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वस्तु विक्रय अधिनियम 1930

सूची वस्तु विक्रय अधिनियम 1930

वर्तमान युग व्यापार और वाणिज्य का युग है। इस युग में प्रतिदिन अनेकों व्यापारिक अनुबंध किए जाते हैं। वस्तु विक्रय अनुबंध को कानून में एक विशेष प्रकार का अनुबंध माना जाता है। 1930 से पूर्व वस्तु-विक्रय से संबंधित नियम भारतीय अनुबंध अधिनियम 1872 की धारा 76 से 123 में शामिल थे। ये व्यवस्थाएं व्यापारिक परिस्थितियों के परिवर्तन के कारण पर्याप्त नहीं थे। अतः भारतीय संसद ने वस्तु-विक्रय अनुबंध की पेचीदगी और महत्व को देखते हुए सन् 1930 में वस्तु-विक्रय से संबंधित प्रावधानों को भारतीय अनुबंध अधिनियम से समाप्त करके एक पृथक वस्तु-विक्रय अधिनियम बनाया। यह अधिनियम भारतीय वस्तु-विक्रय अधिनियम 1930 था। 1963 में एक संशोधन के द्वारा 'भारतीय' शब्द को हटा दिया गया। अतः अब इसका नाम 'वस्तु-विक्रय अधिनियम' है। इसके संबंध में निम्न व्यवस्थाएं हैं-.

4 संबंधों: भारतीय संविदा अधिनियम १८७२, संविदा निर्माण, वाणिज्य, व्यापार

भारतीय संविदा अधिनियम १८७२

भारतीय संविदा अधिनियम, १८७२ (Indian Contract Act, 1872) भारत का मुख्य संविदा कानून है। यह अधिनियम भारत में अंग्रेजी शासन के समय पारित हुआ था। यह 'इंग्लिश कॉमन ला' पर आधारित है। यह अधिनियम संविदाओं के निर्माण, निष्‍पादन और प्रवर्तनीयता से संबंधित सामान्‍य सिद्धांतों तथा क्षतिपूर्ति एवं गारंटी, जमानत और गिरवी, तथा अभिकरण (एजेंसी) जैसी विशेष प्रकार की संविदाओं से संबंधित नियम निर्धारित करता है। यद्यपि भागीदारी अधिनियम; माल बिक्री अधिनियम; परक्राम्‍य लिखत अधिनियम और कम्‍पनी अधिनियम, तकनीकी दृ‍ष्टि से संविदा कानून के भाग हैं, फिर भी इन्‍हें पृथक अधिनियमनों में शामिल किया गया है। भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अनुसार, संविदा कानून द्वारा प्रवर्तनीय करार है। कानून द्वारा प्रवर्तित न किए जा सकने वाले करार संविदाएं नहीं होते। ‘’करार’’ से अभिप्राय है एक दूसरे के प्रतिफल का ध्‍यान रखते हुए दिया जाने वाला आश्‍वासन। और आश्‍वासन त‍ब दिया जाता है जब कोई प्रस्‍ताव स्‍वीकारा जाता है। इसका निहितार्थ यह है कि करार एक स्‍वीकृत प्रस्‍ताव है। दूसरे शब्‍दों में, करार में ‘’पेशकश’’ और इसकी ‘’स्‍वीकृति’’ निहित होती है। व्यापारिक सन्नियम में उन अधिनियमों को सम्मिलित किया जाता है जो व्यवसाय एवं वाणिज्यिक क्रियाओं के नियमन एवं नियन्त्रण के लिए बनाये जाते हैं। व्यापारिक या व्यावसायिक सन्नियम के अन्तर्गत वे राजनियम आते हैं जो व्यापारियों, बैंकर्स तथा व्यवसायियों के साधारण व्यवहारों से सम्बन्धित हैं और जो सम्पित्त के अधिकारों एवं वाणिज्य में संलग्न व्यिक्तयों से सम्बन्ध रखते हैं। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम, व्यावसायिक सन्नियम की एक महत्वपूर्ण शाखा है, क्योंकि अधिकांश व्यापारिक व्यवहार चाहे वे साधारण व्यक्तियों द्वारा किये जायें या व्यवसायियों द्वारा किये जायें, 'अनुबन्धों’ पर ही आधारित होते हैं। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम 25 अप्रैल, 1872 को पारित किया गया था और 1 सितम्बर 1872 से लागू हुआ था। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम को दो भागों में बांटा जा सकता है। इसमें प्रथम भाग में धारा 1 से 75 तक है जो अनुबन्ध के सामान्य सिद्धान्तों से सम्बिन्धत हैं और सभी प्रकार के अनुबन्धों पर लागू होती हैं। द्वितीय भाग में धारा 76 से 266 तक है जो विशिष्ट प्रकार के अनुबन्धों जैसे वस्तु विक्रय, क्षतिपूर्ति एवं गारण्टी, निक्षेप, गिरवी, एजेन्सी तथा साझेदारी से सम्बिन्धत हैं। 1930 में वस्तु विक्रय से सम्बिन्धत धाराओं को निरस्त करके पृथक से वस्तु विक्रय अधिनियम बनाया गया है। इसी प्रकार 1932 में साझेदारी अनुबन्धों से सम्बिन्धत धाराओं को इस अधिनियम में से निरस्त कर दिया गया और पृथक साझेदारी अधिनियम बनाया गया। .

