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वैयाकरण

सूची वैयाकरण

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36 संबंधों: टी वी वेंकटचल शास्त्री, दामोदर पंडित, नागवर्म द्वितीय, नागेश भट्ट, निरुक्त, पद्मनाभदत्त, पश्चिम गंग वंश, पाणिनि, पुरुषोत्तमदेव (वैयाकरण), प्रभाकर, बन्नू ज़िला, भट्टोजि दीक्षित, भर्तृहरि, मौद्गल्यायन, मेल्पत्तूर नारायण भट्टतिरि, मोरेश्वर रामचंद्र वालंबे, यास्क, शाकटायन, शौनक, शौरसेनी, संस्कृत शब्दकोश, सुपद्मव्याकरण, स्वरूपाचार्य अनुभूति, हेमचन्द्राचार्य, जयादित्य, जगन्नाथ पण्डितराज, वासुदेव महादेव अभ्यंकर, व्युत्पत्तिशास्त्र, वोपदेव, कच्चान, कन्नड़ भाषा, कर्म एवं उद्यमों की सूची, कापीसा प्रान्त, कामताप्रसाद गुरु, किशोरीदास वाजपेयी, उणादि सूत्र

टी वी वेंकटचल शास्त्री

टी वी वेंकटसुब्बाशास्त्री वेंकटाचल शास्त्री (कन्नड: ಟಿ.ವಿ.ವೆoಕಟಾಚಲಶಾಸ್ತ್ರೀ) गणमान्य कन्नड लेखक, वैयाकरण, समालोचक, सम्पादक एवं कोशकार थे। श्रेणी:कन्नड लेखक.

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दामोदर पंडित

दामोदर पण्डित हिन्दी के प्रथम वैयाकरण थे। उनके द्वारा रचित उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण हिंदी-व्याकरण का पहला ग्रंथ है। इसका रचना काल १२वीं शती का पूर्वार्द्ध माना जाता है। दामोदर पण्डित बनारस के निवासी थे। श्रेणी:हिन्दी श्रेणी:वैयाकरण.

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नागवर्म द्वितीय

नागवर्म द्वितीय (मध्य ११वीं या मध्य १२वीं शताब्दी) कन्नड साहित्यकार एवं वैयाकरण थे। वे पश्चिमी चालुक्य सम्राटों के दरबार में थे। कर्णाटक भाषाभूषण, काव्यालोकन और वास्तुकोश उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। श्रेणी:कन्न्द साहित्यकार श्रेणी:वैयाकरण.

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नागेश भट्ट

नागेश भट्ट (1730–1810) संस्कृत के नव्य वैयाकरणों में सर्वश्रेष्ठ है। इनकी रचनाएँ आज भी भारत के कोने-कोने में पढ़ाई जाती हैं। ये महाराष्ट्र के ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम शिव भट्ट और माता का नाम सतीदेवी था। साहित्य, धर्मशास्त्र, दर्शन तथा ज्योतिष विषयों में भी इनकी अबाध गति थी। प्रयाग के पास श्रृंगवेरपुर में रामसिंह राजा रहते थे। वहीं इनके आश्रयदाता थे। एक जनप्रवाद है कि नागेश भट्ट को सं.

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निरुक्त

निरुक्त वैदिक साहित्य के शब्द-व्युत्पत्ति (etymology) का विवेचन है। यह हिन्दू धर्म के छः वेदांगों में से एक है - इसका अर्थ: व्याख्या, व्युत्पत्ति सम्बन्धी व्याख्या। इसमें मुख्यतः वेदों में आये हुए शब्दों की पुरानी व्युत्पत्ति का विवेचन है। निरुक्त में शब्दों के अर्थ निकालने के लिये छोटे-छोटे सूत्र दिये हुए हैं। इसके साथ ही इसमें कठिन एवं कम प्रयुक्त वैदिक शब्दों का संकलन (glossary) भी है। परम्परागत रूप से संस्कृत के प्राचीन वैयाकरण (grammarian) यास्क को इसका जनक माना जाता है। वैदिक शब्दों के दुरूह अर्थ को स्पष्ट करना ही निरुक्त का प्रयोजन है। ऋग्वेदभाष्य भूमिका में सायण ने कहा है अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम् अर्थात् अर्थ की जानकारी की दृष्टि से स्वतंत्ररूप से जहाँ पदों का संग्रह किया जाता है वही निरुक्त है। शिक्षा प्रभृत्ति छह वेदांगों में निरुक्त की गणना है। पाणिनि शिक्षा में "निरुक्त श्रोत्रमुचयते" इस वाक्य से निरुक्त को वेद का कान बतलाया है। यद्यपि इस शिक्षा में निरुक्त का क्रमप्राप्त चतुर्थ स्थान है तथापि उपयोग की दृष्टि से एवं आभ्यंतर तथा बाह्य विशेषताओं के कारण वेदों में यह प्रथम स्थान रखता है। निरुक्त की जानकारी के बिना भेद वेद के दुर्गम अर्थ का ज्ञान संभव नहीं है। काशिकावृत्ति के अनुसार निरूक्त पाँच प्रकार का होता है— वर्णागम (अक्षर बढ़ाना) वर्णविपर्यय (अक्षरों को आगे पीछे करना), वर्णाधिकार (अक्षरों को वदलना), नाश (अक्षरों को छोड़ना) और धातु के किसी एक अर्थ को सिद्ब करना। इस ग्रंथ में यास्क ने शाकटायन, गार्ग्य, शाकपूणि मुनियों के शब्द-व्युत्पत्ति के मतों-विचारों का उल्लेख किया है तथा उसपर अपने विचार दिए हैं। .

