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समाधिराज सूत्र

सूची समाधिराज सूत्र

समाधिराज सूत्र महायान बौद्धों के माध्यमक सम्प्रदाय का अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसकी रचना २सरी शताब्दी में हुई थी। इसका पूरा नाम 'सर्वधर्मस्वभाव समताविपंचित समाधिराज सूत्र' है। इसे 'चन्द्रप्रदीप समाधिसूत्र' भी कहते हैं। ४५० ई में इसका चीनी भाषा में अनुवाद हुआ। इस ग्रंथ के मुख्य पात्र गौतम बुद्ध और चन्द्रप्रभ गृधकूट हैं। इसमें विभिन्न प्रकार की समाधियों का वर्णन है। .

5 संबंधों: चीनी भाषा, महायान, माध्यमक, समाधि, अनुवाद

चीनी भाषा

चीनी भाषा (अंग्रेजी: Chinese; 汉语/漢語, पिनयिन: Hànyǔ; 华语/華語, Huáyǔ; या 中文 हुआ-यू, Zhōngwén श़ोंग-वॅन) चीन देश की मुख्य भाषा और राजभाषा है। यह संसार में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। यह चीन एवं पूर्वी एशिया के कुछ देशों में बोली जाती है। चीनी भाषा चीनी-तिब्बती भाषा-परिवार में आती है और वास्तव में कई भाषाओं और बोलियों का समूह है। मानकीकृत चीनी असल में एक 'मन्दारिन' नामक भाषा है। इसमें एकाक्षरी शब्द या शब्द भाग ही होते हैं और ये चीनी भावचित्र में लिखी जाती है (परम्परागत चीनी लिपि या सरलीकृत चीनी लिपि में)। चीनी एक सुरभेदी भाषा है। .

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महायान

गन्धार से पहली सदी ईसवी में बनी महात्मा बुद्ध की मूर्ति महायान, वर्तमान काल में बौद्ध धर्म की दो प्रमुख शाखाओं में से एक है। दूसरी शाखा का नाम थेरवाद है। महायान बुद्ध धर्म भारत से आरम्भ होकर उत्तर की ओर बहुत से अन्य एशियाई देशों में फैल गया, जैसे कि चीन, जापान, कोरिया, ताइवान, तिब्बत, भूटान, मंगोलिया और सिंगापुर। महायान सम्प्रदाय कि आगे और उपशाखाएँ हैं, जैसे ज़ेन/चान, पवित्र भूमि, तियानताई, निचिरेन, शिन्गोन, तेन्दाई और तिब्बती बौद्ध धर्म।, Stuart Chandler, University of Hawaii Press, 2004, ISBN 978-0-8248-2746-5,...

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माध्यमक

माध्यमक (परम्परागत चीनी में: 中觀派, पिनयिन: Zhōng guān bài; also known as Śunyavada) बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय का उपसम्प्रदाय है। महान बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन ने इसे आगे बढ़ाया। .

