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5 संबंधों: चीन, चीन का इतिहास, भारत-चीन सम्बन्ध, शान्ति, अफ़ीम युद्ध।
चीन
---- right चीन विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में से एक है जो एशियाई महाद्वीप के पूर्व में स्थित है। चीन की सभ्यता एवं संस्कृति छठी शताब्दी से भी पुरानी है। चीन की लिखित भाषा प्रणाली विश्व की सबसे पुरानी है जो आज तक उपयोग में लायी जा रही है और जो कई आविष्कारों का स्रोत भी है। ब्रिटिश विद्वान और जीव-रसायन शास्त्री जोसफ नीधम ने प्राचीन चीन के चार महान अविष्कार बताये जो हैं:- कागज़, कम्पास, बारूद और मुद्रण। ऐतिहासिक रूप से चीनी संस्कृति का प्रभाव पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों पर रहा है और चीनी धर्म, रिवाज़ और लेखन प्रणाली को इन देशों में अलग-अलग स्तर तक अपनाया गया है। चीन में प्रथम मानवीय उपस्थिति के प्रमाण झोऊ कोऊ दियन गुफा के समीप मिलते हैं और जो होमो इरेक्टस के प्रथम नमूने भी है जिसे हम 'पेकिंग मानव' के नाम से जानते हैं। अनुमान है कि ये इस क्षेत्र में ३,००,००० से ५,००,००० वर्ष पूर्व यहाँ रहते थे और कुछ शोधों से ये महत्वपूर्ण जानकारी भी मिली है कि पेकिंग मानव आग जलाने की और उसे नियंत्रित करने की कला जानते थे। चीन के गृह युद्ध के कारण इसके दो भाग हो गये - (१) जनवादी गणराज्य चीन जो मुख्य चीनी भूभाग पर स्थापित समाजवादी सरकार द्वारा शासित क्षेत्रों को कहते हैं। इसके अन्तर्गत चीन का बहुतायत भाग आता है। (२) चीनी गणराज्य - जो मुख्य भूमि से हटकर ताईवान सहित कुछ अन्य द्वीपों से बना देश है। इसका मुख्यालय ताइवान है। चीन की आबादी दुनिया में सर्वाधिक है। प्राचीन चीन मानव सभ्यता के सबसे पुरानी शरणस्थलियों में से एक है। वैज्ञानिक कार्बन डेटिंग के अनुसार यहाँ पर मानव २२ लाख से २५ लाख वर्ष पहले आये थे। .
देखें चीन के वैदेशिक सम्बन्ध और चीन
चीन का इतिहास
चीन के राजवंशों की राज्यसीमाएँ पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर चीन में मानव बसाव लगभग साढ़े बाईस लाख (22.5 लाख) साल पुराना है। चीन की सभ्यता विश्व की पुरातनतम सभ्यताओं में से एक है। यह उन गिने-चुने सभ्यताओं में एक है जिन्होनें प्राचीन काल में अपना स्वतंत्र लेखन पद्धति का विकास किया। अन्य सभ्यताओं के नाम हैं - प्राचीन भारत (सिंधु घाटी सभ्यता), मेसोपोटामिया की सभ्यता, मिस्र सभ्यता और माया सभ्यता। चीनी लिपि अब भी चीन, जापान के साथ-साथ आंशिक रूप से कोरिया तथा वियतनाम में प्रयुक्त होती है। .
