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श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर

सूची श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर

श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति इन्दौर, हिन्दी के प्रचार, प्रसार और विकास के लिये कार्यरत देश की प्राचीनतम सन्स्थाओ में से एक है। समिति की स्थापना सन् १९१० में महात्मा गांधी की प्रेरणा से हुई थी। सन १९१८ में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने समिति के इन्दौर स्थित परिसर से ही सबसे पहले हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आव्हान किया था। यहाँ हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन के दौरान ही पूज्य बापु ने अहिन्दी भाषी प्रदेशो में हिन्दी के प्रचार के लिये अपने पुत्र देवदत्त गांधी सहित पान्च लोगो को हिन्दी दूत बनाकर तत्कालीन मद्रास प्रान्त में भेजा था। इसी अधिवेशन में तत्कालीन मद्रास प्रान्त में "हिन्दी प्रचार सभा" की स्थापना का संकल्प लेकर इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु धन संग्रह किया गया था। वर्धा स्थित राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना में भी हिन्दी साहित्य समिति की ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। इस तरह देश के अहिन्दी भाषी राज्यो में हिन्दी के प्रचार के पहले प्रयास में श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति की भूमिका अत्यन्त उल्लेखनीय और प्रभावशाली रही है। सन १९३५ में समिति में पुनः हिन्दी साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया गया था। इस अधिवेशन की अध्यक्षता भी गांधीजी ने की। समिति द्वारा प्रकाशित मासिक पत्रिका "वीणा" देश की एकमात्र पत्रिका है जो सन १९२७ से निरन्तर प्रकाशित हो रही है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हजारीलाल द्विवेदी, 'निराला','दिनकर' सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा, प्रेमचन्द, जयशन्कर प्रसाद, व्रन्दावन लाल वर्मा, अम्रतलाल नागर तथा माखनलाल चतुर्वेदी सहित देश के लगभग सभी शीर्षस्थ लेखक, कवि, निबन्धकार, कहानीकार और आलोचक नियमित रूप से "वीणा" में लिखते रहे हैं। यही कारण है कि विख्यात कवियत्री महादेवी वर्मा अक्सर ये कहा करती थी कि "हिन्दी भाषा और साहित्य का इतिहास समिति और वीणा के जिक्र के बिना सदैव अपूर्ण रहेगा".

8 संबंधों: महात्मा गांधी, रामधारी सिंह 'दिनकर', राष्ट्रभाषा, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा, वर्धा, विनोबा भावे, वीणा (पत्रिका), इन्दौर

महात्मा गांधी

मोहनदास करमचन्द गांधी (२ अक्टूबर १८६९ - ३० जनवरी १९४८) भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। वे सत्याग्रह (व्यापक सविनय अवज्ञा) के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार के अग्रणी नेता थे, उनकी इस अवधारणा की नींव सम्पूर्ण अहिंसा के सिद्धान्त पर रखी गयी थी जिसने भारत को आजादी दिलाकर पूरी दुनिया में जनता के नागरिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता के प्रति आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। उन्हें दुनिया में आम जनता महात्मा गांधी के नाम से जानती है। संस्कृत भाषा में महात्मा अथवा महान आत्मा एक सम्मान सूचक शब्द है। गांधी को महात्मा के नाम से सबसे पहले १९१५ में राजवैद्य जीवराम कालिदास ने संबोधित किया था।। उन्हें बापू (गुजराती भाषा में બાપુ बापू यानी पिता) के नाम से भी याद किया जाता है। सुभाष चन्द्र बोस ने ६ जुलाई १९४४ को रंगून रेडियो से गांधी जी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित करते हुए आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिकों के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं थीं। प्रति वर्ष २ अक्टूबर को उनका जन्म दिन भारत में गांधी जयंती के रूप में और पूरे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के नाम से मनाया जाता है। सबसे पहले गान्धी ने प्रवासी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष हेतु सत्याग्रह करना शुरू किया। १९१५ में उनकी भारत वापसी हुई। उसके बाद उन्होंने यहाँ के किसानों, मजदूरों और शहरी श्रमिकों को अत्यधिक भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट किया। १९२१ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने देशभर में गरीबी से राहत दिलाने, महिलाओं के अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण व आत्मनिर्भरता के लिये अस्पृश्‍यता के विरोध में अनेकों कार्यक्रम चलाये। इन सबमें विदेशी राज से मुक्ति दिलाने वाला स्वराज की प्राप्ति वाला कार्यक्रम ही प्रमुख था। गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों पर लगाये गये नमक कर के विरोध में १९३० में नमक सत्याग्रह और इसके बाद १९४२ में अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन से खासी प्रसिद्धि प्राप्त की। दक्षिण अफ्रीका और भारत में विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक उन्हें जेल में भी रहना पड़ा। गांधी जी ने सभी परिस्थितियों में अहिंसा और सत्य का पालन किया और सभी को इनका पालन करने के लिये वकालत भी की। उन्होंने साबरमती आश्रम में अपना जीवन गुजारा और परम्परागत भारतीय पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहनी जिसे वे स्वयं चरखे पर सूत कातकर हाथ से बनाते थे। उन्होंने सादा शाकाहारी भोजन खाया और आत्मशुद्धि के लिये लम्बे-लम्बे उपवास रखे। .

