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परशुराम

सूची परशुराम

परशुराम त्रेता युग (रामायण काल) के एक ब्राह्मण थे। उन्हें विष्णु का छठा अवतार भी कहा जाता है। पौरोणिक वृत्तान्तों के अनुसार उनका जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। वे भगवान विष्णु के छठे अवतार थे। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया। वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त "शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र" भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-"ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।" वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था। अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है। .

67 संबंधों: चौबीस अवतार, तिलोकपुर, तंत्रसाहित्य के विशिष्ट आचार्य, त्यागी, त्रेतायुग, दशावतार, दशावतार (हाथीदांत निर्मित लघुमंदिर), द्रोणाचार्य, धनुर्विद्या, नरसिंह पुराण, नायर, परशुराम कुंड, परसुराम ऐक्सप्रैस, पुनीत राजकुमार, पुरामहादेव मंदिर, बाणावली, बृहद्रथ, भाटुन्द, भारत में सार्वजनिक अवकाश, भारतीय कृषि का इतिहास, भूमिहार, भीष्म, भीष्म का प्राण त्याग, महाभारत, महाभारत (२०१३ धारावाहिक), महाभारत के पात्र, माता-पिता, मुगल रामायण, यज्ञफल, युग वर्णन, राम, रामभद्राचार्य, रामजात्तौ, राजपूत, राजा परीक्षित को शाप, रेणुका, रेणुका झील, शारंग धनुष, शिशुपालवध, शिवधनुष (पिनाक), श्रीभार्गवराघवीयम्, श्रीसीतारामकेलिकौमुदी, सातवाहन, संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द, सुनार, हिन्दू देवी देवताओं की सूची, हिन्दू देवी-देवता, हिन्दू धर्म, हिन्दी पुस्तकों की सूची/प, जमदग्नि ऋषि, ..., जलालाबाद (शाहजहाँपुर), विदुर, विष्णु, वैशाख, खोतानी रामायण, गोवा, करावली, कर्ण, कलरीपायट्टु, कश्यप, कुरुक्षेत्र, कृषिगीता, अद्भुत रामायण, अस्त्र शस्त्र, अवतार, अक्षय तृतीया, उद्योगपर्व सूचकांक विस्तार (17 अधिक) »

चौबीस अवतार

चौबीस अवतार, दशम ग्रन्थ का एक भाग है जिसमें विष्णु के चौबीस अवतारों का वर्णन है। परम्परा से तथा ऐतिहासिक रूप से यह गुरु गोबिन्द सिंह की रचना मानी जाती है। यह रचना दशम ग्रन्थ का लगभग ३० प्रतिशत है जिसमें ५५७१ श्लोक हैं। इसमें कृष्ण अवतार तथा राम अवतार क्रमशः २४९२ श्लोक एवं ८६४ श्लोक हैं। कल्कि अवतार में ५८६ श्लोक हैं। .

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तिलोकपुर

तिलोकपुर (अंग्रेजी:Tilokpur) भारतवर्ष के राज्य उत्तर प्रदेश के जिला शाहजहाँपुर का एक बहुत ही पुराना गाँव है। यह शाहजहाँपुर जिले के भौगोलिक क्षेत्र से बहने वाली शारदा नहर के किनारे बसा हुआ है। यह नहर मीरानपुर कटरा से तिलोकपुर और काँट होते हुए कुर्रिया कलाँ तक जाती है। काकोरी काण्ड के अभियुक्तों में से एक बनवारी लाल जो मुकदमें के दौरान वायदा माफ गवाह (अंगेजी में अप्रूवर) बन गया था, इसी गाँव का रहने वाला था। बाद में उसने ब्राह्मणों से जान का खतरा होने के कारण यह गाँव छोड़ दिया और पास के ही दूसरे गाँव केशवपुर में रहने लगा जहाँ उसकी कायस्थ बिरादरी के लोग रहते थे। मध्यम आकार के इस गाँव में कुल 167 घर हैं। इन घरों के परिवारों में 1036 लोग रहते हैं जिनमें स्त्री, पुरुष व बच्चे सभी शामिल हैं। .

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तंत्रसाहित्य के विशिष्ट आचार्य

