमोहन सिंह (४ अगस्त १८५७ -) हिन्दी के भारतेन्दुयुगीन कवि, आलोचक और उपन्यासकार थे। उन्होंने सन् 1880 से 1882 तक धमतरी में और सन् 1882 से 1887 तक शिवरीनारायण में तहसीलदार और मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य किया। छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को जगन्मोहन मंडल बनाकर एक सूत्र में पिरोया और उन्हें लेखन की सही दिशा भी दी। जगन्मोहन मंडल काशी के भारतेन्दु मंडल की तर्ज में बनी एक साहित्यिक संस्था थी। हिंदी के अतिरिक्त संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य की उन्हें अच्छी जानकारी थी। ठाकुर साहब मूलत: कवि ही थे। उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा नई और पुरानी दोनों प्रकार की काव्यप्रवृत्तियों का पोषण किया। .

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वचनेश मिश्र

वचनेश मिश्र (वैशाख शुक्ल 4, संवत् 1932 विक्रमी - सन् 1958 ई.) हिन्दी साहित्यकार, पत्रकार, कोशकार थे। उन्होने नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा सम्पादित हिन्दीशब्दसागर में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे उदार, शालीन, काव्यक्षेत्र में परंपरावादी, अछूतोद्वार पक्षपाती, विधवा-विवाह-समर्थक, तलाक प्रथा को प्रेम के लिए हानिकारक समझनेवाले, दहेज विरोधी और भूत प्रेत तथा शकुन-अपशकुन आदि को व्यर्थ माननेवाले थे। .

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विश्वज्ञानकोश

विश्वज्ञानकोश, विश्वकोश या ज्ञानकोश (Encyclopedia) ऐसी पुस्तक को कहते हैं जिसमें विश्वभर की तरह तरह की जानने लायक बातों को समावेश होता है। विश्वकोश का अर्थ है विश्व के समस्त ज्ञान का भंडार। अत: विश्वकोश वह कृति है जिसमें ज्ञान की सभी शाखाओं का सन्निवेश होता है। इसमें वर्णानुक्रमिक रूप में व्यवस्थित अन्यान्य विषयों पर संक्षिप्त किंतु तथ्यपूर्ण निबंधों का संकलन रहता है। यह संसार के समस्त सिद्धांतों की पाठ्यसामग्री है। विश्वकोश अंग्रेजी शब्द "इनसाइक्लोपीडिया" का समानार्थी है, जो ग्रीक शब्द इनसाइक्लियॉस (एन .

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विज्ञान संचार

विज्ञान संचार (Science communication) का सामान्य अर्थ संचार-माध्यमों के द्वारा गैर-वैज्ञानिक समाज को विज्ञान के विविध पहलुओं एवं विषयों के बारे में सूचना देना है। कभी-कभी यह काम व्यावसायिक वैज्ञानिकों द्वारा भी किया जाता है। (तब इसे 'विज्ञान का लोकीकरण' कहा जाता है।)। विज्ञान संचार अपने-आप में एक पेशेवर क्षेत्र बन चुका है। .

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गौरीदत्त

पंडित गौरीदत्त (1836 - 8 फ़रवरी 1906), देवनागरी के प्रथम प्रचारक व अनन्य भक्त थे। बच्चों को नागरी लिपि सिखाने के अलावा आप गली-गली में घूमकर उर्दू, फारसी और अंग्रेजी की जगह हिंदी और देवनागरी लिपि के प्रयोग की प्रेरणा दिया करते थे। कुछ दिन बाद आपने मेरठ में ‘नागरी प्रचारिणी सभा‘ की स्थापना भी की और सन् 1894 में उसकी ओर से सरकार को इस आशय का एक ज्ञापन दिया कि अदालतों में नागरी-लिपि को स्थान मिलना चाहिए। हिंदी भाषा और साहित्य के विकास में पंडित गौरीदत्त जी ने जो उल्लेखनीय कार्य किया था उससे उनकी ध्येयनिष्ठा और कार्य-कुशलता का परिचय मिलता है। नागरी लिपि परिषद ने उनके सम्मान में उनके नाम पर 'गौरीदत्त नागरी सेवी सम्मान' आरम्भ किया है। .

