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पाञ्चजन्य

सूची पाञ्चजन्य

पाञ्चजन्य भगवान विष्णु का शंख है। विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण पाञ्चजन्य नामक एक शंख रखते थे ऐसा वर्णन ममहाभारत में प्राप्त होता है। श्रीमद्भगवद्गीता जो कि महाभारत का अङ्ग है उस में वासुदेव द्वारा कुरुक्षेत्र युद्ध के दौरान इसका इस्तेमाल किया जाना बताया गया है। भागवत पुराण के अनुसार सान्दीपनी ऋषि के आश्रम में कृष्ण की शिक्षा पूरी होने पर उन्हें गुरू दक्षिणा लेने का आग्रह किया। तब ऋषि ने कहा समुद्र में डूबे हुये मेरे पुत्र को ले आओ। श्री कृष्ण द्वारा समुद्र तट पर जाकर शंखासुर को मारने पर उसका खोल (शंख) शेष रह गया था। उसी से शंख की उत्पत्ति हुई। शायद उसी शंख का नाम पाञ्चजन्य था। पाञ्चजन्य विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है। इसके कुछ अर्थ इस प्रकार हैं: 1.

18 संबंधों: तरुण विजय, दूतवाक्यम्, दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख, भौमासुर वध, मुजफ्फर हुसैन (पत्रकार), रामशंकर अग्निहोत्री, लालबहादुर शास्त्री, शंख, श्याम बहादुर वर्मा, श्रीकृष्ण का द्वारिका प्रस्थान, हिन्दी समाचारपत्र, हो॰ वे॰ शेषाद्री, जम्बूद्वीप, विष्णु, आलवार सन्त, इलावृतवर्ष, अटल बिहारी वाजपेयी

तरुण विजय

तरुण विजय भारतीय राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत पत्रकार एवं चिन्तक हैं। सम्प्रति वे श्यामाप्रसाद मुखर्जी शोध संस्थान के अध्यक्ष हैं। वह 1986 से 2008 तक करीब 22 सालों तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र पाञ्चजन्य के संपादक रहे। फिलहाल वह डॉ॰ श्यामाप्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के डायरेक्टर के पद पर हैं। उन्होंने अपने करियर की शुरूआत ब्लिट्ज़ अखबार से की थी। बाद में कुछ सालों तक फ्रीलांसिंग करने के बाद वह आरएसएस से जुड़े और उसके प्रचारक के तौर पर दादरा और नगर हवेली में आदिवासियों के बीच काम किया। तरुण विजय शौकिया फोटोग्राफर भी हैं और हिमालय उन्हें बहुत लुभाता है। उनके मुताबिक सिंधु नदी की शीतल बयार, कैलास पर शिवमंत्रोच्चार, चुशूल की चढ़ाई या बर्फ से जमे झंस्कार पर चहलकदमी - इन सबको मिला दें तो कुछ-कुछ तरुण विजय नज़र आएंगे। .

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दूतवाक्यम्

दूतवाक्यम संस्कृत के प्राचीनतम नाटककार महाकवि भास की सुप्रसिद्ध काव्यकृति है। इसकी गणना दृश्यकाव्यों के अन्तर्गत की जाती है। नाट्यकला की दृष्टि से दूतवाक्य की परीक्षा करने पर इसे 'व्यायोग' नामक रूपक-भेद के अन्तर्गत रखा जाता है। व्यायोग की परिभाषा देते हुए आचार्य विश्वनाथ ने कहा है- अर्थात् व्यायोग उस रूपक को कहते हैं जिसमें प्रसिद्ध इतिवृत्त का चयन किया जाता है। पुरुष पात्रों की अधिकता और स्त्रीपात्रों की न्यूनता होती है, गर्भ और विमर्श सन्धियों की योजना अपेक्षित नहीं होती और पूरी रचना एक अंक में समाप्त होती है। इसमें ऐसे युद्ध का वर्णन होता है जिसमें स्त्री निमित्त न हो। इसमें कैशिकी वृत्ति का अभाव होता है। इसका नायक धीरोद्धत प्रकृति का कोई प्रख्यात व्यक्ति होता है या फिर कोई राजर्षि अथवा देवपुरुष। इसमें श्रृंगार, हास्य और शान्त रसों के अतिरिक्त अन्य कोई रस मुख्य होता है। दूतवाक्य में ‘व्यायोग’ के मुख्य लक्षण घटित होते हुए देखे जा सकते हैं। इसकी कथावस्तु महाभारत की कथा के उस अंश से ली गयी है जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर कौरवों की सभा में जाते हैं। इस रूपक में स्त्रीपात्रों का सर्वथा अभाव है। इसमें राज्य के विभाजन को लेकर युद्ध की चर्चा है। कौरवों में से धीरोद्धत प्रकृति का दुर्योधन दूतवाक्य का नायक है। इसमें श्रृंगार और शान्त रसों की नहीं, वीर रस की प्रधानता है। इस रूपक में केवल एक अंक है। संस्कृत रूपक के मुख्य रूप से तीन तत्त्व होते हैं- कथावस्तु, नेता और रस। प्राचीन काल से ही संस्कृत नाटक मंच पर खेले जाते रहे हैं, इसलिए इनके मूल्यांकन में अभिनय की दृष्टि से मंचन -योग्यता को भी पर्याप्त महत्त्व दिया जाता है। .

