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संस्कृत कवियों की सूची

सूची संस्कृत कवियों की सूची

यह संस्कृत भाषा के कवियों की सूची हैं। .

41 संबंधों: ठाकुर बिल्वमंगल, दण्डी, देवर्षि रमानाथ शास्त्री, पद्मगुप्त, परमानन्द सेन, बाणभट्ट, बिल्हण, भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, भट्टि, भर्तृहरि, भल्लट, भारतीय कवियों की सूची, भारवि, भवभूति, भीमस्वामी, माघ (कवि), मंखक, रत्नाकर स्वामी, रामभद्राचार्य, लोलिम्बराज, शिवानन्द गोस्वामी, श्रीहर्ष, श्रीकृष्णभट्ट कविकलानिधि, सत्यव्रत शास्त्री, संस्कृत भाषा, सुबन्धु, हरिचन्द्र, जनार्दन गोस्वामी, जल्हण, जगन्नाथ पण्डितराज, वाल्मीकि, विद्याधर शास्त्री, गंगादेवी, गोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री, गोविन्द चन्द्र पाण्डेय, आर्यशूर, कलानाथ शास्त्री, कालिदास, कुंतक, अमरु, अश्वघोष

ठाकुर बिल्वमंगल

ठाकुर विल्वमंगल (८वीं शताब्दी), "लीलाशुक" नामांतर से प्रसिद्ध दाक्षिणात्य ब्राह्मण तथा कृष्णभक्त कवि थे। ये मूलतः केरल निवासी थे। .

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दण्डी

दण्डी संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। इनके जीवन के संबंध में प्रामाणिक सूचनाओं का अभाव है। कुछ विद्वान इन्हें सातवीं शती के उत्तरार्ध या आठवीं शती के प्रारम्भ का मानते हैं तो कुछ विद्वान इनका जन्म 550 और 650 ई० के मध्य मानते हैं। .

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देवर्षि रमानाथ शास्त्री

देवर्षि रमानाथ शास्त्री (1878 – 1943) संस्कृत भाषा के कवि तथा श्रीमद्वल्लभाचार्य द्वारा प्रणीत पुष्टिमार्ग एवं शुद्धाद्वैत दर्शन के विद्वान् थे। उन्होने हिन्दी, ब्रजभाषा तथा संस्कृत में प्रचुर लेखन किया है। वे बाल्यावस्था से ही संस्कृत में कविता करने लग गए थे और उसी दौरान प्रसिद्ध मासिक पत्र ‘संस्कृत रत्नाकर’ में उनकी प्रारंभिक कविता ‘दुःखिनीबाला’ छपी थी। उनका जन्म आन्ध्र से जयपुर आये कृष्णयजुर्वेद की तैत्तरीय शाखा अध्येता वेल्लनाडु ब्राह्मण विद्वानों के देवर्षि परिवार की विद्वत् परम्परा में सन् 1878 (विक्रम संवत् 1936, श्रावण शुक्ल पंचमी) को जयपुर में हुआ। उनके पिता का नाम श्री द्वारकानाथ तथा माता का नाम श्रीमती जानकी देवी था। इनके एकमात्र पुत्र पंडित ब्रजनाथ शास्त्री (1901-1954) थे, जो स्वयं शुद्धाद्वैत के मर्मज्ञ थे। वे संस्कृत के उद्भट विद्वान् व युगपुरुष कविशिरोमणि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के अग्रज थे। .

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पद्मगुप्त

पद्मगुप्त 'नवसाहसांकचरित' नामक महाकाव्य के रचयिता। कीथ के अनुसार इनका समय १००५ ई. के लगभग होना चाहिए। नवसाहसांकचरित ऐतिहासिक काव्य है। इसमें काल्पनिक राजकुमारी शशिप्रभा के प्रणय की कथा स्पष्ट रूप से वर्णित है परंतु यह मालवा के राजा सिंधुराज नवसाहसांक के चरित का भी वर्णन श्लेष के द्वारा उपस्थित करता है। जैसा प्राय: संस्कृत इतिहास काव्यों में देखा जाता है- उनमें प्रामाणिक इतिहास कम, चरितनायक के चरित का अतिरंजित वर्णन अधिक होता है- वैसा ही इस काव्य में भी हुआ है। कवि का उपनाम 'परिमल' था। उद्गाता छंद के उपयोग में इनकी विशेष कुशलता प्राप्त थी। श्रेणी:संस्कृत कवि.

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परमानन्द सेन

परमानंद सेन (कर्णपूर कवि) बंगला कवि तथा वैष्णव सन्त थे। इनका जन्म 1581 में नदिया के काँचनपाड़ा में हुआ। पिता का नाम शिवानंद। श्री गौरांग ने इनका नाम 'कर्णपूर' रखा। इनके गुरु का नाम श्रीनाथ था। इनके पुत्र श्रीचंद्र भी सुकवि थे। इन्होंने 18 वर्ष की अवस्था में "श्री चैतन्यचरित महाकाव्य" 20 सर्गो में प्रस्तुत किया। इसकी भाषा प्रांजल, प्रसादगुणपूर्व तथा अलंकृत है। अन्य रचनाएँ आर्याशतक, श्री चैतन्य चंद्रोदय नाटक (सं. 1629), श्री गौरगणीद्देशदीपिका (सं. 1633), अलंकारकौस्तुभ तथा टीका बृहत् गणोद्देशदीपिका या कृष्णलीलोपदेश दीपिका, आनंदवृंदावन चंपू (22 स्तवकों में कृष्णलीला वर्णित) वर्णप्रकाश कोष तथा चमत्कार चंद्रिका हैं। चंपू भक्ति तथा वात्सल्य रसों से भरा है और इनके पांडित्य तथा प्रसिद्धि की आधारशिला है। श्रेणी:संस्कृत कवि श्रेणी:भक्त कवि श्रेणी:भक्ति आन्दोलन.

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बाणभट्ट

बाणभट्ट सातवीं शताब्दी के संस्कृत गद्य लेखक और कवि थे। वह राजा हर्षवर्धन के आस्थान कवि थे। उनके दो प्रमुख ग्रंथ हैं: हर्षचरितम् तथा कादम्बरी। हर्षचरितम्, राजा हर्षवर्धन का जीवन-चरित्र था और कादंबरी दुनिया का पहला उपन्यास था। कादंबरी पूर्ण होने से पहले ही बाणभट्ट जी का देहांत हो गया तो उपन्यास पूरा करने का काम उनके पुत्र भूषणभट्ट ने अपने हाथ में लिया। दोनों ग्रंथ संस्कृत साहित्य के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माने जाते है। .