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गोरख प्रसाद

गोरखप्रसाद (28 मार्च 1896 - 5 मई 1961) गणितज्ञ, हिंदी विश्वकोश के संपादक तथा हिंदी में वैज्ञानिक साहित्य के लब्धप्रतिष्ठ और बहुप्रतिभ लेखक थे। .

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गीतगोविन्द

गीतगोविन्द की पाण्डुलिपि (१५५० ई) गीतगोविन्द (ଗୀତ ଗୋବିନ୍ଦ) जयदेव की काव्य रचना है। गीतगोविन्द में श्रीकृष्ण की गोपिकाओं के साथ रासलीला, राधाविषाद वर्णन, कृष्ण के लिए व्याकुलता, उपालम्भ वचन, कृष्ण की राधा के लिए उत्कंठा, राधा की सखी द्वारा राधा के विरह संताप का वर्णन है। जयदेव का जन्म ओडिशा में भुवनेश्वर के पास केन्दुबिल्व नामक ग्राम में हुआ था। वे बंगाल के सेनवंश के अन्तिम नरेश लक्ष्मणसेन के आश्रित महाकवि थे। लक्ष्मणसेन के एक शिलालेख पर १११६ ई० की तिथि है अतः जयदेव ने इसी समय में गीतगोविन्द की रचना की होगी। ‘श्री गीतगोविन्द’ साहित्य जगत में एक अनुपम कृति है। इसकी मनोरम रचना शैली, भावप्रवणता, सुमधुर राग-रागिणी, धार्मिक तात्पर्यता तथा सुमधुर कोमल-कान्त-पदावली साहित्यिक रस पिपासुओं को अपूर्व आनन्द प्रदान करती हैं। अतः डॉ॰ ए॰ बी॰ कीथ ने अपने ‘संस्कृत साहित्य के इतिहास’ में इसे ‘अप्रतिम काव्य’ माना है। सन् 1784 में विलियम जोन्स द्वारा लिखित (1799 में प्रकाशित) ‘ऑन द म्यूजिकल मोड्स ऑफ द हिन्दूज’ (एसियाटिक रिसर्चेज, खंड-3) पुस्तक में गीतगोविन्द को 'पास्टोरल ड्रामा' अर्थात् ‘गोपनाट्य’ के रूप में माना गया है। उसके बाद सन् 1837 में फ्रेंच विद्वान् एडविन आरनोल्ड तार्सन ने इसे ‘लिरिकल ड्रामा’ या ‘गीतिनाट्य’ कहा है। वान श्रोडर ने ‘यात्रा प्रबन्ध’ तथा पिशाल लेवी ने ‘मेलो ड्रामा’, इन्साइक्लोपिडिया ब्रिटानिका (खण्ड-5) में गीतगोविन्द को ‘धर्मनाटक’ कहा गया है। इसी तरह अनेक विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से इसके सम्बन्ध में विचार व्यक्त किया है। जर्मन कवि गेटे महोदय ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् और मेघदूतम् के समान ही गीतगोविन्द की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। गीतगोविन्द काव्य में जयदेव ने जगदीश का ही जगन्नाथ, दशावतारी, हरि, मुरारी, मधुरिपु, केशव, माधव, कृष्ण इत्यादि नामों से उल्लेख किया है। यह 24 प्रबन्ध (12 सर्ग) तथा 72 श्लोकों (सर्वांगसुन्दरी टीका में 77 श्लोक) युक्त परिपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें राधा-कृष्ण के मिलन-विरह तथा पुनर्मिलन को कोमल तथा लालित्यपूर्ण पदों द्वारा बाँधा गया है। किन्तु नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित ‘हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थ सूची, भाग-इ’ में गीतगोविन्द का 13वाँ सर्ग भी उपलब्ध है। परन्तु यह मातृका अर्वाचीन प्रतीत होती है। गीतगोविन्द वैष्णव सम्प्रदाय में अत्यधिक आदृत है। अतः 13वीं शताब्दी के मध्य से ही श्री जगन्नाथ मन्दिर में इसे नित्य सेवा के रूप में अंगीकार किया जाता रहा है। इस गीतिकाव्य के प्रत्येक प्रबन्ध में कवि ने काव्यफल स्वरूप सुखद, यशस्वी, पुण्यरूप, मोक्षद आदि शब्दों का प्रयोग करके इसके धार्मिक तथा दार्शनिक काव्य होने का भी परिचय दिया है। शृंगार रस वर्णन में जयदेव कालिदास की परम्परा में आते हैं। गीतगोविन्द का रास वर्णन श्रीमद्भागवत के वर्णन से साम्य रखता है; तथा श्रीमद्भागवत के स्कन्ध 10, अध्याय 40 में (10-40-17/22) अक्रूर स्तुति में जो दशावतार का वर्णन है, गीतगोविन्द के प्रथम सर्ग के स्तुति वर्णन से साम्य रखता है। आगे चलकर गीतगोविन्द के अनेक ‘अनुकृति’ काव्य रचे गये। अतः जयदेव ने स्वयं १२वें सर्ग में लिखा है - कुम्भकर्ण प्रणीत ‘रसिकप्रिया’ टीका आदि में इसकी पुष्टि की गयी है। .