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पद्मनाभदत्त

आचार्य पद्मनाभदत्त एक वैयाकरण थे। पाणिनि के उत्तरवर्ती वैयाकरणों में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके द्वारा रचित 'सुपद्मव्याकरण' का व्याकरण ग्रन्थों में स्थान महत्त्वपूर्ण है। सुपद्मव्याकरण पाणिनीय अष्टाध्यायी के अनुकरण पर रचित एक लक्षण ग्रन्थ है। यह व्याकरण बंगाली वर्णमाला के अक्षरों में, विशेषकर बंगाल निवासियों के भाषाज्ञान के लिए लिखा है। पद्मनाभदत्त ने बंग प्रान्तीयों के लिए संस्कृत व्याकरण की जटिलता को दूर करके, सुगम्य बनाने के लिए बंगाली लिपि में सुपद्मव्याकरण की रचना की। इन्हों ने केवल व्याकरणिक ग्रन्थों का ही प्रणयन नहीं किया बल्कि साहित्यिक ग्रन्थों की भी रचना की। पद्मनाभदत्त का प्रमुख उद्देश्य संस्कृत व्याकरण का स्पष्ट तथा सरलतम ढंग से ज्ञान कराना तथा भाषा के विकास में आए नए-नए शब्दों का संस्कृतिकरण करना था, जो आज भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। .

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पश्चिम गंग वंश

पश्चिम गंग वंश (३५०-१००० ई.) (ಪಶ್ಚಿಮ ಗಂಗ ಸಂಸ್ಥಾನ) प्राचीन कर्नाटक का एक राजवंश था। ये पूर्वी गंग वंश से अलग थे। पूर्वी गंग जिन्होंने बाद के वर्षों में ओडिशा पर राज्य किया। आम धारण के अनुसार पश्चिम गंग वंश ने शसन तब संभाला जब पल्लव वंश के पतन उपरांत बहुत से स्वतंत्र शासक उठ खड़े हुए थे। इसका एक कारण समुद्रगुप्त से युद्ध भी रहे थे। इस वंश ने ३५० ई से ५५० ई तक सार्वभौम राज किया था। इनकी राजधानी पहले कोलार रही जो समय के साथ बदल कर आधुनिक युग के मैसूर जिला में कावेरी नदी के तट पर तालकाड स्थानांतरित हो गयी थी। .

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पाणिनि

पाणिनि (५०० ई पू) संस्कृत भाषा के सबसे बड़े वैयाकरण हुए हैं। इनका जन्म तत्कालीन उत्तर पश्चिम भारत के गांधार में हुआ था। इनके व्याकरण का नाम अष्टाध्यायी है जिसमें आठ अध्याय और लगभग चार सहस्र सूत्र हैं। संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप देने में पाणिनि का योगदान अतुलनीय माना जाता है। अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण ग्रंथ नहीं है। इसमें प्रकारांतर से तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है। उस समय के भूगोल, सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा और राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिंतन, ख़ान-पान, रहन-सहन आदि के प्रसंग स्थान-स्थान पर अंकित हैं। .

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पुरुषोत्तमदेव (वैयाकरण)

पुरुषोत्तमदेव बहुत बड़े वैयाकरण थे। इनको 'देव' नाम से भी पुकारा गया है। ये बंगाल के निवासी और बौद्ध धर्मावलंबी थे। बौद्धों और वैदिकों की अनबन पुरानी है। इन वातावरण के प्रभाव में पुरुषोत्तमदेव ने अष्टाध्यायी के सूत्रों में से वैदिक सूत्रों को अलग करके शेष सूत्रों पर भाष्य लिखा। इस भाष्य का नाम 'भाषावृत्ति' है। इस ग्रंथ का बहुत बड़ा महत्व है। देव के समय में उपलब्ध होने वाले प्रामाणिक ग्रंथों का उल्लेख भाषावृत्ति में पाया जाता है। वे ग्रंथ अब लुप्त हो गए हैं। भाषावृत्ति का प्रमाण उत्तरवर्ती वैयाकरणों ने स्वीकार किया है। बंगाल के निवासी सृष्टिधर थे। उन्होंने भाषावृत्ति की (भाषावृत्यर्थवृत्ति) टीका की है। इसमें २३ वैयाकरण उद्धृत हैं। भाषावृत्ति के निर्माण का कारण भी लिखा है। तदनुसार राजा लक्ष्मण सेन जी की प्रेरणा से बंगाल के निवासी श्री पुरुषोत्तमदेव ने भाषावृत्ति का निर्माण किया था। अतएव राजा लक्ष्मण सेन का बौद्ध होना और पुरुषोत्तमदेव का उनके आश्रित होना प्रतीत होता है। पुरुषोत्तमदेव ने जैनधर्म को भी सादर स्मरण किया है। राजा लक्ष्मण सेन सं.

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प्रभाकर

प्रभाकर (७वीं शताब्दी) भारत के दार्शनिक एवं वैयाकरण थे। वे मीमांसा से सम्बन्धित हैं। कुमारिल भट्ट से उनका शास्त्रार्थ हुआ था। शालिकनाथ ने ८वीं शताब्दी में प्रभाकर के ग्रन्थों का भाष्य लिखा। .