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दीनदयाल उपाध्याय

पण्डित दीनदयाल उपाध्याय (जन्म: २५ सितम्बर १९१६–११ फ़रवरी १९६८) चिन्तक और संगठनकर्ता थे। वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानववाद जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। उपाध्यायजी नितान्त सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे। राजनीति के अतिरिक्त साहित्य में भी उनकी गहरी अभिरुचि थी। उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। केवल एक बैठक में ही उन्होंने चन्द्रगुप्त नाटक लिख डाला था। .

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नानाजी देशमुख

नानाजी देशमुख (जन्म: ११ अक्टूबर १९१६, चंडिकादास अमृतराव देशमुख - मृत्यु: २७ फ़रवरी २०१०) एक भारतीय समाजसेवी थे। वे पूर्व में भारतीय जनसंघ के नेता थे। १९७७ में जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तो उन्हें मोरारजी-मन्त्रिमण्डल में शामिल किया गया परन्तु उन्होंने यह कहकर कि ६० वर्ष से अधिक आयु के लोग सरकार से बाहर रहकर समाज सेवा का कार्य करें, मन्त्री-पद ठुकरा दिया। वे जीवन पर्यन्त दीनदयाल शोध संस्थान के अन्तर्गत चलने वाले विविध प्रकल्पों के विस्तार हेतु कार्य करते रहे। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया। अटलजी के कार्यकाल में ही भारत सरकार ने उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य व ग्रामीण स्वालम्बन के क्षेत्र में अनुकरणीय योगदान के लिये पद्म विभूषण भी प्रदान किया। .