तन्त्र साहित्य अत्यन्त विशाल है। प्राचीन समय के दुर्वासा, अगस्त्य, विश्वामित्र, परशुराम, बृहस्पति, वशिष्ठ, नंदिकेश्वर, दत्तात्रेय आदि ऋषियों ने तन्त्र के अनेकों ग्रन्थों का प्रणयन किया, उनका विवरण देना यहाँ अनावश्यक है। ऐतिहासिक युग में शंंकराचार्य के परम गुरु गौडपादाचार्य का नाम उल्लेखयोग्य है। उनके द्वारा रचित 'सुभगोदय स्तुति' एवं 'श्रीविद्यारत्न सूत्र' प्रसिद्ध हैं। मध्ययुग में तांत्रिक साधना एवं साहित्य रचना में जितने विद्वानों का प्रवेश हुआ था उनमें से कुछ विशिष्ट आचार्यो का संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया जा रहा है- लक्ष्मणदेशिक: ये शादातिलक, ताराप्रदीप आदि ग्रथों के रचयिता थे। इनके विषय में यह परिचय मिलता है कि ये उत्पल के शिष्य थे। आदि शंकराचार्य: वेदांगमार्ग के संस्थापक सुप्रसिद्ध भगवान शंकराचार्य वैदिक संप्रदाय के अनुरूप तांत्रिक संप्रदाय के भी उपदेशक थे। ऐतिहासिक दृष्टि से पंडितों ने तांत्रिक शंकर के विषय में नाना प्रकार की आलोचनाएं की हैं। कोई दोनों को अभिन्न मानते हैं और कोई नहीं मानते हैं। उसकी आलोचना यहाँ अनावश्यक है। परंपरा से प्रसिद्ध तांत्रिक शंकराचार्य के रचित ग्रंथ इस प्रकार हैं- किसी-किसी के मत में 'कालीकर्पूरस्तव' की टीका भी शंकराचार्य ने बनाई थी। पृथिवीधराचार्य अथवा 'पृथ्वीधराचार्य: यह शंकर के शिष्कोटि में थे। इन्होंने 'भुवनेश्वरी स्तोत्र' तथा 'भुवनेश्वरी रहस्य' की रचना की थी। भुवनेश्वरी स्तोत्र राजस्थान से प्रकाशित है। वेबर ने अपने कैलाग में इसका उल्लेख किया है। भुवनेश्वरी रहस्य वाराणसी में भी उपलब्ध है और उसका प्रकाशन भी हुआ है। पृथ्वीधराचार्य का भुवनेश्वरी-अर्चन-पद्धति नाम से एक तीसरा ग्रंथ भी प्रसिद्ध है। चरणस्वामी: वेदांत के इतिहास में एक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। तंत्र में इन्होंने 'श्रीविद्यार्थदीपिका' की रचना की है। 'श्रीविद्यारत्न-सूत्र-दीपिका' नामक इनका ग्रंथ मद्रास लाइब्रेरी में उपलब्ध है। इनका 'प्रपंच-सार-संग्रह' भी अति प्रसिद्ध ग्रंथ है। सरस्वती तीर्थ: परमहंस परिब्राजकाचार्य वेदांतिक थे। यह संन्यासी थे। इन्होंने भी 'प्रपंचसार' की विशिष्ट टीका की रचना की। राधव भट्ट: 'शादातिलक' की 'पदार्थ आदर्श' नाम्नी टीका बनाकर प्रसिद्ध हुए थे। इस टीका का रचनाकाल सं॰ 1550 है। यह ग्रंथ प्रकाशित है। राधव ने 'कालीतत्व' नाम से एक और ग्रंथ लिखा था, परंतु उसका अभी प्रकाशन नहीं हुआ। पुण्यानंद: हादी विद्या के उपासक आचार्य पुण्यानंद ने 'कामकला विलास' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी। उसकी टीका 'चिद्वल्ली' नाम से नटनानंद ने बनाई थी। पुण्यानंद का दूसरा ग्रंथ 'तत्वविमर्शिनी' है। यह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है। अमृतानंदनाथ: अमृतानदनाथ ने 'योगिनीहृदय' के ऊपर दीपिका नाम से टीकारचना की थी। इनका दूसरा ग्रंथ 'सौभाग्य सुभगोदय' विख्यात है। यह अमृतानंद पूर्ववर्णित पुणयानंद के शिष्य थे। त्रिपुरानंद नाथ: इस नाम से एक तांत्रिक आचार्य हुए थे जो ब्रह्मानंद परमहंस के गुरु थे। त्रिपुरानंद की व्यक्तिगत रचना का पता नहीं चलता। परंतु ब्रह्मानंद तथा उनके शिष्य पूर्णानंद के ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। सुंदराचार्य या सच्चिदानंद: इस नाम से एक महापुरुष का आविर्भाव हुआ था। यह जालंधर में रहते थे। इनके शिष्य थे विद्यानंदनाथ। सुंदराचार्य अर्थात् सच्चिदानंदनाथ की 'ललितार्चन चंद्रिका' एवं 'लधुचंद्रिका पद्धति' प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। विद्यानंदनाथ का पूर्वनाम श्रीनिवास भट्ट गोस्वामी था। यह कांची (दक्षिण भारत) के निवासी थे। इनके पूर्वपुरुष समरपुंगव दीक्षित अत्यंत विख्यात महापुरुष थे। श्रीनिवास तीर्थयात्रा के निमित जालंधर गए थे और उन्होंने सच्चिदानंदनाथ से दीक्षा ग्रहण कर विद्यानंद का नाम धारण किया। गुरु के आदेश से काशी आकर रहने लगे। उन्होंने बहुत से ग्रंथों की रचना की जिनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं- 'शिवार्चन चंद्रिका', 'क्रमरत्नावली', 'भैरवार्चापारिजात', 'द्वितीयार्चन कल्पवल्ली', 'काली-सपर्या-क्रम-कल्पवल्ली', 'पंचमेय क्रमकल्पलता', 'सौभाग्य रत्नाकर' (36 तरंग में),'सौभग्य सुभगोदय', 'ज्ञानदीपिका' और 'चतु:शती टीका अर्थरत्नावली'। सौभाग्यरत्नाकर, ज्ञानदीपिका और अर्थरत्नावली सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय, वाराणसी से प्रकाशित हुई हैं। नित्यानंदनाथ: इनका पूर्वनाम नाराणय भट्ट है। उन्होंने दुर्वासा के 'देवीमहिम्न स्तोत्र' की टीका की थी। यह तन्त्रसंग्रह में प्रकाशित है। तन्त्रसंग्रह सम्पूर्णानन्दविश्वविद्यालय से प्रकाशित है। उनका 'ताराकल्पलता पद्धति' नामक ग्रंथ भी मिलता है। सर्वानंदनाथ: इनका नाम उल्लेखनीय है। यह 'सर्वोल्लासतंत्र' के रचयिता थे। इनका जन्मस्थान मेहर प्रदेश (बांग्लादेश) था। ये सर्वविद्या (दस महाविद्याओं) के एक ही समय में साक्षात् करने वाले थे। इनका जीवनचरित् इनके पुत्र के लिखे 'सर्वानंद तरंगिणी' में मिलता है। जीवन के अंतिम काल में ये काशी आकर रहने लगे थे। प्रसिद्ध है कि यह बंगाली टोला के गणेश मोहल्ला के राजगुरु मठ में रहे। यह असाधारण सिद्धिसंपन्न महात्मा थे। निजानंद प्रकाशानंद मल्लिकार्जुन योगीभद्र: इस नाम से एक महान सिद्ध पुरुष का पता चलता है। यह 'श्रीक्रमोत्तम' नामक एक चार उल्लास से पूर्ण प्रसिद्ध ग्रंथ के रचयिता थे। श्रीक्रमोत्तम श्रीविद्या की प्रासादपरा पद्धति है। ब्रह्मानंद: इनका नाम पहले आ चुका है। प्रसिद्ध है कि यह पूर्णनंद परमहंस के पालक पिता थे। शिक्ष एवं दीक्षागुरु भी थे। 'शाक्तानंद तरंगिणी' और'तारा रहस्य' इनकी कृतियाँ हैं। पूर्णानंद: 'श्रीतत्त्वचिंतामणि' प्रभृति कई ग्रंथों के रचयिता थे। श्रीतत्वचिन्तामणि का रचनाकाल 1577 ई॰ है। 'श्यामा अथवा कालिका रहस्य', 'शाक्त क्रम', 'तत्वानंद तरंगिणी', 'षटकर्मील्लास' प्रभृति इनकी रचनाएँ हैं। प्रसिद्ध 'षट्चक्र निरूपण', 'श्रीतत्वचितामणि' का षष्ठ अध्याय है। देवनाथ ठाकुर तर्कपंचानन: ये 16वीं शताब्दी के प्रसिद्ध ग्रंथकार थे। इन्होंने 'कौमुदी' नाम से सात ग्रंथों की रचना की थी। ये पहले नैयायिक थे और इन्होंने 'तत्वचिंतामणि' की टीका आलोक पर परिशिष्ट लिखा था। यह कूचविहार के राजा मल्लदेव नारायण के सभापंडित थे। इनके रचित 'सप्तकौमुदी' में 'मंत्रकौमुदी' एवं 'तंत्र कौमुदी' तंत्रशास्त्र के ग्रंथ हैं। इन्होंने 'भुवनेश्वरी कल्पलता' नामक ग्रंथ की भी रचना की थी। गोरक्ष: प्रसिद्ध विद्वान् एवं सिद्ध महापुरुष थे। 'महार्थमंजरी' नामक ग्रंथरचना से इनकी ख्याति बढ़ गई थी। इनके ग्रंथों के नाम इस प्रकार हैं- "महार्थमंजरी' और उसकी टीका 'परिमल', 'संविदुल्लास', 'परास्तोत्र', 'पादुकोदय', 'महार्थोदय' इत्यादि। 'संवित्स्तोत्र' के नाम से गोरक्ष के गुरु का भी एक ग्रंथ था। गोरक्ष के गुरु ने 'ऋजु विमर्शिनी' और 'क्रमवासना' नामक ग्रंथों की भी रचना की थी। सुभगानंद नाथ और प्रकाशानंद नाथ: सुभगांनंद केरलीय थे। इनका पूर्वनाम श्रीकंठेश था। यह कश्मीर में जाकर वहाँ के राजगुरु बन गए थे। तीर्थ करने के लिये इन्होंने सेतुबंध की यात्रा भी की जहाँ कुछ समय नृसिंह राज्य के निकट तंत्र का अध्ययन किया। उसके बाद कादी मत का 'षोडशनित्या' अर्थात् तंत्रराज की मनोरमा टीका की रचना इन्होंने गुरु के आदेश से की। बाईस पटल तक रचना हो चुकी थी, बाकी चौदह पटल की टीका उनके शिष्य प्रकाशानंद नाथ ने पूरी की। यह सुभगानंद काशी में गंगातट पर वेद तथा तंत्र का अध्यापन करते थे। प्रकाशानंद का पहला ग्रंथ 'विद्योपास्तिमहानिधि' था। इसका रचनाकाल 1705 ई॰ है। इनका द्वितीय ग्रंथ गुरु कृत मनोरमा टीका की पूर्ति है। उसका काल 1730 ई॰ है। प्रकाशानंद का पूर्वनाम शिवराम था। उनका गोत्र 'कौशिक' था। पिता का नाम भट्टगोपाल था। ये त्र्यंबकेश्वर महादेव के मंदिर में प्राय: जाया करते थे। इन्होंने सुभगानंद से दीक्षा लेकर प्रकाशानंद नाम ग्रहण किया था। कृष्णानंद आगमबागीश: यह बंग देश के सुप्रसिद्ध तंत्र के विद्वान् थे जिनका प्रसिद्ध ग्रंथ 'तंत्रसार' है। किसी किसी के मतानुसार ये पूर्णनंद के शिष्य थे परंतु यह सर्वथा उचित प्रतीत नहीं होता। ये पश्वाश्रयी तांत्रिक थे। कृष्णानंद का तंत्रसार आचार एवं उपासना की दृष्टि से तंत्र का श्रेष्ठ ग्रंथ है। महीधर: काशी में वेदभाष्यकार महीधर तंत्रशास्त्र के प्रख्यात पंडित हुए हैं। उनके ग्रंथ 'मन्त्रमहोदधि' और उसकी टीका अतिप्रसिद्ध हैं (रचनाकाल 1588 ई॰)। नीलकंठ: महाभारत के टीकाकार रूप से महाराष्ट्र के सिद्ध ब्रह्मण ग्रंथकार। ये तांत्रिक भी थे। इनकी बनाई 'शिवतत्वामृत' टीका प्रसिद्ध हैं। इसका रचनाकाल 1680 ई॰ है। आगमाचार्य गौड़ीय शंकर: आगमाचार्य गौड़ीय शंकर का नाम भी इस प्रसंग में उल्लेखनीय है। इनके पिता का नाम कमलाकर और पितामह का लंबोदर था। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ तारा-रहस्य-वृत्ति और शिवार्च(र्ध)न माहात्म्य (सात अध्याय में) हैं। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा रचित और भी दो-तीन ग्रंथों का पता चलता है जिनकी प्रसिद्धि कम है। भास्कर राय: 18वीं शती में भास्कर राय एक सिद्ध पुरुष काशी में हो गए हैं जो सर्वतंत्र स्वतंत्र थे। इनकी अलौकिक शक्तियाँ थी। इनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं- सौभाग्य भास्कर' (यह ललिता सहस्र-नाम की टीका है, रचनाकाल 1729 ई0) 'सौभाग्य चंद्रोदय' (यह सौभाग्यरत्नाकर की टीका है।) 'बरिबास्य रहस्य', 'बरिबास्यप्रकाश'; 'शांभवानंद कल्पलता'(भास्कर शाम्भवानन्दकल्पलता के अणुयायी थे - ऐसा भी मत है), 'सेतुबंध टीका' (यह नित्याषोडशिकार्णव पर टीका है, रचनाकाल 1733 ई॰); 'गुप्तवती टीका' (यह दुर्गा सप्तशती पर व्याख्यान है, रचनाकाल 1740 ई॰); 'रत्नालोक' (यह परशुराम 'कल्पसूत्र' पर टीका है); 'भावनोपनिषद्' पर भाष्य प्रसिद्ध है कि 'तंत्रराज' पर भी टीका लिखी थी। इसी प्रकार 'त्रिपुर उपनिषद्' पर भी उनकी टीका थी। भास्कर राय ने विभिन्न शास्त्रों पर अनेक ग्रंथ लिखे थे। प्रेमनिधि पंथ: इनका निवास कूर्माचल (कूमायूँ) था। यह घर छोड़कर काशी में बस गए थे। ये कार्तवीर्य के उपासक थे। थोड़ी अवस्था में उनकी स्त्री का देहांत हुआ। काशी आकर उन्होंने बराबर विद्यासाधना की। उनकी 'शिवतांडव तंत्र' की टीका काशी में समाप्त हुई। इस ग्रंथ से उन्हें बहुत अर्थलाभ हुआ। उन्होने तीन विवाह किए थे। तीसरी पत्नी प्राणमंजरी थीं। प्रसिद्व है कि प्राणमंजरी ने 'सुदर्शना' नाम से अपने पुत्र सुदर्शन के देहांत के स्मरणरूप से तंत्रग्रंथ लिखा था। यह तंत्रराज की टीका है। प्रेमनिधि ने 'शिवतांडव' टीका ' मल्लादर्श', 'पृथ्वीचंद्रोदय' और 'शारदातिलक' की टीकाएँ लिखी थीं। उनके नाम से 'भक्तितरंगिणी', 'दीक्षाप्रकाश' (सटीक) प्रसिद्ध है। कार्तवीर्य उपासना के विषय में उन्होंने 'दीपप्रकाश नामक' ग्रथ लिखा था। उनके 'पृथ्वीचंद्रोदय' का रचनाकाल 1736 ई॰ है। कार्तवीर्य पर 'प्रयोग रत्नाकर' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ है। 'श्रीविद्या-नित्य-कर्मपद्धति-कमला' तंत्रराज से संबंध रखता है। वस्तुत: यह ग्रंथ भी प्राणमंजरी रचित है। उमानंद नाथ: यह भास्कर राय के शिष्य थे और चोलदेश के महाराष्ट्र राजा के सभापंडित थे। इनके दो ग्रंथ प्रसिद्ध हैं- 1.

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त्यागी

त्यागी अर्थात ब्राह्मण आदि वंशज यानि अयाचक ब्राह्मणों को सम्पूर्ण भारतवर्ष में विभिन्न उपनामों जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, दिल्ली, हरियाणा व राजस्थान के कुछ भागों में त्यागी, पूर्वी उत्तर प्रदेश, व बंगाल में ब्राह्मण, जम्मू कश्मीर, पंजाब व हरियाणा के कुछ भागों में महियाल, मध्य प्रदेश व राजस्थान में गालव, गुजरात में अनाविल, महाराष्ट्र में चितपावन एवं कार्वे, कर्नाटक में अयंगर एवं हेगडे, केरल में नम्बूदरीपाद, तमिलनाडु में अयंगर एवं अय्यर, आंध्र प्रदेश में नियोगी एवं राव आदि उपनामों से जाना जाता है। अयाचक ब्राह्मण अपने विभिन्न नामों के साथ भिन्न भिन्न क्षेत्रों में अभी तक तो अधिकतर कृषि कार्य करते थे, लेकिन पिछले कुछ समय से विभिन्न क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। अयाचक ब्राह्मणों की उत्पत्ति:- हमारे देश आर्यावर्त में 7200 विक्रमसम्वत् पूर्व देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा हेतु एक विराट युद्ध सहस्रबाहु सहित समस्त आर्यावर्त के 21 राज्यों के क्षत्रिय राजाओ के विरूद्ध हुआ, जिसका नेतृत्व ऋषि जमदग्नि के पुत्र ब्रह्म भगवान परशुराम ने किया, इस युद्ध में आर्यावर्त के अधिकतर ब्राह्मणों ने भाग लिया और इस युद्ध में भगवान परशुराम की विजय हुई तथा इस युद्ध के उपरान्त अधिकतर ब्राह्मण अपना धर्मशास्त्र एवं ज्योतिषादि का कार्य त्यागकर समय-समय पर कृषि क्षेत्र में संलग्न होते गये, जिन्हे अयाचक ब्राह्मण व खांडवायन कहा जाने लगा जोकि कालान्तर में त्यागी, महियाल, गालव, चितपावन, नम्बूदरीपाद, नियोगी, अनाविल, कार्वे, राव, हेगडे, अयंगर एवं अय्यर आदि कई अन्य उपनामों से पहचाने जाने लगे। त्यागी ब्राह्मणों को महाभारत काल से ही जाना जाता है क्योकि महाभारत काल में इनका एक नगर था जो कांपिल्य नगर के नाम से जाना जाता था.

