6 संबंधों: पह्लव, फ़रवहर, फ़ारसी साम्राज्य, मरियम मिर्ज़ाख़ानी, ईरान का इतिहास, ईरान की इस्लामी क्रांति।
पह्लव
इरानी पह्लव एक प्राचीन जाति। प्रायः प्राचीन पारसी या ईरानी। मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि प्राचीन पुस्तकों में जहाँ-जहाँ खस, यवन, शक, कांबोज, वाह्लीक, पारद आदि भारत के पश्चिम में बसनेवाली जातियों का उल्लेख है वहाँ-वहाँ पह्लवों का भी नाम आया है। उपर्युक्त तथा अन्य संस्कृत ग्रंथों में पह्लव शब्द सामान्य रीति से पारस निवासियों या ईरानियों के लिये व्यवहृत हुआ है मुसलमान ऐतिहासिकों ने भी इसको प्राचीन पारसीकों का नाम माना है। प्राचीन काल में फारस के सरदारों का 'पहृ- लवान' कहलाना भी इस बात का समर्थक है कि पह्लव पारसीकों का ही नाम है। शाशनीय सम्राटों के समय में पारस की प्रधान भाषा और लिपि का नाम पह्लवी पड़ चुका था। तथापि कुछ युरोपीय इतिहासविद् 'पह्लव' सारे पारस निवासियों की नहीं केवल पार्थिया निवासियों पारदों— की अपभ्रश संज्ञा मानते हैं। पारस के कुछ पहाड़ी स्थानो में प्राप्त शिलालेखों में 'पार्थव' नाम की एक जाति का उल्लेख है। डॉ॰ हाग आदि का कहना है कि यह 'पार्थव' पार्थियंस (पारदों) का ही नाम हो सकता है और 'पह्लव' इसी पार्थव का वैसा ही फालकी अपभ्रंश है जैसा अवेस्ता के मिध्र (वै० मित्र) का मिहिर। अपने मत की पुष्टि में ये लोग दो प्रमाण और भी देते हैं। एक यह कि अरमनी भाषा के ग्रंथों में लिखा है कि अरसक (पारद) राजाओं की राज-उपाधि 'पह्लव' थी। दूसरा यह कि पार्थियावासियों को अपनी शूर वीरता और युद्धप्रियता का बडा़ घमंड था और फारसी के 'पहलवान' और अरमनी के 'पहलवीय' शब्दों का अर्थ भी शूरवीर और युद्धप्रिय है। रही यह बात कि पारसवालों ने अपने आपके लिये यह संज्ञा क्यों स्वीकार की और आसपास वालों ने उनका इसी नाम से क्यों उल्लेख किया। इसका उत्तर उपर्युक्त ऐतिहासिक यह देते हैं कि पार्थियावालों ने पाँच सौ वर्ष तक पारस में राज्य किया और रोमनों आदि से युद्ध करके उन्हें हराया। ऐसी दशा में 'पह्लव' शब्द का पारस से इतना घनिष्ठ संबंध हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। संस्कृत पुस्तकों में सभी स्थलों पर 'पारद' औक 'पह्लव' को अलग अलग दो जातियाँ मानकर उनका उल्लेख किया गया है। हरिवंश पुराण में महाराज सगर के द्वारा दोनों की वेशभूषा अलग अलग निश्चित किए जाने का वर्णन है। पह्लव उनकी आज्ञा से 'श्मश्रुधारी' हुए और पारद 'मुक्तकेश' रहने लगे। मनुस्मृति के अनुसार 'पह्लव' भी पारद, शक आदि के समान आदिम क्षत्रिय थे और ब्राह्मणों के अदर्शन के कारण उन्हीं की तरह संस्कारभ्रष्ट हो शूद्र हो गए। हरिवंश पुराण के अनुसार महाराज सगर न इन्हें बलात् क्षत्रियधर्म से पतित कर म्लेच्छ बनाया। इसकी कथा यों है कि हैहयवंशी क्षत्रियों ने सगर के पिता बाहु का राज्य छीन लिया था। पारद, पह्लव, यवन, कांबोज आदि क्षत्रियों ने हैहयवंशियों की इस काम में सहायता की थी। सगर ने समर्थ होने परह हैहयवंशियों को हराकर पिता का राज्य वापस लिया। उनके सहायक होने के कारण 'पह्लव' आदि भी उनके कोपभाजन हुए। ये लोग राजा सगर के भय से भागकर उनके गुरु वशिष्ठ की शरण गए। वशिष्ठ ने इन्हें अभयदान दिया। गुरु का बचन रखने के लिये सगर ने इनके प्राण तो छोड़ दिए पर धर्म ले लिया, इन्हें छात्र धर्म से बहिष्कृत करके म्लेच्छत्व को प्राप्त करा दिया। वाल्मीकीय रामायण के अनुसार 'पह्लवों' की उत्पत्ति वशिष्ठ की गौ शबला के हुंभारव (रँभाने) से हुई है। विश्वामित्र के द्वारा हरी जाने पर उसने वशिष्ठ की आज्ञा से लड़ने के लिये जिन अनेक क्षत्रिय जातियों को अपने शब्द से उत्पन्न किया 'पह्लव' उनमें पहले थे। .
