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कुँवर नारायण

सूची कुँवर नारायण

कुँवर नारायण का जन्म १९ सितंबर १९२७ को हुआ। नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर कुँवर नारायण अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरा सप्तक (१९५९) के प्रमुख कवियों में रहे हैं। कुँवर नारायण को अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के जरिये वर्तमान को देखने के लिए जाना जाता है। कुंवर नारायण का रचना संसार इतना व्यापक एवं जटिल है कि उसको कोई एक नाम देना सम्भव नहीं। यद्यपि कुंवर नारायण की मूल विधा कविता रही है पर इसके अलावा उन्होंने कहानी, लेख व समीक्षाओं के साथ-साथ सिनेमा, रंगमंच एवं अन्य कलाओं पर भी बखूबी लेखनी चलायी है। इसके चलते जहाँ उनके लेखन में सहज संप्रेषणीयता आई वहीं वे प्रयोगधर्मी भी बने रहे। उनकी कविताओं-कहानियों का कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है। ‘तनाव‘ पत्रिका के लिए उन्होंने कवाफी तथा ब्रोर्खेस की कविताओं का भी अनुवाद किया है। 2009 में कुँवर नारायण को वर्ष 2005 के लिए देश के साहित्य जगत के सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। .

सामग्री की तालिका

  1. 63 संबंधों: चक्रव्यूह, चक्रव्यूह- कविता संग्रह, तीसरा सप्तक, नया प्रतीक, नयी कविता, पद्म भूषण, परिवेश : हम-तुम, प्रतिभा देवीसिंह पाटिल, प्रेमचंद पुरस्कार, पोलैंड, फ़िल्म, फ़ैज़ाबाद, भारत, मिथक, मेरे साक्षात्कार, राष्ट्रपति, राष्ट्रीय कबीर सम्मान, रंगमंच, रोम, लखनऊ विश्वविद्यालय, लेख, शलाका सम्मान, साहित्य, साहित्य अकादमी पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी, हिन्दी, ज्ञानपीठ पुरस्कार, वाजश्रवा के बहाने, विज्ञान, व्यास सम्मान, खण्डकाव्य, आत्मजयी, आलोचना, आकारों के आसपास, इतिहास, इन दिनों, कहानी, काव्य, कुमार आशान पुरस्कार, कोई दूसरा नहीं, अज्ञेय, अंग्रेज़ी भाषा, उत्तर प्रदेश, १९ सितम्बर, १९२७, १९५६, १९५९, १९६१, १९६५, १९७३, ... सूचकांक विस्तार (13 अधिक) »

चक्रव्यूह

चक्रव्यूह चक्रव्यूह या पद्मव्यूह हिंदू युद्ध शास्त्रों मे वर्णित अनेक व्यूहों (सैन्य-संरचना) में से एक है। .

देखें कुँवर नारायण और चक्रव्यूह

चक्रव्यूह- कविता संग्रह

कुँवर नारायण का पहला कविता संग्रह चक्रव्यूह है, इस संग्रह से कवि का रंगप्रवेश भले ही हो रहा हो, वे प्रशंसनीय धीरता और खासी कुशलता से मंच पर अवतरित होते हैं। इन कविताओं के माध्यम से कवि के मानस और व्यक्तित्व की जो झलक दिखती है, वह पाठक में और भी जानने की इच्छा जगाती है। स्वागं भरने, मुद्रा ग्रहण करने से इनकार करते हुए कुँवर नारायण सचमुच आधुनिक हैं और सचमुच ही कवि हैं। उन्होंने बहुत कुछ जमा दिया है, वह किताबों से हो या मनुष्यों और स्मृतियों की दुनिया में रहने से। और उन्होंने इस सबको अपने मानस में उतरकर अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाने दिया है। उनके विषय, जो वह कहते हैं और जैसे वह कहते हैं, सब उनके एकदम अपने हैं। विचार की अन्तर्वस्तु काफी ही नहीं, कई बार काफी से कुछ ज्यादा होती दिखती है- लेकिन है वह उनकी अपनी, निजी। अगर अन्तिम काव्यात्मक अभिव्यक्ति में कई विभिन्न स्त्रोतों का योगदान रहा है, तो यह योगदान उनके ग्रहणशील, बेहतर संवेदनशील मानस में हुआ है, सीधे उनकी कविता में नहीं।.

देखें कुँवर नारायण और चक्रव्यूह- कविता संग्रह

तीसरा सप्तक

तीसरा सप्तक अज्ञेय द्वारा संपादित नई कविता के सात कवियों की कविताओं का संग्रह है। इसमें कुँवर नारायण, कीर्ति चौधरी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मदन वात्स्यायन, प्रयाग नारायण त्रिपाठी, केदारनाथ सिंह और विजयदेवनरायण साही की रचनाएँ संकलित हैं। इसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से १९५९ ई० में हुआ। मदन वात्स्यायन श्रेणी:पुस्तक.

देखें कुँवर नारायण और तीसरा सप्तक

नया प्रतीक

नया प्रतीक अज्ञेय द्वारा संपादित एक साहित्यिक पत्रिका थी। इसकी आवृत्ति मासिक थी। श्रेणी:ऐतिहासिक हिन्दी पत्रिकाएँ.

देखें कुँवर नारायण और नया प्रतीक

नयी कविता

नयी कविता भारतीय स्वतंत्रता के बाद लिखी गईं उन कविताओं को कहा गया, जिनमें परंपरागत कविता से आगे नये भावबोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों और नये शिल्प-विधान का अन्वेषण किया गया। यह भी कहा जा सकता है कि प्रयोगवाद के बाद हिंदी कविता की जो नवीन धारा विकसित हुई, वह नई कविता है। नयी कविता नाम आज़ादी के बाद लिखी गई उन कविताओं के लिए रूढ हो गया, जो अपनी वस्तु-छवि और रूप-छवि दोनों में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद का विकास होकर भी विशिष्ट है। नयी कविता-आंदोलन का आरंभ इलाहाबाद की साहित्यिक संस्था परिमल के कवि लेखकों- जगदीश गुप्त, रामस्वरुप चतुर्वेदी और विजयदेवनरायण साही के संपादन में १९५४ में प्रकाशित "नयी कविता" पत्रिका से माना जाता है। इससे पहले अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित काव्य-संग्रह 'दूसरा सप्तक' की भूमिका तथा उसमें शामिल कुछ कवियों के वक्तव्यों में अपनी कवितओं के लिये 'नयी कविता' शब्द को स्वीकार किया गया था। .

देखें कुँवर नारायण और नयी कविता

पद्म भूषण

पद्म भूषण सम्मान भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान है, जो देश के लिये बहुमूल्य योगदान के लिये दिया जाता है। भारत सरकार द्वारा दिए जाने वाले अन्य प्रतिष्ठित पुरस्कारों में भारत रत्न, पद्म विभूषण और पद्मश्री का नाम लिया जा सकता है। पद्म भूषण रिबन .

देखें कुँवर नारायण और पद्म भूषण

परिवेश : हम-तुम

श्रेणी:पुस्तक.

देखें कुँवर नारायण और परिवेश : हम-तुम

प्रतिभा देवीसिंह पाटिल

प्रतिभा देवीसिंह पाटिल (जन्म १९ दिसंबर १९३४) स्वतन्त्र भारत के ६० साल के इतिहास में पहली महिला राष्ट्रपति तथा क्रमानुसार १२वीं राष्ट्रपति रही हैं। राष्ट्रपति चुनाव में प्रतिभा पाटिल ने अपने प्रतिद्वंदी भैरोंसिंह शेखावत को तीन लाख से ज़्यादा मतों से हराया था। प्रतिभा पाटिल को ६,३८,११६ मूल्य के मत मिले, जबकि भैरोंसिंह शेखावत को ३,३१,३०६ मत मिले। उन्होंने २५ जुलाई २०१२ को संसद के सेण्ट्रल हॉल में आयोजित समारोह में नव निर्वाचित राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को अपना कार्यभार सौंपते हुए राष्ट्रपति भवन से विदा ली। .

देखें कुँवर नारायण और प्रतिभा देवीसिंह पाटिल

प्रेमचंद पुरस्कार

प्रेमचंद पुरस्कार महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी की ओर से साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाले साहित्यकार को दिया जाता है। पुरस्कार में २५,०००, रुपये नकद, स्मृति चिह्न, शॉल और श्रीफल प्रदान किए जाते हैं। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा भी एक साहित्य पुरस्कार "प्रेमचंद स्‍मृति पुरस्कार" नाम से प्रदान किया जाता है। श्रेणी:साहित्य पुरस्कार.

देखें कुँवर नारायण और प्रेमचंद पुरस्कार

पोलैंड

पोलैंड आधिकारिक रूप से पोलैंड गणराज्य एक मध्य यूरोप राष्ट्र है। पोलैंड पश्चिम में जर्मनी, दक्षिण में चेक गणराज्य और स्लोवाकिया, पूर्व में युक्रेन, बेलारूस और लिथुआनिया एवं उत्तर में बाल्टिक सागर व रूस के कालिनिनग्राद ओब्लास्ट के द्वारा घिरा हुआ है। पोलैंड का कुल क्षेत्रफ़ल ३ लगभग लाख वर्ग कि.मि.

