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धर्मसूत्र

सूची धर्मसूत्र

धर्मसूत्रों में वर्णाश्रम-धर्म, व्यक्तिगत आचरण, राजा एवं प्रजा के कर्त्तव्य आदि का विधान है। ये गृह्यसूत्रों की शृंखला के रूप में ही उपलब्ध होते हैं। श्रौतसूत्रों के समान ही, माना जाता है कि प्रत्येक शाखा के धर्मसूत्र भी पृथक्-पृथक् थे। वर्तमान समय में सभी शाखाओं के धर्मसूत्र उपलब्ध नहीं होते। इस अनुपलब्धि का एक कारण यह है कि सम्पूर्ण प्राचीन वाङ्मय आज हमारे समक्ष विद्यमान नहीं है। उसका एक बड़ा भाग कालकवलित हो गया। इसका दूसरा कारण यह माना जाता है कि सभी शाखाओं के पृथक्-पृथक् धर्मसूत्रों का संभवत: प्रणयन ही नहीं किया गया, क्योंकि इन शाखाओं के द्वारा किसी अन्य शाखा के धर्मसूत्रों को ही अपना लिया गया था। पूर्वमीमांसा में कुमारिल भट्ट ने भी ऐसा ही संकेत दिया है। .

19 संबंधों: धर्म, धर्मशास्त्र, बौधायन धर्मसूत्र, मनु, मनुस्मृति, मीमांसा दर्शन, शुल्बसूत्र, श्रौतसूत्र, स्मार्त सूत्र, हारीत धर्मसूत्र, हिरण्यकेशि धर्मसूत्र, वसिष्ठ धर्मसूत्र, विष्णु धर्मसूत्र, वैखानस धर्मसूत्र, वेद, गौतम धर्मसूत्र, आपस्तम्ब धर्मसूत्र, कुमारिल भट्ट, ऋग्वेद

धर्म

धर्मचक्र (गुमेत संग्रहालय, पेरिस) धर्म का अर्थ होता है, धारण, अर्थात जिसे धारण किया जा सके, धर्म,कर्म प्रधान है। गुणों को जो प्रदर्शित करे वह धर्म है। धर्म को गुण भी कह सकते हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि धर्म शब्द में गुण अर्थ केवल मानव से संबंधित नहीं। पदार्थ के लिए भी धर्म शब्द प्रयुक्त होता है यथा पानी का धर्म है बहना, अग्नि का धर्म है प्रकाश, उष्मा देना और संपर्क में आने वाली वस्तु को जलाना। व्यापकता के दृष्टिकोण से धर्म को गुण कहना सजीव, निर्जीव दोनों के अर्थ में नितांत ही उपयुक्त है। धर्म सार्वभौमिक होता है। पदार्थ हो या मानव पूरी पृथ्वी के किसी भी कोने में बैठे मानव या पदार्थ का धर्म एक ही होता है। उसके देश, रंग रूप की कोई बाधा नहीं है। धर्म सार्वकालिक होता है यानी कि प्रत्येक काल में युग में धर्म का स्वरूप वही रहता है। धर्म कभी बदलता नहीं है। उदाहरण के लिए पानी, अग्नि आदि पदार्थ का धर्म सृष्टि निर्माण से आज पर्यन्त समान है। धर्म और सम्प्रदाय में मूलभूत अंतर है। धर्म का अर्थ जब गुण और जीवन में धारण करने योग्य होता है तो वह प्रत्येक मानव के लिए समान होना चाहिए। जब पदार्थ का धर्म सार्वभौमिक है तो मानव जाति के लिए भी तो इसकी सार्वभौमिकता होनी चाहिए। अतः मानव के सन्दर्भ में धर्म की बात करें तो वह केवल मानव धर्म है। हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, जैन या बौद्ध आदि धर्म न होकर सम्प्रदाय या समुदाय मात्र हैं। “सम्प्रदाय” एक परम्परा के मानने वालों का समूह है। (पालि: धम्म) भारतीय संस्कृति और दर्शन की प्रमुख संकल्पना है। 'धर्म' शब्द का पश्चिमी भाषाओं में कोई तुल्य शब्द पाना बहुत कठिन है। साधारण शब्दों में धर्म के बहुत से अर्थ हैं जिनमें से कुछ ये हैं- कर्तव्य, अहिंसा, न्याय, सदाचरण, सद्-गुण आदि। .