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बन्नू ज़िला

ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा प्रांत में बन्नू ज़िला (लाल रंग में) बन्नू शहर का एक दृश्य बन्नू शहर में बन्नू (उर्दू और पश्तो:, अंग्रेज़ी: Bannu) पाकिस्तान के ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा प्रांत का एक ज़िला है। यह करक ज़िले के दक्षिण में, लक्की मरवत ज़िले के उत्तर में और उत्तर वज़ीरिस्तान नामक क़बाइली क्षेत्र के पूर्व में स्थित है। इस ज़िले के मुख्य शहर का नाम भी बन्नू है। यहाँ बहुत-सी शुष्क पहाड़ियाँ हैं हालांकि वैसे इस ज़िले में बहुत हरियाली दिखाई देती है और यहाँ की धरती बहुत उपजाऊ है। ब्रिटिश राज के ज़माने में यहाँ के क़ुदरती सौन्दर्य से प्रभावित होकर बन्नू की 'स्वर्ग' से तुलना भी की जाती थी। .

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भट्टोजि दीक्षित

भट्टोजी दीक्षित १७वीं शताब्दी में उत्पन्न संस्कृत वैयाकरण थे जिन्होने सिद्धान्तकौमुदी की रचना की। इनका निवासस्थान काशी था। पाणिनीय व्याकरण के अध्ययन की प्राचीन परिपाटी में पाणिनीय सूत्रपाठ के क्रम को आधार माना जाता था। यह क्रम प्रयोगसिद्धि की दृष्टि से कठिन था क्योंकि एक ही प्रयोग का साधन करने के लिए विभिन्न अध्यायों के सूत्र लगाने पड़ते थे। इस कठिनाई को देखकर ऐसी पद्धति के आविष्कार की आवश्यकता पड़ी जिसमें प्रयोगविशेष की सिद्धि के लिए आवश्यक सभी सूत्र एक जगह उपलब्ध हों। भट्टोजि दीक्षित ने प्रक्रिया कौमुदी के आधार पर सिद्धान्तकौमुदी की रचना की। इस ग्रंथ पर उन्होंने स्वयं प्रौढमनोरमा टीका लिखी। पाणिनीय सूत्रों पर अष्टाध्यायी क्रम से एक अपूर्ण व्याख्या, शब्दकौतुभ तथा वैयाकरणभूषण कारिका भी इनके ग्रंथ हैं। इनकी सिद्धान्त कौमुदी लोकप्रिय है। 'तत्वबोधिनी (ज्ञानेन्द्र सरस्वती विरचित), 'बालमनोरमा (वासुदेव दीक्षित विरचित) इत्यादि सिद्धान्तकौमुदी की टीकाएँ सुप्रसिद्ध हैं। उनके शिष्य वरदराज भी व्याकरण के महान पण्डित हुए। .

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भर्तृहरि

भर्तृहरि एक महान संस्कृत कवि थे। संस्कृत साहित्य के इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके शतकत्रय (नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक) की उपदेशात्मक कहानियाँ भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं। प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था इसलिये इनका एक लोकप्रचलित नाम बाबा भरथरी भी है। .

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मौद्गल्यायन

मौद्गल्यायन नाम के कम से कम दो व्यक्ति हुए हैं, एक महात्मा बुद्ध के शिष्य तथा दूसरे वैयाकरण। .

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मेल्पत्तूर नारायण भट्टतिरि

मेल्पत्तूर नारायण भट्टतिरि (मलयालम: മേല്‍പതതൂര്‍ നാരായണ ഭട്ടതിരി) (1559 –1632) भारतीय गणितज्ञ। वे अच्युत पिषारटि के तृतीय शिष्य थे। वे गणितज्ञ वैयाकरण थे। 'प्रक्रिया सर्वस्वम्' उनकी सबसे महत्वपूर्ण कृति है। यह कृति पाणिनि की सूत्रात्मक रीति से व्याख्या करती है। किन्तु उनकी 'नारायणीयम' नामक कृति सबसे प्रसिद्ध है जिसमें गुरुवयुरप्पन (कृष्ण) की स्तुति है। वर्तमान समय में भी इसका गुरुवायूर मन्दिर में पाठ किया जाता है। .

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मोरेश्वर रामचंद्र वालंबे

मोरेश्वर रामचंद्र वाळंबे (३० जून १९१२ - २१ मार्च १९९२) एक शिक्षाविद तथा मराठी के वैयाकरण थे। ‘मराठीची लेखनपद्धति’ नाम से उनकी अनेक पाठ्यपुस्तकें प्रसिद्ध हैं। श्रेणी:मराठी साहित्यकार श्रेणी:1912 में जन्मे लोग श्रेणी:१९९२ में निधन.

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यास्क

यास्क वैदिक संज्ञाओं के एक प्रसिद्ध व्युत्पतिकार एवं वैयाकरण थे। इनका समय 5 से 6 वीं सदी ईसा पूर्व था। इन्हें निरुक्तकार कहा गया है। निरुक्त को तीसरा वेदाङग् माना जाता है। यास्क ने पहले 'निघण्टु' नामक वैदिक शब्दकोश को तैयार किया। निरुक्त उसी का विशेषण है। निघण्टु और निरुक्त की विषय समानता को देखते हुए सायणाचार्य ने अपने 'ऋग्वेद भाष्य' में निघण्टु को ही निरुक्त माना है। 'व्याकरण शास्त्र' में निरुक्त का बहुत महत्व है। .