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आचार्य रामचंद्र वर्मा

आचार्य रामचंद्र वर्मा (1890-1969 ई.) हिन्दी के साहित्यकार एवं कोशकार रहे हैं। हिन्दी शब्दसागर के सम्पादकमण्डल के प्रमुख सदस्य थे। आपने आचार्य किशोरीदास वाजपेयी के साथ मिलकर 'अच्छी हिन्दी' का आन्दोलन चलाया। आपके समय में हिन्दी का मानकीकरण हुआ। .

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आरा नागरी प्रचारिणी सभा

ब्रिटिश हुकूमत में जब हिन्दी की उपेक्षा की जा रही थी तब नागरी लिपि के प्रचार और हिन्दी साहित्य के विस्तार के लिए उतर भारत में दो स्थानों पर नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की गयी। एक काशी (उत्तर प्रदेश) और दूसरा आरा (बिहार) में। आरा में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना 12 अक्टूबर 1901 ई. को स्व.

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आशुलिपि

डच आशुलिपि (ग्रूट पद्धति से) आशुलिपि (Shorthand) लिखने की एक विधि है जिसमें सामान्य लेखन की अपेक्षा अधिक तीव्र गति से लिखा जा सकता है। इसमें छोटे प्रतीकों का उपयोग किया जाता है। आशुलिपि में लिखने की क्रिया आशुलेखन (stenography) कहलाती है। स्टेनोग्राफी से आशय है तेज और संक्षिप्त लेखन। इसे हिन्दी मे 'शीघ्रलेखन' या 'त्वरालेखन' भी कहते हैं। लिखने और बोलने की गति में अंतर है। साधारण तौर पर जिस गति से कुशल से कुशल व्यक्ति हाथ से लिखता है, उससे चौगुनी, पाँचगुनी गति से वह संभाषण करता है। ऐसी स्थिति में वक्ता के भाषण अथवा संभाषण को लिपिबद्ध करने में विशेष रूप से कठिनाई उपस्थित हो जाती है। इसी कठिनाई को हल करने के लिये त्वरालेखन के आविष्कार की आवश्यकता पड़ी। .

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कामताप्रसाद गुरु

कामताप्रसाद गुरु (१८७५ - १९४७ ई.) हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ वैयाकरण तथा साहित्यकार। .