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रामधारी सिंह 'दिनकर'

रामधारी सिंह 'दिनकर' (२३ सितंबर १९०८- २४ अप्रैल १९७४) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। बिहार प्रान्त के बेगुसराय जिले का सिमरिया घाट उनकी जन्मस्थली है। उन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। 'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तिय का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है। उर्वशी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार जबकि कुरुक्षेत्र को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ काव्यों में ७४वाँ स्थान दिया गया। .

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राष्ट्रभाषा

राष्ट्रभाषा एक देश की संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा होती है, जिसे सम्पूर्ण राष्ट्र में भाषा कार्यों में (जैसे लिखना, पढ़ना और वार्तालाप) के लिए प्रमुखता से प्रयोग में लाया जाता है। वह भाषा जिसमें राष्ट्र के काम किए जायें। राष्ट्र के काम-धाम या सरकारी कामकाज के लिये स्वीकृत भाषा। .

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राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा

राष्ट्रभाषा एक देश की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा होती है, जिसे सम्पूर्ण राष्ट्र में भाषा कार्यों में (जैसे लिखना, पढ़ना और वार्तालाप) के लिए प्रमुखता से प्रयोग में लाया जाता है। वह भाषा जिसमें राष्ट्र के काम किए जायें। राष्ट्र के काम-धाम या सरकारी कामकाज के लिये स्वीकृत भाषा। राष्ट्रभाषा के मामले को, जो इस देश में बेहद उलझ गया है और उस पर लिखना या बात करना औसत दर्जे के प्रचारकों का काम समझा जाने लगा है। आज अपनी भाषा में लिखने पर भी लोग भाषा पर बात करना अवांछित समझते हैं। भाषा का प्रश्न मानवीय है, खासकर भारत में, जहाँ साम्राज्यवादी भाषा जनता को जनतंत्र से अलग कर रही है। हिन्दी और अंग्रेजी की स्पर्द्धा देशी भाषाओं और राष्ट्रभाषा के द्वंद्व में बदल गई है, मनों को जोड़ने वाला सूत्र तलवार करार दे दिया गया है, पराधीनता की भाषा स्वाधीनता का गर्व हो गई है। निश्चय ही इसके पीछे दास मन की सक्रियता है। कैसा अजब लगता है, जब कोई इसलिए आंदोलन करे कि हमें दासता दो, बेड़ियाँ पहनाओ ! भाषा के बारे में हमारा सोच और रवैया वही है जो जीवन के बारे में है। कोई भी मूल्य नष्ट होने से बचा है कि भाषा और स्वाभिमान बचे रहें ? मुझे लगता है कि अब राजनीति, नौकरशाही, पूँजीवाद या साम्राज्यवाद को कोसना बेकार है; जब तक जनता खुद ही अपना हित-अनहित न देखेगी, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। इसलिए कोई भी समस्या हो, वह सीधे जनता को निवेदित या संबोधित होनी चाहिए। लोगों को विभाजनकारी षड्यंत्रों के हवाले करके हम भाषा के भीतर कोई संवेदन, कोई हार्दिकता पैदा नहीं कर रहे हैं। अहिन्दीभाषी अगर गलती से यह समझ रहे हों कि हिन्दी न रहेगी तो उनका भला होगा, तो उन्हीं से बात करनी होगी कि हिन्दी चली जाएगी तो अंग्रेजी आएगी, राजभाषा के रूप में अंग्रेजी का चरित्र देशी भाषा और जनता से नफरत करना सिखाता है। हिन्दी की कोई स्पर्द्धा देशी भाषाओं से नहीं है। वह उन्हें फूलते-फलते देखना चाहती है, उनसे आत्मालाप करना चाहती है। राष्ट्रभाषा हिन्दी के बारे में कुछ कहने में झिझक होती है, क्योंकि सौभाग्य या दुर्भाग्य से हम हिन्दीभाषी हैं, जबकि यह होना हमने नहीं चुना