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बिल्हण

बिल्हण, ग्यारहवीं शताब्दी के कश्मीर के प्रसिद्ध कवि थे जिनकी रचना.

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भट्ट मथुरानाथ शास्त्री

कवि शिरोमणि भट्ट श्री मथुरानाथ शास्त्री कविशिरोमणि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री (23 मार्च 1889 - 4 जून 1964) बीसवीं सदी पूर्वार्द्ध के प्रख्यात संस्कृत कवि, मूर्धन्य विद्वान, संस्कृत सौन्दर्यशास्त्र के प्रतिपादक और युगपुरुष थे। उनका जन्म 23 मार्च 1889 (विक्रम संवत 1946 की आषाढ़ कृष्ण सप्तमी) को आंध्र के कृष्णयजुर्वेद की तैत्तरीय शाखा अनुयायी वेल्लनाडु ब्राह्मण विद्वानों के प्रसिद्ध देवर्षि परिवार में हुआ, जिन्हें सवाई जयसिंह द्वितीय ने ‘गुलाबी नगर’ जयपुर शहर की स्थापना के समय यहीं बसने के लिए आमंत्रित किया था। आपके पिता का नाम देवर्षि द्वारकानाथ, माता का नाम जानकी देवी, अग्रज का नाम देवर्षि रमानाथ शास्त्री और पितामह का नाम देवर्षि लक्ष्मीनाथ था। श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि, द्वारकानाथ भट्ट, जगदीश भट्ट, वासुदेव भट्ट, मण्डन भट्ट आदि प्रकाण्ड विद्वानों की इसी वंश परम्परा में भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने अपने विपुल साहित्य सर्जन की आभा से संस्कृत जगत् को प्रकाशमान किया। हिन्दी में जिस तरह भारतेन्दु हरिश्चंद्र युग, जयशंकर प्रसाद युग और महावीर प्रसाद द्विवेदी युग हैं, आधुनिक संस्कृत साहित्य के विकास के भी तीन युग - अप्पा शास्त्री राशिवडेकर युग (1890-1930), भट्ट मथुरानाथ शास्त्री युग (1930-1960) और वेंकट राघवन युग (1960-1980) माने जाते हैं। उनके द्वारा प्रणीत साहित्य एवं रचनात्मक संस्कृत लेखन इतना विपुल है कि इसका समुचित आकलन भी नहीं हो पाया है। अनुमानतः यह एक लाख पृष्ठों से भी अधिक है। राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली जैसे कई संस्थानों द्वारा उनके ग्रंथों का पुनः प्रकाशन किया गया है तथा कई अनुपलब्ध ग्रंथों का पुनर्मुद्रण भी हुआ है। भट्ट मथुरानाथ शास्त्री का देहावसान 75 वर्ष की आयु में हृदयाघात के कारण 4 जून 1964 को जयपुर में हुआ। .

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भट्टि

भट्टि संस्कृत के प्रसिद्द कवि थे। वे संस्कृत साहित्य के प्रमुख महाकाव्यकारों में से एक हैं जिनकी प्रसिद्द रचना रावणवधम् है जो वर्तमान में भट्टिकाव्य के नाम से अधिक जानी जाती है। भट्टि का काल कम से कम ६४१ ई॰ से पूर्व है क्योंकि उनकी रचना में आये वर्णन के अनुसार उन्होंने श्रीधरसेन द्वारा शासित वलभी में रहकर इसकी रचना की थी और इस नाम के आखिरी शासक का प्रमाण ६२१ ई॰पू॰ ही मान्य है। .

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भर्तृहरि

भर्तृहरि एक महान संस्कृत कवि थे। संस्कृत साहित्य के इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके शतकत्रय (नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक) की उपदेशात्मक कहानियाँ भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं। प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था इसलिये इनका एक लोकप्रचलित नाम बाबा भरथरी भी है। .

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भल्लट

भल्लट संस्कृत कवि थे। इनकी लिखी एक ही रचना प्राप्त होती है जिसका नाम 'भल्लट शतक' है। इसका प्रकाशन काव्यमाला सिरीज़ के 'काव्यगुच्छ' संख्या दो में हुआ है। मुक्तक पद्यों के इस संग्रह में अन्य अलंकारों की स्थिति होते हुए भी अन्योक्ति की बहुलता है और इस प्रकार की सरस एवं अनूठी अन्योक्तियाँ जिनमें सरसता एवं सरलता के साथ उपदेश या शिक्षा का भी सुंदर पुटपाक हो, संस्कृत साहित्य के विशाल भंडार में भी कम ही प्राप्त होती हैं। अलंकार शास्त्र के प्रथित आचार्यो ने, जिनमें आनंदवर्धन, अभिनवगुप्त, क्षेमेंद्र, मम्मट आदि हैं इनके पद्यों को उत्तम काव्य के दृष्टांत रूप में बार बार उपस्थित किया है। अपनी कृतियों के माध्यम से विश्व को आह्‌लादित एंव अनुरंजित करनेवाले संस्कृत साहित्य के प्रमुख कवियों की गणना करते हुए इन्हें 'श्रुतिमुकुटधर' कहा गया है। भल्लट कश्मीर के निवासी थे। इनके संबंध में कुछ ऐसा विवरण प्राप्त नहीं होता जिससे इनके निवास, गुरु एवं पितृपरंपरा तथा राज्याश्रय आदि के संबंध में कुछ जाना जा सके। भल्लट का उल्लेख करनेवालों में आनंदवर्धनाचार्य सबसे पूर्ववर्ती हैं, जिनका समय कश्मीर नरेश अवंतिवर्मा का काल अर्थात्‌ नवीं शताब्दी का मध्य भाग माना जाता है। अत: इस आधार पर भल्लट का समय आठवीं शती का उत्तरार्ध अनुमित है। .

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भारतीय कवियों की सूची

इस सूची में उन कवियों के नाम सम्मिलित किये गये हैं जो.