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धर्मशास्त्र

धर्मशास्त्र संस्कृत ग्रन्थों का एक वर्ग है, जो कि शास्त्र का ही एक प्रकार है। इसमें सभी स्मृतियाँ सम्मिलित हैं। यह वह शास्त्र है जो हिन्दुओं के धर्म का ज्ञान सम्मिलित किये हुए हैं, धर्म शब्द में यहाँ पारंपरिक अर्थ में धर्म तथा साथ ही कानूनी कर्तव्य भी सम्मिलित हैं। धर्मशास्त्रों का बृहद् पाठ भारत की ब्राह्मण परंपरा का अंग है, तथा यह विद्वत्परंपरा की देन एवं एक विशद तंत्र है। इसके गहन न्यायशास्त्रीय विवेचन के कारण प्रारंभिक ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासकों द्वारा यह हिंदुओं के लिए कानून के रूप में माना गया था तब से लेकर आज भी धर्मशास्त्र को हिन्दू विधिसंहिता के रूप में देखा जाता है। धर्मशास्त्र में उपस्थित रिलीजन व कानून के बीच जो अंतर किया जाता है, दरअसल वह कृत्रिम है और बार-बार उसपर प्रश्न उठाये गये हैं। जबकि कुछ लोग, धर्मशास्त्र में धार्मिक व धर्मनिरपेक्ष कानूनों के बीच अंतर रखा गया है ऐसा पक्ष लेते हैं। धर्मशास्त्र हिन्दू परंपरा में महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि- एक, यह एक आदर्श गृहस्थ के लिए धार्मिक नियमों का स्रोत है, तथा दूसरे, यह धर्म, विधि, आचारशास्त्र आदि से संबंधित हिंदू ज्ञान का सुसंहत रूप है। "पांडुरंग वामन काणे, सामाजिक सुधार को समर्पित एक महान विद्वान्, ने इस पुरानी परंपरा को जारी रखा है। उनका धर्मशास्त्र का इतिहास, पाँच भागों में प्रकाशित है, प्राचीन भारत के सामाजिक विधियों तथा प्रथाओं का विश्वकोश है। इससे हमें प्राचीन भारत में सामाजिक प्रक्रिया को समझने में मदद मिलती है।" .

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बौधायन धर्मसूत्र

यह धर्मसूत्र चार प्रश्नों में हैं। प्रश्नों का विभाजन अध्याय तथा खण्डों में किया गया है।.

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मनु

मनु हिन्दू धर्म के अनुसार, संसार के प्रथम पुरुष थे। प्रथम मनु का नाम स्वयंभुव मनु था, जिनके संग प्रथम स्त्री थी शतरूपा। ये स्वयं भू (अर्थात होना) ब्रह्मा द्वारा प्रकट होने के कारण ही स्वयंभू कहलाये। इन्हीं प्रथम पुरुष और प्रथम स्त्री की सन्तानों से संसार के समस्त जनों की उत्पत्ति हुई। मनु की सन्तान होने के कारण वे मानव या मनुष्य कहलाए। स्वायंभुव मनु को आदि भी कहा जाता है। आदि का अर्थ होता है प्रारंभ। सभी भाषाओं के मनुष्य-वाची शब्द मैन, मनुज, मानव, आदम, आदमी आदि सभी मनु शब्द से प्रभावित है। यह समस्त मानव जाति के प्रथम संदेशवाहक हैं। इन्हें प्रथम मानने के कई कारण हैं। सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई। प्रमाण यही बताते हैं कि आदि सृष्टि की उत्पत्ति भारत के उत्तराखण्ड अर्थात् इस ब्रह्मावर्त क्षेत्र में ही हुई। मानव का हिन्दी में अर्थ है वह जिसमें मन, जड़ और प्राण से कहीं अधिक सक्रिय है। मनुष्य में मन की शक्ति है, विचार करने की शक्ति है, इसीलिए उसे मनुष्य कहते हैं। और ये सभी मनु की संतानें हैं इसीलिए मनुष्य को मानव भी कहा जाता है। ब्रह्मा के एक दिन को कल्प कहते हैं। एक कल्प में 14 मनु हो जाते हैं। एक मनु के काल को मन्वन्तर कहते हैं। वर्तमान में वैवस्वत मनु (7वें मनु) हैं। .