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शाकटायन

शाकटायन नाम के दो व्यक्ति हुए हैं, एक वैदिक काल के अन्तिम चरण के वैयाकरण, तथा दूसरे ९वीं शताब्दी के अमोघवर्ष नृपतुंग के शासनकाल के वैयाकरण। वैदिक काल के अन्तिम चरण (८वीं ईसापूर्व) के शाकटायन, संस्कृत व्याकरण के रचयिता है हैं। उनकी कृतियाँ अब उपलब्ध नहीं हैं किन्तु यक्ष, पाणिनि एवं अन्य संस्कृत वैयाकरणों ने उनके विचारों का सन्दर्भ दिया है। शाकटायन का विचार था कि सभी संज्ञा शब्द अन्तत: किसी न किसी धातु से व्युत्पन्न हैं। संस्कृत व्याकरण में यह प्रक्रिया कृत-प्रत्यय के रूप में उपस्थित है। पाणिनि ने इस मत को स्वीकार किया किंतु इस विषय में कोई आग्रह नहीं रखा और यह भी कहा कि बहुत से शब्द ऐसे भी हैं जो लोक की बोलचाल में आ गए हैं और उनसे धातु प्रत्यय की पकड़ नहीं की जा सकती। शाकटायन द्वारा रचित व्याकरण शास्त्र 'लक्षण शास्त्र' हो सकता है, जिसमें उन्होंने भी चेतन और अचेतन निर्माण में व्याकरण लिंग निर्धारण की प्रक्रिया का वर्णन किया था। श्रेणी:संस्कृत श्रेणी:वैयाकरण.

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शौनक

शौनक एक संस्कृत वैयाकरण तथा ऋग्वेद प्रतिशाख्य, बृहद्देवता, चरणव्यूह तथा ऋग्वेद की छः अनुक्रमणिकाओं के रचयिता ऋषि हैं। वे कात्यायन और अश्वलायन के के गुरु माने जाते हैं। उन्होने ऋग्वेद की बश्कला और शाकला शाखाओं का एकीकरण किया। विष्णुपुराण के अनुसार शौनक गृतसमद के पुत्र थे। .