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भौमासुर वध

पाण्डवों के लाक्षागृह से कुशलतापूर्वक बच निकलने पर सात्यिकी आदि यदुवंशियों के साथ लेकर श्री कृष्ण उनसे मिलने के लिये इन्द्रप्रस्थ गये। युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी और कुन्ती ने उनका यथेष्ठ आदर सत्कार कर के उन्हें अपना अतिथि बना लिया। एक दिन अर्जुन को साथ लेकर श्री कृष्ण आखेट के लिये गये। जिस वन में वे शिकार के लिये गये थे वहाँ पर भगवान सूर्य की पुत्री कालिन्दी, श्री कृष्ण को पति रूप में पाने की कामना से तप कर रही थी। कालिन्दी की मनोरथ पूर्ण करने के लिये श्री कृष्ण ने उसके साथ विवाह कर लिया। फिर वे उज्जयिनी की राजकुमारी मित्रबिन्दा को स्वयंवर से वर लाये। उसके बाद कौशल के राजा नग्नजित के सात बैलों को एक साथ नाथ उनकी कन्या सत्या से पाणिग्रहण किया। तत्पश्चात् कैकेय की राजकुमारी भद्रा से श्री कृष्ण का विवाह हुआ। भद्रदेश की राजकुमारी लक्ष्मणा का मनोरथ भी श्री कृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करने की थी अतः लक्ष्मणा को भी श्री कृष्ण अकेले ही हर कर ले आये। श्री कृष्ण अपनी आठों रानियों - रुक्मणी, जाम्बवन्ती, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रबिन्दा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा - के साथ द्वारिका में सुखपूर्वक रहे थे कि एक दिन उनके पास देवराज इन्द्र ने आकर प्रार्थना की, "हे कृष्ण! प्रागज्योतिषपुर के दैत्यराज भौमासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। वह भौमासुर भयंकर क्रूर तथा महा अहंकारी है और वरुण का छत्र, अदिति के कुण्डल और देवताओं की मणि छीनकर वह त्रिलोक विजयी हो गया है। उसने पृथ्वी के समस्त राजाओं की अति सुन्दरी कन्यायें हरकर अपने यहाँ बन्दीगृह में डाल रखा है। उसका वध आपके सिवाय और कोई नहीं कर सकता। अतः आप तत्काल उससे युद्ध करके उसका वध करें।" इन्द्र की प्रार्थना स्वीकार कर के श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा को साथ ले कर गरुड़ पर सवार हो प्रागज्योतिषपुर पहुँचे। वहाँ पहुँच कर श्री कृष्ण ने अपने पाञ्चजन्य शंख को बजाया। उसकी भयंकर ध्वनि सुन मुर दैत्य श्री कृष्ण से युद्ध करने आ पहुँचा। उसने अपना त्रिशूल गरुड़ पर चलाया। श्री कृष्ण ने तत्काल दो बाण चला कर उस त्रिशूल के हवा में ही तीन टुकड़े दिया। इस पर उस दैत्य ने क्रोधित होकर अपनी गदा चलाई किन्तु श्री कृष्ण ने अपनी गदा से उसकी गदा तो भी तोड़ दिया। घोर युद्ध करते करते श्री कृष्ण ने मुर दैत्य सहित मुर दैत्य छः पुत्र - ताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण, विभावसु, नभश्वान और अरुण - का वध कर डाला। मुर दैत्य के वध हो जाने पर भौमासुर अपने अनेक सेनापतियों और दैत्यों की सेना को साथ लेकर युद्ध के लिये निकला। गरुड़ अपने पंजों और चोंच से दैत्यों का संहार करने लगे। श्री कृष्ण ने बाणों की वर्षा कर दी और अन्ततः अपने सुदर्शन चक्र से भौमासुर के सिर को काट डाला। इस प्रकार भौमासुर को मारकर श्री कृष्ण ने उसके पुत्र भगदत्त को अभयदान देकर प्रागज्योतिष का राजा बनाया। भौमासुर के द्वारा हर कर लाई गईं सोलह हजार एक सौ राजकन्यायों को श्री कृष्ण ने मुक्त कर दिया। उन सभी राज कन्याओं ने श्री कृष्ण को पति रूप में स्वीकार किया। उन सभी को श्री कृष्ण अपने साथ द्वारिका पुरी ले आये। .

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मुजफ्फर हुसैन (पत्रकार)

मुजफ्फर हुसैन (२० मार्च १९४५ -- १३ फरवरी २०१८) भारत के राष्ट्रवादी पत्रकार व चिन्तक थे। सन २००२ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया था। कई भाषाओं में प्रवीणता हासिल करने वाले हुसैन विभिन्न भाषाओं में कई पत्रिकाओं के लिए और कई स्थानीय दैनिक समाचार पत्रों के लिए भी लिखते थे। वे मुसलमानों के एक वर्ग में पनपनेवाली जेहादी मानसिकता के सदैव निंदक रहे। .

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रामशंकर अग्निहोत्री

श्री रामशंकर अग्निहोत्री भारत के प्रखर चिन्तक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक तथा वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्हें सन् २००८ के लिये माणिकचन्द्र वाजपेयी राष्ट्रीय पत्रकारिता पुरस्कार के लिये चुना गया है। .