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मनुस्मृति

मनुस्मृति हिन्दू धर्म का एक प्राचीन धर्मशास्त्र (स्मृति) है। इसे मानव-धर्म-शास्त्र, मनुसंहिता आदि नामों से भी जाना जाता है। यह उपदेश के रूप में है जो मनु द्वारा ऋषियों को दिया गया। इसके बाद के धर्मग्रन्थकारों ने मनुस्मृति को एक सन्दर्भ के रूप में स्वीकारते हुए इसका अनुसरण किया है। धर्मशास्त्रीय ग्रंथकारों के अतिरिक्त शंकराचार्य, शबरस्वामी जैसे दार्शनिक भी प्रमाणरूपेण इस ग्रंथ को उद्धृत करते हैं। परंपरानुसार यह स्मृति स्वायंभुव मनु द्वारा रचित है, वैवस्वत मनु या प्राचनेस मनु द्वारा नहीं। मनुस्मृति से यह भी पता चलता है कि स्वायंभुव मनु के मूलशास्त्र का आश्रय कर भृगु ने उस स्मृति का उपवृहण किया था, जो प्रचलित मनुस्मृति के नाम से प्रसिद्ध है। इस 'भार्गवीया मनुस्मृति' की तरह 'नारदीया मनुस्मृति' भी प्रचलित है। मनुस्मृति वह धर्मशास्त्र है जिसकी मान्यता जगविख्यात है। न केवल भारत में अपितु विदेश में भी इसके प्रमाणों के आधार पर निर्णय होते रहे हैं और आज भी होते हैं। अतः धर्मशास्त्र के रूप में मनुस्मृति को विश्व की अमूल्य निधि माना जाता है। भारत में वेदों के उपरान्त सर्वाधिक मान्यता और प्रचलन ‘मनुस्मृति’ का ही है। इसमें चारों वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, भांति-भांति के विवादों, सेना का प्रबन्ध आदि उन सभी विषयों पर परामर्श दिया गया है जो कि मानव मात्र के जीवन में घटित होने सम्भव है। यह सब धर्म-व्यवस्था वेद पर आधारित है। मनु महाराज के जीवन और उनके रचनाकाल के विषय में इतिहास-पुराण स्पष्ट नहीं हैं। तथापि सभी एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि मनु आदिपुरुष थे और उनका यह शास्त्र आदिःशास्त्र है। मनुस्मृति में चार वर्णों का व्याख्यान मिलता है वहीं पर शूद्रों को अति नीच का दर्जा दिया गया और शूद्रों का जीवन नर्क से भी बदतर कर दिया गया मनुस्मृति के आधार पर ही शूद्रों को तरह तरह की यातनाएं मनुवादियों द्वारा दी जाने लगी जो कि इसकी थोड़ी सी झलक फिल्म तीसरी आजादी में भी दिखाई गई है आगे चलकर बाबासाहेब आंबेडकर ने सर्वजन हिताय संविधान का निर्माण किया और मनु स्मृति में आग लगा दी गई जो कि समाज के लिए कल्याणकारी साबित हुई और छुआछूत ऊंच-नीच का आडंबर समाप्त हो गया। .