देखें कुँवर नारायण और पोलैंड

फ़िल्म

फ़िल्म, चलचित्र अथवा सिनेमा में चित्रों को इस तरह एक के बाद एक प्रदर्शित किया जाता है जिससे गति का आभास होता है। फ़िल्में अकसर विडियो कैमरे से रिकार्ड करके बनाई जाती हैं, या फ़िर एनिमेशन विधियों या स्पैशल इफैक्ट्स का प्रयोग करके। आज ये मनोरंजन का महत्त्वपूर्ण साधन हैं लेकिन इनका प्रयोग कला-अभिव्यक्ति और शिक्षा के लिए भी होता है। भारत विश्व में सबसे अधिक फ़िल्में बनाता है। फ़िल्म उद्योग का मुख्य केन्द्र मुंबई है, जिसे अमरीका के फ़िल्मोत्पादन केन्द्र हॉलीवुड के नाम पर बॉलीवुड कहा जाता है। भारतीय फिल्मे विदेशो में भी देखी जाती है .

देखें कुँवर नारायण और फ़िल्म

फ़ैज़ाबाद

फ़ैज़ाबाद भारतवर्ष के उत्तरी राज्य उत्तर प्रदेश का एक नगर है।भगवान राम, राममनोहर लोहिया, कुंवर नारायण, राम प्रकाश द्विवेदी आदि की यह जन्मभूमि है। .

देखें कुँवर नारायण और फ़ैज़ाबाद

भारत

भारत (आधिकारिक नाम: भारत गणराज्य, Republic of India) दक्षिण एशिया में स्थित भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा देश है। पूर्ण रूप से उत्तरी गोलार्ध में स्थित भारत, भौगोलिक दृष्टि से विश्व में सातवाँ सबसे बड़ा और जनसंख्या के दृष्टिकोण से दूसरा सबसे बड़ा देश है। भारत के पश्चिम में पाकिस्तान, उत्तर-पूर्व में चीन, नेपाल और भूटान, पूर्व में बांग्लादेश और म्यान्मार स्थित हैं। हिन्द महासागर में इसके दक्षिण पश्चिम में मालदीव, दक्षिण में श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व में इंडोनेशिया से भारत की सामुद्रिक सीमा लगती है। इसके उत्तर की भौतिक सीमा हिमालय पर्वत से और दक्षिण में हिन्द महासागर से लगी हुई है। पूर्व में बंगाल की खाड़ी है तथा पश्चिम में अरब सागर हैं। प्राचीन सिन्धु घाटी सभ्यता, व्यापार मार्गों और बड़े-बड़े साम्राज्यों का विकास-स्थान रहे भारतीय उपमहाद्वीप को इसके सांस्कृतिक और आर्थिक सफलता के लंबे इतिहास के लिये जाना जाता रहा है। चार प्रमुख संप्रदायों: हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख धर्मों का यहां उदय हुआ, पारसी, यहूदी, ईसाई, और मुस्लिम धर्म प्रथम सहस्राब्दी में यहां पहुचे और यहां की विविध संस्कृति को नया रूप दिया। क्रमिक विजयों के परिणामस्वरूप ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी ने १८वीं और १९वीं सदी में भारत के ज़्यादतर हिस्सों को अपने राज्य में मिला लिया। १८५७ के विफल विद्रोह के बाद भारत के प्रशासन का भार ब्रिटिश सरकार ने अपने ऊपर ले लिया। ब्रिटिश भारत के रूप में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रमुख अंग भारत ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में एक लम्बे और मुख्य रूप से अहिंसक स्वतन्त्रता संग्राम के बाद १५ अगस्त १९४७ को आज़ादी पाई। १९५० में लागू हुए नये संविधान में इसे सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के आधार पर स्थापित संवैधानिक लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित कर दिया गया और युनाईटेड किंगडम की तर्ज़ पर वेस्टमिंस्टर शैली की संसदीय सरकार स्थापित की गयी। एक संघीय राष्ट्र, भारत को २९ राज्यों और ७ संघ शासित प्रदेशों में गठित किया गया है। लम्बे समय तक समाजवादी आर्थिक नीतियों का पालन करने के बाद 1991 के पश्चात् भारत ने उदारीकरण और वैश्वीकरण की नयी नीतियों के आधार पर सार्थक आर्थिक और सामाजिक प्रगति की है। ३३ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के साथ भारत भौगोलिक क्षेत्रफल के आधार पर विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा राष्ट्र है। वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था क्रय शक्ति समता के आधार पर विश्व की तीसरी और मानक मूल्यों के आधार पर विश्व की दसवीं सबसे बडी अर्थव्यवस्था है। १९९१ के बाज़ार-आधारित सुधारों के बाद भारत विश्व की सबसे तेज़ विकसित होती बड़ी अर्थ-व्यवस्थाओं में से एक हो गया है और इसे एक नव-औद्योगिकृत राष्ट्र माना जाता है। परंतु भारत के सामने अभी भी गरीबी, भ्रष्टाचार, कुपोषण, अपर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य-सेवा और आतंकवाद की चुनौतियां हैं। आज भारत एक विविध, बहुभाषी, और बहु-जातीय समाज है और भारतीय सेना एक क्षेत्रीय शक्ति है। .

देखें कुँवर नारायण और भारत

मिथक

नरक के मिथक। नरक के मिथक प्राचीन पुराकथाओं का तत्त्व जो नवीन स्थितियों में नये अर्थ का वहन करे मिथक कहलाता है। मिथकों का जन्म ही इसलिए हुआ था कि वे प्रागैतिहासिक मनुष्य के उस आघात और आतंक को कम कर सकें, जो उसे प्रकृति से सहसा अलग होने पर महसूस हुआ था-और मिथक यह काम केवल एक तरह से ही कर सकते थे-स्वयं प्रकृति और देवताओं का मानवीकरण करके। इस अर्थ में मिथक एक ही समय में मनुष्य के अलगाव को प्रतिबिम्बित करते हैं और उस अलगाव से जो पीड़ा उत्पन्न होती है, उससे मुक्ति भी दिलाते हैं। प्रकृति से अभिन्न होने का नॉस्टाल्जिया, प्राथमिक स्मृति की कौंध, शाश्वत और चिरन्तन से पुनः जुड़ने का स्वप्न ये भावनाएँ मिथक को सम्भव बनाने में सबसे सशक्त भूमिका अदा करती हैं। सच पूछें, तो मिथक और कुछ नहीं प्रागैतिहासिक मनुष्य का एक सामूहिक स्वप्न है जो व्यक्ति के स्वप्न की तरह काफी अस्पष्ट, संगतिहीन और संश्लिष्ट भी है। कालान्तर में पुरातन अतीत की ये अस्पष्ट गूँजें, ये धुँधली आकांक्षाएँ एक तर्कसंगत प्रतीकात्मक ढाँचे में ढल जाती हैं और प्राथमिक यथार्थ की पहली, क्षणभंगुर, फिसलती यादें महाकाव्यों की सुनिश्चित संरचना में गठित होती हैं। मिथक और इतिहास के बीच महाकाव्य एक सेतु है, जो पुरातन स्वप्नों को काव्यात्मक ढाँचे में अवतरित करता है। ऐसा भी माना गया है कि जितने मिथक हैं, सब परिकल्पना पर आधारित हैं। फिर भी यह मूल्य आधारित परिकल्पना थी जिसका उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था को मजबूत करना था। प्राचीन मिथकों की खासियत यही थी कि वह मूल्यहीन और आदर्शविहीन नहीं थे। मिथकों का जन्म समाज व्यवस्था को कायम रखने के लिए हुआ। मिथक लोक विश्वास से जन्मते हैं। पुरातनकाल में स्थापित किये गये धार्मिक मिथकों का मंतव्य स्वर्ग तथा नरक का लोभ, भय दिखाकर लोगों को विसंगतियों से दूर रखना था। मिथ और मिथक भिन्न है। मिथक असत्य नहीं है। इस शब्द का प्रयोग साहित्य से इतर झूठ या काल्पनिक कथाओं के लिए भी किया जाता है। .

देखें कुँवर नारायण और मिथक

मेरे साक्षात्कार

श्रेणी:पुस्तक.

देखें कुँवर नारायण और मेरे साक्षात्कार

राष्ट्रपति

राष्ट्रपति किसी देश की सरकार का सांवैधानिक प्रमुख होता है। .

देखें कुँवर नारायण और राष्ट्रपति

राष्ट्रीय कबीर सम्मान

राष्ट्रीय कबीर सम्मान मध्य प्रदेश शासन द्वारा भारतीय कविता के सबसे बड़े शासकीय सम्मान के रूप में जाना जाता है। इसके अंतर्गत 3 लाख रुपये की राशि पुरस्कार में दी जाता है। श्रेणी:साहित्य पुरस्कार.

देखें कुँवर नारायण और राष्ट्रीय कबीर सम्मान

रंगमंच

न्यूयॉर्क स्टेट थिएटर के अन्दर का दृष्य रंगमंच (थिएटर) वह स्थान है जहाँ नृत्य, नाटक, खेल आदि हों। रंगमंच शब्द रंग और मंच दो शब्दों के मिलने से बना है। रंग इसलिए प्रयुक्त हुआ है कि दृश्य को आकर्षक बनाने के लिए दीवारों, छतों और पर्दों पर विविध प्रकार की चित्रकारी की जाती है और अभिनेताओं की वेशभूषा तथा सज्जा में भी विविध रंगों का प्रयोग होता है और मंच इसलिए प्रयुक्त हुआ है कि दर्शकों की सुविधा के लिए रंगमंच का तल फर्श से कुछ ऊँचा रहता है। दर्शकों के बैठने के स्थान को प्रेक्षागार और रंगमंच सहित समूचे भवन को प्रेक्षागृह, रंगशाला, या नाट्यशाला (या नृत्यशाला) कहते हैं। पश्चिमी देशों में इसे थिएटर या ऑपेरा नाम दिया जाता है। .