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संविदा निर्माण

वह प्रत्येक वचन अथवा करार जो कानून द्वारा प्रवर्तनीय हो अथवा जिसका कानून द्वारा पालन कराया जा सके, संविदा (ठीका, अनुबन्ध, कान्ट्रैक्ट) कहलाता है। वर्तमान संविदा की विशेषता उसकी कानूनी मान्यता है। .

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वाणिज्य

धनप्राप्ति के उद्देश्य से वस्तुओं का क्रय-विक्रय करना ही वाणिज्य (कॉमर्स) है। किसी उत्पादन या व्यवसाय का वह भाग जो उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं की उनके उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं के बीच विनिमय से सम्ब्न्ध रखता है, वाणिज्य कहलाता है। वाणिज्य के अन्तर्गत किसी आर्थिक महत्व की वस्तु, जैसे सामान, सेवा, सूचना या धन का दो या दो से अधिक व्यक्ति या संस्थाओं के बीच सौदा किया जाता है। वाणिज्य पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एवं कुछ अन्य अर्थव्यवस्थाओं का मुख्य वाहक है। संसार में प्रत्येक व्यक्ति की कई आवश्यकताएँ होती हैं। उनको प्राप्त करने के लिए वह आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। इनमें से कुछ वस्तुएँ तो वह स्वयं बना लेता है और अधिकांश वस्तुएँ उसे बाजार से मोल खरीदनी पड़ती हैं। वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए उसे धन की आवश्यकता पड़ती है और इस धन को प्राप्त करने के लिए या तो वह दूसरों की सेवा करता है अथवा ऐसी वस्तुएँ तैयार करता है या क्रय-विक्रय करता है जो दूसरों के लिए उपयोगी हों। वस्तुओं का रूप बदलकर उनको अधिक उपयोगी बनाने का कार्य उद्योग माना जाता है। वाणिज्य में वे सब कार्य सम्मिलित रहते हैं जो वस्तुओं के क्रय-विक्रय में सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक हैं। जो व्यक्ति वाणिज्य संबंधी कोई कार्य करता है उसे वणिक् कहते हैं। .

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व्यापार

उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पुणे के शनिवार पेठ का दृष्य व्यापार (Trade) का अर्थ है क्रय और विक्रय। दूसरे शब्दों में, एक व्यक्ति (या संस्था) से दूसरे व्यक्ति (या संस्था) को सामानों का स्वामित्व अन्तरण ही व्यापार कहलाता है। स्वामित्व का अन्तरण सामान, सेवा या मुद्रा के बदले किया जाता है। जिस नेटवर्क (संरचना) में व्यापार किया जाता है उसे 'बाजार' कहते हैं। आरम्भ में व्यापार एक सामान के बदले दूसरा सामान लेकर (वस्तु-विनिमय या बार्टर) किया जाता था। बाद में अधिकांश वस्तुओं के बदले धातुएँ, मूल्यवान धातुएँ, सिक्के, हुण्डी (bill) अथवा पत्र-मुद्रा से हुईँ। आजकल अधिकांश क्रय-विक्रय मुद्रा (मनी) द्वारा होता है। मुद्रा के आविष्कार (तथा बाद में क्रेडिट, पत्र-मुद्रा, अभौतिक मुद्रा आदि) से व्यापार में बहुत सरलता और सुविधा आ गयी। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

माल बिक्री अधिनियम

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