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दैववाद

सूची दैववाद

भगवद्गीता के अनुसार, प्रत्येक क्रिया के पाँच कारण होते हैं- अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव। दैव कारण का वह भाग है जो मनुष्य के उद्योग से सबंद्ध नहीं। दैववाद के अनुसार यह अंश क्रिया का संपूर्ण कारण है; मनुष्य भी कर्ता नहीं, करण ही है, हमारा सारा जीवन भाग्यवश व्यतीत होता है। प्रकृतिवाद प्रकृतिनियम को इस भाग्य का विधाता बताता है। विकसित धर्मों में कुछ देव को ईश्वरेच्छा के अर्थ में लेते हैं। प्रकृतिवाद कहता है कि जब सारा विश्व नियमाधीन चल रहा है, तो इसका अति अल्प भाग नियम की उपेक्षा नहीं कर सकता। सेंट आगस्तिन ने कहा कि सर्वज्ञ होने के कारण ईश्वर भविष्य में होनेवाले कर्मों को भी जानता है। परंतु ज्ञान का विषय कोई ऐसा पदार्थ ही हो सकता है जिसका वास्तविक अस्तित्व हो; इसलिए ऐसे कर्म पहले ही ईश्वर की ओर से निर्णीत हो चुके होते हैं। अनुभव बताता है कि हमारी स्वाधीनता परिमित तो है, परंतु हम यह नहीं मान सकते कि हम सर्वथा पराधीन हैं। किसी वस्तु को देखने में ही हमारा मन उपलब्धों को संयुक्त करता है और अपनी स्वाधीनता की घोषणा करता है। नैतिक जीवन का तो आधार ही स्वाधीनता है। अभाव में उत्तरदायित्व के लिए कोई स्थान नहीं। स्वंय धर्म के लिए भी दैववाद कठिनाइयाँ खड़ी कर देता है। यदि हमारा भाग्य पूर्ण रूप से ईश्वर ने निश्चित किया है, तो पुण्य पाप हमारे कर्म ही नहीं; उनका फल हमें क्यों मिलेगा? इस कठिनाई से बचने के लिए कुछ विचारक कहते हैं कि दैव हमारे पूर्वजन्मों के कर्मों का संस्कार ही है; हमारा भाग्य, हमारा अपना बनाया हुआ है। .

3 संबंधों: देववाद, प्रकृतिवाद (दर्शन), श्रीमद्भगवद्गीता

देववाद

देववाद के एक समर्थक थॉमस चब्ब देववाद या तटस्थेश्वरवाद (Deism) के अनुसार, सत्य की खोज में बुद्धि प्रमुख अस्त्र और अंतिम अधिकार है। ज्ञान के किसी भाग में भी बुद्धि के अधिकार से बड़ा कोई अन्य अधिकार विद्यमान नहीं। यह दावा धर्म और ज्ञानमीमांसा के क्षेत्रों में विशेष रूप में विवाद का विषय बनता रहा है। ईसाई मत में धर्म की नींव विश्वास पर रखी गई है। जो सत्य ईश्वर की ओर से आविष्कृत हुए है, वे मान्य हैं, चाहे वे बुद्धि की पहुँच के बाहर हों, उसके प्रतिकूल भी हों। 18वीं शती में, इंग्लैंड में कुछ विचारकों ने धर्म को दैवी आविष्कार के बजाय मानव चिंतन की नींव पर खड़ा करने का यत्न किया। आरंभ में अलौकिक या प्रकृतिविरुद्ध सिद्धांत उनके आक्रमण के विषय बने; इसके बाद ऐसी घटनाओं की बारी आई, जिन्हें ऐतिहासिक खोज ने असत्य बताया; और अंत में कहा गया कि जिस जीवनव्यवस्था को ईसाइयत आदर्श व्यवस्था के रूप में उपस्थित करती है, वह स्वीकृति के योग्य नहीं। टोलैंड (John Toland), चब्ब (Thomas Chubb) और बोर्लिगब्रोक (Bolingbroke) बुद्धिवाद के इन तीनों स्वरूपों के प्रतिनिधि तथा प्रसारक थे। ज्ञानमीमांसा में बुद्धिवाद और अनुभववाद का विरोध है। अनुभववाद के अनुसार, मनुष्य का मन एक कोरी तख्ती है, जिस पर अनेक प्रकार के बाह्य प्रभाव अंकित होते हैं; हमारा सारा ज्ञान बाहर से प्राप्त होता है। इसके विपरीत, बुद्धिवाद कहता है कि सारा ज्ञान अंदर से उपजता है। जो कुछ इंद्रियों के द्वारा प्राप्त होता है, उसे प्लेटो ने केवल "संमति" का पद दिया। बुद्धिवाद के अनुसार गणित सत्य ज्ञान का नमूना है। गणित की नींव लक्षणों और स्वयंसिद्ध धारणाओं पर होती है और ये दोनों मन की कृतियाँ हैं। आधुनिक काल में, डेकार्ट ने निर्मल और स्पष्ट प्रत्ययों को सत्य की कसौटी बताया। स्पिनोज़ा ने अपनी विख्यात पुस्तक "नीति" को रेखागणित का आकार दिया। वह कुछ परिभाषाओं और स्वत:सिद्ध धारणाओं से आरंभ करता है और प्रत्येक साध्य को उपयोगी उपपत्ति से प्रमाणित करता है। .