देखें चीन के वैदेशिक सम्बन्ध और चीन का इतिहास
भारत-चीन सम्बन्ध
भारत (हरा) तथा चीन (केसरिया) चीन व भारत विश्व के दो बड़े विकासशील देश हैं। दोनों ने विश्व की शांति व विकास के लिए अनेक काम किये हैं। चीन और उसके सब से बड़े पड़ोसी देश भारत के बीच लंबी सीमा रेखा है। लम्बे अरसे से चीन सरकार भारत के साथ अपने संबंधों का विकास करने को बड़ा महत्व देती रही है। इस वर्ष की पहली अप्रैल को चीन व भारत के राजनयिक संबंधों की स्थापना की 55वीं वर्षगांठ है। वर्ष 1949 में नये चीन की स्थापना के बाद के अगले वर्ष, भारत ने चीन के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किये। इस तरह भारत चीन लोक गणराज्य को मान्यता देने वाला प्रथम गैरसमाजवादी देश बना। चीन व भारत के बीच राजनयिक संबंधों की औपचारिक स्थापना के बाद के पिछले 55 वर्षों में चीन-भारत संबंध कई सोपानों से गुजरे। उनका विकास आम तौर पर सक्रिय व स्थिर रहा, लेकिन, बीच में मीठे व कड़वी स्मृतियां भी रहीं। इन 55 वर्षों में दोनों देशों के संबंधों में अनेक मोड़ आये। आज के इस कार्यक्रम में हम चीन व भारत के राजनीतिक संबंधों का सिंहावलोकन करेंगे। प्रोफेसर मा जा ली चीन के आधुनिक अंतरराष्ट्रीय संबंध अनुसंधान संस्थान के दक्षिणी एशिया अनुसंधान केंद्र के प्रधान हैं। वे तीस वर्षों से चीन व भारत के राजनीतिक संबंधों के अनुसंधान में लगे हैं। श्री मा जा ली ने पिछले भारत-चीन संबंधों के 55 वर्षों को पांच भागों में विभाजित किया है। उन के अनुसार, 1950 के दशक में चीन व भारत के संबंध इतिहास के सब से अच्छे काल में थे। दोनों देशों के शीर्ष नेताओं ने तब एक-दूसरे के यहां की अनेक यात्राएं कीं और उनकी जनता के बीच भी खासी आवाजाही रही। दोनों देशों के बीच तब घनिष्ठ राजनीतिक संबंध थे। लेकिन, 1960 के दशक में चीन व भारत के संबंध अपने सब से शीत काल में प्रवेश कर गये। इस के बावजूद दोनों के मैत्रीपूर्ण संबंध कई हजार वर्ष पुराने हैं। इसलिए, यह शीतकाल एक ऐतिहासिक लम्बी नदी में एक छोटी लहर की तरह ही था। 70 के दशक के मध्य तक वे शीत काल से निकल कर फिर एक बार घनिष्ठ हुए। चीन-भारत संबंधों में शैथिल्य आया, तो दोनों देशों की सरकारों के उभय प्रयासों से दोनों के बीच फिर एक बार राजदूत स्तर के राजनयिक संबंधों की बहाली हुई। 1980 के दशक से 1990 के दशक के मध्य तक चीन व भारत के संबंधों में गर्माहट आ चुकी थी। हालांकि वर्ष 1998 में दोनों देशों के संबंधों में भारत द्वारा पांच मिसाइलें छोड़ने से फिर एक बार ठंडापन आया। पर यह तुरंत दोनों सरकारों की कोशिश से वर्ष 1999 में भारतीय विदेशमंत्री की चीन यात्रा के बाद समाप्त हो गया। अब चीन-भारत संबंध कदम ब कदम घनिष्ठ हो रहे हैं। इधर के वर्षों में चीन-भारत संबंधों में निरंतर सुधार हो रहा है। चीन व भारत के वरिष्ठ अधिकारियों के बीच आवाजाही बढ़ी है। भारत स्थित भूतपूर्व चीनी राजदूत च्यो कांग ने कहा, अब चीन-भारत संबंध एक नये काल में प्रवेश कर चुके हैं। इधर के वर्षों में, चीन व भारत के नेताओं के बीच आवाजाही बढ़ी। वर्ष 2001 में पूर्व चीनी नेता ली फंग ने भारत की यात्रा की। वर्ष 2002 में पूर्व चीनी प्रधानमंत्री जू रोंग जी ने भारत की यात्रा की। इस के बाद, वर्ष 2003 में भारतीय प्रधानमंत्री वाजपेई ने चीन की यात्रा की। उन्होंने चीनी प्रधानमंत्री वन चा पाओ के साथ चीन-भारत संबंधों के सिद्धांत और चतुर्मुखी सहयोग के घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किये। इस घोषणापत्र ने जाहिर किया कि चीन व भारत के द्विपक्षीय संबंध अपेक्षाकृत परिपक्व काल में प्रवेश कर चुके हैं। इस घोषणापत्र ने अनेक महत्वपूर्ण द्विपक्षीय समस्याओं व क्षेत्रीय समस्याओं पर दोनों के समान रुख भी स्पष्ट किये। इसे भावी द्विपक्षीय संबंधों के विकास का निर्देशन करने वाला मील के पत्थर की हैसियत वाला दस्तावेज भी माना गया। चीन व भारत के संबंध पुरानी नींव पर और उन्नत हो रहे हैं। विदेश नीति पर चीन व भारत बहुध्रुवीय दुनिया की स्थापना करने का पक्ष लेते हैं, प्रभुत्ववादी व बल की राजनीति का विरोध करते हैं और किसी एक शक्तिशाली देश के विश्व की पुलिस बनने का विरोध करते हैं। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में मौजूद वर्तमान विवादों का किस तरह निपटारा हो और देशों के बीच किस तरह का व्यवहार किया जाये ये दो समस्याएं विभिन्न देशों के सामने खड़ी हैं। चीन व भारत मानते हैं कि उनके द्वारा प्रवर्तित किये गये शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के पांच सिद्धांत संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के उन लक्ष्यों तथा सिद्धांतों को प्रतिबिंबित करते हैं, जिनका दुनिया के विभिन्न देशों द्वारा पालन किया जाना चाहिए। शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के पांच सिद्धांत यानी पंचशील चीन, भारत व म्येनमार द्वारा वर्ष 1954 के जून माह में प्रवर्तित किये गये। पंचशील चीन व भारत द्वारा दुनिया की शांति व सुरक्षा में किया गया एक महत्वपूर्ण योगदान है, और आज तक दोनों देशों की जनता की जबान पर है। देशों के संबंधों को लेकर स्थापित इन सिद्धांतों की मुख्य विषयवस्तु है- एक-दूसरे की प्रभुसत्ता व प्रादेशिक अखंडता का सम्मान किया जाये, एक- दूसरे पर आक्रमण न किया जाये, एक-दूसरे के अंदरूनी मामलों में दखल न दी जाये और समानता व आपसी लाभ के आधार पर शांतिपूर्ण सहअस्तित्व बरकारार रखा जाये। ये सिद्धांत विश्व के अनेक देशों द्वारा स्वीकार कर लिये गये हैं और द्विपक्षीय संबंधों पर हुए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों व दस्तावेजों में दर्ज किये गये हैं। पंचशील के इतिहास की चर्चा में भारत स्थित पूर्व चीनी राजदूत श्री छन रे शन ने बताया, द्वितीय विश्वॉयुद्ध से पहले, एशिया व अफ्रीका के बहुत कम देशों ने स्वतंत्रता हासिल की थी। लेकिन, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, उपनिवेशवादी व्यवस्था भंग होनी शुरू हुई। भारत व म्येनमार ने स्वतंत्रता प्राप्त की और बाद में चीन को भी मुक्ति मिली। एशिया में सब से पहले स्वतंत्रता प्राप्त करने वाले देश होने के नाते, उन्हें देशों की प्रभुसत्ता व प्रादेशिक अखंडला का कायम रहना बड़ा आवश्यक लगा और उन्हें विभिन्न देशों के संबंधों का निर्देशन करने के सिद्धांत की जरुरत पड़ी। इसलिए, इन तीन देशों के नेताओं ने मिलकर पंचशील का आह्वान किया। पंचशील ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों की सैद्धांतिक व यथार्थ कार्यवाइयों में रचनात्मक योगदान किया। पूर्व भारतीय राष्ट्रपति नारायणन ने पंचशील की महत्वता की चर्चा इस तरह की। पंचशील का आज भी भारी महत्व है। वह काफी समय से देशों के संबंधों के निपटारे का निर्देशक मापदंड रहा है। एक शांतिपूर्ण दुनिया की स्थापना करने के लिए पंचशील का कार्यावयन