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स्वस्थतम की उत्तरजीविता

सूची स्वस्थतम की उत्तरजीविता

हरबर्ट स्पेंसर ने वाक्यांश "स्वस्थतम की उत्तरजीविता" को गढ़ा. "स्वस्थतम की उत्तरजीविता" (सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट) एक वाक्यांश है जिसका इस्तेमाल आम तौर पर इसके प्रथम दो प्रस्तावकों: ब्रिटिश बहुश्रुत दार्शनिक हरबर्ट स्पेंसर (जिन्होंने इस शब्द को गढ़ा था) और चार्ल्स डार्विन, द्वारा इस्तेमाल किए गए सन्दर्भ के अलावा अन्य सन्दर्भों में भी किया जाता है। संस्कृत में इसी को दूसरे प्रकार से यों कहा गया है- 'दैवो दुर्बलघातकः' (भगवान भी दुर्बल को ही मारते हैं।) हरबर्ट स्पेंसर ने सबसे पहले इस वाक्यांश का इस्तेमाल चार्ल्स डार्विन की ऑन द ऑरिजिन ऑफ़ स्पीशीज़ को पढ़ने के बाद अपनी प्रिंसिपल्स ऑफ़ बायोलॉजी (1864) में किया था जिसमें उन्होंने अपने आर्थिक सिद्धांतों और डार्विन के जैविक सिद्धांतों के बीच समानताएं व्यक्त करते हुए लिखा कि "यह स्वस्थतम की उत्तरजीविता, जिसे मैंने यहां यांत्रिक शब्दों में व्यक्त करने की कोशिश की है, वह तथ्य है जिसे श्री डार्विन ने 'प्राकृतिक चयन', या जीवन के लिए संघर्ष की पक्षपाती दौड़ का संरक्षण बताया है।" ^ "हरबर्ट स्पेंसर ने 1864 के अपने प्रिंसिपल्स ऑफ़ बायोलॉजी के खंड 1 के पृष्ठ 444 में लिखा: '"यह स्वस्थतम की उत्तरजीविता, जिसे मैंने यहां यांत्रिक शब्दों में व्यक्त करने की कोशिश की है, वह तथ्य है जिसे श्री डार्विन ने 'प्राकृतिक चयन', या जीवन के लिए संघर्ष की पक्षपाती दौड़ का संरक्षण बताया है।", हरबर्ट स्पेंसर, द प्रिसिपल्स ऑफ़ बायोलॉजी 444 (यूनिव. प्रेस ऑफ़ द पैक. 2002) का का हवाला देते हुए डार्विन ने स्पेंसर के नए वाक्यांश "स्वस्थतम की उत्तरजीविता" का इस्तेमाल सबसे पहले 1869 में प्रकाशित किए गए ऑन द ऑरिजिन ऑफ़ स्पीशीज़ के पांचवें संस्करण में "प्राकृतिक चयन" के एक समानार्थी शब्द के रूप में किया था।"अनुकूल विवधताओं इस संरक्षण और हानिकारक भिन्नरूपों के विनाश को मैं प्राकृतिक चयन या स्वस्थतम की उत्तरजीविता कहता हूँ." - डार्विन ने इसका मतलब "तत्काल, स्थानीय पर्यावरण के लिए बेहतर अनुकूलित" के लिए एक रूपक के रूप में, न कि "सर्वश्रेष्ठ शारीरिक आकृति में" सामान्य अनुमान के रूप में निकाला था। इसलिए, यह कोई वैज्ञानिक वर्णन नहीं है, और यह अधूरा होने के साथ-साथ भ्रामक भी है। आधुनिक जीवविज्ञानी आम तौर पर वाक्यांश "स्वस्थतम की उत्तरजीविता" का इस्तेमाल नहीं करते हैं क्योंकि यह शब्द प्राकृतिक चयन का सटीक अर्थ नहीं देता है जिसे (प्राकृतिक चयन) जीवविज्ञानी इस्तेमाल और पसंद करते हैं। प्राकृतिक चयन, आनुवंशिक आधार वाले लक्षणों के एक कार्य के रूप में अन्तरीय प्रजनन को संदर्भित करता है। "स्वस्थतम की उत्तरजीविता", दो महत्वपूर्ण कारणों की दृष्टि से गलत है। पहला, उत्तरजीविता, प्रजनन की पहली आवश्यकता मात्र है। दूसरा, जीव विज्ञान में फिटनेस शब्द का एक विशेष अर्थ है जो कि लोकप्रिय संस्कृति में आजकल इस्तेमाल होने वाले इस शब्द के अर्थ से अलग है। जनसंख्या आनुवंशिकी में, फिटनेस या योग्यता, अन्तरीय प्रजनन को संदर्भित करता है। "योग्यता" इस बात को संदर्भित नहीं करता है कि कोई व्यक्ति "शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ" - बड़ा, तेज़ या ताकतवर - या किसी व्यक्तिपरक ज्ञान के अनुसार "बेहतर" है या नहीं.