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मीमांसा दर्शन

मीमांसा दर्शन हिन्दुओं के छः दर्शनों में से एक है। पक्ष-प्रतिपक्ष को लेकर वेदवाक्यों के निर्णीत अर्थ के विचार का नाम मीमांसा है। उक्त विचार पूर्व आर्य परंपरा से चला आया है। किंतु आज से प्राय: सवा पाँच हजार वर्ष पूर्व सामवेद के आचार्य कृष्ण द्वैपायन के शिष्य ने उसे सूत्रबद्ध किया। सूत्रों में पूर् पक्ष और सिद्धान्त के रूप में बादरायण, बादरि, आत्रेय, आश्मरथ्य, आलेखन, एेतिशायन, कामुकायन, कार्ष्णाजिनि अाैर लाबुकायन महर्षियों का उल्लेख मिलता है, जिसका विस्तृत विवेचन सूत्रों के भाष्य अाैर वार्तिक में किया गया है, जिनसे सहस्राधिकरण हो गए हैं। इस शास्त्र काे पूर्वमीमांसा अाैर वेदान्त काे उत्तरमीमांसा भी कहा जाता है। पूर्ममीमांसा में धर्म का विचार है अाैर उत्तरमीमांसा में ब्रह्म का। अतः पूर्वमीमांसा काे धर्ममीमांसा अाैर उत्तर मीमांसा काे ब्रह्ममीमांसा भी कहा जाता है। जैमिनि मुनि द्वारा रचित सूत्र हाेने से मीमांसा काे जैमिनीय धर्ममीमांसा कहा जाता है। जर्मन विद्वान मैक्समूलर का कहना है कि - "यह दर्शन शास्त्र कोटि में नहीं आ सकता, क्योंकि इसमें धर्मानुष्ठान का ही विवेचन किया गया है। इसमें जीव, ईश्वर, बंध, मोक्ष और उनके साधनों का कहीं भी विवेचन नहीं है।" मैक्समूलर मत के पक्षपाती कुछ भारतीय विद्वान् भी इसे दर्शन कहने में संकोच करते हैं, क्योंकि न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग और वेदांत में जिस प्रकार तत् तत् प्रकरणों में प्रमाण और प्रमेयों के द्वारा आत्मा-अनात्मा, बंध-मोक्ष आदि का मुख्य रूप से विवेचन मिलता है, वैसा मीमांसा दर्शन के सूत्र, भाष्य और वार्तिक आदि में दृष्टिगोचर नहीं होता। उपर्युक्त विचारकों ने स्थूल बुद्धि से ग्रंथ का अध्ययन कर अपने विचार व्यक्त किए हैं। फिर भी स्पष्ट है कि मीमांसा दर्शन ही सभी दर्शनों का सहयोगी कारण है। जैमिनि ने इन विषयों का बीज रूप से अपने सूत्रों में उपन्यास किया है "सत्संप्रयोगे पुरुषस्येंद्रियणां बुद्धि जन्म तत् प्रत्यक्षम्" (जै.ध.मी.सू. १।१।४) चतुर्थ सूत्र में दो शब्द आए हैं - पुरुष और बुद्धि। पुरुष शब्द से "आत्मा" ही विवक्षित है। यह अर्थ कुमारिल भट्ट ने "भाट्टदीपिका" में लिखा है। बुद्धि शब्द से ज्ञान, (प्रमिति) प्रमाता, प्रमेय और प्रमाण अर्थ को व्यक्त किया गया है। वृत्तिकार ने "तस्य निमित्त परीष्टि:" पर्यत तीन सूत्रों में प्रत्यक्ष, अनुमान शब्द, अर्थापति और अनुपलब्धि प्रमाणों का सपरिकर विशद विवेचन तथा औत्पत्तिक सूत्र में आत्मवाद का विशेष विवेचन अपने व्याख्यान में किया है। इसी का विश्लेषण शाबर भाष्य, श्लोक वार्तिक, शास्त्रदीपिका, भाट्ट चिंतामणि आदि ग्रंथों में किया गया है जिसमें प्रमाण और प्रमेयों का भेद, बंध, मोक्ष और उनके साधनों का भी विवेचन है। मीमांसा दर्शन में भारतवर्ष के मुख्य प्राणधन धर्म का वर्णाश्रम व्यवस्था, आधानादि, अश्वमेधांत आदि विचारों का विवेचन किया गया है। प्राय: विश्व में ज्ञानी और विरक्त पुरुष सर्वत्र होते आए हैं, किंतु धर्माचरण के साक्षात् फलवेत्ता और कर्मकांड के प्रकांड विद्वान् भारतवर्ष में ही हुए हैं। इनमें कात्यायन, आश्वलायन, आपस्तंब, बोधायन, गौतम आदि महर्षियों के ग्रंथ आज भी उपलब्ध हैं। (कर्मकांड के विद्वानों के लिए उपनिषदों में महाशाला; श्रोत्रिया:, यह विशेषण प्राप्त होता है)। भारतीय कर्मकांड सिद्धांत का प्रतिदान और समर्थन इसी दर्शन में प्राप्त होता है। डॉ॰ कुंनन् राजा ने "बृहती" के द्वितीय संस्करण की भूमिका में इसका समुचित रूप से निरूपण किया है। यद्यपि कणाद मुनि कृत वैशेषिक दर्शन में धर्म का नामतः उल्लेख प्राप्त होता है - (1. 1, 11. 1. 2, 1.1. 3) तथापि उसके विषय में आगे विचार नहीं किया गया है। किसी विद्वान् का कहना है - अर्थात् जैसे कोई मनुष्य समुद्र पर्यन्त जाने की इच्छा रखते हुए हिमालय में चला जाता है, उसी प्रकार धर्म के व्याख्यान के इच्छुक कणाद मुनि षट् पदार्थों का विवेचन करते रह गए। उत्तर मीमांसा (वेदान्त) के सिद्धांत के अनुसार कर्मत्याग के पश्चात् ही आत्मज्ञान प्राप्ति का अधिकार है, किंतु पूर्व मीमांसा दर्शन के अनुसार - इस वेदमंत्र के अनुसार मुमुक्षु जनों को भी कर्म करना चाहिए। वेदविहित कर्म करने से कर्मबंधन स्वत: समाप्त हो जाता है - ("कर्मणा त्यज्यते ह्यसौ।) तस्मान्मुमुक्षुभिः कार्य नित्यं नैमित्तिकं तथा" आदि वचनों के अनुसार भारतीय आस्तिक दर्शनों का मुख्य प्राण मीमांसा दर्शन है। .