करना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इतिहास और अंतरराष्ट्रीय यथार्थ से जाहिर है कि पंचशील की जीवनीशक्ति बड़ी मजबूत है। उसे व्यापक जनता द्वारा स्वीकार किया जा चुका है। भिन्न-भिन्न सामाजिक प्रणाली अपनाने वाले देश पंचशील की विचारधारा को स्वीकार करते हैं। लोगों ने मान लिया है कि पंचशील शांति व सहयोग के लिए लाभदायक है और अंतरराष्ट्रीय कानूनों व मापदंडों से पूर्ण रूप से मेल खाता हैं। आज की दुनिया में परिवर्तन हो रहे हैं। पंचशील का प्रचार-प्रसार आज की कुछ समस्याओं के हल के लिए बहुत लाभदायक है। इसलिए, पंचशील आज भी एक शांतिपूर्ण विश्व व्यवस्था का आधार है। उस का आज भी भारी अर्थ व महत्व है और भविष्य में भी रहेगा। शांति व विकास की खोज करना वर्तमान दुनिया की जनता की समान अभिलाषा है। पंचशील की शांति व विकास की विचारधारा ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों के स्वस्थ विकास को आगे बढ़ाया है और भविष्य में भी वह एक शांतिपूर्ण, स्थिर, न्यायपूर्ण व उचित नयी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना में अहम भूमिका अदा करेगी। दोनों देशों के संबंधों को आगे विकसित करने के लिए वर्ष 2000 में पूर्व भारतीय राष्ट्रपति नारायणन ने चीन की राजकीय यात्रा के दौरान, पूर्व चीनी राष्ट्राध्यक्ष च्यांग ज मिन के साथ वार्ता में भारत और चीन के जाने-माने व्यक्तियों के मंच के आयोजन का सुझाव प्रस्तुत किया। इस प्रस्ताव पर श्री च्यांग ज मिन ने सकारात्मक प्रतिक्रिया दी। दोनों सरकारों ने इस मंच की स्थापना की पुष्टि की। मंच के प्रमुख सदस्य, दोनों देशों के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, वैज्ञानिक व तकनीक तथा सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों के जाने माने व्यक्ति हैं। मंच के एक सदस्य श्री च्यो कांग ने मंच का प्रमुख ध्येय इस तरह समझाया, इस मंच का प्रमुख ध्येय दोनों देशों के विभिन्न क्षेत्रों के जाने-माने व्यक्तियों द्वारा द्विपक्षीय संबंधों के विकास के लिए सुझाव प्रस्तुत करना और सरकार को परामर्श देना है। यह दोनों देशों के बीच गैरसरकारी आवाजाही की एक गतिविधियों में से एक भी है। वर्ष 2001 के सितम्बर माह से वर्ष 2004 के अंत तक इसका चार बार आयोजन हो चुका है। इसके अनेक सुझावों को दोनों देशों की सरकारों ने स्वीकृत किया है। यह मंच सरकारी परामर्श संस्था के रूप में आगे भी अपना योगदान करता रहेगा। हालांकि इधर चीन व भारत के संबंधों में भारी सुधार हुआ है, तो भी दोनों के संबंधों में कुछ अनसुलझी समस्याएं रही हैं। चीन व भारत के बीच सब से बड़ी समस्याएं सीमा विवाद और तिब्बत की हैं। चीन सरकार हमेशा से तिब्बत की समस्या को बड़ा महत्व देती आई है। वर्ष 2003 में भारतीय प्रधानमंत्री वाजपेयी ने चीन की यात्रा की और चीनी प्रधानमंत्री वन चा पाओ के साथ एक संयुक्त घोषणापत्र जारी किया। घोषणापत्र में भारत ने औपचारिक रूप से कहा कि भारत तिब्बत को चीन का एक भाग मानता है। इस तरह भारत सरकार ने प्रथम बार खुले रूप से किसी औपचारिक दस्तावेज के माध्यम से तिब्बत की समस्या पर अपने रुख पर प्रकाश डाला, जिसे चीन सरकार की प्रशंसा प्राप्त हुई। इस के अलावा, चीन व भारत के बीच सीमा समस्या भी लम्बे अरसे से अनसुलझी रही है। इस समस्या के समाधान के लिए चीन व भारत ने वर्ष 1981 के दिसम्बर माह से अनेक चरणों में वार्ताएं कीं और उनमें कुछ प्रगति भी प्राप्त की। वर्ष 2003 में पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने चीन की सफल यात्रा की। चीन व भारत ने चीन-भारत संबंधों के सिद्धांत और चतुर्मुखी सहयोग के ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये। चीन व उसके पड़ोसी देशों के राजनयिक संबंधों के इतिहास में ऐसे ज्ञापन कम ही जारी हुए हैं। दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों द्वारा सम्पन्न इस ज्ञापन में दोनों देशों ने और साहसिक नीतियां अपनायीं, जिन में सीमा समस्या पर वार्ता के लिए विशेष प्रतिनिधियों को नियुक्त करना और सीमा समस्या का राजनीतिक समाधान खोजना आदि शामिल रहा। चीन और भारत के इस घोषणापत्र में यह भी स्पष्ट किया गया है कि तिब्बत स्वायत्त प्रदेश चीन का एक अभिन्न और अखंड भाग है। सीमा समस्या के हल के लिए चीन व भारत के विशेष प्रतिनिधियों के स्तर पर सलाह-मश्विरा जारी है। वर्ष 2004 में चीन और भारत ने सीमा समस्या पर यह विशेष प्रतिनिधि वार्ता व्यवस्था स्थापित की। भारत स्थित पूर्व चीनी राजदूत च्यो कांग ने कहा, इतिहास से छूटी समस्या की ओर हमें भविष्योन्मुख रुख से प्रस्थान करना चाहिए। चीन सरकार ने सीमा समस्या के हल की सक्रिय रुख अपनाई है। चीन आशा करता है कि इसके लिए आपसी सुलह औऱ विश्वास की भावना के अनुसार, मैत्रीपूर्ण वार्ता के जरिए दोनों को स्वीकृत उचित व न्यायपूर्ण तरीकों की खोज की जानी चाहिए। विश्वास है कि जब दोनों पक्ष आपसी विश्वास, सुलह व रियायत देने की अभिलाषा से प्रस्थान करेंगे तो चीन-भारत सीमा समस्या के हल के तरीकों की खोज कर ही ली जाएगी। इस समय चीन व भारत अपने-अपने शांतिपूर्ण विकास में लगे हैं। 21वीं शताब्दी के चीन व भारत प्रतिद्वंदी हैं और मित्र भी। अंतरराष्ट्रीय मामलों में दोनों में व्यापक सहमति है। आंकड़े बताते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ में विभिन्न सवालों पर हुए मतदान में अधिकांश समय, भारत और चीन का पक्ष समान रहा। अब दोनों देशों के सामने आर्थिक विकास और जनता के जीवन स्तर को सुधारने का समान लक्ष्य है। इसलिए, दोनों को आपसी सहयोग की आवश्यकता है। अनेक क्षेत्रों में दोनों देश एक-दूसरे से सीख सकते हैं। चीन-भारत संबंधों के भविष्य के प्रति श्री मा जा ली बड़े आश्वस्त हैं। उन्होंने कहा, समय गुजरने के साथ दोनों देशों के बीच मौजूद विभिन्न अनसुलझी समस्याओं व संदेहों को मिटाया जा सकेगा और चीन व भारत के राजनीतिक संबंध और घनिष्ठ होंगे। इस वर्ष मार्च में चीनी प्रधानमंत्री वन चा पाओ भारत की यात्रा पर जा रहे हैं। उनके भारत प्रवास के दौरान चीन व भारत दोनों देशों के नेता फिर एक बार एक साथ बैठकर समान रुचि वाली द्विपक्षीय व क्षेत्रीय समस्याओं पर विचार-विमर्श करेंगे। श्री मा जा ली ने कहा, भविष्य में चीन-भारत संबंध और स्वस्थ होंगे और और अच्छे तरीके से आगे विकसित होंगे। आज हम देख सकते हैं कि चीन व भारत के संबंध लगतार विकसित हो रहे हैं। यह दोनों देशों की सरकारों की समान अभिलाषा भी है। दोनों पक्ष आपसी संबंधों को और गहन रूप से विकसित करने को तैयार हैं। भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति नारायण ने कहा, मेरा विचार है कि चीन और भारत को द्विपक्षीय मैत्रीपूर्ण संबंधों को और गहरा करना चाहिए। हमारे बीच सहयोग दुनिया के विकास को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका अदा कर सकेंगे। .
