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मन्त्र

सूची मन्त्र

हिन्दू श्रुति ग्रंथों की कविता को पारंपरिक रूप से मंत्र कहा जाता है। इसका शाब्दिक अर्थ विचार या चिन्तन होता है । मंत्रणा, और मंत्री इसी मूल से बने शब्द हैं। मन्त्र भी एक प्रकार की वाणी है, परन्तु साधारण वाक्यों के समान वे हमको बन्धन में नहीं डालते, बल्कि बन्धन से मुक्त करते हैं। काफी चिन्तन-मनन के बाद किसी समस्या के समाधान के लिये जो उपाय/विधि/युक्ति निकलती है उसे भी सामान्य तौर पर मंत्र कह देते हैं। "षड कर्णो भिद्यते मंत्र" (छ: कानों में जाने से मंत्र नाकाम हो जाता है) - इसमें भी मंत्र का यही अर्थ है। .

91 संबंधों: चक्र, चौसठ कलाएँ, ञिङमा ग्युद्बुम, एकात्मता मंत्र, ऐनी हैथवे, णमोकार मंत्र, तन्त्र, तावीज़, द वेस्ट लैंड, दानस्तुति, दुर्गा सप्तशती के सिद्ध-मंत्र, देवता, देवी सूक्त, धारणी, नरसिंह, नाशी भाषा, नीलकण्ठ धारणी, पण्डित, परीक्षित, पहेली, पवमान मन्त्र, प्राण प्रतिष्ठा, प्रार्थना, पृथ्वीराज चौहान, पूर्णागिरी, फ़ारसी साहित्य, फुमी, बौद्ध धर्म एवं हिन्दू धर्म, भारतीय दर्शन, भारतीय संगीत का इतिहास, मन, मन्त्रपुष्पाञ्जलि, महर्षि गौतम, महाभारत, महामृत्युञ्जय मन्त्र, मान्त्रिक, मुत्तुस्वामी दीक्षित, मुद्रा (भाव भंगिमा), मुद्रा (संगीत), मोहनमंत्र, मीमांसासूत्र, योग, शान्ति मंत्र, शारदातिलक, शिवानन्द गोस्वामी, शुक्रनीति, श्री सूक्त, श्रीभार्गवराघवीयम्, श्रीसीतारामकेलिकौमुदी, सत्यमेव जयते, ..., सदाचार स्मृति, सरस्वती वंदना मंत्र, सर्वानुक्रमणी, सामगान, संध्यावन्दनम्, स्तोत्र, स्वस्तिक मन्त्र, स्वाधिष्ठान चक्र, सूर्य देवता, सूर्य नमस्कार, सूक्त, हरे कृष्ण (मंत्र), हिन्दू संस्कार का इतिहास, जॉन वुडरफ, वैदिक सभ्यता, वैदिक साहित्य, वैदिक स्वराघात, वेद, वेदपाठ, खिलानि, गाथा, गाथा (अवेस्ता), गायत्री मन्त्र, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, गौतम, ओं मणिपद्मे हूं, आदित्यहृदयम्, कनफटा, कलरीपायट्टु, अनाहत चक्र, अय्यप्प, अष्टावक्र (महाकाव्य), अस्त्र शस्त्र, अग्निपुराण, अंधविश्वास, उच्चाटन, उपदेश, उवट, ऋचा, ऋग्वेद संहिता, ॐ नमः शिवाय सूचकांक विस्तार (41 अधिक) »

चक्र

चक्र, (संस्कृत: चक्रम्); पालि: हक्क चक्का) एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ 'पहिया' या 'घूमना' है।परमहंस स्वामी महेश्वराआनंदा, मानव में छिपी बिजली, इबेरा वरलैग, पृष्ठ 54. ISBN 3-85052-197-4 भारतीय दर्शन और योग में चक्र प्राण या आत्मिक ऊर्जा के केन्द्र होते हैं। ये नाड़ियों के संगम स्थान भी होते हैं। यूँ तो कई चक्र हैं पर ५-७ चक्रों को मुख्य माना गया है। यौगिक ग्रन्थों में इनहें शरीर के कमल भी कहा गया है। प्रमुख चक्रों के नाम हैं-.

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चौसठ कलाएँ

दण्डी ने काव्यादर्श में कला को 'कामार्थसंश्रयाः' कहा है (अर्थात् काम और अर्थ कला के ऊपर आश्रय पाते हैं।) - नृत्यगीतप्रभृतयः कलाः कामार्थसंश्रयाः। भारतीय साहित्य में कलाओं की अलग-अलग गणना दी गयी है। कामसूत्र में ६४ कलाओं का वर्णन है। इसके अतिरिक्त 'प्रबन्ध कोश' तथा 'शुक्रनीति सार' में भी कलाओं की संख्या ६४ ही है। 'ललितविस्तर' में तो ८६ कलाएँ गिनायी गयी हैं। शैव तन्त्रों में चौंसठ कलाओं का उल्लेख मिलता है। कामसूत्र में वर्णित ६४ कलायें निम्नलिखित हैं- 1- गानविद्या 2- वाद्य - भांति-भांति के बाजे बजाना 3- नृत्य 4- नाट्य 5- चित्रकारी 6- बेल-बूटे बनाना 7- चावल और पुष्पादि से पूजा के उपहार की रचना करना 8- फूलों की सेज बनान 9- दांत, वस्त्र और अंगों को रंगना 10- मणियों की फर्श बनाना 11- शय्या-रचना (बिस्तर की सज्जा) 12- जल को बांध देना 13- विचित्र सिद्धियाँ दिखलाना 14- हार-माला आदि बनाना 15- कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना 16- कपड़े और गहने बनाना 17- फूलों के आभूषणों से श्रृंगार करना 18- कानों के पत्तों की रचना करना 19- सुगंध वस्तुएं-इत्र, तैल आदि बनाना 20- इंद्रजाल-जादूगरी 21- चाहे जैसा वेष धारण कर लेना 22- हाथ की फुती के काम 23- तरह-तरह खाने की वस्तुएं बनाना 24- तरह-तरह पीने के पदार्थ बनाना 25- सूई का काम 26- कठपुतली बनाना, नाचना 27- पहली 28- प्रतिमा आदि बनाना 29- कूटनीति 30- ग्रंथों के पढ़ाने की चातुरी 31- नाटक आख्यायिका आदि की रचना करना 32- समस्यापूर्ति करना 33- पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना 34- गलीचे, दरी आदि बनाना 35- बढ़ई की कारीगरी 36- गृह आदि बनाने की कारीगरी 37- सोने, चांदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा 38- सोना-चांदी आदि बना लेना 39- मणियों के रंग को पहचानना 40- खानों की पहचान 41- वृक्षों की चिकित्सा 42- भेड़ा, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति 43- तोता-मैना आदि की बोलियां बोलना 44- उच्चाटनकी विधि 45- केशों की सफाई का कौशल 46- मुट्ठी की चीज या मनकी बात बता देना 47- म्लेच्छित-कुतर्क-विकल्प 48- विभिन्न देशों की भाषा का ज्ञान 49- शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों उत्तर में शुभाशुभ बतलाना 50- नाना प्रकार के मातृकायन्त्र बनाना 51- रत्नों को नाना प्रकार के आकारों में काटना 52- सांकेतिक भाषा बनाना 53- मनमें कटकरचना करना 54- नयी-नयी बातें निकालना 55- छल से काम निकालना 56- समस्त कोशों का ज्ञान 57- समस्त छन्दों का ज्ञान 58- वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या 59- द्यू्त क्रीड़ा 60- दूरके मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण 61- बालकों के खेल 62- मन्त्रविद्या 63- विजय प्राप्त कराने वाली विद्या 64- बेताल आदि को वश में रखने की विद्या वात्स्यायन ने जिन ६४ कलाओं की नामावली कामसूत्र में प्रस्तुत की है उन सभी कलाओं के नाम यजुर्वेद के तीसवें अध्याय में मिलते हैं। इस अध्याय में कुल २२ मन्त्र हैं जिनमें से चौथे मंत्र से लेकर बाईसवें मंत्र तक उन्हीं कलाओं और कलाकारों का उल्लेख है। .

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ञिङमा ग्युद्बुम

ञिङमा ग्युद्बुम (རྙིང་མ་རྒྱུད་འབུམ, Wylie: rnying मा rgyud 'लूट) 'एकत्र तंत्र के पूर्वजों', यह है कि Mahayoga, Anuyoga और Atiyoga तंत्र के न्यिन्गमा.

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एकात्मता मंत्र

एकात्मता मन्त्र एक संस्कृत मन्त्र है जिसका वाचन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में किया जाता है। इस म्न्त्र का मूल भाव यह है कि प्रभु एक ही है उसको लोग अलग-अलग नामों से जानते हैं। .

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ऐनी हैथवे

एन जैक्विलिन हैथवे (जन्म 12 नवम्बर 1982) एक अमेरिकी अभिनेत्री हैं। उन्होंने 1999 में अपने अभिनय की शुरूआत टेलीविज़न श्रृंखला गेट रियल से की, लेकिन उनकी पहली प्रमुख भूमिका डिज़नी की पारिवारिक कॉमेडी द प्रिंसेस डायरीज़ में (बतौर जूली एंड्रयूज़ की नायिका) थी, जिसने उनके कैरियर को जमाया.

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णमोकार मंत्र

णमोकार मन्त्र जैन धर्म का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मन्त्र है। इसे 'नवकार मन्त्र', 'नमस्कार मन्त्र' या 'पंच परमेष्ठि नमस्कार' भी कहा जाता है। इस मन्त्र में अरिहन्तों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों और साधुओं का नमस्कार किया गया है। णमोकार महामंत्र' एक लोकोत्तर मंत्र है। इस मंत्र को जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूल मंत्र माना जाता है। इसमें किसी व्यक्ति का नहीं, किंतु संपूर्ण रूप से विकसित और विकासमान विशुद्ध आत्मस्वरूप का ही दर्शन, स्मरण, चिंतन, ध्यान एवं अनुभव किया जाता है। इसलिए यह अनादि और अक्षयस्वरूपी मंत्र है। लौकिक मंत्र आदि सिर्फ लौकिक लाभ पहुँचाते हैं, किंतु लोकोत्तर मंत्र लौकिक और लोकोत्तर दोनों कार्य सिद्ध करते हैं। इसलिए णमोकार मंत्र सर्वकार्य सिद्धिकारक लोकोत्तर मंत्र माना जाता है। .

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तन्त्र

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्बन्धित तंत्र या प्रणाली या सिस्टम के बारे में तंत्र (सिस्टम) देखें। ---- तन्त्र कलाएं (ऊपर से, दक्षिणावर्त): हिन्दू तांत्रिक देवता, बौद्ध तान्त्रिक देवता, जैन तान्त्रिक चित्र, कुण्डलिनी चक्र, एक यंत्र एवं ११वीं शताब्दी का सैछो (तेन्दाई तंत्र परम्परा का संस्थापक तन्त्र, परम्परा से जुड़े हुए आगम ग्रन्थ हैं। तन्त्र शब्द के अर्थ बहुत विस्तृत है। तन्त्र-परम्परा एक हिन्दू एवं बौद्ध परम्परा तो है ही, जैन धर्म, सिख धर्म, तिब्बत की बोन परम्परा, दाओ-परम्परा तथा जापान की शिन्तो परम्परा में पायी जाती है। भारतीय परम्परा में किसी भी व्यवस्थित ग्रन्थ, सिद्धान्त, विधि, उपकरण, तकनीक या कार्यप्रणाली को भी तन्त्र कहते हैं। हिन्दू परम्परा में तन्त्र मुख्यतः शाक्त सम्प्रदाय से जुड़ा हुआ है, उसके बाद शैव सम्प्रदाय से, और कुछ सीमा तक वैष्णव परम्परा से भी। शैव परम्परा में तन्त्र ग्रन्थों के वक्ता साधारणतयः शिवजी होते हैं। बौद्ध धर्म का वज्रयान सम्प्रदाय अपने तन्त्र-सम्बन्धी विचारों, कर्मकाण्डों और साहित्य के लिये प्रसिद्ध है। तन्त्र का शाब्दिक उद्भव इस प्रकार माना जाता है - “तनोति त्रायति तन्त्र”। जिससे अभिप्राय है – तनना, विस्तार, फैलाव इस प्रकार इससे त्राण होना तन्त्र है। हिन्दू, बौद्ध तथा जैन दर्शनों में तन्त्र परम्परायें मिलती हैं। यहाँ पर तन्त्र साधना से अभिप्राय "गुह्य या गूढ़ साधनाओं" से किया जाता रहा है। तन्त्रों को वेदों के काल के बाद की रचना माना जाता है जिसका विकास प्रथम सहस्राब्दी के मध्य के आसपास हुआ। साहित्यक रूप में जिस प्रकार पुराण ग्रन्थ मध्ययुग की दार्शनिक-धार्मिक रचनायें माने जाते हैं उसी प्रकार तन्त्रों में प्राचीन-अख्यान, कथानक आदि का समावेश होता है। अपनी विषयवस्तु की दृष्टि से ये धर्म, दर्शन, सृष्टिरचना शास्त्र, प्राचीन विज्ञान आदि के इनसाक्लोपीडिया भी कहे जा सकते हैं। यूरोपीय विद्वानों ने अपने उपनिवीशवादी लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए तन्त्र को 'गूढ़ साधना' (esoteric practice) या 'साम्प्रदायिक कर्मकाण्ड' बताकर भटकाने की कोशिश की है। वैसे तो तन्त्र ग्रन्थों की संख्या हजारों में है, किन्तु मुख्य-मुख्य तन्त्र 64 कहे गये हैं। तन्त्र का प्रभाव विश्व स्तर पर है। इसका प्रमाण हिन्दू, बौद्ध, जैन, तिब्बती आदि धर्मों की तन्त्र-साधना के ग्रन्थ हैं। भारत में प्राचीन काल से ही बंगाल, बिहार और राजस्थान तन्त्र के गढ़ रहे हैं। .

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तावीज़

यह ओमामोरी नाम का एक जापानी जंतर है तावीज़ या जंतर ऐसी किसी वस्तु को कहते हैं जो सौभाग्य लाने के लिए या दुर्भाग्य और बुरी नज़र से बचाने के लिए रखी जाए। यह किसी भी प्रकार की वस्तु हो सकती है, जैसे की काला धागा, रत्न, मूर्तियाँ, रुद्राक्ष, सिक्के, चित्र, अंगूठियाँ, पौधे, वग़ैराह। भारतीय उपमहाद्वीप में अक्सर यह किसी माला में कोई धार्मिक वस्तु पिरो के बनाए जाते हैं, जैसे कि रुद्राक्ष या एक छोटी सी थैली में बंद किसी मन्त्र या आयत की पर्ची। यह किसी धार्मिक ग्रन्थ या लेख के रूप में भी हो सकती है, जैसे किसी बीमार के तकिये के नीचे अक्सर हनुमान चालीसा रख दी जाती है।, Bholanath Tiwari, Amaranath Kapur, Vishvaprakash Gupta, Kitabghar Prakashan, 1998, ISBN 978-81-7016-413-5,...