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फ़रवहर
फ़रवहर का चिह्न असीरियाई देवता अशूर, जिस से फ़रवहर का चिह्न विकसित हुआ फ़रवहर, जिसे प्राचीन फ़ारसी में प्रवहर लिखते थे, पारसी धर्म का सब से अधिक पहचाने जाने वाला चिह्न है। बीसवीं सदी में ईरान पर राज करने वाले पहलवी राजवंश ने इसे अपने साम्राज्य का और ईरानी राष्ट्र का चिह्न भी चुना था। इसमें एक परों वाले चक्र के बीच एक राजसी आकृति का दाढ़ी वाला व्यक्ति दर्शाया जाता है। .
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फ़ारसी साम्राज्य
६०० ईस्वी में फारस साम्राज्य फारसी साम्राज्य (ईसापूर्व 559-1935) फारस (आज का ईरान और उसके प्रभाव के इलाके) से शासन करने वाले विभिन्न वंशों के साम्राज्य को सम्मिलित रूप से कहा जाता है। फारस के शासकों ने अपना साम्राज्य आधुनिक ईरान के बाहर कई प्रदेशों तक फैला दिया था - इराक, अर्मेनिया, तुर्की, अज़रबैजान, अफ़गानिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताज़िकिस्तान, पाकिस्तान, मध्यपूर्व, मिस्र आदि। लेकिन ये सभी प्रदेश हमेशा फारस के नियंत्रण में नहीं रहे थे। खुद फारस सातवीं से दसवीं सदी तक अरबों के प्रभुत्व में रहा था। .
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मरियम मिर्ज़ाख़ानी
मरियम मिर्ज़ाखानी (Maryam Mirzakhani, مریم میرزاخانی; ३ मई, १९७७ को जन्म – 15 जुलाई, २०१७) ईरानी-अमेरिकी गणितज्ञ और स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में गणित की प्रोफेसर थीं। वे फिल्ड मेडल प्राप्त करने वाली प्रथम महिला थीं। वे कैंसर से पीड़ित थीं जिसके कारण ४० वर्ष की अल्पायु में ही उनका निधन हो गया। .