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शान्ति
शांति मधुरता और भाईचारे की अवस्था है, जिसमें बैर अनुपस्थित होता है। इस शब्द का प्रयोग अन्तर्राष्ट्रीय संदर्भ में युद्धविराम या संघर्ष में ठहराव के लिए किया जाता है। इस अर्थ में यह शब्द युद्ध का विलोम है। अगर देखा जाए तो शांति के बिना जीवन का आधार नहीं है हजारों सालों से भारत विश्व का गुरु और शांतिदूत रहा था लेकिन मानव की स्वार्थसिद्धी के कारण भारत में शांति का पतन होता आया और आज आम आदमी के जीवन में भय व्याप्त हो गया है, इसका मूल कारण स्वार्थ, कायरता, अविश्वास और ईश्वर प्रदत प्रेमभाव का आम जन में समाप्त होना *.
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अफ़ीम युद्ध
उन्नासवीं सदी के मध्य में चीन और मुख्यतः ब्रिटेन के बीच लड़े गये दो युद्धों को अफ़ीम युद्ध कहते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में लम्बे समय से चीन (चिंग राजवंश) और ब्रिटेन के बीच चल रहे व्यापार विवादों की चरमावस्था में पहुचने के कारण हुए। प्रथम युद्ध १८३९ से १८४२ तक चला और दूसरा १८५६ से १८६० तक। दूसरी बार फ़्रांस भी ब्रिटेन के साथ-साथ लड़ा। दोनो ही युद्धों में चीन की पराजय हुई और चीनी शासन को अफीम का अवैध व्यापार सहना पड़ा। चीन को नान्जिन्ग की सन्धि तथा तियान्जिन की सन्धि करनी पड़ी। इस द्वंद्व की शुरुआत ब्रिटेन की चीन के साथ व्यापार में आई कमी और ब्रिटेन द्वारा भारत से चीन मे अफ़ीम की तस्करी को ले कर हुई। चीन के कानून के अनुसार अफ़ीम का आयात करना प्रतिबंधित था। पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा पटना में निर्मित तथा कलकत्ता में नीलाम किये गए अफ़ीम की तस्करी से चीन नाराज था। लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के बढ़ते खर्च तथा चीन से रेशम और चाय के भुगतान के लिए अफ़ीम एक ऐसा द्रव्य था जिसकी चीनी जनता में बहुत मांग थी। पर इसके नशीले प्रभाव के कारण चिंग शासक इसके विरुद्ध थे। युद्धों के परिणामस्वरूप चीन को अपने पाँच बंदरगाह (पत्तन) विदेशी व्यापार के लिए खोलने पड़े। हांगकाँग द्वीप पर ब्रिटेन का नियंत्रण हो गया और अफ़ीम का व्यापार भी होता रहा। युद्ध की वजह से चिंग राजवंश के खिलाफ़ चीनी जनता ने विद्रोह किये - इन विद्रोहों में चिंग वंश (यानि मंचू लोग) का पारंपरिक हान बहुमत से अलग संस्कृति और मूल का होना भी शामिल था। मंचूरिया पिछले राजवंशों के समय चीन का हिस्सा नहीं रहा था। .