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द वेस्ट लैंड

द वेस्ट लैंड टी एस एलियट के द्वारा लिखी गयी 434 पंक्तियों की एक आधुनिक कविता है जो पहले पहल सन 1922 में प्रकाशित हुई थी। इसे 20 वीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण कविताओं में से एक भी कहा जाता है। कविता की दुर्बोधता के बावजूद 2010/08/08 को पुनः प्राप्त.

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दानस्तुति

भगवान इंद्र; जिनकी स्तुति ऋगवेद के दानस्तुति में मौजूद है ऋग्वेद में कतिपय ऐसे सूक्त तथा मंत्र हैं, जिनकी संज्ञा 'दानस्तुति' है। दानस्तुति का शाब्दिक अर्थ है 'दान की प्रशंसा में गाए गए मंत्र'। व्यापक अर्थ में दान के उपलब्ध में राजाओं तथा यज्ञ के आश्रयदाताओं की स्तुति में ऋषियों द्वारा गाई गई ऋचाएँ 'दानस्तुति' हैं। ऋग्वेद में दानस्तुति से संबद्ध सूक्तों की संख्या लगभग ४० है। उपर्युक्त सूक्तों में एक संपूर्ण सूक्त (१-१२६) दानस्तुति का है, किंतु शेष अन्य सूक्तों में सामान्यत: कुछ इनी-गिनी ऋचाएँ ही दानस्तुति के रूप में मिलती हैं। इन सूक्तों में कुछ वस्तुत: विजय-प्रशस्ति-सूक्त हैं, जिनमें पहले इंद्र की स्तुति रहती है, क्योंकि इंद्र की सहायता से कुछ राजा अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं। तदनंतर देवस्तुति के साथ विजयी राजा की प्रशस्ति भी संबद्ध हो गई है। आखिर में स्तोता के द्वारा अपने उस आश्रयदाता की स्तुति की जाती है, जिससे उसे बैल, घोड़े तथा युद्ध में विजित धन का दान मिला है। दूसरे प्रकार के सूक्त यज्ञ संबंधी हैं जो बहुत बड़े हैं और अधिकतर इंद्र देवता के हैं। ये सूक्त यज्ञ के अवसर पर पढ़े जाते हैं। इन सूक्तों के अंतिम भाग में कतिपय दानस्तुति परक ऋचाएँ उपलब्ध होती हैं। इनमें स्तोता यज्ञ के आश्रयदाता की स्तुति करता है, क्योंकि उसने स्तोता को यज्ञ की दक्षिणा प्रदान की है। जर्मन विद्वान् विंटरनित्स की सम्मति में ये दानस्तुतियाँ अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये धार्मिक दाताओं के पूर्ण नामों का उल्लेख करती हैं और ऐतिहासिक तथ्यों अथवा वास्तविक घटनाओं की सूचना देती हैं। एक भारतीय विद्वान् का विचार है कि ऋग्वेदिक युग में महायज्ञ का अनुष्ठान कई राजा मिलकर किया करते थे, इसी लिए दानस्तुति में प्राय: अनेक आश्रयदाताओं का उल्लेख एक साथ मिलता है। इसके अतिरिक्त, दानस्तुतियों में जिस नदी का नाम पाया जाता है उससे उस नदी के किनारे यज्ञ के अनुष्ठान होने की सूचना मिलती है। ('भारतीय अनुशीलन' नामक ओझा अभिनंदन ग्रंथ) वेदों को अपौरुषेय माननेवाले विशेषरूप से मीमोसकों की दृष्टि में इन दानस्तुतियों में या वेद में अन्यत्र ऐतिहासिक झलक आभासमात्र है। ऋग्वेद के दशम मंडल का ११७वाँ सूक्त उत्कृष्ट अर्थ में दानस्तुति है। इसमें धन एवं अन्न के दान की महिमा गाई गई है। यह सूक्त ऋग्वेदिक युग की महान् उदात्त भावना क परिचायक है; उदाहरण के लिए इस सूक्त की पाँचवीं ऋचा का, जिसमें धनी पुरुष को दान के महत्व की प्रेरणा निहित है, भावार्थ नीचे प्रस्तुत किया जाता है- श्रेणी:वेद श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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दुर्गा सप्तशती के सिद्ध-मंत्र

दुर्गा सप्तशती के सिद्ध-मंत्र का अर्थ होता है कि वे मंत्र जो माँ के लिये प्रयुक्त किया जाता हो अर्थात मॉ दुर्गा को नमन करते हुए उनके चरणों में अपने आप को समर्पित करते हुए उनके सिद्ध मंत्रो का जाप करना जिससे माँ दुर्गा प्रसन्न होकर अपने भक्तों को इच्छित फल प्राप्ति का अवसर देती है। दुर्गा सप्तशती के सिद्ध-मंत्र के मंत्र विभिन्न प्रकार के होते है, जो कि हर एक इच्छाओ पर निर्भर करती है, और इन मंत्रो का कम से कम ११, २१, ५१ अथवा १०८ बार जाप करने से उस व्यक्ति की मनोकामना पूर्ण होती है। .

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देवता

अंकोरवाट के मन्दिर में चित्रित समुद्र मन्थन का दृश्य, जिसमें देवता और दैत्य बासुकी नाग को रस्सी बनाकर मन्दराचल की मथनी से समुद्र मथ रहे हैं। देवता, दिव् धातु, जिसका अर्थ प्रकाशमान होना है, से निकलता है। अर्थ है कोई भी परालौकिक शक्ति का पात्र, जो अमर और पराप्राकृतिक है और इसलिये पूजनीय है। देवता अथवा देव इस तरह के पुरुषों के लिये प्रयुक्त होता है और देवी इस तरह की स्त्रियों के लिये। हिन्दू धर्म में देवताओं को या तो परमेश्वर (ब्रह्म) का लौकिक रूप माना जाता है, या तो उन्हें ईश्वर का सगुण रूप माना जाता है। बृहदारण्य उपनिषद में एक बहुत सुन्दर संवाद है जिसमें यह प्रश्न है कि कितने देव हैं। उत्तर यह है कि वास्तव में केवल एक है जिसके कई रूप हैं। पहला उत्तर है ३३ करोड़; और पूछने पर ३३३९; और पूछने पर ३३; और पूछने पर ३ और अन्त में डेढ और फिर केवल एक। वेद मन्त्रों के विभिन्न देवता है। प्रत्येक मन्त्र का ऋषि, कीलक और देवता होता है। .

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देवी सूक्त

देवी सूक्तम् ऋग्वेद का एक मंत्र है जिसे अम्भ्राणी सूक्तम् भी कहते हैं। इसमें ८ श्लोक हैं। यह वाक् (वाणी) को समर्पित है। यह सूक्त वर्तमान काल में भी हिन्दुओं द्वारा प्रयुक्त है। देवी महात्म्यम् के पाठ के बाद देवी सूक्त का भी पाठ किया जाता है। सूक्त कुछ इस प्रकार है - नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततम् नमः। नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्मताम्।। १।। रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमो नमः। ज्योत्स्नायै च इन्दुरूपिण्यै सुखायै सततम् नमः।। २।। कल्याण्यै प्रणताम् वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नमः। नैर्ऋत्यै भूभृताम् लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः।। ३।। दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्व कारिण्यै। ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततम् नमः।। ४।। अति सौम्याति रौद्रायै नताः तस्यै नमो नमः। नमो जगत् प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः।। ५।। या देवी सर्वभूतेषू विष्णु मायेति शब्दिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥ ६ ॥ या देवी सर्वभूतेषू चेतनेत्यभिधीयते। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥ ७ ॥ या देवी सर्वभूतेषू बुद्धि रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥ ८ ॥ या देवी सर्वभूतेषू निद्रा रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥ ९ ॥ या देवी सर्वभूतेषू क्षुधा रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥ १० ॥ यादेवी सर्वभूतेषू छाया रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥११॥ या देवी सर्वभूतेषू शक्ति रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥१२॥ या देवी सर्वभूतेषू तृष्णा रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥१३॥ या देवी सर्वभूतेषू क्षान्ति रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥१४॥ या देवी सर्वभूतेषू जाति रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥१५॥ या देवी सर्वभूतेषू लज्जा रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥१६॥ या देवी सर्वभूतेषू शान्ति रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥१७॥ या देवी सर्वभूतेषू श्रद्धा रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥१८॥ या देवी सर्वभूतेषू कान्ति रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥१९॥ या देवी सर्वभूतेषू लक्ष्मी रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥२०॥ या देवी सर्वभूतेषू वृत्ति रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥२१॥ या देवी सर्वभूतेषू स्मृति रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥ २२ ॥ या देवी सर्वभूतेषू दया रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥ २३ ॥ या देवी सर्वभूतेषू तुष्टि रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥ २४ ॥ या देवी सर्वभूतेषू मातृ रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥ २५ ॥ या देवी सर्वभूतेषू भ्रान्ति रूपेण संस्थिता। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥ २६ ॥ इन्द्रियाणाम् अधिष्ठात्री भूतानाम् च अखिलेषु या। भूतेषु सततम् तस्यै व्याप्ति देव्यै नमो नमः ॥ २७ ॥ चिति रूपेण या कृत्स्नमेतद् व्याप्त स्थिता जगत्। नमः तस्यै नमः तस्यै नमः तस्यै नमो नमः ॥ २८ ॥ स्तुता सुरैः पूर्वम् अभीष्ट संश्रयात् तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता। करोतु सा नः शुभहेतुः ईश्वरी शुभानि भद्राणि अभिहन्तु चापदः ॥ २९ ॥ या साम्प्रतम् चोद्धत दैत्य तापितैः अस्माभिः ईशा च सुरैः नमश्यते। या च स्मृता तत्क्षणम् एव हन्ति नः सर्वा पदः भक्ति विनम्र मूर्त्तिभिः ॥ ३० ॥ .

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धारणी

धारणी (सिंहल: ධරණී; पारम्परिक चीनी: 陀羅尼; फ़ीनयिन: tuóluóní; जापानी: 陀羅尼 darani; तिब्बती: གཟུངས་ gzungs) मन्त्र जैसा एक प्रकार का धार्मिक पाठ है। .

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नरसिंह

प्रहलाद एवं उसकी माता '''नरसिंहावतार''' को हिरण्यकश्यप के वध के समय नमन करते हुए नरसिंह नर + सिंह ("मानव-सिंह") को पुराणों में भगवान विष्णु का अवतार माना गया है। जो आधे मानव एवं आधे सिंह के रूप में प्रकट होते हैं, जिनका सिर एवं धड तो मानव का था लेकिन चेहरा एवं पंजे सिंह की तरह थे वे भारत में, खासकर दक्षिण भारत में वैष्णव संप्रदाय के लोगों द्वारा एक देवता के रूप में पूजे जाते हैं जो विपत्ति के समय अपने भक्तों की रक्षा के लिए प्रकट होते हैं। .

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नाशी भाषा

गेबा लिपि में लिखी नाशी नाशी भाषा (अंग्रेज़ी: Naxi या Nakhi), जिसे लोमी, मोसो और मोसू भी कहा जाता है, दक्षिणी चीन में बसने वाले नाशी लोगों द्वारा बोली जाने वाली तिब्बती-बर्मी भाषा या भाषाओँ का समूह है। सन् २०१० में नाशी बोलने वालों की आबादी लगभग ३ लाख अनुमानित की गई थी।, Andrew Dalby, Columbia University Press, 2004, ISBN 978-0-231-11569-8,...

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नीलकण्ठ धारणी

नीलकण्ठ धारणी या महाकरुणा धारणी महायान बौद्ध सम्रदाय की एक धारणी है। इसको चीनी भाषा में 大悲咒; फ़ीनयिन में Dàbēi zhòu, वियतनामी भाषा में Chú đại bi कहते हैं। महाकारुणिकचित्तसूत्र के अनुसार, बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर बोधिसत्त्वों, देवों और राजाओं की सभा में इस धारणी का पाठ करते थे। ॐ नमो महाकरुणिक श्रीसर्वबुद्धबोधिसत्त्वेभ्यः नमो रत्नत्रयाय नमो आर्य अवलोकितेश्वराय बोधिसत्त्वाय महासत्त्वाय महाकारुणिकाय। ॐ सर्वरभये सुधनदस्य। नमस्कृत्वा इमम् आर्यावलोकितेश्वर रंधव नमो नरकिन्दि ह्रीः। महावधसम सर्व अथदु शुभुं अजेयं सर्व सत्त्य नम वस्त्य नमो वाक मार्ग दातुह् तद्यथा ऊँ अवलोकि लोचते करते ए ह्रीः महाबोधिसत्त्व। सर्व सर्व मल मल महिम हृदयम् कुरु कुरु कर्मं धुरु धुरु विजगते महाविजयते धर धर धिरिनिश्वराय चल चल मम विमल मुक्तेले एहि एहि शिन शिन आरषं प्रचलि विष विश प्राशय। हुरु हुरु मार हुलु हुलु ह्रिह् सर सर शिरि शिरि सुरुसुरु बोधिय बोधिय बोधय बोधय मैत्रिया। नारकिन्दि धर्षिनिन भयमान स्वाहा सिद्धाय स्वाहा। महासिद्धाय स्वाहा सिद्धायोगेश्वराय स्वाहा। नरकिन्दि स्वाहा। मारणर स्वाहा। सिरा संह मुखाय स्वाहा सर्व महा आसिद्धाय स्वाहा चक्र आसिद्धाय स्वाहा। पद्म हस्त्राय स्वाहा। नरकिन्दि वगलय स्वाहा मवरि शन्खराय स्वाहा। नमः रत्नत्रयाय नमो आर्यावलोकितेश्वराय स्वाहा। ॐ सिध्यन्तु मन्त्र पदाय स्वाहा। .

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पण्डित

एक कर्मकाण्डी पण्डित (ब्राह्मण) का चित्र पण्डित (पंडित), या पण्डा (पंडा), अंग्रेजी में Pandit का अर्थ है एक विद्वान, एक अध्यापक, विशेषकर जो संस्कृत और हिंदू विधि, धर्म, संगीत या दर्शनशास्त्र में दक्ष हो। अपने मूल अर्थ में 'पण्डित' शब्द का तात्पर्य हमेशा उस हिन्दू ब्राह्मण से लिया जाता है जिसने वेदों का कोई एक मुख्य भाग उसके उच्चारण और गायन के लय व ताल सहित कण्ठस्थ कर लिया हो। .

