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लक्षण

सूची लक्षण

लक्षण का अर्थ है - 'पहचान का चिह्न' या गुणधर्म या प्रकृति। किसी पदार्थ की वह विशेषता जिसके द्वारा वह पहचाना जाय। वे गुण आदि जो किसी पदार्थ में विशिष्ट रूप से हों और जिनके द्वारा सहज में उसका ज्ञान हो सके। जैसे,—आकाश के लक्षण से जान पड़ता है कि आज पानी बरसेगा। शरीर में दिखाई पड़नेवाले वे चिह्न आदि जो किसी रोग के सूचक हों, भी 'लक्षण' कहलाते हैं। जैसे,—इस रोगी में क्षय के सभी लक्षण दिखाई देते हैं। सामुद्रिक के अनुसार शरीर के अँगों में मिलने वाले कुछ विशेष चिह्न भी लक्षण कहे जाते हैं जो शुभ या अशुभ माने जाते हैं। जैसे,—चक्रवर्ती और बुद्ध के लक्षण एक से होते हैं। लक्षणों को जाननेवाला या शुभ अशुभ चिह्नों का ज्ञाता लक्षणज्ञ कहलाता है। काव्य या साहित्य के लक्षणों का विवेचन करनेवाला ग्रंथ लक्षण ग्रंथ कहलाता है। दूसरे शब्दों में, लक्षण ग्रन्थ का अर्थ साहित्यिक समीक्षा की पुस्तक या 'समालोचना शास्त्र' है। .

14 संबंधों: ऐल्ब्युमिनमेह, निष्पादन-मूल्यांकन, नेत्र परीक्षण, परिभाषा, पित्ताशय का कर्कट रोग, प्राकृतिक चिकित्सा, पीलिया, मूर्च्छा, यकृत शोथ, लक्षणा, जैव सांख्यिकी (बॉयोमेट्रिक्स), गर्भकालीन मधुमेह, गौतम बुद्ध के महालक्षण, आंखों के काले घेरे

ऐल्ब्युमिनमेह

ऐल्ब्युमिनमेह (Albuminuria) एक रोग है, जिसके होने पर मूत्र में असामान्य मात्रा में ऐलब्युमिन पाया जाता है। यह एक प्रकार का प्रोटीनमेह (proteinuria) है। सामान्य अवस्था में सभी के मूत्र में ऐल्बुमिन पाया जाता है किन्तु वृक्क (किडनी) के रोग होने पर मूत्र में ऐल्बुमिन की मात्रा बहुत बढ़ जाती है। ऐलब्युमिनमेह स्वयं कोई रोग नहीं है; वह कुछ रोगों का केवल एक लक्षण है। मूत्र को गरम करके उसमें नाइट्रिक अम्ल या सल्फ़ोसैलिसिलिक अम्ल मिलाकर ऐलब्युमिन की जाँच की जाती है। बेस जोंस नामक प्रोटीनों की उपस्थिति में ५५ डिग्री सेल्सियस तक गरम करने पर गँदलापन आने लगता है। किंतु ८० डिग्री सेल्सियस तक उसे गरम करने पर गँदलापन जाता रहता है। इस गँदलेपन को मापा जा सकता है और कैलोरीमापक विधि से उसकी मात्रा भी ज्ञात की जा सकती है। निम्नलिखित रोगों में ऐलब्युमिन मूत्र में पाया जाता है.

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निष्पादन-मूल्यांकन

निष्पादन-मूल्यांकन, कर्मचारी मूल्यांकन के रूप में भी ज्ञात, एक ऐसी विधि है जिसके द्वारा किसी कर्मचारी के कार्य निष्पादन को मूल्यांकित किया जाता है (साधारणतया गुण, मात्रा, लागत एवं समय के संबंध में).

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नेत्र परीक्षण

आँख से सम्बन्धित विभिन्न विशेषज्ञों (नेत्रविज्ञानी, दृष्‍टिमितिज्ञ, आदि) द्वारा आँखों की क्षमता तथा उनकी फोकस करने की क्षमता आदि की जाँच को नेत्र परीक्षण (eye examination) कहते हैं। चिकित्सक प्रायः कहते रहते हैं कि सभी लोगों को समय-समय पर अपने आँखों की जाँच कराते रहना चाहिए क्योंकि आँखों की अनेकों समस्याएँ दूसरे रोगों का लक्षण मात्र होतीं हैं। .