देखें कुँवर नारायण और रंगमंच

रोम

यह लेख इटली की राजधानी एवं प्राचीन नगर 'रोम' के बारे में है। इसी नाम के अन्य नगर संयुक्त राज्य अमरीका में भी है। स्तनधारियों की त्वचा पर पाए जाने वाले कोमल बाल (en:hair) के लिये बाल देखें। इसका पर्यायवाची शब्द रोयाँ या रोआँ (बहुवचन - रोएँ) है। ---- '''रोम''' नगर की स्थिति रोम (Rome) इटली देश की राजधानी है। .

देखें कुँवर नारायण और रोम

लखनऊ विश्वविद्यालय

लखनऊ विश्वविद्यालय लखनऊ विश्वविद्यालय भारत के प्रमुख शैक्षिक-संस्थानों में से एक है। यह लखनऊ के समृद्ध इतिहास को तो प्रकट करता ही है नगर के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से भी एक है। इसका प्राचीन भवन मध्यकालीन भारतीय स्थापत्य का सुंदर उदाहरण है। इसमें पढ़ने और पढाने वाले अनेक शिक्षक और विद्यार्थी देश और विदेश में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। .

देखें कुँवर नारायण और लखनऊ विश्वविद्यालय

लेख

लेख साहित्य की एक मूलभूत विधा है। जिसमें हम किसी भी विषय को विस्तार से लिखते हैं। इसका आदि अंत और मध्य होता है। अनेक अनुच्छेदों में विषय को विभाजित किया जाता है और विषय से संबंधित जानकारी को रोचक तरीके से समझाने का प्रयत्न किया जाता है। लेख केवल रचनात्मक साहित्य भी हो सकता है और सूचनात्मक साहित्य भी। विज्ञान, तकनीक और कला के विषयों पर भी लेख लिखे जा सकते हैं। ये सूचनात्मक होते हैं अर्थात इनमें विषयों से संबंधित जानकारी होती है। रचनात्मक साहित्य के अंतर्गत अनेक प्रकार के निबंध आते हैं जिनमें मौलिकता, रोचकता, जानकारी और रचनात्मक सौष्ठव का मिलाजुला प्रभाव होता है। ऐसे लेख साहित्य की श्रेणी में आते हैं। कभी कभी लेख शब्द का प्रयोग किसी दूसरे शब्द के साथ किया जाता है तब इसका अर्थ बदल भी सकता है जैसे शीर्ष लेख या पाद लेख। इन शब्दों का प्रयोग किसी पन्ने पर ऊपर या नीचे टिप्पणी, पृष्ठ संख्या या अन्य जानकारी लिखने के लिए होता है। सुलेख शब्द का प्रयोग हाथ से लिखे गए सुंदर अक्षरों के लिए होता है। इसी प्रकार आलेख शब्द का प्रयोग पत्र या छोटे लेख के लिए होता है और श्रुतिलेख का प्रयोग सुनकर लिखे गए लेख या इमला के लिए किया जाता है। .

देखें कुँवर नारायण और लेख

शलाका सम्मान

शलाका सम्मान हिंदी अकादमी को ओर से दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है। हिन्दी जगत में सशक्त हस्ताक्षर के रूप में विख्यात तथा हिन्दी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में समर्पित भाव से काम करने वाले मनीषी विद्वानों, हिन्दी के विकास तथा संवर्धन में सतत संलग्न कलम के धनी, मानव मन के चितरों तथा मूर्धन्य साहित्यकारों के प्रति अपने आदर और सम्मान की भावना को व्यक्त करने के लिए हिन्दी अकादमी प्रतिवर्ष एक श्रेष्ठतम साहित्यकार को शलाका सम्मान से सम्मानित करती है। सम्मान स्वरूप, १,११,१११/-रुपये की धनराशि, प्रशस्ति-पत्र एवं प्रतीक चिह्‌न आदि प्रदान किये जाते हैं। अकादमी द्वारा अब तक निम्नलिखित साहित्यकारों को शलाका सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है:- .

देखें कुँवर नारायण और शलाका सम्मान

साहित्य

किसी भाषा के वाचिक और लिखित (शास्त्रसमूह) को साहित्य कह सकते हैं। दुनिया में सबसे पुराना वाचिक साहित्य हमें आदिवासी भाषाओं में मिलता है। इस दृष्टि से आदिवासी साहित्य सभी साहित्य का मूल स्रोत है। .

देखें कुँवर नारायण और साहित्य

साहित्य अकादमी पुरस्कार

साहित्य अकादमी पुरस्कार भारत में एक साहित्यिक सम्मान है, जो साहित्य अकादमी प्रतिवर्ष भारत की अपने द्वारा मान्यता प्रदत्त प्रमुख भाषाओं में से प्रत्येक में प्रकाशित सर्वोत्कृष्ट साहित्यिक कृति को पुरस्कार प्रदान करती है। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल २२ भारतीय भाषाओं के अलावा ये राजस्थानी और अंग्रेज़ी भाषा; याने कुल २४ भाषाओं में प्रदान किया जाता हैं। पहली बार ये पुरस्कार सन् 1955 में दिए गए। पुरस्कार की स्थापना के समय पुरस्कार राशि 5,000/- रुपए थी, जो सन् 1983 में ब़ढा कर 10,000/- रुपए कर दी गई और सन् 1988 में ब़ढा कर इसे 25,000/- रुपए कर दिया गया। सन् 2001 से यह राशि 40,000/- रुपए की गई थी। सन् 2003 से यह राशि 50,000/- रुपए कर दी गई है। .

देखें कुँवर नारायण और साहित्य अकादमी पुरस्कार

संगीत नाटक अकादमी

संगीत नाटक अकादमी भारत सरकार द्वारा स्थापित भारत की संगीत एवं नाटक की राष्ट्रीय स्तर की सबसे बड़ी अकादमी है। इसका मुख्यालय दिल्ली में है। .

देखें कुँवर नारायण और संगीत नाटक अकादमी

हिन्दी

हिन्दी या भारतीय विश्व की एक प्रमुख भाषा है एवं भारत की राजभाषा है। केंद्रीय स्तर पर दूसरी आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है। यह हिन्दुस्तानी भाषा की एक मानकीकृत रूप है जिसमें संस्कृत के तत्सम तथा तद्भव शब्द का प्रयोग अधिक हैं और अरबी-फ़ारसी शब्द कम हैं। हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। हालांकि, हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है क्योंकि भारत का संविधान में कोई भी भाषा को ऐसा दर्जा नहीं दिया गया था। चीनी के बाद यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा भी है। विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार यह विश्व की दस शक्तिशाली भाषाओं में से एक है। हिन्दी और इसकी बोलियाँ सम्पूर्ण भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत और अन्य देशों में भी लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की और नेपाल की जनता भी हिन्दी बोलती है।http://www.ethnologue.com/language/hin 2001 की भारतीय जनगणना में भारत में ४२ करोड़ २० लाख लोगों ने हिन्दी को अपनी मूल भाषा बताया। भारत के बाहर, हिन्दी बोलने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में 648,983; मॉरीशस में ६,८५,१७०; दक्षिण अफ्रीका में ८,९०,२९२; यमन में २,३२,७६०; युगांडा में १,४७,०००; सिंगापुर में ५,०००; नेपाल में ८ लाख; जर्मनी में ३०,००० हैं। न्यूजीलैंड में हिन्दी चौथी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। इसके अलावा भारत, पाकिस्तान और अन्य देशों में १४ करोड़ १० लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली उर्दू, मौखिक रूप से हिन्दी के काफी सामान है। लोगों का एक विशाल बहुमत हिन्दी और उर्दू दोनों को ही समझता है। भारत में हिन्दी, विभिन्न भारतीय राज्यों की १४ आधिकारिक भाषाओं और क्षेत्र की बोलियों का उपयोग करने वाले लगभग १ अरब लोगों में से अधिकांश की दूसरी भाषा है। हिंदी हिंदी बेल्ट का लिंगुआ फ़्रैंका है, और कुछ हद तक पूरे भारत (आमतौर पर एक सरल या पिज्जाइज्ड किस्म जैसे बाजार हिंदुस्तान या हाफ्लोंग हिंदी में)। भाषा विकास क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी हिन्दी प्रेमियों के लिए बड़ी सन्तोषजनक है कि आने वाले समय में विश्वस्तर पर अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की जो चन्द भाषाएँ होंगी उनमें हिन्दी भी प्रमुख होगी। 'देशी', 'भाखा' (भाषा), 'देशना वचन' (विद्यापति), 'हिन्दवी', 'दक्खिनी', 'रेखता', 'आर्यभाषा' (स्वामी दयानन्द सरस्वती), 'हिन्दुस्तानी', 'खड़ी बोली', 'भारती' आदि हिन्दी के अन्य नाम हैं जो विभिन्न ऐतिहासिक कालखण्डों में एवं विभिन्न सन्दर्भों में प्रयुक्त हुए हैं। .