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शौरसेनी

शौरसेनी नामक प्राकृत मध्यकाल में उत्तरी भारत की एक प्रमुख भाषा थी। यह नाटकों में प्रयुक्त होती थी (वस्तुतः संस्कृत नाटकों में, विशिष्ट प्रसंगों में)। बाद में इससे हिंदी-भाषा-समूह व पंजाबी विकसित हुए। दिगंबर जैन परंपरा के सभी जैनाचार्यों ने अपने महाकाव्य शौरसेनी में ही लिखे जो उनके आदृत महाकाव्य हैं। शौरसेनी उस प्राकृत भाषा का नाम है जो प्राचीन काल में मध्यप्रदेश में प्रचलित थी और जिसका केंद्र शूरसेन अर्थात् मथुरा और उसके आसपास का प्रदेश था। सामान्यत: उन समस्त लोकभाषाओं का नाम प्राकृत था जो मध्यकाल (ई. पू. ६०० से ई. सन् १००० तक) में समस्त उत्तर भारत में प्रचलित हुईं। मूलत: प्रदेशभेद से ही वर्णोच्चारण, व्याकरण तथा शैली की दृष्टि से प्राकृत के अनेक भेद थे, जिनमें से प्रधान थे - पूर्व देश की मागधी एवं अर्ध मागधी प्राकृत, पश्चिमोत्तर प्रदेश की पैशाची प्राकृत तथा मध्यप्रदेश की शौरसेनी प्राकृत। मौर्य सम्राट् अशोक से लेकर अलभ्य प्राचीनतम लेखों तथा साहित्य में इन्हीं प्राकृतों और विशेषत: शौरसेनी का ही प्रयोग पाया जाता है। भरत नाट्यशास्त्र में विधान है कि नाटक में शौरसेनी प्राकृत भाषा का प्रयोग किया जाए अथवा प्रयोक्ताओं के इच्छानुसार अन्य देशभाषाओं का भी (शौरसेनं समाश्रत्य भाषा कार्या तु नाटके, अथवा छंदत: कार्या देशभाषाप्रयोक्तृभि - नाट्यशास्त्र १८,३४)। प्राचीनतम नाटक अश्वघोषकृत हैं (प्रथम शताब्दी ई.) उनके जो खंडावशेष उपलब्ध हुए हैं उनमें मुख्यत: शौरसेनी तथा कुछ अंशों में मागधी और अर्धमागधी का प्रयोग पाया जाता है। भास के नाटकों में भी मुख्यत: शौरसेनी का ही प्रयोग पाया जाता है। पश्चात्कालीन नाटकों की प्रवृत्ति गद्य में शौरसेनी और पद्य में महाराष्ट्री की ओर पाई जाती है। आधुनिक विद्वानों का मत है कि शौरसेनी प्राकृत से ही कालांतर में भाषाविकास के क्रमानुसार उन विशेषताओं की उत्पत्ति हुई जो महाराष्ट्री प्राकृत के लक्षण माने जाते हैं। वररुचि, हेमचंद्र आदि वैयाकरणों ने अपने-अपने प्राकृत व्याकरणों में पहले विस्तार से प्राकृत सामान्य के लक्षण बतलाए हैं और तत्पश्चात् शौरसेनी आदि प्रकृतों के विशेष लक्षण निर्दिष्ट किए हैं। इनमें शौरसेनी प्राकृत के मुख्य लक्षण दो स्वरों के बीच में आनेवाले त् के स्थान पर द् तथा थ् के स्थान पर ध्। जैसे अतीत > अदीद, कथं > कधं; इसी प्रकार ही क्रियापदों में भवति > भोदि, होदि; भूत्वा > भोदूण, होदूण। भाषाविज्ञान के अनुसार ईसा की दूसरी शती के लगभग शब्दों के मध्य में आनेवाले त् तथा द् एव क् ग् आदि वर्णों का भी लोप होने लगा और यही महाराष्ट्री प्राकृत की विशेषता मानी गई। प्राकृत का उपलभ्य साहित्य रचना की दृष्टि से इस काल से परवर्ती ही है। अतएव उसमें शौरसेनी का उक्त शुद्ध रूप न मिलकर महाराष्ट्री मिश्रित रूप प्राप्त होता है और इसी कारण पिशल आदि विद्वानों ने उसे उक्त प्रवृत्तियों की बहुलतानुसार जैन शौरसेनी या जैन महाराष्ट्री नाम दिया है। जैन शौरसेनी साहित्य दिंगबर जैन परंपरा का पाया जाता है। प्रमुख रचनाएँ ये हैं - सबसे प्राचीन पुष्पदंत एव भूतवलिकृत षट्खंडागम तथा गुणधरकृत कषाय प्राभृत नामक सूत्रग्रंथ हैं (समय लगभग द्वितीय शती ई.)। वीरसेन तथा जिनसेनकृत इनकी विशाल टीकाएँ भी शौरसेनी प्राकृत में लिखी गई है (९वीं शती ई.)। ये सब रचनाएँ गद्यात्मक हैं। पद्य में सबसे प्राचीन रचनाएँ कुंदकुंदाचार्यकृत हैं (अनुमानत: तीसरी शती ई.)। उनके बारह तेरह ग्रंथ प्रकाश में आ चुके हैं, जिनके नाम हैं - समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, रयणसार, बारस अणुवेक्खा तथा दर्शन, बोध पाहुडादि अष्ट पाहुड। इन ग्रंथों में मुख्यतया जैन दर्शन, अध्यात्म एवं आचार का प्रतिपादन किया गया है। मुनि आचार संबंधी मुख्य रचनाएँ हैं- शिवार्य कृत भगवती आराधना और वट्टकेर कृत मूलाचार। अनुप्रेक्षा अर्थात् अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाएँ भावशुद्धि के लिए जैन मुनियों के विशेष चिंतन और अभ्यास के विषय हैं। इन भावनाओं का संक्षेप में प्रतिपादन तो कुंदकुंदाचार्य ने अपनी 'बारस अणुवेक्खा' नामक रचना में किया है, उन्हीं का विस्तार से भले प्रकार वर्णन कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में पाया जाता है, जिसके कर्ता का नाम स्वामी कार्त्तिकेय है। (लगभग चौथी पाँचवीं शती ई.)। (१) यति वृषभाचार्यकृत तिलोयपण्णत्ति (९वीं शती ई. से पूर्व) में जैन मान्यतानुसार त्रैलाक्य का विस्तार से वर्णन किया गया है, तथा पद्मनंदीकृत जंबूदीवपण्णत्ति में जंबूद्वीप का। (२) स्याद्वाद और नय जैन न्यायशास्त्र का प्राण है। इसका प्रतिपादन शौरसेनी प्राकृत में देवसेनकृत लघु और बृहत् नयचक्र नामक रचनाओं में पाया जाता है (१०वीं शती ई.)। जैन कर्म सिद्धांत का प्रतिपादन करनेवाला शौरसेनी प्राकृत ग्रन्थ है- नेमिचंद्रसिद्धांत चक्रवर्ती कृत गोम्मटसार, जिसकी रचना गंगनरेश मारसिंह के राज्यकाल में उनके उन्हीं महामंत्री चामुंडराय की प्रेरणा से हुई थी, जिन्होंने मैसूर प्रदेश के श्रवणबेलगोला नगर में उस सुप्रसिद्ध विशाल बाहुबलि की मूर्ति का उद्घाटन कराया था (११वीं शती ई.)। उपर्युक्त समस्त रचनाएँ प्राकृत-गाथा-निबद्ध हैं। जैन साहित्य के अतिरक्त शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग राजशेखरकृत कर्पूरमंजरी, रद्रदासकृत चंद्रलेखा, घनश्यामकृत आनंदसुंदरी नामक सट्टकों में भी पाया जाता है। यद्यपि कर्पूरमंजरी के प्रथम विद्वान् संपादक डा.