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परिभाषा

परिभाषा (फ्रेंच, अंग्रेजी, जर्मन: Definition) किसी भी विषय या वस्तु या चीज का संक्षिप्त और तार्किक वर्णन है, जो वस्तुओं के मूलभूत विशिष्ट गुण या संकल्पनाओं के अर्थ, अंतर्वस्तु और सीमाएं बताता है। किसी शब्द या वाक्यांश या संकेत की व्याख्या करने वाले गद्यांश को भी परिभाषा कह सकते हैं। उदाहरण के लिए, भौतिकी में 'शक्ति' की परिभाषा निम्नलिखित प्रकार से की जाती है- .

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पित्ताशय का कर्कट रोग

पित्ताशय का कर्कट रोग एक प्रकार का कम घटित होने वाला कर्कट रोग है। भौगोलिक रूप से इसकी व्याप्ति विचित्र है - उत्तरी भारत, जापान, केंद्रीय व पूर्वी यूरोप, केंद्रीय व दक्षिण अमरीका में अधिक देखा गया है; कुछ खास जातीय समूहों में यह अधिक पाया जाता है - उ. उत्तर अमरीकी मूल निवासियों में और हिस्पैनिकों में। जल्दी निदान होने पर पित्ताशय, यकृत का कुछ अंश और लसीकापर्व निकाल के इसका इलाज किया जा सकता है। अधिकतर इसका पता उदरीय पीड़ा, पीलिया और उल्टी आने, जैसे लक्षणों से पता चलता है और तब तक यह यकृत जैसे अन्य अंगों तक फैल चुका होता है। यह काफ़ी विरला होने वाला कर्कट रोग है और इसका अध्ययन अभी भी हो रहा है। पित्ताशय में पथरी होने से इसका संबंध माना जा रहा है, इससे पित्ताशय का कैल्सीकरण भी हो सकता है ऐसी स्थिति को चीनीमिट्टी पित्ताशय कहते हैं। चीनीमिट्टी पित्ताशय भी काफ़ी विरला होने वाला रोग है। अध्ययनों से यह पता चल रहा है कि चिनीमिट्टी पित्ताशय से ग्रस्त लोगों में पित्ताशय का कर्कट रोग होने की अधिक संभावना है, लेकिन अन्य अध्ययन इसी निष्कर्ष पर सवालिया निशान भी लगाते हैं। अगर कर्कट रोग के बारे में लक्षण प्रकट होने के बाद पता चलता है तो स्वास्थ्य लाभ की संभावना कम है। .

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प्राकृतिक चिकित्सा

प्राकृतिक चिकित्सा (नेचुरोपैथी / naturopathy) एक चिकित्सा-दर्शन है। इसके अन्तर्गत रोगों का उपचार व स्वास्थ्य-लाभ का आधार है - 'रोगाणुओं से लड़ने की शरीर की स्वाभाविक शक्ति'। प्राकृतिक चिकित्सा के अन्तर्गत अनेक पद्धतियां हैं जैसे - जल चिकित्सा, होमियोपैथी, सूर्य चिकित्सा, एक्यूपंक्चर, एक्यूप्रेशर, मृदा चिकित्सा आदि। प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचलन में विश्व की कई चिकित्सा पद्धतियों का योगदान है; जैसे भारत का आयुर्वेद तथा यूरोप का 'नेचर क्योर'। प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली चिकित्सा की एक रचनात्मक विधि है, जिसका लक्ष्य प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध तत्त्वों के उचित इस्तेमाल द्वारा रोग का मूल कारण समाप्त करना है। यह न केवल एक चिकित्सा पद्धति है बल्कि मानव शरीर में उपस्थित आंतरिक महत्त्वपूर्ण शक्तियों या प्राकृतिक तत्त्वों के अनुरूप एक जीवन-शैली है। यह जीवन कला तथा विज्ञान में एक संपूर्ण क्रांति है। इस प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में प्राकृतिक भोजन, विशेषकर ताजे फल तथा कच्ची व हलकी पकी सब्जियाँ विभिन्न बीमारियों के इलाज में निर्णायक भूमिका निभाती हैं। प्राकृतिक चिकित्सा निर्धन व्यक्तियों एवं गरीब देशों के लिये विशेष रूप से वरदान है। .

