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विधिक समाजशास्त्र

सूची विधिक समाजशास्त्र

विधिक समाजशास्त्र (sociology of law (or legal sociology)) का अध्ययन समाजशास्त्र के उपक्षेत्र के रूप में या विधि के अध्ययन के अन्तर्गत ही एक अन्तरविषयी क्षेत्र के रूप में किया जाता है। समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र (Sociological jurisprudence) की संकल्पना अपेक्षाकृत आधुनिक है। इसका उद्भव उन्नीसवीं सदी में हुआ जब मानव यह अनुभव करने लगा कि समाज के विकास के लिये उसे सामाजिक अनुशासन में रहकर आपसी सहयोग का मार्ग अपनाना नितान्त आवश्यक है। वर्तमान में मनुष्य के वैयक्तिक पक्ष के बजाय सामाजिक पक्ष पर अधिक बल दिया जाने लगा है। विधि का सामाजिक परिवर्तनों से निकटतम सम्बन्ध होने क कारण वह मानव के इस बदले हुए दृष्टिकोण से अप्रभावित हुए बिना न रह सका। फलतः विधिशास्त्र की एक नई पद्धति का प्रादुर्भाव हुआ जो समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र के नाम से विकसित हुई। इसके अन्तर्गत विधि के सामाजिक पहलू पर अधिक जोर दिया गया है। समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र को ‘हितों का विधिशास्त्र' (Jurisprudence of Interest) भी कहा गया है क्योंकि प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था का मुख्य लक्ष्य यही है कि मनुष्य के हितों का संरक्षण एवं संवर्धन हो सके। विधि के प्रति इस दृष्टिकोण का अपनाने वाले विधिशास्त्रियों का विचार है कि मानव के परस्पर विरोधी हितों में समन्वय स्थापित करना विधिशास्त्र का प्रमुख कार्य है। जर्मन विधिशास्त्री रूडोल्फ इहरिंग ने इस विचारधारा को अधिक विकसित किया है। उनके अनुसार विधि न तो स्वतंत्र रूप स विकसित हुई है और न वह राज्य की मनमानी देन ही है। वह विवेक (reason) पर भी आधारित नहीं हैं बल्कि समीचीनता (Expediency) पर आधारित है क्योंकि इसका मूल उद्देश्य समाज के परस्पर विरोधी हितों में टकराव की स्थिति को समाप्त कर उनम समन्वय और एकरूपता स्थापित करना है। समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र के विधिशास्त्रियों के अनुसार न्यायालयों के लिये यह आवश्यक है कि विधि के अमूर्त और लेखबद्ध स्वरूप पर विशेष जोर न देकर उसक व्यावहारिक पहलू पर अधिक बल दें अर्थात् वे उन सामाजिक आवश्यकताओं और उद्देश्यों की जाँच करें जो सम्बन्धित कानून पारित होने के लिए कारणीभूत हुए हैं। समाजशास्त्रीय विधिशास्त्र को अमेरिका में प्रबल समर्थन प्राप्त हुआ है। प्रसिद्ध अमेरिकी विधिशास्त्री डीन रास्को पाउण्ड ने तो विधिशास्त्र को ‘सामाजिक अभियान्त्रिकी’ (Social engineering) की संज्ञा दी है। इस विचारधारा के अनुसार विधिशास्त्र के अन्तर्गत मुख्यतः दो बातों का अध्ययन किया जाता है-.

10 संबंधों: दासप्रथा (पाश्चात्य), देवदासी, बाल विवाह, रंगभेद नीति, सती प्रथा, समाजशास्त्र, सामाजिक इंजीनियरी, विधि, विधिशास्त्र, अस्पृश्यता

दासप्रथा (पाश्चात्य)

मानव समाज में जितनी भी संस्थाओं का अस्तित्व रहा है उनमें सबसे भयावह दासता की प्रथा है। मनुष्य के हाथों मनुष्य का बड़े पैमाने पर उत्पीड़न इस प्रथा के अंर्तगत हुआ है। दासप्रथा को संस्थात्मक शोषण की पराकाष्ठा कहा जा सकता है। एशिया, यूरोप, अफ्रीका, अमरीका आदि सभी भूखंडों में उदय हानेवाली सभ्यताओं के इतिहास में दासता ने सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक व्यवस्थाओं के निर्माण एवं परिचालन में महत्वपूर्ण योगदान किया है। जो सभ्यताएँ प्रधानतया तलवार के बल पर बनी, बढ़ीं और टिकी थीं, उनमें दासता नग्न रूप में पाई जाती थी। पश्चिमी सभ्यता के विकास के इतिहास में दासप्रथा ने विशिष्ट भूमिका अदा की है। किसी अन्य सभ्यता के विकास में दासों ने संभवत: न तो इतना बड़ा योग दिया है और न अन्यत्र दासता के नाम पर मनुष्य द्वारा मनुष्य का इतना व्यापक शोषण तथा उत्पीड़न ही हुआ है। पाश्चात्य सभ्यता के सभी युगों में - यूनानी, रोमन, मध्यकालीन तथा आधुनिक- दासों ने सभ्यता की भव्य इमारत को अपने पसीने और रक्त से उठाया है। .

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देवदासी

कोई विवरण नहीं।

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बाल विवाह

बालविवाह? एक ऐसी प्रथा जिससे कोई अपरिचित नहीं हैं। बालविवाह केवल भारत मैं ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में होते आएं हैं और समूचे विश्व में भारत का बालविवाह में दूसरा स्थान हैं। सम्पूर्ण भारत मैं विश्व के 40% बालविवाह होते हैं और समूचे भारत में 49% लड़कियों का विवाह 18 वर्ष की आयु से पूर्व ही हो जाता हैं। भारत में, बाल विवाह केरल राज्य, जो सबसे अधिक साक्षरता वाला राज्य है, में अब भी प्रचलन में है। यूनिसेफ (संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय बाल आपात निधि) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में नगरीय क्षेत्रों से अधिक बाल विवाह होते है। आँकड़ो के अनुसार, बिहार में सबसे अधिक 68% बाल विवाह की घटनाएं होती है जबकि हिमाचल प्रदेश में सबसे कम 9% बाल विवाह होते है। यह सोच कर बड़ा अजीब लगता हैं कि वह भारत जो अपने आप में एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा हैं उसमें आज भी एक ऐसी कुरीति जिन्दा हैं। एक ऐसी कुरीति जिसमें दो अपरिपक्व लोगो को जो आपस में बिलकुल अनजान हैं उन्हें जबरन ज़िन्दगी भर साथ रहने के एक बंधन में बांध दिया जाता हैं और वे दो अपरिपक्व बालक शायद पूरी ज़िन्दगी भर इस कुरीति से उनके ऊपर हुए अत्याचार से उभर नहीं पाते हैं और बाद में स्तिथियाँ बिलकुल खराब हो जाती हैं और नतीजे तलाक और मृत्यु तक पहुच जाते हैं। तो क्या यह प्रथा भारत में आदिकाल से ही थी? या इसे बाद में प्रचलन में लाया गया? और यदि बाद में लाया गया तो इसका क्या कारण था? यह प्रथा भारत में शुरू से नहीं थी। ये दिल्ली सल्तनत के समय में अस्तित्व में आया जब राजशाही प्रथा प्रचलन में थी। भारतीय बाल विवाह को लड़कियों को विदेशी शासकों से बलात्कार और अपहरण से बचाने के लिये एक हथियार के रूप में प्रयोग किया जाता था। बाल विवाह को शुरु करने का एक और कारण था कि बड़े बुजुर्गों को अपने पौतो को देखने की चाह अधिक होती थी इसलिये वो कम आयु में ही बच्चों की शादी कर देते थे जिससे कि मरने से पहले वो अपने पौत्रों के साथ कुछ समय बिता सकें। बालविवाह के दुस्परिणाम? बालविवाह के केवल दुस्परिणाम ही होते हैं जीनमें सबसे घातक शिशु व माता की मृत्यु दर में वृद्धि | शारीरिक और मानसिक विकास पूर्ण नहीं हो पता हैं और वे अपनी जिम्मेदारियों का पूर्ण निर्वेहन नहीं कर पाते हैं और इनसे एच.आई.वि.