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संस्कृत शब्दकोश

सबसे पहले शब्द-संकलन भारत में बने। भारत की यह शानदार परंपरा वेदों जितनी—कम से कम पाँच हजार वर्ष—पुरानी है। प्रजापति कश्यप का निघण्टु संसार का प्राचीनतम शब्द संकलन है। इस में १८०० वैदिक शब्दों को इकट्ठा किया गया है। निघंटु पर महर्षि यास्क की व्याख्या 'निरुक्त' संसार का पहला शब्दार्थ कोश (डिक्शनरी) एवं विश्वकोश (ऐनसाइक्लोपीडिया) है। इस महान शृंखला की सशक्त कड़ी है छठी या सातवीं सदी में लिखा अमरसिंह कृत 'नामलिंगानुशासन' या 'त्रिकांड' जिसे सारा संसार 'अमरकोश' के नाम से जानता है। अमरकोश को विश्व का सर्वप्रथम समान्तर कोश (थेसेरस) कहा जा सकता है। .

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सुपद्मव्याकरण

सुपद्मव्याकरण, आचार्य पद्मनाभदत्त द्वारा रचित एक संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ है। पाणिनि के उत्तरवर्ती वैयाकरणों में आचार्य पद्मनाभदत्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है।सुपद्मव्याकरण पाणिनीय अष्टाध्यायी के अनुकरण पर रचित एक लक्षण ग्रन्थ है। यह व्याकरण बंगाली वर्णमाला के अक्षरों में, विशेषकर बंगाल निवासियों के भाषाषाज्ञान के लिए लिखा है। पद्मनाभदत्त ने बंग प्रान्तीयों के लिए संस्कृत व्याकरण की जटिलता को दूर करके, सुगम्य बनाने के लिए बंगाली लिपि में सुपद्मव्याकरण की रचना की। उनका प्रमुख उद्देश्य संस्कृत व्याकरण का स्पष्ट तथा सरलतम ढंग से ज्ञान कराना तथा भाषा के विकास में आए नए-नए शब्दों का संस्कृतिकरण करना था, जो आज भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। उन्होने सुपद्मव्याकरण के अलावा प्रयोगदीपिका, उणादिवृत्ति, धातुकौमुदी, यङलुगादिवृत्ति, परिभाषावृत्ति आदि अन्य व्याकरणिक ग्रन्थ भी रचे। .

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स्वरूपाचार्य अनुभूति

स्वरूपाचार्य अनुभूति को सारस्वत व्याकरण का निर्माता माना जाता है। बहुत से वैयाकरण इनको सारस्वत का टीकाकार ही मानते हैं। इसकी पुष्टि में जो तथ्यपूर्ण प्रमाण मिलते हैं उनमें क्षेमेंद्र का प्रमाण सर्वोपरि है। मूल सारस्वतकार कौन थे इसका पता नहीं चलता। सारस्वत पर क्षेमेंद्र की प्रचीनतम टीका मिलती है। उसमें सारस्वत का निर्माता "नरेंद्र" माना गया है। क्षेमेंद्र सं.

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हेमचन्द्राचार्य

ताड़पत्र-प्रति पर आधारित '''हेमचन्द्राचार्य''' की छवि आचार्य हेमचन्द्र (1145-1229) महान गुरु, समाज-सुधारक, धर्माचार्य, गणितज्ञ एवं अद्भुत प्रतिभाशाली मनीषी थे। भारतीय चिंतन, साहित्य और साधना के क्षेत्रमें उनका नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है। साहित्य, दर्शन, योग, व्याकरण, काव्यशास्त्र, वाड्मयके सभी अंड्गो पर नवीन साहित्यकी सृष्टि तथा नये पंथको आलोकित किया। संस्कृत एवं प्राकृत पर उनका समान अधिकार था। संस्कृत के मध्यकालीन कोशकारों में हेमचंद्र का नाम विशेष महत्व रखता है। वे महापंडित थे और 'कालिकालसर्वज्ञ' कहे जाते थे। वे कवि थे, काव्यशास्त्र के आचार्य थे, योगशास्त्रमर्मज्ञ थे, जैनधर्म और दर्शन के प्रकांड विद्वान् थे, टीकाकार थे और महान कोशकार भी थे। वे जहाँ एक ओर नानाशास्त्रपारंगत आचार्य थे वहीं दूसरी ओर नाना भाषाओं के मर्मज्ञ, उनके व्याकरणकार एवं अनेकभाषाकोशकार भी थे। समस्त गुर्जरभूमिको अहिंसामय बना दिया। आचार्य हेमचंद्र को पाकर गुजरात अज्ञान, धार्मिक रुढियों एवं अंधविश्र्वासों से मुक्त हो कीर्ति का कैलास एवं धर्मका महान केन्द्र बन गया। अनुकूल परिस्थिति में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र सर्वजनहिताय एवं सर्वापदेशाय पृथ्वी पर अवतरित हुए। १२वीं शताब्दी में पाटलिपुत्र, कान्यकुब्ज, वलभी, उज्जयिनी, काशी इत्यादि समृद्धिशाली नगरों की उदात्त स्वर्णिम परम्परामें गुजरात के अणहिलपुर ने भी गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया। .

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जयादित्य

जयादित्य संस्कृत के वैयाकरण थे। काशिकावृत्ति जयादित्य और वामन की सम्मिलित रचना है। हेमचंद्र (११४५ वि.) ने अपने 'शब्दानुशासन' में व्याख्याकार जयादित्य को बहुत ही रुचिपूर्ण ढंग से स्मरण किया है। चीनी यात्री इत्सिंग ने अपनी भारत यात्रा के प्रसंग में जयादित्य का प्रभावपूर्ण ढंग से वर्णन किया है। जयादित्य के जनम मरण आदि वृत्तांत के बारे में कोई भी परिमार्जित एवं पुष्कल ऐतिहासिक सामग्री नहीं मिलती। इत्सिंग की भारतयात्रा एवं विवरण से कुछ जानकारी मिलती है। तदनुसार जयादित्य का देहावसान सं.