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पीलिया

रक्तरस में पित्तरंजक (Billrubin) नामक एक रंग होता है, जिसके आधिक्य से त्वचा और श्लेष्मिक कला में पीला रंग आ जाता है। इस दशा को कामला या पीलिया (Jaundice) कहते हैं। सामान्यत: रक्तरस में पित्तरंजक का स्तर 1.0 प्रतिशत या इससे कम होता है, किंतु जब इसकी मात्रा 2.5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब कामला के लक्षण प्रकट होते हैं। कामला स्वयं कोई रोगविशेष नहीं है, बल्कि कई रोगों में पाया जानेवाला एक लक्षण है। यह लक्षण नन्हें-नन्हें बच्चों से लेकर 80 साल तक के बूढ़ों में उत्पन्न हो सकता है। यदि पित्तरंजक की विभिन्न उपापचयिक प्रक्रियाओं में से किसी में भी कोई दोष उत्पन्न हो जाता है तो पित्तरंजक की अधिकता हो जाती है, जो कामला के कारण होती है। रक्त में लाल कणों का अधिक नष्ट होना तथा उसके परिणामस्वरूप अप्रत्यक्ष पित्तरंजक का अधिक बनना बच्चों में कामला, नवजात शिशु में रक्त-कोशिका-नाश तथा अन्य जन्मजात, अथवा अर्जित, रक्त-कोशिका-नाश-जनित रक्ताल्पता इत्यादि रोगों का कारण होता है। जब यकृत की कोशिकाएँ अस्वस्थ होती हैं तब भी कामला हो सकता है, क्योंकि वे अपना पित्तरंजक मिश्रण का स्वाभाविक कार्य नहीं कर पातीं और यह विकृति संक्रामक यकृतप्रदाह, रक्तरसीय यकृतप्रदाह और यकृत का पथरा जाना (कड़ा हो जाना, Cirrhosis) इत्यादि प्रसिद्ध रोगों का कारण होती है। अंतत: यदि पित्तमार्ग में अवरोध होता है तो पित्तप्रणाली में अधिक प्रत्यक्ष पित्तरंजक का संग्रह होता है और यह प्रत्यक्ष पित्तरंजक पुन: रक्त में शोषित होकर कामला की उत्पत्ति करता है। अग्नाशय, सिर, पित्तमार्ग तथा पित्तप्रणाली के कैंसरों में, पित्ताश्मरी की उपस्थिति में, जन्मजात पैत्तिक संकोच और पित्तमार्ग के विकृत संकोच इत्यादि शल्य रोगों में मार्गाविरोध यकृत बाहर होता है। यकृत के आंतरिक रोगों में यकृत के भीतर की वाहिनियों में संकोच होता है, अत: प्रत्यक्ष पित्तरंजक के अतिरिक्त रक्त में प्रत्यक्ष पित्तरंजक का आधिक्य हो जाता है। वास्तविक रोग का निदान कर सकने के लिए पित्तरंजक का उपापचय (Metabolism) समझना आवश्यक है। रक्तसंचरण में रक्त के लाल कण नष्ट होते रहते हैं और इस प्रकार मुक्त हुआ हीमोग्लोबिन रेटिकुलो-एंडोथीलियल (Reticulo-endothelial) प्रणाली में विभिन्न मिश्रित प्रक्रियाओं के उपरांत पित्तरंजक के रूप में परिणत हो जाता है, जो विस्तृत रूप से शरीर में फैल जाता हैस, किंतु इसका अधिक परिमाण प्लीहा में इकट्ठा होता है। यह पित्तरंजक एक प्रोटीन के साथ मिश्रित होकर रक्तरस में संचरित होता रहता है। इसको अप्रत्यक्ष पित्तरंजक कहते हैं। यकृत के सामान्यत: स्वस्थ अणु इस अप्रत्यक्ष पित्तरंजक को ग्रहण कर लेते हैं और उसमें ग्लूकोरॉनिक अम्ल मिला देते हैं यकृत की कोशिकाओं में से गुजरता हुआ पित्तमार्ग द्वारा प्रत्यक्ष पित्तरंजक के रूप में छोटी आँतों की ओर जाता है। आँतों में यह पित्तरंजक यूरोबिलिनोजन में परिवर्तित होता है जिसका कुछ अंश शोषित होकर रक्तरस के साथ जाता है और कुछ भाग, जो विष्ठा को अपना भूरा रंग प्रदान करता है, विष्ठा के साथ शरीर से निकल जाता है। प्रत्येक दशा में