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शुल्बसूत्र

शुल्ब सूत्र या शुल्बसूत्र संस्कृत के सूत्रग्रन्थ हैं जो स्रौत कर्मों से सम्बन्धित हैं। इनमें यज्ञ-वेदी की रचना से सम्बन्धित ज्यामितीय ज्ञान दिया हुआ है। संस्कृत कें शुल्ब शब्द का अर्थ नापने की रस्सी या डोरी होता है। अपने नाम के अनुसार शुल्ब सूत्रों में यज्ञ-वेदियों को नापना, उनके लिए स्थान का चुनना तथा उनके निर्माण आदि विषयों का विस्तृत वर्णन है। ये भारतीय ज्यामिति के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। .

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श्रौतसूत्र

श्रौतसूत्र वैदिक ग्रन्थ हैं और वस्तुत: वैदिक कर्मकांड का कल्पविधान है। श्रौतसूत्र के अंतर्गत हवन, याग, इष्टियाँ एवं सत्र प्रकल्पित हैं। इनके द्वारा ऐहिक एवं पारलोकिक फल प्राप्त होते हैं। श्रौतसूत्र उन्हीं वेदविहित कर्मों के अनुष्ठान का विधान करे हैं जो श्रौत अग्नि पर आहिताग्नि द्वारा अनुष्ठेय हैं। 'श्रौत' शब्द 'श्रुति' से व्युत्पन्न है। ये रचनाएँ दिव्यदर्शी कर्मनिष्ठ महर्षियों द्वारा सूत्रशैली में रचित ग्रंथ हैं जिनपर परवर्ती याज्ञिक विद्वानों के द्वारा प्रणीत भाष्य एवं टीकाएँ तथा तदुपकारक पद्धतियाँ एवं अनेक निबंधग्रंथ उपलब्ध हैं। इस प्रकार उपलब्ध सूत्र तथा उनके भाष्य पर्याप्त रूप से प्रमाणित करते हैं कि भारतीय साहित्य में इनका स्थान कितना प्रमुख रहा है। पाश्चात्य मनीषियों को भी श्रौत साहित्य की महत्ता ने अध्ययन की ओर आवर्जित किया जिसके फलस्वरूप पाश्चात्य विद्वानों ने भी अनेक अनर्घ संस्करण संपादित किए। .

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स्मार्त सूत्र

पश्चिमी भारत के स्मार्त ब्राह्मण (१८५५ से १८६२ के बीच का चित्र) प्राचीन वैदिक साहित्य की विशाल परंपरा में अंतिम कड़ी सूत्रग्रंथ हैं। यह सूत्र-साहित्य तीन प्रकार का है: श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र तथा धर्मसूत्र। वेद द्वारा प्रतिपादित विषयों को स्मरण कर उन्हीं के आधार पर आचार-विचार को प्रकाशित करनेवाली शब्दराशि को "स्मृति" कहते हैं। स्मृति से विहित कर्म स्मार्त कर्म हैं। इन कर्मों की समस्त विधियाँ स्मार्त सूत्रों से नियंत्रित हैं। स्मार्त सूत्र का नामांतर गृह्यसूत्र है। अतीत में वेद की अनेक शाखाएँ थीं। प्रत्येक शाखा के निमित्त गृह्यसूत्र भी होंगे। वर्तमानकाल में जो गृह्यसूत्र उपलब्ध हैं वे अपनी शाखा के कर्मकांड को प्रतिपादित करते हैं। .