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भारवि

भारवि (छठी शताब्दी) संस्कृत के महान कवि हैं। वे अर्थ की गौरवता के लिये प्रसिद्ध हैं ("भारवेरर्थगौरवं")। किरातार्जुनीयम् महाकाव्य उनकी महान रचना है। इसे एक उत्कृष्ट श्रेणी की काव्यरचना माना जाता है। इनका काल छठी-सातवीं शताब्दि बताया जाता है। यह काव्य किरातरूपधारी शिव एवं पांडुपुत्र अर्जुन के बीच के धनुर्युद्ध तथा वाद-वार्तालाप पर केंद्रित है। महाभारत के एक पर्व पर आधारित इस महाकाव्य में अट्ठारह सर्ग हैं। भारवि सम्भवतः दक्षिण भारत के कहीं जन्मे थे। उनका रचनाकाल पश्चिमी गंग राजवंश के राजा दुर्विनीत तथा पल्लव राजवंश के राजा सिंहविष्णु के शासनकाल के समय का है। कवि ने बड़े से बड़े अर्थ को थोड़े से शब्दों में प्रकट कर अपनी काव्य-कुशलता का परिचय दिया है। कोमल भावों का प्रदर्शन भी कुशलतापूर्वक किया गया है। इसकी भाषा उदात्त एवं हृदय भावों को प्रकट करने वाली है। प्रकृति के दृश्यों का वर्णन भी अत्यन्त मनोहारी है। भारवि ने केवल एक अक्षर ‘न’ वाला श्लोक लिखकर अपनी काव्य चातुरी का परिचय दिया है। .

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भवभूति

भवभूति, संस्कृत के महान कवि एवं सर्वश्रेष्ठ नाटककार थे। उनके नाटक, कालिदास के नाटकों के समतुल्य माने जाते हैं। भवभूति ने अपने संबंध में महावीरचरित्‌ की प्रस्तावना में लिखा है। ये विदर्भ देश के 'पद्मपुर' नामक स्थान के निवासी श्री भट्टगोपाल के पुत्र थे। इनके पिता का नाम नीलकंठ और माता का नाम जतुकर्णी था। इन्होंने अपना उल्लेख 'भट्टश्रीकंठ पछलांछनी भवभूतिर्नाम' से किया है। इनके गुरु का नाम 'ज्ञाननिधि' था। मालतीमाधव की पुरातन प्रति में प्राप्त 'भट्ट श्री कुमारिल शिष्येण विरचित मिंद प्रकरणम्‌' तथा 'भट्ट श्री कुमारिल प्रसादात्प्राप्त वाग्वैभवस्य उम्बेकाचार्यस्येयं कृति' इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि श्रीकंठ के गुरु कुमारिल थे जिनका 'ज्ञाननिधि' भी नाम था और भवभूति ही मीमांसक उम्बेकाचार्य थे जिनका उल्लेख दर्शन ग्रंथों में प्राप्त होता है और इन्होंने कुमारिल के श्लोकवार्तिक की टीका भी की थी। संस्कृत साहित्य में महान्‌ दार्शनिक और नाटककार होने के नाते ये अद्वितीय हैं। पांडित्य और विदग्धता का यह अनुपम योग संस्कृत साहित्य में दुर्लभ है। शंकरदिग्विजय से ज्ञात होता है कि उम्बेक, मंडन सुरेश्वर, एक ही व्यक्ति के नाम थे। भवभूति का एक नाम 'उम्बेक' प्राप्त होता है अत: नाटककार भवभूति, मीमांसक उम्बेक और अद्वैतमत में दीक्षित सुरेश्वराचार्य एक ही हैं, ऐसा कुछ विद्वानों का मत है। राजतरंगिणी के उल्लेख से इनका समय एक प्रकार से निश्चित सा है। ये कान्यकुब्ज के नरेश यशोवर्मन के सभापंडित थे, जिन्हें ललितादित्य ने पराजित किया था। 'गउडवहो' के निर्माता वाक्यपतिराज भी उसी दरबार में थे अत: इनका समय आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध सिद्ध होता है। .

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भीमस्वामी

भीमस्वामी संस्कृत कवि थे। छठी शताब्दी ई० के अंतिम चरण में इनकी स्थिति मानी जाती है। इनका 'रावणार्जुनीय काव्य' प्रसिद्ध है। २७ सर्गों वाले इस काव्य में कार्तवीर्य अर्जुन तथा रावण के युद्ध का वर्णन है। भट्टिकाव्य की तरह इस काव्य में भी काव्य के बहाने संस्कृत व्याकरण के नियमों के उदाहरण उपस्थित किए गए हैं जिससे काव्यपक्ष कमजोर हो गया है। श्रेणी:संस्कृत कवि श्रेणी:संस्कृत व्याकरण.

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माघ (कवि)

मारवाड़ के प्राचीनतम महाकवि के रूप में 'शिशुपालवध' के रचियता 'माघ' का जन्म भीन-माल के एक प्रतिष्ठित धनी ब्राह्मण-कुल में हुआ था। वे सर्वश्रेष्ठ संस्कृतमहाकवियों की त्रयी (माघ, भारवि, कालिदास) में अन्यतम हैं। उन्होंने शिशुपाल वध नामक केवल एक ही महाकाव्य लिखा। इस महाकाव्य में श्रीकृष्ण के द्वारा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चेदिनरेश शिशुपाल के वध का सांगोपांग वर्णन है। उपमा, अर्थगौरव तथा पदलालित्य - इन तीन गुणों का सुभग सह-अस्तित्व माघ के कमनीय काव्य में मिलता है, अतः "माघे सन्ति त्रयो गुणा:" उनके बारे में सुप्रसिद्ध है। माघ केवल सरस कवि ही नहीं थे, प्रत्युत एक प्रकाण्ड सर्वशास्त्रतत्त्वज्ञ विद्वान् थे। दर्शनशास्त्र, संगीतशास्त्र तथा व्याकरणशास्त्र में उनकी विद्वत्ता अप्रतिम थी। उनका पाण्डित्य एकांगी नही, प्रत्युत सर्वगामी था। अतएव उन्हें 'पण्डित-कवि' भी कहा गया है। एक और उल्लेखनीय विशेषता यह है कि महाकवि भारवि द्वारा प्रवर्तित अलंकृत शैली का पूर्ण विकसित स्वरुप माघ के महाकाव्य 'शिशुपालवध' में प्राप्त होता है, जिसका प्रभाव बाद के कवियों पर बहुत ही अधिक पड़ा। महाकवि माघ के 'शिशुपालवध' के प्रत्येक पक्ष की विशेषता का साहित्यिक अध्ययन विद्वानों ने किया है, शायद ही कोई पक्ष अछूता रहा है। पं० बलदेव उपाध्याय ने उचित ही कहा है - "अलंकृत महाकाव्य की यह आदर्श कल्पना महाकवि माघ का संस्कृतसाहित्य को अविस्मरणीय योगदान है, जिसका अनुसरण तथा परिबृहण कर हमारा काव्य साहित्य समृद्ध, सम्पन्न तथा सुसंस्कृत हुआ है।" माघ की प्रशंशा में कहा गया है- .