रोगी की आँख (सफेदवाला भाग Sclera) की त्वचा पीली हो जाती है, साथ ही साथ रोगविशेष काभी लक्षण मिलता है। वैसे सामान्यत: रोगी की तिल्ली बढ़ जाती है, पाखाना भूरा या मिट्टी के रंग का, ज्यादा तथा चिकना होता है। भूख कम लगती है। मुँह में धातु का स्वाद बना रहता है। नाड़ी के गति कम हो जाती है। विटामिन 'के' का शोषण ठीक से न हो पाने के कारण तथा रक्तसंचार को अवरुद्ध (haemorrhage) होने लगता है। पित्तमार्ग में काफी समय तक अवरोध रहने से यकृत की कोशिकाएँ नष्ट होने लगती हैं। उस समय रोगी शिथिल, अर्धविक्षिप्त और कभी-कभी पूर्ण विक्षिप्त हो जाता है तथा मर भी जाता है। कामला के उपचार के पूर्व रोग के कारण का पता लगाया जाता है। इसके लिए रक्त की जाँच, पाखाने की जाँच तथा यकृत-की कार्यशक्ति की जाँच करते हैं। इससे यह पता लगता है कि यह रक्त में लाल कणों के अधिक नष्ट होने से है या यकृत की कोशिकाएँ अस्वस्थ हैं अथवा पित्तमार्ग में अवरोध होने से है। पीलिया की चिकित्सा में इसे उत्पन्न करने वाले कारणों का निर्मूलन किया जाता है जिसके लिए रोगी को अस्पताल में भर्ती कराना आवश्यक हो जाता है। कुछ मिर्च, मसाला, तेल, घी, प्रोटीन पूर्णरूपेण बंद कर देते हैं, कुछ लोगों के अनुसार किसी भी खाद्यसामग्री को पूर्णरूपेण न बंद कर, रोगी के ऊपर ही छोड़ दिया जाता है कि वह जो पसंद करे, खा सकता है। औषधि साधारणत: टेट्रासाइक्लीन तथा नियोमाइसिन दी जाती है। कभी-कभी कार्टिकोसिटरायड (Corticosteriod) का भी प्रयोग किया जाता है जो यकृत में फ़ाइब्रोसिस और अवरोध उत्पन्न नहीं होने देता। यकृत अपना कार्य ठीक से संपादित करे, इसके लिए दवाएँ दी जाती हैं जैसे लिव-52, हिपालिव, लिवोमिन इत्यादि। कामला के पित्तरंजक को रक्त से निकालने के लिए काइनेटोमिन (Kinetomin) का प्रयोग किया जाता है। कामला के उपचार में लापरवाही करने से जब रोग पुराना हो जाता है तब एक से एक बढ़कर नई परेशानियाँ उत्पन्न होती जाती हैं और रोगी विभिन्न स्थितियों से गुजरता हुआ कालकवलित हो जाता है। पीलिया रोग वायरल हैपेटाइटिस या जोन्डिस को साधारणत: लोग पीलिया के नाम से जानते हैं। यह रोग बहुत ही सूक्ष्‍म विषाणु (वाइरस) से होता है। शुरू में जब रोग धीमी गति से व मामूली होता है तब इसके लक्षण दिखाई नहीं पडते हैं, परन्‍तु जब यह उग्र रूप धारण कर लेता है तो रोगी की आंखे व नाखून पीले दिखाई देने लगते हैं, लोग इसे पीलिया कहते हैं। जिन वाइरस से यह होता है उसके आधार पर मुख्‍यतः पीलिया तीन प्रकार का होता है वायरल हैपेटाइटिस ए, वायरल हैपेटाइटिस बी तथा वायरल हैपेटाइटिस नान ए व नान बी। रोग का प्रसार कैसे? यह रोग ज्‍यादातर ऐसे स्‍थानो पर होता है जहाँ के लोग व्‍यक्तिगत व वातावरणीय सफाई पर कम ध्‍यान देते हैं अथवा बिल्‍कुल ध्‍यान नहीं देते। भीड-भाड वाले इलाकों में भी यह ज्‍यादा होता है। वायरल हैपटाइटिस बी किसी भी मौसम में हो सकता है। वायरल हैपटाइटिस ए तथा नाए व नान बी एक व्‍यक्ति से दूसरे व्‍यक्ति के नजदीकी सम्‍पर्क से होता है। ये वायरस रोगी के मल में होतें है पीलिया रोग से पीडित व्‍यक्ति के मल से, दूषित जल, दूध अथवा भोजन द्वारा इसका प्रसार होता है। ऐसा हो सकता है कि कुछ रोगियों की आंख, नाखून