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परीक्षित

महाभारत के अनुसार परीक्षित अर्जुन के पौत्र, अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र तथा जनमेजय के पिता थे। जब ये गर्भ में थे तब उत्तरा के पुकारने पर विष्णु ने अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से उनकी रक्षा की थी। इसलिए इनका नाम 'विष्णुरात' पड़ा। भागवत (१, १२, ३०) के अनुसार गर्भकाल में अपने रक्षक विष्णु को ढूँढ़ने के कारण उन्हें 'परीक्षित, (परिअ ईक्ष) कहा गया किंतु महाभारत (आश्व., ७०, १०) के अनुसार कुरुवंश के परिक्षीण होने पर जन्म होने से वे 'परिक्षित' कहलाए। महाभारत में इनके विषय में लिखा है कि जिस समय ये अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में थे, द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने गर्भ में ही इनकी हत्या कर पांडुकुल का नाश करने के अभिप्राय से ऐषीक नाम के अस्त्र को उत्तरा के गर्भ में प्रेरित किया जिसका फल यह हुआ कि उत्तरा के गर्भ से परीक्षित का झुलसा हुआ मृत पिंड बाहर निकला। श्रीकृष्ण को पांडुकुल का नामशेष हो जाना मंजूर न था, इसलिये उन्होंने अपने योगबल से मृत भ्रूण को जीवित कर दिया। परिक्षीण या विनष्ट होने से बचाए जाने के कारण इस बालक का नाम परीक्षित रखा गया। परीक्षित ने कृपाचार्य से अस्त्रविद्या सीखी थी जो महाभारत युद्ध में कुरुदल के प्रसिद्ध महारथी थे। युधिष्ठिर आदि पांडव संसार से भली भाँति उदासीन हो चुके थे और तपस्या के अभिलाषी थे। अतः वे शीघ्र ही परीक्षित को हस्तिनापुर के सिंहासन पर बिठा द्रौपदी समेत तपस्या करने चले गए। परीक्षित जब राजसिंहासन पर बैठे तो महाभारत युद्ध की समाप्ति हुए कुछ ही समय हुआ था, भगवान कृष्ण उस समय परमधाम सिधार चुके थे और युधिष्ठिर को राज्य किए ३६ वर्ष हुए थे। राज्यप्राप्ति के अनंतर गंगातट पर उन्होंने तीन अश्वमेघ यज्ञ किए जिनमें अंतिम बार देवताओं ने प्रत्यक्ष आकर बलि ग्रहण किया था। इनके विषय में सबसे मुख्य बात यह है के इन्हीं के राज्यकाल में द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ होना माना जाता है। इस संबंध में भागवत में यह कथा है— परीक्षित की मृत्यु के बाद, फिर कलियुग की रोक टोक करनेवाला कोई न रहा और वह उसी दिन से अकंटक भाव से शासन करने लगा। पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिये जनमेजय ने सर्पसत्र किया जिसमें सारे संसार के सर्प मंत्रबल से खिंच आए और यज्ञ की अग्नि में उनकी आहुति हुई। .

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पहेली

किसी व्यक्ति की बुद्धि या समझ की परीक्षा लेने वाले एक प्रकार के प्रश्न, वाक्य अथवा वर्णन को पहेली (Puzzle) कहते हैं जिसमें किसी वस्तु का लक्षण या गुण घुमा फिराकर भ्रामक रूप में प्रस्तुत किया गया हो और उसे बूझने अथवा उस विशेष वस्तु का ना बताने का प्रस्ताव किया गया हो। इसे 'बुझौवल' भी कहा जाता है। पहेली व्यक्ति के चतुरता को चुनौती देने वाले प्रश्न होते है। जिस तरह से गणित के महत्व को नकारा नहीं जा सकता, उसी तरह से पहेलियों को भी नज़रअन्दाज नहीं किया जा सकता। पहेलियां आदि काल से व्यक्तित्व का हिस्सा रहीं हैं और रहेंगी। वे न केवल मनोरंजन करती हैं पर दिमाग को चुस्त एवं तरो-ताजा भी रखती हैं। .

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पवमान मन्त्र

पवमान मन्त्र या पवमान अभयारोह बृहदारण्यक उपनिषद में विद्यमान एक मन्त्र है। यह मन्त्र मूलतः सोम यज्ञ की स्तुति में यजमान द्वारा गाया जाता था। श्रेणी:मन्त्र.

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प्राण प्रतिष्ठा

भारतीय धर्मों में, जब किसी मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा की जाती है तब मंत्र द्वारा उस देवी या देवता का आवाहन किया जाता है कि वे उस मूर्ति में प्रतिष्ठित (विराजमान) हों। इसी समय पहली बार मूर्ति की आँखें खोली जाती हैं। .

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प्रार्थना

ढाका में शक्तिपूजक हिन्दू प्रार्थना की मुद्रा में प्रार्थना एक धार्मिक क्रिया है जो ब्रह्माण्ड के किसी 'महान शक्ति' से सम्बन्ध जोड़ने की कोशिश करती है। प्रार्थना व्यक्तिगत हो सकती है और सामूहिक भी। इसमें शब्दों (मंत्र, गीत आदि) का प्रयोग हो सकता है या प्रार्थना मौन भी हो सकती है।.

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पृथ्वीराज चौहान

पृथ्वीराज चौहान (भारतेश्वरः पृथ्वीराजः, Prithviraj Chavhan) (सन् 1178-1192) चौहान वंश के हिंदू क्षत्रिय राजा थे, जो उत्तर भारत में १२ वीं सदी के उत्तरार्ध में अजमेर (अजयमेरु) और दिल्ली पर राज्य करते थे। वे भारतेश्वर, पृथ्वीराजतृतीय, हिन्दूसम्राट्, सपादलक्षेश्वर, राय पिथौरा इत्यादि नाम से प्रसिद्ध हैं। भारत के अन्तिम हिन्दूराजा के रूप में प्रसिद्ध पृथ्वीराज १२३५ विक्रम संवत्सर में पंद्रह वर्ष (१५) की आयु में राज्य सिंहासन पर आरूढ हुए। पृथ्वीराज की तेरह रानीयाँ थी। उन में से संयोगिता प्रसिद्धतम मानी जाती है। पृथ्वीराज ने दिग्विजय अभियान में ११७७ वर्ष में भादानक देशीय को, ११८२ वर्ष में जेजाकभुक्ति शासक को और ११८३ वर्ष में चालुक्य वंशीय शासक को पराजित किया। इन्हीं वर्षों में भारत के उत्तरभाग में घोरी (ग़ोरी) नामक गौमांस भक्षण करने वाला योद्धा अपने शासन और धर्म के विस्तार की कामना से अनेक जनपदों को छल से या बल से पराजित कर रहा था। उसकी शासन विस्तार की और धर्म विस्तार की नीत के फलस्वरूप ११७५ वर्ष से पृथ्वीराज का घोरी के साथ सङ्घर्ष आरंभ हुआ। उसके पश्चात् अनेक लघु और मध्यम युद्ध पृथ्वीराज के और घोरी के मध्य हुए।विभिन्न ग्रन्थों में जो युद्ध सङ्ख्याएं मिलती है, वे सङ्ख्या ७, १७, २१ और २८ हैं। सभी युद्धों में पृथ्वीराज ने घोरी को बन्दी बनाया और उसको छोड़ दिया। परन्तु अन्तिम बार नरायन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय के पश्चात् घोरी ने पृथ्वीराज को बन्दी बनाया और कुछ दिनों तक 'इस्लाम्'-धर्म का अङ्गीकार करवाने का प्रयास करता रहा। उस प्रयोस में पृथ्वीराज को शारीरक पीडाएँ दी गई। शरीरिक यातना देने के समय घोरी ने पृथ्वीराज को अन्धा कर दिया। अन्ध पृथ्वीराज ने शब्दवेध बाण से घोरी की हत्या करके अपनी पराजय का प्रतिशोध लेना चाहा। परन्तु देशद्रोह के कारण उनकी वो योजना भी विफल हो गई। एवं जब पृथ्वीराज के निश्चय को परिवर्तित करने में घोरी अक्षम हुआ, तब उसने अन्ध पृथ्वीराज की हत्या कर दी। अर्थात्, धर्म ही ऐसा मित्र है, जो मरणोत्तर भी साथ चलता है। अन्य सभी वस्तुएं शरीर के साथ ही नष्ट हो जाती हैं। इतिहासविद् डॉ.

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पूर्णागिरी

पूर्णागिरि मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड प्रान्त के टनकपुर में अन्नपूर्णा शिखर पर ५५०० फुट की ऊँचाई पर स्थित है। यह १०८ सिद्ध पीठों में से एक है। यह स्थान महाकाली की पीठ माना जाता है। कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति की कन्या और शिव की अर्धांगिनी सती की नाभि का भाग यहाँ पर विष्णु चक्र से कट कर गिरा था। प्रतिवर्ष इस शक्ति पीठ की यात्रा करने आस्थावान श्रद्धालु कष्ट सहकर भी यहाँ आते हैं। .

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फ़ारसी साहित्य

फारसी भाषा और साहित्य अपनी मधुरता के लिए प्रसिद्ध है। फारसी ईरान देश की भाषा है, परंतु उसका नाम फारसी इस कारण पड़ा कि फारस, जो वस्तुत: ईरान के एक प्रांत का नाम है, के निवासियों ने सबसे पहले राजनीतिक उन्नति की। इस कारण लोग सबसे पहले इसी प्रांत के निवासियों के संपर्क में आए अत: उन्होंने सारे देश का नाम 'पर्सिस' रख दिया, जिससे आजकल यूरोपीय भाषाओं में ईरान का नाम पर्शिया, पेर्स, प्रेज़ियन आदि पड़ गया। .

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फुमी

फुमी जाति चीन की बहुत कम जन संख्या वाली जातियों में से एक है, अब उस की कुल जन संख्या मात्र तीस हजार है, जो दक्षिण पश्चिम चीन के युन्नान प्रांत के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र में स्थित पाई व फुमी जातीय स्वायत्त काऊंटी में रहती है। फुमी जाति के पूर्वज चीन के उत्तर पश्चिम भाग में घास मैदान में रहते थे और घुमंतू पशुपालन का जीवन बिताते थे। करीब 13 वीं शताब्दी में वे स्थानांतरित हो कर आज के आबाद स्थल आ कर बस गए। बीते सात सौ सालों में फुमी जाति के लोग युन्नान प्रांत के नानपिंग क्षेत्र की फुमी काऊंटी में रहते हुए अपनी जाति की अलग पहचान बनाए रखे हुए हैं, उन के जातीय संगीत, भाषा, संस्कृति व रीति रिवाज में स्पष्ट विशेषता पायी जाती है। फुमी जाति के विशेष ढंग के वाद्ययंत्र बांसुरी से बजायी गई धुन बहुलॉत सुरीली है, फुमी जाति के युवा येन ल्येनचुन को अपना जातीय वाद्य बजाना बहुत पसंद है। येन ल्येनचुन का जन्म युन्नान प्रांत के फुमी जाति बहुल स्थान में हुआ था, पर विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद वह पेइचिंग में बस गए, उस के दिल में अपने गांव तथा अपनी जाति की संस्कृति के प्रति गाढ़ा लगाव है और उसे फुमी का संगीत बहुत पसंद भी है। उस की बांसुरी धुन से घने पहाड़ी जंगल में आबाद फुमी गांव की याद आती है। फुमी जाति के लोग अपनी जाति से बहुत प्यार करते हैं, उन के जीवन में ढेर सारी प्राचीन मान्यताएं और प्रथाएं सुरक्षित हैं। युवा लोग बुजुर्ग पीढ़ी से एतिहासिक कहानी सुनने के उत्सुक हैं, जब कि बुजुर्ग लोग भी वाचन गायन के रूप में फुमी जाति के उत्तर से दक्षिण में स्थानांतरित होने का इतिहास बताना पसंद करते हैं। इन कहानियों से फुमी जाति के पूर्वजों की मेहनत तथा बुद्धिमता जाहिर होती है। अपने पूर्वजों के लम्बे रास्ते के स्थानांतरण की याद में फुमी महिलाओं के बहु तहों वाले स्कर्ट के बीचोंबीच लाल रंग की धागे से एक घूमादार रेखा कसीदा की जाती है, यह घूमादार रेखा फुमी के पूर्वजों के स्थानांतरण का प्रतीक है। फुमी लोगों की मान्यता के अनुसार उन की मृत्यु के बाद वे इसी रास्ते से अपना अंतिम पड़ाव पहुंच जाते हैं। फुमी जाति के लोग मानते हैं कि मृत्यु के बाद उन की आत्मा अपनी जन्म भूमि वापस लौटती है, इसलिए वे अंतिम संस्कार के आयोजन में भी पूर्वजों की समृत्ति में रस्म जोड़ देते हैं। फुमी जाति के लोगों के अंतिम संस्कार में बकरी का मार्ग दर्शन नामक रस्म होता है, इस के अनुसार पुजारी मृतक को उस के पूर्वजों के नाम और उत्तरी भाग में लौटने का रास्ता बताता है, मृतक को रास्ता दिखाने के लिए एक बकरी भी लाता है। रस्म के दौरान पुजारी यह मंत्र जपाता रहता है कि तुरंत तैयार हो, यह सफेद बालों वाला बकरी तुझे रास्ता दिखाएगा, तुम हमारे पूर्वजों की जन्म भूमि --उत्तरी भाग लौट जाओ। फुमी जाति में अपनी जाति की विशेषता बनाए रखने के लिए अनेक रीति रिवाज प्रचलित होते हैं। मसलन् घुमंतू जाति की संतान होने के नाते फुमी जाति के बच्चे 13 साल की उम्र में ही व्यस्क माने जाते हैं, इस के लिए व्यस्क रस्म आयोजित होता है। श्री येन ल्येनचुन ने अपने व्यस्क रस्म की याद करते हुए कहाः व्यस्क रस्म फुमी जाति के बच्चों का एक अहम उत्सव है, यह इस का प्रतीक है कि बच्चे अब परवान चढ़ गए हैं। व्यस्क रस्म के आयोजन के समय परिवार के सभी लोग अग्नि कुंड के सामने इक्ट्ठे हो जाते हैं, अग्नि कुंड के आगे देव स्तंभ खड़ा किया गया है, व्यस्क रस्म लेने वाले बच्चे का पांव अनाज से भरी बौरे पर दबा हुआ है, इस का अर्थ है कि उस का भावी जीवन खुशहाल होगा। रस्म के दौरान बच्चा हाथों में चौकू और चांदी की सिक्का पकड़ता है और बच्ची कंगन, रेशम और टाट के कपड़े हाथ में लेती है। यह उन की मेहनत और कार्यकुशलता का परिचायक होता है। व्यस्क रस्म के बाद फुमी जाति के युवक युवती सामुहित उत्पादन श्रम तथा विभिन्न सामाजिक कार्यवाहियों में भाग लेने लगते हैं और उन्हें प्यार मुहब्बत करने तथा शादी ब्याह करने की हैसियत भी प्राप्त हुई है। फुमी जाति में स्वतंत्र प्रेम विवाह की प्रथा चलती है। जाति में दुल्हन छीनने की प्रथा अब भी फुमी लोग बहुल क्षेत्रों में चलती है। .

