भक्ति आंदोलन एक देशव्यापी आंदोलन था। शैली की दृष्टि से लोक भाषा- शैली का उन्नयन इस आंदोलन की सबसे बड़ी देन है। शास्रीय शैली का नियमन और अनुशासन शिथिल हो जाता है। वस्तुगत उदात्तता प्रमुख हो जाती है। आरंभ में निर्गुण विषय- वस्तु गृहीत होती है। परिणामतः विषय- वस्तु से संबद्ध भौगोलिक स्थानीयता का उत्कर्ष नहीं होता और न किसी क्षेत्रीय भाषा का ही विषय- वस्तु से संबंध होता है। केवल व्यावहारिक सौंदर्य और सुविधा की दृष्टि से एक मिश्रित सधुक्कड़ी शैली जन्म लेती है और एक व्यापक शैली क्षेत्र बनने लगता है। नितांत वैयक्तिक क्षणों में संतों की उन्मुक्त और तरल चेतना स्थानीय भाषा- रुपों या भावात्मक संदर्भों में रुढ़शैली को ग्रहण कर लेती है। इस प्रकार सधुक्कड़ी के साथ अन्य शैलियों का सहअस्तित्व हो जाता है। सगुण वस्तुक्रम में भौगोलिक स्थानीयता आलंबन के भावपक्ष का अंग बन जाती है। अयोध्या, मथुरा, वृंदावन के भावात्मक और दिव्य संबंध प्रकट होने लगते हैं। स्थानीय भाषाओं के प्रति भी ऐसी ही एक भावुकता कसमसाने लगती है। स्थानीय भाषा- रुपों पर आधारित शैली वस्तु की यात्रा के साथ चलती है और अपने स्वतंत्र शैली- द्वीप या उपनिवेश बनाने लगती है। जब रामचरित्र की मर्यादाएँ, अमर्यादित दिव्य श्रृंगार- माधुर्य में निमज्जित हो जाती हैं, निर्गुण वाणी से निर्गत रहस्यमूलक श्रृंगारोक्तियाँ अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाने लगती है और राज्याश्रित श्रृंगार में राधाकृष्ण के प्रतीक रुढ़ हो जाते हैं, तब आरंभिक स्थितियों में माधुर्य- श्रृंगार के लिए रुढ़ ब्रजभाषा शैली, अन्य विषय- वस्तु द्वीपों में भी प्रविष्ट होने लगती है, अन्य भाषा- द्वीपों में भी विस्तार करने लगती है। ब्रजी की वस्तु- संरचना भी अन्य वस्तु- क्षेत्रों पर अध्यारोपित होने लगती है और ब्रजभाषा शैली अन्य स्थानीय भाषाओं से मैत्री शैली क्षेत्रों की सीमाओं का निर्धारण करती है। .