या शरीर आदि पीले नही दिख रहे हों परन्‍तु यदि वे इस रोग से ग्रस्‍त हो तो अन्‍य रोगियो की तरह ही रोग को फैला सकते हैं। वायरल हैपटाइटिस बी खून व खून व खून से निर्मित प्रदार्थो के आदान प्रदान एवं यौन क्रिया द्वारा फैलता है। इसमें वह व्‍यक्ति हो देता है उसे भी रोगी बना देता है। यहाँ खून देने वाला रोगी व्‍यक्ति रोग वाहक बन जाता है। बिना उबाली सुई और सिरेंज से इन्‍जेक्‍शन लगाने पर भी यह रोग फैल सकता है। पीलिया रोग से ग्रस्‍त व्‍यक्ति वायरस, निरोग मनुष्‍य के शरीर में प्रत्‍यक्ष रूप से अंगुलियों से और अप्रत्‍यक्ष रूप से रोगी के मल से या मक्खियों द्वारा पहूंच जाते हैं। इससे स्‍वस्‍थ्‍य मनुष्‍य भी रोग ग्रस्‍त हो जाता है। रोग कहाँ और कब? ए प्रकार का पीलिया तथा नान ए व नान बी पीलिया सारे संसार में पाया जाता है। भारत में भी इस रोग की महामारी के रूप में फैलने की घटनायें प्रकाश में आई हैं। हालांकि यह रोग वर्ष में कभी भी हो सकता है परन्‍तु अगस्‍त, सितम्‍बर व अक्‍टूबर महिनों में लोग इस रोग के अधिक शिकार होते हैं। सर्दी शुरू होने पर इसके प्रसार में कमी आ जाती है। रोग के लक्षण:- पीलिया रोग के कारण हैः- रोग किसे हो सकता है? यह रोग किसी भी अवस्‍था के व्‍यक्ति को हो सकता है। हाँ, रोग की उग्रता रोगी की अवस्‍था पर जरूर निर्भर करती है। गर्भवती महिला पर इस रोग के लक्षण बहुत ही उग्र होते हैं और उन्‍हे यह ज्‍यादा समय तक कष्‍ट देता है। इसी प्रकार नवजात शिशुओं में भी यह बहुत उग्र होता है तथा जानलेवा भी हो सकता है। बी प्रकार का वायरल हैपेटाइटिस व्‍यावसायिक खून देने वाले व्‍यक्तियों से खून प्राप्‍त करने वाले व्‍यक्तियों को और मादक दवाओं का सेवन करने वाले एवं अनजान व्‍यक्ति से यौन सम्‍बन्‍धों द्वारा लोगों को ज्‍यादा होता है। रोग की जटिलताऍं:- ज्‍यादातार लोगों पर इस रोग का आक्रमण साधारण ही होता है। परन्‍तु कभी-कभी रोग की भीषणता के कारण कठिन लीवर (यकृत) दोष उत्‍पन्‍न हो जाता है। बी प्रकार का पीलिया (वायरल हैपेटाइटिस) ज्‍यादा गम्‍भीर होता है इसमें जटिलताएं अधिक होती है। इसकी मृत्‍यु दर भी अधिक होती है। उपचार:- रोग की रोकथाम एवं बचाव पीलिया रोग के प्रकोप से बचने के लिये कुछ साधारण बातों का ध्‍यान रखना जरूरी हैः- स्‍वास्‍थ्‍य कार्यकर्ता ध्‍यान दें यदि आपके क्षेत्र में किसी परिवार में रोग के लक्षण वाला व्‍यक्ति हो तो उसे डॉक्‍टर के पास जाने की सलाह दें। क्षेत्र में व्‍यक्तिगत सफाई व तातावरणीय स्‍वच्‍छता के बारे में बताये तथा पंचायत आदि से कूडा, कचरा, मल, मूत्र आदि के निष्‍कासन का इन्‍तजाम कराने का प्रयास करें। रोगी की देखभाल ठीक हो, ऐसा परिवार के सदस्‍यों को समझायें। रोगी की सेवा करने वाले को समझायें कि हाथ अच्‍छी तरह धोकर ही सब काम करें। स्‍वास्‍थ्‍या कार्यकर्ता सीरिंज व सुई 20 मिनिट तक उबाल कर अथवा डिसपोजेबल काम में लें। रोगी का रक्‍त लेते समय व सर्जरी करते समय दस्‍ताने पहनें व रक्‍त के सम्‍पर्क में आने वाले औजारों को अच्‍छी तरह उबालें। रक्‍त व सम्‍बन्धित शारीरिक द्रव्‍य प्रदार्थो पर कीटाणुनाशक डाल कर ही उन्‍हे उपयुक्‍त स्‍थान पर फेंके अथवा नष्‍ट करें। जरा सी सावधानी-पीलिया से बचाव .