है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का स्वप्न भी हिन्दीभाषियों का नहीं था। राष्ट्रभाषा के रूप में इसकी आवश्यकता सबसे पहले अहिन्दीभाषियों ने ही अनुभव की। हिन्दीभाषियों ने तो उनके स्वर में स्वर मिलाया, ताकि उन्हें नाकारा न मान लिया जाए। फिर भी विडंबना यह है कि उन्हीं पर हिन्दी थोपने या हिन्दी का साम्रज्यवाद स्थापित करने का आरोप लगाया जाता है। यह हिन्दी हम पर किसने थोपी है ? हमारी हिन्दी तो संतों-भक्तों की गोद में पली है, आज तक कभी वह सत्ता की मोहताज नहीं रही। माखनलाल चतुर्वेदी के शब्दों में तो वह सिंहासनों से तिरस्कृत रही है। हिन्दी को कभी संस्कृत, पाली, अरबी, फारसी या अंग्रेजी की तरह राज्याश्रय नहीं मिला। तमगा बनने की उसकी इच्छा रही ही नहीं, अलबत्ता वह देश की बाँसुरी, तलवार और ढाल जरूर बनी है। जब भी देश को एक सूत्र में पिरोने की जरूरत पड़ी, जब भी उसके विद्रोह को वाणी देने की आवश्यकता हुई, हिन्दी ने पहले की है। तभी राजा राममोहन राय के पहले समाचार-पत्र की वह भाषा बनी। गांधी की अखंड भारत की आवाज को उसने जन-जन तक पहुँचाया। अफ्रीका से लौटने पर जब गांधी जी ने पहला भाषण हिन्दी में दिया था और कुछ लोगों ने आपत्ति की थी तो उन्होंने कहा था कि मैं हिन्दी में नहीं, भारत की भाषा में बोल रहा हूँ। हिन्दी में ही सुभाषचंद्र बोस की ललकार दसों दिशाओं में गूँजी थी। संभवतः इन्हीं सेवाओं को याद करके स्वतंत्र भारत के संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा और राजभाषा का सम्मान दिया गया। भारतीय जनता के संवाद और एकात्मता के लिए इस रूप में मात्र उसकी अनिवार्यता को रेखांकित किया गया था। क्या देश को आज एकात्मता और संवाद की जरूरत नहीं रह गई है ? स्वाधीनता निश्चिंतता और पूर्णविराम नहीं, एक सतत तप है। जिस दिन इस तथ्य को कोई देश भूल जाता है, वही उसके विघटन का पहला दिन होता है। ठीक उसी वक्त देश अपनी पहचान खोने लगता है और अपने अस्तित्व से इंकार करने लगता है। आज हम विघटन के उसी चरम दौर से गुजर रहे हैं। राष्ट्रभाषा को खारिज करने के बहाने, अनजाने ही हम समस्त देशी भाषाओं को निरस्त करते चले जा रहे हैं। यह किसी भयावह संकट की पूर्व सूचना है। पिछले दिनों अर्थात् उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में, भारत में तीन दुर्घटनाएँ एक साथ तेजी से घटित हुईं-उग्र प्रांतीयतावाद, सांप्रदायिक उन्माद और अंग्रेजी की पूर्ण प्रतिष्ठा। ये बातें अकारण एक साथ पैदा नहीं हुईं-इनका एक-दूसरे से नाभि नाल संबंध है-ये सभी राष्ट्र की अस्मिता को खंडित करने और उसे फिर से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष पराधीनता के अंधे कुएँ में धकेलने वाली घटनाएँ हैं। इन तीनों मामलों में विदेशी शक्तियों के साथ विघटनकारी शक्तियों की दिलचस्पी अकारण नहीं है। सबसे पहले आपसे अपनी भाषा छीनी जा रही है, ताकि आप किसी भी मामले में परस्पर आत्मीय संवाद कायम न कर सकें, जैसे आक्रामण सेनाएँ पुलों को उड़ा देती हैं। गूँगा और संवादहीन देश आपस में सिर्फ अपना माथा ही फोड़ सकता है। आपको अपनी भाषा के बदले जो परदेशी भाषा दी गई है वह जोड़ने वाली नहीं है, क्योंकि वह भारत की जनता को परस्पर जोड़ने के लिए लाई भी नहीं गई थी। गुलामों को अधिक गुलाम बनाने का इससे नायाब तरीका अंग्रेजों के पास दूसरा न था। इस सत्य को न समझते हुए आज भी कुछ लोग तर्क देते हैं कि अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए कुछ लोगों ने ही स्वाधीनता और सामाजिक सुधारों के लिए संघर्ष किया था। यानी अंग्रेजी