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काशी

काशी जैनों का मुख्य तीर्थ है यहाँ श्री पार्श्वनाथ भगवान का जन्म हुआ एवम श्री समन्तभद्र स्वामी ने अतिशय दिखाया जैसे ही लोगों ने नमस्कार करने को कहा पिंडी फट गई और उसमे से श्री चंद्रप्रभु की प्रतिमा जी निकली जो पिन्डि आज भी फटे शंकर के नाम से प्रसिद्ध है काशी विश्वनाथ मंदिर (१९१५) काशी नगरी वर्तमान वाराणसी शहर में स्थित पौराणिक नगरी है। इसे संसार के सबसे पुरानी नगरों में माना जाता है। भारत की यह जगत्प्रसिद्ध प्राचीन नगरी गंगा के वाम (उत्तर) तट पर उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी कोने में वरुणा और असी नदियों के गंगासंगमों के बीच बसी हुई है। इस स्थान पर गंगा ने प्राय: चार मील का दक्षिण से उत्तर की ओर घुमाव लिया है और इसी घुमाव के ऊपर इस नगरी की स्थिति है। इस नगर का प्राचीन 'वाराणसी' नाम लोकोच्चारण से 'बनारस' हो गया था जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने शासकीय रूप से पूर्ववत् 'वाराणसी' कर दिया है। विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है - 'काशिरित्ते..

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काशीप्रसाद जायसवाल

काशीप्रसाद जायसवाल (१८८१ - १९३७), भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार, पुरातत्व के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान् एवं हिन्दी साहित्यकार थे। .

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किशोरी लाल गोस्वामी

किशोरी लाल गोस्वामी (१८६५ - १९३२ ई०) का जन्म काशी में सन् १८६५ ई० में हुआ। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा काशी में ही हुई। ये मूल रूप से कहानीकार तथा उपन्यासकार थे। इनकी पहली कहानी "इन्दुमती", सरस्वती पत्रिका में सम्बत् १९५७ में प्रकाशित हुई। इन्होंने उपन्यास मासिक पत्र का प्रकाशन १८९८ ई० में प्रारम्भ किया। इन्होंने लगभग ६० उपन्यास लिखे। इनके उपन्यासों में 'रजिया बेगम', "त्रिवेणी", "प्रणयिनी परिणय", 'लवंग लता', 'आदर्श बाला', 'रंग महल में हलाहल', 'मालती माधव', 'मदनमोहिनी' तथा 'गुलबहार' प्रमुख हैं। इनका निधन सन् १९३२ ई० में हुआ। .

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कोश

कोश एक ऐसा शब्द है जिसका व्यवहार अनेक क्षेत्रों में होता है और प्रत्येक क्षेत्र में उसका अपना अर्थ और भाव है। यों इस शब्द का व्यापक प्रचार वाङ्मय के क्षेत्र में ही विशेष है और वहाँ इसका मूल अर्थ 'शब्दसंग्रह' (lexicon) है। किंतु वस्तुत: इसका प्रयोग प्रत्येक भाषा में अक्षरानुक्रम अथवा किसी अन्य क्रम से उस भाषा अथवा किसी अन्य भाषा में शब्दों की व्याख्या उपस्थित करनेवाले ग्रंथ के अर्थ में होता है। .

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thumb अ देवनागरी लिपि का पहला वर्ण तथा संस्कृत, हिंदी, मराठी, नेपाली आदि भाषाओं की वर्णमाला का पहला अक्षर एवं ध्वनि है। यह एक स्वर है। यह कंठ्य वर्ण है।। इसका उच्चारण स्थान कंठ है। इसकी ध्वनि को भाषाविज्ञान में श्वा कहा जाता है। यह संस्कृत तथा भारत की समस्त प्रादेशिक भाषाओं की वर्णमाला का प्रथम अक्षर है। इब्राली भाषा का 'अलेफ्', यूनानी का 'अल्फा' और लातिनी, इतालीय तथा अंग्रेजी का ए (A) इसके समकक्ष हैं। अक्षरों में यह सबसे श्रेष्ठ माना जाता हैं। उपनिषदों में इसकी बडी महिमा लिखी है। तंत्रशास्त्र के अनुसार यह वर्णमाला का पहला अक्षर इसलिये है क्योंकि यह सृष्टि उत्पन्न करने के पहले सृष्टिवर्त की आकुल अवस्था को सूचित करता है। श्रीमद्भग्वद्गीता में कृष्ण स्वयं को अक्षरों में अकार कहते हैं- 'अक्षराणामकारोस्मि'। अ हिंदी वर्णमाला का स्वर वर्ण है उच्चारण की दृष्टि से अ निम्नतर,मध्य,अगोलित,हृस्व स्वर है कुछ स्थितियों में अ का उच्चारण स्थान ह वर्ण से पूर्वभी होता है जैसे कहना में वह में अ का उच्चारण स्थानभी है अ हिंदी में पूर्व प्रत्यय के रूप में भी बहुप्रयुक्त वर्ण है अ पूर्व प्रत्यय के रूप में प्रयुक्त होकर प्रायः मूल शब्द के अर्थ का नकारात्मक अथवा विपरीत अर्थ देता है,जैसे-अप्रिय,अन्याय,अनीति ऊ अन्यत्र मूल शब्द के पूर्ण न होने की स्थिति भी दर्शाता है,जैसे-अदृश्य,अकर्म अ पूर्व प्रत्यय की एक अन्य विशेषता यह भी है कि वह मूल शब्द के भाव के अधिकार को सूचित करता है,जैसे-अघोर अक्स उतारने वाला अक्कास कहलाता है चित्रकार;अक्कास कहलाता है .