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रंगभेद नीति

''स्नान क्षेत्र जहाँ केवल श्वेत लोगों को स्नान की अनुमति थी'': १९८९ में डर्बन के समुद्र के किनारे तीन भाषाओं में लिखा एक बोर्ड दक्षिण अफ्रीका में नेशनल पार्टी की सरकार द्वारा सन् १९४८ में विधान बनाकर काले और गोरों लोगों को अलग निवास करने की प्रणाली लागू की गयी थी। इसे ही रंगभेद नीति या आपार्थैट (Apartheid) कहते हैं। अफ्रीका की भाषा में "अपार्थीड" का शाब्दिक अर्थ है - अलगाव या पृथकता। यह नीति सन् १९९४ में समाप्त कर दी गयी। इसके विरुद्ध नेल्सन मान्डेला ने बहुत संघर्ष किया जिसके लिये उन्हें लम्बे समय तक जेल में रखा गया। .

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सती प्रथा

सती, (संस्कृत शब्द 'सत्' का स्त्रीलिंग) कुछ पुरातन भारतीय हिन्दू समुदायों में प्रचलित एक ऐसी धार्मिक प्रथा थी, जिसमें किसी पुरुष की मृत्योपरांत उसकी पत्नी उसके अंतिम संस्कार के दौरान उसकी चिता में स्वयमेव प्रविष्ट होकर आत्मत्याग कर लेती थी। 1829 में अंग्रेजों द्वारा भारत में इसे गैरकानूनी घोषित किए जाने के बाद से यह प्रथा प्राय: समाप्त हो गयी। .

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समाजशास्त्र

समाजशास्त्र मानव समाज का अध्ययन है। यह सामाजिक विज्ञान की एक शाखा है, जो मानवीय सामाजिक संरचना और गतिविधियों से संबंधित जानकारी को परिष्कृत करने और उनका विकास करने के लिए, अनुभवजन्य विवेचनगिडेंस, एंथोनी, डनेर, मिशेल, एप्पल बाम, रिचर्ड.

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सामाजिक इंजीनियरी

सामाजिक इंजीनियरी (Social engineering), समाज विज्ञान की वह विधा है जो उन कारकों का अध्यन करती है जो समाज में बड़े स्तर के परिवर्तन करते हैं या कर सकते हैं। सामाजिक इंजीनियरी के ये कारक सरकारें हो सकतीं हैं, संचार माध्यम हो सकते हैं, या कोई निजी समूह हो सकते हैं। सामाजिक इंजीनिरी (मूल इंजीनियरी की तरह ही) वैज्ञानिक विधि का उपयोग करते हुए सामाजिक तन्त्र को समझती है ताकि वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए समुचित विधि (तरीके) डिजाइन किए जा सकें। विधि (कानून) को सामाजिक इंजीनियरी का प्रमुख साधन (औजार) माना जाता है। श्रेणी:समाज विज्ञान श्रेणी:राजनीतिक शब्दावली.