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हारीत धर्मसूत्र

https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Dharma_sutra.jpg हारीत की मान्यता अत्यन्त प्राचीन धर्मसूत्रकार के रूप में हैं। बौधायन धर्मसूत्र, आपस्तम्ब धर्मसूत्र और वासिष्ठ धर्मसूत्रों में हारीत को बार–बार उद्धत किया गया है। हारीत के सर्वाधिक उद्धरण आपस्तम्ब धर्मसूत्र में प्राप्त होते हैं। तन्त्रवार्तिक* में हारीत का उल्लेख गौतम, वसिष्ठ, शंख और लिखित के साथ है। परवर्ती धर्मशास्त्रियों ने तो हारीत के उद्धरण पौनः पुन्येन दिये हैं, किन्तु हारीत धर्मसूत्र का जो हस्तलेख उपलब्ध हुआ है और जिसका स्वरूप 30 अध्यायात्मक है, उसमें इनमें से बहुत से उद्धरण नहीं प्राप्त होते हैं। धर्मशास्त्रीय निबन्धों में उपलब्ध हारीत के वचनों से ज्ञात होता है कि उन्होंने धर्मसूत्रों में वर्णित प्रायः सभी विषयों पर अपने विचार प्रकट किए थे। मनुस्मृति के व्याख्याकार कुल्लूक भट्ट के अनुसार हारीत धर्मसूत्र का प्रारम्भिक अंश इस प्रकार था – नासिक (महाराष्ट्र) जनपद के इस्मालपुर नामक स्थान पर हारीत धर्मसूत्र का एक हस्तलेख वामनशास्त्री को मिला था जिसमें 30 अध्याय हैं। यह अत्यन्त भ्रष्ट है और इसमें उद्धृतांश भी नहीं मिलते, इस कारण काणे प्रभृति मनीषियों ने इसकी प्रामाणिकता पर सन्देह व्यक्त किया है। .

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हिरण्यकेशि धर्मसूत्र

हिरण्यकेशिकल्प के 26 वें तथा 27 वें प्रश्नों की मान्यता धर्मसूत्र के रूप में है, किन्तु यह वास्तव में स्वतन्त्र कृति न होकर आपस्तम्ब धर्मसूत्र की ही पुनः प्रस्तुति प्रतीत होती है। अन्तर केवल इतना है कि आपस्तम्ब धर्मसूत्र के अनेक आर्ष प्रयोगों को इसमें प्रचलित लौकिक संस्कृत के अनुरूप परिवर्तित कर दिया गया। उदाहरण के लिए आपस्तम्ब 'प्रक्षालयति' और 'शक्तिविषयेण' सदृश शब्द हिरण्यकेशि धर्मसूत्र में क्रमशः 'प्रक्षालयेत्' और 'यथाशक्ति' रूप में प्राप्त होते हैं। सूत्रों के क्रम में भी भिन्नता है। आपस्तम्ब के अनेक सूत्रों को हिरण्यकेशि धर्मसूत्र में विभक्त भी कर दिया गया है। इस पर महादेव दीक्षितकृत 'उज्ज्वला' वृत्ति उपलब्ध है। संभवतः अभी तक इसका कोई भी संस्करण प्रकाशित नहीं हो सका है। .

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वसिष्ठ धर्मसूत्र

कुमारिल भट्ट ने वासिष्ठ धर्मसूत्र का सम्बन्ध ऋग्वेद से स्थापित किया है। म. म. काणे ने भी इससे सहमति व्यक्त की है, किन्तु उनकी मान्यतानुसार ऋग्वेदियों ने इसे अपने कल्प के पूरक रूप में बाद में ही स्वीकार किया। धर्मसूत्रगत उपनयन, अनध्याय, स्नातक के व्रतों और पंचमहायज्ञों से सम्बद्ध प्रकरणों का शांखायन गृह्यसूत्रगत तद्विषयक सामग्री से बहुत सादृश्य है। आश्वलायन गृह्यसूत्र के भी कुछ अंशों से इसकी समानता है। इनके अतिरिक्त पारस्कर गृह्यसूत्र के कतिपय सूत्रों का साम्य भी इसके साथ परिलक्षित होता है। धर्मसूत्रों में गौतम धर्मसूत्र के साथ इसका विशेष सम्बन्ध है। गौतम के सोलहवें और वासिष्ठ के दूसरे अध्यायों में अक्षरशः साम्य दिखलाई देता है। वासिष्ठ धर्मसूत्र की उपलब्ध पाण्डुलिपियों और प्रकाशित संस्करणों में स्वरूपगत पुष्न्कल वैभिन्न्य है। जीवानंद के संस्करण में लगभग 21 अध्याय हैं तथा आनन्दाश्रम और डॉ॰ फ्यूहरर के संस्करणों में 30 अध्याय हैं। इसकी संरचना प्रायः पद्यात्मक है। सूत्रों का परिमाण बहुत कम है। बहुसंख्यक प्राचीन व्याख्याकारों, यथा विश्वरूप, मेधातिथि प्रभृति ने वासिष्ठ धर्मसूत्र को अत्यन्त आदरपूर्वक उद्धृत किया है। इसमें प्रतिपादित विषयों का विवरण इस प्रकार हैः–.

