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आभासवाद

सूची आभासवाद

आभासवाद त्रिक दर्शन की दार्शनिक दृष्टि का अभिधान है। कश्मीर का त्रिक दर्शन अद्वैतवादी है। इसके अनुसार परमशिव (जो "अनुत्तर", "संविद्" आदि अनेक नामों से प्रख्यात हैं) अपनी स्वातंत्रयशक्ति से (जो उनकी इच्छाशक्ति का ही अपर नाम है) अपने भीतर स्थित होनेवाले पदार्थ समूह को इदं रूप से बाहर प्रकट करते हैं। इस प्रकार जो कुछ वस्तु है, अर्थात् जो वस्तु किसी प्रकार सत्ता धारण करती है, जिसके विषय में किसी भी प्रकार का शब्द प्रयोग किया जा सकता है, चाहे वह विषयी हो, विषय हो, ज्ञान का साधन हो या स्वंय ज्ञानरूप ही हो, वह "आभास" कहलाती है। ईश्वर और जगत् के संबंध को समझने के लिए अभिनवगुप्त ने दर्पण की उपमा प्रस्तुत की है। जिस प्रकार निर्मल दर्पण में ग्राम, नगर, वृक्ष आदि पदार्थ प्रतिबिंबित होने पर वस्तुत: अभिन्न होने पर भी दर्पण से और आपस में भी भिन्न प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार इस विश्व की दशा है। यह परमेश्वर में प्रतिबिंबित होने पर वस्तुत: उससे अभिन्न ही है, परंतु घट पट आदि रूप से वह भिन्न प्रतीत होता है। इस आभास या प्रतिबिंब के सिद्धांत को मानने के कारण त्रिक दर्शन का दार्शनिक मत "आभासवाद" के नाम से जाना जाता है। इस विषय में एक वैचित्र्य है जिसपर ध्यान देना आवश्यक है। लोक में प्रतिबिंब की सत्ता बिंब पर आश्रित रहती है। मुकुर के सामने मुख रहने पर ही उसका प्रतिबिंब उसमें पड़ता हैं, परंतु अद्वैतवादी त्रिक दर्शन में इस प्रतिबिंब का उदय बिंब के अभाव में भी स्वत: होता है और इसे परमेश्वर की स्वतंत्र शक्त्ति की महिमा माना जाता है। इस प्रकार इस दर्शन में अद्वैत भावना वास्तविक है। द्वैत की कल्पना नितांत कल्पित हैं। श्रेणी:भारतीय दर्शन.

5 संबंधों: त्रिक, दर्पण, कश्मीर, अद्वैत वेदान्त, अभिनवगुप्त

त्रिक

काश्मीर के शैव-सम्रदाय के सन्दर्भ में त्रिक तीन देवियों के समुच्चय को कहते हैं। तीन देवियाँ हैं- परा, परापरा तथा अपरा। ये नाम मालिनीविजयोत्तरतन्त्र में आया है। श्रेणी:शैव सम्प्रदाय.

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दर्पण

दर्पण या आइना एक प्रकाशीय युक्ति है जो प्रकाश के परावर्तन के सिद्धान्त पर काम करता है। .

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कश्मीर

ये लेख कश्मीर की वादी के बारे में है। इस राज्य का लेख देखने के लिये यहाँ जायें: जम्मू और कश्मीर। एडवर्ड मॉलीनक्स द्वारा बनाया श्रीनगर का दृश्य कश्मीर (कश्मीरी: (नस्तालीक़), कॅशीर) भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे उत्तरी भौगोलिक क्षेत्र है। कश्मीर एक मुस्लिमबहुल प्रदेश है। आज ये आतंकवाद से जूझ रहा है। इसकी मुख्य भाषा कश्मीरी है। जम्मू और कश्मीर के बाक़ी दो खण्ड हैं जम्मू और लद्दाख़। .

