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वृन्दावन

सूची वृन्दावन

कृष्ण बलराम मन्दिर इस्कॉन वृन्दावन वृन्दावन मथुरा क्षेत्र में एक स्थान है जो भगवान कृष्ण की लीला से जुडा हुआ है। यह स्थान श्री कृष्ण भगवान के बाललीलाओं का स्थान माना जाता है। यह मथुरा से १५ किमी कि दूरी पर है। यहाँ पर श्री कृष्ण और राधा रानी के मन्दिर की विशाल संख्या है। यहाँ स्थित बांके विहारी जी का मंदिर सबसे प्राचीन है। इसके अतिरिक्त यहाँ श्री कृष्ण बलराम, इस्कान मन्दिर, पागलबाबा का मंदिर, रंगनाथ जी का मंदिर, प्रेम मंदिर, श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिर, अक्षय पात्र, निधि वन आदिदर्शनीय स्थान है। यह कृष्ण की लीलास्थली है। हरिवंश पुराण, श्रीमद्भागवत, विष्णु पुराण आदि में वृन्दावन की महिमा का वर्णन किया गया है। कालिदास ने इसका उल्लेख रघुवंश में इंदुमती-स्वयंवर के प्रसंग में शूरसेनाधिपति सुषेण का परिचय देते हुए किया है इससे कालिदास के समय में वृन्दावन के मनोहारी उद्यानों की स्थिति का ज्ञान होता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार गोकुल से कंस के अत्याचार से बचने के लिए नंदजी कुटुंबियों और सजातीयों के साथ वृन्दावन निवास के लिए आये थे। विष्णु पुराण में इसी प्रसंग का उल्लेख है। विष्णुपुराण में अन्यत्र वृन्दावन में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन भी है। .

108 संबंधों: चंद्रगोपाल, चैतन्य महाप्रभु, ठाकुर बिल्वमंगल, दयाराम, देवरहा बाबा, दोलोत्सव, नागरीदास, नित्यानंद प्रभु, निम्बार्काचार्य, नंदगाँव, मथुरा, नीम करौली बाबा, प्रेम मन्दिर, बल्देव विद्याभूषण, बांके बिहारी जी मन्दिर, ब्रज, बैजू बावरा, भारत में धर्म, भारत के प्रमुख हिन्दू तीर्थ, भारत के शहरों की सूची, भारतचंद्र राय, भारतीय संगीत का इतिहास, भक्तिरसशास्त्र (वैष्णव), मथुरा, मदन मोहन मन्दिर, वृंदावन, ममता कालिया, माधवदास 'माधुरी', मायापुर, मीरा बाई, यमुना नदी, रसिक गोविंद(रीतिग्रंथकार कवि), राधा, राधा दामोदर मंदिर, राधा रमण मंदिर, राधा वल्लभ मंदिर, राधा कृष्ण, राधाचरण गोस्‍वामी, राधाबाई, राम लीला, रामराय, राष्ट्रीय राजमार्ग २, रास महोत्सव, रासलीला, राजा महेन्द्र प्रताप सिंह, रघुनाथ दास गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, रूप गोस्वामी, ललितकिशोरी तथा ललितमाधुरी, लोकनाथ गोस्वामी, शनि (ज्योतिष), श्यामानन्द, ..., श्री नीलकंठेश्वर महादेव, मथुरा, श्रीभार्गवराघवीयम्, षड्गोस्वामी, षण्गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, सरसदास, ससुराल सिमर का, संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, संपूर्णानन्द, संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द, सुदर्शनाचार्य, सुजाता चौधरी, स्वामी माधवाश्रम, स्वामी हरिदास, स्वामी हितदास, हरिराम व्यास, होली, होली की कहानियाँ, जयपुर का वृंदावन, जगन्नाथ, जीव गोस्वामी, ईशा शरवानी, घनानन्द, वात्सल्य ग्राम, वागीश शास्त्री, वृन्दावनदास ठाकुर, वृंदावन चन्द्रोदय मंदिर, वेदान्त दर्शन, गदाधर भट्ट, गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय, गौरव कृष्ण गोस्वामी, गोपाल भट्ट गोस्वामी, गोपीनाथ मंदिर, वृंदावन, गोविंददेव मंदिर, गोकुलानंद मंदिर, ओखाहरन्, आदित्य चौधरी, इंदिरा रायसम गोस्वामी, कालिय नाग, किशोरीदास वाजपेयी, कविराज कृष्णदास, कृपालु महाराज, कृष्ण, कृष्णदास (बहुविकल्पी), केशी, अद्वैत कुमार (स्वतंत्रता संग्राम सेनानी), अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, अमृतलाल चक्रवर्ती, अरुणचन्द्र चक्रवर्ती (स्वतंत्रता संग्राम सेनानी), अर्जुन प्रसाद (स्वतंत्रता संग्राम सेनानी), अलवर जिला, अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन, अक्रूर, अक्षय तृतीया, अक्षय वट, उत्तर प्रदेश, उदासी सम्प्रदाय, छोटी बहू सूचकांक विस्तार (58 अधिक) »

चंद्रगोपाल

चंद्रगोपाल संस्कृत के विद्वान्‌ तथा ब्रजभाषा के सुकवि थे। श्री राधामाधव भाष्य, गायत्री भाष्य तथा श्री राधामाधवाष्टक संस्कृत रचनाएँ हैं। इनका जन्म सं.

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चैतन्य महाप्रभु

चैतन्य महाप्रभु (१८ फरवरी, १४८६-१५३४) वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी, भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। यह भी कहा जाता है, कि यदि गौरांग ना होते तो वृंदावन आज तक एक मिथक ही होता। वैष्णव लोग तो इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के संयोग का अवतार मानते हैं। गौरांग के ऊपर बहुत से ग्रंथ लिखे गए हैं, जिनमें से प्रमुख है श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी विरचित चैतन्य चरितामृत। इसके अलावा श्री वृंदावन दास ठाकुर रचित चैतन्य भागवत तथा लोचनदास ठाकुर का चैतन्य मंगल भी हैं। .

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ठाकुर बिल्वमंगल

ठाकुर विल्वमंगल (८वीं शताब्दी), "लीलाशुक" नामांतर से प्रसिद्ध दाक्षिणात्य ब्राह्मण तथा कृष्णभक्त कवि थे। ये मूलतः केरल निवासी थे। .

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दयाराम

दयाराम (1777-1853 ई) मध्यकालीन गुजराती भक्ति-काव्य परंपरा के अंतिम महत्वपूर्ण वैष्णव कवि थे। वे गरबी साहित्य रचने के लिए प्रसिद्ध हैं। वे पुष्टिमार्गी कवि थे। उनके अवसान के साथ मध्यकाल और कृष्ण-भक्ति-काव्य दोनों का पर्यवसान हो गया। इस युगपरिवर्तन के चिह्न-कुछ कुछ दयाराम के काव्य में ही लक्षित होते हैं। भक्ति का वह तीव्र भावावेग एवं अनन्य समर्पणमयी निष्ठा जो नरसी और मीरा के काव्य में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होती है उनकी रचनाओं में उस रूप में प्राप्त नहीं होती। उसके स्थान पर मानवीय प्रेम और विलासिता का समावेश हो जाता है यद्यपि बाह्य रूप परंपरागत गोपी-कृष्ण लीलाओं का ही रहता है। इसी संक्रमणकालीन स्थिति को लक्षित करते हुए गुजरात के प्रसिद्ध इतिहासकार-साहित्यकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने अपना अभिमत व्यक्त किया कि दयारामनुं भक्तकवियों मां स्थान न थी, प्रणयना अमर कवियोमां छे। यह कथन अत्युक्तिपूर्ण होते हुए भी दयाराम के काव्य की आंतरिक वास्तविकता की ओर स्पष्ट इंगित करता है। .

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देवरहा बाबा

देवरहा बाबा, भारत के उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद में एक योगी, सिद्ध महापुरुष एवं सन्तपुरुष थे। डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद, महामना मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तमदास टंडन, जैसी विभूतियों ने पूज्य देवरहा बाबा के समय-समय पर दर्शन कर अपने को कृतार्थ अनुभव किया था। पूज्य महर्षि पातंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग में पारंगत थे। .

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दोलोत्सव

दोलोत्सव (अपभ्रंश: डोलोत्सव) मुख्यत: वैष्णव संप्रदाय के मंदिरों में मनाया जानेवाला प्रमुख उत्सव है जिसमें श्रीकृष्ण की मूर्ति हिंडोले में रखकर उपवनादि में उत्सवार्थ ले जाते हैं। यों तो समस्त भारत में इस उत्सव का प्रचलन है किंतु वृंदावन तथा बंगाल में यह विशेष समारोह से मनाया जात है। बंगाल में इसे 'दोलयात्रा' कहते हैं। आजकल यह उत्सव प्रतिपदा से युक्त फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा तथा चैत्र शुक्ला द्वादशी को मनाया जाता है। जैसा नाम से ही स्पष्ट है, इसमें दोल या हिंडोल (झूला) की प्रमुखता है। श्री गोपालभट्ट गोस्वामी विरचित 'श्री हरिभक्ति विलास' नामक निबंधग्रंथ के अनुसार चैत्र शुक्ला द्वादशी को वैष्णवों को आमंत्रित कर गीत-वाद्य-संकीर्तन-सहित विविध उपचारों से भगवान श्री कृष्ण या विष्णु का पूजन करके प्रणामपूर्वक उन्हें दोलारूढ़ कराके झुलाने का विधान है। इस प्रकार दिन व्यतीत होने पर वैष्णवों सहित रात्रि जागरण करे। चैत्र शुक्ला तृतीया तथा उत्तराफाल्गुनी से युक्त फाल्गुनी पूर्णिमा को भी यह उत्सव करना चाहिए। पद्मपुराण के पाताल खंड में भी दोलोत्सव या दोलयात्रा का विशद वर्णन है: उक्त पौराणिक वर्णन से यह स्पष्ट है कि यह उत्सव अति प्राचीन काल से प्राय: समस्त भारत में प्रचलित था। पहले यह उत्सव फाल्गुन तथा चैत्र मास में अनेक दिनों तक होता था। कालांतर में यह संक्षिप्त होता गया। अब यह केवल दो दिनों का रह गया है- फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा तथा चैत्र शुक्ला द्वादशी। इस उत्सव को वसंतोत्सव का अंग माना जा सकता है। पद्मपुराण (पाताल खंड), गरुड़ पुराण, दोलयात्रातत्व तथा श्रीहरिभक्तिविलास में इस उत्सव के विशद विवेचन तथा मतमतांतर उपलब्ध हैं। तिरुमला में भी दोलोत्सव या 'दोलसेवा' की जाती है। श्रेणी:हिन्दू उत्सव श्रेणी:वैष्णव सम्प्रदाय श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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नागरीदास

नागरीदास ब्रज-भक्ति-साहित्य में सर्वाधिक प्रसिद्धि पानेवाले कवि एवं कृष्णगढ़ (राजस्थान) के राजा थे। इनका नाम सांवतसिंह था। नागरीदास बल्लभकुल के गोस्वामी रणछोड़ जी के शिष्य थे। इनके इष्टदेव श्री कल्याणराय जी तथा श्री नृत्यगोपाल जी थे। ये दोनों भगवत् विग्रह कृष्णगढ़ में आज भी विराजमालन हैं। नागरीदास का जन्म संवत् १७५६ में हुआ था। इनके पिता का नाम राजसिंह था। सावंतसिंह ने १३ वर्ष की अवस्था में ही बूँदी के हाड़ा जैतसिंह को मारा था। यह बड़े शूरवीर थे। राजसिंह के स्वर्गवासी होने पर बादशाह अहमदशाह ने इनको कृष्णगढ़ की गद्दी पर बिठाना चाहा परन्तु इनके भाई बहादुरसिंह जोधपुर नरेश की सहायता से पहले ही राज्य पर अधिकार कर बैठे थे। सावंतसिंह ने मरहठों से संधि कर ली, और बहादुरसिंह को हराकर राज्य पर अधिकार जमा लिया। किंतु गृहकलह से इनका मन विरक्त हो गया, और यह मत इन्होंने बना लिया कि 'सबै कलह इक राज में, राज कहल को मूल।' राज्य का शासन भार सा प्रतीत होने लगा। कृष्णभक्त तो थे ही, राज्य की ओर से विरक्ति हो जाने के फलस्वरूप इनके मन में ब्रजवास करने की इच्छा प्रबल हो उठी- राजकाज छोड़कर नागरीदास वृन्दावन को चल दिए। इनके रचे पद ब्रजमंडल में पहले ही काफी प्रसिद्ध हो चुके थे, अत: ब्रजवासियों ने बड़े प्रेम से इनका स्वागत किया। नागरीदास जी ने स्वयं लिखा है - सर्वस्व त्यागकर अब ब्रज की रज को ही सर्वस्व मान लिया- .

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नित्यानंद प्रभु

नित्यानंद प्रभु (जन्म:१४७४) चैतन्य महाप्रभु के प्रथम शिष्य थे। इन्हें निताई भी कहते हैं। इन्हीं के साथ अद्वैताचार्य महाराज भी महाप्रभु के आरंभिक शिष्यों में से एक थे। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया। नित्यानन्द जी का जन्म एक धार्मिक बंध्यगति (ब्राह्मण), मुकुंद पंडित और उनकी पत्नी पद्मावती के यहां १४७४ के लगभग वर्तमान पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के एकचक्र या चाका नामक छोटे से ग्राम में हुआ था। इनके माता-पिता, वसुदेव रोहिणी के तथा नित्यानंद बलराम के अवतार माने जाते हैं। बाल्यकाल में यह अन्य बालकों को लेकर कृष्णलीला तथा रामलीला किया करते थे और स्वयं सब बालकों को कुल भूमिका बतलाते थे। इससे सभा को आश्चर्य होता था कि इस बालक ने यह सारी कथा कैसे जानी। विद्याध्ययन में भी यह अति तीव्र थे और इन्हें 'न्यायचूड़ामणि' की पदवी मिली। यह जन्म से ही विरक्त थे। जब ये १२ वर्ष के ही थे माध्व संप्रदाय के एक आचार्य लक्ष्मीपति इनके गृह पर पधारे तथा इनके माता पिता से इस बालक का माँगकर अपने साथ लिवा गए। मार्ग में उक्त संन्यासी ने इन्हें दीक्षा मंत्र दिया और इन्हें सारे देश में यात्रा करने का आदेश देकर स्वयं अंतर्हित हो गए। नित्यानंद ने कृष्णकीर्तन करते हुए २० वर्षों तक समग्र भारत की यात्राएँ कीं तथा वृंदावन पहुँचकर वहीं रहने लगे। जब श्रीगौरांग का नवद्वीप में प्रकाश हुआ, यह भी संवत् १५६५ में नवद्वीप चले आए। यहाँ नित्यानंद तथा श्री गौरांग दोनों नृत्य कीर्तन कर भक्ति का प्रचार करने लगे। इनका नृत्य कीर्तन देखकर जनता मुग्ध हो जाती तथा 'जै निताई-गौर' कहती। नित्यानन्द के सन्यास ग्रहण करने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता पर यह जो दंड कमंडलु यात्राओं में साथ रखते थे उसे यही कहकर तोड़ फेंका कि हम अब पूर्णकाम हो गए। यह वैष्णव संन्यासी थे। नवद्वीप में ही इन्होंने दो दुष्ट ब्राह्मणों जगाई-मधाई का उद्धार किया, जो वहाँ के अत्याचारी कोतवाल थे। जब श्री गौरांग ने सन्यास ले लिया वह उनके साथ शांतिपुर होते जगन्नाथ जी गए। कुछ दिनों बाद श्री गौरांग ने इन्हें गृहस्थ धर्म पालन करने तथा बंगाल में कृष्णभक्ति का प्रचार करने का आदेश दिया। यह गौड़ देश लौट आए। अंबिका नगर के सूर्यनाथ पंडित की दो पुत्रियों वसुधा देवी तथा जाह्नवी देवी से इन्होंने विवाह किया। इसके अनंतर खंडदह ग्राम में आकर बस गए और श्री श्यामसुंदर की सेवा स्थापित की। श्री गौरांग के अप्रकट होने के पश्चात् वसुधा देवी से एक पुत्र वीरचंद्र हुए जो बड़े प्रभावशाली हुए। संवत् १५९९ में नित्यानंद का तिरोधान हुआ औैर उनकी पत्नी जाह्नवी देवी तथा वीरचंद्र प्रभु ने बंगाल के वैष्णवों का नेतृत्व ग्रहण किया। .