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लालबहादुर शास्त्री

लालबहादुर शास्त्री (जन्म: 2 अक्टूबर 1904 मुगलसराय - मृत्यु: 11 जनवरी 1966 ताशकन्द), भारत के दूसरे प्रधानमन्त्री थे। वह 9 जून 1964 से 11 जनवरी 1966 को अपनी मृत्यु तक लगभग अठारह महीने भारत के प्रधानमन्त्री रहे। इस प्रमुख पद पर उनका कार्यकाल अद्वितीय रहा। भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात शास्त्रीजी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। गोविंद बल्लभ पंत के मन्त्रिमण्डल में उन्हें पुलिस एवं परिवहन मन्त्रालय सौंपा गया। परिवहन मन्त्री के कार्यकाल में उन्होंने प्रथम बार महिला संवाहकों (कण्डक्टर्स) की नियुक्ति की थी। पुलिस मन्त्री होने के बाद उन्होंने भीड़ को नियन्त्रण में रखने के लिये लाठी की जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारम्भ कराया। 1951 में, जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वह अखिल भारत काँग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये। उन्होंने 1952, 1957 व 1962 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत से जिताने के लिये बहुत परिश्रम किया। जवाहरलाल नेहरू का उनके प्रधानमन्त्री के कार्यकाल के दौरान 27 मई, 1964 को देहावसान हो जाने के बाद साफ सुथरी छवि के कारण शास्त्रीजी को 1964 में देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया। उन्होंने 9 जून 1964 को भारत के प्रधान मन्त्री का पद भार ग्रहण किया। उनके शासनकाल में 1965 का भारत पाक युद्ध शुरू हो गया। इससे तीन वर्ष पूर्व चीन का युद्ध भारत हार चुका था। शास्त्रीजी ने अप्रत्याशित रूप से हुए इस युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी। इसकी कल्पना पाकिस्तान ने कभी सपने में भी नहीं की थी। ताशकन्द में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान के साथ युद्ध समाप्त करने के समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद 11 जनवरी 1966 की रात में ही रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये मरणोपरान्त भारत रत्न से सम्मानित किया गया। .

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शंख

नक्कासी किये हुए शंख शंख एक सागर के जलचर का बनाया हुआ ढाँचा है, जो कि ज्यादातर पेचदारवामावर्त या दक्षिणावर्त में बना होता है। यह हिन्दु धर्म में अति पवित्र माना जाता है। यह धर्म का प्रतीक माना जाता है। यह भगवान विष्णु के दांए ऊपरी हाथ में शोभा पाता दिखाया जाता है। धर्मिक अवसरों पर इसे फूँक कर बजाया भी जाता है। (२) महाभारत में वर्णित राजा विराट के एक पुत्र का नाम भी शंख था। .

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श्याम बहादुर वर्मा

श्याम बहादुर वर्मा (जन्म: 10 अप्रैल 1932 बरेली मृत्यु: 20 नवम्बर 2009 दिल्ली) हिन्दी के उद्भट विद्वान थे। उन्होंने विवाह नहीं किया। पुस्तकें ही उनकी जीवन संगिनी थीं। तीन कमरों वाले फ्लैट में श्याम बहादुर अकेले रहते थे। उनके प्रत्येक कमरे में फर्श से लेकर छत तक पुस्तकें ही पुस्तकें नज़र आती थीं। उन्होंने हिन्दी साहित्य को कई शब्द कोश प्रदान किये। दिल्ली विश्वविद्यालय से विजयेन्द्र स्नातक के मार्गदर्शन में उन्होंने हिन्दी काव्य में शक्तितत्व विषय पर शोध करके पीएच॰डी॰ की और डी॰ए॰वी॰ कॉलेज में प्राध्यापक हो गये। परन्तु अध्ययन का क्रम फिर भी न टूटा। गणित में एम॰एससी॰ से लेकर अंग्रेजी, संस्कृत, हिन्दी और प्राचीन भारतीय इतिहास जैसे अनेकानेक विषयों में उन्होंने एम॰ए॰ की परीक्षाएँ न केवल उत्तीर्ण कीं अपितु प्रथम श्रेणी के अंक भी अर्जित किये। बौद्धिक साधना के साक्षात् स्वरूप थे। उनकी सम्पूर्ण साहित्यिक सेवाओं के लिये हिन्दी अकादमी, दिल्ली ने वर्ष 1997-98 में साहित्यकार सम्मान प्रदान किया। 20 नवम्बर 2009 को नई दिल्ली में उनका निधन हुआ। .

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श्रीकृष्ण का द्वारिका प्रस्थान

