3 संबंधों: प्रणामी संप्रदाय, हिन्दी पुस्तकों की सूची/श, जीवनचरित।
प्रणामी संप्रदाय
प्रणामी सम्प्रदाय एक हिन्दू सम्प्रदाय है जिसमे सर्वेसर्वा इश्वर "राज जी" (सदचित्त आनन्द) को मानने वाले अनुयायी शामिल है। यह संप्रदाय अन्य धर्मों की तरह बहुईश्वर में विश्वास नहीं रखता। यह ४००-वर्ष प्राचीन संप्रदाय है। इसकी स्थापना देवचंद्र महाराज द्वारा हुई तथा इसका प्रचार प्राणनाथ स्वामी व उनके शिष्य महाराज छत्रसाल ने किया। जामनगर में नवतनपुरी धाम प्रणामी धर्म का मुख्य तीर्थ स्थल है। इसे श्री कृष्ण प्रणामी धर्म या निजानंद सम्प्रदाय या परनामी संप्रदाय भी कहते हैं। परब्रह्म परमात्मा श्री राज जी एवं उनकी सह-संगिनी श्री श्यामा महारानी जी इस ब्रह्माण्ड के पालनहार एवं रचयिता है। इस संप्रदाय में जो तारतम ग्रन्थ है, वो स्वयं परमात्मा की स्वरुप सखी इंद्रावती ने प्राणनाथ के मनुष्य रूप में जन्म लेकर लिखा। वाणी का अवतरण हुआ और कुरान, बाइबल, भगवत आदि ग्रंथो के भेद खुले। प्रणामियो को ईश्वर ने ब्रह्म आत्मा घोषित किया है। अर्थात ब्रह्मात्मा के अंदर स्वयं परमात्मा का वास होता है। ये ब्रह्मात्माएँ परमधाम में श्री राज जी एवं श्यामा महारानी जी के संग गोपियों के रूप में रहती है। सबसे पहले परमात्मा का अवतरण अल्लाह के रूप में, दूसरी बार कृष्ण (केवल 11 वर्ष 52 दिन तक के गोपी कृष्ण के रूप में, बाकी जीवन में कृष्ण विष्णु अवतार थे। कृष्ण ने गीता भी परमात्मा अवतार - अक्षरातीत अवतार में ही कही है।) और सोहलवीं शताब्दी में श्री प्राणनाथ के रूप में ईश्वर के रूप में जन्म लिया। इस सम्प्रदाय में 11 साल और 52 दिन की आयु वाले बाल कृष्ण को पूजा जाता है। क्योकि इस आयु तक कृष्ण रासलीला किया करते थे। पाठक गलत न समझे कि कृष्ण अलग अलग है। कृष्ण तो केवल एक मनुष्य रूप का नाम है कोई ईश्वर का नही। बाल्यकाल में कृष्ण परमात्मा के अवतार थे और बाकी जीवन में विष्णु अवतार। .
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हिन्दी पुस्तकों की सूची/श
संवाद शीर्षक से कविता संग्रह-ईश्वर दयाल गोस्वाामी.
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जीवनचरित
प्रसिद्ध इतिहासज्ञ और जीवनी-लेखक टामस कारलाइल ने अत्यंत सीधी सादी और संक्षिप्त परिभाषा में इसे "एक व्यक्ति का जीवन" कहा है। इस तरह किसी व्यक्ति के जीवन वृत्तांतों को सचेत और कलात्मक ढंग से लिख डालना जीवनचरित कहा जा सकता है। यद्यपि इतिहास कुछ हद तक, कुछ लोगों की राय में, महापुरुषों का जीवनवृत्त है तथापि जीवनचरित उससे एक अर्थ में भिन्न हो जाता है। जीवनचरित में किसी एक व्यक्ति के यथार्थ जीवन के इतिहास का आलेखन होता है, अनेक व्यक्तियों के जीवन का नहीं। फिर भी जीवनचरित का लेखक इतिहासकार और कलाकार के कर्त्तव्य के कुछ समीप आए बिना नहीं रह सकता। जीवनचरितकार एक ओर तो व्यक्ति के जीवन की घटनाओं की यथार्थता इतिहासकार की भाँति स्थापित करता है; दूसरी ओर वह साहित्यकार की प्रतिभा और रागात्मकता का तथ्यनिरूपण में उपयोग करता है। उसकी यह स्थिति संभवत: उसे उपन्यासकार के निकट भी ला देती है। जीवनचरित की सीमा का यदि विस्तार किया जाय तो उसके अंतर्गत आत्मकथा भी आ जायगी। यद्यपि दोनों के लेखक पारस्परिक रुचि और संबद्ध विषय की भिन्नता के कारण घटनाओं के यथार्थ आलेखन में सत्य का निर्वाह समान रूप से नहीं कर पाते। आत्मकथा के लेखक में सतर्कता के बावजूद वह आलोचनात्मक तर्कना चरित्र विश्लेषण और स्पष्टचारिता नहीं आ पाती जो जीवनचरित के लेखक विशिष्टता होती है। इस भिन्नता के लिये किसी को दोषी नहीं माना जा सकता। ऐसा होना पूर्णत: स्वाभाविक है। .
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