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निम्बार्काचार्य

निम्बार्काचार्य भारत के प्रसिद्ध दार्शनिक थे जिन्होने द्वैताद्वैत का दर्शन प्रतिपादित किया। उनका समय १३वीं शताब्दी माना जाता है। किन्तु निम्बार्क सम्प्रदाय का मानना है कि निम्बार्क का प्रादुर्भाव ३०९६ ईसापूर्व (आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व) हुआ था। निम्बार्क का जन्मसथान वर्तमान आंध्र प्रदेश में है। .

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नंदगाँव, मथुरा

नंदगांव उत्तर प्रदेश राज्य के मथुरा जिले में प्रसिद्ध पौराणिक ग्राम बरसाना के पास एक छोटा सा नगर है। यह नंदीश्वर नामक सुन्दर पहाड़ी पर बसा हुआ है। यह कृष्ण भक्तों के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। किंवदंती के अनुसार यह गांव भगवान कृष्ण के पिता नंदराय द्वारा एक पहाड़ी पर बसाया गया था। इसी कारण इस स्थान का नाम नंदगांव पड़ा। गोकुल को छोड़ कर नंदबाबा श्रीकृष्ण और गोप ग्वालों को लेकर नंदगाँव आ गए थे। .

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नीम करौली बाबा

नीम करौली बाबा नीम करौली बाबा, समाधि मन्दिर, वृन्दावन. नीम करौली बाबा या नीब करौरी बाबा या महाराजजी की गणना बीसवीं शताब्दी के सबसे महान संतों में होती है।इनका जन्म स्थान ग्राम अकबरपुर जिला फ़िरोज़ाबाद उत्तर प्रदेश है जो किहिरनगाँव से 500 मीटर दूरी पर है। कैंची, नैनीताल, भुवाली से ७ कि॰मी॰ की दूरी पर भुवालीगाड के बायीं ओर स्थित है। कैंची मन्दिर में प्रतिवर्ष १५ जून को वार्षिक समारोह मानाया जाता है। उस दिन यहाँ बाबा के भक्तों की विशाल भीड़ लगी रहती है। महाराजजी इस युग के भारतीय दिव्यपुरुषों में से हैं।‎ .

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प्रेम मन्दिर

प्रेम मंदिर भारत में उत्तर प्रदेश राज्य के मथुरा जिले के समीप वृंदावन में स्थित है। इसका निर्माण जगद्गुरु कृपालु महाराज द्वारा भगवान कृष्ण और राधा के मन्दिर के रूप में करवाया गया है।, भास्कर डॉट कॉम, अभिगमन तिथि: ०२.०३.२०१२ प्रेम मन्दिर का लोकार्पण १७ फरवरी को किया गया था। इस मन्दिर के निर्माण में ११ वर्ष का समय और लगभग १०० करोड़ रुपए की धन राशि लगी है। इसमें इटैलियन करारा संगमरमर का प्रयोग किया गया है और इसे राजस्थान और उत्तरप्रदेश के एक हजार शिल्पकारों ने तैयार किया है। इस मन्दिर का शिलान्यास १४ जनवरी २००१ को कृपालुजी महाराज द्वारा किया गया था।, वेबदुनिया, अभिगमन तिथि: ०३-०३-२०१२ ग्यारह वर्ष के बाद तैयार हुआ यह भव्य प्रेम मन्दिर सफेद इटालियन करारा संगमरमर से तराशा गया है। मन्दिर दिल्ली – आगरा – कोलकाता के राष्ट्रीय राजमार्ग २ पर छटीकरा से लगभग ३ किलोमीटर दूर वृंदावन की ओर भक्तिवेदान्त स्वामी मार्ग पर स्थित है। यह मन्दिर प्राचीन भारतीय शिल्पकला के पुनर्जागरण का एक नमूना है। .

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बल्देव विद्याभूषण

बल्देव विद्याभूषण गौणीय वैष्णव सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य थे। इनका समय सं.

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बांके बिहारी जी मन्दिर

बांके बिहारी मंदिर भारत में मथुरा जिले के वृंदावन धाम में रमण रेती पर स्थित है। यह भारत के प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। बांके बिहारी कृष्ण का ही एक रूप है जो इसमें प्रदर्शित किया गया है। इसका निर्माण १८६४ में स्वामी हरिदास ने करवाया था। .

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ब्रज

शेठ लक्ष्मीचन्द मन्दिर का द्वार (१८६० के दशक का फोटो) वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के मथुरा नगर सहित वह भू-भाग, जो श्रीकृष्ण के जन्म और उनकी विविध लीलाओं से सम्बधित है, ब्रज कहलाता है। इस प्रकार ब्रज वर्तमान मथुरा मंडल और प्राचीन शूरसेन प्रदेश का अपर नाम और उसका एक छोटा रूप है। इसमें मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन, गोकुल, महाबन, वलदेव, नन्दगाँव, वरसाना, डीग और कामबन आदि भगवान श्रीकृष्ण के सभी लीला-स्थल सम्मिलित हैं। उक्त ब्रज की सीमा को चौरासी कोस माना गया है। सूरदास तथा अन्य व्रजभाषा के भक्त कवियों और वार्ताकारों ने भागवत पुराण के अनुकरण पर मथुरा के निकटवर्ती वन्य प्रदेश की गोप-बस्ती को ब्रज कहा है और उसे सर्वत्र 'मथुरा', 'मधुपुरी' या 'मधुवन' से पृथक वतलाया है। ब्रज क्षेत्र में आने वाले प्रमुख नगर ये हैं- मथुरा, जलेसर, भरतपुर, आगरा, हाथरस, धौलपुर, अलीगढ़, इटावा, मैनपुरी, एटा, कासगंज, और फिरोजाबाद। ब्रज शब्द संस्कृत धातु 'व्रज' से बना है, जिसका अर्थ गतिशीलता से है। जहां गाय चरती हैं और विचरण करती हैं वह स्थान भी ब्रज कहा गया है। अमरकोश के लेखक ने ब्रज के तीन अर्थ प्रस्तुत किये हैं- गोष्ठ (गायों का बाड़ा), मार्ग और वृंद (झुण्ड)। संस्कृत के व्रज शब्द से ही हिन्दी का ब्रज शब्द बना है। वैदिक संहिताओं तथा रामायण, महाभारत आदि संस्कृत के प्राचीन धर्मग्रंथों में ब्रज शब्द गोशाला, गो-स्थान, गोचर भूमि के अर्थों में भी प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद में यह शब्द गोशाला अथवा गायों के खिरक के रूप में वर्णित है। यजुर्वेद में गायों के चरने के स्थान को ब्रज और गोशाला को गोष्ठ कहा गया है। शुक्लयजुर्वेद में सुन्दर सींगों वाली गायों के विचरण स्थान से ब्रज का संकेत मिलता है। अथर्ववेद में गोशलाओं से सम्बधित पूरा सूक्त ही प्रस्तुत है। हरिवंश तथा भागवतपुराणों में यह शब्द गोप बस्त के रूप में प्रयुक्त हुआ है। स्कंदपुराण में महर्षि शांण्डिल्य ने ब्रज शब्द का अर्थ व्थापित वतलाते हुए इसे व्यापक ब्रह्म का रूप कहा है। अतः यह शब्द ब्रज की आध्यात्मिकता से सम्बधित है। वेदों से लेकर पुराणों तक में ब्रज का सम्बध गायों से वर्णित किया गया है। चाहे वह गायों को बांधने का बाडा हो, चाहे गोशाला हो, चाहे गोचर भूमि हो और चाहे गोप-बस्ती हो। भागवतकार की दृष्टि में गोष्ठ, गोकुल और ब्रज समानार्थक हैं। भागवत के आधार पर सूरदास की रचनाओं में भी ब्रज इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मथुरा और उसका निकटवर्ती भू-भाग प्राचीन काल से ही अपने सघन वनों, विस्तृत चारागाहों, गोष्ठों और सुन्दर गायों के लिये प्रसिद्ध रहा है। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म यद्यपि मथुरा नगर में हुआ था, तथापि राजनैतिक कारणों से उन्हें जन्म लेते ही यमुना पार की गोप-वस्ती में भेज दिया गया था, उनकी वाल्यावस्था एक बड़े गोपालक के घर में गोप, गोपी और गो-वृंद के साथ बीती थी। उस काल में उनके पालक नंदादि गोप गण अपनी सुरक्षा और गोचर-भूमि की सुविधा के लिये अपने गोकुल के साथ मथुरा निकटवर्ती विस्तृत वन-खण्डों में घूमा करते थे। श्रीकृष्ण के कारण उन गोप-गोपियों, गायों और गोचर-भूमियों का महत्व बड़ गया था। पौराणिक काल से लेकर वैष्णव सम्प्रदायों के आविर्भाव काल तक जैसे-जैसे कृश्णोपासना का विस्तार होता गया, वैसे-वैसे श्रीकृष्ण के उक्त परिकरों तथा उनके लीला स्थलों के गौरव की भी वृद्धि होती गई। इस काल में यहां गो-पालन की प्रचुरता थी, जिसके कारण व्रजखण्डों की भी प्रचुरता हो गई थी। इसलिये श्री कृष्ण के जन्म स्थान मथुरा और उनकी लीलाओं से सम्वधित मथुरा के आस-पास का समस्त प्रदेश ही ब्रज अथवा ब्रजमण्डल कहा जाने लगा था। इस प्रकार ब्रज शब्द का काल-क्रमानुसार अर्थ विकास हुआ है। वेदों और रामायण-महाभारत के काल में जहाँ इसका प्रयोग 'गोष्ठ'-'गो-स्थान' जैसे लघु स्थल के लिये होता था। वहां पौराणिक काल में 'गोप-बस्ती' जैसे कुछ बड़े स्थान के लिये किया जाने लगा। उस समय तक यह शब्द प्रदेशवायी न होकर क्षेत्रवायी ही था। भागवत में 'ब्रज' क्षेत्रवायी अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। वहां इसे एक छोटे ग्राम की संज्ञा दी गई है। उसमें 'पुर' से छोटा 'ग्राम' और उससे भी छोटी बस्ती को 'ब्रज' कहा गया है। १६वीं शताब्दी में 'ब्रज' प्रदेशवायी होकर 'ब्रजमंडल' हो गया और तव उसका आकार ८४ कोस का माना जाने लगा था। उस समय मथुरा नगर 'ब्रज' में सम्मिलित नहीं माना जाता था। सूरदास तथा अन्य ब्रज-भाषा कवियों ने 'ब्रज' और मथुरा का पृथक् रूप में ही कथन किया है, जैसे पहिले अंकित किया जा चुका है। कृष्ण उपासक सम्प्रदायों और ब्रजभाषा कवियों के कारण जब ब्रज संस्कृति और ब्रजभाषा का क्षेत्र विस्तृत हुआ तब ब्रज का आकार भी सुविस्तृत हो गया था। उस समय मथुरा नगर ही नहीं, बल्कि उससे दूर-दूर के भू-भाग, जो ब्रज संस्कृति और ब्रज-भाषा से प्रभावित थे, व्रज अन्तर्गत मान लिये गये थे। वर्तमान काल में मथुरा नगर सहित मथुरा जिले का अधिकांश भाग तथा राजस्थान के डीग और कामबन का कुछ भाग, जहाँ से ब्रजयात्रा गुजरती है, ब्रज कहा जाता है। ब्रज संस्कृति और ब्रज भाषा का क्षेत्र और भी विस्तृत है। उक्त समस्त भू-भाग रे प्राचीन नाम, मधुबन, शुरसेन, मधुरा, मधुपुरी, मथुरा और मथुरामंडल थे तथा आधुनिक नाम ब्रज या ब्रजमंडल हैं। यद्यपि इनके अर्थ-बोध और आकार-प्रकार में समय-समय पर अन्तर होता रहा है। इस भू-भाग की धार्मिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और संस्कृतिक परंपरा अत्यन्त गौरवपूर्ण रही है। .

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बैजू बावरा

बैजू बावरा (१५४२-१६१३) भारत के ध्रुपदगायक थे। उनको बैजनाथ प्रसाद और बैजनाथ मिश्र के नाम से भी जाना जाता है। वे ग्वालियर के राजा मानसिंह के दरबार के गायक थे और अकबर के दरबार के महान गायक तानसेन के समकालीन थे। उनके जीवन के बारे में बहुत सी किंवदन्तियाँ हैं जिनकी ऐतिहासिक रूप से पुष्टि नहीं की जा सकती है। .

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भारत में धर्म

तवांग में गौतम बुद्ध की एक प्रतिमा. बैंगलोर में शिव की एक प्रतिमा. कर्नाटक में जैन ईश्वरदूत (या जिन) बाहुबली की एक प्रतिमा. 2 में स्थित, भारत, दिल्ली में एक लोकप्रिय पूजा के बहाई हॉउस. भारत एक ऐसा देश है जहां धार्मिक विविधता और धार्मिक सहिष्णुता को कानून तथा समाज, दोनों द्वारा मान्यता प्रदान की गयी है। भारत के पूर्ण इतिहास के दौरान धर्म का यहां की संस्कृति में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। भारत विश्व की चार प्रमुख धार्मिक परम्पराओं का जन्मस्थान है - हिंदू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म तथा सिक्ख धर्म.

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भारत के प्रमुख हिन्दू तीर्थ

भारत अनादि काल से संस्कृति, आस्था, आस्तिकता और धर्म का महादेश रहा है। इसके हर भाग और प्रान्त में विभिन्न देवी-देवताओं से सम्बद्ध कुछ ऐसे अनेकानेक प्राचीन और (अपेक्षाकृत नए) धार्मिक स्थान (तीर्थ) हैं, जिनकी यात्रा के प्रति एक आम भारतीय नागरिक पर्यटन और धर्म-अध्यात्म दोनों ही आकर्षणों से बंधा इन तीर्थस्थलों की यात्रा के लिए सदैव से उत्सुक रहा है। .

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भारत के शहरों की सूची

कोई विवरण नहीं।

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भारतचंद्र राय

https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Bharathchandra_Ray.jpg मोटे अक्षरबंगाल में भारतचंद्र विद्यासुंदर (1712-1760) काव्यपरंपरा के श्रेष्ठ कवि हुए हैं। .

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भारतीय संगीत का इतिहास

पाँच गन्धर्व (चौथी-पाँचवीं शताब्दी, भारत के उत्तर-पश्चिम भाग से प्राप्त) प्रगैतिहासिक काल से ही भारत में संगीत कीसमृद्ध परम्परा रही है। गिने-चुने देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्ध परम्परा पायी जाती है। माना जाता है कि संगीत का प्रारम्भ सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में हुआ हालांकि इस दावे के एकमात्र साक्ष्य हैं उस समय की एक नृत्य बाला की मुद्रा में कांस्य मूर्ति और नृत्य, नाटक और संगीत के देवता रूद्र अथवा शिव की पूजा का प्रचलन। सिंधु घाटी की सभ्यता के पतन के पश्चात् वैदिक संगीत की अवस्था का प्रारम्भ हुआ जिसमें संगीत की शैली में भजनों और मंत्रों के उच्चारण से ईश्वर की पूजा और अर्चना की जाती थी। इसके अतिरिक्त दो भारतीय महाकाव्यों - रामायण और महाभारत की रचना में संगीत का मुख्य प्रभाव रहा। भारत में सांस्कृतिक काल से लेकर आधुनिक युग तक आते-आते संगीत की शैली और पद्धति में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है। भारतीय संगीत के इतिहास के महान संगीतकारों जैसे कि स्वामी हरिदास, तानसेन, अमीर खुसरो आदि ने भारतीय संगीत की उन्नति में बहुत योगदान किया है जिसकी कीर्ति को पंडित रवि शंकर, भीमसेन गुरूराज जोशी, पंडित जसराज, प्रभा अत्रे, सुल्तान खान आदि जैसे संगीत प्रेमियों ने आज के युग में भी कायम रखा हुआ है। भारतीय संगीत में यह माना गया है कि संगीत के आदि प्रेरक शिव और सरस्वती है। इसका तात्पर्य यही जान पड़ता है कि मानव इतनी उच्च कला को बिना किसी दैवी प्रेरणा के, केवल अपने बल पर, विकसित नहीं कर सकता। .