कौरव पाण्डव दोनों वंश काल की गति से परस्पर लड़ कर नष्ट हो गये। केवल भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की कृपा से उत्तरा का गर्भ ही सुरक्षित रह गया। धर्मराज युधिष्ठिर के राज्य में अधर्म का नाश हो गया। वे देवराज इन्द्र की भाँति सम्पूरण पृथ्वी पर शासन करने लगे। उनके चारों भाई भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव उनकी आज्ञा का पालन करते थे। राज्य में यथासमय वृष्टि होती थी, पृथ्वी उर्वरा होकर समुचित मात्रा से भी अधिक अन्न तथा फल उत्पन्न करती थी और रत्नों से भरपूर थी, गौएँ पर्याप्त से भी अधिक मात्रा में दूध देती थीं, अकाल का कहीं नामोनिशान तक न था। प्रजा सुखी थी, ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण तथा स्नातक यज्ञ योगादि कर्मों को नित्य नियमपूर्वक करते थे। प्रजा वर्ण आश्रमों के अनुकूल धर्म का आचरण करती थी। सम्पूर्ण प्राणी दैविक, भौतिक और आत्मिक तापों से मुक्त थे। अपनी बहन सुभद्रा तथा पाण्डवों की प्रसन्नता के लिये अनेक मासों तक हस्तिनापुर में रहने के पश्चात् भगवान श्रीकृष्णचन्द्र, राजा युधिष्ठिर से आज्ञा लेकर, द्वारिका के लिये विदा हुये। कृपाचार्य, धृतराष्ट्र, गांधारी, कुन्ती, द्रौपदी, धर्मराज युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, उत्तरा, युयुत्स, गुरु धौम्य तथा वेदव्यास जी ने उन्हें प्रेमपूर्वक विदा किया। विदाई के समय मृदंग, ढोल, नगाड़े, घण्ट, शंख, झालर आदि बजने लगे। नगर की नारियाँ अपनी-अपनी अट्टालिकाओं से झाँक कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन करने लगीं। आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। यद्यपि भगवान के लिये ब्राह्मणों के आशीर्वाद का कोई महत्व नहीं था फिर भी लोकाचार के अनुसार ब्राह्मण भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को आशीर्वचन कहने लगे। उन्हें को किसी प्रकार की सुरक्षा की भी आवश्यकता नहीं थी फिर भी धर्मराज युधिष्ठिर ने एक विशाल सेना उनके साथ भेज दिया। सभी पाण्डव दूर तक भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को छोड़ने के लिये गये। सभी लोगों को वापस जाने के लिये कह कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने केवल उद्धव और सात्यकी को अपने साथ रखा। वे विशाल सेना के साथ कुरुजांगल, पांचाल, शूरसेन, यमुना के निकटवर्ती अनेक प्रदेश, ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्य, सारस्वत मरु प्रदेश आदि को लांघते हुये सौवीर और आभीर देशों के पश्चिमी भाग आनर्त्त देश में पहुँचे। थके हुये घोड़ों को रथ से खोल कर विश्राम दिया गया। जिस प्रान्त से भी भगवान श्रीकृष्णचन्द्र गुजरते थे वहाँ के राजा बड़े आदर के साथ अनेक प्रकार के उपहार दे कर उनका सत्कार करते थे। मगन भये नर नारि सब, सुनि आगम यदुराय। ले लेकर उपहार बहु, धाये जन हरषाय॥ आनर्त्त देश अति सम्पन्न और वैभवयुक्त था तथा उसी के निकट अमरावती के समान उनकी नगरी द्वारिकपुरी थी। अपनी सीमा में पहुँचते ही भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाया जिसकी ध्वनि से सम्पूर्ण प्रजा की विरह वेदना नष्ट हो गई। श्वेत शंख उनके ओष्ठों तथा करों पर ऐसा शोभायमान था जैसे लाल कमल पर राजहंस शोभा पाता है। उनके शंख की ध्वनि को सुन कर सम्पूर्ण प्रजा उनके दर्शनों के लिये गृहों से निकल पड़ी। जो जिस भी हालत में था उसी हालत में ऐसे दौड़ कर आया जैसे गाय के रंभाने की ध्वनि सुन कर बछड़ा दौड़ कर आता है। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन करके सबके मुखों पर प्रसन्नता छा गई और वे इस प्रकार उनकी स्तुति करने लगे - "हे भगवन्! आपके चरणों की स्तुति ब्रह्मा, शंकर तथा इन्द्रादि सभी देवता करते हैं। आप ही विश्व का कल्याण करते हैं। ये चरण कमल हमारा आश्रय है। इन चरणों की कृपा से कराल काल भी हमारी ओर दृष्टि नहीं कर सकता। आप ही हमारे गुरु, माता-पिता और मित्र हैं। आपके दर्शन बड़े बड़े योगीजन, तपस्वी तथा देवताओं को भी प्राप्त नहीं होते किन्तु हम अति भाग्यशाली हैं जो निरन्तर आपके मुखचन्द्र का दर्शन करते रहते हैं। द्वारिका छोड़ कर आपके मथुरा चले जाने पर हम निष्प्राण हो जाते हैं और आपके पुनः दर्शन से ही सप्राण हो पाते हैं। हम आपको प्रणाम करते हैं।" उनके इन वचनों को सुनकर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने उन पर अपनी कृपादृष्टि डाली और द्वारिकापुर में प्रवेश किया। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की द्वारिकापुरी अमरावती के समान मधु, भोज, दाशार्ह, अर्हकुकुर, अन्धक तथा वृष्णि वंशी यादवों से उसी प्रकार सुरक्षित रहती थी जिस प्रकार नागों से पातालपुरी सुरक्षित रहती है। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के स्वागतार्थ नगर वासियों ने नगर के फाटकों, गृहद्वारों तथा सड़कों पर बन्दनवार, चित्र-विचित्र ध्वजायें, कदली खम्भ और स्वर्णकलश सजाये। सुगन्धित जल से छिड़काव किया गया। उनके उपहार के लिये दधि, अक्षत, फल, धूप, दीप आदि सामग्री लेकर नगरवासी अपने द्वारों पर खड़े थे। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के शुभागमन का समाचार पाकर वसुदेव, अक्रूर, उग्रसेन, महाबली बलराम, प्रद्युम्न, साम्ब आदि परिजन मांगलिक सामग्रियों के साथ ब्राह्मणों को लेकर शंख तुरही, मृदंग आदि बजाते हुये उनकी अगवानी के लिये आ गये। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने भी अपने बन्धु-बान्धवों तथा नगरवासियों का यथोचित सम्मान किया। सर्वप्रथम उन्होंने माताओं के महल में जाकर देवकी आदि माता के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। फिर अपनी सोलह सहस्त्र एक सौ आठ रानियों हृदय से लगा कर सान्त्वना दी। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने सम्पूर्ण राजाओं को परस्पर भिड़ाकर पृथ्वी के भार को बिना शस्त्रास्त्र ग्रहण किये ही हल्का कर दिया। रति के समान सुन्दर भार्यायें निरन्तर उनके साथ रहकर भी उन्हें भोगों में आसक्त न कर सकीं क्योंकि वे योग-योगेश्वर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र कर्म करते हये भी हृदय में उनके प्रति आसक्त नहीं थे, वे प्रकृति में स्थित रहते हुये भी प्रकृति के गुणों में लिप्त नहीं थे। उनकी योगमाया से मोहित होकर ही स्त्रियाँ उन पर मुग्ध रहती थीं और भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को स्ववश समझती थीं। .