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बौद्ध धर्म एवं हिन्दू धर्म

हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म दोनों ही प्राचीन धर्म हैं और दोनों ही भारतभूमि से उपजे हैं। हिन्दू धर्म के वैष्णव संप्रदाय में गौतम बुद्ध को दसवाँ अवतार माना गया है हालाँकि बौद्ध धर्म इस मत को स्वीकार नहीं करता। ओल्डेनबर्ग का मानना है कि बुद्ध से ठीक पहले दार्शनिक चिंतन निरंकुश सा हो गया था। सिद्धांतों पर होने वाला वाद-विवाद अराजकता की ओर लिए जा रहा था। बुद्ध के उपदेशों में ठोस तथ्यों की ओर लौटने का निररंतर प्रयास रहा है। उन्होंने वेदों, जानवर बलि और इश्वर को नकार दिया। भुरिदत जातक कथा में ईश्वर, वेदों और जानवर बलि की आलोचना मिलती है। बौद्धधर्म भारतीय विचारधारा के सर्वाधिक विकसित रूपों में से एक है और हिन्दुमत (सनातन धर्म) से साम्यता रखता है। हिन्दुमत के दस लक्षणों यथा दया, क्षमा अपरिग्रह आदि बौद्धमत से मिलते-जुलते है। यदि हिन्दुमत में मूर्ति पूजा का प्रचलन है तो बौद्ध मन्दिर भी मूर्तियों से भरे पड़े हैं। भारतीय कर्मकाण्ड में मन्त्र-तंत्र का प्रचलन है तो बौद्ध मत में भी तन्त्र-मन्त्र का विशेष महत्व है। प्रसिद्ध अंग्रेज यात्री डाॅ.

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भारतीय दर्शन

भारत में 'दर्शन' उस विद्या को कहा जाता है जिसके द्वारा तत्व का साक्षात्कार हो सके। 'तत्व दर्शन' या 'दर्शन' का अर्थ है तत्व का साक्षात्कार। मानव के दुखों की निवृति के लिए और/या तत्व साक्षात्कार कराने के लिए ही भारत में दर्शन का जन्म हुआ है। हृदय की गाँठ तभी खुलती है और शोक तथा संशय तभी दूर होते हैं जब एक सत्य का दर्शन होता है। मनु का कथन है कि सम्यक दर्शन प्राप्त होने पर कर्म मनुष्य को बंधन में नहीं डाल सकता तथा जिनको सम्यक दृष्टि नहीं है वे ही संसार के महामोह और जाल में फंस जाते हैं। भारतीय ऋषिओं ने जगत के रहस्य को अनेक कोणों से समझने की कोशिश की है। भारतीय दार्शनिकों के बारे में टी एस एलियट ने कहा था- भारतीय दर्शन किस प्रकार और किन परिस्थितियों में अस्तित्व में आया, कुछ भी प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता। किन्तु इतना स्पष्ट है कि उपनिषद काल में दर्शन एक पृथक शास्त्र के रूप में विकसित होने लगा था। तत्त्वों के अन्वेषण की प्रवृत्ति भारतवर्ष में उस सुदूर काल से है, जिसे हम 'वैदिक युग' के नाम से पुकारते हैं। ऋग्वेद के अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतीय विचारों में द्विविध प्रवृत्ति और द्विविध लक्ष्य के दर्शन हमें होते हैं। प्रथम प्रवृत्ति प्रतिभा या प्रज्ञामूलक है तथा द्वितीय प्रवृत्ति तर्कमूलक है। प्रज्ञा के बल से ही पहली प्रवृत्ति तत्त्वों के विवेचन में कृतकार्य होती है और दूसरी प्रवृत्ति तर्क के सहारे तत्त्वों के समीक्षण में समर्थ होती है। अंग्रेजी शब्दों में पहली की हम ‘इन्ट्यूशनिस्टिक’ कह सकते हैं और दूसरी को रैशनलिस्टिक। लक्ष्य भी आरम्भ से ही दो प्रकार के थे-धन का उपार्जन तथा ब्रह्म का साक्षात्कार। प्रज्ञामूलक और तर्क-मूलक प्रवृत्तियों के परस्पर सम्मिलन से आत्मा के औपनिषदिष्ठ तत्त्वज्ञान का स्फुट आविर्भाव हुआ। उपनिषदों के ज्ञान का पर्यवसान आत्मा और परमात्मा के एकीकरण को सिद्ध करने वाले प्रतिभामूलक वेदान्त में हुआ। भारतीय मनीषियों के उर्वर मस्तिष्क से जिस कर्म, ज्ञान और भक्तिमय त्रिपथगा का प्रवाह उद्भूत हुआ, उसने दूर-दूर के मानवों के आध्यात्मिक कल्मष को धोकर उन्हेंने पवित्र, नित्य-शुद्ध-बुद्ध और सदा स्वच्छ बनाकर मानवता के विकास में योगदान दिया है। इसी पतितपावनी धारा को लोग दर्शन के नाम से पुकारते हैं। अन्वेषकों का विचार है कि इस शब्द का वर्तमान अर्थ में सबसे पहला प्रयोग वैशेषिक दर्शन में हुआ। .

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भारतीय संगीत का इतिहास

पाँच गन्धर्व (चौथी-पाँचवीं शताब्दी, भारत के उत्तर-पश्चिम भाग से प्राप्त) प्रगैतिहासिक काल से ही भारत में संगीत कीसमृद्ध परम्परा रही है। गिने-चुने देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्ध परम्परा पायी जाती है। माना जाता है कि संगीत का प्रारम्भ सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में हुआ हालांकि इस दावे के एकमात्र साक्ष्य हैं उस समय की एक नृत्य बाला की मुद्रा में कांस्य मूर्ति और नृत्य, नाटक और संगीत के देवता रूद्र अथवा शिव की पूजा का प्रचलन। सिंधु घाटी की सभ्यता के पतन के पश्चात् वैदिक संगीत की अवस्था का प्रारम्भ हुआ जिसमें संगीत की शैली में भजनों और मंत्रों के उच्चारण से ईश्वर की पूजा और अर्चना की जाती थी। इसके अतिरिक्त दो भारतीय महाकाव्यों - रामायण और महाभारत की रचना में संगीत का मुख्य प्रभाव रहा। भारत में सांस्कृतिक काल से लेकर आधुनिक युग तक आते-आते संगीत की शैली और पद्धति में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है। भारतीय संगीत के इतिहास के महान संगीतकारों जैसे कि स्वामी हरिदास, तानसेन, अमीर खुसरो आदि ने भारतीय संगीत की उन्नति में बहुत योगदान किया है जिसकी कीर्ति को पंडित रवि शंकर, भीमसेन गुरूराज जोशी, पंडित जसराज, प्रभा अत्रे, सुल्तान खान आदि जैसे संगीत प्रेमियों ने आज के युग में भी कायम रखा हुआ है। भारतीय संगीत में यह माना गया है कि संगीत के आदि प्रेरक शिव और सरस्वती है। इसका तात्पर्य यही जान पड़ता है कि मानव इतनी उच्च कला को बिना किसी दैवी प्रेरणा के, केवल अपने बल पर, विकसित नहीं कर सकता। .

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मन

मन मस्तिष्क की उस क्षमता को कहते हैं जो मनुष्य को चिंतन शक्ति, स्मरण-शक्ति, निर्णय शक्ति, बुद्धि, भाव, इंद्रियाग्राह्यता, एकाग्रता, व्यवहार, परिज्ञान (अंतर्दृष्टि), इत्यादि में सक्षम बनाती है।Dictionary.com, "mind": "1.

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मन्त्रपुष्पाञ्जलि

मंत्रपुष्पांजलि, भारत में लोकप्रिय एक प्रार्थना है जिसमें वेदों के चार मन्त्र हैं। आरती के बाद मन्त्रपुष्पांजलि गाकर प्रार्थना समाप्त की जाती है। ॐ। यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ 1 ॥ ॐ। राजाधिराजाय प्रसह्यसाहिने नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे। स मे कामान्कामकामाय मह्यम् कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु। कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नमः ॥ 2 ॥ ॐ स्वस्ति। साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यं माहाराज्यमाधिपत्यमयं समंतपर्यायी स्यात्सार्वभौमः सार्वायुष आंतादापरार्धात्पृथिव्यै समुद्रपर्यंताया एकराळिति ॥ 3 ॥ तदप्येषः श्लोकोऽभिगीतो। मरुतः परिवेष्टारो मरुत्तस्यावसन् गृहे। आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्वे देवाः सभासद इति ॥ 4 ॥ ॐ एकदन्ताय बिद्महॆ वक़तुण्डाय धीमहि तन्नॊ दन्तॆ प्रचॊदयात् ॥.

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महर्षि गौतम

महर्षि गौतम सप्तर्षियों में से एक हैं। वे वैदिक काल के एक महर्षि एवं मन्त्रद्रष्टा थे। ऋग्वेद में उनके नाम से अनेक सूक्त हैं। श्रेणी:महर्षि.

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महाभारत

महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। कभी कभी केवल "भारत" कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। .

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महामृत्युञ्जय मन्त्र

महामृत्युंजय मंत्र या महामृत्युंजय मंत्र ("मृत्यु को जीतने वाला महान मंत्र") जिसे त्रयंबकम मंत्र भी कहा जाता है, यजुर्वेद के रूद्र अध्याय में, भगवान शिव की स्तुति हेतु की गयी एक वंदना है। इस मंत्र में शिव को 'मृत्यु को जीतने वाला' बताया गया है। यह गायत्री मंत्र के समकालीन हिंदू धर्म का सबसे व्यापक रूप से जाना जाने वाला मंत्र है। .

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मान्त्रिक

मान्त्रिक मंत्रों की शक्ति के ज्ञाता और प्रयोगकर्ता को कहते हैं। सामान्य तौर पर मान्त्रिक असाधारण जादूगर (?) माने जाते हैं। श्रेणी:हिन्दू धर्म के मत.

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मुत्तुस्वामी दीक्षित

मुत्तुस्वामी दीक्षितर् या मुत्तुस्वामी दीक्षित (1775-1835) दक्षिण भारत के महान् कवि व रचनाकार थे। वे कर्नाटक संगीत के तीन प्रमुख व लोकप्रिय हस्तियों में से एक हैं। उन्होने 500 से अधिक संगीत रचनाएँ की। कर्नाटक संगीत की गोष्ठियों में उनकी रचनाऐं बहुतायत में गायी व बजायी जातीं हैं। वे रामस्वामी दीक्षित के पुत्र थे। उनके दादा का नाम गोविन्द दीक्षितर् था। उनका जन्म तिरुवारूर या तिरुवरूर् या तिरुवैय्यारु (जो अब तमिलनाडु में है) में हुआ था। मुत्तुस्वामि का जन्म मन्मथ वर्ष (ये भी तमिल पंचांग अनुसार), तमिल पंचांग अनुसार पंगुनि मास (हिन्दु पंचांग अनुसार फाल्गुन मास; यद्यपि वास्तविकता तो यह है उनके जन्म का महिना अगर हिन्दु पंचांग के अनुसार देखा जाए तो भिन्न होगा, हिन्दू व दक्षिण भारतीय पंचांगों में कुछ भिन्नता अवश्य होती है), कृत्तिका नक्षत्र (तमिल पंचांग अनुसार) में हुआ था। मुत्तुस्वामी का नाम वैद्येश्वरन मन्दिर में स्थित सेल्वमुत्तु कुमारस्वामी के नाम पर रखा था। ऐसी मान्यता है कि मुत्तुस्वामी का जन्म उनके माता और पिता के भगवान् वैद्येश्वरन (या वैद्येश) की प्रार्थना करने से हुआ था। मुत्तुस्वामी के दो छोटे भाई, बालुस्वामी और चिन्नस्वामी थे, और उनकी बहन का नाम बालाम्बाल था। मुत्तुस्वामी के पिता रामस्वामी दीक्षित ने ही राग हंसध्वनि का उद्भव किया था। मुत्तुस्वामी ने बचपन से ही धर्म, साहित्य, अलंकार और मन्त्र ज्ञान की शिक्षा आरम्भ की और उन्होंने संगीत की शिक्षा अपने पिता से ली थी। मुत्तुस्वामी के किशोरावस्था में ही, उनके पिता ने उन्हें चिदंबरनथ योगी नामक एक भिक्षु के साथ तीर्थयात्रा पर संगीत और दार्शनिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए भेज दिया था। इस तीर्थयात्रा के दौरान, उन्होंने उत्तर भारत के कई स्थानों का दौरा किया और धर्म और संगीत पर एक व्यापक दृष्टिकोण प्राप्त किया जो उनकी कई रचनाओं में परिलक्षित होती थी। काशी (वाराणसी) में अपने प्रवास के दौरान, उनके गुरु चिदंबरनाथ योगी ने मुत्तुस्वामी को एक अद्वितीय वीणा प्रदान की और उसके शीघ्र बाद ही उनका निधन हो गया। चिदंबरनाथ योगी की समाधि अब भी वाराणसी के हनुमान घाट क्षेत्र में श्रीचक्र लिंगेश्वर मंदिर में देखा जा सकता है। .

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मुद्रा (भाव भंगिमा)

---- एक मुद्रा (संस्कृत: मुद्रा, (अंग्रेजी में: "seal", "mark," या "gesture")) हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म में एक प्रतीकात्मक या आनुष्ठानिक भाव या भाव-भंगिमा है। जबकि कुछ मुद्राओं में पूरा शरीर शामिल रहता है, लेकिन ज्यादातर मुद्राएं हाथों और उंगलियों से की जाती हैं। एक मुद्रा एक आध्यात्मिक भाव-भंगिमा है और भारतीय धर्म तथा धर्म और ताओवाद की परंपराओं के प्रतिमा शास्त्र व आध्यात्मिक कर्म में नियोजित प्रामाणिकता की एक ऊर्जावान छाप है। नियमित तांत्रिक अनुष्ठानों में एक सौ आठ मुद्राओं का प्रयोग होता है। योग में, आम तौर पर जब वज्रासन की मुद्रा में बैठा जाता है, तब सांस के साथ शामिल शरीर के विभिन्न भागों को संतुलित रखने के लिए और शरीर में प्राण के प्रवाह को प्रभावित करने के लिए मुद्राओं का प्रयोग प्राणायाम (सांस लेने के योगिक व्यायाम) के संयोजन के साथ किया जाता है। नवंबर 2009 में राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी में प्रकाशित एक शोध आलेख में दिखाया गया है कि हाथ की मुद्राएं मस्तिष्क के उसी क्षेत्र को उत्तेजित या प्रोत्साहित करती हैं जो भाषा की हैं। .