देखें कुँवर नारायण और हिन्दी

ज्ञानपीठ पुरस्कार

पुरस्कार-प्रतीकः वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय ज्ञानपीठ न्यास द्वारा भारतीय साहित्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार है। भारत का कोई भी नागरिक जो आठवीं अनुसूची में बताई गई २२ भाषाओं में से किसी भाषा में लिखता हो इस पुरस्कार के योग्य है। पुरस्कार में ग्यारह लाख रुपये की धनराशि, प्रशस्तिपत्र और वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा दी जाती है। १९६५ में १ लाख रुपये की पुरस्कार राशि से प्रारंभ हुए इस पुरस्कार को २००५ में ७ लाख रुपए कर दिया गया जो वर्तमान में ग्यारह लाख रुपये हो चुका है। २००५ के लिए चुने गये हिन्दी साहित्यकार कुंवर नारायण पहले व्यक्ति थे जिन्हें ७ लाख रुपए का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार १९६५ में मलयालम लेखक जी शंकर कुरुप को प्रदान किया गया था। उस समय पुरस्कार की धनराशि १ लाख रुपए थी। १९८२ तक यह पुरस्कार लेखक की एकल कृति के लिये दिया जाता था। लेकिन इसके बाद से यह लेखक के भारतीय साहित्य में संपूर्ण योगदान के लिये दिया जाने लगा। अब तक हिन्दी तथा कन्नड़ भाषा के लेखक सबसे अधिक सात बार यह पुरस्कार पा चुके हैं। यह पुरस्कार बांग्ला को ५ बार, मलयालम को ४ बार, उड़िया, उर्दू और गुजराती को तीन-तीन बार, असमिया, मराठी, तेलुगू, पंजाबी और तमिल को दो-दो बार मिल चुका है। .

देखें कुँवर नारायण और ज्ञानपीठ पुरस्कार

वाजश्रवा के बहाने

कुंवर नारायण का वाजश्रवा के बहाने खण्ड-काव्य अपने समकालीनों और परवर्ती रचनाकारों के काव्य-संग्रहों के बीच एक अलग और विशिष्ट स्वाद देने वाला है जिसे प्रौढ़ विचारशील मन से ही महसूस किया जा सकता है। यह गहरी अंतर्दृष्टि से किये गये जीवन के उत्सव और हाहाकार का साक्षात्कार है। ऋग्वेद, उपनिषद और गीता की न जाने कितनी दार्शनिक अनुगूंजें हैं इसमें, जो कुछ सुनायी पड़ती हैं, कुछ नहीं सुनायी पड़तीं। अछोर अतीत है पीछे, अनंत अंधकार है आगे। बीच में अथाह जीवन है, जो केवल मानवों का नहीं, सम्पूर्ण सृष्टि का है और जो खंड में नहीं बल्कि अखंड काल की निरंतरता में प्रवहमान है। कुंवर नारायण के इस संग्रह में भी मृत्यु का गहरा बोध है। भले ही इसमें जीवन की ओर से मृत्यु को देखने की कोशिश है। यदि मृत्यु न होती तो जीवन को इस प्रकार देखने की आकांक्षा भी न होती। मृत्यु ही जीवन को अर्थ देती है और निरर्थक में भी अर्थ भरती है' यह कथन असंगत नहीं है। मृत्यु है इसीलिए जिजीविषा भी है। जिजीविषा है इसीलिए सम्भावना भी। कुंवर नारायण के इस काव्य में विषयवस्तु के बिल्कुल विपरीत एक गजब की सहजता और भाषा प्रवाह है। कहीं कोई शब्द अपरिचित नहीं पर अर्थ की गहराइयों के साथ विद्यमान। भावावेग के दबाव के अनेक अवसर आते हैं और आ सकते थे पर कवि पूर्णतः संयम और काव्यानुशासन के साथ सहज होकर पांव रखता है। कदम-कदम पर विचारों के उँचे टीले और गहरी खाइयां हैं पर प्रवाह ऐसा कि एक शब्द दूसरे को ठेल कर आगे निकलता और धारा को अविच्छिन्न रखता हुआ। जैसे सागर की लहरें जो धकेलती हुई आगे बढ़तीं और पछाड़ खाकर पीछे लौटती हैं। जैस फेन बुदबुद और जल का शाश्वत प्रवाह एक साथ। इस काव्य की हर कविता अपने में अलग मगर एक विचार प्रवाह में जुड़ी हुई है। कथन वैचित्र्य और तुकों के साथ सैकड़ों चुस्त उक्तियां सूक्तियों-सी उद्धृत की जाने योग्य हैं। विषय गम्भीरता के साथ सहजता का यह अद्भुत संयोग महान कवि तुलसी की याद दिला देता है। आज के काव्य परिदृश्य में जबकि वर्तमान और स्थूल दृश्य यथार्थ ही सब कुछ है, इस भाव भूमि की कविता से गुजरना एक विरल अनुभव है। कन्हैयालाल नंदन के शब्दों में- "हाल में ही प्रकाशित कुंवर नारायण जी के काव्यसंग्रह 'वाजश्रवा के बहाने' को भी शब्द-शब्द रमते हुए पढ़ा। इस रचना को मैं उनकी वैचारिकता, उनकी दार्शनिकता का मील का पत्थर मानता हूं। अद्भुत लिखा है। फिदा हूं उनकी लेखन शैली पर। इसके पहले भी उन्होंने अपने पूर्ववर्ती काव्य संग्रह 'आत्मजयी' में नचिकेता के संदर्भ में कई महत्वपूर्ण मुद्दों को चमत्कारिक ढंग से विश्लेषित किया है। इन कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि इनमें कवि ने भारतीय प्राचीन मिथकों, प्रतीकों का आधुनिक संदर्भो में इस्तेमाल करते हुए समकालीन जीवन से जोड़ने का आश्चर्यजनक कार्य किया है।" .

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विज्ञान

संक्षेप में, प्रकृति के क्रमबद्ध ज्ञान को विज्ञान (Science) कहते हैं। विज्ञान वह व्यवस्थित ज्ञान या विद्या है जो विचार, अवलोकन, अध्ययन और प्रयोग से मिलती है, जो किसी अध्ययन के विषय की प्रकृति या सिद्धान्तों को जानने के लिये किये जाते हैं। विज्ञान शब्द का प्रयोग ज्ञान की ऐसी शाखा के लिये भी करते हैं, जो तथ्य, सिद्धान्त और तरीकों को प्रयोग और परिकल्पना से स्थापित और व्यवस्थित करती है। इस प्रकार कह सकते हैं कि किसी भी विषय के क्रमबद्ध ज्ञान को विज्ञान कह सकते है। ऐसा कहा जाता है कि विज्ञान के 'ज्ञान-भण्डार' के बजाय वैज्ञानिक विधि विज्ञान की असली कसौटी है। .

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व्यास सम्मान

व्यास सम्मान भारतीय साहित्य के लिए दिया जाने वाला ज्ञानपीठ पुरस्कार के बाद दूसरा सबसे बड़ा साहित्य-सम्मान है। इस पुरस्कार को १९९१ में के के बिड़ला फाउंडेशन ने प्रारंभ किया था। इस पुरस्कार में ३ लाख रुपए नकद प्रदान किए जाते हैं। १० वर्षों के भीतर प्रकाशित हिन्दी की कोई भी साहित्यिक कृति इस पुरस्कार की पात्र हो सकती है। अज्ञेय, कुंवर नारायण तथा केदार नाथ सिंह को भी इस पुरस्कार से अलंकृत किया जा चुका है। .

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खण्डकाव्य

खण्डकाव्य साहित्य में प्रबंध काव्य का एक रूप है। जीवन की किसी घटना विशेष को लेकर लिखा गया काव्य खण्डकाव्य है। "खण्ड काव्य' शब्द से ही स्पष्ट होता है कि इसमें मानव जीवन की किसी एक ही घटना की प्रधानता रहती है। जिसमें चरित नायक का जीवन सम्पूर्ण रूप में कवि को प्रभावित नहीं करता। कवि चरित नायक के जीवन की किसी सर्वोत्कृष्ट घटना से प्रभावित होकर जीवन के उस खण्ड विशेष का अपने काव्य में पूर्णतया उद्घाटन करता है। प्रबन्धात्मकता महाकाव्य एवं खण्ड काव्य दोनों में ही रहती है परंतु खण्ड काव्य के कथासूत्र में जीवन की अनेकरुपता नहीं होती। इसलिए इसका कथानक कहानी की भाँति शीघ्रतापूर्वक अन्त की ओर जाता है। महाकाव्य प्रमुख कथा केसाथ अन्य अनेक प्रासंगिक कथायें भी जुड़ी रहती हैं इसलिए इसका कथानक उपन्यास की भाँति धीरे-धीरे फलागम की ओर अग्रसर होता है। खण्डाकाव्य में केवल एक प्रमुख कथा रहती है, प्रासंगिक कथाओं को इसमें स्थान नहीं मिलने पाता है। संस्कृत साहित्य में इसकी जो एकमात्र परिभाषा साहित्य दर्पण में उपलब्ध है वह इस प्रकार है- इस परिभाषा के अनुसार किसी भाषा या उपभाषा में सर्गबद्ध एवं एक कथा का निरूपक ऐसा पद्यात्मक ग्रंथ जिसमें सभी संधियां न हों वह खंडकाव्य है। वह महाकाव्य के केवल एक अंश का ही अनुसरण करता है। तदनुसार हिंदी के कतिपय आचार्य खंडकाव्य ऐसे काव्य को मानते हैं जिसकी रचना तो महाकाव्य के ढंग पर की गई हो पर उसमें समग्र जीवन न ग्रहण कर केवल उसका खंड विशेष ही ग्रहण किया गया हो। अर्थात् खंडकाव्य में एक खंड जीवन इस प्रकार व्यक्त किया जाता है जिससे वह प्रस्तुत रचना के रूप में स्वत: प्रतीत हो। वस्तुत: खंडकाव्य एक ऐसा पद्यबद्ध काव्य है जिसके कथानक में एकात्मक अन्विति हो; कथा में एकांगिता (साहित्य दर्पण के शब्दों में एकदेशीयता) हो तथा कथाविन्यास क्रम में आरंभ, विकास, चरम सीमा और निश्चित उद्देश्य में परिणति हो और वह आकार में लघु हो। लघुता के मापदंड के रूप में आठ से कम सर्गों के प्रबंधकाव्य को खंडकाव्य माना जाता है। .