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जगन्नाथ पण्डितराज

जगन्नाथ पण्डितराज (जन्म: १६वीं शती के अन्तिम चरण में -- मृत्यु: १७वीं शदी के तृतीय चरण में), उच्च कोटि के कवि, समालोचक, साहित्यशास्त्रकार तथा वैयाकरण थे। कवि के रूप में उनका स्थान उच्च काटि के उत्कृष्ट कवियों में कालिदास के अनंतर - कुछ विद्वान् रखते हैं। "रसगंगाधर"कार के रूप में उनके साहित्यशास्त्रीय पांडित्य और उक्त ग्रंथ का पंडितमंडली में बड़ा आदर है। .

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वासुदेव महादेव अभ्यंकर

वासुदेव महादेव अभ्यंकर (जन्म १८६१, मृत्यु १९४३) सुप्रसिद्ध वैयाकरण तथा अनेक शास्त्रों के पारंगत विद्वान्‌। हिंदुस्थान की सरकार ने १९२१ में आपको "महामहोपाध्याय" की उपाधि से विभूषित किया। संकेतश्वर के शंकराचार्य जी ने भी उन्हें "विद्वद्रत्न" की पदवी प्रदान की। सतारा के प्रसिद्ध विद्वान्‌ पंडित राजाराम शास्त्री गोडबोले उनके गुरु थे। इनके गुरु भास्कर शास्त्री अभ्यंकर उनके पितामह थे। उनके पिता की मृत्यु के बाद राजाराम शास्त्री ने उनका सारा भार अपने ऊपर ले लिया। न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानडे ने उनकी विद्वत्ता को देखकर फर्ग्युसन कॉलेज में शास्त्री के पद पर उनकी नियुक्ति की। व्याकरण के साथ साथ वेदान्त, मीमांसा, साहित्य, न्याय, ज्योतिष आदि शास्त्रों में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा का समान रूप में परिचय दिया। इन विषयों का अध्ययन, अध्यापन तथा लेखन आपका अव्याहत गति से चलता रहा। अभ्यंकर की लेखनशैली बहुत ही मार्मिक, मौलिक तथा सरल है। ग्रंथों का स्तर ऊँचा है। संस्कृत में अनेक ग्रंथों पर उन्होंने टीकाएँ लिखी हैं। स्वंतत्र रचनाओं में अद्वैतामोद:, कायशुद्धि:, धर्मतत्वनिर्णय:, सूत्रांतर परिग्रह विचार: आदि हैं। ब्रह्मसूत्र शांकरभाश्य तथा पातञ्जल महाभाष्य का मराठी अनुवाद भी उनकी कृतियाँ हैं। ये रचनाएँ आनन्दाश्रम, पुणे, तथा गायकवाड़ पौर्वात्य पुस्तकमाला (ओरियन्टल सिरीज) में प्रकाशित हैं। वे मुंबई विश्वविद्यालय के एम.

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व्युत्पत्तिशास्त्र

भाषा के शब्दों के इतिहास के अध्ययन को व्युत्पत्तिशास्त्र (etymology) कहते हैं। इसमें विचार किया जाता है कि कोई शब्द उस भाषा में कब और कैसे प्रविष्ट हुआ; किस स्रोत से अथवा कहाँ से आया; उसका स्वरूप और अर्थ समय के साथ किस तरह परिवर्तित हुआ है। व्युत्पत्तिशास्त्र में शब्द के इतिहास के माध्यम से किसी भी राष्ट्र, प्रांत एवं समाज की भाषिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि अभिव्यक्त होती है। 'व्युत्पत्ति' का अर्थ है ‘विशेष उत्पत्ति’। किसी शब्द के क्रमिक इतिहास का अध्ययन करना, व्युत्पत्तिशास्त्र का विषय है। इसमें शब्द के स्वरूप और उसके अर्थ के आधार का अध्ययन किया जाता है। अंग्रेजी में व्युत्पत्तिशास्त्र को 'Etymology' कहते हैं। यह शब्द यूनानी भाषा के यथार्थ अर्थ में प्रयुक्त Etum तथा लेखा-जोखा के अर्थ में प्रयुक्त Logos के योग से बना है, जिसका आशय शब्द के इतिहास का वास्तविक अर्थ सम्पुष्ट करना है। भारतवर्ष में व्युत्पत्तिशास्त्र का उद्भव बहुत प्राचीन है। जब वेद मन्त्रों के अर्थों को समझना सुगम नहीं रहा तब भारतीय मनीषियों द्वारा वेदों के क्लिष्ट शब्दों के संग्रह रूप में निघण्टु ग्रन्थ लिखे गए तथा निघण्टु ग्रन्थों के शब्दों की व्याख्या और शब्द व्युत्पत्ति के ज्ञान के लिए निरुक्त ग्रन्थों की रचना हुई। वेदों के अध्ययन के लिए वेदागों के छ: शास्त्रों में निरुक्त शास्त्र भी सम्मिलित हैं। निरूक्त शास्त्र संख्या में 12 बतलाए जाते हैं, लेकिन इस समय आचार्य यास्क प्रणीत एक मात्र निरूक्त उपलब्ध है। .