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भक्तिरसशास्त्र (वैष्णव)

महाप्रभु चैतन्य (१४८६-१५३३ ई.) की प्रेरणा से वृंदावन के षट्गोस्वामियों में अन्यतम रूपगोस्वामी (१४७०-१५५४ ई.) ने वैष्णव संप्रदाय के धर्मदर्शन की छाया में भक्तिरसशास्त्र का प्रवर्तन किया। "भक्तिरसामृत सिंधु" तथा "उज्ज्वलनीलमणि", जिसमें कामशास्त्र की परंपराओं का रिक्थ है, वैष्णव रसशास्त्र के मौलिक और उपजीव्य ग्रंथ हैं। .

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मथुरा

मथुरा उत्तरप्रदेश प्रान्त का एक जिला है। मथुरा एक ऐतिहासिक एवं धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। लंबे समय से मथुरा प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का केंद्र रहा है। भारतीय धर्म,दर्शन कला एवं साहित्य के निर्माण तथा विकास में मथुरा का महत्त्वपूर्ण योगदान सदा से रहा है। आज भी महाकवि सूरदास, संगीत के आचार्य स्वामी हरिदास, स्वामी दयानंद के गुरु स्वामी विरजानंद, कवि रसखान आदि महान आत्माओं से इस नगरी का नाम जुड़ा हुआ है। मथुरा को श्रीकृष्ण जन्म भूमि के नाम से भी जाना जाता है। .

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मदन मोहन मन्दिर, वृंदावन

मदन मोहन जी का मंदिर वृंदावन में स्थित एक वैष्णव संप्रदाय का मंदिर है। इसका निर्माण संभवतः १५९० से १६२७ के बीच में मुल्तान निवासी श्री रामदास खत्री एवं कपूरी द्वारा करवाया गया था। पुरातनता में यह मंदिर गोविन्द देव जी के मंदिर के बाद आता है। निमार्ण के समय और शिल्पियों के संबन्ध में कुछ जानकारी नहीं है। प्रचलित कथाओं में आता है कि राम दास खत्री (कपूरी नाम से प्रचलित) व्यापारी की व्यापारिक सामान से लदी नाव यहाँ यमुना में फंस गयी थी। जो मदन मोहन जी के दर्शन और प्रार्थना के बाद निकल गयी। वापसी में राम दास ने मंदिर बनवाया श्रीकृष्ण भगवान के अनेक नामों में से एक प्रिय नाम मदनमोहन भी है। इसी नाम से एक मंदिर कालीदह घाट के समीप शहर के दूसरी ओर ऊँचे टीले पर विद्यमान है। यहां विशालकायिक नाग के फन पर भगवान चरणाघात कर रहे हैं। लक्ष्मणदास के भक्त-सिन्धु में इसकी कथा दी गयी है। यह भक्त-माल का आधुनिक संस्करण है। गोस्वामीपाद रूप और सनातन को गोविन्द जी की मूर्ति नन्दगाँव से प्राप्त हुई थी। यहाँ एक गोखिरख में से खोदकर इसे निकाला गया था, इससे इसका नाम गोविन्द हुआ। वहाँ से लाकर गोविन्द जी को ब्रहृकुण्ड के वर्तमान मंदिर की जगह पर पधराया गया। वृन्दावन उन दिनों बसा हुआ नहीं था। वे समीपर्वती गाँवों में तथा मथुरा भी भिक्षाटन हेतु जाते थे। एक दिन मथुरा के एक व्यक्ति ने उन्हें मदनमोहन की मूर्ति प्रदान की जिसे उन्होंने लाकर दु:शासन पहाड़ी पर कालीदह के पास पधार दिया। वहीं उन्होंने अपने रहने के लिये एक झोंपड़ी भी बना ली और उस जगह का नाम पशुकन्दन घाट रख दिया। क्योंकि मार्ग इतना ऊँचा-नीचा और खराब था कि कोई पशु भी नहीं जा सकता था। 'निचाऊ-ऊँचाऊ देखी विशेषन पशुकन्दन वह घाट कहाई, तहाँ बैठी मनसुख लहाई।' एक दिन पंजाब में मुल्तान का रामदास खत्री - जो कपूरी नाम से अधिक जाना जाता था, आगरा जाता हुआ व्यापार के माल से भरी नाव लेकर जमुना में आया किन्तु कालीदह घाट के पास रेतीले तट पर नाव अटक गयी। तीन दिनों तक निकालने के असफल प्रयासों के बाद वह स्थानीय देवता को खोजने और सहायता माँगने लगा। वह किनारे पर आकर पहाड़ी पर चढ़ा। वहाँ उसे सनातन मिले। सनातन ने व्यापारी से मदनमोहन से प्रार्थना करने का आदेश दिया। उसने ऐसा ही किया और तत्काल नाव तैरने लग गई। जब वह आगरे से माल बेचकर लौटा तो उसने सारा पैसा सनातन को अर्पण कर दिया और उससे वहाँ मंदिर बनाने की विनती की। मंदिर बन गया और लाल पत्थर का घाट भी बना। .

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ममता कालिया

ममता कालिया (02 नवम्बर,1940) एक प्रमुख भारतीय लेखिका हैं। वे कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध, कविता और पत्रकारिता अर्थात साहित्य की लगभग सभी विधाओं में हस्तक्षेप रखती हैं। हिन्दी कहानी के परिदृश्य पर उनकी उपस्थिति सातवें दशक से निरन्तर बनी हुई है। लगभग आधी सदी के काल खण्ड में उन्होंने 200 से अधिक कहानियों की रचना की है। वर्तमान में वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की त्रैमासिक पत्रिका "हिन्दी" की संपादिका हैं। .

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माधवदास 'माधुरी'

माधवदास 'माधुरी' (लगभग संवत् १६५० - लगभग संवत १७१०) चैतन्य सम्प्रदाय के हिन्दी कवि थे। इनका नाम 'माधव दास' था और ये कपूर खत्री थे। कहीं अन्यत्र से आकर वृंदावन के पास माधुरीकुंड पर रहने लगे और अपना उपनाम 'माधुरी' रखा। वंशीवटमाधुरी, केलिमाधुरी, उत्कंठामाधुरी, वृंदावनमाधुरी, दानमाधुरी, मानमाधुरी, होरी माधुरी, प्रिया जी की बधाई आदि इनकी छोटी-छोटी रचनाएँ हैं, जिनका एक संग्रह 'माधुरी वाणी' नाम से प्रकाशित हो चुका है। दो रचनाओं में सं० १६८७ तथा सं० १६९९ रचनाकाल दिया है अत: इनका समय संवत् १६५०-१७१० तक निश्चित रूप से माना जा सकता है। यह चैतन्य संप्रदाय के थे, क्योंकि सभी रचनाओं में श्री चैतन्य महाप्रभु तथा रूपसनातन की वंदना की है। श्रेणी:हिन्दी कवि.

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मायापुर

मायापुर (মায়াপুর) पश्चिम बंगाल के नदिया जिला में गंगा नदी के किनारे, उसके जलांगी नदी से संगम के बिंदु पर बसा हुआ एक छोटा सा शहर है। यह नवद्वीप के निकट है। यह कोलकाता से १३० कि॰मी॰ उत्तर में स्थित है। यह हिन्दू धर्म के गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के लिए अति पावन स्थल है। यहां उनके प्रवर्तक श्री चैतन्य महाप्रभु का जन्म हुआ था। इन्हें श्री कृष्ण एवं श्री राधा का अवतार माना जाता है। यहां लाखों श्रद्धालु तीर्थयात्री प्रत्येक वर्ष दशनों हेतु आते हैं। यहां इस्कॉन समाज का बनवाया एक मंदिर भी है। इसे इस्कॉन मंदिर, मायापुर कहते हैं। मायापुर में जलांगी नदी को नाव द्वारा पार करते हुए लोग भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा १८८० में चैतन्य महाप्रभु की जन्मस्थली पर निर्मित मंदिर श्रीला प्रभुपाद का समाधि मंदिर मायापुर अपने शानदार मन्दिरों के लिए पूरे विश्व में जाना जाता है। इन मन्दिरों में भगवान श्री कृष्णको समर्पित इस्कान मन्दिर प्रमुख है। मन्दिरों के अलावा पर्यटक यहां पर सारस्वत अद्वैत मठ और चैतन्य गौडिया मठ की यात्रा भी कर सकते हैं। होली के दिनों मे मायापुर की छटा देखने लायक होती है क्योंकि उस समय यहां पर भव्य रथयात्रा आयोजित की जाती है। यह रथयात्रा आपसी सौहार्द और भाईचारे का प्रतीक मानी जाती है। Jai shri krishna .

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मीरा बाई

राजा रवि वर्मा द्वारा बनाया गया मीराबाई का चित्र मीराबाई (१५०४-१५५८) कृष्ण-भक्ति शाखा की प्रमुख कवयित्री हैं। उनकी कविताओं में स्त्री पराधीनता के प्रती एक गहरी टीस है, जो भक्ति के रंग में रंग कर और गहरी हो गयी है। मीरा बाई ने कृष्ण-भक्ति के स्फुट पदों की रचना की है। .

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यमुना नदी

आगरा में यमुना नदी यमुना त्रिवेणी संगम प्रयाग में वृंदावन के पवित्र केशीघाट पर यमुना सुबह के धुँधलके में यमुनातट पर ताज यमुना भारत की एक नदी है। यह गंगा नदी की सबसे बड़ी सहायक नदी है जो यमुनोत्री (उत्तरकाशी से ३० किमी उत्तर, गढ़वाल में) नामक जगह से निकलती है और प्रयाग (इलाहाबाद) में गंगा से मिल जाती है। इसकी प्रमुख सहायक नदियों में चम्बल, सेंगर, छोटी सिन्ध, बतवा और केन उल्लेखनीय हैं। यमुना के तटवर्ती नगरों में दिल्ली और आगरा के अतिरिक्त इटावा, काल्पी, हमीरपुर और प्रयाग मुख्य है। प्रयाग में यमुना एक विशाल नदी के रूप में प्रस्तुत होती है और वहाँ के प्रसिद्ध ऐतिहासिक किले के नीचे गंगा में मिल जाती है। ब्रज की संस्कृति में यमुना का महत्वपूर्ण स्थान है। .

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रसिक गोविंद(रीतिग्रंथकार कवि)

रसिक गोविंद(रीतिग्रंथकार कवि) रसिक गोविन्द रीतिकाल के कवि थे। वे निंबार्क संप्रदाय के एक महात्मा हरिव्यास की गद्दी के शिष्य थे और वृंदावन में रहते थे। हरिव्यास जी की शिष्य परंपरा में 'सर्वेश्वरशरण देव' जी बड़े भारी भक्त हुए हैं। रसिक गोविंद उन्हीं के शिष्य थे। ये जयपुर (राजपूताना) के रहने वाले और नटाणी जाति के थे। इनके पिता का नाम 'शालिग्राम', माता का 'गुमाना' और बड़े भाई का नाम 'बालमुकुंद' था। इनका कविता काल संवत 1850 से 1890 तक अर्थात विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से लेकर अंत तक प्रतीत होता है। अब तक इनके 9 ग्रंथों का पता चला है - रामायण सूचनिका, रसिक गोविंदानंद घन, लछिमन चंद्रिका, अष्टदेशभाषा, पिंगल, समयप्रबंध, कलियुगरासो, रसिक गोविंद और युगलरस माधुरी। इनका असली नाम 'गोविन्द' था और ये जयपुर के रहनेवाले नटाणी जाति के वैश्य थे। रामचंद्र शुक्ल के अनुसार इनका काव्यकाल संवत्.

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राधा

'''राजा रवि वर्मा द्वारा बनाई गयी एक पेंटिंग में चित्रित कृष्ण एवं राधा''' राधा अक्सर राधिका भी कहा जाता है हिन्दू धर्म में विशेषकर वैष्णव सम्प्रदाय में प्रमुख देवी हैं। वह कृष्ण की प्रेमिका और संगी के रूप में चित्रित की जाती हैं। इस प्रकार उन्हें राधा कृष्ण के रूप में पूजा जाता हैं। उनके ऊपर कई काव्य रचना की गई है और रास लीला उन्हीं की कहानियों के ऊपर बनाया गया है। श्रेणी:हिन्दू धर्म.

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राधा दामोदर मंदिर

प्राचीन श्रीराधा दामोदर मंदिर वृंदावन में स्थित है। इसकी चार परिक्रमाएँ करने से गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा का फल मिलता है। साढ़े चार सौ वर्ष पुराने इस मंदिर की परिक्रमा करने से उसमें विराजमान गिरिराज शिला की स्वतः परिक्रमा हो जाती है। इसकी एक किलोमीटर से भी कम की चार परिक्रमाएँ करने से श्रृद्धालु गिरिराज गोवर्धन की सात कोस (25 किलोमीटर) लम्बी परिक्रमा का पुण्य अर्जित कर लेता है। संवत 1599 सन 1543 की माघ शुक्ल दशमी के दिन श्रीरूप गोस्वामी ने यहाँ राधा दामोदर जी के विग्रहों की स्थापना करके उनकी सेवा का भार जीव गोस्वामी को सौंपा। किवदंती है कि सनातन गोस्वामी नित्य गिरिराज की परिक्रमा करते थे। वृद्धावस्था में उनकी असमर्थता को देखकर भगवान ने बालक रूप में प्रकट होकर उन्हें डेढ़ हाथ लंबी वट पत्राकार श्याम रंग की गिरिराज शिला दी। उस पर भगवान के चरण चिन्ह के साथ ही गाय के खुर का भी चिन्ह है। भगवान ने गोस्वामीजी को आदेश दिया कि अब वह वृद्धावस्था में गिरिराज पर्वत की बजाय इसी शिला की परिक्रमा कर लिया करें। उनके शरीर त्यागने के बाद शिला इसी मंदिर में स्थापित कर दी गई और तब से श्रद्धालुओं द्वारा मंदिर की चार परिक्रमाएं लगाए जाने की परंपरा चल पड़ी। यहाँ रूप गोस्वामी तथा जीव गोस्वामी के अलावा अंतर्राष्ट्रीय श्रीकृष्ण भावनामृत संघ (इस्कान) के संस्थापक स्वनामधन्य ए.सी.

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राधा रमण मंदिर

राधा रमण मंदिर वृंदावन में स्थित वैष्णव संप्रदाय का एक मंदिर है। इसकी स्थापना चैतन्य महाप्रभु के भेजे छः षण्गोस्वामियों में से एक ने की थी। श्रेणी:वृंदावन के मंदिर.

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राधा वल्लभ मंदिर

राधावल्लभ मन्दिर, वृन्दावन में स्थित श्री राधावल्ल्भलाल का प्राचीन मन्दिर है। यह मन्दिर श्री हरिवंश महाप्रभु ने स्थापित किया था। वृंदावन के मंदिरों में से एक मात्र श्री राधा वल्लभ मंदिर में नित्य रात्रि को अति सुंदर मधुर समाज गान की परंपरा शुरू से ही चल रही है। सवा चार सौ वर्ष पहले निर्मित मूल मंदिर को मुगल बादशाह औरंगजेबके शासनकाल में क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। तब श्री राधा वल्लभ जी के श्रीविग्रहको सुरक्षा के लिए राजस्थान से भरतपुरजिले के कामांमें ले जाकर वहां के मंदिर में स्थापित किया गया और पूरे 123वर्ष वहां रहने के बाद उन्हें फिर से यहां लाया गया। इधर वृंदावन के क्षतिग्रस्त मंदिर के स्थान पर अन्य नए मंदिर का निर्माण किया गया। निर्माण कार्य सं.

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राधा कृष्ण

राधा कृष्ण (IAST, संस्कृत राधा कृष्ण) एक हिंदू देवता हैं। कृष्ण को गौड़ीय वैष्णव धर्मशास्त्र में अक्सर स्वयं भगवान के रूप में सन्दर्भित किया गया है और राधा एक युवा नारी हैं, एक गोपी जो कृष्ण की सर्वोच्च प्रेयसी हैं। कृष्ण के साथ, राधा को सर्वोच्च देवी स्वीकार किया जाता है और यह कहा जाता है कि वह अपने प्रेम से कृष्ण को नियंत्रित करती हैं। यह माना जाता है कि कृष्ण संसार को मोहित करते हैं, लेकिन राधा "उन्हें भी मोहित कर लेती हैं। इसलिए वे सभी की सर्वोच्च देवी हैं। राधा कृष्ण".