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प्रकृतिवाद (दर्शन)

प्रकृतिवाद (Naturalism) पाश्चात्य दार्शनिक चिन्तन की वह विचारधारा है जो प्रकृति को मूल तत्त्व मानती है, इसी को इस बरह्माण्ड का कर्ता एवं उपादान (कारण) मानती है। यह वह 'विचार' या 'मान्यता' है कि विश्व में केवल प्राकृतिक नियम (या बल) ही कार्य करते हैं न कि कोई अतिप्राकृतिक या आध्यातिम नियम। अर्थात् प्राक्रितिक संसार के परे कुछ भी नहीं है। प्रकृतिवादी आत्मा-परमात्मा, स्पष्ट प्रयोजन आदि की सत्ता में विश्वास नहीं करते। यूनानी दार्शनिक थेल्स (६४० ईसापूर्व-५५० इसापूर्व) का नाम सबसे पहले प्रकृतिवादियों में आता है जिसने इस सृष्टि की रचना जल से सिद्ध करने का प्रयास किया था। किन्तु स्वतन्त्र दर्शन के रूप में इसका बीजारोपण डिमोक्रीटस (४६०-३७० ईसापूर्व) ने किया। प्रकृतिवादी विचारक बुद्धि को विशेष महत्व देते हैं परन्तु उनका विचार है कि बुद्धि का कार्य केवल वाह्य परिस्थितियों तथा विचारों को काबू में लाना है जो उसकी शक्ति से बाहर जन्म लेते हैं। इस प्रकार प्रकृतिवादी आत्मा-परमात्मा, स्पष्ट प्रयोजन इत्यादि की सत्ता में विश्वास नहीं करते हैं। प्रो.