शिक्षा ने ही उनमें स्वाधीनता की आकांक्षा पैदा की थी; उन्हें स्वाधीनता के लिए एकजुट किया था। यह सुनकर लगता है कि ये लोग इतिहास की क्रूरता को चुनौती देने वाले इतिहास से अपरिचित हैं। विकल्पहीन अवस्था में हमेशा विद्रोही शक्तियाँ प्राप्त साधनों को ही हथियार बना लेती हैं, जैसे आसन्न उपस्थित शत्रु से निपटने के लिए पत्थर, डंडा या नाखून तक बंदूक बन जाते हैं। जापानियों, चीनियों यहूदियों यहाँ तक कि खुद अंग्रेजों ने भी अपने-अपने पराधीन काल में विजेताओं की भाषाएँ शस्त्रों की तरह इस्तेमाल की थीं, जिन्हें स्वाधीनता के बाद सबने फेंक दिया। आज भी अफ्रीकी नीग्रो, गोरों के विरुद्ध अंग्रेजी में ही साहित्य लिख रहे हैं, परंतु इसकी तीव्र वेदना उनके साहित्य में झलकती है। इसीलिए वे अपनी बोलियों के जरिए स्वयं अपनी भाषा गढ़ने में व्यस्त हैं। इस दृष्टि से किसी अनिवार्य ऐतिहासिक तदर्थता को प्रमाण के रूप में लेना चीजों का सरलीकरण करना और सच्चाई को भुलाना है। स्वाधीनता के बाद से हमारे देश में, हिन्दी के बारे में कुतर्कों के ऐसे जाल लगातार फैलाए जाते रहे हैं। उन्हीं का परिणाम है कि हिन्दी आज तक अपना अनिवार्य ऐतिहासिक स्थान नहीं पा सकी है। मेरी जानकारी में किसी महत्त्वपूर्ण स्वाधीन राष्ट्र में उसकी राष्ट्रभाषा इतने समय तक अपदस्थ नहीं रही। यहाँ तो स्थिति यह है कि यह सिलसिला लगातार तेज होता जा रहा है। यह स्थिति क्यों पैदा हुई, इसके क्या कारण रहे हैं, इस पर हम अगले पृष्ठों में विचार करेंगे, परंतु आज तो देश के आम पढ़े लिखे लोगों की मानसिकता को इतना प्रदूषित किया जा चुका है कि कभी-कभी लगता है कि राष्ट्रभाषा के बारे में बात करना और सांप्रदायिक दंगे कराना एक ही बात है। ऐसी क्रूर और गुलाम मानसिकता पैदाकरने वाले लोग ही आज बड़ी हसरत से अंग्रेज और अंग्रेजी राज को याद करते हैं-इससे क्या यह साबित नहीं होता कि भारत में अंग्रेजों और अंग्रेजी राज की भूमिका को अलग करना सरासर नासमझी दिखाना है। कथित उदारता दिखाते हुए, स्वाधीनता के प्रारंभिक नाजुक और भावनापूर्ण काल में हम भयानक चूक कर बैठे थे। तब क्या पता था (जबकि होना चाहिए था) कि हिन्दी के साथ 15 वर्षो तक अंग्रेजी जारी करने का निर्णय हिन्दी को अपदस्थ करने की भूमिका साबित होगा। इस अंतराल में अंग्रेजों के उच्छिष्ट नौकरशाहों, स्वार्थी राजनीतिज्ञों, विदेशी शक्तियों, मतलबी पूँजीपतियों वगैरह ने अपनी रणनीति तैयार कर ली थी और भारतीय भाषाओं तथा प्रांतवाद को आगे करके राष्ट्रभाषा पर चौतरफा आक्रमण कर दिया था। इतिहास में भी हम देख चुके हैं कि मामूली छूट के सहारे ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपना जाल फैलाया था और बाद में समस्त देशी राज्यों को एक-एक कर हड़पते हुए संपूर्ण संप्रभुता हासिल कर ली थी। वही चरित्र तो अंग्रेजी का है-एक राजभाषा के रूप में। इतिहास और संस्कृति के मर्मज्ञ डॉ॰ राममनोहर लोहिया ने बहुत सही आंदोलन चलाया था-अंग्रेजी हटाओ। इस बारे में उन्होंने उस बुजुर्गी सलाह को नजर अंदाज कर दिया था कि हिन्दी को समर्थ बनाइए, नाहक अंग्रेजी का विरोध क्यों करते हैं ?’ लोहिया जानते थे कि इस दिखावटी अहिंसक सलाह के निहितार्थ क्या हैं ? वास्तव में किसी भी विदेशी भाषा को राष्ट्रभाषा का विकल्प बनाए रखना पराधीनता को स्वाधीनता का विकल्प बनाए रखने की तरह है। वे यह भी जानते थे कि अंग्रेजी की उपस्थिति में कोई भी देशी भाषा पनप नहीं सकती, क्योंकि अपने ऐतिहासिक चरित्र के अनुरूप वह एक से दूसरी को पिटवाने का काम करती रहेगी। (२).