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मूर्च्छा

मूर्च्छा (syncope) या बेहोशी मानव शरीर की वह स्थिति है जिसमें उसकी चैतन्य शक्ति और मांसपेशियो की शक्ति समाप्त हो जाती है। यह स्थिति तब होती है जब शरीर में किसी बाहरी या अंदरूनी चोट के कारण बहुत ज्यादा रक्तस्राव होता है; किसी प्रकार के शॉक से अचानक हृदय पर दबाव पड़ता है, तापमान कम हो जाता है, शरीर को झटका लगता है या कोई अचानक गिर जाए तो भी बेहोशी की स्थिति होती है। बेहोशी कभी-कभी किसी बीमारी के कारण भी हो जाती है। बेहोशी के लक्षण में चेहरे एवम होंठो पर अस्वाभाविक पीलापन उत्पन्न हो जाता है। शरीर की त्वचा ठंडी एवम चिपचिपी हो जाती है। बेचैनी और थकावट महसूस होना बेहोशी से पहले आम बात है। सर का चकराना, दृष्टि भ्रम होना यह सब लक्षण बेहोशी के होते हैं। .

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यकृत शोथ

हेपाटाइटिस या यकृत शोथ यकृत को हानि पहुंचाने वाला एक गंभीर और खतरनाक रोग होता है। इसका शाब्दिक अर्थ ही यकृत को आघात पहुंचना है। यह नाम प्राचीन ग्रीक शब्द हेपार (ἧπαρ), मूल शब्द हेपैट - (ἡπατ-) जिसका अर्थ यकृत और प्रत्यय -आइटिस जिसका अर्थ सूज़न है, से व्युत्पन्न है। इसके प्रमुख लक्षणों में अंगो के उत्तकों में सूजी हुई कोशिकाओं की उपस्थिति आता है, जो आगे चलकर पीलिया का रूप ले लेता है। यह स्थिति स्वतः नियंत्रण वाली हो सकती है, यह स्वयं ठीक हो सकता है, या यकृत में घाव के चिह्न रूप में विकसित हो सकता है। हैपेटाइटिस अतिपाती हो सकता है, यदि यह छः महीने से कम समय में ठीक हो जाये। अधिक समय तक जारी रहने पर चिरकालिक हो जाता है और बढ़ने पर प्राणघातक भी हो सकता है।। हिन्दुस्तान लाइव। १८ मई २०१० हेपाटाइटिस विषाणुओं के रूप में जाना जाने वाला विषाणुओं का एक समूह विश्व भर में यकृत को आघात पहुंचने के अधिकांश मामलों के लिए उत्तरदायी होता है। हेपाटाइटिस जीवविषों (विशेष रूप से शराब (एल्कोहोल)), अन्य संक्रमणों या स्व-प्रतिरक्षी प्रक्रिया से भी हो सकता है। जब प्रभावित व्यक्ति बीमार महसूस नहीं करता है तो यह उप-नैदानिक क्रम विकसित कर सकता है। यकृत यानी लिवर शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग है। वह भोजन पचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शरीर में जो भी रासायनिक क्रियाएं एवं परिवर्तन यानि उपापचय होते हैं, उनमें यकृत विशेष सहायता करता है। यदि यकृत सही ढंग से अपना काम नहीं करता या किसी कारण वे काम करना बंद कर देता है तो व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के रोग हो सकते हैं। जब रोग अन्य लक्षणों के साथ-साथ यकृत से हानिकारक पदार्थों के निष्कासन, रक्त की संरचना के नियंत्रण और पाचन-सहायक पित्त के निर्माण में संलग्न यकृत के कार्यों में व्यवधान पहुंचाता है तो रोगी की तबीयत ख़राब हो जाती है और वह रोगसूचक हो जाता है। ये बढ़ने पर पीलिया का रूफ लेता है और अंतिम चरण में पहुंचने पर हेपेटाइटिस लिवर सिरोसिस और यकृत कैंसर का कारण भी बन सकता है। समय पर उपचार न होने पर इससे रोगी की मृत्यु तक हो सकती है। .

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लक्षणा

लक्षणा शब्द-शक्ति का एक प्रकार है। लक्षणा, शब्द की वह शक्ति है जिससे उसका अभिप्राय सूचित होता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि शब्द के साधारण अर्थ से उसका वास्तविक अभिप्राय नहीं प्रकट होता। वास्तविक अभिप्राय उसके साधारण अर्थ से कुछ भिन्न होता है। शब्द को जिस शक्ति से उसका वह साधारण से भिन्न और दूसरा वास्तविक अर्थ प्रकट होता है, उसे लक्षणा कहते हैं। शब्द का वह अर्थ जो अभिधा शक्ति द्वारा प्राप्त न हो बल्कि लक्षणा शक्ति द्वारा प्राप्त हो, लक्षितार्थ कहलाता है। .

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जैव सांख्यिकी (बॉयोमेट्रिक्स)

वॉल्ट डिज़नी वर्ल्ड में बॉयोमेट्रिक माप मेहमानों की उंगलियों से यह सुनिश्चित करने के लिए लिये जाते हैं कि व्यक्ति की टिकट का इस्तेमाल दिन-प्रतिदिन एक ही व्यक्ति द्वारा किया जाता रहे. बॉयोमेट्रिक्स विशिष्टतया एक या एक से अधिक आंतरिक शारीरिक या व्यवहारिक लक्षण पर आधारित मानव पहचानने के तरीकों के सन्दर्भ में प्रयुक्त होता है। सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में, विशेष रूप से, बॉयोमेट्रिक्स का उपयोग परिचय अभिगम प्रबंधन और अभिगम नियंत्रण के रूप में किया जाता है। इसका उपयोग किसी समूह में शामिल व्यक्ति विशेष की पहचान करने में किया जाता है, जो निगरानी में रहते हैं। .

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गर्भकालीन मधुमेह

गर्भकालीन मधुमेह (या गर्भकालीन मधुमेह मेलिटस, जीडीएम (GDM)) एक ऐसी स्थिति होती है जिसमें ऐसी महिलाओं में, जिनमें पहले से मधुमेह का निदान न हुआ हो, गर्भावस्था के समय रक्त में शर्करा के उच्च स्तर पाए जाते हैं। गर्भकालीन मधुमेह के साधारणतः बहुत कम लक्षण होते हैं और इसका निदान अधिकतर गर्भावस्था में जांच के समय किया जाता है। रोग की पहचान के लिए किए जाने वाले परीक्षणों से रक्त के नमूनों में ग्लूकोज़ के अनुपयुक्त उच्च स्तर का पता चलता है। गर्भकालीन मधुमेह अध्ययनाधीन आबादी के अनुसार सभी सगर्भताओं के 3-10% को प्रभावित करती है।थॉमस आर मूर के प्रबंध निदेशक एट अल.