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विष्णु धर्मसूत्र

विष्णु धर्मसूत्र विष्णु धर्मसूत्र को 'विष्णु स्मृति' अथवा 'वैष्णव धर्मशास्त्र' भी कहते है। इसमें 100 अध्याय हैं जिनमें से कुछ अध्याय अत्यंत संक्षिप्त हैं। उनमें एक–एक पद्य और एक–एक सूत्र मात्र ही हैं। प्रथम और अन्तिम अध्याय पूर्णतया पद्यात्मक हैं। .

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वैखानस धर्मसूत्र

स्म्रिती मे वैखानस धर्मसूत्र। वैखानस धर्मसूत्र में तीन प्रश्न हैं जिनका विभाजन 51 खण्डों में है। इनमें 365 सूत्र मिलते हैं। प्रवरखण्ड के 68 सूत्र इनसे पृथक हैं। .

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वेद

वेद प्राचीन भारत के पवितत्रतम साहित्य हैं जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के, मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं, जो ईश्वर की वाणी है। ये विश्व के उन प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथों में हैं जिनके पवित्र मन्त्र आज भी बड़ी आस्था और श्रद्धा से पढ़े और सुने जाते हैं। 'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् शब्द से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान के ग्रंथ' है। इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं। आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है -.

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गौतम धर्मसूत्र

गौतम धर्मसूत्र अब तक उपलब्ध धर्मसूत्रों में प्राचीनतम है। यद्यपि सभी धर्मसूत्र ग्रंथ बिना किसी शाखाभेद के संपूर्ण आर्यजन को सामान्य रूप से मान्य हैं, तथापि कुमारिल (तंत्रवार्तिक, काशी, पृ. 179) के अनुसार गौतम धर्मसूत्र और गोभिल गृह्यसूत्र छंदोग (सामवेद) अध्येताओं के द्वारा विशेष रूप से परिगृहीत हैं। गौतम धर्मसूत्र के आंतरिक साक्ष्य से कुमारिल के मत की पुष्टि होती है। इस ग्रंथ का संपूर्ण 26वां अध्याय सामवेद के ब्राह्मण सामविधान से गृहीत है। सामवेदीय गोभिलगृह्यसूत्र में गौतम के प्रमाणों के उद्धरण हैं। परंपरा के अनुसार सामवेद की शाखा राणायनीय का एक सूत्रचरण गौतम था और संभवत: इसी सूत्रचरण में गौतमधर्मसूत्र की रचना हुई। यह कल्पना भी दूरारूढ़ नहीं कि धर्मसूत्र के अतिरिक्त गौतमसूत्रचरण के गृह्य और श्रौतस्त्र थे जो अब उपलब्ध नहीं। सामयाचारिक अथवा स्मार्त धर्म का विवेचन करनेवाले इस धर्मसूत्र में 28 अध्याय हैं, जिनमें वर्ण, आश्रम और निमित्त (प्रायश्चित्त) धर्मों का विस्तृत तथा गुणधर्म (राजधर्म) का अपेक्षतया संक्षिप्त विधान है। धर्मप्रमाण, प्रमाणों का पौर्वापर्य, उपनयन, शौच (अ. 1-2), ब्रह्मचारी, भिक्षु और बैखानस आश्रमों की विधि (अ.-3), गृहस्थाश्रम से संबद्ध संस्कार और कर्तव्य (अ. 4-6), ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्तव्य (अ. 9-10), राजधर्म (अ. 11), दंड (अ. 11-13), शौच (अ. 14), स्त्रीधर्म (अ. 18), प्रायश्चित्त (अ. 18-27), दायभाग (अ. 27, 28) एवं पुत्रों के प्रकार (अ. 28) का विवेचन है। इस धर्मसूत्र का उपलब्ध रूप अनेक प्रक्षेपों से युक्त है। उदाहरण के लिये 19वें अध्याय में कर्मविपाक का अंश बाद में जोड़ा गया है। इसपर न तो मस्करी का भाष्य और न हरदत्त की व्याख्या है। बौधायन (2, 2, 4, 17) द्वारा उद्धृत गौतमधर्मसूत्र के वचन तथा प्रस्तुत धर्मसूत्र के आंतरिक साक्ष्य पर अध्याय 6 का छठा सूत्र भी परवर्ती प्रक्षेप प्रतीत होता है। इसमें अन्य धर्मसूत्रों के समान बीच बीच में फुटकर पद्य नहीं हैं। संपूर्ण गौतमधर्मसूत्र गद्य में है, यद्यपि कुछ सूत्र वत्तगंधिशैली में लिखे गए हैं और अनुष्टुप् के अंश प्रतीत होते हैं, अन्य धर्मसूत्रों की अपेक्षा इसकी भाषा पाणिनीय व्याकरण की अधिक अनुयायिनी है, किंतु यह संस्कार भी बाद का प्रतीत होता है। क्योंकि इस धर्मसूत्र में सामविधान ब्राह्मण का एक अंश गृहीत है और वसिष्ठ और बौधायन धर्मसूत्रों में इस धर्मसूत्र के मतों का नामपूर्वक उल्लेख है, अत: इसकी रचना सामविधान ब्राह्मण के बाद और वसिष्ठ और बौधायनधर्मसूत्रों के पूर्व हुई होगी। इस तथ्य तथा बौद्ध धर्म के द्वारा की गई वर्णाश्रम धर्म की आलोचना के अनुल्लेख तथा उसकी प्रत्यालोचन के अभाव के आधार पर इस धर्मसूत्र का रचनाकाल 600-400 ई. पूर्व माना गया है। इसपर हरदत्त की "मिताक्षरा" व्याख्या और मस्करी का "भाष्य" है। .