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वर्धा

वर्धा जिला: यह भारत के महाराष्ट्र राज्य का जिला है। इस जिले का क्षेत्रफल 2,429 वर्ग मील है। हिंगणघाट तथा पुलगाँव में सूती वस्त्र की मिलें हैं। यह मराठी भाषाभाषी जिला है। वर्धा नगर: नागपुर से 50 मील दूर दक्षिण-पश्चिम में स्थित यह नगर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आश्रम के कारण प्रसिद्ध है। यह नगर वर्धा जिले का मुख्यालय है। वर्धा नदी - भारत में मध्य प्रदेश राज्य के मध्य सतपुड़ा पर्वतश्रेणी से नागपुर नगर से 70 मील उत्तर-पश्चिम से निकलती है। मुख्यत: दक्षिण-पूर्व दिशा में यह महाराष्ट्र राज्य से होकर महाराष्ट्र-आंध्र प्रदेश सीमा पर, चाँदा जिले (महाराष्ट्र राज्य) के सिवनी स्थान पर, वेनगंगा नदी से मिलती है। इन दोनों के संगम के बाद नदी का नाम प्राणहिता हो जाता है, जो गोदावरी नदी की सहायक नदी है। वर्धा नदी की मुख्य सहायक नदी पेनगंगा है। यह नदी एक कपास उत्पादक क्षेत्र के मध्य से बहती है। वर्धा नदी की कुल लंबाई 290 मील है। .

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विनोबा भावे

आचार्य विनोबा भावे (11 सितम्बर 1895 - 15 नवम्बर 1982) भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता तथा प्रसिद्ध गांधीवादी नेता थे। उनका मूल नाम विनायक नरहरी भावे था। उन्हे भारत का राष्ट्रीय आध्यापक और महात्मा गांधी का आध्यातमिक उत्तराधीकारी समझा जाता है। उन्होने अपने जीवन के आखरी वर्ष पोनार, महाराष्ट्र के आश्रम में गुजारे। उन्होंने भूदान आन्दोलन चलाया। इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल को 'अनुशासन पर्व' कहने के कारण वे विवाद में भी थे। .

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वीणा (पत्रिका)

वीणा हिंदी की सबसे पुरानी पत्रिका है जो अनवरत प्रकाशित हो रही है। यह श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर द्वारा प्रकाशित की जाती है। .