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त्रेतायुग

हिन्दु काल सारणी त्रेतायुग हिंदू मान्यताओं के अनुसार चार युगों में से एक युग है। त्रेता युग मानवकाल के द्वितीय युग को कहते हैं। इस युग में विष्णु के पाँचवे, छठे तथा सातवें अवतार प्रकट हुए थे। यह अवतार वामन, परशुराम और राम थे। यह मान्यता है कि इस युग में ॠषभ रूपी धर्म तीन पैरों में खड़े हुए थे। इससे पहले सतयुग में वह चारों पैरों में खड़े थे। इसके बाद द्वापर युग में वह दो पैरों में और आज के अनैतिक युग में, जिसे कलियुग कहते हैं, सिर्फ़ एक पैर पर ही खड़े रहे। यह काल राम के देहान्त से समाप्त होता है। त्रेतायुग १२,९६,००० वर्ष का था। ब्रह्मा का एक दिवस 10,000 भागों में बंटा होता है, जिसे चरण कहते हैं: चारों युग 4 चरण (1,728,000 सौर वर्ष)सत युग 3 चरण (1,296,000 सौर वर्ष) त्रेता युग 2 चरण (864,000 सौर वर्ष)द्वापर युग 1 चरण (432,000 सौर वर्ष)कलि युग यह चक्र ऐसे दोहराता रहता है, कि ब्रह्मा के एक दिवस में 1000 महायुग हो जाते हैं जब द्वापर युग में गंधमादन पर्वत पर महाबली भीम सेन हनुमान जी से मिले तो हनुमान जी से कहा - की हे पवन कुमार आप तो युगों से प्रथ्वी पर निवास कर रहे हो आप महा ज्ञान के भण्डार हो बल बुधि में प्रवीण हो कृपया आप मेरे गुरु बनकर मुझे सिस्य रूप में स्वीकार कर के मुझे ज्ञान की भिक्षा दीजिये तो हनुमान जी ने कहा - हे भीम सेन सबसे पहले सतयुग आया उसमे जो कामना मन में आती थी वो कृत (पूरी)हो जाती थी इसलिए इसे क्रेता युग (सत युग)कहते थे इसमें धर्म को कभी हानि नहीं होती थी उसके बाद त्रेता युग आया इस युग में यग करने की परवर्ती बन गयी थी इसलिए इसे त्रेता युग कहते थे त्रेता युग में लोग कर्म करके कर्म फल प्राप्त करते थे, हे भीम सेन फिर द्वापर युग आया इस युग में विदों के ४ भाग हो गये और लूग सत भ्रष्ट हो गए धर्म के मार्ग से भटकने लगे है अधर्म बढ़ने लगा, परन्तु हे भीम सेन अब जो युग आएगा वो है कलयूग इस युग में धर्म ख़त्म हो जायेगा मनुष्य को उसकी इच्छा के अनुसार फल नहीं मिलेगा चारो और अधर्म ही अधर्म का साम्राज्य ही दिखाई देगा .

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दशावतार

हिन्दू धर्म में विभिन्न देवताओं के अवतार की मान्यता है। प्रायः विष्णु के दस अवतार माने गये हैं जिन्हें दशावतार कहते हैं। इसी तरह शिव और अन्य देवी-देवताओं के भी कई अवतार माने गये हैं। .

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दशावतार (हाथीदांत निर्मित लघुमंदिर)

हिन्‍दू धर्म में त्रिदेव की मान्‍यता है - ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश।। ब्रह्मा सृष्टि के सर्जक, विष्‍णु पालक और शिव सृष्टि के संहारक माने जाते हैं। कहा जाता है कि विष्‍णु ने अलग-अलग युगों में भिन्‍न-भिन्‍न अवतार लिए। महाभारत, विष्‍णु पुराण, गरुड़ पुराण, श्रीमद्भागवत, वराहपुराण, अग्नि पुराण, मत्‍स्‍य पुराण, आदि जैसे प्राचीन ग्रंथों में विष्‍णु के दस अवतारों का उल्‍लेख मिलता है। मत्‍स्‍य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्‍ण्‍ा, बुद्ध और कल्कि विष्णु के दस अवतार हैं। कुछ विद्वानों ने इन दशावतारों में सृष्टि की उत्‍पति और विकास के क्रम को भी ढूंढने का प्रयास किया है। भारत की समृद्ध कलात्‍मक परंपरा का सुन्‍दर उदाहरण प्रस्‍तुत करने वाली विष्‍णु के दशावतारों को दर्शाती परवर्ती 18वीं शताब्‍दी की यह कलाकृति सीढ़ीदार लघुमंदिर है। इसका आधार तो चंदन का है किन्‍तु विष्‍णु के दशावतारों का अंकन हाथीदांत में किया गया है। सबसे ऊपर की सीढ़ी पर विष्णु के मत्स्‍य अवतार को दर्शाया गया है। यह आकृति चतुर्भुजी है। इसके नीचे की सीढ़ी पर कूर्म और वराह अवतार दिखलाई देते हैं। तीसरी सीढ़ी पर नृसिंह, वामन और परशुराम अवतारों को देखा जा सकता है। सबसे आगे की सीढ़ी पर राम, बलराम, कृष्‍ण और कल्कि अवतारों का निदर्शन है। ये सभी आकृतियां दोहरे कमल वाली पीठिका पर खड़ी हैं। अपने-अपने आयुध उठाए हुए इन आकृतियों को सुन्‍दर वस्‍त्राभूषणों से सजाया गया है। इस लघुमंदिर के पृष्‍ठभाग को सुन्‍दर जालीदार काम वाली हाथीदांत निर्मित स्‍क्रीन से सजाया गया है। विष्‍णु के दशावतारों को दर्शाती सभी आकृतियों सही-सही देहानुपात में उकेरी गई हैं। त्रिवेन्‍द्रम के नक्‍काश इस प्रकार के सूक्ष्‍म उत्‍कीर्णन करने में निपुण थे जबकि काले रंग से चित्रित स्‍क्रीन मैसूर के शिल्‍पकारों की कलात्‍मक कुशलता का उदाहरण प्रस्‍तुत करती है। .

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द्रोणाचार्य

द्रोणाचार्य ऋषि भरद्वाज तथा घृतार्ची नामक अप्सरा के पुत्र तथा धर्नुविद्या में निपुण परशुराम के शिष्य थे। कुरू प्रदेश में पांडु के पाँचों पुत्र तथा धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के वे गुरु थे। महाभारत युद्ध के समय वह कौरव पक्ष के सेनापति थे। गुरु द्रोणाचार्य के अन्य शिष्यों में एकलव्य का नाम उल्लेखनीय है। उसने गुरुदक्षिणा में अपना अंगूठा द्रोणाचार्य को दे दिया था। कौरवो और पांडवो ने द्रोणाचार्य के आश्रम मे ही अस्त्रो और शस्त्रो की शिक्षा पायी थी। अर्जुन द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे। वे अर्जुन को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे। महाभारत की कथा के अनुसार महर्षि भरद्वाज एकबार नदी ने स्नान करने गए। स्नान के समाप्ति के बाद उन्होंने देखा की अप्सरा घृताची नग्न होकर स्नान कर रही है। यह देखकर वह कामातुर हो परे और उनके शिश्न से बीर्ज टपक पड़ा। उन्हीने ये बीर्ज एक द्रोण कलश में रखा, जिससे एक पुत्र जन्मा। दूसरे मत से कामातुर भरद्वाज ने घृताची से शारीरिक मिलान किया, जिनकी योनिमुख द्रोण कलश के मुख के समान थी। द्रोण (दोने) से उत्पन्न होने का कारण उनका नाम द्रोणाचार्य पड़ा। अपने पिता के आश्रम में ही रहते हुये वे चारों वेदों तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में पारंगत हो गये। द्रोण के साथ प्रषत् नामक राजा के पुत्र द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तथा दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गई। उन्हीं दिनों परशुराम अपनी समस्त सम्पत्ति को ब्राह्मणों में दान कर के महेन्द्राचल पर्वत पर तप कर रहे थे। एक बार द्रोण उनके पास पहुँचे और उनसे दान देने का अनुरोध किया। इस पर परशुराम बोले, "वत्स! तुम विलम्ब से आये हो, मैंने तो अपना सब कुछ पहले से ही ब्राह्मणों को दान में दे डाला है। अब मेरे पास केवल अस्त्र-शस्त्र ही शेष बचे हैं। तुम चाहो तो उन्हें दान में ले सकते हो।" द्रोण यही तो चाहते थे अतः उन्होंने कहा, "हे गुरुदेव! आपके अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर के मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी, किन्तु आप को मुझे इन अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा-दीक्षा देनी होगी तथा विधि-विधान भी बताना होगा।" इस प्रकार परशुराम के शिष्य बन कर द्रोण अस्त्र-शस्त्रादि सहित समस्त विद्याओं के अभूतपूर्व ज्ञाता हो गये। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। कृपी से उनका एक पुत्र हुआ। यह महाभारत का वह महत्त्वपूर्ण पात्र बना जिसका नाम अश्वत्थामा था। द्रोणाचार्य ब्रह्मास्त्र का प्रयोग जानते थे जिसके प्रयोग करने की विधि उन्होंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी सिखाई थी। द्रोणाचार्य का प्रारंभिक जीवन गरीबी में कटा उन्होंने अपने सहपाठी द्रु, पद से सहायता माँगी जो उन्हें नहीं मिल सकी। एक बार वन में भ्रमण करते हुए गेंद कुएँ में गिर गई। इसे देखकर द्रोणाचार्य का ने अपने धनुषर्विद्या की कुशलता से उसको बाहर निकाल लिया। इस अद्भुत प्रयोग के विषय में तथा द्रोण के समस्त विषयों मे प्रकाण्ड पण्डित होने के विषय में ज्ञात होने पर भीष्म पितामह ने उन्हें राजकुमारों के उच्च शिक्षा के नियुक्त कर राजाश्रय में ले लिया और वे द्रोणाचार्य के नाम से विख्यात हुये। .

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धनुर्विद्या

किसी निश्चित लक्ष्य पर धनुष की सहायता से बाण चलाने की कला को धनुर्विद्या (Archery) कहते हैं। विधिवत् युद्ध का यह सबसे प्राचीन तरीका माना जाता है। धनुर्विद्या का जन्मस्थान अनुमान का विषय है, लेकिन ऐतिहासिक सूत्रों से सिद्ध होता है कि इसका प्रयोग पूर्व देशों में बहुत प्राचीन काल में होता था। संभवत: भारत से ही यह विद्या ईरान होते हुए यूनान और अरब देशों में पहुँची थी। .

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नरसिंह पुराण

श्री नरसिंह पुराण महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित यह भारतीय ग्रंथ समूह पुराण से जुड़ा है, यह एक उपपुराण है। आर° सी° हाज़रा के शोध के अनुसार यह 5वी शताब्दी के बाद के हिस्से में लिखा गया था तथा इसका तेलुगू संस्करण 1300 ई° के बाद का है। .

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नायर

नायर (मलयालम: നായര്,, जो नैयर और मलयाला क्षत्रिय के रूप में भी विख्यात है), भारतीय राज्य केरल के हिन्दू उन्नत जाति का नाम है। 1792 में ब्रिटिश विजय से पहले, केरल राज्य में छोटे, सामंती क्षेत्र शामिल थे, जिनमें से प्रत्येक शाही और कुलीन वंश में, नागरिक सेना और अधिकांश भू प्रबंधकों के लिए नायर और संबंधित जातियों से जुड़े व्यक्ति चुने जाते थे। नायर राजनीति, सरकारी सेवा, चिकित्सा, शिक्षा और क़ानून में प्रमुख थे। नायर शासक, योद्धा और केरल के भू-स्वामी कुलीन वर्गों में संस्थापित थे (भारतीय स्वतंत्रता से पूर्व).

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परशुराम कुंड

परशुराम कुण्ड को प्रभु कुठार के नाम से भी जाना जाता है। यह अरुणाचल प्रदेश। अमर उजाला पर भारत सरकार के आधिकारिक जालस्थल पर के लोहित जिला की उत्तर-पूर्व दिशा में २४ किमी की दूरी पर स्थित है। लोगों का ऐसा विश्वास है कि मकर संक्रांति के अवसर परशुराम कुंड में एक डूबकी लगाने से सारे पाप कट जाते है। इस कुण्ड से भगवान परशुराम की कथा जुड़ी हुई है। एक बार ऋषि जमादग्नि की पत्नी रेणुका ऋषिराज के नहाने के लिए पानी लेने गई। किसी कारणवश उसे पानी लाने में देर हो गई तब ऋषिराज ने परशुराम को अपनी माता का वध करने के लिए कहा। पिता की आज्ञानुसार परशुराम ने अपनी माता का वध कर दिया। तब परशुराम ने मातृ वध के पाप से मुक्त होने के लिए इस कुण्ड में स्नान किया था। तभी से यह कुण्ड स्थानीय निवासियों में लोकप्रिय हो गया। समय के साथ यह स्थानीय लोगों के साथ-साथ पर्यटकों में भी लोकप्रिय हो गया। अब यह कुण्ड लोहित की पहचान बन चुका है। हजारों तीर्थयात्री प्रतिवर्ष १४ जनवरी को मकर संक्रान्ति के दिन इस कुण्ड में स्नान करने आते हैं। अरूणाचल प्रदेश सरकार ने पर्यटकों की सुविधा के लिए अनेक सुविधाओं को उपलब्ध कराया है। .