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ईरान का इतिहास
सुसा में दारुश (दारा) के महल के बाहर बने "अमर सेनानी"। यह उपाधि कुछ चुनिन्दा सैनिकों को दी जाती थी जो महल रक्षा तथा साम्राज्य विस्तार में प्रमुख माने जाते थे। ईरान का पुराना नाम फ़ारस है और इसका इतिहास बहुत ही नाटकीय रहा है जिसमें इसके पड़ोस के क्षेत्र भी शामिल रहे हैं। इरानी इतिहास में साम्राज्यों की कहानी ईसा के ६०० साल पहले के हख़ामनी शासकों से शुरु होती है। इनके द्वारा पश्चिम एशिया तथा मिस्र पर ईसापूर्व 530 के दशक में हुई विजय से लेकर अठारहवीं सदी में नादिरशाह के भारत पर आक्रमण करने के बीच में कई साम्राज्यों ने फ़ारस पर शासन किया। इनमें से कुछ फ़ारसी सांस्कृतिक क्षेत्र के थे तो कुछ बाहरी। फारसी सास्कृतिक प्रभाव वाले क्षेत्रों में आधुनिक ईरान के अलावा इराक का दक्षिणी भाग, अज़रबैजान, पश्चिमी अफगानिस्तान, ताजिकिस्तान का दक्षिणी भाग और पूर्वी तुर्की भी शामिल हैं। ये सब वो क्षेत्र हैं जहाँ कभी फारसी सासकों ने राज किया था और जिसके कारण उनपर फारसी संस्कृति का प्रभाव पड़ा था। सातवीं सदी में ईरान में इस्लाम आया। इससे पहले ईरान में जरदोश्त के धर्म के अनुयायी रहते थे। ईरान शिया इस्लाम का केन्द्र माना जाता है। कुछ लोगों ने इस्लाम कबूल करने से मना कर दिया तो उन्हें यातनाएं दी गई। इनमें से कुछ लोग भाग कर भारत के गुजरात तट पर आ गए। ये आज भी भारत में रहते हैं और इन्हें पारसी कहा जाता है। सूफ़ीवाद का जन्म और विकास ईरान और संबंधित क्षेत्रों में ११वीं सदी के आसपास हुआ। ईरान की शिया जनता पर दमिश्क और बग़दाद के सुन्नी ख़लीफ़ाओं का शासन कोई ९०० साल तक रहा जिसका असर आज के अरब-ईरान रिश्तों पर भी देखा जा सकता है। सोलहवीं सदी के आरंभ में सफ़वी वंश के तुर्क मूल लोगों के सत्ता में आने के बाद ही शिया लोग सत्ता में आ सके। इसके बाद भी देश पर सुन्नियों का शासन हुआ और उन शासकों में नादिर शाह तथा कुछ अफ़ग़ान शासक शामिल हैं। औपनिवेशक दौर में ईरान पर किसी यूरोपीय शक्ति ने सीधा शासन तो नहीं किया पर अंग्रेज़ों तथा रूसियों के बीच ईरान के व्यापार में दखल पड़ा। १९७९ की इस्लामिक क्रांति के बाद ईरान की राजनैतिक स्थिति में बहुत उतार-चढ़ाव आता रहा है। ईराक के साथ युद्ध ने भी देश को इस्लामिक जगत में एक अलग जगह पर ला खड़ा किया है। २३ जनवरी २००८ .
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ईरान की इस्लामी क्रांति
ईरान की इस्लामिक क्रांति (फ़ारसी: इन्क़लाब-ए-इस्लामी) सन् 1979 में हुई थी जिसके फलस्वरूप ईरान को एक इस्लामिक गणराज्य घोषित कर दिया गया था। इस क्रांति को फ्रांस की राज्यक्रांति और बोल्शेविक क्रांति के बाद विश्व की सबसे महान क्रांति कहा जाता है। इसके कारण पहलवी वंश का अंत हो गया था और अयातोल्लाह ख़ोमैनी ईरान के प्रमुख बने थे।। ईरान का नया शासन एक धर्मतन्त्र है जहाँ सर्वोच्च नेता धार्मिक इमाम (अयातोल्लाह) होता है पर शासन एक निव्राचित राष्ट्रपति चलाता है। ग़ौरतलब है कि ईरान एक शिया बहुल देश है। इस क्रांति के प्रमुख कारणों में ईरान के पहलवी शासकों का पश्चिमी देशों के अनुकरण तथा अनुगमन करने की नीति तथा सरकार के असफल आर्थिक प्रबंध थे। इसके तुरत बाद इराक़ के नए शासक सद्दाम हुसैन ने अपने देश में ईरान समर्थित शिया आन्दोलन भड़कने के डर से ईरान पर आक्रमण कर दिया था जो 8 साल तक चला और अनिर्णीत समाप्त हुआ। .
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