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आपस्तम्ब धर्मसूत्र

आपस्तम्बीय कल्प के 30 प्रश्नों में से 28वें तथा 29वें प्रश्नों को आपस्तम्ब धर्मसूत्र नाम से अभिहित किया जाता है। ये दोनों प्रश्न 11–11 पटलों में विभक्त है, जिनमें क्रमशः 32 और 29 कण्डिकायें प्राप्त हैं। .

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कुमारिल भट्ट

कुमारिल भट्ट (लगभग ६५० ई) मीमांसा दर्शन के दो प्रधान संप्रदायों में से एक भटसंप्रदाय के संस्थापक थे। उन्होने बौद्ध धर्म को भारत से समूल उखाड़ने के लिए बौद्धिक दिग्विजय का दिव्य अभियान चलाया। कुमारिल भट ने जो आधार तैयार किया उसी पर आदि शंकराचार्य विशाल भवन उठाया। .

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ऋग्वेद

ऋग्वेद सनातन धर्म का सबसे आरंभिक स्रोत है। इसमें १०२८ सूक्त हैं, जिनमें देवताओं की स्तुति की गयी है इसमें देवताओं का यज्ञ में आह्वान करने के लिये मन्त्र हैं, यही सर्वप्रथम वेद है। ऋग्वेद को इतिहासकार हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की अभी तक उपलब्ध पहली रचनाऔं में एक मानते हैं। यह संसार के उन सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक है जिसकी किसी रूप में मान्यता आज तक समाज में बनी हुई है। यह एक प्रमुख हिन्दू धर्म ग्रंथ है। ऋक् संहिता में १० मंडल, बालखिल्य सहित १०२८ सूक्त हैं। वेद मंत्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है, जिसमें एकदैवत्व तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है। ऋग्वेद में ही मृत्युनिवारक त्र्यम्बक-मंत्र या मृत्युंजय मन्त्र (७/५९/१२) वर्णित है, ऋग्विधान के अनुसार इस मंत्र के जप के साथ विधिवत व्रत तथा हवन करने से दीर्घ आयु प्राप्त होती है तथा मृत्यु दूर हो कर सब प्रकार का सुख प्राप्त होता है। विश्व-विख्यात गायत्री मन्त्र (ऋ० ३/६२/१०) भी इसी में वर्णित है। ऋग्वेद में अनेक प्रकार के लोकोपयोगी-सूक्त, तत्त्वज्ञान-सूक्त, संस्कार-सुक्त उदाहरणतः रोग निवारक-सूक्त (ऋ०१०/१३७/१-७), श्री सूक्त या लक्ष्मी सूक्त (ऋग्वेद के परिशिष्ट सूक्त के खिलसूक्त में), तत्त्वज्ञान के नासदीय-सूक्त (ऋ० १०/१२९/१-७) तथा हिरण्यगर्भ सूक्त (ऋ०१०/१२१/१-१०) और विवाह आदि के सूक्त (ऋ० १०/८५/१-४७) वर्णित हैं, जिनमें ज्ञान विज्ञान का चरमोत्कर्ष दिखलाई देता है। ऋग्वेद के विषय में कुछ प्रमुख बातें निम्नलिखित है-.

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