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विधि

विधि (या, कानून) किसी नियमसंहिता को कहते हैं। विधि प्रायः भलीभांति लिखी हुई संसूचकों (इन्स्ट्रक्शन्स) के रूप में होती है। समाज को सम्यक ढंग से चलाने के लिये विधि अत्यन्त आवश्यक है। विधि मनुष्य का आचरण के वे सामान्य नियम होते है जो राज्य द्वारा स्वीकृत तथा लागू किये जाते है, जिनका पालन अनिवर्य होता है। पालन न करने पर न्यायपालिका दण्ड देता है। कानूनी प्रणाली कई तरह के अधिकारों और जिम्मेदारियों को विस्तार से बताती है। विधि शब्द अपने आप में ही विधाता से जुड़ा हुआ शब्द लगता है। आध्यात्मिक जगत में 'विधि के विधान' का आशय 'विधाता द्वारा बनाये हुए कानून' से है। जीवन एवं मृत्यु विधाता के द्वारा बनाया हुआ कानून है या विधि का ही विधान कह सकते है। सामान्य रूप से विधाता का कानून, प्रकृति का कानून, जीव-जगत का कानून एवं समाज का कानून। राज्य द्वारा निर्मित विधि से आज पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। राजनीति आज समाज का अनिवार्य अंग हो गया है। समाज का प्रत्येक जीव कानूनों द्वारा संचालित है। आज समाज में भी विधि के शासन के नाम पर दुनिया भर में सरकारें नागरिकों के लिये विधि का निर्माण करती है। विधि का उदेश्य समाज के आचरण को नियमित करना है। अधिकार एवं दायित्वों के लिये स्पष्ट व्याख्या करना भी है साथ ही समाज में हो रहे अनैकतिक कार्य या लोकनीति के विरूद्ध होने वाले कार्यो को अपराध घोषित करके अपराधियों में भय पैदा करना भी अपराध विधि का उदेश्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 से लेकर आज तक अपने चार्टर के माध्यम से या अपने विभिन्न अनुसांगिक संगठनो के माध्यम से दुनिया के राज्यो को व नागरिकों को यह बताने का प्रयास किया कि बिना शांति के समाज का विकास संभव नहीं है परन्तु शांति के लिये सहअस्तित्व एवं न्यायपूर्ण दृष्टिकोण ही नहीं आचरण को जिंदा करना भी जरूरी है। न्यायपूर्ण समाज में ही शांति, सदभाव, मैत्री, सहअस्तित्व कायम हो पाता है। .

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विधिशास्त्र

न्यायशास्त्र के दार्शनिक स्वयं से ही प्रश्न करते रहते हैं - "नियम क्या है?"; "क्या नियम होना चाहिये?" विधिशास्त्र या न्यायशास्त्र (Jurisprudence), विधि का सिद्धान्त, अध्ययन व दर्शन हैं। इसमें समस्त विधिक सिद्धान्त सम्मिलित हैं, जो क़ानून बनाते हैं। विधिशास्त्र के विद्वान, जिन्हें जूरिस्ट या विधिक सिद्धान्तवादी (विधिक दार्शनिक और विधि के सामाजिक सिद्धान्तवादी, समेत) भी कहा जाता हैं, विधि, विधिक कारणन, विधिक प्रणाली और विधिक संस्थाओं के प्रकृति की गहरी समझ प्राप्त कर पाने की आशा रखते हैं। विधि के विज्ञान के रूप में विधिशास्त्र विधि के बारे में एक विशेष तरह की खोजबीन है। विधिशास्त्र "जूरिसप्रूडेंस" अर्थात् Juris .

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अस्पृश्यता

भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र 'मानव-जाति से प्यार' ऊँच-नीच की भावना रूपी हवा के झोंके से यत्र-तत्र बिखर गया। ऊँच-नीच का भाव यह रोग है, जो समाज में धीरे धीरे पनपता है और सुसभ्य एवं सुसंस्कृत समाज की नींव को हिला देता है। परिणामस्वरूप मानव-समाज के समूल नष्ट होने की आशंका रहती है। अतः अस्पृश्यता मानव-समाज के लिए एक भीषण कलंक है। आज संसार के प्रत्येक क्षेत्र में चाहे वह राजनीतिक हो अथवा आर्थिक, धार्मिक हो या सामाजिक, सर्वत्र अस्पृश्यता के दर्शन किए जा सकते हैं। अमेरिका, इंग्लैंड, जापान आदि यद्यपि वैज्ञानिक दृष्तिकोण से विकसित और संपन्न देश हैं किंतु अस्पृश्यता के रोग में वे भी ग्रसित हैं। अमेरिका जैसे महान राष्ट्र में काले एवं गोरें लोगों का भेदभाव आज भी बना हुआ है। अस्पृश्यता .

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विधि का समाजशास्त्र

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