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परसुराम ऐक्सप्रैस

परसुराम ऐक्सप्रैस ट्रैन संख्या: ६३४९ भारतीय रेलवे द्वारा चलाई जाने वाली एक ऐक्स्प्रैस ट्रैन है, जो मैंगलूर, कर्णाटक को थिरुवनन्तपुरम, केरल से जोड़ती है। इसे दिनी ऐक्स्प्रैस (डे ऐक्स्प्रैस) के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यह केरल राज्य की पूरी लम्बाई को दिनी दिन में पूरी करती है। इस ट्रैन का नाम एक पौराणिक पात्र परशुराम से लिया गया है, जिन्हें माना जाता है की उन्होंने समुद्र से केरल और कोंकण तट का निर्माण किया था।.

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पुनीत राजकुमार

पुनीत राजकुमार (कन्नड़:ಪುನೀತ್ ರಾಜ್‍ಕುಮಾರ್) कन्नड़ फिल्मों में अभिनय करने वाले एक भारतीय फिल्म अभिनेता हैं और कन्नड़ सुपरस्टार डॉ॰ राजकुमार के सबसे छोटे बेटे एवं केएफआई के एक प्रमुख स्टार शिवराज कुमार के छोटे भाई हैं। एक बाल कलाकार के रूप में वे 12 फिल्मों में दिखाई दिए हैं। उन्होंने 1986 में फिल्म बेट्टद हूवु के लिए सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार जीता है। 1980 के दशक में एक बाल कलाकार के रूप में फिल्मों में दिखाई देने के बाद पुनीत राजकुमार ने फिल्म अप्पू में एक अग्रणी भूमिका के साथ अपने फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत की। यह एक बहुत बड़ी हिट फिल्म रही थी। उन्हें आकाश (2005), अरसु (2007), मिलन (2007) और वंशी (2008) जैसी फिल्मों में अपने अभिनय के लिए जाना जाता है जो अभी तक उनकी सबसे बड़ी व्यावसायिक सफलताएं रही हैं। 2007 में आरसु में अपने अभिनय के लिए उन्होंने एक फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त किया और 2008 में मिलन में अपने प्रदर्शन के लिए उन्हें कर्नाटक राज्य का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला। वर्तमान में वे कन्नड़ फिल्म उद्योग में सबसे अधिक पारिश्रमिक पाने वाले अभिनेता हैं। उनकी व्यावसायिक रूप से सफल फिल्म हिट की दर सबसे अधिक है और उनकी 14 फिल्में लगातार कम से कम 100 दिनों तक सिनेमा घरों में बनी रही हैं। .

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पुरामहादेव मंदिर

पुरा महादेव मंदिर का शिव लिंग पुरामहादेव (जिसे परशुरामेश्वर भी कहते हैं) उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर के पास, बागपत जिले से ४.५ कि.मी दूर बालौनी कस्बे में पर पुरा महादेव एक छोटा से गाँव पुरा में हिन्दू भगवान शिव का एक प्राचीन मंदिर है जो शिवभक्तों का श्रध्दा केन्द्र है। इसे एक प्राचीन सिध्दपीठ भी माना गया है। केवल इस क्षेत्र के लिये ही नहीं प्रत्युत्त समस्त पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसकी मान्यता है। लाखों शिवभक्त श्रावण और फाल्गुन के माह में पैदल ही हरिद्वार से कांवड़ में गंगा का पवित्र जल लाकर परशुरामेश्वर महादेव का अभिषेक करते हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव भी प्रसन्न हो कर अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण कर देते हैं। जहाँ पर परशुरामेश्वर पुरामहादेव मंदिर है। काफी पहले यहाँ पर कजरी वन हुआ करता था। इसी वन में जमदग्नि ऋषि अपनी पत्नी रेणुका सहित अपने आश्रम में रहते थे। रेणुका प्रतिदिन कच्चा घड़ा बनाकर हिंडन नदी नदी से जल भर कर लाती थी। वह जल शिव को अर्पण किया करती थी। हिंडन नदी, जिसे पुराणों में पंचतीर्थी कहा गया है और हरनन्दी नदी के नाम से भी विख्यात है, पास से ही निकलती है। यह मंदिर मेरठ से ३६ कि.मी व बागपत से ३० कि.मी दूर स्थित है। .

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बाणावली

बाणावली या बेनोलिम भारत के गोवा राज्य के दक्षिण गोवा जिले में स्थित एक जनगणना नगर है। यह एक समुद्र-तटीय कस्बा है जो मारगाँव के दक्षिण में है। एक दन्तकथा के अनुसार भगवान परशुराम (भगवान विष्णु के एक अवतार) ने समीप के कोकंण में स्थित सह्याद्री पर्वतों पर से एक तीर (बाण) चलाया जो इस स्थान पर आकर गिरा जिससे इसका नाम बाणावली पड़ा। पुर्तगालियों के आने से पूर्व इसे बाणाहल्ली या बाणावल्ली के नाम से जाना जाता था। पुराने बाणावली में भगवान शिव और पार्वती को समर्पित एक मन्दिर था जिसके खण्डहरनुमा अवशेष अभी भी इस कस्बे में देखा जा सकता है। सोलहवीं सदी में इस मन्दिर के देवों को उत्तर कनारा (वर्तमान उत्तर कन्न्ड़) में स्थित आवेसरा में स्थापित कर दिया गया था। .

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बृहद्रथ

बृहद्रथ नाम से कई व्यक्तियों का उल्लेख वैदिक तथा पुराणेतिहास ग्रंथों में हुआ है, जो निम्नांकित हैं.

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भाटुन्द

भाटुन्द, राजस्थान के पाली जिले में स्थित एक गाँव है। यह गाँव पाली जिले के बाली तहसील से 21 किमी दूर है। गाँव की जनसंख्या लगभग 6 - 7 हजार है। यह गाँव पहले सिरोही रियासत में आता था। देश आजाद होने के बाद अब पाली ज़िले में चला गया है। गाँव से 3 किमी दूर चेतन बालाजी का भव्य तीर्थ स्थल है। गाँव में एक ऐतिहासिक सूर्य मन्दिर है। यह मन्दिर लगभग 10 वी व 11 वी शताब्दी के बीच श्री महाराजा भोज ने बनाया था। ईस गाँव में लगभग 13 वी शताब्दी में 18 परिवारों सहित श्री आदोरजी महाराज (आदरशी महाराज) ने लाखाजौहर किया था। यह जौहर अलाउद्दीन खिलजी, चित्तौड़गढ़ फतह करने के बाद जालौर रियासत पर आक्रमण करने के लिए ईसी गाँव से गुजर रहे थे। रास्ता ऊस समय इस गाँव से निकलता था, यहाँ पर आदोरजी महाराज के परिवार की मुगली सेना से लडाई हो गई। ईसके कारण मुगली साम्राज्य की सेना के हाथो न मरने के कारण लाखाजौहर में 18 परिवारों सहित समर्पित हो गए थे। यह घटना चित्तौड़गढ़ कि रानी पद्मिनी के जौहर के ठीक 6 माह बाद की है। यह गाँव सिरोही दरबार द्वारा 3600 बीघा जमीन दान के रूप में श्री आदोरजी महाराज (आदरशी महाराज) को भेंट में यह गाँव दिय़ा हुआ था। ईस गाँव का नामकरन भी उन्होंने ही करवाया था। जो गाँव का नाम दरबार में खताता था। ऊसे दरबार में खत श्री की उपमा से नवाजा जाता था। आज भी आदोरजी महाराज के परिवार को खत् नाम से भी संबोधित किया जाता है। पुरा परिवार लाखा जौहर में समर्पित होने के बाद, ईनकी एक बहु मुहर्रते गई हुई थी। जिसके लडके का वंशज आज विद्यमान हैं। ईस गाँव के नामकरण के लिए श्री आदोरजी महाराज ने भाट (राव) को बुलवाया गया। भाट ने ब्राहमणो के मुँह से बार बार अपनी जाति का नाम लेने के प्रयोजन से उन्होंने भाटुन नाम सुझाया गया, ईस गाँव का नाम श्री आदोरजी महाराज ने भाटून रखा। बाद में यह भाटुन्द पडा। यहाँ पर काफी देवताओं के बड़े भव्य मंदिर हैं। कहाँ जाता है कि यह गाँव भुकंम्भ के कारण दो से तीन बार उजड़ा (डटन) भी है। यह सदियों पुरानी ब्राहमणो की नगरी है। ब्राहमणो के आव्हान पर माँ शीतला माता साक्षात दर्शन देकर यहाँ विराजमान हुईं है। साल में दो बार माँ शीतला माताज़ी का विशाल मेला लगता है। सदियों पुरानी एतिहासिक कहानी इस प्रकार है कि यहाँ पहाड़ी जंगलों में ऐक राक्षस रहता था। यह राक्षस किसी की शादी नहीं होने देता था, जब किसी की शादी होती, फैरे लेने के समय आ जाता था और वर (दुल्ला)को खा जाता था। इस कारण यहाँ कि लड़कियों से कोई शादी नहीं करता था। लड़कियों का ऐसा हाल देखकर ब्राहमणों ने शीतला माता की घोर तपस्या की, जब माँ ने प्रसन्न होकर दर्शन दिए और ब्राहमणो ने अपनी तकलीफ का वर्णन किया, माँ बोली अब आप लोग धूमधाम से शादी करो मैं आप लोगों की रक्षा करूँगी। इस प्रकार माँ का वचन सुनकर ब्राहमण लोग बहुत खुश हो गए। ब्राहमणो ने अपनी बच्चियों के विवाह की तैयारियां चालु की। फैरो के समय राक्षस आ गया, माँ शीतला ने अपने त्रिशूल से राक्षस का वध किया था। वध करते समय राक्षस ने माँ शीतला माता से पानी पीने व खाने की इच्छा प्रकट की, माँ ने राक्षस को वरदान दिया कि साल में दो बार तुझको पानी व खाने केलिए दिया जाएगा। जो हर साल चैत्र शुक्ल ७ को, वह ज्येष्ठ शुक्ल १५ को दिया जाता है। माँ शीतला माता के सामने ऐक शीतला माता कुण्ड (ऊखली) है जो ऐक फिट गहरी है। पुरा गांव ईस ऊखली में घड़ो से पानी डालता है, लेकिन पानी किधर जाता है, ईसका आज तक किसको मालुम नहीं है। पुरा पानी राक्षस पिता है। ऐसा गाँव वालो का मानना है। ऐक बार सिरोही दरबार ने भी ईस ऐक फुट गहरी ऊखली को दो कुआं का पानी लाकर भरने की निष्फल कोशिश की थी। माँ के प्रकोप का सामना करना पड़ा था। पूरे शरीर पर कोड निकल गये थे। माँ की आराधना करने से ही कोड समाप्त हुए थे। .

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भारत में सार्वजनिक अवकाश

भारत अनेकता में एकता वाला देश है जहाँ विविध और उत्कट संस्कृतियों वाले समाज के लोग रहते हैं। यहाँ पर स्‍वतंत्रता दिवस, गणतन्त्र दिवस और गांधी जयंती के रूप में तीन राष्ट्रीय अवकाश दिवश हैं। राज्य और क्षेत्र प्रचलित धार्मिक और भाषाई जनसांख्यिकी के आधार पर क्षेत्रिय त्यौंहार भी होते हैं। हिन्दू धर्म के दीपावली, गणेश चतुर्थी, होली एवं नवरात्रि, इस्लाम में ईद उल-फ़ित्र एवं ईद-उल-अज़हा, बौद्ध धर्म में बुद्ध जयंती एवं आंबेडकर जयंती, इसाई धर्म में क्रिसमिस एवं गुड फ़्राइडे जैसे त्यौंहार देशभर में लोकप्रिय हैं। .

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भारतीय कृषि का इतिहास

कावेरी नदी पर निर्मित '''कल्लानै बाँध''' पहली-दूसरी शताब्दी में बना था था। यह संसार के प्राचीननतम बाँधों में से है जो अब भी प्रयोग किये जा रहे हैं। भारत में ९००० ईसापूर्व तक पौधे उगाने, फसलें उगाने तथा पशु-पालने और कृषि करने का काम शुरू हो गया था। शीघ्र यहाँ के मानव ने व्यवस्थित जीवन जीना शूरू किया और कृषि के लिए औजार तथा तकनीकें विकसित कर लीं। दोहरा मानसून होने के कारण एक ही वर्ष में दो फसलें ली जाने लगीं। इसके फलस्वरूप भारतीय कृषि उत्पाद तत्कालीन वाणिज्य व्यवस्था के द्वारा विश्व बाजार में पहुँचना शुरू हो गया। दूसरे देशों से भी कुछ फसलें भारत में आयीं। पादप एवं पशु की पूजा भी की जाने लगी क्योंकि जीवन के लिए उनका महत्व समझा गया। .