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आत्मजयी

'आत्मजयी' में मृत्यु सम्बंधी शाश्वत समस्या को कठोपनिषद का माध्यम बनाकर अद्भुत व्याख्या के साथ हमारे सामने रखा। इसमें नचिकेता अपने पिता की आज्ञा, 'मृत्य वे त्वा ददामीति' अर्थात मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूँ, को शिरोधार्य करके यम के द्वार पर चला जाता है, जहाँ वह तीन दिन तक भूखा-प्यासा रहकर यमराज के घर लौटने की प्रतीक्षा करता है। उसकी इस साधना से प्रसन्न होकर यमराज उसे तीन वरदान माँगने की अनुमति देते हैं। नचिकेता इनमें से पहला वरदान यह माँगता है कि उसके पिता वाजश्रवा का क्रोध समाप्त हो जाए। पिछले पच्चीस वर्षों में कुँवर नारायण की कृति ‘आत्मजयी’ ने हिन्दी साहित्य के एक मानक प्रबन्ध-काव्य के रूप में अपनी एक खास जगह बनायी है और यह अखिल भारतीय स्तर पर प्रशंसित हुआ है। ‘आत्मजयी’ का मूल कथासूत्र कठोपनिषद् में नचिकेता के प्रसंग पर आधारित है। इस आख्यान के पुराकथात्मक पक्ष को कवि ने आज के मनुष्य की जटिल मनःस्थितियों को एक बेहतर अभिव्यक्ति देने का एक साधन बनाया है। जीवन के पूर्णानुभव के लिए किसी ऐसे मूल्य के लिए जीना आवश्यक है जो मनुष्य में जीवन की अनश्वरता का बोध कराए। वह सत्य कोई ऐसा जीवन-सत्य हो सकता है जो मरणधर्मा व्यक्तिगत जीवन से बड़ा, अधिक स्थायी या चिरस्थायी हो। यही मनुष्य को सांत्वना दे सकता है कि मर्त्य होते हुए भी वह किसी अमर अर्थ में जी सकता है। जब वह जीवन से केवल कुछ पाने की ही आशा पर चलने वाला असहाय प्राणी नहीं, जीवन को कुछ दे सकने वाला समर्थ मनुष्य होगा तब उसके लिए यह चिन्ता सहसा व्यर्थ हो जाएगी कि जीवन कितना असार है-उसकी मुख्य चिन्ता यह होगी कि वह जीवन को कितना सारपूर्ण बना सकता है। ‘आत्मजयी’ मूलतः मनुष्य की रचनात्मक सामर्थ्य में आस्था की पुनःप्राप्ति की कहानी है। इसमें आधुनिक मनुष्य की जटिल नियति से एक गहरा काव्यात्मक साक्षात्कार है। इतालवी भाषा में ‘नचिकेता’ के नाम से इस कृति का अनुवाद प्रकाशित और चर्चित हुआ है-यह इस बात का प्रमाण है कि कवि ने जिन समस्याओं और प्रश्नों से मुठभेड़ की है उनका सार्विक महत्त्व है। जिस दौर में आत्मजयी छप कर आई थी उस दौर की हिन्दी आलोचना को कविता के बाहर काव्य-सत्य पाने-जांचने में बड़ी दिलचस्पी थी। अकारण नहीं उसने इस कृति को निरे अस्तित्ववादी दार्शनिक शब्दावलियों में घटा कर अपने काम से छुट्टी पा ली थी। उम्मीद है बीते वर्षों में वह इतनी प्रौढ़ और जिम्मेदार हो चुकी है कि कविता को उसके अर्जित जैविक अनुभव और काव्य-गुण के आधार पर जांचने की जहमत उठाए। अन्यथा यह एक निर्विवाद तथ्य है कि उसकी तत्कालीन बंद सोच के बावजूद आत्मजयी आधुनिक हिन्दी कविता की एक उपलब्धि है। .

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आलोचना

आलोचना या समालोचना (Criticism) किसी वस्तु/विषय की, उसके लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, उसके गुण-दोषों एवं उपयुक्ततता का विवेचन करने वालि साहित्यिक विधा है। हिंदी आलोचना की शुरुआत १९वीं सदी के उत्तरार्ध में भारतेन्दु युग से ही मानी जाती है। 'समालोचना' का शाब्दिक अर्थ है - 'अच्छी तरह देखना'। 'आलोचना' शब्द 'लुच' धातु से बना है। 'लुच' का अर्थ है 'देखना'। समीक्षा और समालोचना शब्दों का भी यही अर्थ है। अंग्रेजी के 'क्रिटिसिज्म' शब्द के समानार्थी रूप में 'आलोचना' का व्यवहार होता है। संस्कृत में प्रचलित 'टीका-व्याख्या' और 'काव्य-सिद्धान्तनिरूपण' के लिए भी आलोचना शब्द का प्रयोग कर लिया जाता है किन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का स्पष्ट मत है कि आधुनिक आलोचना, संस्कृत के काव्य-सिद्धान्तनिरूपण से स्वतंत्र चीज़ है। आलोचना का कार्य है किसी साहित्यक रचना की अच्छी तरह परीक्षा करके उसके रूप, गणु और अर्थव्यस्था का निर्धारण करना। डॉक्टर श्यामसुन्दर दास ने आलोचना की परिभाषा इन शब्दों में दी है: अर्थात् आलोचना का कर्तव्य साहित्यक कृति की विश्लेषण परक व्याख्या है। साहित्यकार जीवन और अनभुव के जिन तत्वों के संश्लेषण से साहित्य रचना करता है, आलोचना उन्हीं तत्वों का विश्लेषण करती है। साहित्य में जहाँ रागतत्व प्रधान है वहाँ आलोचना में बुद्धि तत्व। आलोचना ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों और शिस्तयों का भी आकलन करती है और साहित्य पर उनके पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना करती है। व्यक्तिगत रुचि के आधार पर किसी कृति की निन्दा या प्रशंसा करना आलोचना का धर्म नहीं है। कृति की व्याख्या और विश्लेषण के लिए आलोचना में पद्धति और प्रणाली का महत्त्व होता है। आलोचना करते समय आलोचक अपने व्यक्तिगत राग-द्वेष, रुचि-अरुचि से तभी बच सकता है जब पद्धति का अनुसरण करे, वह तभी वस्तुनिष्ठ होकर साहित्य के प्रति न्याय कर सकता है। इस दृष्टि से हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को सर्वश्रेष्ठ आलोचक माना जाता है। .

