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मरणोत्तर स्तंभन

सूची मरणोत्तर स्तंभन

मरणोत्तर स्तंभन (अंग्रेजी: Death Erection डेथ इरेक्शन), एक शैश्निक स्तंभन है और जिसे तकनीकी भाषा में प्रायापिज़्म कहते हैं, अक्सर उन पुरुषों के शव में देखने में आता है, जिनकी मृत्यु प्राणदंड, विशेष रूप से फांसी के कारण हुई हो। .

7 संबंधों: प्रायापिज़्म, मस्तिष्क, मेरूरज्जु, योनि, रक्त वाहिका, शिश्न, शवपरीक्षा

प्रायापिज़्म

प्रायापिज़्म (प्राचीन यूनानी: πριαπισμός, अंग्रेजी: Priapism), एक संभावित रूप से हानिकारक और अति पीड़ाजनक चिकित्सा अवस्था है जिसके अंतर्गत एक स्तंभित शिश्न या भगशेफ, किसी शारीरिक या मनोवैज्ञानिक या फिर दोनो प्रकार के उत्प्रेरण की अनुपस्थिति के बावजूद, स्तंभन के चार घंटे के दौरान वापस अपनी शिथिलावस्था प्राप्त नहीं करते। प्रायापिज़्म दो प्रकार के होते हैं, निम्न-प्रवाह और उच्च-प्रवाह और दोनो के लिए अलग अलग उपचार है। प्रायापिज़्म एक आपातकालीन चिकित्सा अवस्था है और इसका किसी योग्य चिकित्सक से तत्काल और उचित उपचार होना चाहिए। शीघ्र उपचार कार्यात्मक स्वास्थ्य लाभ के लिए आवश्यक है। प्रायापिज़्म का नाम यूनानी देवता प्रायापस, के नाम पर पड़ा है जो अपने अति विशाल और स्थायी स्तंभन के लिए विख्यात था। प्रायापस .

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मस्तिष्क

मानव मस्तिष्क मस्तिष्क जन्तुओं के केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र का नियंत्रण केन्द्र है। यह उनके आचरणों का नियमन एंव नियंत्रण करता है। स्तनधारी प्राणियों में मस्तिष्क सिर में स्थित होता है तथा खोपड़ी द्वारा सुरक्षित रहता है। यह मुख्य ज्ञानेन्द्रियों, आँख, नाक, जीभ और कान से जुड़ा हुआ, उनके करीब ही स्थित होता है। मस्तिष्क सभी रीढ़धारी प्राणियों में होता है परंतु अमेरूदण्डी प्राणियों में यह केन्द्रीय मस्तिष्क या स्वतंत्र गैंगलिया के रूप में होता है। कुछ जीवों जैसे निडारिया एंव तारा मछली में यह केन्द्रीभूत न होकर शरीर में यत्र तत्र फैला रहता है, जबकि कुछ प्राणियों जैसे स्पंज में तो मस्तिष्क होता ही नही है। उच्च श्रेणी के प्राणियों जैसे मानव में मस्तिष्क अत्यंत जटिल होते हैं। मानव मस्तिष्क में लगभग १ अरब (१,००,००,००,०००) तंत्रिका कोशिकाएं होती है, जिनमें से प्रत्येक अन्य तंत्रिका कोशिकाओं से १० हजार (१०,०००) से भी अधिक संयोग स्थापित करती हैं। मस्तिष्क सबसे जटिल अंग है। मस्तिष्क के द्वारा शरीर के विभिन्न अंगो के कार्यों का नियंत्रण एवं नियमन होता है। अतः मस्तिष्क को शरीर का मालिक अंग कहते हैं। इसका मुख्य कार्य ज्ञान, बुद्धि, तर्कशक्ति, स्मरण, विचार निर्णय, व्यक्तित्व आदि का नियंत्रण एवं नियमन करना है। तंत्रिका विज्ञान का क्षेत्र पूरे विश्व में बहुत तेजी से विकसित हो रहा है। बडे-बड़े तंत्रिकीय रोगों से निपटने के लिए आण्विक, कोशिकीय, आनुवंशिक एवं व्यवहारिक स्तरों पर मस्तिष्क की क्रिया के संदर्भ में समग्र क्षेत्र पर विचार करने की आवश्यकता को पूरी तरह महसूस किया गया है। एक नये अध्ययन में निष्कर्ष निकाला गया है कि मस्तिष्क के आकार से व्यक्तित्व की झलक मिल सकती है। वास्तव में बच्चों का जन्म एक अलग व्यक्तित्व के रूप में होता है और जैसे जैसे उनके मस्तिष्क का विकास होता है उसके अनुरुप उनका व्यक्तित्व भी तैयार होता है। मस्तिष्क (Brain), खोपड़ी (Skull) में स्थित है। यह चेतना (consciousness) और स्मृति (memory) का स्थान है। सभी ज्ञानेंद्रियों - नेत्र, कर्ण, नासा, जिह्रा तथा त्वचा - से आवेग यहीं पर आते हैं, जिनको समझना अर्थात् ज्ञान प्राप्त करना मस्तिष्क का काम्र है। पेशियों के संकुचन से गति करवाने के लिये आवेगों को तंत्रिकासूत्रों द्वारा भेजने तथा उन क्रियाओं का नियमन करने के मुख्य केंद्र मस्तिष्क में हैं, यद्यपि ये क्रियाएँ मेरूरज्जु में स्थित भिन्न केन्द्रो से होती रहती हैं। अनुभव से प्राप्त हुए ज्ञान को सग्रह करने, विचारने तथा विचार करके निष्कर्ष निकालने का काम भी इसी अंग का है। .