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हिन्दी समाचारपत्र

भारत के प्रमुख हिन्दी समाचारपत्र हैं:-.

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हो॰ वे॰ शेषाद्री

हो०वे० शेषाद्री का चित्र होन्गासान्द्रा वेण्कटरमइया शेषाद्री (अंग्रेजी: Hongasandra Venkataramaiah Sheshadri, कन्नड: ಹ. ವ. ಸೇಶದ್ರಿ, जन्म: 1926 - मृत्यु: 2005) एक भारतीय लेखक व समाजसेवी थे। उनका जन्म बंगलौर में हुआ था। बंगलौर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि लेने के बाद वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सिद्धान्तों से प्रभावित हुए और अपना पूरा जीवन संघ की विचारधारा के संवर्धन हेतु समर्पित कर दिया। .

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जम्बूद्वीप

यह लेख हिन्दू धर्मानुसार वर्णित है। भारतवर्ष कर्मप्रधान वर्ष है। इस वर्ष में जन्म लेने के लिये देवता भी लालायित रहते हैं। वे कहते हैं कि भारतवर्ष में जन्म लेने वाले प्राणी धन्य हैं। इस भारतवर्ष में अनेकों ऊँचे-ऊँचे रम्य पर्वत तथा नद-नदी विद्यमान हैं। इन पर्वतों पर और नदियों के तट पर बड़े-बड़े आत्मज्ञानी ऋषि आश्रम बनाकर रहते हैं। यहाँ पर जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल प्राप्त होता है। भारतवासी यज्ञादि कर्म करते समय भिन्न भिन्न देवताओं को हर्वि प्रदान करते हैं जिसे यज्ञपुरुष स्वयं पधार कर स्वीकार करते हैं। वे सकाम भाव वाले मनुष्यों की कामना पूर्ण करते हैं तथा निष्काम भाव वाले मनुष्यों को मोक्ष प्रदान करते हैं। महाराज सगर के पुत्रों के पृथ्वी को खोदने से जम्बूद्वीप में आठ उपद्वीप बन गये थे जिनके नाम हैं।.