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आकारों के आसपास

इंसान के आपसी और स्वयं अपने साथ संबंधों का एक रूप और स्तर ऐसा भी होता है जो कहानी के आम चालू मुहावरे की पकड़ में अक्सर नहीं आता। ऐसे वक्त शायद कवि की संवेदनशीलता ज्यादा कारगर साबित होती है- न सिर्फ़ अनुभव-तंत्र के एक भिन्न तरंग पर सक्रिय होने के कारण, बल्कि भाषा की सर्जनात्मकता की एक अलग तरह की पहचान और आदत के कारण भी। कवि कुँवर नारायण के कहानी-संग्रह आकारों के आस-पास की कहानियों को पढ़कर इसलिए कुछ ऐसा आस्वाद मिलता है जो आम तौर पर आज की कहानियों से सुखद रूप में अगल है। एक तरह से इन कहानियों की दुनिया कोई खास निजी दुनिया नहीं है, इनमें भी रोज़मर्रा की जिंदगी के ही परिचित अनुभवों को पेश किया गया है। मगर उन्हें देखने वाली नज़र, उसके कोण और इन दोनों के कारण उभरने वाले रूप और भाषाई संगठन का फ़र्क इतना बड़ा है कि इन कहनियों की दुनिया एकदम विशिष्ट और विस्मयकारी जान पड़ती है, जिसमें किसी-न-किसी परिचित संबंध, अनुभव या रुख का या तो कोई अंतर्विरोध या नया अर्थ खुल जाता है, या इसकी कोई नयी परत उभर आती है- जैसा अक्सर कविता के बिम्बों से हुआ करता है। कोई अजब नहीं कि इन कहानियों में यथार्थ और फ़ैंटेसी के बीच लगातार आवाजाही है। दरअसल, फ़ैंटेसी और यथार्थ की मिलावट के अलग-अलग रूप और अनुपात से ही इन कहानियों का अपना अलग-अलग रंग पैदा होता है। ‘संदिग्ध चालें’ में स्त्री-पुरुष संबंधों में तरह-तरह के बाहरी दबावों से उत्पन्न होने वाले तनाव और उनकी टूट-फूट की बड़ी गहरी पीड़ा और करुणा है जो ‘मैं’, महिला, तोते वाला और मूँछोंवाला के इर्द-गिर्द एक फ़ैंटेसी के रूप में बुनी गई है। भाषा में शुरु से आख़ीर तक एक परीकथा-जैसी सहजता और लाक्षणिकता भी है और तीखे तनाव से उत्पन्न काव्यात्मकता भी। ‘उसका यह रूप आईने का मोहताज नहीं, न समय का, क्योंकि वह दोनों से मुक्त आत्मा का उदार सौंदर्य है।‘ या, ‘तुम उनकी ओर मत देखो, केवल मेरी आँखों में देखो जहाँ तुम हो, केवल उत्सव है: जहाँ दूसरे नहीं हैं।‘ और अंत में, ‘स्त्री फ़र्श पर लहूलुहान पड़ी थी: किसी जावन ने उसके कोमल शरीर पर जगह-जगह अपने दाँत और पंजे धँसा दिए थे।‘ ‘दो आदमियों की लड़ाई’ में फ़ैंटेसी कुछ इस अंदाज में ज़ाहिर होती है कि ‘इस सारे झगड़े को कोई कीड़ा देखता होता और उनकी बातचीत को समझता होता तो क्या कभी भी वह आदमी कहलाना पसंद करता?’ अंत में, इस शानदार लड़ाई का इतिहास लिखने का काम पास ही पेड़ पर शांत भाव में बैठे उल्लू को सौंपा गया कि जानवरों की आनेवाली पीढ़ियाँ इस महायुद्ध का वृत्तांत पढ़कर प्रेरणा लें।’ ‘आशंका’ में ‘मैं’ का सामना सीधे एक कीड़े से है। ‘मैं’ को महसूस होता है कि वह कीड़ा ‘अकेला’ नहीं है, अनेक हैं।...इशारा पाते ही वे सब-के-सब कमरे के अंदर रेंग आ सकते थे और मुझे तथा मेरी चीजों को, बल्कि मेरी सारी दुनिया को रौंदकर रख दे सकते थे।’ फैंटेसी के साथ-साथ कुँवर नारायण अपनी बात कहने के लिए तीखे व्यंग की बजाय हलकी विडम्बना या ‘आयरनी’ का इस्तेमाल अधिक करते हैं। इसी से उनके यहाँ फूहड़ अतिरंजना या अति-नाटकीयता नहीं है, एक तरह का सुरुचिपूर्ण संवेदनशील निजीपन है। यह नहीं कि ज़िंदगी के हर स्तर पर फैली हुई कुरुपता, गंदगी, हिंसा, स्वार्थपरता, नीचता उन्हें दीखती नहीं, पर वे उसे घिसे हुए उग्र आक्रामक मुहाविरे की बजाय एक आयासहीन हल्के-धीमे अंदाज में रखते हैं जिससे सचाई की उनकी निजी पहचान शोर में खो नहीं जाती। ‘बड़ा आदमी’ में रेलवे क्रासिंग के चपरासी और डिप्टी कलक्टर के बीच इस प्रकार सामना है: ‘और आज पहली बार एक बड़े आदमी ने दूसरे आदमी के बड़प्पन को पहचाना। वास्तव में बड़ा आदमी वह जिसे कम दिखाई दे, जो अँधेरे और उजाले में फर्क न कर सके।’ ‘चाकू की धार’ में बड़े मियाँ अपने बेटे को अंत में नसीहत देते हैं कि ‘जो चकमा खाकर भी दूसरों को चकमा देना न सीख सके, कभी व्यापार नहीं कर सकता।’ और यह व्यापार ही दुनियादारी है जो घर से शूरू होती है। ‘याद रखो, प्यार या नफरत बच्चे करते हैं, बड़े होकर सिर्फ आदमी व्यापार करते हैं।’ ‘सवाह और सवार’ में कम कपड़े वाले और ज्यादा कपड़े वाले के बीच संघर्ष अंत में यह रूप लेता है: ‘वह मान गया। उसने मेरे सब कपड़े नहीं लिए। कुछ कपड़ों की गठरी बाँधकर चला गया। कह गया, पूरी कोशिश करूँगा कि हम दोनों की इज्ज़त का सवाल है।’ एक साथ कई स्तरों पर व्यंजना की सादगी से ही इन कहानियों में इतनी ताज़गी आती है। मगर इन कहानियों का फैलाव केवल ऐसी प्रतीकात्मक सादगी तक ही सीमित नहीं है। ‘गुड़ियों का खेल’ या ‘कमीज’ जैसी कहानियों में निजी या बाहरी बड़ी गहरी तकलीफ़ मौजूद है। ‘अफ़सर’ में अफ़सरियत की यांत्रिकता, अमानवीयता और साधारण आदमी की पहचान साकार की गई है। ‘जनमति’ में भीड़ के तरल अस्थिर मतामत की एक तस्वीर है, ‘दूसरा चेहरा’ में डरावना और मक्कार दीखनेवाला आदमी के एक बच्चे को ट्रेन से गिरने से बचाने में अपनी जान दे देता है। ‘आत्महत्या’ का कथ्य है: ‘उस मानवीय संविधान को क्या कहा जाए जिसमें जीने और मरने दोनों की संभावनाएँ हों लेकिन साधन की गारंटी एक की भी न हो।’ ‘वह’ में स्त्री-पुरुष के पारस्परिक आकर्षण और उसमें क्रमशः बननेवाले त्रिकोण और चतुष्कोण की बड़ी तल्ख परिणति है। या फिर बड़ी सूक्ष्म प्रतीकात्मकता वाली संग्रह की पहले ही कहानी ‘आकारों के आस-पास’ कहानी और कविता के सीमांत पर रची गई लगती है। दरअसल, ये कहानियाँ काफी फैले हुए फलक पर अनेक मानवीय नैतिक संबंधों, प्रश्नों और मूल्यों को जाँचने, उधेड़ने और परिभाषित करने की कोशिश करती हैं, किसी क्रांतिकारी मुद्रा में नहीं, ब्लकि असलियत की बेझिझक निजी पहचान के इरादे से। बाहरी उत्तेजना भले ही न हो, पर आज की दुनिया में इंसान की हालत को लेकर गहरी बेचैनी और छपटाहट इनमें ज़रूर है। श्रेणी:पुस्तक.

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इतिहास

बोधिसत्व पद्मपनी, अजंता, भारत। इतिहास(History) का प्रयोग विशेषत: दो अर्थों में किया जाता है। एक है प्राचीन अथवा विगत काल की घटनाएँ और दूसरा उन घटनाओं के विषय में धारणा। इतिहास शब्द (इति + ह + आस; अस् धातु, लिट् लकार अन्य पुरुष तथा एक वचन) का तात्पर्य है "यह निश्चय था"। ग्रीस के लोग इतिहास के लिए "हिस्तरी" (history) शब्द का प्रयोग करते थे। "हिस्तरी" का शाब्दिक अर्थ "बुनना" था। अनुमान होता है कि ज्ञात घटनाओं को व्यवस्थित ढंग से बुनकर ऐसा चित्र उपस्थित करने की कोशिश की जाती थी जो सार्थक और सुसंबद्ध हो। इस प्रकार इतिहास शब्द का अर्थ है - परंपरा से प्राप्त उपाख्यान समूह (जैसे कि लोक कथाएँ), वीरगाथा (जैसे कि महाभारत) या ऐतिहासिक साक्ष्य। इतिहास के अंतर्गत हम जिस विषय का अध्ययन करते हैं उसमें अब तक घटित घटनाओं या उससे संबंध रखनेवाली घटनाओं का कालक्रमानुसार वर्णन होता है। दूसरे शब्दों में मानव की विशिष्ट घटनाओं का नाम ही इतिहास है। या फिर प्राचीनता से नवीनता की ओर आने वाली, मानवजाति से संबंधित घटनाओं का वर्णन इतिहास है।Whitney, W.