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इन्दौर

इन्दौर (अंग्रेजी:Indore) जनसंख्या की दृष्टि से भारत के मध्य प्रदेश राज्य का सबसे बड़ा शहर है। यह इन्दौर ज़िला और इंदौर संभाग दोनों के मुख्यालय के रूप में कार्य करता है। इंदौर मध्य प्रदेश राज्य की वाणिज्यिक राजधानी भी है। यह राज्य के शिक्षा हब के रूप में माना जाता है। इंदौर भारत का एकमात्र शहर है, जहाँ भारतीय प्रबन्धन संस्थान (IIM इंदौर) व भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT इंदौर) दोनों स्थापित हैं। मालवा पठार के दक्षिणी छोर पर स्थित इंदौर शहर, राज्य की राजधानी से १९० किमी पश्चिम में स्थित है। भारत की जनगणना,२०११ के अनुसार २१६७४४७ की आबादी सिर्फ ५३० वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में वितरित है। यह मध्यप्रदेश में सबसे अधिक घनी आबादी वाले प्रमुख शहर है। यह भारत में के तहत आता है। इंदौर मेट्रोपोलिटन एरिया (शहर व आसपास के इलाके) की आबादी राज्य में २१ लाख लोगों के साथ सबसे बड़ी है। इंदौर अपने स्थापना के इतिहास में १६वीं सदी क डेक्कन (दक्षिण) और दिल्ली के बीच एक व्यापारिक केंद्र के रूप में अपने निशान पाता है। मराठा पेशवा बाजीराव प्रथम के मालवा पर पूर्ण नियंत्रण ग्रहण करने के पश्चात, १८ मई १७२४ को इंदौर मराठा साम्राज्य में सम्मिलित हो गया था। और मल्हारराव होलकर को वहाँ का सुबेदार बनाया गया। जो आगे चल कर होलकर राजवंश की स्थापना की। ब्रिटिश राज के दिनों में, इन्दौर रियासत एक १९ गन सेल्यूट (स्थानीय स्तर पर २१) रियासत था जो की उस समय (एक दुर्लभ उच्च रैंक) थी। अंग्रेजी काल के दौरान में भी यह होलकर राजवंश द्वारा शासित रहा। भारत के स्वतंत्र होने के कुछ समय बाद यह भारत अधिराज्य में विलय कर दिया गया। इंदौर के रूप में सेवा की राजधानी मध्य भारत १९५० से १९५६ तक। इंदौर एक वित्तीय जिले के समान, मध्य प्रदेश की आर्थिक राजधानी के रूप में कार्य करता है। और भारत का तीसरा सबसे पुराने शेयर बाजार, मध्यप्रदेश स्टॉक एक्सचेंज इंदौर में स्थित है। यहाँ का अचल संपत्ति (रीयल एस्टेट) बज़ार, मध्य भारत में सबसे महंगा है। यह एक औद्योगिक शहर है। यहाँ लगभग ५,००० से अधिक छोटे-बडे उद्योग हैं। यह सारे मध्य प्रदेश में सबसे अधिक वित्त पैदा करता है। पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र में ४०० से अधिक उद्योग हैं और इनमे १०० से अधिक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के उद्योग हैं। पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र के प्रमुख उद्योग व्यावसायिक वाहन बनाने वाले व उनसे सम्बन्धित उद्योग हैं। व्यावसायिक क्षेत्र में मध्य प्रदेश की प्रमुख वितरण केन्द्र और व्यापार मंडीयाँ है। यहाँ मालवा क्षेत्र के किसान अपने उत्पादन को बेचने और औद्योगिक वर्ग से मिलने आते है। यहाँ के आस पास की ज़मीन कृषि-उत्पादन के लिये उत्तम है और इंदौर मध्य-भारत का गेहूँ, मूंगफली और सोयाबीन का प्रमुख उत्पादक है। यह शहर, आस-पास के शहरों के लिए प्रमुख खरीददारी का केन्द्र भी है। इन्दौर अपने नमकीनों व खान-पान के लिये भी जाना जाता है। प्र.म. नरेंद्र मोदी के स्मार्ट सिटी मिशन में १०० भारतीय शहरों को चयनित किया गया है जिनमें से इंदौर भी एक स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित किया जाएगा। स्मार्ट सिटी मिशन के पहले चरण के अंतर्गत बीस शहरों को स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित किया जायेगा और इंदौर भी इस प्रथम चरण का हिस्सा है। 'स्वच्छ सर्वेक्षण २०१७' के परिणामों के अनुसार इन्दौर भारत का सबसे स्वच्छ नगर है। .

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