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भूमिहार

भूमिहार, भूमिहार ब्राह्मण या बाभन एक भारतीय जाति है, जो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड तथा थोड़ी संख्या में अन्य प्रदेशों में निवास करती है। भूमिहार का अर्थ होता है "भूमिपति", "भूमिवाला" या भूमि से आहार अर्जित करने वाला (कृषक) । भूमिहार अपने आप को भगवान परशुराम का शिष्य मानते हैं, भूमिहार उत्तरप्रदेश के गाजीपुर व आजमगढ़़ जिले में सबसे ज्यादा हैं | बिहार में इनकी सबसे बड़ी आबादी है। तिवारी, त्रिपाठी, मिश्र, शुक्ल, उपाध्यय, शर्मा, पाठक दूबे, द्विवेदी आदि भूमिहर समाज की उपाधियाँ है। इसके अलावा राजपाठ और जमींदारी के कारण एक बड़ा भाग का राय, साही, सिन्हा, सिंह और ठाकुर उपनाम भी हैं। ये खेतिहर ब्राह्मण है हालांकि ब्राह्मणों का एक समुदाय भूमिहरों को ब्राह्मण मानने से इनकार करता है क्योंकि ये पूजा-पाठ का परम्परागत पेशा छोड़कर खेती करते हैं। कई विद्वानों का मानना है कि भूमिहार अंग्रेजों और मुग़लों के समय प्रमुखता से फौजी सेना में भर्ती हुए थे। इसके बदले में भूमिहरों को बड़ी सम्पत्ति मिली। चूँकि दिल्ली के आसपास रहने वाली त्यागी जाति भी अपने आप को परशुराम का शिष्य मानती है इसी से भूमिहर भी त्यागियों को अपनी ही जाति का मानते हैं। इस जाति के ज्यादातर लोग कृषक है और बाकी ब्राह्मणों की तरह दान नहीं लेते। इसलिए ये "अयाचक ब्राह्मण " कहे गए हैं। सन १८८५ में अयाचक ब्राह्मणों की महासभा की स्थापना काशी-नरेश के प्रयास से वाराणसी में हुई.

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भीष्म

भीष्म अथवा भीष्म पितामह महाभारत के सबसे महत्वपूर्ण पात्रों में से एक थे। भीष्म पितामह गंगा तथा शान्तनु के पुत्र थे। उनका मूल नाम देवव्रत था। इन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य जैसी प्रतिज्ञा लेके मृत्यु को भी अपने अधीन कर लिया था। आज के समय मे ब्रह्मचारी कोई नही है। सब इन्द्रियों के ग़ुलाम है, और कहते है की स्वतंत्र है । इनके दूसरे नाम गाँगेय, शांतनव, नदीज, तालकेतु आदि हैं। भगवान परशुराम के शिष्य देवव्रत अपने समय के बहुत ही विद्वान व शक्तिशाली पुरुष थे। महाभारत के अनुसार हर तरह की शस्त्र विद्या के ज्ञानी और ब्रह्मचारी देवव्रत को किसी भी तरह के युद्ध में हरा पाना असंभव था। उन्हें संभवत: उनके गुरु परशुराम ही हरा सकते थे लेकिन इन दोनों के बीच हुआ युद्ध पूर्ण नहीं हुआ और दो अति शक्तिशाली योद्धाओं के लड़ने से होने वाले नुकसान को आंकते हुए इसे भगवान शिव द्वारा रोक दिया गया। इन्हें अपनी उस भीष्म प्रतिज्ञा के लिये भी सर्वाधिक जाना जाता है जिसके कारण इन्होंने राजा बन सकने के बावजूद आजीवन हस्तिनापुर के सिंहासन के संरक्षक की भूमिका निभाई। इन्होंने आजीवन विवाह नहीं किया व ब्रह्मचारी रहे। इसी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए महाभारत में उन्होने कौरवों की तरफ से युद्ध में भाग लिया था। इन्हें इच्छा मृत्यु का वरदा था। यह कौरवों के पहले प्रधान सेनापति थे। जो सर्वाधिक दस दिनो तक कौरवों के प्रधान सेनापति रहे थे। कहा जाता है कि द्रोपदी ने शरसय्या पर लेटे हुए भीष्मपितामह से पूछा की उनकी आंखों के सामने चीर हरण हो रहा था और वे चुप रहे तब भीष्मपितामह ने जवाब दिया कि उस समय मै कौरवों के नमक खाता था इस वजह से मुझे मेरी आँखों के सामने एक स्त्री के चीरहरण का कोई फर्क नही पड़ा,परंतु अब अर्जुन ने बानो की वर्षा करके मेरा कौरवों के नमक ग्रहण से बना रक्त निकाल दिया है, अतः अब मुझे अपने पापों का ज्ञान हो रहा है अतः मुझे क्षमा करें द्रोपदी। महाभारत युद्ध खत्म होने पर इन्होंने गंगा किनारे इच्छा मृत्यु ली। .

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भीष्म का प्राण त्याग

अपने वंश के नाश से दुखी पाण्डव अपने समस्त बन्धु-बान्धवों तथा भगवान श्रीकृष्ण को साथ ले कर कुरुक्षेत्र में भीष्म पितामह के पास गये। भीष्म जी शरशैया पर पड़े हुये अपने अन्त समय की प्रतीक्षा कर रहे थे। भरतवंश शिरोमणि भीष्म जी के दर्शन के लिये उस समय नारद, धौम्य, पर्वतमुनि, वेदव्यास, वृहदस्व, भारद्वाज, वशिष्ठ, त्रित, इन्द्रमद, परशुराम, गृत्समद, असित, गौतम, अत्रि, सुदर्शन, काक्षीवान्, विश्वामित्र, शुकदेव, कश्यप, अंगिरा आदि सभी ब्रह्मर्षि, देवर्षि तथा राजर्षि अपने शिष्यों के साथ उपस्थित हुये। भीष्म पितामह ने भी उन सभी ब्रह्मर्षियों, देवर्षियों तथा राजर्षियों का धर्म, देश व काल के अनुसार यथेष्ठ सम्मान किया। सारे पाण्डव विनम्र भाव से भीष्म पितामह के पास जाकर बैठे। उन्हें देख कर भीष्म के नेत्रों से प्रेमाश्रु छलक उठे। उन्होंने कहा, "हे धर्मावतारों! अत्यन्त दुःख का विषय है कि आप लोगों को धर्म का आश्रय लेते हुये और भगवान श्रीकृष्ण की शरण में रहते हुये भी महान कष्ट सहने पड़े। बचपन में ही आपके पिता स्वर्गवासी हो गये, रानी कुन्ती ने बड़े कष्टों से आप लोगों को पाला। युवा होने पर दुर्योधन ने महान कष्ट दिया। परन्तु ये सारी घटनायें इन्हीं भगवान श्रीकृष्ण, जो अपने भक्तों को कष्ट में डाल कर उन्हें अपनी भक्ति देते हैं, की लीलाओं के कारण से ही हुये। जहाँ पर धर्मराज युधिष्ठिर, पवन पुत्र भीमसेन, गाण्डीवधारी अर्जुन और रक्षक के रूप में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हों फिर वहाँ विपत्तियाँ कैसे आ सकती हैं? किन्तु इन भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं को बड़े बड़े ब्रह्मज्ञानी भी नहीं जान सकते। विश्व की सम्पूर्ण घटनायें ईश्वाराधीन हैं! अतः शोक और वेदना को त्याग कर निरीह प्रजा का पालन करो और सदा भगवान श्रीकृष्ण की शरण में रहो। ये श्रीकृष्णचन्द्र सर्वशक्तिमान साक्षात् ईश्वर हैं, अपनी माया से हम सब को मोहित करके यदुवंश में अवतीर्ण हुये हैं। इस गूढ़ तत्व को भगवान शंकर, देवर्षि नारद और भगवान कपिल ही जानते हैं। तुम लोग तो इन्हें मामा का पुत्र, अपना भाई और हितू ही मानते हो। तुमने इन्हें प्रेमपाश में बाँध कर अपना दूत, मन्त्री और यहाँ तक कि सारथी बना लिया है। इनसे अपने अतिथियों के चरण भी धुलवाये हैं। हे धर्मराज! ये समदर्शी होने पर भी अपने भक्तों पर विशेष कृपा करते हैं तभी यह मेरे अन्त समय में मुझे दर्शन देने कि लिये यहाँ पधारे हैं। जो भक्तजन भक्तिभाव से इनका स्मरण, कीर्तन करते हुये शरीर त्याग करते हैं, वे सम्पूर्ण कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं। मेरी यही कामना है कि इन्हीं के दर्शन करते हुये मैं अपना शरीर त्याग कर दूँ। धर्मराज युधिष्ठिर ने शरशैया पर पड़े हुये भीष्म जी से सम्पूर्ण ब्रह्मर्षियों तथा देवर्षियों के सम्मुख धर्म के विषय में अनेक प्रश्न पूछे। तत्वज्ञानी एवं धर्मेवेत्ता भीष्म जी ने वर्णाश्रम, राग-वैराग्य, निवृति-प्रवृति आदि के सम्बंध में अनेक रहस्यमय भेद समझाये तथा दानधर्म, राजधर्म, मोक्षधर्म, स्त्रीधर्म, भगवत्धर्म, द्विविध धर्म आदि के विषय में विस्तार से चर्चा की। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के साधनों का भी उत्तम विधि से वर्णन किया। उसी काल में उत्तरायण सूर्य आ गये। अपनी मृत्यु का उत्तम समय जान कर भीष्म जी ने अपनी वाणी को संयम में कर के मन को सम्पूर्ण रागादि से हटा कर सच्चिदान्द भगवान श्रीकृष्ण में लगा दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना चतुर्भुज रूप धारण कर के दर्शन दिये। भीष्म जी ने श्रीकृष्ण की मोहिनी छवि पर अपने नेत्र एकटक लगा दिये और अपनी इन्द्रियों को रो कर भगवान की इस प्रकार स्तुति करने लगे - "मै अपने इस शुद्ध मन को देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में अर्पण करता हूँ। जो भगवान अकर्मा होते हुये भी अपनी लीला विलास के लिये योगमाया द्वारा इस संसार की श्रृष्टि रच कर लीला करते हैं, जिनका श्यामवर्ण है, जिनका तेज करोड़ों सूर्यों के समान है, जो पीताम्बरधारी हैं तथा चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म कण्ठ में कौस्तुभ मणि और वक्षस्थल पर वनमाला धारण किये हुये हैं, ऐसे भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में मेरा मन समर्पित हो। इस तरह से भीष्म पितामह ने मन, वचन एवं कर्म से भगवान के आत्मरूप का ध्यान किया और उसी में अपने आप को लीन कर दिया। देवताओं ने आकाश से पुष्पवर्षा की और दुंदुभी बजाये। युधिष्ठिर ने उनके शव की अन्त्येष्टि क्रिया की। .

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महाभारत

महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। कभी कभी केवल "भारत" कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। .

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महाभारत (२०१३ धारावाहिक)

यह लेख 2013 में शुरु हुए धारावाहिक के उपर हैं, पुराने वाले के लिए देखे महाभारत (टीवी धारावाहिक)। फ़िल्म के लिए महाभारत (२०१३ फ़िल्म)। | show_name .

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महाभारत के पात्र

* विदुर: हस्तिनापुर का महामंत्री।.