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मुद्रा (संगीत)

---- मुद्रा कर्णाटक संगीत में गायक का अपना चिह्न है। ---- मुद्रा हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म में एक प्रतीकात्मक या आनुष्ठानिक भाव या भाव-भंगिमा है। जबकि कुछ मुद्राओं में पूरा शरीर शामिल रहता है, लेकिन ज्यादातर मुद्राएं हाथों और उंगलियों से की जाती हैं। एक मुद्रा एक आध्यात्मिक भाव-भंगिमा है और भारतीय धर्म तथा धर्म और ताओवाद की परंपराओं के प्रतिमा शास्त्र व आध्यात्मिक कर्म में नियोजित प्रामाणिकता की एक ऊर्जावान छाप है। नियमित तांत्रिक अनुष्ठानों में एक सौ और आठ मुद्राओं का प्रयोग होता है। योग में, आम तौर पर जब वज्रासन की मुद्रा में बैठा जाता है, तब सांस के साथ शामिल शरीर के विभिन्न भागों को संतुलित रखने के लिए और शरीर में प्राण के प्रवाह को प्रभावित करने के लिए मुद्राओं का प्रयोग प्राणायाम (सांस लेने के योगिक व्यायाम) के संयोजन के साथ किया जाता है। नवंबर 2009 में राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी में प्रकाशित एक शोध आलेख में दिखाया गया है कि हाथ की मुद्राएं मस्तिष्क के उसी क्षेत्र को उत्तेजित या प्रोत्साहित करती हैं जो भाषा की हैं। .

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मोहनमंत्र

मोहनमंत्र वह मंत्र है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति को या समुदाय को मोहित किया जाता है। इसके द्वारा मनुष्य की मानसिक क्रियाओं पर प्रभाव डालकर उसको वश में किया जाता है। राज्याभिषेक के समय राजा को एक मणि, जो पर्ण वृक्ष की बनाई जाती थी, मोहनमंत्र से अभिमंत्रित करके पहिनाई जाती थी। इससे जो भी राजा के सामने जाता था वह मोहित और प्रभावित हो जाता था। युद्ध के समय मोहनमंत्र का प्रयोग शत्रु की सेना पर किया जाता था। रणदुदंभी पर मोहनमंत्र किया जाता था जिससे उसको सुनने वाले विपक्ष के सैनिक मोहित और भयभीत हो जाते थे। किसी व्यक्ति विशेष पर मोहनमंत्र करने के लिये भी उसी प्रकार पुतला बनाया जाता था जैसे बशीकरण मंत्र में किया जाता है। साँप को मोहनमंत्र द्वारा निष्क्रिय किया जाता है। .

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मीमांसासूत्र

मीमांसासूत्र, भारतीय दर्शन के सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक है। इसके रचयिता महर्षि जैमिनि हैं। इसे पूर्वमीमांसासूत्र भी कहते हैं। इसका रचनाकाल ३०० ईसापूर्व से २०० ईसापूर्व माना जाता है। मीमांसासूत्र, मीमांसा दर्शन का आधारभूत ग्रन्थ है। प्रम्परानुसार ऋषि जैमिनि को महर्षि वेद व्यास का शिष्य माना जाता है। मीमांसासूत्र काे 'पूर्वमीमांसा' तथा वेदान्त काे 'उत्तरमीमांसा' भी कहा जाता है। पूर्ममीमांसा में धर्म का विचार है अाैर उत्तरमीमांसा में ब्रह्म का। अतः पूर्वमीमांसा काे धर्ममीमांसा अाैर उत्तर मीमांसा काे ब्रह्ममीमांसा भी कहा जाता है। जैमिनि मुनि द्वारा रचित सूत्र हाेने से मीमांसा काे 'जैमिनीय धर्ममीमांसा' कहा जाता है। पूर्वमीमांसा में वेद के यज्ञपरक वचनों की व्याख्या बड़े विचार के साथ की गयी है। मीमांसा शास्त्र में यज्ञों का विस्तृत विवेचन है, इससे इसे 'यज्ञविद्या' भी कहते हैं । बारह अध्यायों में विभक्त होने के कारण यह मीमांसा 'द्वादशलक्षणी' भी कहलाती है। इस शास्त्र का 'पूर्वमीमांसा' नाम इस अभिप्राय से नहीं रखा गया है कि यह उत्तरमीमांसा से पहले बना। 'पूर्व' कहने का तात्पर्य यह है कि कर्मकाण्ड मनुष्य का प्रथम धर्म है, ज्ञानकाण्ड का अधिकार उसके उपरान्त आता है । 'मीमांसा' शब्द का अर्थ (पाणिनि के अनुसार) 'जिज्ञासा' है। जिज्ञासा, अर्थात् जानने की लालसा। मनुष्य जब इस संसार में अवतरित हुआ उसकी प्रथम जिज्ञासा यही रही थी कि वह क्या करे? ग्रन्थ का आरम्भ ही महिर्ष जैमिनि इस प्रकार करते हैं- अतएव इस दर्शनशास्त्र का प्रथम सूत्र मनुष्य की इस इच्छा का प्रतीक है। इस ग्रन्थ में ज्ञान-उपलब्धि के जिन छह साधनों की चर्चा की गई है, वे है- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि। मीमांसा दर्शन के अनुसार वेद अपौरूषेय, नित्य एवं सर्वोपरि है और वेद-प्रतिपादित अर्थ को ही धर्म कहा गया है। इसके दूसरे सूत्र में कहा गया है- मीमांसा का तत्वसिद्धान्त विलक्षण है । इसकी गणना अनीश्वरवादी दर्शनों में है। आत्मा, ब्रह्म, जगत् आदि का विवेचन इसमें नहीं है। यह केवल वेद वा उसके शब्द की नित्यता का ही प्रतिपादन करता है। इसके अनुसार मन्त्र ही सब कुछ हैं। वे ही देवता हैं; देवताओं की अलग कोई सत्ता नहीं। 'भट्टदीपिका' में स्पष्ट कहा है 'शब्द मात्रं देवता' । मीमांसकों का तर्क यह है कि सब कर्मफल के उद्देश्य से होते हैं। फल की प्राप्ति कर्म द्वारा ही होती हैं अतः वे कहते हैं कि कर्म और उसके प्रतिपादक वचनों के अतिरिक्त ऊपर से और किसी देवता या ईश्वर को मानने की क्या आवश्यकता है। मीमांसकों और नैयायिकों में बड़ा भारी भेद यह है कि मीमांसक शब्द को नित्य मानते हैं और नैयायिक अनित्य । सांख्य और मीमांसा दोनों अनीश्वरवादी हैं, पर वेद की प्रामाणिकता दोनों मानते हैं । भेद इतना ही है कि सांख्य प्रत्येक कल्प में वेद का नवीन प्रकाशन मानता है और मीमांसक उसे नित्य अर्थात् कल्पान्त में भी नष्ट न होनेवाला कहते हैं। .

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योग

पद्मासन मुद्रा में यौगिक ध्यानस्थ शिव-मूर्ति योग भारत और नेपाल में एक आध्यात्मिक प्रकिया को कहते हैं जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने (योग) का काम होता है। यह शब्द, प्रक्रिया और धारणा बौद्ध धर्म,जैन धर्म और हिंदू धर्म में ध्यान प्रक्रिया से सम्बंधित है। योग शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्री लंका में भी फैल गया है और इस समय सारे सभ्य जगत्‌ में लोग इससे परिचित हैं। इतनी प्रसिद्धि के बाद पहली बार ११ दिसंबर २०१४ को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रत्येक वर्ष २१ जून को विश्व योग दिवस के रूप में मान्यता दी है। भगवद्गीता प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है। उसमें योग शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे बुद्धियोग, संन्यासयोग, कर्मयोग। वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं पतंजलि योगदर्शन में क्रियायोग शब्द देखने में आता है। पाशुपत योग और माहेश्वर योग जैसे शब्दों के भी प्रसंग मिलते है। इन सब स्थलों में योग शब्द के जो अर्थ हैं वह एक दूसरे के विरोधी हैं परंतु इस प्रकार के विभिन्न प्रयोगों को देखने से यह तो स्पष्ट हो जाता है, कि योग की परिभाषा करना कठिन कार्य है। परिभाषा ऐसी होनी चाहिए जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से मुक्त हो, योग शब्द के वाच्यार्थ का ऐसा लक्षण बतला सके जो प्रत्येक प्रसंग के लिये उपयुक्त हो और योग के सिवाय किसी अन्य वस्तु के लिये उपयुक्त न हो। .

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शान्ति मंत्र

शान्ति मन्त्र वेदों के वे मंत्र हैं जो शान्ति की प्रार्थना करते हैं। प्राय: हिन्दुओं के धार्मिक कृत्यों के आरम्भ और अन्त में इनका पाठ किया जाता है। Shanti Mantras are found in Upanishads, where they are invoked in the beginning of some topics of Upanishads.

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शारदातिलक

शारदातिलक एक संस्कृत ग्रन्थ है जिसमें गणपति, शिव, विष्णु, तथा शक्ति आदि अन्य देवताओं के होम में प्रयुक्त मन्त्रों एवं विधि का संग्रह है। इसका संग्रह ८०० ई में श्रीलक्ष्मणदेसिकेन्द्र द्वारा की गयी थी। ऐसी मान्यता है कि वे नासिक के निवासी थे। श्रेणी:हिन्दू धर्म.

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शिवानन्द गोस्वामी

शिवानन्द गोस्वामी | शिरोमणि भट्ट (अनुमानित काल: संवत् १७१०-१७९७) तंत्र-मंत्र, साहित्य, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, सम्प्रदाय-ज्ञान, वेद-वेदांग, कर्मकांड, धर्मशास्त्र, खगोलशास्त्र-ज्योतिष, होरा शास्त्र, व्याकरण आदि अनेक विषयों के जाने-माने विद्वान थे। इनके पूर्वज मूलतः तेलंगाना के तेलगूभाषी उच्चकुलीन पंचद्रविड़ वेल्लनाडू ब्राह्मण थे, जो उत्तर भारतीय राजा-महाराजाओं के आग्रह और निमंत्रण पर राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के अन्य प्रान्तों में आ कर कुलगुरु, राजगुरु, धर्मपीठ निर्देशक, आदि पदों पर आसीन हुए| शिवानन्द गोस्वामी त्रिपुर-सुन्दरी के अनन्य साधक और शक्ति-उपासक थे। एक चमत्कारिक मान्त्रिक और तांत्रिक के रूप में उनकी साधना और सिद्धियों की अनेक घटनाएँ उल्लेखनीय हैं। श्रीमद्भागवत के बाद सबसे विपुल ग्रन्थ सिंह-सिद्धांत-सिन्धु लिखने का श्रेय शिवानंद गोस्वामी को है।" .

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शुक्रनीति

शुक्रनीति एक प्रसिद्ध नीतिग्रन्थ है। इसकी रचना करने वाले शुक्र का नाम महाभारत में 'शुक्राचार्य' के रूप में मिलता है। शुक्रनीति के रचनाकार और उनके काल के बारे में कुछ भी पता नहीं है। शुक्रनीति में २००० श्लोक हैं जो इसके चौथे अध्याय में उल्लिखित है। उसमें यह भी लिखा है कि इस नीतिसार का रात-दिन चिन्तन करने वाला राजा अपना राज्य-भार उठा सकने में सर्वथा समर्थ होता है। इसमें कहा गया है कि तीनों लोकों में शुक्रनीति के समान दूसरी कोई नीति नहीं है और व्यवहारी लोगों के लिये शुक्र की ही नीति है, शेष सब 'कुनीति' है। शुक्रनीति की सामग्री कामन्दकीय नीतिसार से भिन्न मिलती है। इसके चार अध्यायों में से प्रथम अध्याय में राजा, उसके महत्व और कर्तव्य, सामाजिक व्यवस्था, मन्त्री और युवराज सम्बन्धी विषयों का विवेचन किया गया है। .

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श्री सूक्त

श्री सूक्तम् देवी लक्ष्मी की अाराधना करने हेतु उनको समर्पित मंत्र हैं। इसे 'लक्ष्मी सूक्तम्' भी कहते हैं। यह सूक्त ऋग्वेद से लिया गया है। इस सूक्त का पाठ धन-धान्य की अधिष्ठात्री, देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्ति के लिए किया जाता है। .

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श्रीभार्गवराघवीयम्

श्रीभार्गवराघवीयम् (२००२), शब्दार्थ परशुराम और राम का, जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००२ ई में रचित एक संस्कृत महाकाव्य है। इसकी रचना ४० संस्कृत और प्राकृत छन्दों में रचित २१२१ श्लोकों में हुई है और यह २१ सर्गों (प्रत्येक १०१ श्लोक) में विभक्त है।महाकाव्य में परब्रह्म भगवान श्रीराम के दो अवतारों परशुराम और राम की कथाएँ वर्णित हैं, जो रामायण और अन्य हिंदू ग्रंथों में उपलब्ध हैं। भार्गव शब्द परशुराम को संदर्भित करता है, क्योंकि वह भृगु ऋषि के वंश में अवतीर्ण हुए थे, जबकि राघव शब्द राम को संदर्भित करता है क्योंकि वह राजा रघु के राजवंश में अवतीर्ण हुए थे। इस रचना के लिए, कवि को संस्कृत साहित्य अकादमी पुरस्कार (२००५) तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। महाकाव्य की एक प्रति, कवि की स्वयं की हिन्दी टीका के साथ, जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा ३० अक्टूबर २००२ को किया गया था। .

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श्रीसीतारामकेलिकौमुदी

श्रीसीतारामकेलिकौमुदी (२००८), शब्दार्थ: सीता और राम की (बाल) लीलाओं की चन्द्रिका, हिन्दी साहित्य की रीतिकाव्य परम्परा में ब्रजभाषा (कुछ पद मैथिली में भी) में रचित एक मुक्तक काव्य है। इसकी रचना जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००७ एवं २००८ में की गई थी।रामभद्राचार्य २००८, पृष्ठ "क"–"ड़"काव्यकृति वाल्मीकि रामायण एवं तुलसीदास की श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड की पृष्ठभूमि पर आधारित है और सीता तथा राम के बाल्यकाल की मधुर केलिओं (लीलाओं) एवं मुख्य प्रसंगों का वर्णन करने वाले मुक्तक पदों से युक्त है। श्रीसीतारामकेलिकौमुदी में ३२४ पद हैं, जो १०८ पदों वाले तीन भागों में विभक्त हैं। पदों की रचना अमात्रिका, कवित्त, गीत, घनाक्षरी, चौपैया, द्रुमिल एवं मत्तगयन्द नामक सात प्राकृत छन्दों में हुई है। ग्रन्थ की एक प्रति हिन्दी टीका के साथ जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन ३० अक्टूबर २००८ को किया गया था। .