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वोपदेव

वोपदेव विद्वान्, कवि, वैद्य और वैयाकरण ग्रंथाकार थे। इनके द्वारा रचित व्याकरण का प्रसिद्ध ग्रंथ 'मुग्धबोध' है। इनका लिखा कविकल्पद्रुम तथा अन्य अनेक ग्रंथ प्रसिद्घ हैं। ये 'हेमाद्रि' के समकालीन थे और देवगिरि के यादव राजा के दरबार के मान्य विद्वान् रहे। इनका समय तेरहवीं शती का पूर्वार्ध मान्य है। ये देवगिरि के यादव राजाओं के यहाँ थे। यादवों के प्रसिद्ध विद्वान् मंत्री हेमाद्रि पंत (हेमाड पंत) का उन्हें आश्रय था। "मुक्ताफल" और "हरिलीला" नामक ग्रंथों की इन्होंने रचना की। हरिलीला में संपूर्ण भागवत संक्षेप में आया है। बोपदेव यादवों के समकालीन, सहकारी, पंडित और भक्त थे। कहते हैं, वे विदर्भ के निवासी थे। उन्होंने प्रचुर और बहुविध ग्रंथों की रचना की। उन्होंने व्याकरण, वैद्यशास्त्र, ज्योतिष, साहित्यशास्त्र और अध्यात्म पर उपयुक्त ग्रंथों का प्रणयन करके अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया। उन्होंने भागवत पर हरिलीला, मुक्ताफल, परमहंसप्रिया और मुकुट नामक चार भाष्यग्रंथों की सरस रचना की। उन्होंने मराठी में भाष्यग्रंथ लेखनशैली का श्रीगणेश किया। .

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कच्चान

थाई परम्परा के अनुसर बनी कच्चान की प्रतिमा कच्चान (संस्कृत: कात्यायन) या 'महाकच्चान' पालि भाषा के वैयाकरण तथा बुद्ध भगवान के दस शिष्यों में से एक परम ऋद्धिमान्‌ शिष्य थे, जिनकी प्रशंसा में कहा गया है: .

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कन्नड़ भाषा

कन्नड़ (ಕನ್ನಡ) भारत के कर्नाटक राज्य में बोली जानेवाली भाषा तथा कर्नाटक की राजभाषा है। यह भारत की उन २२ भाषाओं में से एक है जो भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में साम्मिलित हैं। name.

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कर्म एवं उद्यमों की सूची

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कापीसा प्रान्त

अफ़्ग़ानिस्तान में कापीसा प्रान्त (लाल रंग में) कापीसा प्रान्त में एक प्राथमिक विद्यालय सर्दियों में कापीसा प्रांत में गश्त लगते अमेरिकी और अफ़्ग़ान सैनिक कापीसा (کاپيسا) अफ़्ग़ानिस्तान के ३४ प्रान्तों में से एक है। यह देश के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में स्थित है। कापीसा की राजधानी महमूद-ए-राक़ी नामक शहर है। इस प्रांत की आबादी ४,०६,२०० है और इसका क्षेत्रफल १,८४२ वर्ग किमी है। .

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कामताप्रसाद गुरु

कामताप्रसाद गुरु (१८७५ - १९४७ ई.) हिंदी के लब्धप्रतिष्ठ वैयाकरण तथा साहित्यकार। .

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किशोरीदास वाजपेयी

आचार्य किशोरीदास वाजपेयी आचार्य किशोरीदास वाजपेयी (१८९८-१९८१) हिन्दी के साहित्यकार एवं सुप्रसिद्ध व्याकरणाचार्य थे। हिन्दी की खड़ी बोली के व्याकरण की निर्मिति में पूर्ववर्ती भाषाओं के व्याकरणाचार्यो द्वारा निर्धारित नियमों और मान्यताओं का उदारतापूर्वक उपयोग करके इसके मानक स्वरूप को वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पन्न करने का गुरुतर दायित्व पं॰ किशोरीदास वाजपेयी ने निभाया। इसीलिए उन्हें 'हिन्दी का पाणिनी' कहा जाता है। अपनी तेजस्विता व प्रतिभा से उन्होंने साहित्यजगत को आलोकित किया और एक महान भाषा के रूपाकार को निर्धारित किया। आचार्य किशोरीदास बाजपेयी ने हिन्दी को परिष्कृत रूप प्रदान करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इनसे पूर्व खडी बोली हिन्दी का प्रचलन तो हो चुका था पर उसका कोई व्यवस्थित व्याकरण नहीं था। अत: आपने अपने अथक प्रयास एवं ईमानदारी से भाषा का परिष्कार करते हुए व्याकरण का एक सुव्यवस्थित रूप निर्धारित कर भाषा का परिष्कार तो किया ही साथ ही नये मानदण्ड भी स्थापित किये। स्वाभाविक है भाषा को एक नया स्वरूप मिला। अत: हिन्दी क्षेत्र में आपको "पाणिनि' संज्ञा से अभिहित किया जाने लगा। .

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उणादि सूत्र

उणादिसूत्र का अर्थ है: 'उण्' से प्रारंभ होने वाले कृत् प्रत्ययों का ज्ञापन करनेवाले सूत्रों का समूह। 'कृवापाजिमिस्वदिसाध्यशूभ्य उण्' यह उणादि का प्रारंभिक सूत्र है। शाकटायन को उणादिसूत्रों का कर्ता माना जाता है किन्तु स्व.

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