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समाधि

ध्यान की उच्च अवस्था को समाधि कहते हैं। हिन्दू, जैन, बौद्ध तथा योगी आदि सभी धर्मों में इसका महत्व बताया गया है। जब साधक ध्येय वस्तु के ध्यान मे पूरी तरह से डूब जाता है और उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं रहता है तो उसे समाधि कहा जाता है। पतंजलि के योगसूत्र में समाधि को आठवाँ (अन्तिम) अवस्था बताया गया है। समाधि ‘‘तदेवार्थमात्रनिर्भीसं स्वरूपशून्यमिव समाधि।।’’68 जब ध्यान में केवल ध्येय मात्र की ही प्रतीति होती है, और चित्त का निज स्वरूप शून्य-सा हो जाता है तब वही (ध्यान ही) समाधि हो जाता है। ध्यान करते-करते जब चित्त ध्येयाकार में परिणत हो जाता है, उसके अपने स्वरूप का अभाव सा हो जाता है, उसको ध्येय से भिन्न उपलब्धि नहीं होती, उस समय उस ध्यान का ही नाम समाधि हो जाता है। समाधि के दो भेद होते हैं- (1) सम्प्रज्ञात समाधि (2) असम्प्रज्ञात समाधि। सम्प्रज्ञात समाधि के चार भेद हैं- (1) वितर्कानुगत (2) विचारानुगत (3) आनन्दानुगत (4) अस्मितानुगत। (1) वितर्कानुगत सम्प्रज्ञात समाधि:- भावना द्वारा ग्राहय रूप किसी स्थूल-विषय विराट्, महाभूत शरीर, स्थलैन्द्रिय आदि किसी वस्तु पर चित्त को स्थिर कर उसके यथार्थ स्वरूप का सम्पूर्ण विषयों सहित जो पहले कभी देखें, सुने एवं अनुमान न किये हो, साक्षात् किया जाये वह वितर्कानुगत समाधि है। वितर्कानुगत समाधि के दो भेद हैं (1) सवितर्कानुगत (2) अवितर्कानुगत। सवितर्कानुगत समाधि शब्द, अर्थ एवं ज्ञान की भावना सहित होती है। अवितर्कानुगत समाधि शब्द, अर्थ एवं ज्ञान की भावना से रहित केवल अर्थमात्र होती है। (2) विचारानुगत सम्प्रज्ञात समाधि:- जिस भावना द्वारा स्थूलभूतों के कारण पंच सूक्ष्मभूत तन्मात्राएं तथा अन्तः करण आदि का सम्पूर्ण विषयों सहित साक्षात्कार किया जाये वह विचारानुगत सम्प्रज्ञात समाधि है। यह समाधि भी दो प्रकार की होती है। (1) सविचार (2) निर्विचार। जब शब्द स्पर्श, रूप रस गंध रूप सूक्ष्म तन्मात्राओं एवं अन्तःकरण रूप सूक्ष्म विषयों का आलम्बन बनाकर देश, काल, धर्म आदि दशाओं के साथ ध्यान होता है, तब वह सविचार सम्प्रज्ञात समाधि कहलाती है। सविचार सम्प्रज्ञात समाधि के ही विषयां में देश-काल, धर्म इत्यादि सम्बन्ध के बिना ही, मात्र धर्मी के, स्वरूप का ज्ञान प्रदान कराने वाली भावना निर्विचार समाधि कही जाती है। (3) आनन्दानुगतय सम्प्रज्ञात समाधि:- विचारानुगत सम्प्रज्ञात समाधि के निरन्तर अभ्यास करते रहने पर सत्वगुण की अधिकता से आनन्द स्वरूप अहंकार की प्रतीति होने लगती है, यही अवस्था आनन्दानुगत सम्प्रज्ञात समाधि कही जाती है। इस समाधि में मात्र आनन्द ही विषय होता है और ‘‘मैं सुखी हुँ’’ ‘‘मैं सुखी हुँ’’ ऐसा अनुभव होता है। इस समय कोई भी विचार अथवा ग्रहय विषय उसका विषय नहीं रहता। इसे ग्रहण समाधि कहते हैं। जो साधक ‘सानन्द समाधि’ को ही सर्वस्व मानकर आगे नहीं बढते, उनका देह से अभ्यास छूट जाता है परन्तु स्वरूपावस्थिति नहीं होती। देह से आत्माभिमान निवृत्त हो जाने के कारण इस अवस्था को प्राप्त हुए योगी ‘विदेह’ कहलाते हैं। (4) अस्मितानुगत सम्प्रज्ञानुगत समाधि:- आनन्दानुगत सम्प्रज्ञात समाधि के अभ्यास के कारण जिस समय अर्न्तमुखी रूप से विषयां से विमुख प्रवृत्ति होने से, बुद्धि का अपने कारण प्रकृति में विलीन होती है वह अस्मितानुगत समाधि है। इन समाधियां आलम्बन रहता है। अतः इन्हें सालम्बन समाधि कहते हैं। इसी अस्मितानुगत समाधि से ही सूक्ष्म होने पर पुरूष एवं चित्त में भिन्नता उत्पन्न कराने वाली वृत्ति उत्पन्न होती है। यह समाधि- अपर वैराग्य द्वारा साध्य है। असम्प्रज्ञात समाधि:- ‘सम्प्रज्ञात समाधि’ की पराकाष्ठा में उत्पन्न विवेकख्याति में भी आत्मस्थिति का निषेध करने वाली ‘परवैराग्यवृत्ति’ नेति-नेति यह स्वरूपावस्थिति नहीं है, के अभ्यास पूर्वक असम्प्रज्ञात समाधि सिद्ध होती है। ‘योग-सूत्र’ में ‘असम्प्रज्ञात समाधि’ का लक्षण इस प्रकार विहित है- ‘‘विरामप्रत्याभ्यासपूर्व: संस्कारशेषोऽन्यः।।’’69 अर्थात् सभी वृत्तियों के निरोध का कारण (पर वैराग्य के अभ्यास पूर्वक, निरोध) संस्कार मात्र शेष सम्प्रज्ञात समाधि से भिन्न असम्प्रज्ञात समाधि है। साधक का जब पर-वैराग्य की प्राप्ति हो जाती है, उस समय स्वभाव से ही चित्त संसार के पदार्थों की ओर नहीं जाता। वह उनसे अपने-आप उपरत हो जाता है उस उपरत-अवस्था की प्रतीति का नाम ही या विराम प्रत्यय है। इस उपरति की प्रतीति का अभ्यास-क्रम भी जब बन्द हो जाता है, उस समय चित्त की वृत्तियों का सर्वधा अभाव हो जाता है। केवल मात्र अन्तिम उपरत-अवस्था के संस्कारों से युक्त चित्त रहता है, फिर निरोध संस्कारों में क्रम की समाप्ति होने से वह चित्त भी अपने कारण में लीन हो जाता है। अतः प्रकृति के संयोग का अभाव हो जाने पर द्रष्टा की अपने स्वयं में स्थिति हो जाती है। इसी सम्प्रज्ञात समाधि या निर्बीज समाधि कहते हैं। इसी अवस्था को कैवल्य-अवस्था के नाम से भी जाना जाता है। श्रेणी:योग.