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मंखक

मंखक, संस्कृत के महाकवि थे। कश्मीर में सिंधु और वितस्ता के संगम पर महाराज प्रवरसेन द्वारा प्रवरपुर नामक नगर बसाया गया था। यह नगर वर्तमान श्रीनगर से 125 मील उत्तर पूर्व की ओर है। यहीं महाकवि मंखक का जनम हुआ था। पितामह मन्मथ बड़े शिवभक्त थे। पिता विश्ववर्त भी उसी प्रकार दानी, यशस्वी एवं शिवभक्त थे। वे कश्मीर नरेश सुस्सल के यहाँ राजवैद्य तथा सभाकवि थे। मंखक से बड़े तीन भाई थे श्रृंगार, भृंग तथा लंक या अलंकार। तीनों महाराज सुस्सल के यहाँ उच्च पद पर प्रतिष्ठित थे। मंखक के व्याकरण, साहित्य, वैद्यक, ज्योतिष तथा अन्य लक्षण ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त किया था। आचार्य रुय्यक उनके गुरु थे। गुरु के अलंकारसर्वस्व ग्रंथ पर मंखक ने वृत्ति लिखी थी। .

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रत्नाकर स्वामी

रत्नाकर स्वामी संस्कृत के कवि थे। कश्मीर में अवंतिवर्मा के दरबार में मुक्ताकण, शिवस्वामी और आनंदवर्धन के साथ रत्नाकर का भी नाम लिया जाता है। अवंतिवर्मा का शासनकाल ८५५ से ८८४ ई. माना जाता है अत: इनका भी यही काल होना चाहिए। 'ध्वनि गाथा पंजिका', 'वक्रोक्तिपंजाशिका' तथा ५० सर्गोवाले एक बृहत्, आलंकारिका शैली में लिखे गए 'हरविजय' नामक महाकाव्य के लेखक के रूप में इनकी प्रसिद्धि है। श्रेणी:संस्कृत कवि.

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रामभद्राचार्य

जगद्गुरु रामभद्राचार्य (जगद्गुरुरामभद्राचार्यः) (१९५०–), पूर्वाश्रम नाम गिरिधर मिश्र चित्रकूट (उत्तर प्रदेश, भारत) में रहने वाले एक प्रख्यात विद्वान्, शिक्षाविद्, बहुभाषाविद्, रचनाकार, प्रवचनकार, दार्शनिक और हिन्दू धर्मगुरु हैं। वे रामानन्द सम्प्रदाय के वर्तमान चार जगद्गुरु रामानन्दाचार्यों में से एक हैं और इस पद पर १९८८ ई से प्रतिष्ठित हैं।अग्रवाल २०१०, पृष्ठ ११०८-१११०।दिनकर २००८, पृष्ठ ३२। वे चित्रकूट में स्थित संत तुलसीदास के नाम पर स्थापित तुलसी पीठ नामक धार्मिक और सामाजिक सेवा संस्थान के संस्थापक और अध्यक्ष हैं। वे चित्रकूट स्थित जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय के संस्थापक और आजीवन कुलाधिपति हैं। यह विश्वविद्यालय केवल चतुर्विध विकलांग विद्यार्थियों को स्नातक तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम और डिग्री प्रदान करता है। जगद्गुरु रामभद्राचार्य दो मास की आयु में नेत्र की ज्योति से रहित हो गए थे और तभी से प्रज्ञाचक्षु हैं। अध्ययन या रचना के लिए उन्होंने कभी भी ब्रेल लिपि का प्रयोग नहीं किया है। वे बहुभाषाविद् हैं और २२ भाषाएँ बोलते हैं। वे संस्कृत, हिन्दी, अवधी, मैथिली सहित कई भाषाओं में आशुकवि और रचनाकार हैं। उन्होंने ८० से अधिक पुस्तकों और ग्रंथों की रचना की है, जिनमें चार महाकाव्य (दो संस्कृत और दो हिन्दी में), रामचरितमानस पर हिन्दी टीका, अष्टाध्यायी पर काव्यात्मक संस्कृत टीका और प्रस्थानत्रयी (ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और प्रधान उपनिषदों) पर संस्कृत भाष्य सम्मिलित हैं।दिनकर २००८, पृष्ठ ४०–४३। उन्हें तुलसीदास पर भारत के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों में गिना जाता है, और वे रामचरितमानस की एक प्रामाणिक प्रति के सम्पादक हैं, जिसका प्रकाशन तुलसी पीठ द्वारा किया गया है। स्वामी रामभद्राचार्य रामायण और भागवत के प्रसिद्ध कथाकार हैं – भारत के भिन्न-भिन्न नगरों में और विदेशों में भी नियमित रूप से उनकी कथा आयोजित होती रहती है और कथा के कार्यक्रम संस्कार टीवी, सनातन टीवी इत्यादि चैनलों पर प्रसारित भी होते हैं। २०१५ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया। .