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इन दिनों

कुंवर नारायण भारतीय परंपरा के उन प्रमुख कवियों में हैं जिनकी कविता मानवीय मूल्यों के अनुरूप परिवर्तन और निर्माण के लिए किसी बड़ी नदी की तरह हर बार मार्ग बदलती रही है। उनता छठा कविता संग्रह इन दिनों पढ़ते हुए जीवन के पचहत्तर वर्ष पूरे करने वाले कवि के जीवनाभुवों से मिलने-टकराने की भी अपेक्षा रहती है। जीवन के अनेकानेक पक्षों को जिस भाषिक संक्षिप्तता और अर्थ गहराई के साथ उन्होंने कविता का विषय बनया है उसे देखकर उन्हीं की कविता पंक्ति में ‘कभी’ की जगह ‘कवि’ को रखकर कहा जा सकता है कि – ‘कवि तुमने कविता की ऊंचाई से देखा शहर’ और अब इस ताजा संग्रह में उन्होंने कहा है कि ‘बाजार की चौंधिया देने वाली जगमगाहट, के बीच / अचानक संगीत की एक उदास ध्वनि में हम पाते हैं / उसके वैभव की एक ज्यादा सच्ची पहचान’। इन पंक्तियों में अर्थ की सारी चाभी ‘उदास’ विशेषण के पास है जिसका अन्वय बाजार, संगीत और ध्वनि तीनों के साथ करना पड़ेगा और समन्वय करना पड़ेगा ‘वैभव’ के साथ भी। इस संग्रह में कहीं किसी निरर्थक विशेषण का प्रयोग कवि ने नहीं किया है। इस सृजन संयम से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इन कविताओं में यदि कोई खोट या मैल दिखाई दे तो वह रचनाकार की दुनिया में विनम्र न होकर जाने का अहंकार है जो शायद ‘सादगी’ कविता की इन पंक्तियों से तुष्ट हो सके: ‘तुम्हारे कपड़ों का दोष है / मिट्टी का नहीं / जो उसे छूते ही मैले हो गये तुम /’ शुरू से ही उनकी कविताओं में ‘अलख’ (जो दिखाई नहीं देता है। वह यथार्थ) दिखाने के प्रति विशेष रुझाम रहा है जिसे पुराने मुहावरे में ‘अलख जगाना’ कहते थे जो कहने को व्यक्तिगत नहीं रहने देता और सहने की दुर्निवार अभिव्यक्ति को सामाजिक बना देता है। हम ऐसे समय में आ गये हैं जब बाजार वैकल्पिक अर्थव्यवस्था का साधन और सूत्रधार बनकर आधुनिकता और विकास को उदास और प्रसन्न दो चेहरों की तरह धारण किये हुए सब पर छा गया है। कवियों के लिए भले ही यह स्थायी भाव न रहा हो, लेकिन हिंदी कविता में यह बाजार-भाव नया नहीं है। पिछले सात सौ साल से तो यह चल ही रह है। प्राचीन जगत व्यापार से लेकर ‘कबिरा घड़ा बजार में’ और ‘धोति फटी सिलटी दुपटी’ से लेकर आज तक यह बाजार व्याप्त रहा है। बाजारवाद का जवाब देने के लिए आज जिस नयी दृष्ट की जरूरत है उससे उपजी हुई कविताएं कुंवर नारायण के इस नये कविता संग्रह में एकत्र हुई हैं। ‘इन दिनों’ में जो कुछ भी हमें घेरे, दबोचे और चिंतित किये हुए है वह किसी न किसी सूत्र के रूप में इस संग्रह की ८३ कविताओं में मौजूद है। इन कविताओं में दरअसल प्रेम के खो जाने का और बाजार के आतंक का मुकाबला मानवीय सहजता से व्यंग्य क्षमता के अनोखे अंदाज में किया गया है। न कवि ने स्वयं को कहीं परास्त माना है न विजेता, फिर भी जले हुए मकान की वास्तविकता के सामने अपने जीवित होने को कई कत्लों के बाद जीवित होना माना है। यह रूपक वहां तक जाता है जहां उसे कहना पड़ता है कि ‘ऐसे ही लोग थे, ऐसे ही शहर, रुकते ही नहीं किसी तरह मेरी हत्या के सिलसिले।‘ यह जला हुआ मकान हिंदुस्तान के सिवा आखिर हो भी कौन सकता है? इतने बड़े मकान में एक छोटा घर और इस ‘घर का दरवाजा जैसे गर्द से ढंकी एक पुरानी किताब’, जिसमें ‘लौटी हो एक कहानी अपने नायक के साथ छानकर दुनिया भर की खाक’। ‘जो रोज पढ़ता है अखबारों में कि अब वह नहीं रहा, अपनी शोकसभाओं में खड़ा है वह, आंखें बंद किये – दो मिनटों का मौन।‘ इस भयावह समय में कुंवर नारायण का कविता संग्रह व्यक्तिगत डायरी, कहानी, निबंध और नाटक का मिलाजुला स्वाद देने वाले किसी अलभ्य ऐलबम की तह अपनी जीवंत उपस्थिति के घेरे में ले लेता है: ‘आधी रात अपने घर में घुस रह हूं चोरों की तरह/...

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कहानी

कथाकार (एक प्राचीन कलाकृति)कहानी हिन्दी में गद्य लेखन की एक विधा है। उन्नीसवीं सदी में गद्य में एक नई विधा का विकास हुआ जिसे कहानी के नाम से जाना गया। बंगला में इसे गल्प कहा जाता है। कहानी ने अंग्रेजी से हिंदी तक की यात्रा बंगला के माध्यम से की। कहानी गद्य कथा साहित्य का एक अन्यतम भेद तथा उपन्यास से भी अधिक लोकप्रिय साहित्य का रूप है। मनुष्य के जन्म के साथ ही साथ कहानी का भी जन्म हुआ और कहानी कहना तथा सुनना मानव का आदिम स्वभाव बन गया। इसी कारण से प्रत्येक सभ्य तथा असभ्य समाज में कहानियाँ पाई जाती हैं। हमारे देश में कहानियों की बड़ी लंबी और सम्पन्न परंपरा रही है। वेदों, उपनिषदों तथा ब्राह्मणों में वर्णित 'यम-यमी', 'पुरुरवा-उर्वशी', 'सौपणीं-काद्रव', 'सनत्कुमार- नारद', 'गंगावतरण', 'श्रृंग', 'नहुष', 'ययाति', 'शकुन्तला', 'नल-दमयन्ती' जैसे आख्यान कहानी के ही प्राचीन रूप हैं। प्राचीनकाल में सदियों तक प्रचलित वीरों तथा राजाओं के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, वैराग्य, साहस, समुद्री यात्रा, अगम्य पर्वतीय प्रदेशों में प्राणियों का अस्तित्व आदि की कथाएँ, जिनकी कथानक घटना प्रधान हुआ करती थीं, भी कहानी के ही रूप हैं। 'गुणढ्य' की "वृहत्कथा" को, जिसमें 'उदयन', 'वासवदत्ता', समुद्री व्यापारियों, राजकुमार तथा राजकुमारियों के पराक्रम की घटना प्रधान कथाओं का बाहुल्य है, प्राचीनतम रचना कहा जा सकता है। वृहत्कथा का प्रभाव 'दण्डी' के "दशकुमार चरित", 'बाणभट्ट' की "कादम्बरी", 'सुबन्धु' की "वासवदत्ता", 'धनपाल' की "तिलकमंजरी", 'सोमदेव' के "यशस्तिलक" तथा "मालतीमाधव", "अभिज्ञान शाकुन्तलम्", "मालविकाग्निमित्र", "विक्रमोर्वशीय", "रत्नावली", "मृच्छकटिकम्" जैसे अन्य काव्यग्रंथों पर साफ-साफ परिलक्षित होता है। इसके पश्‍चात् छोटे आकार वाली "पंचतंत्र", "हितोपदेश", "बेताल पच्चीसी", "सिंहासन बत्तीसी", "शुक सप्तति", "कथा सरित्सागर", "भोजप्रबन्ध" जैसी साहित्यिक एवं कलात्मक कहानियों का युग आया। इन कहानियों से श्रोताओं को मनोरंजन के साथ ही साथ नीति का उपदेश भी प्राप्त होता है। प्रायः कहानियों में असत्य पर सत्य की, अन्याय पर न्याय की और अधर्म पर धर्म की विजय दिखाई गई हैं। .

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काव्य

काव्य, कविता या पद्य, साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी कहानी या मनोभाव को कलात्मक रूप से किसी भाषा के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। भारत में कविता का इतिहास और कविता का दर्शन बहुत पुराना है। इसका प्रारंभ भरतमुनि से समझा जा सकता है। कविता का शाब्दिक अर्थ है काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो छन्दों की शृंखलाओं में विधिवत बांधी जाती है। काव्य वह वाक्य रचना है जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो। अर्थात् वहजिसमें चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है। रसगंगाधर में 'रमणीय' अर्थ के प्रतिपादक शब्द को 'काव्य' कहा है। 'अर्थ की रमणीयता' के अंतर्गत शब्द की रमणीयता (शब्दलंकार) भी समझकर लोग इस लक्षण को स्वीकार करते हैं। पर 'अर्थ' की 'रमणीयता' कई प्रकार की हो सकती है। इससे यह लक्षण बहुत स्पष्ट नहीं है। साहित्य दर्पणाकार विश्वनाथ का लक्षण ही सबसे ठीक जँचता है। उसके अनुसार 'रसात्मक वाक्य ही काव्य है'। रस अर्थात् मनोवेगों का सुखद संचार की काव्य की आत्मा है। काव्यप्रकाश में काव्य तीन प्रकार के कहे गए हैं, ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य और चित्र। ध्वनि वह है जिस, में शब्दों से निकले हुए अर्थ (वाच्य) की अपेक्षा छिपा हुआ अभिप्राय (व्यंग्य) प्रधान हो। गुणीभूत ब्यंग्य वह है जिसमें गौण हो। चित्र या अलंकार वह है जिसमें बिना ब्यंग्य के चमत्कार हो। इन तीनों को क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम भी कहते हैं। काव्यप्रकाशकार का जोर छिपे हुए भाव पर अधिक जान पड़ता है, रस के उद्रेक पर नहीं। काव्य के दो और भेद किए गए हैं, महाकाव्य और खंड काव्य। महाकाव्य सर्गबद्ध और उसका नायक कोई देवता, राजा या धीरोदात्त गुंण संपन्न क्षत्रिय होना चाहिए। उसमें शृंगार, वीर या शांत रसों में से कोई रस प्रधान होना चाहिए। बीच बीच में करुणा; हास्य इत्यादि और रस तथा और और लोगों के प्रसंग भी आने चाहिए। कम से कम आठ सर्ग होने चाहिए। महाकाव्य में संध्या, सूर्य, चंद्र, रात्रि, प्रभात, मृगया, पर्वत, वन, ऋतु, सागर, संयोग, विप्रलम्भ, मुनि, पुर, यज्ञ, रणप्रयाण, विवाह आदि का यथास्थान सन्निवेश होना चाहिए। काव्य दो प्रकार का माना गया है, दृश्य और श्रव्य। दृश्य काव्य वह है जो अभिनय द्वारा दिखलाया जाय, जैसे, नाटक, प्रहसन, आदि जो पढ़ने और सुनेन योग्य हो, वह श्रव्य है। श्रव्य काव्य दो प्रकार का होता है, गद्य और पद्य। पद्य काव्य के महाकाव्य और खंडकाव्य दो भेद कहे जा चुके हैं। गद्य काव्य के भी दो भेद किए गए हैं- कथा और आख्यायिका। चंपू, विरुद और कारंभक तीन प्रकार के काव्य और माने गए है। .