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सत्यमेव जयते

भारत का राष्ट्रीय चिह्न सत्यमेव जयते (संस्कृत विस्तृत रूप: सत्यं एव जयते) भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य है। इसका अर्थ है: सत्य ही जीतता है / सत्य की ही जीत होती है। यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे देवनागरी लिपि में अंकित है। यह प्रतीक उत्तर भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश में वाराणसी के निकट सारनाथ में 250 ई.पू.

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सदाचार स्मृति

सदाचार स्मृति माध्वाचार्यकृत एक लघुग्रन्थ है। इसमें लगभग ३५ श्लोक हैं। इस ग्रन्थ में नित्यकर्मों के बारे में विस्तृत मार्गदर्शन दिया गया है-.

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सरस्वती वंदना मंत्र

सरस्वती वंदना मंत्र एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण हिंदू मंत्र है जिसका पठन उच्च शिक्षा और बुद्धिमत्ता की प्राप्ति के लिए किया जाता है। मां सरस्वती को विद्या और कला की देवी माना जाता है। भारत में संगीतकारों से लेकर वैज्ञानिकों तक हर कोई ज्ञान-प्राप्ति और मार्गदर्शन के लिए मां सरस्वती देवी से पूजा-प्रार्थना करता है। मां सरस्वती के भक्तगण सौभाग्य-प्राप्ति के लिए हर सुबह सरस्वती वंदना मंत्र का पठन करते हैं। हर किसी के लिए इस वंदना के - अर्थात गीत के अलग-अलग मायने हैं। अर्थात यदि एक विद्यार्थी ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रार्थना करता है तो एक संगीतकार सुर-ताल इत्यादि की जानकारी के लिए। .

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सर्वानुक्रमणी

वेदराशि की सुरक्षा के लिए तथा मंत्रों की प्राचीन परंपरा को सुव्यवस्थित बनाए रखने के उद्देश्य से प्राचीन महर्षियों ने प्रत्येक वैदिक संहिता के विविध विषयों की क्रमबद्ध अनुक्रमणी (या 'अनुक्रमणिका') बनाई है। संस्कृत वाङ्मय के सूत्रसाहित्य के अंतर्गत छह वेदांगों के अतिरिक्त अनुक्रमणियों का भी समावेश है। ऐसी अनुक्रमाणियाँ अनेक हैं। इनमें वैदिक संहिताओं के सकल सूक्त, उनमें प्रयुक्त पद, प्रत्येक मंत्र के द्रष्टा ऋषि, प्रत्येक ऋचा के छंद और देवता क्रमबद्ध रूप से अनुसूचित हैं। संकलित विषय के अनुसार इनकी पृथक् पृथक् संज्ञाएँ हैं- जैसे.

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सामगान

आरोह एवं अवरोह से युक्‍त मंत्रों का गान साम कहलाता है। साम से सम्‍बद्ध वेद सामवेद कहलाता है। वस्‍तुत: सामवेद में ऋग्‍वेद की उन ऋचाओं का संकलन है जो गान के योग्‍य समझी गयी थीं। ऋचाओं का गान ही सामवेद का मुख्‍य उद्देश्‍य माना जाता है। सामवेद मुख्‍यत: उपासना से सम्‍बद्ध है, सोमयाग में आवाहन के योग्‍य देवताओं की स्‍तुति‍याँ इसमें प्राप्‍त होती है। यज्ञ-सम्‍पादन काल में उद्गाता इन मंत्रों का गान करता था। संपूर्ण सामवेद में सोमरस, सोमदेवता, सोमयाग, सोमपान का महत्‍व अंकि‍त है इसलि‍ए इसे सोमप्रधान वेद भी कहा जाता है। सामगान की पृथक परंपराओं के कारण सामवेद की एक सहस्र (हजार) शाखाओं का उल्‍लेख महाभाष्‍य में प्राप्‍त होता है -'सहस्‍त्रवर्त्‍मा सामवेद:।' सम्‍प्रति‍ सामवेद की तीन शाखायें उपलब्‍ध हैं - कौथुमीय, राणायनीय, जैमि‍नीय। ये तीनों शाखायें क्रमश: गुजरात, महाराष्‍ट्र, कर्नाटक एवं केरल में मुख्‍य रूप से प्रचलि‍त है। इन संहि‍ताओं का संक्षि‍प्‍त परि‍चय इस प्रकार है - .

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संध्यावन्दनम्

जिला तंजावुर, तमिल नाडु। संध्यावंदनम् या संध्यावंदन (संस्कृत) या संध्योपासनम् (संध्योपासन) उपनयन संस्कार द्वारा धार्मिक अनुष्ठान के लिए संस्कारित हिंदू धर्म में गुरू द्वारा उसके निष्पादन हेतु दिए गए निदेशानुसार की जाने वाली महत्वपूर्ण नित्य क्रिया है। संध्यावंदन में महान वेदों से उद्धरण शामिल हैं जिनका दिन में तीन बार पाठ किया जाता है। एक सूर्योदय के दौरान (जब रात्रि से दिन निकलता है), अगला दोपहर के दौरान (जब आरोही सूर्य से अवरोही सूर्य में संक्रमण होता है) और सूर्यास्त के दौरान (जब दिन के बाद रात आती है)। प्रत्येक समय इसे एक अलग नाम से जाना जाता है - प्रातःकाल में प्रातःसंध्या, दोपहर में मध्याह्निक और सायंकाल में सायंसंध्या। शिवप्रसाद भट्टाचार्य इसे “हिंदुओं की पूजन पद्धति संबंधी संहिता” के रूप में परिभाषित करते हैं। यह शब्द संस्कृत का एक संयुक्त शब्द है जिसमें संध्या, का अर्थ है “मिलन”। जिसका दिन और रात की संधि या मिलन किंवा संगम से आशय है और वंदन का अर्थ पूजन से होता है। प्रातःकाल और सायंकाल के अलावा, दोपहर को दिन का तीसरा संगम माना जाता है। इसलिए उन सभी समयों में दैनिक ध्यान और प्रार्थना की जाती है। स्वयं शब्द संध्या का उपयोग दैनिक अनुष्ठान के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है जिसका आशय दिन के आरंभ और अस्त के समय इन अर्चनाओं का किया जाना है। वेदों की ऋचाओं तथा श्लोकों के आधार पर आवाहन आदि करके गायत्री मंत्र का २८, ३२, ५४ या १०८ बार जाप करना संध्योपासन का अभिन्न अंग है (यह संध्यावंदन कर रहे व्यक्ति पर निर्भर करता है। वह किसी भी संख्या में मंत्र का जाप कर सकता है। "यथाशक्ति गायत्री मंत्र जपमहं करिष्ये।" ऐसा संध्यावन्दन के संकल्प में जोड़कर वह यथाशक्ति मंत्र का जाप कर सकता है।)। मंत्र के अलावा संध्या अनुष्ठान में विचारों को भटकने से रोकने तथा ध्यान को केंद्रित करने के लिए कुछ अन्य शुद्धिकारक तथा प्रारंभिक अनुष्ठान हैं (संस्कृत: मंत्र)। इनमें से कुछ में ग्रहों और हिन्दू पंचांग के महीनों के देवताओं को संध्यावंदन न कर पाने तथा पिछली संध्या के बाद से किए गए पापों के प्रायश्चित स्वरूप में जल अर्पित किया जाता है। इसके अतिरिक्त एक संध्यावंदन के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अनुष्ठानों में प्रातः सूर्य की तथा सायं वरुण की मित्रदेव के रूप में पूजा की जाती है। इसके अलावा, ब्रह्मचारियों के लिए सांध्यवंदन की समाप्ति पर हवन करना और समिधादान करना आवश्यक होता है। पूजा के अन्य पहलुओं में जो कि मुख्यतः संध्यावंदना में शामिल नहीं है, जिनमें ध्यान मंत्रों का उच्चारण (संस्कृतः जप) तथा आराधक द्वारा देवी-देवताओं की पूजा शामिल है। ध्यान-योग से संबंध के बारे में मोनियर-विलियम्स लिखते हैं कि यदि इसे ध्यान की क्रिया माना जाए तो संध्या शब्द की उत्पत्ति का संबंध सन-ध्याई के साथ हो सकता है। .

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स्तोत्र

संस्कृत साहित्य में किसी देवी-देवता की स्तुति में लिखे गये काव्य को स्तोत्र कहा जाता है। संस्कृत साहित्य में यह स्तोत्रकाव्य के अन्तर्गत आता है। महाकवि कालिदास के अनुसार 'स्तोत्रं कस्य न तुष्टये' अर्थात् विश्व में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो स्तुति से प्रसन्न न हो जाता हो। इसलिये विभिन्न देवताओं को प्रसन्न करने हेतु वेदों, पुराणों तथा काव्यों में सर्वत्र सूक्त तथा स्तोत्र भरे पड़े हैं। अनेक भक्तों द्वारा अपने इष्टदेव की आराधना हेतु स्तोत्र रचे गये हैं। विभिन्न स्तोत्रों का संग्रह स्तोत्ररत्नावली के नाम से उपलब्ध है। निम्नलिखित स्तोत्र 'सरस्वतीस्तोत्र' से लिया गया है- .

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स्वस्तिक मन्त्र

हिन्दू धर्म का प्रतिक यह चिन्ह हैं और कई पीढ़ियों से इस्तेमाल में हैं। स्वस्तिक मंत्र या स्वस्ति मन्त्र शुभ और शांति के लिए प्रयुक्त होता है। स्वस्ति .

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स्वाधिष्ठान चक्र

स्वाधिष्ठान चक्र तंत्र और योग साधना की चक्र संकल्पना का दूसरा चक्र है। स्व का अर्थ है आत्मा। यह चक्र त्रिकास्थि (पेडू के पिछले भाग की पसली) के निचले छोर में स्थित होता है। इसका मंत्र वम (ङ्क्ररू) है। .

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सूर्य देवता

कोई विवरण नहीं।

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सूर्य नमस्कार

सूर्य नमस्कार की बारह स्थितियाँ thumb सूर्य नमस्कार योगासनों में सर्वश्रेष्ठ है। यह अकेला अभ्यास ही साधक को सम्पूर्ण योग व्यायाम का लाभ पहुंचाने में समर्थ है। इसके अभ्यास से साधक का शरीर निरोग और स्वस्थ होकर तेजस्वी हो जाता है। 'सूर्य नमस्कार' स्त्री, पुरुष, बाल, युवा तथा वृद्धों के लिए भी उपयोगी बताया गया है। .

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सूक्त

वेदों के संहिता भाग में मंत्रों का शुद्ध रूप रहता है जो देवस्तुति एवं विभिन्न यज्ञों के समय पढ़ा जाता है। अभिलाषा प्रकट करने वाले मंत्रों तथा गीतों का संग्रह होने से संहिताओं को संग्रह कहा जाता है। इन संहिताओं में अनेक देवताओं से सम्बद्ध सूक्त प्राप्त होते हैं। वृहद्देवताकार सूक्त की परिभाषा करते हैं----------- "सम्पूर्णमृषिवाक्यं तु सूक्तमित्यsभिधीयते"अर्थात् मन्त्रद्रष्टा ऋषि के सम्पूर्ण वाक्य को सूक्त कहते हैँ,जिसमेँ एक अथवा अनेक मन्त्रों में देवताओं के नाम दिखलाई पडते हैं। सूक्त के चार भेद:- देवता,ऋषि,छन्द एवं अर्थ। .

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हरे कृष्ण (मंत्र)

हरे कृष्ण मंत्र कलि संतारण उपनिषद में वर्णित एक मंत्र है जिसे वैष्णव लोग 'महामन्त्र' कहते हैं। १५वीं शताब्दी में चैतन्य महाप्रभु के भक्ति आन्दोलन के समय यह मंत्र प्रसिद्ध हुआ। यह मंत्र निम्नलिखित है- श्रेणी:हिन्दू धर्म.

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हिन्दू संस्कार का इतिहास

संस्कारों के विवरण हेतु देखें - सनातन धर्म के संस्कार संस्कार शब्द का अर्थ है - शुद्धिकरण; अर्थात् मन, वाणी और शरीर का सुधार। हमारी सारी प्रवृतियों का संप्रेरक हमारे मन में पलने वाला संस्कार होता है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में व्यक्ति निर्माण पर जोर दिया गया है। हिन्दू संस्कारों का इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है। .

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जॉन वुडरफ

अंगूठाकार सर जॉन वुडरफ (Sir John Woodroffe) (१८६५ - १९३६) ब्रिटेन में जन्में एक भारतविद थे। आर्थर एव्लन (Arthur Avalon) उनका छद्मनाम था। उन्होने भारतीय दर्शन एवं योग पर बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया जिससे पश्चिमी जगत में भारत के प्रति रूचि जागी। .

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वैदिक सभ्यता

प्राचीन भारत वैदिक सभ्यता प्राचीन भारत की सभ्यता है जिसमें वेदों की रचना हुई। भारतीय विद्वान् तो इस सभ्यता को अनादि परम्परा आया हुआ मानते हैं | पश्चिमी विद्वानो के अनुसार आर्यों का एक समुदाय भारत मे लगभग 1500 इस्वी ईसा पूर्व आया और उनके आगमन के साथ ही यह सभ्यता आरंभ हुई थी। आम तौर पर अधिकतर विद्वान वैदिक सभ्यता का काल 1500 इस्वी ईसा पूर्व से 500 इस्वी ईसा पूर्व के बीच मे मानते है, परन्तु नए पुरातत्त्व उत्खननो से मिले अवशेषों मे वैदिक सभ्यता के कई अवशेष मिले हैं जिससे आधुनिक विद्वान जैसे डेविड फ्राले, तेलगिरी, बी बी लाल, एस र राव, सुभाष काक, अरविन्दो यह मानने लगे है कि वैदिक सभ्यता भारत मे ही शुरु हुई थी और ऋग्वेद का रचना शुंग काल में हुयी, क्योंकि आर्यो के भारत मे आने का न तो कोई पुरातत्त्व उत्खननो से प्रमाण मिला है और न ही डी एन ए अनुसन्धानो से कोई प्रमाण मिला है इस काल में वर्तमान हिंदू धर्म के स्वरूप की नींव पड़ी थी जो आज भी अस्तित्व में है। वेदों के अतिरिक्त संस्कृत के अन्य कई ग्रंथो की रचना भी इसी काल में हुई थी। वेदांगसूत्रौं की रचना मन्त्र ब्राह्मणग्रंथ और उपनिषद इन वैदिकग्रन्थौं को व्यवस्थित करने मे हुआ है | अनन्तर रामायण, महाभारत,और पुराणौंकी रचना हुआ जो इस काल के ज्ञानप्रदायी स्रोत मानागया हैं। अनन्तर चार्वाक, तान्त्रिकौं,बौद्ध और जैन धर्म का उदय भी हुआ | इतिहासकारों का मानना है कि आर्य मुख्यतः उत्तरी भारत के मैदानी इलाकों में रहते थे इस कारण आर्य सभ्यता का केन्द्र मुख्यतः उत्तरी भारत था। इस काल में उत्तरी भारत (आधुनिक पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा नेपाल समेत) कई महाजनपदों में बंटा था। .