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राधाचरण गोस्‍वामी

राधाचरण गोस्‍वामी (२५ फरवरी १८५९ - १२ दिसम्बर १९२५) हिन्दी के भारतेन्दु मण्डल के साहित्यकार जिन्होने ब्रजभाषा-समर्थक कवि, निबन्धकार, नाटकरकार, पत्रकार, समाजसुधारक, देशप्रेमी आदि भूमिकाओं में भाषा, समाज और देश को अपना महत्वपूर्ण अवदान दिया। आपने अच्छे प्रहसन लिखे हैं। .

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राधाबाई

राधाबाई नेवास के बर्वे परिवार की कन्या थीं जिनका विवाह बालाजी विश्वनाथ के साथ हुआ था। इनके पिता का नाम डुबेरकर अंताजी मल्हार बर्वे था। राधाबाई बालाजी के पिता विश्वनाथ भट्ट सिद्दियों के अधीन श्रीवर्धन गाँव के देशमुख थे। भारत के पश्चिमी सिद्दियों से न पटने के कारण विश्वनाथ और बालाजी श्रीवर्धन गाँव छोड़कर बेला नामक स्थान पर भानु भाइयों के साथ रहने लगे। राधाबाई भी अपने परिवार के साथ बेला में रहने लगीं। कुछ समय पश्चात् बालाजी डंडाराजपुरी के देशमुख हो गए। १६९९ ई. से १७०८ ई. तक वे पूना के सर-सूबेदार रहे। राधाबाई में त्याग, दृढ़ता, कार्यकुशलता, व्यवहारचातुर्य और उदारता आदि गुण थे। राधाबाई एवं बालाजी के दो पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं। इनके बड़े पुत्र बाजीराव का जन्म १७०० ई. में और दूसरे पुत्र चिमाजी अप्पा का सन् १७१० में हुआ था। इनकी पुत्रियों के नाम अनुबाई और भिऊबाई थे। बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु सन् १७२० में हुई। राधाबाई को बहुत दु:ख हुआ, यद्यपि उनके पुत्र बाजीराव पेशवा बनाए गए। राधाबाई राज्य के विभिन्न कार्यों में बाजीराव को उचित सलाह देती थीं। जब १७३५ में राधाबाई ने तीर्थयात्रा पर जाने की इच्छा प्रकट की, चिमाजी अप्पा ने इसका प्रबंध शीघ्र ही किया। १४ फरवरी को इन्होंने पूना से प्रस्थान किया। ८ मार्च को वे बुरहानपुर पहुँची। ६ मई को उदयपुर में उन्हें राजकीय सम्मान मिला। २१ मई को नाथद्वारा का दर्शन किया और २१ जून को जयपुर पहुँची। सवाई राजा जयसिंह ने उनका अत्यधिक आदर सत्कार किया। वे यहाँ तीन माह तक ठहरीं। सितंबर मास में वे जयपुर से चल पड़ीं। वे मथुरा, वृंदावन, कुरुक्षेत्र और प्रयाग होती हुईं १७ अक्टूबर को वाराणसी पहुँच गईं। वहाँ से दिसंबर के अंतिम सप्ताह में गया की ओर प्रस्थान किया। वहीं से १७३६ में वे वापसी यात्रा पर चल पड़ीं। मार्ग में स्थानीय शासकों ने उनके लिए अंगरक्षकों की व्यवस्था की। मोहम्मद खान बंगश ने राधाबाई का बहुत सम्मान किया और उन्हें बहुमूल्य उपहार प्रदान किए। राधाबाई प्रसन्न हुई और १ जून, १७३६ ई. को पूना पहुंचीं। राधाबाई की इस यात्रा ने साधारणत: मराठों के लिए और विशेषकर पेशवा बाजीराव के लिए मित्रतापूर्ण वातावरण का निर्माण किया। राधाबाई को यात्रा से लौट दो वर्ष भी न हो पाए थे कि उन्हें एक और परिस्थिति का सामना करना पड़ा। मस्तानी और बाजीराव का संबंध सरदारों की आलोचना का विषय बन चुका था। बाजीराव के आलोचकों का वर्ताव उस समय और तीव्र हुआ जब पेशवा परिवार में रघुनाथ राव का उपनयन और सदाशिव राव का विवाह होने वाला था। पंडितों ने किसी भी ऐसे कार्य में भाग न लेने का निर्णय किया। राधाबाई ने बाजीराव को विशेष रूप से सतर्क रहने के लिए लिखा। अंतत: राधाबाई उपर्युक्त कार्य कराने में सफल हुई। मस्तानी और बाजीराव के संबंध को विशेष महत्व कभी नहीं दिया अपितु सदा ही यह प्रयत्न किया कि परिवार में फूट की स्थिति न उत्पन्न हो और पेशवा परिवार का सम्मान भी बना रहे। चिमाजी अप्पा ने मस्तानी को कैद किया। राधाबाई ने मस्तानी को कैद से छुड़ाया और वह बाजीराव के पास आ गई। बाजीराव ने भी राधाबाई की आज्ञाओं का पालन किया। १७४० ई. के अप्रैल मास में बाजीराव की मृत्यु से राधाबाई को बहुत दु:ख हुआ। पाँच माह पश्चात् ही चिमाजी अप्पा की भी मृत्यु हो गई। अब राधाबाई का उत्साह शिथिल पड़ गया। फिर भी, जब कभी आवश्यकता पड़ती थी, वे परिवार की सेवा और राजकीय कार्यों में बालाजी बाजीराव को उचित परामर्श देतीं थीं। १७५२ ई. में जब पेशवा दक्षिण की ओर गए हुए थे राधाबाई ने ताराबाई और उमाबाई की सम्मिलित सेना को पूना की ओर बढ़ने से रोकने का उपाय किया। दूसरे अवसर पर उन्होंने बाबूजी नाइक को पेशवा बालाजी के विरुद्ध अनशन करने से रोका। राधाबाई ने तत्कालीन राजनीति में सक्रिय भाग लिया। इनके व्यवहार में कभी भी कटुता नहीं आने पाती थी। इन्होंने अपने परिवार को साधारण स्थिति से पेशवा पद प्राप्त करते देखा। २० मार्च, १७५३ ई. को इनकी मृत्यु हुई। श्रेणी:मराठा साम्राज्य.

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राम लीला

रामलीला का एक दृश्य। रामलीला उत्तरी भारत में परम्परागत रूप से खेला जाने वाला राम के चरित पर आधारित नाटक है। यह प्रायः विजयादशमी के अवसर पर खेला जाता है। .

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रामराय

रामराय एक विद्वान भक्त थे। ये ऐसे विद्वान् भक्त हो गए हैं कि जीव गोस्वामी तथा विश्वनाथ चक्रवर्ती ने अपनी रचनाओं में इनकी वंदना की है। ये अपना वंश गीतगोविन्द के रचयिता श्री जयदेव से चला हुआ मानते हैं। रामराय, जयदेव से चौदहवीं पीढ़ी में हुए। इनका जन्म लाहौर में हुआ पर ये छोटी अवस्था में ही विरक्त होकर वृन्दावन चले आए। इनकी 'गीतगोविंद भाषा' की रचना संवत् १६२२ में हुई जिससे इनका काल सं.

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राष्ट्रीय राजमार्ग २

1465 किलोमीटर लंबा यह राजमार्ग दिल्ली को कोलकाता से जोड़ता है। इसका रूट दिल्ली - मथुरा - आगरा - कानपुर – इलाहाबाद - वाराणसी - मोहनिया - बरही - पलसित – बैद्यबटी - बारा - कोलकाता है। इस हाईवे पर स्थित ताजनगरी आगरा, दिल्ली से मात्र 203 किमी दूर है। यह सड़क जीटी रोड का दूसरा भाग है, प्रथम भाग एनएच 1 है जो अटारी से दिल्ली तक आता है जिसकी लंबाई 465 किलोमीटर है। इसी हाइवे पर दिल्ली से 160 किमी दूर धार्मिक नगरी वृंदावन और मथुरा के कृष्णमय वातावरण में भी एक दिन बिता सकते हैं। वहीं नंदगांव और बरसाना भी इसी हाईवे के आसपास हैं। आगरा में ताजमहल, आगरा फोर्ट देखने के बाद आप हाईवे-11 से फतेहपुर सीकरी जा सकते हैं। यहां का वास्तुशिल्प अवश्य प्रभावित करेगा। वहां से वापस हाईवे-11 पर आकर आप भरतपुर(राजस्थान) स्थित केवलादेव बर्ड सेंक्चुरी में प्रवासी पक्षियों को देखने का आनंद उठा सकते हैं। श्रेणी:भारत के राष्ट्रीय राजमार्ग.

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रास महोत्सव

रास महोत्सव भारतवर्ष में विभिन्न विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न विभिन्न स्थानों पर लगने वाला मेला/उत्सव है। यह उत्सव मुख्यत मथुरा-वृन्दावन क्षेत्र में लगता है। यह महोत्सव ब्रज संस्कृति का अंग है। हालांकि यह संस्कृति ब्रज क्षेत्र के बाहर तक फैली हुई है इस लिए इस मेले का आयोजन देश के अलग अलग राज्यों में होता है। रास का मेला कई स्थानों पर एक दिवसीय तो कई स्थानों पर दो दिवसीय होता है। पैगाँव में दो दिवसीय रास महोत्सव का आयोजन प्रतिवर्ष होता है। मान्यता है जहां जहां भगवान श्रीकृष्ण ने रास रचाए वहां वहां रास महोत्सव का आयोजन होता है। .

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रासलीला

रासलीला या कृष्णलीला में युवा और बालक कृष्ण की गतिविधियों का मंचन होता है। कृष्ण की मनमोहक अदाओं पर गोपियां यानी बृजबालाएं लट्टू थीं। कान्हा की मुरली का जादू ऐसा था कि गोपियां अपनी सुतबुत गंवा बैठती थीं। गोपियों के मदहोश होते ही शुरू होती थी कान्हा के मित्रों की शरारतें। माखन चुराना, मटकी फोड़ना, गोपियों के वस्त्र चुराना, जानवरों को चरने के लिए गांव से दूर-दूर छोड़ कर आना ही प्रमुख शरारतें थी, जिन पर पूरा वृन्दावन मोहित था। जन्माष्टमी के मौके पर कान्हा की इन सारी अठखेलियों को एक धागे में पिरोकर यानी उनको नाटकीय रूप देकर रासलीला या कृष्ण लीला खेली जाती है। इसीलिए जन्माष्टमी की तैयारियों में श्रीकृष्ण की रासलीला का आनन्द मथुरा, वृंदावन तक सीमित न रह कर पूरे देश में छा जाता है। जगह-जगह रासलीलाओं का मंचन होता है, जिनमें सजे-धजे श्री कृष्ण को अलग-अलग रूप रखकर राधा के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करते दिखाया जाता है। इन रास-लीलाओं को देख दर्शकों को ऐसा लगता है मानो वे असलियत में श्रीकृष्ण के युग में पहुंच गए हों। .

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राजा महेन्द्र प्रताप सिंह

महान क्रांतिकारी राजा महेन्द्र प्रताप सिंह राजा महेन्द्र प्रताप सिंह (1 दिसम्बर 1886 – 29 अप्रैल 1979) भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, पत्रकार, लेखक, क्रांतिकारी और समाज सुधारक थे। वे 'आर्यन पेशवा' के नाम से प्रसिद्ध थे। .

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रघुनाथ दास गोस्वामी

श्री रघुनाथ दास गोस्वामी, वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः षण्गोस्वामी में से एक थे। इन्होंने युवा आयु में ही गृहस्थी का त्याग किया और गौरांग के साथ हो लिए थे। ये चैतन्य के सचिव स्वरूप दामोदर के निजी सहायक रहे। उनके संग ही इन्होंने गौरांग के पृथ्वी पर अंतिम दिनों में दर्शन भी किये। गौरांग के देहत्याग उपरांत ये वृंदावन चले आए, व सनातन गोस्वामी व रूप गोस्वामी के साथ अत्यंत सादगी के साथ भग्वन्नाम का जाप करते रहे, व चैतन्य की शिक्षाओं का प्रचार किया। इनके दीक्षा गुरु थे यदुनंदन आचार्य। .

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रघुनाथ भट्ट गोस्वामी

श्री रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः षण्गोस्वामी में से एक थे। ये सदा हरे कृष्ण का अन्वरत जाप करते रहते थे और श्रीमद भागवत का पाठ नियम से करते थे। राधा कुण्ड के तट पर निवास करते हुए, प्रतिदिन भागवत का मीठा पाठ स्थानीय लोगों को सुनाते थे और इतने भावविभोर हो जाते थे, कि उनके प्रेमाश्रुओं से भागवत के पन्ने भी भीग जाते थे। इन्होंने कभी किसी की आलोचना नहीं की। इनका मानना था, कि सभी वैष्णव अपनी ओर से श्री कृष्ण की सेवा में लगे हैं, अतएव हमें उनकी गलतियों को ना देखकर अपनी भूलों का सुधार करना चाहिए। इनकी प्रेरणा से एक धनी भक्त ने वृंदावन में राधा-गोविंद का मंदिर निर्माण करवाया था। .

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रूप गोस्वामी

श्री रूप गोस्वामी (१४९३ – १५६४), वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः षण्गोस्वामी में से एक थे। वे कवि, गुरु और दार्शनिक थे। वे सनातन गोस्वामी के भाई थे। इनका जन्म १४९३ ई (तदनुसार १४१५ शक.सं.) को हुआ था। इन्होंने २२ वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम त्याग कर दिया था। बाद के ५१ वर्ष ये ब्रज में ही रहे। इन्होंने श्री सनातन गोस्वामी से दीक्षा ली थी। इन्हें शुद्ध भक्ति सेवा में महारत प्राप्त थी, अतएव इन्हें भक्ति-रसाचार्य कहा जाता है। ये गौरांग के अति प्रेमी थे। ये अपने अग्रज श्री सनातन गोस्वामी सहित नवाब हुसैन शाह के दरबार के उच्च पदों का त्याग कर गौरांग के भक्ति संकीर्तन में हो लिए थे। इन्हीं के द्वारा चैतन्य ने अपनी भक्ति-शिक्षा तथा सभी ग्रन्थों के आवश्यक सार का प्रचार-प्रसार किया। महाप्रभु के भक्तों में से इन दोनों भाइयों को उनके प्रधान कहा जाता था। सन १५६४ ई (तदा० १४८६ शक. की शुक्ल द्वादशी) को ७३ वर्ष की आयु में इन्होंने परम धाम को प्रस्थान किया। श्री रूप गोस्वामी समस्त गोस्वामियों के नायक थे। उन्होंने भक्तिकार्यकलापों का निर्देश करने के लिए हमे उपदेशामृत प्रदान किया जिससे भक्तगण उसका पाल कर सकें। जिस प्रकार श्रीचैतन्य महाप्रभु अपने पीछे शिक्षाष्टक नामक आठ श्लोक छोड़ गये थे उसी प्रकार श्री रूप गोस्वामी भी श्रीउपदेशामृत प्रदान किया जिससे हम शुद्ध भक्त बन सकें समस्त आध्यात्मिक कार्यों में मनुष्य का पहला कर्तव्य अपने मन तथा इंद्रियों को वश में करना है। मन तथा इन्द्रियों को वश में किये बिना कोई भी व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन में प्रगति नहीं कर सकता। प्रत्येक व्यक्ति इस भौतिक जगत में रजो तथा तमो गुणों में निमग्न है। उसे श्री रूपगोस्वामी के उपदेशों पर चलते हुए अपने आपको शुद्ध सत्व गुण के पद तक उठना चाहिये। तभी आगे की उन्नति सम्बधि प्रत्येक आध्यात्मिक रहस्य प्रकट हो जायेगा .