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श्रीमद्भगवद्गीता

कुरु क्षेत्र की युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था वह श्रीमद्भगवदगीता के नाम से प्रसिद्ध है। यह महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है। गीता में १८ अध्याय और ७०० श्लोक हैं। जैसा गीता के शंकर भाष्य में कहा है- तं धर्मं भगवता यथोपदिष्ट वेदव्यास: सर्वज्ञोभगवान् गीताख्यै: सप्तभि: श्लोकशतैरु पनिबंध। ज्ञात होता है कि लगभग ८वीं सदी के अंत में शंकराचार्य (७८८-८२०) के सामने गीता का वही पाठ था जो आज हमें उपलब्ध है। १०वीं सदी के लगभग भीष्मपर्व का जावा की भाषा में एक अनुवाद हुआ था। उसमें अनेक मूलश्लोक भी सुरक्षित हैं। श्रीपाद कृष्ण बेल्वेलकर के अनुसार जावा के इस प्राचीन संस्करण में गीता के केवल साढ़े इक्यासी श्लोक मूल संस्कृत के हैं। उनसे भी वर्तमान पाठ का समर्थन होता है। गीता की गणना प्रस्थानत्रयी में की जाती है, जिसमें उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र भी संमिलित हैं। अतएव भारतीय परंपरा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रों का है। गीता के माहात्म्य में उपनिषदों को गौ और गीता को उसका दुग्ध कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या थी, उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। उपनिषदों की अनेक विद्याएँ गीता में हैं। जैसे, संसार के स्वरूप के संबंध में अश्वत्थ विद्या, अनादि अजन्मा ब्रह्म के विषय में अव्ययपुरुष विद्या, परा प्रकृति या जीव के विषय में अक्षरपुरुष विद्या और अपरा प्रकृति या भौतिक जगत के विषय में क्षरपुरुष विद्या। इस प्रकार वेदों के ब्रह्मवाद और उपनिषदों के अध्यात्म, इन दोनों की विशिष्ट सामग्री गीता में संनिविष्ट है। उसे ही पुष्पिका के शब्दों में ब्रह्मविद्या कहा गया है। गीता में 'ब्रह्मविद्या' का आशय निवृत्तिपरक ज्ञानमार्ग से है। इसे सांख्यमत कहा जाता है जिसके साथ निवृत्तिमार्गी जीवनपद्धति जुड़ी हुई है। लेकिन गीता उपनिषदों के मोड़ से आगे बढ़कर उस युग की देन है, जब एक नया दर्शन जन्म ले रहा था जो गृहस्थों के प्रवृत्ति धर्म को निवृत्ति मार्ग के समकक्ष और उतना ही फलदायक मानता था। इसी का संकेत देनेवाला गीता की पुष्पिका में ‘योगशास्त्रे’ शब्द है। यहाँ ‘योगशास्त्रे’ का अभिप्राय नि:संदेह कर्मयोग से ही है। गीता में योग की दो परिभाषाएँ पाई जाती हैं। एक निवृत्ति मार्ग की दृष्टि से जिसमें ‘समत्वं योग उच्यते’ कहा गया है अर्थात् गुणों के वैषम्य में साम्यभाव रखना ही योग है। सांख्य की स्थिति यही है। योग की दूसरी परिभाषा है ‘योग: कर्मसु कौशलम’ अर्थात् कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसे उपाय से कर्म करना कि वह बंधन का कारण न हो और कर्म करनेवाला उसी असंग या निर्लेप स्थिति में अपने को रख सके जो ज्ञानमार्गियों को मिलती है। इसी युक्ति का नाम बुद्धियोग है और यही गीता के योग का सार है। गीता के दूसरे अध्याय में जो ‘तस्य प्रज्ञाप्रतिष्ठिता’ की धुन पाई जाती है, उसका अभिप्राय निर्लेप कर्म की क्षमतावली बुद्धि से ही है। यह कर्म के संन्यास द्वारा वैराग्य प्राप्त करने की स्थिति न थी बल्कि कर्म करते हुए पदे पदे मन को वैराग्यवाली स्थिति में ढालने की युक्ति थी। यही गीता का कर्मयोग है। जैसे महाभारत के अनेक स्थलों में, वैसे ही गीता में भी सांख्य के निवृत्ति मार्ग और कर्म के प्रवृत्तिमार्ग की व्याख्या और प्रशंसा पाई जाती है। एक की निंदा और दूसरे की प्रशंसा गीता का अभिमत नहीं, दोनों मार्ग दो प्रकार की रु चि रखनेवाले मनुष्यों के लिए हितकर हो सकते हैं और हैं। संभवत: संसार का दूसरा कोई भी ग्रंथ कर्म के शास्त्र का प्रतिपादन इस सुंदरता, इस सूक्ष्मता और निष्पक्षता से नहीं करता। इस दृष्टि से गीता अद्भुत मानवीय शास्त्र है। इसकी दृष्टि एकांगी नहीं, सर्वांगपूर्ण है। गीता में दर्शन का प्रतिपादन करते हुए भी जो साहित्य का आनंद है वह इसकी अतिरिक्त विशेषता है। तत्वज्ञान का सुसंस्कृत काव्यशैली के द्वारा वर्णन गीता का निजी सौरभ है जो किसी भी सहृदय को मुग्ध किए बिना नहीं रहता। इसीलिए इसका नाम भगवद्गीता पड़ा, भगवान् का गाया हुआ ज्ञान। .

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