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वैदिक साहित्य

वैदिक साहित्य भारतीय संस्कृति के प्राचीनतम स्वरूप पर प्रकाश डालने वाला तथा विश्व का प्राचीनतम् साहित्य है। वैदिक साहित्य को 'श्रुति' भी कहा जाता है, क्योंकि सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विराटपुरुष भगवान् की वेदध्वनि को सुनकर ही प्राप्त किया है। अन्य ऋषियों ने भी इस साहित्य को श्रवण-परम्परा से हीे ग्रहण किया था। वेद के मुख्य मन्त्र भाग को संहिता कहते हैं। वैदिक साहित्य के अन्तर्गत ऊपर लिखे सभी वेदों के कई उपनिषद, आरण्यक तथा उपवेद आदि भी आते जिनका विवरण नीचे दिया गया है। इनकी भाषा संस्कृत है जिसे अपनी अलग पहचान के अनुसार वैदिक संस्कृत कहा जाता है - इन संस्कृत शब्दों के प्रयोग और अर्थ कालान्तर में बदल गए या लुप्त हो गए माने जाते हैं। ऐतिहासिक रूप से प्राचीन भारत और हिन्दू-आर्य जाति के बारे में इनको एक अच्छा सन्दर्भ माना जाता है। संस्कृत भाषा के प्राचीन रूप को लेकर भी इनका साहित्यिक महत्व बना हुआ है। रचना के अनुसार प्रत्येक शाखा की वैदिक शब्द-राशि का वर्गीकरण- चार भाग होते हैं। पहले भाग (संहिता) के अलावा हरेक में टीका अथवा भाष्य के तीन स्तर होते हैं। कुल मिलाकर ये हैं.

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वैदिक स्वराघात

परम्परागत रूप से वैदिक स्वराघात के तीन विभाग किये जाते हैं- उदात्त, अनुदात्त और स्वरित। .

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वेद

वेद प्राचीन भारत के पवितत्रतम साहित्य हैं जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के, मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं, जो ईश्वर की वाणी है। ये विश्व के उन प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथों में हैं जिनके पवित्र मन्त्र आज भी बड़ी आस्था और श्रद्धा से पढ़े और सुने जाते हैं। 'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् शब्द से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान के ग्रंथ' है। इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं। आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है -.

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वेदपाठ

वेदपाठ का अर्थ वेद के मंत्रों को गाना या पढ़ना। वेदों के मौखिक पाठ की एक अत्यन्त प्राचीन परम्परा रही है। वेदपाठ की यह परम्परा सबसे प्राचीन बिना टूटे चली आ रही परम्परा मानी जाती है। यूनेस्को ने ७ नवम्बर २००३ को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति घोषित किया था। .

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खिलानि

ऋग्वेद के उन ९८ 'अनाम' मंत्रों के समूह को खिलानि कहते हैं जो वाष्कल शाखा में विद्यमान हैं किन्तु शाकल शाखा में नहीं। ऐसा माना जाता है कि ये ऋग्वेद में बाद में जोड़े गये किन्तु फिर भी वैदिक संस्कृत के मंत्रकाल के हैं। श्रेणी:वेद.

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गाथा

वैदिक साहित्य का यह महत्वपूर्ण शब्द ऋग्वेद की संहिता में गीत या मंत्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है (ऋग्वेद 8. 32.1, 8.71.14)। 'गै' (गाना) धातु से निष्पन्न होने के कारण गीत ही इसका व्युत्पत्तिलभ्य तथा प्राचीनतम अर्थ प्रतीत होता है। .

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गाथा (अवेस्ता)

अवेस्ता में भी गाथा का वही अर्थ है जो वैदिक गाथा का है अर्थात् गेय मंत्र या गति का। ये संख्या में पांच हैं जिनके भीतर 17 मंत्र सम्मिलित माने जाते हैं। ये पांचों छंदों की दृष्टि से वर्गीकृत है और अपने आदि अक्षर के अनुसार विभिन्न नामों से विख्यात है। गाथा अवेस्ता का प्राचीनतम अंश है जो रचना की दृष्टि से भी अत्यंत महनीय मानी जाती है। इनके भीतर पारसी धर्म के सुधारक तथा प्रतिष्ठात्मक जरथुस्त्र मानवीय और ऐतिहासिक रूप में अपनी अभिव्यक्ति पाते हैं; यहाँ उनका यह काल्पनिक रूप, जो अवेस्ता के अन्य अंशों में प्रचुरता से उपलब्ध होता है, नितांत सत्ताहीन है। यहाँ वे ठोस जमीन पर चलनेवाले मानव हैं जिनमें जगत् के कार्यों के प्रति आशा निराशा, हर्ष विषाद की स्पष्ट छाया प्रतिबिंबित होती है। एक द्वितीय ईश्वर के प्रति उनकी आस्था नितांत दृढ़ है जो जीवन के गतिशील परिवर्तन में भी अपनी एकता तथा सत्ता दृढ़ता से बनाए रहता है। .

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गायत्री मन्त्र

गायत्री महामंत्र (13px 13px) वेदों का एक महत्त्वपूर्ण मंत्र है जिसकी महत्ता ॐ के लगभग बराबर मानी जाती है। यह यजुर्वेद के मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः और ऋग्वेद के छंद 3.62.10 के मेल से बना है। इस मंत्र में सवित्र देव की उपासना है इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस मंत्र के उच्चारण और इसे समझने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। इसे श्री गायत्री देवी के स्त्री रुप मे भी पुजा जाता है। 'गायत्री' एक छन्द भी है जो ऋग्वेद के सात प्रसिद्ध छंदों में एक है। इन सात छंदों के नाम हैं- गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, विराट, त्रिष्टुप् और जगती। गायत्री छन्द में आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण होते हैं। ऋग्वेद के मंत्रों में त्रिष्टुप् को छोड़कर सबसे अधिक संख्या गायत्री छंदों की है। गायत्री के तीन पद होते हैं (त्रिपदा वै गायत्री)। अतएव जब छंद या वाक के रूप में सृष्टि के प्रतीक की कल्पना की जाने लगी तब इस विश्व को त्रिपदा गायत्री का स्वरूप माना गया। जब गायत्री के रूप में जीवन की प्रतीकात्मक व्याख्या होने लगी तब गायत्री छंद की बढ़ती हुई महिता के अनुरूप विशेष मंत्र की रचना हुई, जो इस प्रकार है: .

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गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय

गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय भारत के उत्तराखण्ड राज्य के हरिद्वार शहर में स्थित है। इसकी स्थापना सन् १९०२ में स्वामी श्रद्धानन्द ने की थी। भारत में लार्ड मैकाले द्वारा प्रतिपादित अंग्रेजी माध्यम की पाश्चात्य शिक्षा नीति के स्थान पर राष्ट्रीय विकल्प के रूप में राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम से भारतीय साहित्य, भारतीय दर्शन, भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के साथ-साथ आधुनिक विषयों की उच्च शिक्षा के अध्ययन-अध्यापन तथा अनुसंधान के लिए यह विश्वविद्यालय स्थापित किया गया था। इस विश्वविद्यालय का प्रमुख उद्देश्य जाति और छुआ-छूत के भेदभाव के बिना गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत् अध्यापकों एवं विद्यार्थियों के मध्य निरन्तर घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित कर छात्र-छात्राओं को प्राचीन एवं आधुनिक विषयों की शिक्षा देकर उनका मानसिक और शारीरिक विकास कर चरित्रवान आदर्श नागरिक बनाना है। विश्वविद्यालय हरिद्वार रेलवे स्टेशन से लगभग 5 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। जून 1962 में भारत सरकार ने इस शिक्षण संस्था के राष्ट्रीय स्वरूप तथा शिक्षा के क्षेत्र में इसके अप्रतिम् योगदान को दृष्टि में रखते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के एक्ट 1956 की धारा 3 के अन्तर्गत् समविश्वविद्यालय (डीम्ड यूनिवर्सिटी) की मान्यता प्रदान की और वैदिक साहित्य, संस्कृत साहित्य, दर्शन, हिन्दी साहित्य, अंग्रेजी, मनोविज्ञान, गणित तथा प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्त्व विषयों में स्नातकोत्तर अध्ययन की व्यवस्था की गई। उपरोक्त विषयों के अतिरिक्त वर्तमान में विश्वविद्यालय में भौतिकी, रसायन विज्ञान, कम्प्यूटर विज्ञान, अभियांत्रिकी, आयुर्विज्ञान व प्रबन्धन के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा स्थापित स्वायत्तशासी संस्थान ‘राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद्’ (NACC) द्वारा मई 2002 में विश्वविद्यालय को चार सितारों (****) से अलंकृत किया गया था। परिषद् के सदस्यों ने विश्वविद्यालय की संस्तुति यहां के परिवेश, शैक्षिक वातावरण, शुद्ध पर्यावरण, बृहत् पुस्तकालय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर के संग्रहालय आदि से प्रभावित होकर की थी। विश्वविद्यालय की सभी उपाधियां भारत सरकार/विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा मान्य हैं। यह विश्वविद्यालय भारतीय विश्वविद्यालय संघ (A.I.U.) तथा कामनवैल्थ विश्वविद्यालय संघ का सदस्य है। .

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गौतम

संस्कृत साहित्य में गौतम का नाम अनेक विद्याओं से संबंधित है। वास्तव में गौतम ऋषि के गोत्र में उत्पन्न किसी व्यक्ति को 'गौतम' कहा जा सकता है अत: यह व्यक्ति का नाम न होकर गोत्रनाम है। वेदों में गौतम मंत्रद्रष्टा ऋषि माने गए हैं। एक मेधातिथि गौतम, धर्मशास्त्र के आचार्य हो गए हैं। बुद्ध को भी 'गौतम' अथवा (पाली में 'गोतम') कहा गया है। न्यायसूत्रों के रचयिता भी गौतम माने जाते हैं। उपनिषदों में भी गौतम नामधारी अनेक व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है। पुराणों, महाभारत तथा रामायण में भी गौतम की चर्चा है। यह कहना कठिन है कि ये सभी गौतम एक ही है। रामायण में ऋषि गौतम तथा उनकी पत्नी अहल्या की कथा मिलती है। अहल्या के शाप का उद्धार राम ने मिथिला के रास्ते में किया था। अत: गौतम का निवास मिथिला में ही होना चाहिए और यह बात मिथिला में 'गौतमस्थान' तथा 'अहल्यास्थान' नाम से प्रसिद्ध स्थानों से भी पुष्ट होती है। चूँकि न्यायशास्त्र के लिये मिथिला विख्यात रही है अत: गौतम (नैयायिक) का मैथिल होना इसका मुख्य कारण हो सकता है। .

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ओं मणिपद्मे हूं

ॐ मणिपद्मे हूँ महात्मा बुद्ध के चित्र के साथ पत्थर पर लिखा गया मंत्र ॐ मणिपद्मे हुम् एक संस्कृत मंत्र है जिसका संबंध अवलोकितेश्वर (करुणा के बोधिसत्त्व) से है। यह तिब्बती बौद्ध धर्म का मूल मंत्र है। यह प्रायः पत्थरों पर लिखा जाता है या फिर कागज पर लिख कर पूजाचक्र में लगा दिया जाता है। मान्यता है कि इस पहिये को जितनी बार घुमाया जायेगा यह उतनी बार मंत्र बोलने के बराबर फल देगा। .

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आदित्यहृदयम्

आदित्यहृदयम, आदित्य (सूर्य) की स्तुति के मंत्र हैं। आदित्यहृदयम् सूर्य की स्तुति के मंत्र है। ये मंत्र वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड (काण्ड - ६) में आये हैं। जब राम, रावण से युद्ध के लिये रणक्षेत्र में खड़े हैं उस समय अगस्त्य ऋषि ने राम को सूर्य की स्तुति करने की सलाह देते हुए ये मंत्र कहे हैं। रावण के विभिन्न योद्धाओं से लड़ते हुए राम थके हुए हैं और फिर रावण के सम्मुख युद्ध के लिये उद्यत हैं तब अगस्त्य ऋषि उन्हें सूर्य की उपासना करने की शिक्षा देते हैं और कहते हैं कि आप सूर्य की उपासना करें जिससे आप सभी शत्रुओं का नाश कर पायेंगे और सभी प्रकार का मंगल होगा। .

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कनफटा

कनफटा गोरख संप्रदाय के योगियों का एक वर्ग है। दीक्षा के समय कान छिदवाकर उसमें मुद्रा या कुंडल धारण करने के कारण इन्हें कनफटा कहते हैं। मुद्रा अथवा कुंडल को दर्शन और पवित्री भी कहते हैं। इसी आधार पर कनफटा योगियों को 'दरसनी साधु' भी कहा जाता है। नाथयोगी संप्रदाय में ऐसे योगी, जो कान नहीं छिदवाते और कुंडल धारण नहीं करते, औघड़ कहलाते हैं। औघड़ जालंधरनाथ के और कनफटे मत्स्येंद्रनाथ तथा गोरखनाथ के अनुयायी माने जाते हैं, क्योंकि प्रसिद्ध है कि जालंधरनाथ औघड़ थे और मत्स्येंद्रनाथ एवं गोरखनाथ कनफटे। कनफटे योगियों में विधवा स्त्रियाँ तथा योगियों की पत्नियाँ भी कुंडल धारण करती देखी जाती हैं। यह क्रिया प्राय: किसी शुभ दिन अथवा अधिकतर वसंतपंचमी के दिन संपन्न की जाती है और इसमें मंत्रोप्रयोग भी होता है। कान चिरवाकर मुद्रा धारण करने की प्रथा के प्रवर्तन के संबंध में दो मत मिलते हैं। एक मत के अनुसार इसका प्रवर्तन मत्स्येन्द्रनाथ ने और दूसरे मत के अनुसार गोरक्षनाथ ने किया था। कर्णकुंडल धारण करने की प्रथा के आरंभ की खोज करते हुए विद्वानों ने एलोरा गुफा की मूर्ति, सालीसेटी, एलीफैंटा, आरकाट जिले के परशुरामेश्वर के शिवलिंग पर स्थापित मूर्ति आदि अनेक पुरातात्विक सामग्रियों की परीक्षा कर निष्कर्ष निकाला है कि मत्स्येंद्र और गोरक्ष के पूर्व भी कर्णकुंडल धारण करने की प्रथा थी और केवल शिव की ही मूर्तियों में यह बात पाई जाती है। कहा जाता है, गोरक्षनाथ ने (शंकराचार्य द्वारा संगठित शैव संन्यासियों से) अवशिष्ट शैवों का 12 पंथों में संगठन किया जिनमें गोरखनाथी प्रमुख हैं। इन्हें ही कनफटा कहा जाता है। एक मत यह भी मिलता है कि गोरखनाथी लोग गोरक्षनाथ को संप्रदाय का प्रतिष्ठाता मानते हैं जबकि कनफटे उन्हें 'पुनर्गठनकर्ता' कहते हैं। इन लोगों के मठ, तीर्थस्थान आदि बंगाल, सिक्किम, नेपाल, कश्मीर, पंजाब (पेशावर और लाहौर), सिंध, काठियावाड़, बंबई, राजस्थान, उड़ीसा आदि प्रदेशों में पाए जाते हैं। श्रेणी:भारतीय संस्कृति श्रेणी:हिन्दू धर्म.