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ललितकिशोरी तथा ललितमाधुरी

शाहवंश के गोविंदचंद्र के दो पुत्र कुंदनलाल तथा फुंदनलाल का उपनाम क्रमश: ललितकिशोरी तथा ललितमाधुरी था और ये दोनों सन् 1857 ई. में सिपाही विद्रोह के कारण लखनऊ त्यागकर वृंदावन जा बसे थे। ये दोनों श्री राधारमणी संप्रदाय के परम कृष्णभक्त वैष्णव थे। इन्होंने सन् 1860-68 ई. में श्वेत मर्मर प्रस्तर का श्री बिहारीलाल का विशाल मंदिर बनवाया, जो अत्यंत भव्य तथा दर्शनीय है। प्रथम निस्संतान रहे पर द्वितीय का वंश चला। प्रथम की मृत्यु सन् 1873 ई. में हुई और द्वितीय की दस बारह वर्ष बाद। ये दोनों ही भक्त सुकवि थे और द्वितीय की दस बारह वर्ष बाद। ये दोनों ही भक्त सुकवि थे और इनकी सारी रचनाएँ अभिलाषमाधुरी तथा लघुरसकलिका में संगृहीत हैं, जो सन् 1881 ई. में लीयो में प्रकाशित हुई थीं। श्रेणी:हिन्दी कवि श्रेणी:भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम.

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लोकनाथ गोस्वामी

लोकनाथ गोस्वामी गैड़ीय वैष्णव सन्त थे। उनका जन्म यशोहर (जैसोर) के तालखडि ग्राम में सं.

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शनि (ज्योतिष)

बण्णंजी, उडुपी में शनि महाराज की २३ फ़ीट ऊंची प्रतिमा शनि ग्रह के प्रति अनेक आखयान पुराणों में प्राप्त होते हैं।शनिदेव को सूर्य पुत्र एवं कर्मफल दाता माना जाता है। लेकिन साथ ही पितृ शत्रु भी.शनि ग्रह के सम्बन्ध मे अनेक भ्रान्तियां और इस लिये उसे मारक, अशुभ और दुख कारक माना जाता है। पाश्चात्य ज्योतिषी भी उसे दुख देने वाला मानते हैं। लेकिन शनि उतना अशुभ और मारक नही है, जितना उसे माना जाता है। इसलिये वह शत्रु नही मित्र है।मोक्ष को देने वाला एक मात्र शनि ग्रह ही है। सत्य तो यह ही है कि शनि प्रकृति में संतुलन पैदा करता है, और हर प्राणी के साथ उचित न्याय करता है। जो लोग अनुचित विषमता और अस्वाभाविक समता को आश्रय देते हैं, शनि केवल उन्ही को दण्डिंत (प्रताडित) करते हैं। वैदूर्य कांति रमल:, प्रजानां वाणातसी कुसुम वर्ण विभश्च शरत:। अन्यापि वर्ण भुव गच्छति तत्सवर्णाभि सूर्यात्मज: अव्यतीति मुनि प्रवाद:॥ भावार्थ:-शनि ग्रह वैदूर्यरत्न अथवा बाणफ़ूल या अलसी के फ़ूल जैसे निर्मल रंग से जब प्रकाशित होता है, तो उस समय प्रजा के लिये शुभ फ़ल देता है यह अन्य वर्णों को प्रकाश देता है, तो उच्च वर्णों को समाप्त करता है, ऐसा ऋषि महात्मा कहते हैं। .

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श्यामानन्द

श्यामानंद कृष्णभक्त सन्त थे। इनका जन्म चैत्र शु.

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श्री नीलकंठेश्वर महादेव, मथुरा

श्री नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के अंतर्गत मथुरा नगर में मथुरा-वृंदावन मार्ग पर मोक्ष धाम के निकट स्थित है। इस मंदिर का उल्लेख वराह पुराण के अंतर्गत गोकर्ण सरस्वती माहात्म्य शुक्र वृत्तांत, मथुरा पुरागमन मोक्ष प्राप्ति वृत्तांत में है। कालांतर में यहाँ नागा संतों ने महामृत्युंजय यंत्र के आधार पर मुख्य मंदिर में कसौटी पत्थर से निर्मित विशाल अनुपम अलौकिक शिवलिंग की प्राण प्रतिष्ठा कर लगभग 400 वर्षों तक तप साधना की। लंबे समय तक यह मंदिर सुनसान और विस्मृत रहा। सन् 1850 में लखनऊ निवासी अयोध्या प्रसाद ने नागा संतों द्वारा स्थापित पुराने मूल मंदिर का विस्तार कर परिसर को भव्यता प्रदान की। मुख्य मंदिर के एक ओर महालक्ष्मी, महाकाली और महा सरस्वती के मंदिर हैं तथा दूसरी तरफ गंगा और गरुड के मंदिर है। मुख्य मंदिर के बगल में हनुमान का मंदिर है। मान्यता है कि श्री नीलकंठेश्वर के दर्शन मात्र से श्रद्धालुओं की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। पुरातात्विक महत्व के इस पौराणिक सिद्धपीठ के विभिन्न मंदिर, प्रवेशद्वार, परकोटे आदि समय और प्रकृति के थपेड़ों से अत्यंत जीर्णशीर्ण हालत में हैं। लंबे समय से लोगों की उपेक्षा और अतिक्रमण ने इसे नष्ट-भ्रष्ट कर गिरासू हालत में पहुँचा दिया है। वर्तमान में इस मंदिर के पुरातन पौराणिक स्वरूप को बचाने के लिए कुछ भक्तजन और संस्कृतिप्रेमी लोगों द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं। श्रेणी:उत्तर प्रदेश के मंदिर श्रेणी:हिन्दू धर्म श्रेणी:मथुरा श्रेणी:उत्तर प्रदेश श्रेणी:शिव मंदिर.

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श्रीभार्गवराघवीयम्

श्रीभार्गवराघवीयम् (२००२), शब्दार्थ परशुराम और राम का, जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००२ ई में रचित एक संस्कृत महाकाव्य है। इसकी रचना ४० संस्कृत और प्राकृत छन्दों में रचित २१२१ श्लोकों में हुई है और यह २१ सर्गों (प्रत्येक १०१ श्लोक) में विभक्त है।महाकाव्य में परब्रह्म भगवान श्रीराम के दो अवतारों परशुराम और राम की कथाएँ वर्णित हैं, जो रामायण और अन्य हिंदू ग्रंथों में उपलब्ध हैं। भार्गव शब्द परशुराम को संदर्भित करता है, क्योंकि वह भृगु ऋषि के वंश में अवतीर्ण हुए थे, जबकि राघव शब्द राम को संदर्भित करता है क्योंकि वह राजा रघु के राजवंश में अवतीर्ण हुए थे। इस रचना के लिए, कवि को संस्कृत साहित्य अकादमी पुरस्कार (२००५) तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। महाकाव्य की एक प्रति, कवि की स्वयं की हिन्दी टीका के साथ, जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा ३० अक्टूबर २००२ को किया गया था। .

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षड्गोस्वामी

षड्गोस्वामी (छः गोस्वामी) से आशय छः गोस्वामियों से है जो वैष्णव भक्त, कवि एवं धर्मप्रचारक थे। इनका कार्यकाल १५वीं तथा १६वीं शताब्दी था। वृन्दावन उनका कार्यकेन्द्र था। चैतन्य महाप्रभु ने जिस गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय की आधारशिला रखी गई थी, उसके संपोषण में उनके षण्गोस्वामियों की अत्यंत अहम् भूमिका रही। इन सभी ने भक्ति आंदोलन को व्यवहारिक स्वरूप प्रदान किया। साथ ही वृंदावन के सप्त देवालयों के माध्यम से विश्व में आध्यात्मिक चेतना का प्रसार किया। चैतन्य महाप्रभु 1572 विक्रमी में वृंदावन पधारे। वे व्रज की यात्रा करके पुनः श्री जगन्नाथ धाम चले गये परंतु उन्होंने अपने अनुयाई षड् गोस्वामियों को भक्ति के प्रचारार्थ वृंदावन भेजा। ये गोस्वामी गण सनातन गोस्वामी, रूप गोस्वामी, जीव गोस्वामी आदि अपने युग के महान विद्वान, रचनाकार एवं परम भक्त थे। इन गोस्वामियों ने वृंदावन में सात प्रसिद्ध देवालयों का निर्माण कराया जिनमें ठाकुर मदनमोहनजी का मंदिर, गोविन्द देवजी का मंदिर, गोपीनाथजी का मंदिर आदि प्रमुख हैं। ये छः गोस्वामी थे-.

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षण्गोस्वामी

वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः शिष्य थे। इन्हें ही षण्गोस्वामी कहा गया। ये इस प्रकार हैं। .

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सनातन गोस्वामी

सनातन गोस्वामी (सन् 1488 - 1558 ई), चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। उन्होने गौड़ीय वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय की अनेकों ग्रन्थोंकी रचना की। अपने भाई रूप गोस्वामी सहित वृन्दावन के छ: प्रभावशाली गोस्वामियों में वे सबसे ज्येष्ठ थे। .

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सरसदास

सरसदास सरसदास हरिदासी सम्प्रदाय के भक्त कवि एवं पंचम आचार्य थे। .

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ससुराल सिमर का

ससुराल सिमर का एक भारतीय धारावाहिक है जो कलर्स टीवी प्रसारित किया जाता था। इसका प्रथम प्रसारण 25 अप्रैल 2011 को किया गया था। इसका निर्माण रश्मि शर्मा टेलीफिल्मस् द्वारा किया गया था। इसमें दीपिका कक्कर, अविका गोर, शोएब इब्राहीम, धीरज धूपर, मनीष रायसिन्घन, कीर्ति केलकर, वैशाली टक्कर, सिद्धार्थ शिवपुरी, वरुण शर्मा, निक्की शर्मा, मोनिका शर्मा, कृषन बरेटो, रोहन मेहरा, मजहेर सायद और ज्याति भाटिया ने मुख्य भूमिकाएं निभाई थीं। यह छठा सबसे लंबे समय के लिए प्रसारित होने वाला भारतीय टेलीविजन शो है। इसका अन्तिम प्रसारण 2 मार्च 2018 को किया गया था। यह शो 2063 एपिसोड्स सफलतापूर्वक पूरा करके समाप्त हुआ। यह कार्यक्रम पहले तो दो बहनों, सिमर एवं रोली की कहानी व्यक्त करता था जिनका विवाह एक ही परिवार में दो भाइयों, क्रमश: प्रेम एवं सिद्धान्त के साथ हुआ था। बाद में, यह कार्यक्रम सिमर - प्रेम और उनके तीन बच्चों - अंजलि, संजना और पियूष की कहानी व्यक्त करता था। .

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संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी

संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी संस्कृत, हिंदी, ब्रजभाषा के प्रकाण्ड विद्वान तथा आध्यात्म के पुरोधा थे। ब्रह्मचारी जी साधना, समाज सेवा, संस्कृति, साहित्य, स्वाधीनता, शिक्षा के समर्पित पोषक एवं प्रेरणा-स्रोत थे। बलदेव, बरसाना, खुर्जा, नरवर एवं वाराणसी में उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया। स्वामी करपात्रीजी एवं साहित्यकार कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर' उनके सहपाठी थे। वे ' श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव ' मंत्र के द्रष्टा थे। उनके जीवन के चार संकल्प थे - दिल्ली में हनुमान जी की ४० फुट ऊंची प्रतिमा की स्थापना, राजधानी स्थित पांडवों के किले (इन्द्रप्रस्थ) में भगवान विष्णु की ६० फुट ऊंची प्रतिमा की स्थापना, गोहत्या पर प्रतिबंध तथा श्रीराम जन्मभूमि की मुक्ति। वे इस सदी के महान संत थे। उन्होंने सतत्‌ नाम संकीर्तन की ज्योति जलाकर सदैव देश और समाज की समृद्धि की कामना की थी। गोरक्षा, गंगा की पवित्रता, हिन्दी भाषा, भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म की सेवा उनके जीवन के लक्ष्य थे। उन्होंने गोरक्षा के मुद्दे पर अनशन, आन्दोलन तथा यात्राएं भी कीं। .

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संपूर्णानन्द

डॉ॰ संपूर्णानंद डॉ॰ संपूर्णानन्द (1 जनवरी 1890 - 10 जनवरी 1969) कुशल तथा निर्भीक राजनेता एवं सर्वतोमुखी प्रतिभावाले साहित्यकार एवं अध्यापक थे। वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। .

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संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द

हिन्दी भाषी क्षेत्र में कतिपय संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द प्रचलित हैं। जैसे- सप्तऋषि, सप्तसिन्धु, पंच पीर, द्वादश वन, सत्ताईस नक्षत्र आदि। इनका प्रयोग भाषा में भी होता है। इन शब्दों के गूढ़ अर्थ जानना बहुत जरूरी हो जाता है। इनमें अनेक शब्द ऐसे हैं जिनका सम्बंध भारतीय संस्कृति से है। जब तक इनकी जानकारी नहीं होती तब तक इनके निहितार्थ को नहीं समझा जा सकता। यह लेख अभी निर्माणाधीन हॅ .

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सुदर्शनाचार्य

जगद्गुरु सुदर्शनाचार्य (जन्म: 27 मई 1937, मृत्यु: 22 मई 2007) श्री रामानुजाचार्य द्वारा स्थापित वैष्णव सम्प्रदाय के एक प्रख्यात हिन्दू सन्त थे जिन्हें तपोबल से असंख्य सिद्धियाँ प्राप्त थीं। राजस्थान प्रान्त में सवाई माधोपुर जिले के पाड़ला ग्राम में एक ब्राह्मण जाति के कृषक परिवार में शिवदयाल शर्मा के नाम से जन्मे इस बालक को मात्र साढ़े तीन वर्ष की आयु में ही धर्म के साथ कर्तव्य का वोध हो गया था। बचपन से ही धार्मिक रुचि जागृत होने के कारण उन्होंने सात वर्ष की आयु में ही मानव सेवा का सर्वोत्कृष्ट धर्म अपना लिया था। वेद, पुराण व दर्शनशास्त्र का गम्भीर अध्ययन करने के उपरान्त उन्होंने बारह वर्ष तक लगातार तपस्या की और भूत, भविष्य व वर्तमान को ध्यान योग के माध्यम से जानने की अतीन्द्रिय शक्ति प्राप्त की। उन्होंने फरीदाबाद के निकट बढकल सूरजकुण्ड रोड पर 1990 में सिद्धदाता आश्रम की स्थापना की जो आजकल एक विख्यात सिद्धपीठ का रूप धारण कर चुका है। 1998 में हरिद्वार के महाकुम्भ में सभी सन्त महात्मा एकत्र हुए और सभी ने एकमत होकर उन्हें जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की। आश्रम में उनके द्वारा स्थापित धूना आज भी उनकी तपश्चर्या के प्रभाव से अनवरत उसी प्रकार सुलगता रहता है जैसा उनके जीवित रहते सुलगता था। सुदर्शनाचार्य तो अब ब्रह्मलीन (दिवंगत) हो गये परन्तु भक्तों के दर्शनार्थ उनकी चरणपादुकायें (खड़ाऊँ) उनकी समाधि के समीप स्थापित कर दी गयी हैं। सिद्धदाता आश्रम में आज भी उनके भक्तों का मेला लगा रहता है। यहाँ आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या सम्प्रदाय का हो, बिना किसी भेदभाव के प्रवेश की अनुमति है। वर्तमान में स्वामी पुरुषोत्तम आचार्य यहाँ आने वाले श्रद्धालु भक्तों की समस्या सुनते हैं और सिद्धपीठ की आज्ञानुसार उसका समाधान सुझाते हैं। यह आश्रम आजकल देश विदेश से आने वाले लाखों लोगों के लिये एक तीर्थस्थल बन चुका है। .

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सुजाता चौधरी

सुजाता चौधरी (English: Sujata Chaudhary) वरिष्ठ हिन्दी साहित्यकार, सम्पादक तथा लोकोपकारक हैं, इनका लेखन नाम सुजाता है | इनके द्वारा अधिकांश पुस्तकें महात्मा गाँधी के विचारों तथा कार्यों पर लिखी गयी हैं | .