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माता-पिता

माता-पिता या जनक का अंग्रेजी अनुवाद अधिक प्रयोग में आता है, जिसे  parent शब्द से उल्लिखित किया जाता है। भारतीय सभ्यता में माता-पिता का एक विशिष्ट स्थान है उन्हें गुरु व भगवान से भी ऊपर का दर्जा दिया गया है। इसे अति सरल शब्दो में समझनें के लिये बस इतना ही पर्याप्त है कि भारत में जितने भी अवतार आज तक हुए हैं, उन में से अधिकतर ने किसी न किसी माता के गर्भ से ही जन्म लिया है। चाहे भगवान श्री राम चन्द्र हो, श्री कृष्ण हो, श्री वामन अवतार हो, परशुराम अवतार हो या फिर संकट मोचन हनुमान हो। ये अवतार चाहे किसी भी भगवान ने लिया हो सब को किसी न किसी माता के गर्भ से जन्म लेना ही पड़ा है। अर्थात् हर अवतार को परिपूर्ण रूप से माता-पिता की स्नेह रूपी छाया में रह कर प्राम्भिक शिक्षा, संस्कार व आचार विहार सब कुछ ग्रहण करना पड़ता है। इस श्रेणी में पालक माता-पिता और पालक सम्बन्धी भी अन्तर्भूत होते हैं। जिसका सन्दर्भ श्रीकृष्ण की पालक/अभिभावक माता यशोदा और नन्द हैं। भारतीय सभ्यता का मूल रूप व आचरण सर्व प्र्थम माता-पिता द्वारा दी गई प्रारम्भिक शिक्षा पर ही निर्भर करता है। जिसके लिये भारतवर्ष पूर्णतय शक्ष्म है लेकिन इन्ही सस्कांरो,आचरणो व आचार विहार को खण्डित करने में उन सभी बाहरी ताकतो ने कभी कोई कसर नहीं छोड़ी जिन्होने इस पावन धरती पर हजारों साल राज किया और हमारी धरोहर संस्कृति को तार-२ करने में कोई कसर नहीं छोडी। ये सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आपके पूर्वज कितने गुणवान,सभ्य व स्ंस्कारी थे और भारत का इतिहास व स्ंरचना तो ऐसे कर्मठ योगियों,साधु-सन्तो व ऋषि-मुनियों द्वारा रचित की गई है जो अपने आप में उस समय के पुर्ण विज्ञानिक थे उनके एक-२ शोध वेदों व विज्ञानिक दृषिट से सम्पुर्ण थे। भारतीय संस्कृति में माता-पिता का आदर करना,उनके द्वारा दी गई शिक्षा का पालन करना बच्चो का प्र्मुख कर्त्तव्य रहता है भारतीय समाज निर्माण में भी माता-पिता का एक विशिष्ठ स्थान है यह एक ऐसा सत्य है जिसके बीसीयों परिमाण हमारे देश में मौज़ूद है माता-पिता के आदर्शो पर चलने वाले असख्य्ं ऐसे महापुरषों के उदाहरण है जेसे:- आदर्श पुरुष श्री राम चन्द्र जी, श्रवण कुमार, महाराजा रण्जीत सिंह, शिवाजी महाराजा, शहिद भगत सिंह व अन्य कितनी विडम्बना है कि आज के परिपेक्ष में हम लोग ही अपनी धरोहर संस्कृति से दूर होते जा रहें है इन सब के अनेक कारण है जेसे:- संयुक्त परिवार चित्र:गुणराज अवस्थीको परिवार.jpg|संयुक्त परिवार संयुक्त परिवार का विघटन, हजारों साल की गुलामी,पाश्चात्य संस्कृति का बिना सोचे समझे अनुसरण,कार्य की अत्यधिक व्यस्तता, बडों के प्र्ति आदर-सम्मान की कमी व मोबाईल और नेट के अत्य्धिक प्रचलन ने भी हमें अपनो से ही दूर होने पर मजबुर कर दिया है इस का एक और अत्यधिक सवेदनशील् ज्जवलंत कारण है पेसा कमाने की होड में आज के परिपेक्ष में माता-पिता दोनो का नौकरी करना जिसकी वजह से आज के युग में भारतीय बच्चे अपने माता-पिता के सुख व उनके द्वारा दिये जाने वाले संस्कारो से वंचित रह रहे हैं दूसरे एकाकी परिवारवाद ने भी हमें अपने बजुर्गो के आशिर्वाद से हमें वंचित कर दिया है परन्तुं अभी भी आधुनिक् भारतीय परिपेक्ष में हमनें अपने वैदिक संस्कारों को नहीं भुला है माता-पिता जितना भी हो सके अपने बच्चों में भरतीय संस्कार देना नहीं भुलते। .

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मुगल रामायण

मुगल बादशाह अकबर द्वारा रामायण का फारसी अनुवाद करवाया था। उसके बाद हमीदाबानू बेगम, रहीम और जहाँगीर ने भी अपने लिये रामायण का अनुवाद करवाया था। .

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यज्ञफल

कोई विवरण नहीं।

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युग वर्णन

युग का अर्थ होता है एक निर्धारित संख्या के वर्षों की काल-अवधि। उदाहरणः कलियुग, द्वापर, सत्ययुग, त्रेतायुग आदि। युग वर्णन का अर्थ होता है कि उस युग में किस प्रकार से व्यक्ति का जीवन, आयु, ऊँचाई होती है एवं उनमें होने वाले अवतारों के बारे में विस्तार से परिचय दे। प्रत्येक युग के वर्ष प्रमाण और उनकी विस्तृत जानकारी कुछ इस तरह है: .

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राम

राम (रामचन्द्र) प्राचीन भारत में अवतार रूपी भगवान के रूप में मान्य हैं। हिन्दू धर्म में राम विष्णु के दस अवतारों में से सातवें अवतार हैं। राम का जीवनकाल एवं पराक्रम महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य रामायण के रूप में वर्णित हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी उनके जीवन पर केन्द्रित भक्तिभावपूर्ण सुप्रसिद्ध महाकाव्य श्री रामचरितमानस की रचना की है। इन दोनों के अतिरिक्त अनेक भारतीय भाषाओं में अनेक रामायणों की रचना हुई हैं, जो काफी प्रसिद्ध भी हैं। खास तौर पर उत्तर भारत में राम बहुत अधिक पूजनीय हैं और हिन्दुओं के आदर्श पुरुष हैं। राम, अयोध्या के राजा दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बड़े पुत्र थे। राम की पत्नी का नाम सीता था (जो लक्ष्मी का अवतार मानी जाती हैं) और इनके तीन भाई थे- लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। हनुमान, भगवान राम के, सबसे बड़े भक्त माने जाते हैं। राम ने राक्षस जाति के लंका के राजा रावण का वध किया। राम की प्रतिष्ठा मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में है। राम ने मर्यादा के पालन के लिए राज्य, मित्र, माता पिता, यहाँ तक कि पत्नी का भी साथ छोड़ा। इनका परिवार आदर्श भारतीय परिवार का प्रतिनिधित्व करता है। राम रघुकुल में जन्मे थे, जिसकी परम्परा प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई की थी। श्रीराम के पिता दशरथ ने उनकी सौतेली माता कैकेयी को उनकी किन्हीं दो इच्छाओं को पूरा करने का वचन (वर) दिया था। कैकेयी ने दासी मन्थरा के बहकावे में आकर इन वरों के रूप में राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राजसिंहासन और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास माँगा। पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने खुशी से चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। पत्नी सीता ने आदर्श पत्नी का उदहारण देते हुए पति के साथ वन जाना उचित समझा। सौतेले भाई लक्ष्मण ने भी भाई के साथ चौदह वर्ष वन में बिताये। भरत ने न्याय के लिए माता का आदेश ठुकराया और बड़े भाई राम के पास वन जाकर उनकी चरणपादुका (खड़ाऊँ) ले आये। फिर इसे ही राज गद्दी पर रख कर राजकाज किया। राम की पत्नी सीता को रावण हरण (चुरा) कर ले गया। राम ने उस समय की एक जनजाति वानर के लोगों की मदद से सीता को ढूँढ़ा। समुद्र में पुल बना कर रावण के साथ युद्ध किया। उसे मार कर सीता को वापस लाये। जंगल में राम को हनुमान जैसा मित्र और भक्त मिला जिसने राम के सारे कार्य पूरे कराये। राम के अयोध्या लौटने पर भरत ने राज्य उनको ही सौंप दिया। राम न्यायप्रिय थे। उन्होंने बहुत अच्छा शासन किया इसलिए लोग आज भी अच्छे शासन को रामराज्य की उपमा देते हैं। इनके पुत्र कुश व लव ने इन राज्यों को सँभाला। हिन्दू धर्म के कई त्योहार, जैसे दशहरा, राम नवमी और दीपावली, राम की जीवन-कथा से जुड़े हुए हैं। .

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रामभद्राचार्य

जगद्गुरु रामभद्राचार्य (जगद्गुरुरामभद्राचार्यः) (१९५०–), पूर्वाश्रम नाम गिरिधर मिश्र चित्रकूट (उत्तर प्रदेश, भारत) में रहने वाले एक प्रख्यात विद्वान्, शिक्षाविद्, बहुभाषाविद्, रचनाकार, प्रवचनकार, दार्शनिक और हिन्दू धर्मगुरु हैं। वे रामानन्द सम्प्रदाय के वर्तमान चार जगद्गुरु रामानन्दाचार्यों में से एक हैं और इस पद पर १९८८ ई से प्रतिष्ठित हैं।अग्रवाल २०१०, पृष्ठ ११०८-१११०।दिनकर २००८, पृष्ठ ३२। वे चित्रकूट में स्थित संत तुलसीदास के नाम पर स्थापित तुलसी पीठ नामक धार्मिक और सामाजिक सेवा संस्थान के संस्थापक और अध्यक्ष हैं। वे चित्रकूट स्थित जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय के संस्थापक और आजीवन कुलाधिपति हैं। यह विश्वविद्यालय केवल चतुर्विध विकलांग विद्यार्थियों को स्नातक तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम और डिग्री प्रदान करता है। जगद्गुरु रामभद्राचार्य दो मास की आयु में नेत्र की ज्योति से रहित हो गए थे और तभी से प्रज्ञाचक्षु हैं। अध्ययन या रचना के लिए उन्होंने कभी भी ब्रेल लिपि का प्रयोग नहीं किया है। वे बहुभाषाविद् हैं और २२ भाषाएँ बोलते हैं। वे संस्कृत, हिन्दी, अवधी, मैथिली सहित कई भाषाओं में आशुकवि और रचनाकार हैं। उन्होंने ८० से अधिक पुस्तकों और ग्रंथों की रचना की है, जिनमें चार महाकाव्य (दो संस्कृत और दो हिन्दी में), रामचरितमानस पर हिन्दी टीका, अष्टाध्यायी पर काव्यात्मक संस्कृत टीका और प्रस्थानत्रयी (ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और प्रधान उपनिषदों) पर संस्कृत भाष्य सम्मिलित हैं।दिनकर २००८, पृष्ठ ४०–४३। उन्हें तुलसीदास पर भारत के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों में गिना जाता है, और वे रामचरितमानस की एक प्रामाणिक प्रति के सम्पादक हैं, जिसका प्रकाशन तुलसी पीठ द्वारा किया गया है। स्वामी रामभद्राचार्य रामायण और भागवत के प्रसिद्ध कथाकार हैं – भारत के भिन्न-भिन्न नगरों में और विदेशों में भी नियमित रूप से उनकी कथा आयोजित होती रहती है और कथा के कार्यक्रम संस्कार टीवी, सनातन टीवी इत्यादि चैनलों पर प्रसारित भी होते हैं। २०१५ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया। .

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रामजात्तौ

बर्मी रामायण नृत्य (राम और सीता) रामजात्तौ (बर्मी लिपि में: ရာမဇာတ်တော်; बर्मी उच्चारण: यामज़ातो) बर्मी भाषा का रामायण है। अघोषित रूप से इसे म्यांमार का 'राष्ट्रीय महाकाव्य' माना जाता है। म्यांमार में रामजात्तौ की नौ प्रतियाँ उपलब्ध हैं। .