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विष्णु

वैदिक समय से ही विष्णु सम्पूर्ण विश्व की सर्वोच्च शक्ति तथा नियन्ता के रूप में मान्य रहे हैं। हिन्दू धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में बहुमान्य पुराणानुसार विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो रूप ब्रह्मा और शिव को माना जाता है। ब्रह्मा को जहाँ विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है, वहीं शिव को संहारक माना गया है। मूलतः विष्णु और शिव तथा ब्रह्मा भी एक ही हैं यह मान्यता भी बहुशः स्वीकृत रही है। न्याय को प्रश्रय, अन्याय के विनाश तथा जीव (मानव) को परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग-ग्रहण के निर्देश हेतु विभिन्न रूपों में अवतार ग्रहण करनेवाले के रूप में विष्णु मान्य रहे हैं। पुराणानुसार विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं। कामदेव विष्णु जी का पुत्र था। विष्णु का निवास क्षीर सागर है। उनका शयन शेषनाग के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी स्थित हैं। वह अपने नीचे वाले बाएँ हाथ में पद्म (कमल), अपने नीचे वाले दाहिने हाथ में गदा (कौमोदकी),ऊपर वाले बाएँ हाथ में शंख (पाञ्चजन्य) और अपने ऊपर वाले दाहिने हाथ में चक्र(सुदर्शन) धारण करते हैं। शेष शय्या पर आसीन विष्णु, लक्ष्मी व ब्रह्मा के साथ, छंब पहाड़ी शैली के एक लघुचित्र में। .

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आलवार सन्त

आलवार (तमिल: ஆழ்வார்கள்) (अर्थ: ‘भगवान में डुबा हुआ') तमिल कवि एवं सन्त थे। इनका काल ६ठी से ९वीं शताब्दी के बीच रहा। उनके पदों का संग्रह "दिव्य प्रबन्ध" कहलाता है जो 'वेदों' के तुल्य माना जाता है। आलवार सन्त भक्ति आन्दोलन के जन्मदाता माने जाते हैं। विष्णु या नारायण की उपासना करनेवाले भक्त 'आलवार' कहलाते हैं। इनकी संख्या 12 हैं। उनके नाम इस प्रकार है - इन बारह आलवारों ने घोषणा की कि भगवान की भक्ति करने का सबको समान रूप से अधिकार प्राप्त है। इन्होंने, जिनमें कतिपय निम्न जाति के भी थे, समस्त तमिल प्रदेश में पदयात्रा कर भक्ति का प्रचार किया। इनके भावपूर्ण लगभग 4000 गीत मालायिर दिव्य प्रबंध में संग्रहित हैं। दिव्य प्रबंध भक्ति तथा ज्ञान का अनमोल भंडार है। आलवारों का संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जा रहा है- प्रथम तीन आलवारों में से पोरगे का जन्मस्थान काँचीपुरम, भूतन्तालवार का जन्मस्थन महाबलिपुरम और पेयालवार का जन्म स्थान चेन्नै (मैलापुर) बतलाया जाता है। इन आलवारों के भक्तिगान 'ज्ञानद्वीप' के रूप में विख्यात हैं। मद्रास से 15 मील दूर तिरुमिषिसै नामक एक छोटा सा ग्राम है। यहीं पर तिरुमिष्सिे का जन्म हुआ। मातापिता ने इन्हें शैशवावस्था में ही त्याग दिया। एक व्याध के द्वारा इनका लालन-पालन हुआ। कालांतर में ये बड़े ज्ञानी और भक्त बने। नम्मालवार का दूसरा नाम शठकोप बतलाया जाता है। पराकुंश मुनि के नाम से भी ये विख्यात हैं। आलवारों में यही महत्वपूर्ण आलवार माने जाते हैं। इनका जन्म ताम्रपर्णी नदी के तट पर स्थित तिरुक्कुरुकूर नामक ग्राम में हुआ। इनकी रचनाएँ दिव्य प्रबंधम् में संकलित हैं। दिव्य प्रबंधम् के 4000 पद्यों में से 1000 पद्य इन्हीं के हैं। इनकी उपासना गोपी भाव की थी। छठे आलवार मधुर कवि गरुड़ के अवतार माने जाते हैं। इनका जन्मस्थान तिरुक्कालूर नामक ग्राम है। ये शठकोप मुनि के समकालीन थे और उनके गीतों को मधुर कंठ में गाते थे। इसीलिये इन्हें मधुरकवि कहा गया। इनका वास्तविक नाम अज्ञात है। सातवें आलवार कुलशेखरालवार केरल के राजा दृढ़क्त के पुत्र थे। ये कौस्तुभमणि के अवतार माने जाते हैं। भक्तिभाव के कारण इन्होने राज्य का त्याग किया और श्रीरंगम् रंगनाथ जी के पास चले गए। उनकी स्तुति में उन्होंने मुकुंदमाला नामक स्तोत्र लिखा है। आठवें आलवार पेरियालवार का दूसरा नाम विष्णुचित है। इनका जन्म श्रीविल्लिपुत्तुर में हुआ। आंडाल इन्हीं की पोषित कन्या थी। बारह आलवारों में आंडाल महिला थी। एकमात्र रंगनाथ को अपना पति मानकार ये भक्ति में लीन रहीं। कहते हैं, इन्हें भगवान की ज्योति प्राप्त हुई। आंडाल की रचनाएँ निरुप्पाबै और नाच्चियार तिरुमोषि बहुत प्रसिद्ध है। आंडाल की उपासना माधुर्य भाव की है। तोंडरडिप्पोड़ियालवार का जन्म विप्रकुल में हुआ। इनका दूसरा नाम विप्रनारायण है। बारहवें आलवार तिरुमगैयालवार का जन्म शैव परिवार में हुआ। ये भगवान की दास्य भावना से उपासना करते थे। इन्होनें तमिल में छ ग्रंथ लिखे हैं, जिन्हें तमिल वेदांग कहते हैं। इन आलवारों के भक्तिसिद्धांतों को तर्कपूर्ण रूप से प्रतिष्ठित करने वाले अनेक आचार्य हुए हैं जिनमें रामानुजाचार्य और वेदांतदेशिक प्रमुख हैं। .