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स्वामी माधवाश्रम

शंकराचार्य स्वामी माधवाश्रम जी महाराज भारत के उत्तरांचल राज्य में बद्रीनाथ तीर्थ के समीप जोशीमठ तीर्थ स्थित ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य हैं। यह आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों में से एक है। स्वामी जी उत्तराखण्ड क्षेत्र से शंकरारार्य के पद पर सुशोभित होने वाले पहले संन्यासी हैं। वे अखिल भारतीय धर्म संघ समेत विभिन्न धार्मिक संस्थाओं के अघ्यक्ष एवं सदस्य हैं। स्वामी माधवाश्लम का जन्म उत्तरांचल के रुद्रप्रयाग जिले के अन्तर्गत बेंजी ग्राम में हुआ था। इनका मूल नाम केशवानन्द था। आरम्भिक विद्यालयी शिक्षा के पश्चात इन्होंने हरिद्वार, अम्बाला में सनातन धर्म संस्कृत कॉलेज, वृंदावन में बंशीवट में श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी के आश्रम एवं वाराणसीसमेत देश के विभिन्न स्थानों पर वेदों एवं धर्मशास्त्रों की दीक्षा ली। विवाह के उपरान्त कुछ वर्ष पश्चात इन्होंने संन्यास ग्रहण किया। इनकी विद्वता को देखते हुए धर्म संघ के तत्वाधान में धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी के आशीर्वाद से जगन्नाथ पुरीपीठ के तत्कालीन शंकराचार्य स्वामी निरंजनदेव तीर्थ जी ने इन्हें ज्योतिष्पीठ का शंकराचार्य नियुक्त किया। तब से वे इस परम्परा का बखूबी पालन कर रहे हैं। स्वामी जी धर्मप्रचार एवं गौहत्या विरोधी विभिन्न आंदोलनों एवं संगठनों से जुड़े हैं। श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन श्रेणी:हिन्दू आध्यात्मिक नेता.

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स्वामी हरिदास

स्वामी हरिदास (1480 - 1575) भक्त कवि, शास्त्रीय संगीतकार तथा कृष्णोपासक सखी संप्रदाय के प्रवर्तक थे। इन्हें ललिता सखी का अवतार माना जाता है। वे वैष्णव भक्त थे तथा उच्च कोटि के संगीतज्ञ भी थे। वे प्राचीन शास्त्रीय संगीत के उद्भट विद्वान एवम् चतुष् ध्रुपदशैली के रचयिता हैं। प्रसिद्ध गायक तानसेन इनके शिष्य थे। अकबर इनके दर्शन करने वृन्दावन गए थे। ‘केलिमाल’ में इनके सौ से अधिक पद संग्रहित हैं। इनकी वाणी सरस और भावुक है। स्वामी हरिदास का जन्म 1490 में हुआ था। इनके जन्म स्थान और गुरु के विषय में कई मत प्रचलित हैं। इनका जन्म समय कुछ ज्ञात नहीं है। ये महात्मा वृन्दावन में निंबार्क सखी संप्रदाय के संस्थापक थे और अकबर के समय में एक सिद्ध भक्त और संगीत-कला-कोविद माने जाते थे। कविताकाल सन् 1543 से 1560 ई. ठहरता है। प्रसिद्ध गायनाचार्य तानसेन इनका गुरूवत् सम्मान करते थे। यह प्रसिद्ध है कि अकबर बादशाह साधु के वेश में तानसेन के साथ इनका गाना सुनने के लिए गया था। कहते हैं कि तानसेन इनके सामने गाने लगे और उन्होंने जानबूझकर गाने में कुछ भूल कर दी। इसपर स्वामी हरिदास ने उसी गाना को शुद्ध करके गाया। इस युक्ति से अकबर को इनका गाना सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। पीछे अकबर ने बहुत कुछ पूजा चढ़ानी चाही पर इन्होंने स्वीकार नहीं की। .

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स्वामी हितदास

स्वामी हितदास (१९१५ - २००३) राधावल्लभ सम्प्रदाय के एक सन्त एवं हिन्दी साहित्यकार थे। .

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हरिराम व्यास

हरिराम व्यास (संवत १५६७ - १६८९) राधावल्लभ सम्प्रदाय के उच्च कोटि के भक्त तथा कवि थे।http://hindisahityainfo.blogspot.in/2017/05/blog-post_18.html राघावल्लभीय संप्रदाय के हरित्रय में इनका विशिष्ट स्थान है।http://bharatdiscovery.org/india/हरिराम_व्यास .

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होली

होली (Holi) वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता है। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहाँ भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है। नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया,नमकीन व ठंडाई से किया जाता है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है। .

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होली की कहानियाँ

होली खेलते राधा और कृष्ण होली भारत के सबसे पुराने पर्वों में से है। यह कितना पुराना है इसके विषय में ठीक जानकारी नहीं है लेकिन इसके विषय में इतिहास पुराण व साहित्य में अनेक कथाएँ मिलती है। इस कथाओं पर आधारित साहित्य और फ़िल्मों में अनेक दृष्टिकोणों से बहुत कुछ कहने के प्रयत्न किए गए हैं लेकिन हर कथा में एक समानता है कि असत्य पर सत्य की विजय और दुराचार पर सदाचार की विजय और विजय को उत्सव मनाने की बात कही गई है। .

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जयपुर का वृंदावन

वृंदावन भगवान श्री कृष्ण से संबंधित है.

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जगन्नाथ

'''जगन्नाथ''' (सबसे दाएं) अपने भ्राता बलभद्र (सबसे बाएं) एवं बहन सुभद्रा (बीच में) के संग, राधादेश, बेल्जियम में जगन्नाथ (जगन्नाथ ଜଗନ୍ନାଥ) हिन्दू भगवान विष्णु के पूर्ण कला अवतार श्रीकृष्ण का ही एक रूप हैं। इनका एक बहुत बड़ा मन्दिर ओडिशा राज्य के पुरी शहर में स्थित है। इस शहर का नाम जगन्नाथ पुरी से निकल कर पुरी बना है। यहाँ वार्षिक रूप से रथ यात्रा उत्सव भी आयोजित किया जाता है। पुरी की गिनती हिन्दू धर्म के चार धाम में होती है। Image:Lord_Jagannath.jpg|जगन्नाथ (दायें) बलभद्र (बायें) तथा सुभद्रा (मध्य में) Image:Lord_Jagannath_Statue.jpg|एक छोटे आकार का altar, जगन्नाथ, बलभद्र तथा देवी सुभद्रा के साथ Image:Car_Festival.jpg|भुवनेश्वर में रथ यात्रा महोत्सव Image:Rath_Yatra.jpg| न्यूयॉर्क शहर में इस्कॉन द्वारा आयोजित रथ यात्रा उत्सव .

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जीव गोस्वामी

जीव गोस्वामी की प्रतिमा श्री जीव गोस्वामी (१५१३-१५९८), वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः षण्गोस्वामी में से एक थे। उनकी गणना गौड़ीय सम्प्रदाय के सबसे महान दार्शनिकों एवं सन्तों में होती है। उन्होने भक्ति योग, वैष्णव वेदान्त आदि पर अनेकों ग्रंथों की रचना की। वे दो महान सन्तों रूप गोस्वामी एवं सनातन गोस्वामी के भतीजे थे। इनका जन्म श्री वल्लभ अनुपम के यहां १५३३ ई० (तद.१४५५ शक. भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को हुआ था। श्री सनातन गोस्वामी, श्री रूप गोस्वामी तथा श्री वल्लभ, ये तीनों भाई नवाब हुसैन शाह के दरबार में उच्च पदासीन थे। इन तीनों में से एक के ही संतान थी, श्री जीव गोस्वामी। बादशाह की सेवाओं के बदले इन लोगों को अच्छा भुगतान होता था, जिसके कारण इनका जीवन अत्यंत सुखमय था। और इनके एकमात्र पुत्र के लिए किसी वस्तु की कमी न थी। श्री जीव के चेहरे पर सुवर्ण आभा थी, इनकी आंखें कमल के समान थीं, व इनके अंग-प्रत्यंग में चमक निकलती थी। श्री गौर सुदर्शन के रामकेली आने पर श्री जीव को उनके दर्शन हुए, जबकि तब जीव एक छोटे बालक ही थे। तब महाप्रभु ने इनके बारे में भविष्यवाणी की कि यह बालक भविष्य में गौड़ीय संप्रदाय का प्रचारक व गुरु बनेगा। बाद में इनके पिता व चाचाओं ने महाप्रभु के सेवार्थ इनको परिवार में छोड़कर प्रस्थान किया। इन्हें जब भी उनकी या गौरांग के चरणों की स्मृति होती थी, ये मूर्छित हो जाते थे। बाद में लोगों के सुझाव पर ये नवद्वीप में मायापुर पहुंचे व श्रीनिवास पंडित के यहां, नित्यानंद प्रभु से भेंट की। फिर वे दोनों शची माता से भी मिले। फिर नित्य जी के आदेशानुसार इन्होंने काशी को प्रस्थान किया। वहां श्री रूप गोस्वामी ने इन्हें श्रीमद्भाग्वत का पाठ कराया। और अन्ततः ये वृंदावन पहुंचे। वहां इन्होंने एक मंदिर भी बनवाया। १५४० शक शुक्ल तृतीया को ८५ वर्ष की आयु में इन्होंने देह त्यागी। .

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ईशा शरवानी

ईशा शरवानी (जन्म: 29 सितंबर 1985) हिन्दी फ़िल्मों की अभिनेत्री और भारतीय समकालीन डांसर हैं। .

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घनानन्द

घनानंद की काव्य रचनाओं का अंग्रेज़ी अनुवाद घनानंद (१६७३- १७६०) रीतिकाल की तीन प्रमुख काव्यधाराओं- रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त के अंतिम काव्यधारा के अग्रणी कवि हैं। ये 'आनंदघन' नाम स भी प्रसिद्ध हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रीतिमुक्त घनानन्द का समय सं.

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वात्सल्य ग्राम

वात्सल्य ग्राम, परमशक्ति पीठ द्वारा संचालित एक अनाथालय है। यह साध्वी ऋतम्भरा (दीदी माँ) द्वारा स्थापित है। इसमें अनाथ बच्चों एवं परित्यक्त महिलाओं को आवास, भोजन, स्वास्थ्य एवं शिक्षा का प्रबन्ध किया जाता है। इसका मूल मंत्र यह है कि परित्यक्त महिलाएँ एवं बच्चे एक दूसरे के पूरक होकर एक-दूसरे की भवनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करें। वृन्दावन शहर से कुछ बाहर वात्सल्य ग्राम के नाम से प्रसिद्ध यह स्थान अपने आप में अनेक पटकथाओं का केन्द्र बन सकता है। इस प्रकल्प के मुख्यद्वार के निकट यशोदा और बालकृष्ण की एक प्रतिमा वात्सल्य रस को साकार रूप प्रदान करती है। वास्तव में इस अनूठे प्रकल्प के पीछे की सोच अनाथालय की व्यावसायिकता और भावहीनता के स्थान पर समाज के समक्ष एक ऐसा मॉडल प्रस्तुत करने की अभिलाषा है जो भारत की परिवार की परम्परा को सहेज कर संस्कारित बालक-बालिकाओं का निर्माण करे न कि उनमें हीन भावना का भाव व्याप्त कर उन्हें अपनी परम्परा और संस्कृति छोड़ने पर विवश करे.

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वागीश शास्त्री

भागीरथ प्रसाद त्रिपाठी वागीश शास्त्री (जन्म: २४ जुलाई १९३४; बी.पी.टी. वागीश शास्त्री के नाम से भी जाने जाते हैं) अंतर्राष्ट्रीय संस्कृत व्याकरणज्ञ, उत्कृष्ट भाषाशास्त्री, योगी एवं तांत्रिक हैं। इनका जन्म खुरई, मध्य प्रदेश में २४ जुलाई १९३४ को हुआ था। प्राथमिक शिक्षा वहीं पाकर आगे वृंदावन और बनारस में अध्ययन किया। १९५९ में इन्होंने संस्कृत व्याख्याता के रूप में टीकमणि संस्कृत महाविद्यालय, वाराणसी में कार्य किया। जल्दी ही इनके कार्य देखते हुए इन्हें १९७० मे संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में व्याख्याता और फिर निदेशक पद पर चयन हो गया। इस माननीय शैक्षणिक पद पर ये तीन दशक तक रहे। वर्ष 2014-15 के लिए यश भारती सम्मान पाने वाले भागीरथ प्रसाद त्रिपाठी ‘वागीश शास्त्री’ अपने चाहने वालों के बीच बीपीटी के नाम से जाने जाते हैं। लगभग 30 वर्ष तक संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय को अपनी सेवा देने वाले आचार्य वागीश शास्त्री को 1982 में ही काशी पंडित परिषद की ओर से 'महामहोपाध्याय' की पदवी दी गई थी। उन्होंने 40 से अधिक पुस्तकें लिखीं हैं और 300 से ज्यादा पांडुलिपियों का संपादन किया है। काशी परंपरा के संस्कृत के विद्वान डॉ॰ वागीश शास्त्री को साल 2013 में संस्कृत साहित्य में योगदान के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से नवाजा गया था। उन्हें राजस्थान संस्कृत अकादमी की ओर से बाणभट्ट पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। वागीश शास्त्री ने संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘सरस्वती सुषमा’ का लगभग 30 सालों तक संपादन किया था। .

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वृन्दावनदास ठाकुर

वृन्दावनदास ठाकुर (1507-1589 ई) बंगला भाषा में चैतन्य भागवत नामक ग्रंथ के रचयिता हैं। यह ग्रन्थ चैतन्य महाप्रभु का जीवनचरित है। यह बंगला भाषा का आदि काव्य ग्रंथ माना जाता है। इनके पिता कुमारहद निवासी बैकुंठनाथ ठाकुर थे। नवद्वीप में सं.

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वृंदावन चन्द्रोदय मंदिर

वृंदावन चन्द्रोदय मंदिर उत्तर प्रदेश के वृन्दावन में भगवान कृष्ण को समर्पित एक मंदिर है जो अभी निर्माणाधीन है। इसे इस्काॅन की बैंगलोर इकाई के संकल्पतः कुल ₹३०० करोड़ की लागत से निर्मित किया जा रहा है। इस मंदिर के मुख्य आराध्य देव भगवान कृष्ण होंगे। इस मंदिर का सबसे विशिष्ट आकर्षण यह है कि योजनानुसार इस अतिभव्य मंदिर की कुल ऊंचाई करीब ७०० फुट यानी २१३ मीटर (जो किसी ७०-मंजिला इमारत जितना ऊंचा है) होगी जिस के कारण पूर्ण होने पर, यह विश्व का सबसे ऊंचा मंदिर बन जाएगा। इसके गगनचुम्बी शिखर के अलावा इस मंदिर की दूसरी विशेष आकर्षण यह है की मंदिर परिसर में २६ एकड़ के भूभाग पर चारों ओर १२ कृत्रिम वन बनाए जाएंगे, जो मनमोहक हरेभरे फूलों और फलों से लदे वृक्षों, रसीले वनस्पति उद्यानों, हरी लंबी चराईयों, हरे घास के मैदानों, फलों का असर पेड़ों की सुंदर खा़काओं, पक्षी गीत द्वारा स्तुतिगान फूल लादी लताओं, कमल और लिली से भरे साफ पानी के पोखरों एवं छोटी कृत्रिम पहाड़ियों और झरनों से भरे होंगें, जिन्हें विशेश रूप से पूरी तरह हूबहू श्रीमद्भागवत एवं अन्य शास्त्रों में दिये गए, कृष्णकाल के ब्रजमंडल के १२ वनों (द्वादशकानन) के विवरण के अनुसार ही बनाया जाएगा ताकी आगंतुकों (श्रद्धालुओं) को कृष्णकाल के ब्रज का आभास कराया जा सके। ५ एकड़ के पदछाप वाला यह मंदिर कुल ६२ एकड़ की भूमि पर बन रहा है, जिसमें १२ एकड़ पर कार-पार्किंग सुविधा होगी, और एक हेलीपैड भी होगा। .

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वेदान्त दर्शन

वेदान्त ज्ञानयोग की एक शाखा है जो व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है। इसका मुख्य स्रोत उपनिषद है जो वेद ग्रंथो और अरण्यक ग्रंथों का सार समझे जाते हैं। उपनिषद् वैदिक साहित्य का अंतिम भाग है, इसीलिए इसको वेदान्त कहते हैं। कर्मकांड और उपासना का मुख्यत: वर्णन मंत्र और ब्राह्मणों में है, ज्ञान का विवेचन उपनिषदों में। 'वेदान्त' का शाब्दिक अर्थ है - 'वेदों का अंत' (अथवा सार)। वेदान्त की तीन शाखाएँ जो सबसे ज्यादा जानी जाती हैं वे हैं: अद्वैत वेदान्त, विशिष्ट अद्वैत और द्वैत। आदि शंकराचार्य, रामानुज और श्री मध्वाचार्य जिनको क्रमश: इन तीनो शाखाओं का प्रवर्तक माना जाता है, इनके अलावा भी ज्ञानयोग की अन्य शाखाएँ हैं। ये शाखाएँ अपने प्रवर्तकों के नाम से जानी जाती हैं जिनमें भास्कर, वल्लभ, चैतन्य, निम्बारक, वाचस्पति मिश्र, सुरेश्वर और विज्ञान भिक्षु। आधुनिक काल में जो प्रमुख वेदान्ती हुये हैं उनमें रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, अरविंद घोष, स्वामी शिवानंद राजा राममोहन रॉय और रमण महर्षि उल्लेखनीय हैं। ये आधुनिक विचारक अद्वैत वेदान्त शाखा का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरे वेदान्तो के प्रवर्तकों ने भी अपने विचारों को भारत में भलिभाँति प्रचारित किया है परन्तु भारत के बाहर उन्हें बहुत कम जाना जाता है। .