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राजपूत

राजपूत उत्तर भारत का एक क्षत्रिय कुल माना जाता है।जो कि राजपुत्र का अपभ्रंश है। राजस्थान को ब्रिटिशकाल मे राजपूताना भी कहा गया है। पुराने समय में आर्य जाति में केवल चार वर्णों की व्यवस्था थी। राजपूत काल में प्राचीन वर्ण व्यवस्था समाप्त हो गयी थी तथा वर्ण के स्थान पर कई जातियाँ व उप जातियाँ बन गईं थीं। कवि चंदबरदाई के कथनानुसार राजपूतों की 36 जातियाँ थी। उस समय में क्षत्रिय वर्ण के अंतर्गत सूर्यवंश और चंद्रवंश के राजघरानों का बहुत विस्तार हुआ। .

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राजा परीक्षित को शाप

एक बार राजा परीक्षित आखेट हेतु वन में गये। वन्य पशुओं के पीछे दौड़ने के कारण वे प्यास से व्याकुल हो गये तथा जलाशय की खोज में इधर उधर घूमते घूमते वे शमीक ऋषि के आश्रम में पहुँच गये। वहाँ पर शमीक ऋषि नेत्र बंद किये हुये तथा शान्तभाव से एकासन पर बैठे हुये ब्रह्मध्यान में लीन थे। राजा परीक्षित ने उनसे जल माँगा किन्तु ध्यानमग्न होने के कारण शमीक ऋषि ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। सिर पर स्वर्ण मुकुट पर निवास करते हुये कलियुग के प्रभाव से राजा परीक्षित को प्रतीत हुआ कि यह ऋषि ध्यानस्थ होने का ढोंग कर के मेरा अपमान कर रहा है। उन्हें ऋषि पर बहुत क्रोध आया। उन्होंने अपने अपमान का बदला लेने के उद्देश्य से पास ही पड़े हुये एक मृत सर्प को अपने धनुष की नोंक से उठा कर ऋषि के गले में डाल दिया और अपने नगर वापस आ गये। डारि नाग ऋषि कंठ में, नृप ने कीन्हों पाप। होनहार हो कर हुतो, ऋंगी दीन्हों शाप॥ शमीक ऋषि तो ध्यान में लीन थे उन्हें ज्ञात ही नहीं हो पाया कि उनके साथ राजा ने क्या किया है किन्तु उनके पुत्र ऋंगी ऋषि को जब इस बात का पता चला तो उन्हें राजा परीक्षित पर बहुत क्रोध आया। ऋंगी ऋषि ने सोचा कि यदि यह राजा जीवित रहेगा तो इसी प्रकार ब्राह्मणों का अपमान करता रहेगा। इस प्रकार विचार करके उस ऋषिकुमार ने कमण्डल से अपनी अंजुली में जल ले कर तथा उसे मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके राजा परीक्षित को यह श्राप दे दिया कि जा तुझे आज से सातवें दिन तक्षक सर्प डसेगा। कुछ समय बाद शमीक ऋषि के समाधि टूटने पर उनके पुत्र ऋंगी ऋषि ने उन्हें राजा परीक्षित के कुकृत्य और अपने श्राप के विषय में बताया। श्राप के बारे में सुन कर शमीक ऋषि को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने कहा - "अरे मूर्ख! तूने घोर पाप कर डाला। जरा सी गलती के लिये तूने उस भगवत्भक्त राजा को घोर श्राप दे डाला। मेरे गले में मृत सर्प डालने के इस कृत्य को राजा ने जान बूझ कर नहीं किया है, उस समय वह कलियुग के प्रभाव में था। उसके राज्य में प्रजा सुखी है और हम लोग निर्भीकतापूर्वक जप, तप, यज्ञादि करते रहते हैं। अब राजा के न रहने पर प्रजा में विद्रोह, वर्णसंकरतादि फैल जायेगी और अधर्म का साम्राज्य हो जायेगा। यह राजा श्राप देने योग्य नहीं था पर तूने उसे श्राप दे कर घोर अपराध किया है। कहीं ऐसा न हो कि वह राजा स्वयं तुझे श्राप दे दे, किन्तु मैं जानता हूँ कि वे परम ज्ञानी है और ऐसा कदापि नहीं करेंगे।" ऋषि शमीक को अपने पुत्र के इस अपराध के कारण अत्यन्त पश्चाताप होने लगा। राजगृह में पहुँच कर जब राजा परीक्षित ने अपना मुकुट उतारा तो कलियुग का प्रभाव समाप्त हो गया और ज्ञान की पुनः उत्पत्ति हुई। वे सोचने लगे कि मैने घोर पाप कर डाला है। निरपराध ब्राह्मण के कंठ में मरे हुये सर्प को डाल कर मैंने बहुत बड़ा कुकृत्य किया है। इस प्रकार वे पश्चाताप कर रहे थे कि ऋषि शमीक का भेजा हुआ एक शिष्य ने आकर उन्हें बताया कि ऋषिकुमार ने आपको श्राप दिया है कि आज से सातवें दिन तक्षक सर्प आपको डस लेगा। राजा परीक्षित ने शिष्य को प्रसन्नतापूर्वक आसन दिया और बोले - "ऋषिकुमार ने श्राप देकर मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है। मेरी भी यही इच्छा है कि मुझ जैसे पापी को मेरे पाप के लिय दण्ड मिलना ही चाहिये। आप ऋषिकुमार को मेरा यह संदेश पहुँचा दीजिये कि मैं उनके इस कृपा के लिये उनका अत्यंत आभारी हूँ।" उस शिष्य का यथोचित सम्मान कर के और क्षमायाचना कर के राजा परीक्षित ने विदा किया। राजा परीक्षित ने अपने जीवन के शेष सात दिन को ज्ञान प्राप्ति और भगवत्भक्ति में व्यतीत करने का संकल्प कर लिया। अपने समर्थ पुत्र जनमेजय का राज्याभिषेक कर दिया और समस्त राजसी वस्त्राभूषणों को त्यागकर तथा केवल चीर वस्त्र धारण कर गंगा के तट पर बैठ गये। अपनी समस्त आसक्तियों को त्याग कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की भक्ति में स्वयं को लीन कर लिया। उनके इस त्याग और व्रत के विषय में सुन कर अत्रि, वशिष्ठ, च्यवन, अरिष्टनेमि, शारद्वान, पाराशर, अंगिरा, भृगु, परशुराम, विश्वामित्र, इन्द्रमद, उतथ्य, मेधातिथि, देवल, मैत्रेय, पिप्पलाद, गौतम, भारद्वाज, और्व, कण्डव, अगस्त्य, नारद, वेदव्यास आदि ऋषि, महर्षि और देवर्षि अपने अपने शिष्यों के साथ उनके दर्शन को पधारे। राजा परीक्षित ने उन सभी का यथोचित समयानुकूल सत्कार करके उन्हें आसन दिया, उनके चरणों की वन्दना की और कहा - "यह मेरा परम सौभाग्य है कि आप जैस देवता तुल्य ऋषियों के दर्शन प्राप्त हुये। मैंने सत्ता के मद में चूर होकर परम तेजस्वी ब्राह्मण के प्रति अपराध किया है फिर भी आप लोगों ने मुझे दर्शन देने के लिये यहाँ तक आने का कष्ट किया यह आप लोगों की महानता है। मेरी इच्छा है कि मैं अपने जीवन के शेष सात दिनों का सदुपयोग ज्ञान प्राप्ति और भगवत्भक्ति में करूँ। अतः आप सब लोगों से मेरा निवेदन है कि आप लोग वह सुगम मार्ग बताइये जिस पर चल कर मैं भगवान को प्राप्त कर सकूँ।" राजा परीक्षित के वचनों को सुन कर सभी अत्यन्त प्रसन्न हुये और यथायोग्य उनकी इच्छा को पूर्ण करने का निश्चय कर लिया। उसी समय वहाँ पर व्यास ऋषि के पुत्र, जन्म मृत्यु से रहित परमज्ञानी श्री शुकदेव जी पधारे। समस्त ऋषियों सहित राजा परीक्षित उनके सम्मान में उठ कर खड़े हो गये और उन्हें प्रणाम किया। उसके बाद अर्ध्य, पाद्य तथा माला आदि से सूर्य के समान प्रकाशमान श्री शुकदेव जी की पूजा की और बैठने के लिये उच्चासन प्रदान किया। उनके बैठने के बाद अन्य ऋषि भी अपने अपने आसन पर बैठ गये। सभी के आसन ग्रहण करने के पश्चात् राजा परीक्षित ने मधुर वाणी में कहा - "हे ब्रह्मरूप योगेश्वर! हे महाभाग! भगवान नारायण के सम्मुख आने से जिस प्रकार दैत्य भाग जाते हैं उसी प्रकार आपके पधारने से महान पाप भी अविलंब भाग खड़े होते हैं। आप जैसे योगेश्वर के दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है पर आपने स्वयं मेरी मृत्यु के समय पधार कर मुझ पापी को दर्शन देकर मुझे मेरे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दिया है। आप योगियों के भी गुरु हैं, आपने परम सिद्धि प्राप्त की है। अतः कृपा करके यह बताइये कि मरणासन्न प्राणी के लिये क्या कर्तव्य है? उसे किस कथा का श्रवण, किस देवता का जप, अनुष्ठान, स्मरण तथा भजन करना चाहिये और किन किन बातों का त्याग कर देना चाहिये? समस्त ऋषियों ने राजा परीक्षित के इन प्रश्नों के पूछने के लिये साधुवाद दिया और उनके प्रश्नों के उत्तर देने के लिये महायोगी श्री शुकदेव जी से आग्रह किया। समस्त धर्मों के ज्ञाता परमज्ञानी श्री शुकदेव जी जिन्होंने नाल छेदन के समय से ही इस संसार की माया को त्याग कर परमहंस व्रत से ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया है उनके प्रश्नों का उत्तर देने के लिये तैयार हो गये। महायोगेश्वर श्री शुकदेव जी बोले - "हे राजा परीक्षित! एक राजा होने के नाते तुम अपने कल्याण के साथ ही साथ सभी के कल्याण की चिन्ता रहती है इसीलिये तुमने यह अति उत्तम प्रश्न किया है। इससे तुम्हारे कल्याण के साथ ही साथ दूसरों का भी कल्याण अवश्य ही होगा। मनुष्य जन्म लेने के पश्चात् संसार के मायाजाल में फँस जाता है और उसे मनुष्य योनि का वास्तविक लाभ प्राप्त नहीं हो पाता। उसका दिन काम धंधों में और रात नींद तथा स्त्री प्रसंग में बीत जाता है। अज्ञानी मनुष्य स्त्री, पुत्र, शरीर, धन, सम्पत्ति सम्बंधियों आदि को अपना सब कुछ समझ बैठता है। वह मूर्ख पागल की भाँति उनमें रम जाता है और उनके मोह में अपनी मृत्यु से भयभीत रहता है पर अन्त में मृत्यु का ग्रास हो कर चला जाता है। मनुष्य को मृत्यु के आने पर भयभीत तथा व्याकुल नहीं होना चाहिये। उस समय अपने ज्ञान से वैराग्य लेकर सम्पूर्ण मोह को दूर कर लेना चाहिये। अपनी इन्द्रियों को वश में करके उन्हें सांसारिक विषय वासनाओं से हटाकर चंचल मन को दीपक की लौ के समान स्थिर कर लेना चाहिये। इस समस्त प्रक्रिया के मध्य ॐ का निरन्तर जाप करते रहना चाहिये जिससे कि मन इधर उधर न भटके। इस प्रकार ध्यान करते करते मन भगवत् प्रेम के आनन्द से भर जाता है। फिर चित्त वहाँ से हटने को नहीं करता है। यदि मूढ़ मन रजोगुण और तमोगुण के कारण स्थिर न रहे तो साधक को व्याकुल न हो कर धीरे धीरे धैर्य के साथ उसे अपने वश में करने का उपाय करना चाहिये। उसी योग धारणा से योगी को भगवान के दर्शन हृदय में हो जाते हैं और भक्ति की प्राप्ति होती है।" राजा परीक्षित ने पूछा - "हे महाभाग! वह कौन सी धारणा है जो अज्ञानरूपी मैल को शीघ्र दूर कर देती है और उस धारणा को कैसे किया जाता है?" उनके इस प्रश्न के उत्तर में श्री शुकदेव जी ने कहा - "हे परीक्षित! योग की साधना करने वाले साधक को सबसे पहले अपनेशरीर को वश में करने के लिये यथोचित आसन में बैठना चाहिये। तत्पश्चात् क्रिया शक्ति को वश में करने के लिये प्राणायाम का साधन करना चाहिये। साथ ही साथ विषय एवं कामनाओं को त्याग कर इन्द्रियों को अपने नियन्त्रण में करना चाहिये। फिर ज्ञान का प्रयोग कर मन को चारों ओर से इस प्रकार समेट लेना चाहिये जैसे कि कछुवा अपने सिर पैर को समेट लेता है। इतना करने के पश्चात् भगवान के विराट रूप का ध्यान करना चाहिये। उसे यह समझना चाहिये कि जल, वायु, अग्नि, आकाश, पथ्वी आदि पंचतत्व, अहंकार और प्रकृति इन सात पदों से आवृत यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विराट भगवान का ही शरीर है, वही इन सबको धारण किये हुये हैं। तत्वज्ञानी पुरुषों के अनुसार पाताल विराट भगवान के तलवे, रसातल उनके पंजे, महातल उनकी एड़ी के ऊपर की गाँठें, तलातल उनकी पिंडली, सुतल उनके घुटने, वितल और अतल उनकी जाँघें तथा भूतल उनका पेडू है। हे परीक्षित! आकाश उनकी नाभि, स्वर्गलोक उनकी छाती, महालोक उनका कंठ, जनलोक उनका मुख, तपलोक उनका मस्तक और सत्यलोक उनके सहस्त्र सिर हैं। दिशाएँ उनके कान, दोनों अश्वनीकुमार उनकी नासिका, अग्नि उनका मुख, अन्तरिक्ष उनके नेत्र और सूर्य उन नेत्रों की ज्योति है। दिन और रात्रि उनकी पलकें हैं, ब्रह्मलोक उनका भ्रू-विलास है, जल उनका तालू और रस उनकी जिव्ह्या है। वेद उनकी मस्तकरेखाएँ और यम उनकी दाढ़ें हैं। स्नेह उनके दाँत हैं और जगत को मोहित करने वाली माया उनकी मुस्कान है। लज्जा उनकी ऊपरी ओंठ तथा लोभ निचली ओंठ है। धर्म उनके स्तन और अधर्म उनकी पीठ है। प्रजापति ब्रह्मा उनकी मूत्रेन्द्रिय, मित्रावरुण उनके अण्डकोष और समुद्र उनका कोख है। पर्वत उनकी हड्डियाँ और नदियाँ उनकी नाड़ियाँ हैं। वृक्ष उनके रोम और वायु उनका श्वास है। बादल उनके केश है। सन्ध्या उनका वस्त्र है। मूल प्रकृति उनका हृदय है और चन्द्रमा उनका मन है। महातत्व उनका चित्त और रुद्रदेव उनका अहंकार है। वन्य पशु उनका कमर तथा हाथी, घोड़े, खच्चर आदि उनके नख हैं। अनेकों प्रकार के पक्षी उनकी कलाएँ हैं। बुद्धि उनका मन है और मनुष्य उनका निवास स्थान है। अप्सरा, चारण, गन्धर्व आदि उनके स्वर हैं। देवताओं के निमित्त किये गये यज्ञ उनके कर्म हैं। दैत्य तथा राक्षस उनके वीर्य, ब्राह्मण उनकी मुखारविन्दु, क्षत्रिय उनकी बाँहें, वैश्य उनकी जंघायें तथा शूद्र उनके चरणों से उत्पन्न होते हैं। "अतः बुद्धि और ज्ञान से अपने मन को वश में कर के भगवान के इसी विराट रूप का ध्यान करना चाहिये।" .

