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प्रत्यक्षवाद (विधिक)

सूची प्रत्यक्षवाद (विधिक)

विधिक प्रत्यक्षवाद (Legal positivism) विधि एवं विधिशास्त्र के दर्शन से सम्बन्धित एक विचारधारा (school of thought) है। इसका विकास अधिकांशतः अट्ठारहवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दी के विधि-चिन्तकों द्वारा हुआ जिनमें जेरेमी बेंथम (Jeremy Bentham) तथा जॉन ऑस्टिन (John Austin) का नाम प्रमुख है। किन्तु विधिक प्रत्यक्षवाद के इतिहास में सबसे उल्लेखनीय नाम एच एल ए हार्ट (H.L.A. Hart) का है जिनकी 'द कॉसेप्ट ऑफ लॉ' (The Concept of Law) नामक पुस्तक ने इस विषय में गहराई से विचार करने को मजबूर कर दिया। हाल के वर्षों में रोनाल्द डोर्किन (Ronald Dworkin) ने विधिक प्रत्यक्षवाद के कुछ केन्द्रीय विचारों पर गम्भीर सवाल उठाये हैं। विधिक प्रत्यक्षवाद को सार रूप में कहना कठिन है किन्तु प्रायः माना जाता है कि विधिक प्रत्यक्षवाद का केन्द्रीय विचार यह है: .

6 संबंधों: एच॰एल॰ए॰ हार्ट, जेरेमी बेन्थम, जॉन आस्टिन, विधि, विधिशास्त्र, विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र

एच॰एल॰ए॰ हार्ट

हर्बर्ट लिओनेल एडोल्फस हार्ट (18 जुलाई 1907 – 19 दिसम्बर 1992), ब्रिटेन के विधिशास्त्री थे। वे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में विधिशास्त्र के प्रोफेसर थे। 'द कॉन्सेप्ट ऑफ ला' (The Concept of Law) (1961) उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति है। श्रेणी:विधि दार्शनिक.

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जेरेमी बेन्थम

जेरेमी बेंथम जेरेमी बेन्थम (Jeremy Bentham) (15 फ़रवरी 1748 – 6 जून 1832) इंग्लैण्ड का न्यायविद, दार्शनिक तथा विधिक व सामाजिक सुधारक था। वह उपयोगितावाद का कट्टर समर्थक था। वह प्राकृतिक विधि तथा प्राकृतिक अधिकार के सिद्धान्तों का कट्टर विरोधी था। सन् १७७६ में उसकी 'शासन पर स्फुट विचार' (Fragment on Government) शीर्षक पुस्तक प्रकाशित हुई। इसमें उसने यह मत व्यक्त किया कि किसी भी कानून की उपयोगिता की कसौटी यह है कि जिन लोगों से उसका संबंध हो, उनके आनंद, हित और सुख की अधिक से अधिक वृद्धि वह करे। उसकी दूसरी पुस्तक 'आचार और विधान के सिद्धांत' (Introduction to Principles of Morals and Legislation) १७८९ में निकली जिसमें उसके उपयोगितावाद का सार मर्म सन्निहित है। उसने इस बात पर बल दिया कि 'अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख' ही प्रत्येक विधान का लक्ष्य होना चाहिए। 'उपयोगिता' का सिद्धांत वह अर्थशास्त्र में भी लागू करना चाहता था। उसका विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति को, किसी भी तरह के प्रतिबंध के बिना, अपना हित संपन्न करने की स्वतंत्रता रहनी चाहिए। सूदखोरी के समर्थन में उसने एक पुस्तक 'डिफेंस ऑव यूज़री' (Defence of Usury) सन् १७८७ में लिखी थी। उसने गरीबों संबंधी कानून (पूअर लाँ) में सुधार करने के लिए जो सुझाव दिए, उन्हीं के आधार पर सन् १८३४ में उसमें कई संशोधन किए गए। पार्लियामेंट में सुधार कराने के संबंध में भी उसने एक पुस्तक लिखी थी (१८१७)। इसमें उसने सुझाव दिया था कि मतदान का अधिकार प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को मिलना चाहिए और चुनाव प्रति वर्ष किया जाना चाहिए। उसने बंदीगृहों के सुधार पर भी बल दिया। और १८११ में 'दंड और पुरस्कार' (Punishments and Rewards) शीर्षक एक पुस्तक लिखी। .

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जॉन आस्टिन

जॉन ऑस्टिन जॉन आस्टिन (John Austin; ३ मार्च सन्‌ १७९० - १८५९) एक अंग्रेज न्यायज्ञ थे। उन्होने विधि के दर्शन तथा विधिशास्त्र पर बहुत अधिक लिखा है। उन्होने विधिक प्रत्यक्षवाद के सिद्धान्त के विकास में उल्लेखनीय योगदान दिया। .