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गदाधर भट्ट

गदाधर भट्ट गौड़ीय संप्रदाय के प्रमुख भक्त कवियों में गिने जाते हैं।http://hindisahityainfo.blogspot.in/2017/05/blog-post_30.html .

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गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय

गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की आधारशिला चैतन्य महाप्रभु के द्वारा रखी गई। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। कृष्णकृपामूर्ती श्री श्रीमद् अभयचरणारविन्द भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद को गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के पश्चिमी जगत के आज तक के सर्वश्रेष्ठ प्रचारक माने जाते हैं। राधा रमण मन्दिर वृंदावन में श्री राधा रमण जी का मन्दिर श्री गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के सुप्रसिद्ध मन्दिरों में से एक है। श्री गोपाल भट्ट जी शालिग्राम शिला की पूजा करते थे। एक बार उनकी यह अभिलाषा हूई की शालिग्राम जी के हस्त-पद होते तो मैं इनको विविध प्रकार से सजाता एवं विभिन्न प्रकार की पोशाक धारण कराता। भक्त वत्सल श्री कृष्ण जी ने उनकी इस मनोकामना को पूर्ण किया एवं शालिग्राम से श्री राधारमण जी प्रकट हुए। श्री राधा रमण जी के वामांग में गोमती चक्र सेवित है। इनकी पीठ पर शालिग्राम जी विद्यमान हैं। .

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गौरव कृष्ण गोस्वामी

गौरव कृष्ण गोस्वामी (जन्म: ६ जुलाई १९८४, वृन्दावन) एक भारतीय ध्र्म प्रचारक है। मृदुल कृष्ण शास्त्री गौरव कृष्ण जी के पिता है और वंदना गोस्वामी उनकी माता है। उनका जन्म एक ऐसे भगवत भक्त परिवार में हुआ जहाँ संस्कृत और श्रीमद भगवद् की कथा पूर्वजों से ही चली आ रही है। स्वामी हरिदास जी जो कि गोपी अवतार थे, इनके पूर्वज है जिन्होंने अपनी संगीत साधना से बके बिहारी जी को, श्री धाम वृन्दावन में प्रकट किया जो की आज भी है। ये बचपन से ही भगवान कृष्ण और राधाजी के भक्त है और श्रीमद भगवत पूरण में इनकी निष्ट थी। इनके दादा मूल बिहारी गोस्वामी जी कथा करते थे और पिता और गुरुदेव मृदुल कृष्ण जी भगवद् कथा करते चले आ रहे है। गौरव कृष्ण भी उन्ही पद चिन्हों पर चल रहे हैं। .

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गोपाल भट्ट गोस्वामी

गोपाल भट्ट गोस्वामी (1503–1578) चैतन्य महाप्रभु सबसे प्रमुख शिष्यों में से एक थे। वे वृन्दावन के प्रसिद्ध छः गोस्वामियों में से एक थे। .

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गोपीनाथ मंदिर, वृंदावन

गोपी नाथ जी मन्दिर वृंदावन में स्थित एक वैष्णव संप्रदाय का मंदिर है। इसकी निर्माण तिथि अज्ञात है। इसका मूल निर्माण कछवाहा ठाकुरों की शेखावत शाखा के संस्थापक के पौत्र रायसिल ने करवाया था। बाद में १८२१ में नन्दकुमार घोष नामक एक बंगाली कायस्थ ने नया मन्दिर बनवाया। इस मंदिर की निर्माण शैली मदनमोहन मन्दिर से शिल्प में मिलती जुलती है। .

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गोविंददेव मंदिर

गोविन्द देव जी का मंदिर वृंदावन में स्थित वैष्णव संप्रदाय का मंदिर है। इसका निर्माण १५९० ई. (तद. १६४७ वि॰सं॰) में हुआ था। इस मंदिर के शिला लेख से यह जानकारी पूरी तरह सुनिश्चित हो जाती है कि इस भव्य देवालय को आमेर के राजा भगवान दास के पुत्र राजा मानसिंह ने बनवाया था। रूप गोस्वामी एवं सनातन गोस्वामी नामक दो वैष्णव गुरूऔं की देखरेख में मंदिर के निर्माण होने का उल्लेख भी मिलता है। जेम्स फर्गूसन, प्रसिद्ध इतिहासकार ने लिखा है कि यह मन्दिर भारत के मन्दिरों में बड़ा शानदार है। मंदिर की भव्यता का अनुमान इस उद्धरण से लगाया जा सकता है 'औरंगज़ेब ने शाम को टहलते हुए, दक्षिण-पूर्व में दूर से दिखने वाली रौशनी के बारे जब पूछा तो पता चला कि यह चमक वृन्दावन के वैभवशाली मंदिरों की है। औरंगज़ेब, मंदिर की चमक से परेशान था, समाधान के लिए उसने तुरंत कार्यवाही के रूप में सेना भेजी। मंदिर, जितना तोड़ा जा सकता था उतना तोड़ा गया और शेष पर मस्जिद की दीवार, गुम्बद आदि बनवा दिए। कहते हैं औरंगज़ेब ने यहाँ नमाज़ में हिस्सा लिया। मंदिर का निर्माण में 5५ से १० वर्ष लगे और लगभग एक करोड़ रुपया ख़र्चा बताया गया है। सम्राट अकबर ने निर्माण के लिए लाल पत्थर दिया। श्री ग्राउस के विचार से, अकबरी दरबार के ईसाई पादरियों ने, जो यूरोप के देशों से आये थे, इस निर्माण में स्पष्ट भूमिका निभाई जिससे यूनानी क्रूस और यूरोपीय चर्च की झलक दिखती है। इस मंदिर की निर्माण शैली - हिन्दू (उत्तर-दक्षिण भारत), जयपुरी, मुग़ल, यूनानी और गोथिक का मिश्रण है। इसका लागत मूल्य- एक करोड़ रुपया (लगभग)। यह मंदिर ५-१० वर्षों में बनकर तैयार हुआ था। इसका माप- 105 x 117 फुट (200 x 120 फुट बाहर से) व ऊंचाई - 110 फुट (सात मंज़िल थीं आज केवल चार ही मौजूद हैं) १८७३ में श्री ग्राउस (तत्कालीन ज़िलाधीश मथुरा) ने मंदिर की मरम्मत का कार्य शुरू करवाया जिसमें ३८,३६५ रूपये का ख़र्च आया। जिसमें ५००० रूपये महाराजा जयपुर ने दिया और शेष सरकार ने। मरम्मत और रख रखाव आज भी जारी है लेकिन मंदिर की शोचनीय दशा को देखते हुए यह सब कुछ नगण्य है। .

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गोकुलानंद मंदिर

गोकुलानंद मंदिर वृंदावन में स्थित वैष्णव संप्रदाय का एक मंदिर है। इसकी स्थापना चैतन्य महाप्रभु के भेजे छः षण्गोस्वामियों में से एक ने की थी। श्रेणी:वृंदावन के मंदिर.

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ओखाहरन्

सबसे पहेले सुखदेवजी ने परीक्षीत राजा को ओखाहरण की कथा सुनाई थी। उसमे उन्होंने ओखा के जीवन के बारे मे और उसकी शादी किससे, कैसे और कहाँ हुई थी, यह सब बताया था। सुखदेव जी ने ओखाहरन की कथा की शुरुआत मे ही कहा है की......

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आदित्य चौधरी

आदित्य चौधरी (अंग्रेज़ी: Aditya Chaudhary, जन्म: 9 दिसम्बर, 1961) '' और '' के संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक हैं। उन्होंने वर्ष 2006 से भारतकोश का निर्माण कार्य प्रारम्भ किया। वर्ष 2008 में ब्रज क्षेत्र का समग्र ज्ञानकोश (इंसाइक्लोपीडिया) 'ब्रजडिस्कवरी' का ऑनलाइन प्रकाशन किया तथा वर्ष 2010 में भारत का समग्र ज्ञानकोश (एंसाइक्लोपीडिया) 'भारतकोश' की ऑनलाइन वेबसाइट शुरू की। .

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इंदिरा रायसम गोस्वामी

इंदिरा गोस्वामी (१४ नवम्बर १९४२ - नवम्बर, २०१०) असमिया साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर थीं। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित श्रीमती गोस्वामी असम की चरमपंथी संगठन उल्फा यानि युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम और भारत सरकार के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने की राजनैतिक पहल करने में अहम भूमिका निभाई। इनके द्वारा रचित एक उपन्यास मामरे धरा तरोवाल अरु दुखन उपन्यास के लिये उन्हें सन् १९८२ में साहित्य अकादमी पुरस्कार (असमिया) से सम्मानित किया गया। .

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कालिय नाग

कालिय नाग के ऊपर नृत्य करते हुए कृष्ण; कालिय की पत्नियाँ कृष्ण से दया की भीख माँग रही हैं। (भागवत पुराण की एक पाण्डुलिपि से लिया गया चित्र; १६४० ई.) पौराणिक मान्यतानुसार कालिय एक अत्यन्त विषैला नाग था जो वृन्दावन में यमुना के अन्दर रहता था। श्रेणी:पौराणिक पात्र.

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किशोरीदास वाजपेयी

आचार्य किशोरीदास वाजपेयी आचार्य किशोरीदास वाजपेयी (१८९८-१९८१) हिन्दी के साहित्यकार एवं सुप्रसिद्ध व्याकरणाचार्य थे। हिन्दी की खड़ी बोली के व्याकरण की निर्मिति में पूर्ववर्ती भाषाओं के व्याकरणाचार्यो द्वारा निर्धारित नियमों और मान्यताओं का उदारतापूर्वक उपयोग करके इसके मानक स्वरूप को वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पन्न करने का गुरुतर दायित्व पं॰ किशोरीदास वाजपेयी ने निभाया। इसीलिए उन्हें 'हिन्दी का पाणिनी' कहा जाता है। अपनी तेजस्विता व प्रतिभा से उन्होंने साहित्यजगत को आलोकित किया और एक महान भाषा के रूपाकार को निर्धारित किया। आचार्य किशोरीदास बाजपेयी ने हिन्दी को परिष्कृत रूप प्रदान करने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इनसे पूर्व खडी बोली हिन्दी का प्रचलन तो हो चुका था पर उसका कोई व्यवस्थित व्याकरण नहीं था। अत: आपने अपने अथक प्रयास एवं ईमानदारी से भाषा का परिष्कार करते हुए व्याकरण का एक सुव्यवस्थित रूप निर्धारित कर भाषा का परिष्कार तो किया ही साथ ही नये मानदण्ड भी स्थापित किये। स्वाभाविक है भाषा को एक नया स्वरूप मिला। अत: हिन्दी क्षेत्र में आपको "पाणिनि' संज्ञा से अभिहित किया जाने लगा। .

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कविराज कृष्णदास

कविराज कृष्णदास बंगाल के वैष्णव कवि। बंगाल में उनका वही स्थान है जो उत्तर भारत में तुलसीदास का। इनका जन्म बर्दवान जिले के झामटपुर ग्राम में कायस्थ कुल में हुआ था। इनका समय कुछ लोग 1496 से 1598 ई. और कुछ लोग 1517 से 1615 ई. मानते हैं। इन्हें बचपन में ही वैराग्य हो गया। कहते हैं कि नित्यानन्द ने उन्हें स्वप्न में वृन्दावन जाने का आदेश दिया। तदनुसार इन्होंने वृन्दावन में रहकर संस्कृत का अध्ययन किया और संस्कृत में अनेक ग्रंथों की रचना की जिसमें गोविन्दलीलामृत अधिक प्रसिद्ध है। इसमें राधा-कृष्ण की वृंदावन की लीला का वर्णन है। किंतु इनका महत्व पूर्ण ग्रंथ चैतन्यचरितामृत है। इसमें महाप्रभु चैतन्य की लीला का गान किया है। इसमें उनकी विस्तृत जीवनी, उनके भक्तों एवं भक्तों के शिष्यों के उल्लेख के साथ-साथ गौड़ीय वैष्णवों की दार्शनिक एवं भक्ति संबंधी विचारधारा का निदर्शन है। इस महाकाव्य का बंगाल में अत्यंत आदर है और ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण है। श्रेणी:बांग्ला साहित्यकार श्रेणी:भक्त कवी.

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कृपालु महाराज

कृपालु महाराज (अंग्रेजी: Kripalu Maharaj, संस्कृत: जगद्गुरु कृपालुजी महाराज, जन्म: 22 अक्टूबर 1922, मृत्यु: 15 नवम्बर 2013) एक सुप्रसिद्ध हिन्दू आध्यात्मिक प्रवचन कर्ता थे। मूलत: इलाहाबाद के निकट मनगढ़ नामक ग्राम (जिला प्रतापगढ़) में जन्मे कृपालु महाराज का पूरा नाम रामकृपालु त्रिपाठी था।Singh, K. 28 जनवरी 2007.

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कृष्ण

बाल कृष्ण का लड्डू गोपाल रूप, जिनकी घर घर में पूजा सदियों से की जाती रही है। कृष्ण भारत में अवतरित हुये भगवान विष्णु के ८वें अवतार और हिन्दू धर्म के ईश्वर हैं। कन्हैया, श्याम, केशव, द्वारकेश या द्वारकाधीश, वासुदेव आदि नामों से भी उनको जाना जाता हैं। कृष्ण निष्काम कर्मयोगी, एक आदर्श दार्शनिक, स्थितप्रज्ञ एवं दैवी संपदाओं से सुसज्ज महान पुरुष थे। उनका जन्म द्वापरयुग में हुआ था। उनको इस युग के सर्वश्रेष्ठ पुरुष युगपुरुष या युगावतार का स्थान दिया गया है। कृष्ण के समकालीन महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद्भागवत और महाभारत में कृष्ण का चरित्र विस्तुत रूप से लिखा गया है। भगवद्गीता कृष्ण और अर्जुन का संवाद है जो ग्रंथ आज भी पूरे विश्व में लोकप्रिय है। इस कृति के लिए कृष्ण को जगतगुरु का सम्मान भी दिया जाता है। कृष्ण वसुदेव और देवकी की ८वीं संतान थे। मथुरा के कारावास में उनका जन्म हुआ था और गोकुल में उनका लालन पालन हुआ था। यशोदा और नन्द उनके पालक माता पिता थे। उनका बचपन गोकुल में व्यतित हुआ। बाल्य अवस्था में ही उन्होंने बड़े बड़े कार्य किये जो किसी सामान्य मनुष्य के लिए सम्भव नहीं थे। मथुरा में मामा कंस का वध किया। सौराष्ट्र में द्वारका नगरी की स्थापना की और वहाँ अपना राज्य बसाया। पांडवों की मदद की और विभिन्न आपत्तियों में उनकी रक्षा की। महाभारत के युद्ध में उन्होंने अर्जुन के सारथी की भूमिका निभाई और भगवद्गीता का ज्ञान दिया जो उनके जीवन की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। १२५ वर्षों के जीवनकाल के बाद उन्होंने अपनी लीला समाप्त की। उनकी मृत्यु के तुरंत बाद ही कलियुग का आरंभ माना जाता है। .

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कृष्णदास (बहुविकल्पी)

कृष्णदास से निम्नलिखित व्यक्तियों का बोध होता है-.

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केशी

गुप्तकाल (321–500 ई), मेत्रोपालितन कला संग्रहालय, यूएसए केशी एक प्रसिद्ध दानव था। यह कंस का अनुचर था और कश्यप की पत्नी दक्षकन्या दनु के गर्भ से उत्पन्न सभी दानवों में अधिक प्रतापी था। महाभारत के अनुसार इसने प्रजापति की कन्या दैत्यसेना का हरण करके उससे विवाह कर लिया था। इसने वृंदावन में असंख्य गौओं तथा गोपों का वध किया था। अंत में इसे श्रीकृष्ण ने मारा जिससें उनका नाम 'केशव' पड़ा। केशी केशी केशी केशी.