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इलावृतवर्ष

इस पृष्ठ की विषय वस्तु हिन्दू धर्मग्रंथों में वर्णित हैं। इलावृतवर्ष जम्बूद्वीप के केन्द्र में स्थित उसके नौ वर्षों में से एक है। इस वर्ष के केन्द्र में मर्यादापर्वत मेरु है। मेरु पर्वत तथा इलावृतवर्ष की भूटानी बौद्ध धार्मिक चित्रकारी श्रीमद् भागवत महापुराण तथा विष्णुपुराण आदि पुराणों में पृथ्वी को सात द्वीपों (जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप तथा पुष्करद्वीप) में बाँटा गया है, जिनके अलग अलग वर्ष, वर्ण, उपद्वीप, समुद्र तथा पूज्यदेव आदि होते हैं। पृथ्वी के केन्द्र में स्थित द्वीप को जम्बूद्वीप कहते हैं। .

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अटल बिहारी वाजपेयी

अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpeyee), (जन्म: २५ दिसंबर, १९२४) भारत के पूर्व प्रधानमंत्री हैं। वे पहले १६ मई से १ जून १९९६ तथा फिर १९ मार्च १९९८ से २२ मई २००४ तक भारत के प्रधानमंत्री रहे। वे हिन्दी कवि, पत्रकार व प्रखर वक्ता भी हैं। वे भारतीय जनसंघ की स्थापना करने वाले महापुरुषों में से एक हैं और १९६८ से १९७३ तक उसके अध्यक्ष भी रहे। वे जीवन भर भारतीय राजनीति में सक्रिय रहे। उन्होंने लम्बे समय तक राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य और वीर अर्जुन आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। उन्होंने अपना जीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेकर प्रारम्भ किया था और देश के सर्वोच्च पद पर पहुँचने तक उस संकल्प को पूरी निष्ठा से निभाया। वाजपेयी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के पहले प्रधानमन्त्री थे जिन्होंने गैर काँग्रेसी प्रधानमन्त्री पद के 5 साल बिना किसी समस्या के पूरे किए। उन्होंने 24 दलों के गठबंधन से सरकार बनाई थी जिसमें 81 मन्त्री थे। कभी किसी दल ने आनाकानी नहीं की। इससे उनकी नेतृत्व क्षमता का पता चलता है। सम्प्रति वे राजनीति से संन्यास ले चुके हैं और नई दिल्ली में ६-ए कृष्णामेनन मार्ग स्थित सरकारी आवास में रहते हैं। .

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