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मेरूरज्जु

कशेरूक नाल में नीचले मेरूरज्जु की स्थिति मेरूरज्जु (लैटिन: Medulla spinalis, जर्मन: Rückenmark, अंग्रेजी: Spinal cord), मध्य तंत्रिकातंत्र का वह भाग है, जो मस्तिष्क के नीचे से एक रज्जु (रस्सी) के रूप में पश्चकपालास्थि के पिछले और नीचे के भाग में स्थित महारंध्र (foramen magnum) द्वारा कपाल से बाहर आता है और कशेरूकाओं के मिलने से जो लंबा कशेरूका दंड जाता है उसकी बीच की नली में चला जाता है। यह रज्जु नीचे ओर प्रथम कटि कशेरूका तक विस्तृत है। यदि संपूर्ण मस्तिष्क को उठाकर देखें, तो यह 18 इंच लंबी श्वेत रंग की रज्जु उसके नीचे की ओर लटकती हुई दिखाई देगी। कशेरूक नलिका के ऊपरी 2/3 भाग में यह रज्जु स्थित है और उसके दोनों ओर से उन तंत्रिकाओं के मूल निकलते हैं, जिनके मिलने से तंत्रिका बनती है। यह तंत्रिका कशेरूकांतरिक रंध्रों (intervertebral foramen) से निकलकर शरीर के उसी खंड में फैल जाती हैं, जहाँ वे कशेरूक नलिका से निकली हैं। वक्ष प्रांत की बारहों मेरूतंत्रिका इसी प्रकार वक्ष और उदर में वितरित है। ग्रीवा और कटि तथा त्रिक खंडों से निकली हुई तंत्रिकाओं के विभाग मिलकर जालिकाएँ बना देते हैं जिनसे सूत्र दूर तक अंगों में फैलते हैं। इन दोनों प्रांतों में जहाँ वाहनी और कटित्रिक जालिकाएँ बनती हैं, वहाँ मेरूरज्जु अधिक चौड़ी और मोटी हो जाती है। मस्तिष्क की भाँति मेरूरज्जु भी तीनों तानिकाओं से आवेष्टित है। सब से बाहर दृढ़ तानिका है, जो सारी कशेरूक नलिका को कशेरूकाओं के भीतर की ओर से आच्छादित करती है। किंतु कपाल की भाँति परिअस्थिक (periosteum) नहीं बनाती और न उसके कोई फलक निकलकर मेरूरज्जु में जाते हैं। उसके स्तरों के पृथक होने से रक्त के लौटने के लिये शिरानाल भी नहीं बनते जैसे कपाल में बनते हैं। वास्तव में मरूरज्जु पर की दृढ़तानिका मस्तिष्क पर की दृढ़ तानिका का केवल अंत: स्तर है। दृढ़ तानिका के भीतर पारदर्शी, स्वच्छ, कोमल, जालक तानिका है। दोनों के बीच का स्थान अधोदृढ़ तानिका अवकाश (subdural space) कहा जाता है, जो दूसरे, या तीसरे त्रिक खंड तक विस्तृत है। सबसे भीतर मृदु तानिका है, जो मेरूरज्जु के भीतर अपने प्रवर्धों और सूत्रों को भेजती है। इस सूक्ष्म रक्त कोशिकाएँ होती हैं। इस तानिका के सूत्र तानिका से पृथक् नहीं किए जा सकते। मृदु तानिका और जालक तानिका के बीच के अवकाश को अधो जालक तानिका अवकाश कहा जाता है। इसमें प्रमस्तिष्क मेरूद्रव भरा रहता है। नीचे की ओर द्वितीय कटि कशेरूका पर पहुँचकर रज्जु की मोटाई घट जाती है और वह एक कोणाकार शिखर में समाप्त हो जाती है। यह मेरूरज्जु पुच्छ (canda equina) कहलाता है। इस भाग से कई तंत्रिकाएँ नीचे को चली जाती हैं और एक चमकता हुआ कला निर्मित बंध (bond) नीचे की ओर जाकर अनुत्रिक (coccyx) के भीतर की ओर चला जाता है। .