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विधि

विधि (या, कानून) किसी नियमसंहिता को कहते हैं। विधि प्रायः भलीभांति लिखी हुई संसूचकों (इन्स्ट्रक्शन्स) के रूप में होती है। समाज को सम्यक ढंग से चलाने के लिये विधि अत्यन्त आवश्यक है। विधि मनुष्य का आचरण के वे सामान्य नियम होते है जो राज्य द्वारा स्वीकृत तथा लागू किये जाते है, जिनका पालन अनिवर्य होता है। पालन न करने पर न्यायपालिका दण्ड देता है। कानूनी प्रणाली कई तरह के अधिकारों और जिम्मेदारियों को विस्तार से बताती है। विधि शब्द अपने आप में ही विधाता से जुड़ा हुआ शब्द लगता है। आध्यात्मिक जगत में 'विधि के विधान' का आशय 'विधाता द्वारा बनाये हुए कानून' से है। जीवन एवं मृत्यु विधाता के द्वारा बनाया हुआ कानून है या विधि का ही विधान कह सकते है। सामान्य रूप से विधाता का कानून, प्रकृति का कानून, जीव-जगत का कानून एवं समाज का कानून। राज्य द्वारा निर्मित विधि से आज पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। राजनीति आज समाज का अनिवार्य अंग हो गया है। समाज का प्रत्येक जीव कानूनों द्वारा संचालित है। आज समाज में भी विधि के शासन के नाम पर दुनिया भर में सरकारें नागरिकों के लिये विधि का निर्माण करती है। विधि का उदेश्य समाज के आचरण को नियमित करना है। अधिकार एवं दायित्वों के लिये स्पष्ट व्याख्या करना भी है साथ ही समाज में हो रहे अनैकतिक कार्य या लोकनीति के विरूद्ध होने वाले कार्यो को अपराध घोषित करके अपराधियों में भय पैदा करना भी अपराध विधि का उदेश्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 से लेकर आज तक अपने चार्टर के माध्यम से या अपने विभिन्न अनुसांगिक संगठनो के माध्यम से दुनिया के राज्यो को व नागरिकों को यह बताने का प्रयास किया कि बिना शांति के समाज का विकास संभव नहीं है परन्तु शांति के लिये सहअस्तित्व एवं न्यायपूर्ण दृष्टिकोण ही नहीं आचरण को जिंदा करना भी जरूरी है। न्यायपूर्ण समाज में ही शांति, सदभाव, मैत्री, सहअस्तित्व कायम हो पाता है। .

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विधिशास्त्र

न्यायशास्त्र के दार्शनिक स्वयं से ही प्रश्न करते रहते हैं - "नियम क्या है?"; "क्या नियम होना चाहिये?" विधिशास्त्र या न्यायशास्त्र (Jurisprudence), विधि का सिद्धान्त, अध्ययन व दर्शन हैं। इसमें समस्त विधिक सिद्धान्त सम्मिलित हैं, जो क़ानून बनाते हैं। विधिशास्त्र के विद्वान, जिन्हें जूरिस्ट या विधिक सिद्धान्तवादी (विधिक दार्शनिक और विधि के सामाजिक सिद्धान्तवादी, समेत) भी कहा जाता हैं, विधि, विधिक कारणन, विधिक प्रणाली और विधिक संस्थाओं के प्रकृति की गहरी समझ प्राप्त कर पाने की आशा रखते हैं। विधि के विज्ञान के रूप में विधिशास्त्र विधि के बारे में एक विशेष तरह की खोजबीन है। विधिशास्त्र "जूरिसप्रूडेंस" अर्थात् Juris .

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विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र

विशिष्ट अर्थ में विधिशास्त्र को तीन भागों में विभाजित किया गया है जिन्हें सामण्ड ने क्रमशः विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र (Analytical Jurisprudence), ऐतिहासिक विधिशास्त्र (Historical Jurisprudence) एवं नैतिक विधिशास्त्र (Ethical Jurisprudence) कहा है। उल्लेखनीय है कि विधि के विविध पहलुओं में इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि इनका पृथक विवेचन करने से विधिशास्त्र का विषय ही अपूर्ण रह जायेगा। अतः विधिशास्त्र के अध्ययन के लिये इन तीनों का समावेश आवश्यक है। विश्लेषणात्मक विधिशास्त्र से आशय विधि के प्राथमिक सिद्धान्तों का विश्लेषण करना है। इस विश्लेषण में उनके ऐतिहासिक उद्गम अथवा विकास या नैतिक महत्व आदि का निरूपण नहीं किया जाता है। विधिशास्त्र की इस शाखा के प्रणेता जॉन ऑस्टिन थे जिन्होंने विधि-विज्ञान की विभिन्न समस्याओं के प्रति इस शाखा के विचारों का प्रतिपादन अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘प्राविन्स ऑफ ज्यूरिसप्रुडेन्स डिटरमिन्ड’ में किया जो सर्वप्रथम सन् 1832 में प्रकाशित हुई थी। इस शाखा के अन्य समर्थक मार्कबी (Markby), एमॉस (Amos), हॉलैण्ड (Holland) तथा सामण्ड (Salmond) हैं। .

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विधिक प्रत्यक्षतावाद

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