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लोलिम्बराज

लोलिंबराज दक्षिण के हरिहर नामक नरेश की सभा के प्रतिष्ठित कवि एवं विद्वान् थे। आयुर्वेद, गांधर्ववेद, तथा काव्यकला में इन्हें विशिष्ट नैपुण्य प्राप्त हुआ। ये धारा के प्रसिद्ध परमारवंशी नरेश भोज के समकालिक थे। भोज के समकालिक होने के कारण लोलिंबराज का भी समय ईसा की एकादश शताब्दी निश्चित रूप से कहा जा सकता है। इनके पिता का नाम दिवाकर सूनु था। लोलिंबराज के अग्रज नि:संतान थे। उन्होंने इनका पुत्रवत् लालन पालन किया। फलत: यौवनागम तक ये निरक्षर ही रहे। आवारों की भाँति दिन भर इधर उधर घूमते रहते, केवल भोजनवेला में घर पर आते। एक बार जब बड़े भाई वृत्ति उपार्जन के लिए परदेश गए हुए थे, इन्होंने अपनी भाभी के हाथ से झपटकर भोजनपात्र छीन लिया। पतिवियोग से संतप्त भाभी ने लोलिम्ब की इस अविनयपूर्ण अशिष्टता से क्रुद्ध होकर इन्हें दुत्कारा, जिससे लोलिंब के हृदय पर गहरा धक्का लगा। तुरंत सभी विषयों से विमुख हो इन्होंने 'सप्तशृंग' नामक पर्वत पर विराजमान अष्टादश भुजाओंवाली भगवती महिषासुरमर्दिनी, की पूर्ण विश्वास के साथ सेवा की, और स्वल्प समय में ही जगदंबा की प्रसन्नता का वर प्राप्त कर लिया। फलत: एक घड़ी में सौ उत्तम श्लोकों की रचना की सामर्थ्य प्राप्त कर ली। इसका उल्लेख उन्होंने स्वयं इस प्रकार किया है: इनकी अनुपम काव्यप्रतिभा से पूर्ण दो वैद्यक ग्रंथ मिलते हैं, 'वैद्यजीवन' तथा 'वैद्यावतंस' और पाँच सर्गों का एक अतिशय मधुर काव्य 'हरिविलास', जिसमें श्रीकृष्णभगवान् की नंदगृह में स्थिति से कंसवध तक की लीला का वर्णन हुआ है। इस काव्य की रचना लोलिंब ने अपने आश्रयदाता श्री सूर्यपुत्र हरि (या हरिहर) नरेश के अनुरोध से की थी- काव्यकला की दृष्टि से इस काव्य में कोई वैशिष्ट्य नहीं प्रतीत होता है। रीति वैदर्भी तथा कहीं-कहीं यमक एवं अनुप्रास की छटा अवश्य देखने को मिलती है। पूर्ववर्ती कवियों में कालिदास तथा भारवि का प्रभाव अत्यधिक प्रतीत होता है। उदाहरणार्थ, रघुवंश के प्रसिद्ध श्लोक 'कुसुमजन्म ततो नवपल्लवास्तदनु षट्पदकोकिलकूजितम्' की छाया इन पंक्तियों में स्पष्ट दिखाई पड़ती है-'पुष्पाणि प्रथमं तत: प्रकटिता, स्वान्तोत्सवा:पल्लवा:। पश्चादुन्मदकोकिलालिललना कोलाहला: कोमला' आदि। कहीं कहीं कुछ अपाणिनीय प्रयोग भी मिलते हैं, जैसे- 'प्रिय इति पतिनोक्ता सा सुखाब्धौ ममज्ज (ह. वि. ४.२७) में पतिशब्द का, 'पतिना' तृतीयान्त प्रयोग। .

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शिवानन्द गोस्वामी

शिवानन्द गोस्वामी | शिरोमणि भट्ट (अनुमानित काल: संवत् १७१०-१७९७) तंत्र-मंत्र, साहित्य, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, सम्प्रदाय-ज्ञान, वेद-वेदांग, कर्मकांड, धर्मशास्त्र, खगोलशास्त्र-ज्योतिष, होरा शास्त्र, व्याकरण आदि अनेक विषयों के जाने-माने विद्वान थे। इनके पूर्वज मूलतः तेलंगाना के तेलगूभाषी उच्चकुलीन पंचद्रविड़ वेल्लनाडू ब्राह्मण थे, जो उत्तर भारतीय राजा-महाराजाओं के आग्रह और निमंत्रण पर राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के अन्य प्रान्तों में आ कर कुलगुरु, राजगुरु, धर्मपीठ निर्देशक, आदि पदों पर आसीन हुए| शिवानन्द गोस्वामी त्रिपुर-सुन्दरी के अनन्य साधक और शक्ति-उपासक थे। एक चमत्कारिक मान्त्रिक और तांत्रिक के रूप में उनकी साधना और सिद्धियों की अनेक घटनाएँ उल्लेखनीय हैं। श्रीमद्भागवत के बाद सबसे विपुल ग्रन्थ सिंह-सिद्धांत-सिन्धु लिखने का श्रेय शिवानंद गोस्वामी को है।" .

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श्रीहर्ष

श्रीहर्ष 12वीं सदी के संस्कृत के प्रसिद्ध कवि। वे बनारस एवं कन्नौज के गहड़वाल शासकों - विजयचन्द्र एवं जयचन्द्र की राजसभा को सुशोभित करते थे। उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की, जिनमें ‘नैषधीयचरित्’ महाकाव्य उनकी कीर्ति का स्थायी स्मारक है। नैषधचरित में निषध देश के शासक नल तथा विदर्भ के शासक भीम की कन्या दमयन्ती के प्रणय सम्बन्धों तथा अन्ततोगत्वा उनके विवाह की कथा का काव्यात्मक वर्णन मिलता है। .

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श्रीकृष्णभट्ट कविकलानिधि

(देवर्षि) श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि (1675-1761) सवाई जयसिंह के समकालीन, बूंदी और जयपुर के राजदरबारों से सम्मानित, आन्ध्र-तैलंग-भट्ट, संस्कृत और ब्रजभाषा के महाकवि थे। "सवाई जयसिंह द्वितीय (03 नवम्बर 1688 - 21 सितम्बर 1743) ने अपने समय में जिन विद्वत्परिवारों को बाहर से ला कर अपने राज्य में जागीर तथा संरक्षण दिया उनमें आन्ध्र प्रदेश से आया यह तैलंग ब्राह्मण परिवार प्रमुख स्थान रखता है। इस परिवार में में ही उत्पन्न हुए थे (देवर्षि) कविकलानिधि श्रीकृष्णभट्ट जी, जिन्होंने 'ईश्वर विलास', 'पद्यमुक्तावली', 'राघव गीत' आदि अनेक ग्रंथों की रचना कर राज्य का गौरव बढ़ाया। इन्होंने सवाई जयसिंह से सम्मान प्राप्त किया था, (उनके द्वारा जयपुर में आयोजित) अश्वमेध यज्ञ में भाग लिया था, जयपुर को बसते हुए देखा था और उसका एक ऐतिहासिक महाकाव्य में वर्णन किया था। देवर्षि-कुल के इस प्रकांड विद्वान ने अपनी प्रतिभा के बल पर अपने जीवन-काल में पर्याप्त प्रसिद्धि, समृद्धि एवं सम्मान प्राप्त किया था।" भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने अपने इन पूर्वज कविकलानिधि का सोरठा छंद में निबद्ध संस्कृत-कविता में इन शब्दों में स्मरण किया था- तुलसी-सूर-विहारि-कृष्णभट्ट-भारवि-मुखाः। भाषाकविताकारि-कवयः कस्य न सम्भता:।। .