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अद्वैत वेदान्त

अद्वैत वेदान्त वेदान्त की एक शाखा। अहं ब्रह्मास्मि अद्वैत वेदांत यह भारत में प्रतिपादित दर्शन की कई विचारधाराओँ में से एक है, जिसके आदि शंकराचार्य पुरस्कर्ता थे। भारत में परब्रह्म के स्वरूप के बारे में कई विचारधाराएं हैँ। जिसमें द्वैत, अद्वैत या केवलाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत जैसी कई सैद्धांतिक विचारधाराएं हैं। जिस आचार्य ने जिस रूप में ब्रह्म को जाना उसका वर्णन किया। इतनी विचारधाराएं होने पर भी सभी यह मानते है कि भगवान ही इस सृष्टि का नियंता है। अद्वैत विचारधारा के संस्थापक शंकराचार्य हैं, जिसे शांकराद्वैत या केवलाद्वैत भी कहा जाता है। शंकराचार्य मानते हैँ कि संसार में ब्रह्म ही सत्य है। बाकी सब मिथ्या है (ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या)। जीव केवल अज्ञान के कारण ही ब्रह्म को नहीं जान पाता जबकि ब्रह्म तो उसके ही अंदर विराजमान है। उन्होंने अपने ब्रह्मसूत्र में "अहं ब्रह्मास्मि" ऐसा कहकर अद्वैत सिद्धांत बताया है। वल्लभाचार्य अपने शुद्धाद्वैत दर्शन में ब्रह्म, जीव और जगत, तीनों को सत्य मानते हैं, जिसे वेदों, उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र, गीता तथा श्रीमद्भागवत द्वारा उन्होंने सिद्ध किया है। अद्वैत सिद्धांत चराचर सृष्टि में भी व्याप्त है। जब पैर में काँटा चुभता है तब आखोँ से पानी आता है और हाथ काँटा निकालनेके लिए जाता है। ये अद्वैत का एक उत्तम उदाहरण है। शंकराचार्य का ‘एकोब्रह्म, द्वितीयो नास्ति’ मत था। सृष्टि से पहले परमब्रह्म विद्यमान थे। ब्रह्म सत और सृष्टि जगत असत् है। शंकराचार्य के मत से ब्रह्म निर्गुण, निष्क्रिय, सत-असत, कार्य-कारण से अलग इंद्रियातीत है। ब्रह्म आंखों से नहीं देखा जा सकता, मन से नहीं जाना जा सकता, वह ज्ञाता नहीं है और न ज्ञेय ही है, ज्ञान और क्रिया के भी अतीत है। माया के कारण जीव ‘अहं ब्रह्म’ का ज्ञान नहीं कर पाता। आत्मा विशुद्ध ज्ञान स्वरूप निष्क्रिय और अनंत है, जीव को यह ज्ञान नहीं रहता। .

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अभिनवगुप्त

अभिनवगुप्त (975-1025) दार्शनिक, रहस्यवादी एवं साहित्यशास्त्र के मूर्धन्य आचार्य। कश्मीरी शैव और तन्त्र के पण्डित। वे संगीतज्ञ, कवि, नाटककार, धर्मशास्त्री एवं तर्कशास्त्री भी थे। अभिनवगुप्त का व्यक्तित्व बड़ा ही रहस्यमय है। महाभाष्य के रचयिता पतंजलि को व्याकरण के इतिहास में तथा भामतीकार वाचस्पति मिश्र को अद्वैत वेदांत के इतिहास में जो गौरव तथा आदरणीय उत्कर्ष प्राप्त हुआ है वही गौरव अभिनव को भी तंत्र तथा अलंकारशास्त्र के इतिहास में प्राप्त है। इन्होंने रस सिद्धांत की मनोवैज्ञानिक व्याख्या (अभिव्यंजनावाद) कर अलंकारशास्त्र को दर्शन के उच्च स्तर पर प्रतिष्ठित किया तथा प्रत्यभिज्ञा और त्रिक दर्शनों को प्रौढ़ भाष्य प्रदान कर इन्हें तर्क की कसौटी पर व्यवस्थित किया। ये कोरे शुष्क तार्किक ही नहीं थे, प्रत्युत साधनाजगत् के गुह्य रहस्यों के मर्मज्ञ साधक भी थे। अभिनवगुप्त के आविर्भावकाल का पता उन्हीं के ग्रंथों के समयनिर्देश से भली भाँति लगता है। इनके आरंभिक ग्रंथों में क्रमस्तोत्र की रचना 66 लौकिक संवत् (991 ई.) में और भैरवस्तोत्र की 68 संवत (993 ई.) में हुई। इनकी ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विमर्षिणी का रचनाकाल 90 लौकिक संवत् (1015 ई.) है। फलत: इनकी साहित्यिक रचनाओं का काल 990 ई. से लेकर 1020 ई. तक माना जा सकता है। इस प्रकार इनका समय दशम शती का उत्तरार्ध तथा एकादश शती का आरंभिक काल स्वीकार किया जा सकता है। .

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