2 संबंधों: प्राकृतिक वरण, क्रम-विकास से परिचय

प्राकृतिक वरण

जिस प्रक्रिया द्वारा किसी जनसंख्या में कोई जैविक गुण कम या अधिक हो जाता है उसे प्राकृतिक वरण या 'प्राकृतिक चयन' या नेचुरल सेलेक्शन (Natural selection) कहते हैं। यह एक धीमी गति से क्रमशः होने वाली अनयादृच्छिक (नॉन-रैण्डम) प्रक्रिया है। प्राकृतिक वरण ही क्रम-विकास(Evolution) की प्रमुख कार्यविधि है। चार्ल्स डार्विन ने इसकी नींव रखी और इसका प्रचार-प्रसर किया। यह तंत्र विशेष रूप से इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह एक प्रजाति को पर्यावरण के लिए अनुकूल बनने मे सहायता करता है। प्राकृतिक चयन का सिद्धांत इसकी व्याख्या कर सकता है कि पर्यावरण किस प्रकार प्रजातियों और जनसंख्या के विकास को प्रभावित करता है ताकि वो सबसे उपयुक्त लक्षणों का चयन कर सकें। यही विकास के सिद्धांत का मूलभूत पहलू है। प्राकृतिक चयन का अर्थ उन गुणों से है जो किसी प्रजाति को बचे रहने और प्रजनन मे सहायता करते हैं और इसकी आवृत्ति पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती रहती है। यह इस तथ्य को और तर्कसंगत बनाता है कि इन लक्षणों के धारकों की सन्ताने अधिक होती हैं और वे यह गुण वंशानुगत रूप से भी ले सकते हैं। .