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सत्यव्रत शास्त्री

सत्यव्रत शास्त्री सत्यव्रत शास्त्री (जन्म:१९३०) संस्कृत भाषा के विद्वान एवं महत्वपूर्ण मनीषी रचनाकार हैं। वे तीन महाकाव्यों के रचनाकार हैं, जिनमें से प्रत्येक में लगभग एक हजार श्लोक हैं। वृहत्तमभारतम्, श्री बोधिसत्वचरितम् और वैदिक व्याकरण उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। वर्ष २००७ में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। डॉ॰ सत्यव्रत शास्त्री पंजाब विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से 'भर्तृहरि कृत वाक्यपदीय में दिक्काल मीमांसा' विषय पर पीएच.डी.

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संस्कृत भाषा

संस्कृत (संस्कृतम्) भारतीय उपमहाद्वीप की एक शास्त्रीय भाषा है। इसे देववाणी अथवा सुरभारती भी कहा जाता है। यह विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है। संस्कृत एक हिंद-आर्य भाषा हैं जो हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार का एक शाखा हैं। आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसे, हिंदी, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, नेपाली, आदि इसी से उत्पन्न हुई हैं। इन सभी भाषाओं में यूरोपीय बंजारों की रोमानी भाषा भी शामिल है। संस्कृत में वैदिक धर्म से संबंधित लगभग सभी धर्मग्रंथ लिखे गये हैं। बौद्ध धर्म (विशेषकर महायान) तथा जैन मत के भी कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ संस्कृत में लिखे गये हैं। आज भी हिंदू धर्म के अधिकतर यज्ञ और पूजा संस्कृत में ही होती हैं। .

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सुबन्धु

सुबन्धु संस्कृत भाषा के एक कवि थे। ये वासवदत्ता नामक गद्यकाव्य के रचयिता हैं। .

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हरिचन्द्र

हरिचंद्र (हरिश्चंद्र?) दिगंबर जैन संप्रदाय के कवि थे। इन्होंने माघ की शैली पर धर्मशर्माभ्युदय नामक इक्कीस सर्गों का महाकाव्य रचा, जिसमें पंद्रहवें तीर्थंकर धर्मनाथ का चरित वर्णित है। ये महाकवि बाण द्वारा उद्धृत गद्यकार भट्टार हरिचंद्र से भिन्न थे, क्योंकि कि ये महाकाव्यकार थे, गद्यकाव्यकार थे, गद्यकार नहीं। हरिचंद्र का समय ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी माना जाता है। .

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जनार्दन गोस्वामी

जनार्दन गोस्वामी संस्कृत में कई ग्रंथों के लेखक और महापुरा की आमेर महाराजा बिशनसिंह द्वारा प्रदत्त जागीर के निवासी शिवानन्द गोस्वामी के अनुज और तैलंग ब्राह्मणों के आत्रेय गोत्र में १७ वीं सदी में जन्मे कृष्ण-यजुर्वेद के तैत्तरीय आपस्तम्ब में मूलपुरुष श्रीव्येंकटेश अनंम्मा के वंशज थे- जिनकी छठी पीढ़ी में जगन्निवासजी (प्रथम) के परिवार में जिनका जन्म शिवानन्द गोस्वामी के बाद हुआ। .

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जल्हण

जल्हण संस्कृत के एक प्रख्यात कश्मीरी कवि। इनके पिता का नाम लक्ष्मीदेव था। ये राजपुरी के कृष्ण नामक राजा के मंत्री थे जिसने सन्‌ 1147 ई. में राज्य प्राप्त किया था। इनकी अनेक रचनाएँ प्राप्त हैं। ऐतिहासिक काव्य लिखनेवालों में इनका नाम राजतरंगिणीकार कल्हण के बाद आता है। 'श्रीकंठचरित' महाकाव्य के रचयिता मंख या मंखक के कथानुसार जल्हण उसके भाई अलंकार की विद्वत्सभा के पंडित थे। अलंकार कश्मीर नरेश जयसिंह के मंत्री थे जिनका समय ई. 1129-1150 है। .

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जगन्नाथ पण्डितराज

जगन्नाथ पण्डितराज (जन्म: १६वीं शती के अन्तिम चरण में -- मृत्यु: १७वीं शदी के तृतीय चरण में), उच्च कोटि के कवि, समालोचक, साहित्यशास्त्रकार तथा वैयाकरण थे। कवि के रूप में उनका स्थान उच्च काटि के उत्कृष्ट कवियों में कालिदास के अनंतर - कुछ विद्वान् रखते हैं। "रसगंगाधर"कार के रूप में उनके साहित्यशास्त्रीय पांडित्य और उक्त ग्रंथ का पंडितमंडली में बड़ा आदर है। .

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वाल्मीकि

महर्षि वाल्मीक (संस्कृत: महर्षि वाल्मीक) प्राचीन भारतीय महर्षि हैं। ये आदिकवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होने संस्कृत में रामायण की रचना की। उनके द्वारा रची रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाई। रामायण एक महाकाव्य है जो कि श्रीराम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य से, कर्तव्य से, परिचित करवाता है।http://timesofindia.indiatimes.com/india/Maharishi-Valmeki-was-never-a-dacoit-Punjab-Haryana-HC/articleshow/5960417.cms आदिकवि शब्द 'आदि' और 'कवि' के मेल से बना है। 'आदि' का अर्थ होता है 'प्रथम' और 'कवि' का अर्थ होता है 'काव्य का रचयिता'। वाल्मीकि ऋषि ने संस्कृत के प्रथम महाकाव्य की रचना की थी जो रामायण के नाम से प्रसिद्ध है। प्रथम संस्कृत महाकाव्य की रचना करने के कारण वाल्मीकि आदिकवि कहलाये। वाल्मीकि एक आदि कवि थे पर उनकी विशेषता यह थी कि वे कोई ब्राह्मण नहीं थे, बल्कि केवट थे।। .