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योनि

मादा के जननांग को योनि (वेजाइना) कहा जाता है। इसके पर्यायवाची शब्द भग, आदि हैं। सामान्य तौर पर "योनि" शब्द का प्रयोग अक्सर भग के लिये किया जाता है, लेकिन जहाँ भग बाहर से दिखाई देने वाली संरचना है वहीं योनि एक विशिष्ट आंतरिक संरचना है। .

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रक्त वाहिका

रक्त वाहिकाएं शरीर में रक्त के परिसंचरण तंत्र का प्रमुख भाग होती हैं। इनके द्वारा शरीर में रक्त का परिवहन होता है। तीन मुख्य प्रका की रक्त वाहिकाएं होती हैं: धमनियां, जो हृदय से रक्त को शरीर में ले जाती हैं; वे रक्त वाःइकाएं, जिनके द्वारा कोशिकाओं एवं रक्त के बीच, जल एवं रसायनों का आदान-प्रदान होता है; व शिराएं, जो रक्त को वापस एकत्रित कर हृदय तक ले आती हैं। .

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शिश्न

शिश्न की संरचना: 1 — मूत्राशय, 2 — जघन संधान, 3 — पुरस्थ ग्रन्थि, 4 — कोर्पस कैवर्नोसा, 5 — शिश्नमुंड, 6 — अग्रत्वचा, 7 — कुहर (मूत्रमार्ग), 8 — वृषणकोष, 9 — वृषण, 10 — अधिवृषण, 11— शुक्रवाहिनी शिश्न (Penis) कशेरुकी और अकशेरुकी दोनो प्रकार के कुछ नर जीवों का एक बाह्य यौन अंग है। तकनीकी रूप से शिश्न मुख्यत: स्तनधारी जीवों में प्रजनन हेतु एक प्रवेशी अंग है, साथ ही यह मूत्र निष्कासन हेतु एक बाहरी अंग के रूप में भी कार्य करता है। शिश्न आमतौर स्तनधारी जीवों और सरीसृपों में पाया जाता है। हिन्दी में शिश्न को लिंग भी कहते हैं पर, इन दोनो शब्दों के प्रयोग में अंतर होता है, जहाँ शिश्न का प्रयोग वैज्ञानिक और चिकित्सीय संदर्भों में होता है वहीं लिंग का प्रयोग आध्यात्म और धार्मिक प्रयोगों से संबंद्ध है। दूसरे अर्थो में लिंग शब्द, किसी व्यक्ति के पुरुष (नर) या स्त्री (मादा) होने का बोध भी कराता है। हिन्दी में सभी संज्ञायें या तो पुल्लिंग या फिर स्त्रीलंग होती हैं। .

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शवपरीक्षा

शवपरीक्षण के बाद लिया गया फोटो शवपरीक्षा (Autopsy या post-mortem examination) एक विशिष्ट प्रकार की शल्य प्रक्रिया है जिसमें शव की आद्योपान्त (thorough) परीक्षण किया जाता है ताकि पता चल सके कि मृत्यु किन कारणों से और किस तरीके से हुई है। शवपरीक्षा एक विशिष्ट चिकित्सक द्वारा की जाती है जिसे 'विकृतिविज्ञानी' (पैथोलोजिस्ट) कहते हैं। मृत्यु के पश्चात् आकस्मिक दुर्घटनाग्रस्त, अथवा रोगग्रस्त, मृतक के विषय में वैज्ञानिक अनुसंधान के हेतु शरीर की परीक्षा, अथवा शवपरीक्षा करना अतिआवश्यक है। रोग उपचारक शवपरीक्षा के द्वारा ही रोग की प्रकृति, विस्तार, विशालता एवं जटिलता के विषय में भली प्रकार तथ्य जान सकता है। शवपरीक्षा भली प्रकार करना उचित है एवं सहयोग के हेतु रोगग्रसित अंग अथवा ऊतक, की सूक्ष्मदर्शी द्वारा परीक्षा एवं कीटाणुशास्त्रीय परीक्षा अपेक्षित है। उस प्रत्येक मृतक की, जिसकी मृत्यु का कारण आकस्मिक दुर्घटना हो और उचित कारण अज्ञात हो, मृत्यु का कारण एवं उसकी प्रकृति ज्ञात करने के लिए शवपरीक्षा करना नितांत आवश्यक रूप से अपेक्षित है। शवपरीक्षा करने के पूर्व मृतक के निकट संबंधी से सहमति प्राप्त करना आवश्यक है और शवपरीक्षा मृत्यु के 6 से 10 घंटे के भीतर ही कर लेनी चाहिए, अन्यथा शव में मृत्युपरांत अवश्यंभावी प्राकृतिक परिवर्तन हो जाने की आशंका रहेगी, जैसे शव ऐंठन (rigor mortis), शवमलिनता (postmortem) एवं विघटन (decomposition)। यह परिवर्तन अधिकतर रोगावस्था के परिवर्तनों के समान ही होते हैं। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

डेथ इरेक्शन, प्रिआपिस्म, प्रिआपिस्म (डेथ इरेक्शन)

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