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कुमार आशान पुरस्कार

कुमारन आशान पुरस्कार केरल के आशान मेमोरियल असोसियेशन द्वारा, मलयालम के सुप्रसिद्ध कवि कुमारन आशान की स्मृति में साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान करने वाले साहित्यकार को प्रदान किया जाता है। इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाले हिंदी कवियों में कुँवर नारायण और केदारनाथ सिंह के नाम महत्त्वपूर्ण हैं। श्रेणी:साहित्य पुरस्कार.

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कोई दूसरा नहीं

कोई दूसरा नहीं हिन्दी के विख्यात साहित्यकार कुँवर नारायण द्वारा रचित एक कविता–संग्रह है जिसके लिये उन्हें सन् 1995 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। .

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अज्ञेय

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" (7 मार्च, 1911 - 4 अप्रैल, 1987) को कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और अध्यापक के रूप में जाना जाता है। इनका जन्म 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के कसया, पुरातत्व-खुदाई शिविर में हुआ। बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता। बी.एससी.

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अंग्रेज़ी भाषा

अंग्रेज़ी भाषा (अंग्रेज़ी: English हिन्दी उच्चारण: इंग्लिश) हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार में आती है और इस दृष्टि से हिंदी, उर्दू, फ़ारसी आदि के साथ इसका दूर का संबंध बनता है। ये इस परिवार की जर्मनिक शाखा में रखी जाती है। इसे दुनिया की सर्वप्रथम अन्तरराष्ट्रीय भाषा माना जाता है। ये दुनिया के कई देशों की मुख्य राजभाषा है और आज के दौर में कई देशों में (मुख्यतः भूतपूर्व ब्रिटिश उपनिवेशों में) विज्ञान, कम्प्यूटर, साहित्य, राजनीति और उच्च शिक्षा की भी मुख्य भाषा है। अंग्रेज़ी भाषा रोमन लिपि में लिखी जाती है। यह एक पश्चिम जर्मेनिक भाषा है जिसकी उत्पत्ति एंग्लो-सेक्सन इंग्लैंड में हुई थी। संयुक्त राज्य अमेरिका के 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध और ब्रिटिश साम्राज्य के 18 वीं, 19 वीं और 20 वीं शताब्दी के सैन्य, वैज्ञानिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव के परिणाम स्वरूप यह दुनिया के कई भागों में सामान्य (बोलचाल की) भाषा बन गई है। कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों और राष्ट्रमंडल देशों में बड़े पैमाने पर इसका इस्तेमाल एक द्वितीय भाषा और अधिकारिक भाषा के रूप में होता है। ऐतिहासिक दृष्टि से, अंग्रेजी भाषा की उत्पत्ति ५वीं शताब्दी की शुरुआत से इंग्लैंड में बसने वाले एंग्लो-सेक्सन लोगों द्वारा लायी गयी अनेक बोलियों, जिन्हें अब पुरानी अंग्रेजी कहा जाता है, से हुई है। वाइकिंग हमलावरों की प्राचीन नोर्स भाषा का अंग्रेजी भाषा पर गहरा प्रभाव पड़ा है। नॉर्मन विजय के बाद पुरानी अंग्रेजी का विकास मध्य अंग्रेजी के रूप में हुआ, इसके लिए नॉर्मन शब्दावली और वर्तनी के नियमों का भारी मात्र में उपयोग हुआ। वहां से आधुनिक अंग्रेजी का विकास हुआ और अभी भी इसमें अनेक भाषाओँ से विदेशी शब्दों को अपनाने और साथ ही साथ नए शब्दों को गढ़ने की प्रक्रिया निरंतर जारी है। एक बड़ी मात्र में अंग्रेजी के शब्दों, खासकर तकनीकी शब्दों, का गठन प्राचीन ग्रीक और लैटिन की जड़ों पर आधारित है। .

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उत्तर प्रदेश

आगरा और अवध संयुक्त प्रांत 1903 उत्तर प्रदेश सरकार का राजचिन्ह उत्तर प्रदेश भारत का सबसे बड़ा (जनसंख्या के आधार पर) राज्य है। लखनऊ प्रदेश की प्रशासनिक व विधायिक राजधानी है और इलाहाबाद न्यायिक राजधानी है। आगरा, अयोध्या, कानपुर, झाँसी, बरेली, मेरठ, वाराणसी, गोरखपुर, मथुरा, मुरादाबाद तथा आज़मगढ़ प्रदेश के अन्य महत्त्वपूर्ण शहर हैं। राज्य के उत्तर में उत्तराखण्ड तथा हिमाचल प्रदेश, पश्चिम में हरियाणा, दिल्ली तथा राजस्थान, दक्षिण में मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ और पूर्व में बिहार तथा झारखंड राज्य स्थित हैं। इनके अतिरिक्त राज्य की की पूर्वोत्तर दिशा में नेपाल देश है। सन २००० में भारतीय संसद ने उत्तर प्रदेश के उत्तर पश्चिमी (मुख्यतः पहाड़ी) भाग से उत्तरांचल (वर्तमान में उत्तराखंड) राज्य का निर्माण किया। उत्तर प्रदेश का अधिकतर हिस्सा सघन आबादी वाले गंगा और यमुना। विश्व में केवल पाँच राष्ट्र चीन, स्वयं भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, इंडोनिशिया और ब्राज़ील की जनसंख्या उत्तर प्रदेश की जनसंख्या से अधिक है। उत्तर प्रदेश भारत के उत्तर में स्थित है। यह राज्य उत्तर में नेपाल व उत्तराखण्ड, दक्षिण में मध्य प्रदेश, पश्चिम में हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान तथा पूर्व में बिहार तथा दक्षिण-पूर्व में झारखण्ड व छत्तीसगढ़ से घिरा हुआ है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ है। यह राज्य २,३८,५६६ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला हुआ है। यहाँ का मुख्य न्यायालय इलाहाबाद में है। कानपुर, झाँसी, बाँदा, हमीरपुर, चित्रकूट, जालौन, महोबा, ललितपुर, लखीमपुर खीरी, वाराणसी, इलाहाबाद, मेरठ, गोरखपुर, नोएडा, मथुरा, मुरादाबाद, गाजियाबाद, अलीगढ़, सुल्तानपुर, फैजाबाद, बरेली, आज़मगढ़, मुज़फ्फरनगर, सहारनपुर यहाँ के मुख्य शहर हैं। .

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१९ सितम्बर

19 सितंबर ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 262वॉ (लीप वर्ष मे 263 वॉ) दिन है। साल मे अभी और 103 दिन बाकी है। .

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१९२७

1927 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१९५६

१९५६ ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१९५९

1959 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१९६१

1961 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१९६५

1965 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१९७३

1973 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१९७५

१९७५ ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१९७६

१९७६ ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१९७८

१९७८ ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१९७९

1979 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१९९३

1993 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१९९८

1999 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१९९९

१९९९ ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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२००२

2002 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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२००३

२००३ ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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२००८

२००८ ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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२००९

२००९ ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। वर्ष २००९ बृहस्पतिवार से प्रारम्भ होने वाला वर्ष है। संयुक्त राष्ट्र संघ, यूनेस्को एवं आइएयू ने १६०९ में गैलीलियो गैलिली द्वारा खगोलीय प्रेक्षण आरंभ करने की घटना की ४००वीं जयंती के उपलक्ष्य में इसे अंतर्राष्ट्रीय खगोलिकी वर्ष घोषित किया है। .

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२१ सितम्बर

21 सितंबर ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 264वॉ (लीप वर्ष में 265 वॉ) दिन है। साल में अभी और 101 दिन बाकी है। .

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२८ सितंबर

28 सितंबर ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 281वॉ (लीप वर्ष में 282 वॉ) दिन है। साल में अभी और 94 दिन बाकी है। .

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Kunwar Narain के रूप में भी जाना जाता है।

, १९७५, १९७६, १९७८, १९७९, १९९३, १९९८, १९९९, २००२, २००३, २००८, २००९, २१ सितम्बर, २८ सितंबर