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विद्याधर शास्त्री

विद्याधर शास्त्री (१९०१-१९८३) संस्कृत कवि और संस्कृत तथा हिन्दी भाषाओं के विद्वान थे। आपका जन्म राजस्थान के चूरु शहर में हुआ था। पंजाब विश्वविद्यालय (लाहौर) से शास्त्री की परीक्षा आपने सोलह वर्ष की आयु में उत्तीर्ण की थी। आगरा विश्वविद्यालय (वर्तमान डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय) से आपने संस्कृत कलाधिस्नातक परीक्षा में सफलता प्राप्त की। शिक्षण कार्य और अकादमिक प्रयासों के दौरान आपने बीकानेर शहर में जीवन व्यतीत किया। १९६२ में भारत के राष्ट्रपति द्वारा विद्यावाचस्पति की उपाधि से आपको सम्मानित किया गया था। .

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गंगादेवी

गंगादेवी (या गंगाम्बिका) चौदहवीं शती ई. की एक प्रख्यात कवयित्री एवं राजकुमारी थीं। वे विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक बुक्क की पुत्रवधू और कृष्ण की पट्टमहिषी थीं। उन्होंने संस्कृत में 'मधुराविजयम्' नामक एक काव्य की रचना की थी। इसमें उन्होंने अपने पति वीरकंपराय के पराक्रम का वर्णन किया है। किंतु वह मात्र यशोगान नहीं है। काव्य की दृष्टि से भी उसका महत्व है। यह काव्य अपने पूर्ण रूप में उपलब्ध नहीं है। उसके केवल आठ सर्ग ही मिले हैं। इस काव्य को 'वीरकंपरायचरितम्' भी कहते हैं। श्रेणी:संस्कृत कवि.

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गोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री

सन 1904 ईस्वी में महापुरा (जयपुर) में जन्मे गोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री साहित्य, न्याय-शास्त्र और वेदांत दर्शन के जाने माने अध्येता विद्वान, तंत्र-विद्या के ज्ञाता, संस्कृत गद्य और पद्य के जाने-माने लेखक और आशुकवि थे। इनके पिता का नाम गोपीकृष्ण गोस्वामी और माता का नाम ऐनादेवी था। इनका विवाह मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ में ओरछा राजगुरुओं के परिवार में हुआ। कवि शिरोमणि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के साले गोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री तैलंग ब्राह्मणों के आत्रेय गोत्र में कृष्ण-यजुर्वेद के तैत्तरीय आपस्तम्ब में मूलपुरुष श्रीव्येंकटेश अणणम्मा और शिवानन्द गोस्वामी के वंशज थे। .

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गोविन्द चन्द्र पाण्डेय

डॉ॰ गोविन्द चन्द्र पाण्डेय (30 जुलाई 1923 - 21 मई 2011) संस्कृत, लेटिन और हिब्रू आदि अनेक भाषाओँ के असाधारण विद्वान, कई पुस्तकों के यशस्वी लेखक, हिन्दी कवि, हिन्दुस्तानी अकादमी इलाहबाद के सदस्य राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति और सन २०१० में पद्मश्री सम्मान प्राप्त, बीसवीं सदी के जाने-माने चिन्तक, इतिहासवेत्ता, सौन्दर्यशास्त्री और संस्कृतज्ञ थे। .

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आर्यशूर

आर्यशूर संस्कृत के प्रख्यात बौद्ध कवि। साधारणत: ये अश्वघोष से अभिन्न माने जाते हैं, परंतु दोनों की रचनाओं की भिन्नता के कारण आर्यशूर को अवश्घोष से भिन्न तथा पश्चाद्वर्ती मानना ही युक्तिसंगत है। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ 'जातकमाला' की प्रख्याति भारत की अपेक्षा भारत के बाहर बौद्धजगत में कम न थी। इसका चीनी भाषा में अनुवाद १०वीं शताब्दी में किया गया था। ईत्सिंग ने आर्यशूर की कविता की ख्याति का वर्णन अपने यात्राविवरण में किया है (आठवीं शताब्दी)। अजंता की दीवारों पर 'जातकमाला' के शांतिवादी, शिवि, मैत्रीबल आदि जातकों के दृश्यों का अंकन और परिचयात्मक पद्यों का उत्खनन छठी शताब्दी में इसकी प्रसिद्धि का पर्याप्त परिचायक है। अश्वघोष द्वारा प्रभावित होने के कारण आर्यशूर का समय द्वितीय शताब्दी के अनंतर तथा पांचवीं शताब्दी से पूर्व मानना न्यायसंगत होगा। इनका मुख्य ग्रंथ 'जातकमाला' चंपूशैली में निर्मित है। इसमें संस्कृत के गद्य पद्य का मनोरम मिश्रण है। ३४ जातकों का सुंदर काव्यशैली तथा भव्य भाषा में वर्णन हुआ है। इसकी दो टीकाएँ संस्कृत में अनुपलब्ध होने पर भी तिब्बती अनुवाद में सुरक्षित हैं। आर्यशूर की दूसरी काव्यरचना 'पारमितासमास' है जिसमें छहों पारमिताओं (दान, शील, क्षांति, वीर्य, ध्यान तथा प्रज्ञा पारमिताओं) का वर्णन छह सर्गों तथा ३,६४१ श्लोकों में सरल सुबोध शैली में किया गया है। दोनों काव्यों का उद्देश्य अश्वघोषीय काव्यकृतियों के समान ही रूखे मनवाले पाठकों को प्रसन्न कर बौद्ध धर्म के उपदेशों का विपुल प्रचार और प्रसार है (रूक्ष-मानसामपि प्रसाद)। कवि ने अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए बोलचाल की व्यावहारिक संस्कृत का प्रयोग किया है और उसे अलंकार के व्यर्थ आडंबर से प्रयत्नपूर्वक बचाया है। पद्यभाग के समान गद्यभाग भी सुश्लिष्ट तथा सुंदर है। श्रेणी:संस्कृत कवि श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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कलानाथ शास्त्री

कलानाथ शास्त्री (जन्म: 15 जुलाई 1936) संस्कृत के जाने माने विद्वान,भाषाविद्, एवं बहुप्रकाशित लेखक हैं। आप राष्ट्रपति द्वारा वैदुष्य के लिए अलंकृत, केन्द्रीय साहित्य अकादमी, संस्कृत अकादमी आदि से पुरस्कृत, अनेक उपाधियों से सम्मानित व कई भाषाओँ में ग्रंथों के रचयिता हैं। वे विश्वविख्यात साहित्यकार तथा संस्कृत के युगांतरकारी कवि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के ज्येष्ठ पुत्र हैं। .