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क्रम-विकास से परिचय

क्रम-विकास किसी जैविक आबादी के आनुवंशिक लक्षणों के पीढ़ियों के साथ परिवर्तन को कहते हैं। जैविक आबादियों में जैनेटिक परिवर्तन के कारण अवलोकन योग्य लक्षणों में परिवर्तन होता है। जैसे-जैसे जैनेटिक विविधता पीढ़ियों के साथ बदलती है, प्राकृतिक वरण से वो लक्षण ज्यादा सामान्य हो जाते हैं जो उत्तरजीवन और प्रजनन में ज्यादा सफलता प्रदान करते हैं। पृथ्वी की उम्र लगभग ४.५४ अरब वर्ष है। जीवन के सबसे पुराने निर्विवादित सबूत ३.५ अरब वर्ष पुराने हैं। ये सबूत पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में ३.५ वर्ष पुराने बलुआ पत्थर में मिले माइक्रोबियल चटाई के जीवाश्म हैं। जीवन के इस से पुराने, पर विवादित सबूत ये हैं: १) ग्रीनलैंड में मिला ३.७ अरब वर्ष पुराना ग्रेफाइट, जो की एक बायोजेनिक पदार्थ है और २) २०१५ में पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में ४.१ अरब वर्ष पुराने पत्थरों में मिले "बायोटिक जीवन के अवशेष"। Early edition, published online before print. क्रम-विकास जीवन की उत्पत्ति को समझाने की कोशिश नहीं करता है (इसे अबायोजेनेसिस समझाता है)। पर क्रम-विकास यह समझाता है कि प्राचीन सरल जीवन से आज का जटिल जीवन कैसे विकसित हुआ है। आज की सभी जातियों के बीच समानता देख कर यह कहा जा सकता है कि पृथ्वी के सभी जीवों का एक साझा पूर्वज है। इसे अंतिम सार्वजानिक पूर्वज कहते हैं। आज की सभी जातियाँ क्रम-विकास की प्रक्रिया के द्वारा इस से उत्पन्न हुई हैं। सभी शख़्सों के पास जीन्स के रूप में आनुवांशिक पदार्थ होता है। सभी शख़्स इसे अपने माता-पिता से ग्रहण करते हैं और अपनी संतान को देते हैं। संतानों के जीन्स में थोड़ी भिन्नता होती है। इसका कारण उत्परिवर्तन (यादृच्छिक परिवर्तनों के माध्यम से नए जीन्स का प्रतिस्थापन) और लैंगिक जनन के दौरान मौजूदा जीन्स में फेरबदल है। इसके कारण संताने माता-पिता और एक दूसरे से थोड़ी भिन्न होती हैं। अगर वो भिन्नताएँ उपयोगी होती हैं तो संतान के जीवित रहने और प्रजनन करने की संभावना ज्यादा होती है। इसके कारण अगली पीढ़ी के विभिन्न शख्सों के जीवित रहने और प्रजनन करने की संभावना समान नहीं होती है। फलस्वरूप जो लक्षण जीवों को अपनी परिस्थितियों के ज्यादा अनुकूलित बनाते हैं, अगली पीढ़ियों में वो ज्यादा सामान्य हो जाते हैं। ये भिन्नताएँ धीरे-धीरे बढ़ती रहती हैं। आज देखी जाने वाली जीव विविधता के लिए यही प्रक्रिया जिम्मेदार है। अधिकांश जैनेटिक उत्परिवर्तन शख़्सों को न कोई सहायता प्रदान करते हैं, न उनकी दिखावट को बदलते हैं और न ही उन्हें कोई हानि पहुँचाते हैं। जैनेटिक ड्रिफ्ट के माध्यम से ये निष्पक्ष जैनेटिक उत्परिवर्तन केवल संयोग से आबादियों में स्थापित हो जाते हैं और बहुत पीढ़ियों तक जीवित रहते हैं। इसके विपरीत, प्राकृतिक वरण एक यादृच्छिक प्रक्रिया नहीं है क्योंकि यह उन लक्षणों को बचाती है जो जीवित रहने और प्रजनन करने के लिए जरुरी हैं। प्राकृतिक वरण और जैनेटिक ड्रिफ्ट जीवन के नित्य और गतिशील अंग हैं। अरबों वर्षों में इन प्रक्रियाओं ने जीवन के वंश वृक्ष की शाखाओं की रचना की है। क्रम-विकास की आधुनिक सोच १८५९ में प्रकाशित चार्ल्स डार्विन की किताब जीवजातियों का उद्भव से शुरू हुई। इसके साथ ग्रेगर मेंडल द्वारा पादपों पर किये गए अध्ययन ने अनुवांशिकी को समझने में मदद की। जीवाश्मों की खोज, जनसंख्या आनुवांशिकी में प्रगति और वैज्ञानिक अनुसंधान के वैश्विक नैटवर्क ने क्रम-विकास की क्रियाविधि की और अधिक विस्तृत जानकारी प्रदान की है। वैज्ञानिकों को अब नयी जातियों के उद्गम (प्रजातीकरण) की ज्यादा समझ है और उन्होंने अब प्रजातीकरण की प्रक्रिया का अवलोकन प्रयोगशाला और प्रकृति में कर लिया है। क्रम-विकास वह मूल वैज्ञानिक सिद्धांत है जिसे जीववैज्ञानिक जीवन को समझने के लिए प्रयोग करते हैं। यह कई विषयों में प्रयोग होता है जैसे आयुर्विज्ञान, मानस शास्त्र, जैव संरक्षण, मानवशास्त्र, फॉरेंसिक विज्ञान, कृषि और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक विषय। .

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