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कलरीपायट्टु

कलरीपायट्टु (मलयालमകളരിപയറ്റ്) दक्षिणी राज्य केरल से व्युत्पन्न भारत की एक युद्ध कला है। संभवतः सबसे पुरानी अस्तित्ववान युद्ध पद्धतियों में से एक, ये केरल में और तमिलनाडु व कर्नाटक से सटे भागों में साथ ही पूर्वोत्तर श्रीलंका और मलेशिया के मलयाली समुदाय के बीच प्रचलित है। इसका अभ्यास मुख्य रूप से केरल की योद्धा जातियों जैसे नायर, एज्हावा द्वारा, किया जाता था.

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अनाहत चक्र

अनाहत चक्र तंत्र और योग साधना की चक्र संकल्पना का चौथा चक्र है। अनाहत का अर्थ है शाश्वत। यह चक्र हृदय के समीप सीने के मध्य भाग में स्थित है। इसका मंत्र यम है। .

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अय्यप्प

अय्यप्प हिंदू देवता हैं। वे विकास के देवता माने जाते हैं और केरल में विशेष रूप से पूज्य हैं। उन्हें शिव और मोहिनी का पुत्र कहा जाता है। मोहिनी विष्णु की अवतार हैं। यद्यपि अयप्प की भक्ति केरल में बहुत काल से प्रचलित है किन्तु शेष दक्षिण भारत में यह हाल के दिनों में (२०वीं शताब्दी के अन्तिम काल में) लोकप्रिय हुआ है। अय्यप्प के बारे में किंवदंति है कि उनके माता-पिता ने उनकी गर्दन के चारों ओर एक घंटी बांधकर उन्हें छोड दिया था और पांडलम के राजा राजशेखर पांडियन ने उन्हें अपने पास रखा। मलयालम और कोडवा में उनकी कहानियां और गीत प्रसिद्ध हैं जिनमें उनके बाद के जीवन का वर्णन होता है। इन कहानियों और गीतों में अय्यप्प द्वारा मुस्लिम ब्रिगेड वावर की को पराजित करना और उसके बाद वावर द्वारा उनकी पूजा का वर्णन मिलता है। सबसे प्रसिद्ध अय्यप्प मंदिर केरल की पतनमथिट्टा पहाड़ियों पर स्थित सबरिमलय मन्दिर है। यहाँ प्रति वर्ष दस लाख से अधिक तीर्थयात्री आते हैं। इस प्रकार यह विश्व के सबसे बडे तीर्थस्थलों में से एक है। सबरीमाला आने वाले तीर्थयात्रियों को ४१ दिन तक ब्रह्मचर्य का पालन करने तथा मांस-मदिरा से दूर रहने की कठिन व्रत करना होता है। तीर्थयात्रियों को नंगे पांव ही पहाड़ी की चोटी पर स्थित इस मंदिर तक चढना होता है। इस प्रकार इस यात्रा के दौरान तीर्थयात्रियों के बीच न्यूनतम सामाजिक और आर्थिक असमता दृष्टिगोचर होती है। अय्यप और तमिल देवता अयनार के बीच ऐतिहासिक संबंध हैं। अय्यप्प की स्तुति का मन्त्र 'स्वामिए शरणम् अयप्प' है जिसका अर्थ है - स्वामि अय्यप्प ! मैं आप की शरण में हूँ। .

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अष्टावक्र (महाकाव्य)

अष्टावक्र (२०१०) जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०–) द्वारा २००९ में रचित एक हिन्दी महाकाव्य है। इस महाकाव्य में १०८-१०८ पदों के आठ सर्ग हैं और इस प्रकार कुल ८६४ पद हैं। महाकाव्य ऋषि अष्टावक्र की कथा प्रस्तुत करता है, जो कि रामायण और महाभारत आदि हिन्दू ग्रंथों में उपलब्ध है। महाकाव्य की एक प्रति का प्रकाशन जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा किया गया था। पुस्तक का विमोचन जनवरी १४, २०१० को कवि के षष्टिपूर्ति महोत्सव के दिन किया गया। इस काव्य के नायक अष्टावक्र अपने शरीर के आठों अंगों से विकलांग हैं। महाकाव्य अष्टावक्र ऋषि की संपूर्ण जीवन यात्रा को प्रस्तुत करता है जोकि संकट से प्रारम्भ होकर सफलता से होते हुए उनके उद्धार तक जाती है। महाकवि, जो स्वयं दो मास की अल्पायु से प्रज्ञाचक्षु हैं, के अनुसार इस महाकाव्य में विकलांगों की सार्वभौम समस्याओं के समाधानात्मक सूत्र प्रस्तुत किए गए हैं। उनके अनुसार महाकाव्य के आठ सर्ग विकलांगों की आठ मनोवृत्तियों के विश्लेषण मात्र हैं।रामभद्राचार्य २०१०, पृष्ठ क-ग। .

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अस्त्र शस्त्र

---- अंगारपर्ण पर अग्नेयास्त्र छोड़ते हुए अर्जुन प्राचीन आर्यावर्त के आर्यपुरुष अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण थे। उन्होंने अध्यात्म-ज्ञान के साथ-साथ आततियों और दुष्टों के दमन के लिये सभी अस्त्र-शस्त्रों की भी सृष्टि की थी। आर्यों की यह शक्ति धर्म-स्थापना में सहायक होती थी। प्राचीन काल में जिन अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग होता था, उनका वर्णन इस प्रकार है-.

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अग्निपुराण

अग्निपुराण पुराण साहित्य में अपनी व्यापक दृष्टि तथा विशाल ज्ञान भंडार के कारण विशिष्ट स्थान रखता है। विषय की विविधता एवं लोकोपयोगिता की दृष्टि से इस पुराण का विशेष महत्त्व है। अनेक विद्वानों ने विषयवस्‍तु के आधार पर इसे 'भारतीय संस्‍कृति का विश्‍वकोश' कहा है। अग्निपुराण में त्रिदेवों – ब्रह्मा, विष्‍णु एवं शिव तथा सूर्य की पूजा-उपासना का वर्णन किया गया है। इसमें परा-अपरा विद्याओं का वर्णन, महाभारत के सभी पर्वों की संक्षिप्त कथा, रामायण की संक्षिप्त कथा, मत्स्य, कूर्म आदि अवतारों की कथाएँ, सृष्टि-वर्णन, दीक्षा-विधि, वास्तु-पूजा, विभिन्न देवताओं के मन्त्र आदि अनेक उपयोगी विषयों का अत्यन्त सुन्दर प्रतिपादन किया गया है। इस पुराण के वक्‍ता भगवान अग्निदेव हैं, अतः यह 'अग्निपुराण' कहलाता है। अत्‍यंत लघु आकार होने पर भी इस पुराण में सभी विद्याओं का समावेश किया गया है। इस दृष्टि से अन्‍य पुराणों की अपेक्षा यह और भी विशिष्‍ट तथा महत्‍वपूर्ण हो जाता है। पद्म पुराण में भगवान् विष्‍णु के पुराणमय स्‍वरूप का वर्णन किया गया है और अठारह पुराण भगवान के 18 अंग कहे गए हैं। उसी पुराणमय वर्णन के अनुसार ‘अग्नि पुराण’ को भगवान विष्‍णु का बायां चरण कहा गया है। .

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अंधविश्वास

आदिम मनुष्य अनेक क्रियाओं और घटनाओं के कारणों को नहीं जान पाता था। वह अज्ञानवश समझता था कि इनके पीछे कोई अदृश्य शक्ति है। वर्षा, बिजली, रोग, भूकंप, वृक्षपात, विपत्ति आदि अज्ञात तथा अज्ञेय देव, भूत, प्रेत और पिशाचों के प्रकोप के परिणाम माने जाते थे। ज्ञान का प्रकाश हो जाने पर भी ऐसे विचार विलीन नहीं हुए, प्रत्युत ये अंधविश्वास माने जाने लगे। आदिकाल में मनुष्य का क्रिया क्षेत्र संकुचित था इसलिए अंधविश्वासों की संख्या भी अल्प थी। ज्यों ज्यों मनुष्य की क्रियाओं का विस्तार हुआ त्यों-त्यों अंधविश्वासों का जाल भी फैलता गया और इनके अनेक भेद-प्रभेद हो गए। अंधविश्वास सार्वदेशिक और सार्वकालिक हैं। विज्ञान के प्रकाश में भी ये छिपे रहते हैं। अभी तक इनका सर्वथा उच्द्वेद नहीं हुआ है। भारत में अंध विश्वास की जड़े बहुत गहरी हो चुकी हैं, ब्राह्मण साहित्य का इसमें प्रमुख योगदान है ll .

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उच्चाटन

उच्चाटन एक प्रकार का मंत्रप्रयोग है जो प्रेत, पिशाच, डाकिनी आदि के निवारण या नियंत्रण हेतु किया जाता है। आदिम विश्वास है कि प्रेत या डाकिनी के उत्पात या कुदृष्टि से रोग उत्पन्न होते हैं और ऐसा विश्वास होता है कि इनके निवारण (उच्चाटन) से रोगों का शमन और दु:ख का निवारण हो सकता है। यह विश्वास अत्यंत प्राचीन और सार्वभौम है। विज्ञान के प्रसार यह से हटता तो जाता है, परंतु कितने ही देशों में यह अब तक प्रचलित है। दूसरे के मन को अन्यत्र लगा देना, उसे अन्यमनस्क कर देना भी उच्चाटन की एक क्रिया मानी जाती है। उच्चाटन की विविध क्रियाएँ हैं। इनका प्रयोग बिना मंत्र के किया जाता है और मंत्र के साथ भी। उच्चाटन मंत्र अनेक प्रकार के हैं। विधिपूर्वक इनका प्रयोग करना अनेक लोगों का व्यवसाय है। ये लोग दावा करते हैं कि मंत्र के द्वारा भूत, प्रेत और पिशाच भगाए जा सकते हैं और डाकिनी को नियंत्रित तथा निष्क्रिय किया जा सकता है। .

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उपदेश

उपदेश का अर्थ है- शिक्षा, सीख, नसीहत, हित की बात का कहना, दीक्षा या गुरुमन्त्र। .

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उवट

उवट विख्यात वेद-भाष्यकार थे। यजुर्वेद-मंत्र-भाष्य द्वारा विदित होता है कि इनके पिता का नाम वज्रट था। साथ ही वहीं इनका जन्मस्थान आनंदपुर कहा गया है: कतिपय विद्वानों के कथनानुसार ये महाराज भोज के समय ग्यारहवीं शताब्दी ईसवी मे अवंतिनगरी में विद्यमान थे। उव्वट ने भोज के शासन काल में उज्जयिनी में रहकर शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन वाजसनेयी संहिता का सम्पूर्ण चालीस अध्यायों वाला भाष्य किया था, जो उवट भाष्य के नाम से सुविख्यात है। 'भविष्य-भक्ति-माहात्म्य' नामक संस्कृत ग्रंथ इन्हें कश्मीर देश का निवासी और मम्मट तथा कैयट का समसामयिक बताता है: इन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की काण्व शाखा का भाष्य और ऋग्वेदीय शौनक प्रातिशाख्य नामक ग्रंथ की रचना की। कुछ लोगों का कहना है कि ऋग्वेदीय शौनक प्रातिशाख्य भाष्य करने के बाद इन्होंने ऋग्वेद का भाष्य भी रचा था। .

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ऋचा

वेद के श्लोकों (मंत्रों) को ऋचा कहते हैं। 'ऋचा' की व्युत्पत्ति 'ऋक्' से हुई है जिसका अर्थ 'प्रशंसा करना' है। श्रेणी:वेद.

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ऋग्वेद संहिता

ऋग्‍वेद-संहिता ऋग्वैदिक वाङ्मय का मन्त्र-भाग है। इसमें १०१७ सूक्‍त हैं। इसे विश्‍व का प्राचीनतम ग्रंथ माना जाता है। विद्वानों के अनुसार ऋग्‍वेद 3500 वर्षों से भी अधिक प्राचीन है। .

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ॐ नमः शिवाय

देवनागरी लिपि में "ॐ नमः शिवाय" मंत्र लैटिन लिपि) इस रूप में प्रकट हुआ है ॐ नमः शिवाय (IAST: Om Namaḥ Śivāya) यह सबसे लोकप्रिय हिंदू मंत्रों में से एक है और शैव सम्प्रदाय का महत्वपूर्ण मंत्र है। नमः शिवाय का अर्थ "भगवान शिव को नमस्कार" या "उस मंगलकारी को प्रणाम!" है। इसे शिव पञ्चाक्षर मंत्र या पञ्चाक्षर मंत्र भी कहा जाता है, जिसका अर्थ "पांच-अक्षर" मंत्र (ॐ को छोड़ कर) है। यह भगवान शिव को समर्पित है। यह मंत्र श्री रुद्रम् चमकम् और रुद्राष्टाध्यायी में "न", "मः", "शि", "वा" और "य" के रूप में प्रकट हुआ है। श्री रुद्रम् चमकम्, कृष्ण यजुर्वेद का हिस्सा है और रुद्राष्टाध्यायी, शुक्ल यजुर्वेद का हिस्सा है। श्रेणी:ग़ैर हिन्दी भाषा पाठ वाले लेख पञ्चाक्षर के रूप में 'नमः शिवाय' मंत्र त्रिपुण्ड्र से सजा हुआ शिवलिंग  .

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