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अमृतलाल नागर

हिन्दी साहित्यकार '''अमृतलाल नागर''' अमृतलाल नागर (17 अगस्त, 1916 - 23 फरवरी, 1990) हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे। आपको भारत सरकार द्वारा १९८१ में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। .

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अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन

अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन, हिन्दी भाषा एवं साहित्य तथा देवनागरी का प्रचार-प्रसार को समर्पित एक प्रमुख सार्वजनिक संस्था है। इसका मुख्यालय प्रयाग (इलाहाबाद) में है जिसमें छापाखाना, पुस्तकालय, संग्रहालय एवं प्रशासनिक भवन हैं। हिंदी साहित्य सम्मेलन ने ही सर्वप्रथम हिंदी लेखकों को प्रोत्साहित करने के लिए उनकी रचनाओं पर पुरस्कारों आदि की योजना चलाई। उसके मंगलाप्रसाद पारितोषिक की हिंदी जगत् में पर्याप्त प्रतिष्ठा है। सम्मेलन द्वारा महिला लेखकों के प्रोत्साहन का भी कार्य हुआ। इसके लिए उसने सेकसरिया महिला पारितोषिक चलाया। सम्मेलन के द्वारा हिंदी की अनेक उच्च कोटि की पाठ्य एवं साहित्यिक पुस्तकों, पारिभाषिक शब्दकोशों एवं संदर्भग्रंथों का भी प्रकाशन हुआ है जिनकी संख्या डेढ़-दो सौ के करीब है। सम्मेलन के हिंदी संग्रहालय में हिंदी की हस्तलिखित पांडुलिपियों का भी संग्रह है। इतिहास के विद्वान् मेजर वामनदास वसु की बहुमूल्य पुस्तकों का संग्रह भी सम्मेलन के संग्रहालय में है, जिसमें पाँच हजार के करीब दुर्लभ पुस्तकें संगृहीत हैं। .

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उजियारे कवि

उजियारे कवि एक हिन्दी कवि थे। वे बृंदावननिवासी नवलशाह के पुत्र थे। इनके लिखे दो ग्रंथ मिलते हैं: (१) जुगल-रस-प्रकाश तथा (२) रसचंद्रिका। उक्त दोनों ग्रंथों की हस्तलिखित प्रतियाँ नागरीप्रचारिणी सभा, काशी के याज्ञिक संग्रहालय में सुरक्षित हैं। देखा जाए तो उक्त दोनों ग्रंथ एक ही हैं। दोनों में समान लक्षण उदाहरण दिए गए हैं। कवि ने अपने आश्रयदाताओं, हाथरस के दीवान जुगलकिशोर तथा जयपुर के दौलतराम के नाम पर एक ही ग्रंथ के क्रमश: जुगल-रस-प्रकाश तथा रसचंद्रिका नाम रख दिए हैं। जुगल-रस-प्रकाश की रचनातिथि संवत्.

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