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अनुवाद

किसी भाषा में कही या लिखी गयी बात का किसी दूसरी भाषा में सार्थक परिवर्तन अनुवाद (Translation) कहलाता है। अनुवाद का कार्य बहुत पुराने समय से होता आया है। संस्कृत में 'अनुवाद' शब्द का उपयोग शिष्य द्वारा गुरु की बात के दुहराए जाने, पुनः कथन, समर्थन के लिए प्रयुक्त कथन, आवृत्ति जैसे कई संदर्भों में किया गया है। संस्कृत के ’वद्‘ धातु से ’अनुवाद‘ शब्द का निर्माण हुआ है। ’वद्‘ का अर्थ है बोलना। ’वद्‘ धातु में 'अ' प्रत्यय जोड़ देने पर भाववाचक संज्ञा में इसका परिवर्तित रूप है 'वाद' जिसका अर्थ है- 'कहने की क्रिया' या 'कही हुई बात'। 'वाद' में 'अनु' उपसर्ग उपसर्ग जोड़कर 'अनुवाद' शब्द बना है, जिसका अर्थ है, प्राप्त कथन को पुनः कहना। इसका प्रयोग पहली बार मोनियर विलियम्स ने अँग्रेजी शब्द टांंसलेशन (translation) के पर्याय के रूप में किया। इसके बाद ही 'अनुवाद' शब्द का प्रयोग एक भाषा में किसी के द्वारा प्रस्तुत की गई सामग्री की दूसरी भाषा में पुनः प्रस्तुति के संदर्भ में किया गया। वास्तव में अनुवाद भाषा के इन्द्रधनुषी रूप की पहचान का समर्थतम मार्ग है। अनुवाद की अनिवार्यता को किसी भाषा की समृद्धि का शोर मचा कर टाला नहीं जा सकता और न अनुवाद की बहुकोणीय उपयोगिता से इन्कार किया जा सकता है। ज्त्।छैस्।ज्प्व्छ के पर्यायस्वरूप ’अनुवाद‘ शब्द का स्वीकृत अर्थ है, एक भाषा की विचार सामग्री को दूसरी भाषा में पहुँचना। अनुवाद के लिए हिंदी में 'उल्था' का प्रचलन भी है।अँग्रेजी में TRANSLATION के साथ ही TRANSCRIPTION का प्रचलन भी है, जिसे हिंदी में 'लिप्यन्तरण' कहा जाता है। अनुवाद और लिप्यंतरण का अंतर इस उदाहरण से स्पष्ट है- इससे स्पष्ट है कि 'अनुवाद' में हिंदी वाक्य को अँग्रेजी में प्रस्तुत किया गया है जबकि लिप्यंतरण में नागरी लिपि में लिखी गयी बात को मात्र रोमन लिपि में रख दिया गया है। अनुवाद के लिए 'भाषांतर' और 'रूपांतर' का प्रयोग भी किया जाता रहा है। लेकिन अब इन दोनों ही शब्दों के नए अर्थ और उपयोग प्रचलित हैं। 'भाषांतर' और 'रूपांतर' का प्रयोग अँग्रेजी के INTERPRETATION शब्द के पर्याय-स्वरूप होता है, जिसका अर्थ है दो व्यक्तियों के बीच भाषिक संपर्क स्थापित करना। कन्नडभाषी व्यक्ति और असमियाभाषी व्यक्ति के बीच की भाषिक दूरी को भाषांतरण के द्वारा ही दूर किया जाता है। 'रूपांतर' शब्द इन दिनों प्रायः किसी एक विधा की रचना की अन्य विधा में प्रस्तुति के लिए प्रयुक्त है। जैस, प्रेमचन्द के उपन्यास 'गोदान' का रूपांतरण 'होरी' नाटक के रूप में किया गया है। किसी भाषा में अभिव्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में यथावत् प्रस्तुत करना अनुवाद है। इस विशेष अर्थ में ही 'अनुवाद' शब्द का अभिप्राय सुनिश्चित है। जिस भाषा से अनुवाद किया जाता है, वह मूलभाषा या स्रोतभाषा है। उससे जिस नई भाषा में अनुवाद करना है, वह 'प्रस्तुत भाषा' या 'लक्ष्य भाषा' है। इस तरह, स्रोत भाषा में प्रस्तुत भाव या विचार को बिना किसी परिवर्तन के लक्ष्यभाषा में प्रस्तुत करना ही अनुवाद है।ज .

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