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अद्वैत कुमार (स्वतंत्रता संग्राम सेनानी)

श्री अद्वैत कुमार वृंदावन के निवासी थे। इनके पिता का नाम श्री अनंतलाल है। इन्हें १९४० ई० में गिरफ्तार किया गया और ६ माह बाद अपील पर छोड़ दिया गया। "भारत छोड़ो आन्दोलन" में भाग लेने के कारण सन् १९४२ ई० में ५०० रुपए अर्थ दण्ड या एक वर्ष के कारावास की सजा मिली। श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (1 सितम्बर 1896 – 14 नवम्बर 1977) जिन्हें स्वामी श्रील भक्तिवेदांत प्रभुपाद के नाम से भी जाना जाता है, बीसवीं सदी के एक प्रसिद्ध गौडीय वैष्णव गुरु तथा धर्मप्रचारक थे। उन्होंने वेदान्त, कृष्ण-भक्ति और इससे संबंधित क्षेत्रों पर शुद्ध कृष्ण भक्ति के प्रवर्तक श्री ब्रह्म-मध्व-गौड़ीय संप्रदाय के पूर्वाचार्यों की टीकाओं के प्रचार प्रसार और कृष्णभावना को पश्चिमी जगत में पहुँचाने का काम किया। ये भक्तिसिद्धांत ठाकुर सरस्वती के शिष्य थे जिन्होंने इनको अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से वैदिक ज्ञान के प्रसार के लिए प्रेरित और उत्साहित किया। इन्होने इस्कॉन (ISKCON) की स्थापना की और कई वैष्णव धार्मिक ग्रंथों का प्रकाशन और संपादन स्वयं किया। इनका पूर्वाश्रम नाम "अभयचरण डे" था और ये कलकत्ता में जन्मे थे। सन् १९२२ में कलकत्ता में अपने गुरुदेव श्री भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर से मिलने के बाद उन्होंने श्रीमद्भग्वद्गीता पर एक टिप्पणी लिखी, गौड़ीय मठ के कार्य में सहयोग दिया तथा १९४४ में बिना किसी की सहायता के एक अंगरेजी आरंभ की जिसके संपादन, टंकण और परिशोधन (यानि प्रूफ रीडिंग) का काम स्वयं किया। निःशुल्क प्रतियाँ बेचकर भी इसके प्रकाशन क जारी रखा। सन् १९४७ में गौड़ीय वैष्णव समाज ने इन्हें भक्तिवेदान्त की उपाधि से सम्मानित किया, क्योंकि इन्होने सहज भक्ति के द्वारा वेदान्त को सरलता से हृदयंगम करने का एक परंपरागत मार्ग पुनः प्रतिस्थापित किया, जो भुलाया जा चुका था। सन् १९५९ में सन्यास ग्रहण के बाद उन्होंने वृंदावन में श्रीमदभागवतपुराण का अनेक खंडों में अंग्रेजी में अनुवाद किया। आरंभिक तीन खंड प्रकाशित करने के बाद सन् १९६५ में अपने गुरुदेव के अनुष्ठान को संपन्न करने वे ७० वर्ष की आयु में बिना धन या किसी सहायता के अमेरिका जाने के लिए निकले जहाँ सन् १९६६ में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (ISKCON) की स्थापना की। सन् १९६८ में प्रयोग के तौर पर वर्जीनिया (अमेरिका) की पहाड़ियों में नव-वृन्दावन की स्थापना की। दो हज़ार एकड़ के इस समृद्ध कृषि क्षेत्र से प्रभावित होकर उनके शिष्यों ने अन्य जगहों पर भी ऐसे समुदायों की स्थापना की। १९७२ में टेक्सस के डैलस में गुरुकुल की स्थापना कर प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की वैदिक प्रणाली का सूत्रपात किया। सन १९६६ से १९७७ तक उन्होंने विश्वभर का १४ बार भ्रमण किया तथा अनेक विद्वानों से कृष्णभक्ति के विषय में वार्तालाप करके उन्हें यह समझाया की कैसे कृष्णभावना ही जीव की वास्तविक भावना है। उन्होंने विश्व की सबसे बड़ी आध्यात्मिक पुस्तकों की प्रकाशन संस्था- भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट- की स्थापना भी की। कृष्णभावना के वैज्ञानिक आधार को स्थापित करने के लिए उन्होंने भक्तिवेदांत इंस्टिट्यूट की भी स्थापना की। .

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अमृतलाल चक्रवर्ती

अमृतलाल चक्रवर्ती (1863-1936) बांग्लाभाषी होते हुए भी हिन्दीसेवी एवं पत्रकार थे। इन्होंने लगभग दस वर्ष तक साप्ताहिक 'हिन्दी बंगवासी' (कलकत्ता) का सम्पादन किया। वे हिन्दी साहित्य सम्मेलन के 16वें अधिवेशन (वृन्दावन) के सभापति रहे। बंगाल के चौबीस परगना के नादरा गाँव में १८६३ में जन्मे अमृतलाल चक्रवर्ती की प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत में हुई। गाजीपुर (उत्तर प्रदेश) में अपने मामा के पास काफी दिनों तक रहने और वहाँ स्कूल में पढ़ने के कारण हिन्दी पर उनका अधिकार हो गया तो भोजपुरी पर भी। वे भोजपुरी बोल भी लेते थे। हिंदी, अँग्रेजी, फारसी और संस्कृत पर भी उनका अधिकार था और बांग्ला तो खैर उनकी मातृभाषा ही थी। अमृतलाल चक्रवर्ती ने औपचारिक शिक्षा पूरी करने से पूर्व ही इलाहाबाद में प्रकाशित 'प्रयाग-समाचार' पत्र से पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया। कुछ दिन कालाकांकर से प्रकाशित राजा रामपाल सिंह के पत्र 'हिंदोस्थान' में भी वे रहे। कालाकांकर में रहते हुए अमृतलाल चक्रवर्ती को शिक्षा पूरी करने का मन हुआ सो घर गए, फिर कालाकांकर नहीं लौटे। कोलकाता जाकर उन्होंने कानून की डिग्री ली, लेकिन वकालत में नहीं गए। योगेन्द्रचन्द्र बसु ने 1890 में जब 'हिंदी बंगवासी' निकाला तो उसके संपादन का दायित्व अमृतलाल चक्रवर्ती को सौंपा। यह अखबार डबल रायल आकार के दो बड़े पन्नों में हर हफ्ते प्रकाशित होता था। इसका वार्षिक मूल्य दो रुपए था और प्रसार संख्या दो हजार। उस जमाने में यह संख्या अपने आप में एक कीर्तिमान मानी जाती थी। .

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अरुणचन्द्र चक्रवर्ती (स्वतंत्रता संग्राम सेनानी)

श्री अरुणचन्द्र चक्रवर्ती वृंदावन, मथुरा, जनपद के निवासी थे तथा स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की सूची में इनका नाम है। सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग लेने के कारण सन् १९३२ में ६ माह के कारावास तथा २५ रुपए का अर्थ दण्ड मिला। श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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अर्जुन प्रसाद (स्वतंत्रता संग्राम सेनानी)

श्री अर्जुन प्रसाद वृंदावन (मथुरा) में प्रेम महाविद्यालय में रहते थे। इन्हें नमक सत्याग्रह और विदेशी वस्तु बहिष्कार आन्दोलन में भाग लेने के कारण सन् १९३० ई० में ६ महीने का कारावास हुआ। श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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अलवर जिला

अलवर भारतीय राज्य राजस्थान का एक जिला है। जिले का मुख्यालय अलवर है। यह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का हिस्सा भी है। राजस्थान की राजधानी जयपुर से करीब १७० कि॰मी॰ की दूरी पर है। अलवर अरावली की पहाडियो के मध्य में बसा है। .

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अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन

अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन, हिन्दी भाषा एवं साहित्य तथा देवनागरी का प्रचार-प्रसार को समर्पित एक प्रमुख सार्वजनिक संस्था है। इसका मुख्यालय प्रयाग (इलाहाबाद) में है जिसमें छापाखाना, पुस्तकालय, संग्रहालय एवं प्रशासनिक भवन हैं। हिंदी साहित्य सम्मेलन ने ही सर्वप्रथम हिंदी लेखकों को प्रोत्साहित करने के लिए उनकी रचनाओं पर पुरस्कारों आदि की योजना चलाई। उसके मंगलाप्रसाद पारितोषिक की हिंदी जगत् में पर्याप्त प्रतिष्ठा है। सम्मेलन द्वारा महिला लेखकों के प्रोत्साहन का भी कार्य हुआ। इसके लिए उसने सेकसरिया महिला पारितोषिक चलाया। सम्मेलन के द्वारा हिंदी की अनेक उच्च कोटि की पाठ्य एवं साहित्यिक पुस्तकों, पारिभाषिक शब्दकोशों एवं संदर्भग्रंथों का भी प्रकाशन हुआ है जिनकी संख्या डेढ़-दो सौ के करीब है। सम्मेलन के हिंदी संग्रहालय में हिंदी की हस्तलिखित पांडुलिपियों का भी संग्रह है। इतिहास के विद्वान् मेजर वामनदास वसु की बहुमूल्य पुस्तकों का संग्रह भी सम्मेलन के संग्रहालय में है, जिसमें पाँच हजार के करीब दुर्लभ पुस्तकें संगृहीत हैं। .

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अक्रूर

अक्रूर कृष्णकालीन एक यादववंशी मान्य व्यक्ति थे। ये सात्वत वंश में उत्पन्न वृष्णि के पौत्र थे। इनके पिता का नाम श्वफल्क था जिनके साथ काशी के राजा अपनी पुत्री गांदिनी का विवाह किया था। इन्हीं दोनों की संतान होने से अक्रूर श्वाफल्कि तथा गांदिनीनंदन के नाम से भी प्रसिद्ध थे। मथुरा के राजा कंस की सलाह पर बलराम तथा कृष्ण को वृन्दावन से मथुरा लाए (भागवत १०.४०)। स्यमंतक मणि से भी इनका बहुत संबंध था। अक्रूर तथा कृतवर्मा द्वारा प्रोत्साहित होने पर शतधन्वा ने कृष्ण के श्वसुर तथा सत्यभामा के पिता सत्राजित का वध कर दिया। फलतः क्रुद्ध होकर श्रीकृष्ण ने शतधन्वा को मिथिला तक पीछा कर मार डाला, पर मणि उसके पास नहीं निकली। वह मणि अक्रूर के ही पास थी जो डरकर द्वारिका से बाहर चले गए थे। उन्हें मनाकर कृष्ण मथुरा लाए तथा अपने बंधु वर्गों में बढ़ने वाले कलह को उन्होंने शांत किया (भागवत १०.५७)। श्रेणी:पौराणिक पात्र.

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अक्षय तृतीया

अक्षय तृतीया या आखा तीज वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को कहते हैं। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस दिन जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं, उनका अक्षय फल मिलता है।। वेब दुनिया इसी कारण इसे अक्षय तृतीया कहा जाता है।। नवभारत टाइम्स। २७ अप्रैल २००९। पं.केवल आनंद जोशी वैसे तो सभी बारह महीनों की शुक्ल पक्षीय तृतीया शुभ होती है, किंतु वैशाख माह की तिथि स्वयंसिद्ध मुहूर्तो में मानी गई है। .

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अक्षय वट

पुराणों में वर्णन आता है कि कल्पांत या प्रलय में जब समस्त पृथ्वी जल में डूब जाती है उस समय भी वट का एक वृक्ष बच जाता है। अक्षय वट कहलाने वाले इस वृक्ष के एक पत्ते पर ईश्वर बालरूप में विद्यमान रहकर सृष्टि के अनादि रहस्य का अवलोकन करते हैं। अक्षय वट के संदर्भ कालिदास के रघुवंश तथा चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के यात्रा विवरणों में मिलते हैं। भारतवर्ष में क्रमशः चार पौराणिक पवित्र वटवृक्ष हैं--- गृद्धवट- सोरों 'शूकरक्षेत्र', अक्षयवट- प्रयाग, सिद्धवट- उज्जैन और वंशीवट- वृन्दावन। .

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उत्तर प्रदेश

आगरा और अवध संयुक्त प्रांत 1903 उत्तर प्रदेश सरकार का राजचिन्ह उत्तर प्रदेश भारत का सबसे बड़ा (जनसंख्या के आधार पर) राज्य है। लखनऊ प्रदेश की प्रशासनिक व विधायिक राजधानी है और इलाहाबाद न्यायिक राजधानी है। आगरा, अयोध्या, कानपुर, झाँसी, बरेली, मेरठ, वाराणसी, गोरखपुर, मथुरा, मुरादाबाद तथा आज़मगढ़ प्रदेश के अन्य महत्त्वपूर्ण शहर हैं। राज्य के उत्तर में उत्तराखण्ड तथा हिमाचल प्रदेश, पश्चिम में हरियाणा, दिल्ली तथा राजस्थान, दक्षिण में मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ और पूर्व में बिहार तथा झारखंड राज्य स्थित हैं। इनके अतिरिक्त राज्य की की पूर्वोत्तर दिशा में नेपाल देश है। सन २००० में भारतीय संसद ने उत्तर प्रदेश के उत्तर पश्चिमी (मुख्यतः पहाड़ी) भाग से उत्तरांचल (वर्तमान में उत्तराखंड) राज्य का निर्माण किया। उत्तर प्रदेश का अधिकतर हिस्सा सघन आबादी वाले गंगा और यमुना। विश्व में केवल पाँच राष्ट्र चीन, स्वयं भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, इंडोनिशिया और ब्राज़ील की जनसंख्या उत्तर प्रदेश की जनसंख्या से अधिक है। उत्तर प्रदेश भारत के उत्तर में स्थित है। यह राज्य उत्तर में नेपाल व उत्तराखण्ड, दक्षिण में मध्य प्रदेश, पश्चिम में हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान तथा पूर्व में बिहार तथा दक्षिण-पूर्व में झारखण्ड व छत्तीसगढ़ से घिरा हुआ है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ है। यह राज्य २,३८,५६६ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला हुआ है। यहाँ का मुख्य न्यायालय इलाहाबाद में है। कानपुर, झाँसी, बाँदा, हमीरपुर, चित्रकूट, जालौन, महोबा, ललितपुर, लखीमपुर खीरी, वाराणसी, इलाहाबाद, मेरठ, गोरखपुर, नोएडा, मथुरा, मुरादाबाद, गाजियाबाद, अलीगढ़, सुल्तानपुर, फैजाबाद, बरेली, आज़मगढ़, मुज़फ्फरनगर, सहारनपुर यहाँ के मुख्य शहर हैं। .

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उदासी सम्प्रदाय

उदासी संप्रदाय सिख-साधुओं का एक सम्प्रदाय है जिसकी कुछ शिक्षाएँ सिख पंथ से लीं गयीं हैं। इसके संस्थापक गुरु नानक के पुत्र श्री चन्द (1494–1643) थे। ये लोग सनातन धर्म को मानते हैं तथा पंच-प्रकृति (जल, अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश) की पूजा करते हैं। उदासी सम्प्रदाय के साधु सांसारिक बातों की ओर से विशेष रूप से तटस्थ रहते आए हैं और इनकी भोली भाली एवं सादी अहिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण इन्हें सिख गुरु अमरदास तथा गुरु गोविन्द सिंह ने जैन धर्म द्वारा प्रभावित और अकर्मण्य तक मान लिया था। परंतु गुरु हरगोविंद के पुत्र बाबा गुराँदित्ता ने संप्रदाय के संगठन एवं विकास में सहयोग दिया और तब से इसका अधिक प्रचार भी हुआ। .

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छोटी बहू

छोटी बहू - सिंदूर बिन सुहागन एक हिन्दी भाषा में बनी भारतीय पारिवारिक धारावाहिक है। इसका प्रसारण ज़ी टीवी पर 8 दिसम्बर 2008 से शुरू हुआ और 17 सितम्बर 2010 को समाप्त हो गया। इसके बाद इसका दूसरा संस्करण 15 फरवरी 2011 से 18 मई 2012 तक प्रसारित हुआ। .

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