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कालिदास

कालिदास संस्कृत भाषा के महान कवि और नाटककार थे। उन्होंने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएं की और उनकी रचनाओं में भारतीय जीवन और दर्शन के विविध रूप और मूल तत्व निरूपित हैं। कालिदास अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण राष्ट्र की समग्र राष्ट्रीय चेतना को स्वर देने वाले कवि माने जाते हैं और कुछ विद्वान उन्हें राष्ट्रीय कवि का स्थान तक देते हैं। अभिज्ञानशाकुंतलम् कालिदास की सबसे प्रसिद्ध रचना है। यह नाटक कुछ उन भारतीय साहित्यिक कृतियों में से है जिनका सबसे पहले यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद हुआ था। यह पूरे विश्व साहित्य में अग्रगण्य रचना मानी जाती है। मेघदूतम् कालिदास की सर्वश्रेष्ठ रचना है जिसमें कवि की कल्पनाशक्ति और अभिव्यंजनावादभावाभिव्यन्जना शक्ति अपने सर्वोत्कृष्ट स्तर पर है और प्रकृति के मानवीकरण का अद्भुत रखंडकाव्ये से खंडकाव्य में दिखता है। कालिदास वैदर्भी रीति के कवि हैं और तदनुरूप वे अपनी अलंकार युक्त किन्तु सरल और मधुर भाषा के लिये विशेष रूप से जाने जाते हैं। उनके प्रकृति वर्णन अद्वितीय हैं और विशेष रूप से अपनी उपमाओं के लिये जाने जाते हैं। साहित्य में औदार्य गुण के प्रति कालिदास का विशेष प्रेम है और उन्होंने अपने शृंगार रस प्रधान साहित्य में भी आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का समुचित ध्यान रखा है। कालिदास के परवर्ती कवि बाणभट्ट ने उनकी सूक्तियों की विशेष रूप से प्रशंसा की है। thumb .

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कुंतक

कुंतक, अलंकारशास्त्र के एक मौलिक विचारक विद्वान् थे। ये अभिधावादी आचार्य थे जिनकी दृष्टि में अभिधा शक्ति ही कवि के अभीष्ट अर्थ के द्योतन के लिए सर्वथा समर्थ होती है। इनका काल निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हैं। किंतु विभिन्न अलंकार ग्रंथों के अंत:साक्ष्य के आधार पर समझा जाता है कि ये दसवीं शती ई. के आसपास हुए होंगे। कुन्तक अभिधा की सर्वातिशायिनी सत्ता स्वीकार करने वाले आचार्य थे। परंतु यह अभिधा संकीर्ण आद्या शब्दवृत्ति नहीं है। अभिधा के व्यापक क्षेत्र के भीतर लक्षणा और व्यंजना का भी अंतर्भाव पूर्ण रूप से हो जाता है। वाचक शब्द द्योतक तथा व्यंजक उभय प्रकार के शब्दों का उपलक्षण है। दोनों में समान धर्म अर्थप्रतीतिकारिता है। इसी प्रकार प्रत्येयत्व (ज्ञेयत्व) धर्म के सादृश्य से द्योत्य और व्यंग्य अर्थ भी उपचारदृष्ट्या वाच्य कहे जा सकते हैं। उनकी एकमात्र रचना वक्रोक्तिजीवित है जो अधूरी ही उपलब्ध हैं। वक्रोक्ति को वे काव्य का 'जीवित' (जीवन, प्राण) मानते हैं। वक्रोक्तिजीवित में वक्रोक्ति को ही काव्य की आत्मा माना गया है जिसका और आचार्यों ने खंडन किया है। पूरे ग्रंथ में वक्रोक्ति के स्वरूप तथा प्रकार का बड़ा ही प्रौढ़ तथा पांडित्यपूर्ण विवेचन है। वक्रोक्ति का अर्थ है वदैग्ध्यभंगीभणिति (सर्वसाधारण द्वारा प्रयुक्त वाक्य से विलक्षण कथनप्रकार) कविकर्म की कुशलता का नाम है वैदग्ध्य या विदग्धता। भंगी का अर्थ है - विच्छित, चमत्कार या चारुता। भणिति से तात्पर्य है - कथन प्रकार। इस प्रकार वक्रोक्ति का अभिप्राय है कविकर्म की कुशलता से उत्पन्न होनेवाले चमत्कार के ऊपर आश्रित रहनेवाला कथनप्रकार। कुंतक का सर्वाधिक आग्रह कविकौशल या कविव्यापार पर है अर्थात् इनकी दृष्टि में काव्य कवि के प्रतिभाव्यापार का सद्य:प्रसूत फल हैं। .

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अमरु

अमरु (या अमरूक) संस्कृत के महान कवियों में से एक हैं। इनकी रचना अमरूशतक प्रसिद्ध है। इनका कोई अन्य काव्य उपलब्ध नहीं है और केवल इस एक ही सौ पद्यों के काव्य से ये सहृदयों के बीच प्रसिद्ध हुए हैं। सुभाषितावलि के विश्वप्रख्यातनाडिंधमकुलतिलको विश्वकर्मा द्वितीयः पद्य से पता चलता है कि ये सुवर्णकार थे। तथापि इनके माता-पिता कौन थे यह उल्लेख नहीं मिलता। .

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अश्वघोष

अश्वघोष, बौद्ध महाकवि तथा दार्शनिक थे। बुद्धचरितम्''' इनकी प्रसिद्ध रचना है। कुषाणनरेश कनिष्क के समकालीन महाकवि अश्वघोष का समय ईसवी प्रथम शताब्दी का अंत और द्वितीय का आरंभ है। .

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