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गौतम बुद्ध के महालक्षण

परम्परागत रूप से माना जाता है कि गौतम बुद्ध में ३२ महापुरुष-लक्षण विद्यामान थे। मान्यता है कि ये ३२ लक्षण चक्रवर्ती राजाओं में भी विद्यमान होते हैं। दीर्घनिकाय के लक्खन सुत्त में ३२ लक्षणों का वर्णन है। मज्झिम निकाय के ब्रह्मायु सुत्त में भी इन लक्षणों की चर्चा है। ये ३२ मुख्य लक्षण ये हैं- १ सुप्पतिट्ठितपादो – (सुप्रतिष्ठित पादौ) -- समतल पाँव २ चक्रवरन्कित -- दोनों पाँवों के तलुवों पर १००० कड़ियों वाले चक्र ३ आयातपण्हि (आयत पार्ष्णि) - ४ दीघङ्गुलि (दीर्घाङ्गुलि) – हाथ और पैर की अंगुलियां लम्बी ५ मुदुतलुनहत्थपादो (मृदुतरुणहस्त पाद) ६ जाल हत्थोपादो (जाल हस्त पाद) ७ उस्सङ्गपादो (उस्सन्ख पाद) ८ एणिजङ्ख (एणी जँघ) ९ परिमसति परिमज्जति (आजान बाहु) -- घुटने तक लम्बी बाहें १० कोसोहितवत्थगुह्यो (कोषाच्छादित वस्ति गुह्य) ११ सुवर्णवण्णो – (सुवर्ण वर्ण) -- सोने के रंग की त्वचा १२ सुखुमच्छवि (सूक्ष्मछवि)- १३ एकेकलोमो (एक एक लोम) १४ उद्धग्गलोमो (उर्ध्वाग्रलोम) १५ ब्रह्मुजुगतोझ (ब्राह्मऋजु- गात्र) १६ सत्तुस्सदो (सप्त उद्सद) १७ सीहपुब्बद्धकायो (सिंहपूर्वार्धकाया) -- छाती सहित काया का मध्यभाग सिंह जैसा हो १८ चितन्तरसो (चिताँतराँस) १९ निग्रोधपरिमण्डलो (न्यग्रोध परिमण्डल) २० समवट्टक्खन्धो – (समवर्त स्कन्ध)- २१ रसग्गसग्गी (रस रसाग्रि) २२ सीहहनु (सिंहहनु) - सिंह के समान सुन्दर दाढ २३ चत्तालिस दन्तो (चत्तालिस दन्त) -- चालीस दांत २४ समदन्तो (समदन्त) -- दाँत आगे-पीचे न हों, समान पंक्तिबद्ध हों २५ अविरलदन्तो (अविवर दन्त) -- दांतों के बीच छिद्र न हों २६ सुसुक्कदाठो (सुशुक्लदाढ) -- २७ पहूतजिव्हो (प्रभूतजिव्हा) -- लम्बी जिह्वा २८ ब्रह्मस्सरो (ब्रह्मस्वर) -- २९ अभिनीलनेत् (अभिनीलनेत्र) -- अलसी जैसे नीले नेत्र ३० गोपखुमो (गो पक्ष्म) -- ३१ ओदाता उण्णा (श्वेत उर्णा) ३२ उण्हीससीसो (उष्णीष शीर्ष) .

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आंखों के काले घेरे

आँखों के नीचे काले धब्बे कुछ लोगों के आँखों के नीचे की त्वचा का रंग बदल जाता है और उसमें कालापना आ जाता है। इसे आंखों का काला घेरा (Periorbital dark circles या केवल 'dark circles') कहते हैं। यह समस्या लड़कियों में विशेष रूप से होती है। यह लक्षण कई कारणों से प्रकट हो सकते हैं। .

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