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रेणुका

रेणुका हिन्दू धर्म में सप्तर्षि में से एक जमदग्नि ऋषि की पत्नी बतायी गयी हैं। वह एक चंद्रवंशी क्षत्रिय कन्या थी । परशुराम इनके पुत्र थे। .

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रेणुका झील

रेणुका झील, हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में, नाहन से 40 किमी की दूरी पर स्थित है। यह हिमाचल प्रदेश के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों में से एक है। समुन्द्र तल से 672 मीटर की ऊँचाई पर स्थित 3214 मीटर की परिधि के साथ रेणुका झील हिमाचल प्रदेश की सबसे बड़ी झील के रूप में जानी जाती है।  झील का नाम देवी रेणुका के नाम पर रखा गया था। यह अच्छी तरह से सड़क मार्ग से जुडी हूई है। झील पर नौका विहार उपलब्ध है। एक शेर सफारी और एक चिड़ियाघर रेणुका के पास हैं। यह नवंबर में आयोजित एक वार्षिक मेले की साइट है। .

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शारंग धनुष

यह धनुष, भगवान शिव के धनुष पिनाक के साथ, विश्वव्यापी वास्तुकलाकार और अस्त्र-शस्त्रों के निर्माता विश्वकर्मा द्वारा तैयार किया गया था। एक बार, भगवान ब्रह्मा जानना चाहते थे कि उन दोनों में से बेहतर तीरंदाज कौन है, विष्णु या शिव। तब ब्रह्मा ने दोनों के बीच झगड़ा पैदा किया, जिसके कारण एक भयानक द्वंद्वयुद्ध हुआ। उनके इस युद्ध के कारण पूरे ब्रह्मांड का संतुलन बिगड़ गया। लेकिन जल्द ही विष्णु ने अपने बाणों से शिव को पराजित किया। ब्रह्मा के साथ अन्य सभी देवताओं ने उन दोनों से युद्ध को रोकने के लिए आग्रह किया और विष्णु को विजेता घोषित किया क्योंकि वह शिव को पराजित करने में सक्षम थे। क्रोधित भगवान शिव ने अपने धनुष पिनाक को एक राजा को दे दिया, जो सीता के पिता राजा जनक के पूर्वज थे। भगवान विष्णु ने भी ऐसा करने का निर्णय किया, और ऋषि ऋचिक को अपना धनुष शारंग दे दिया। समय के साथ, शारंग, भगवान विष्णु के छठे अवतार और ऋषि ऋचिक के पौत्र परशुराम को प्राप्त हुआ। परशुराम ने अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करने के पश्चात, विष्णु के अगले अवतार भगवान राम को शारंग दे दिया। राम ने इसका प्रयोग किया और इसे जलमण्डल के देवता वरुण को दिया। महाभारत में, वरुण ने शारंग को खांडव-दहन के दौरान भगवान कृष्ण (विष्णु के आठवें अवतार) को दे दिया। मृत्यु से ठीक पहले, कृष्ण ने इस धनुष को महासागर में फेंककर वरुण को वापस लौटा दिया। विष्णु के आठवें अवतार भगवान कृष्ण और रहस्यमय शक्तियों के राक्षस शल्व के बीच एक द्वंद्वयुद्ध के दौरान शारंग प्रकट होता है। शल्व ने कृष्ण के बाएं हाथ पर हमला किया जिससे कृष्ण के हाथों से शारंग छूट गया। बाद में, भगवान कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शल्व के सिर को धड़ से अलग कर दिया। एक अन्य कथा के अनुसार, जब जनक ने घोषणा की कि जो भी सीता से विवाह करना चाहता है उसे पिनाक नामक दिव्य धनुष उठाना होगा और इसकी प्रत्यंचा चढ़ानी होगी। अयोध्या के राजकुमार राम ने ही यह धनुष प्रत्यंचित किया और सीता से विवाह किया। विवाह के बाद जब उनके पिता दशरथ राम के साथ अयोध्या लौट रहे थे, परशुराम ने उनके मार्ग को रोका और अपने गुरु शिव के धनुष पिनाक को तोड़ने के लिए राम को चुनौती दी। राम ने धनुष को भंग कर दिया । इस पर दशरथ ने ऋषि परशुराम से उसे क्षमा करने के लिए प्रार्थना की लेकिन परशुराम और भी क्रोधित हुए और उन्होने विष्णु के धनुष शारंग को लिया और राम से धनुष को बांधने और उसके साथ एक द्वंद्वयुद्ध लड़ने के लिए कहा। राम ने विष्णु के धनुष शारंग को लिया, इसे बाँधा, इसमें एक बाण लगाया और उस बाण को परशुराम की ओर इंगित किया। तब राम ने परशुराम से पूछा कि वह तीर का लक्ष्य क्या देंगे। इस पर, परशुराम स्वयं को अपनी रहस्यमय ऊर्जा से रहित मानते हैं। वह महसूस करते हैं कि राम विष्णु का ही अवतार है।.

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शिशुपालवध

श्रीकृष्ण द्वारा चक्र से शिशुपाल का सिरोच्छेदन शिशुपालवध महाकवि माघ द्वारा रचित संस्कृत काव्य है। २० सर्गों तथा १८०० अलंकारिक छन्दों में रचित यह ग्रन्थ संस्कृत के छः महाकाव्यों में गिना जाता है। इसमें कृष्ण द्वारा शिशुपाल के वध की कथा का वर्णन है। .

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शिवधनुष (पिनाक)

शिवधनुष (संस्कृत: शिवधनुष) या पिनाक (संस्कृत: पिनाक) भगवान शिव का धनुष है। हिंदू महाकाव्य रामायण में इस धनुष का उल्लेख है, जब श्री राम इसे जनक की पुत्री सीता को अपनी पत्नी के रूप में जीतने के लिए भंग करते हैं। भगवान राम, सीता को पत्नी रूप में प्राप्त करने हेतु शिवधनुष की प्रत्यंचा चढ़ाते हुए .

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श्रीभार्गवराघवीयम्

श्रीभार्गवराघवीयम् (२००२), शब्दार्थ परशुराम और राम का, जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००२ ई में रचित एक संस्कृत महाकाव्य है। इसकी रचना ४० संस्कृत और प्राकृत छन्दों में रचित २१२१ श्लोकों में हुई है और यह २१ सर्गों (प्रत्येक १०१ श्लोक) में विभक्त है।महाकाव्य में परब्रह्म भगवान श्रीराम के दो अवतारों परशुराम और राम की कथाएँ वर्णित हैं, जो रामायण और अन्य हिंदू ग्रंथों में उपलब्ध हैं। भार्गव शब्द परशुराम को संदर्भित करता है, क्योंकि वह भृगु ऋषि के वंश में अवतीर्ण हुए थे, जबकि राघव शब्द राम को संदर्भित करता है क्योंकि वह राजा रघु के राजवंश में अवतीर्ण हुए थे। इस रचना के लिए, कवि को संस्कृत साहित्य अकादमी पुरस्कार (२००५) तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। महाकाव्य की एक प्रति, कवि की स्वयं की हिन्दी टीका के साथ, जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा ३० अक्टूबर २००२ को किया गया था। .

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श्रीसीतारामकेलिकौमुदी

श्रीसीतारामकेलिकौमुदी (२००८), शब्दार्थ: सीता और राम की (बाल) लीलाओं की चन्द्रिका, हिन्दी साहित्य की रीतिकाव्य परम्परा में ब्रजभाषा (कुछ पद मैथिली में भी) में रचित एक मुक्तक काव्य है। इसकी रचना जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००७ एवं २००८ में की गई थी।रामभद्राचार्य २००८, पृष्ठ "क"–"ड़"काव्यकृति वाल्मीकि रामायण एवं तुलसीदास की श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड की पृष्ठभूमि पर आधारित है और सीता तथा राम के बाल्यकाल की मधुर केलिओं (लीलाओं) एवं मुख्य प्रसंगों का वर्णन करने वाले मुक्तक पदों से युक्त है। श्रीसीतारामकेलिकौमुदी में ३२४ पद हैं, जो १०८ पदों वाले तीन भागों में विभक्त हैं। पदों की रचना अमात्रिका, कवित्त, गीत, घनाक्षरी, चौपैया, द्रुमिल एवं मत्तगयन्द नामक सात प्राकृत छन्दों में हुई है। ग्रन्थ की एक प्रति हिन्दी टीका के साथ जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन ३० अक्टूबर २००८ को किया गया था। .

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सातवाहन

सातवाहन प्राचीन भारत का एक राजवंश था। इसने ईसापूर्व २३० से लेकर दूसरी सदी (ईसा के बाद) तक केन्द्रीय दक्षिण भारत पर राज किया। यह मौर्य वंश के पतन के बाद शक्तिशाली हुआ था। इनका उल्लेख ८वीं सदी ईसापूर्व में मिलता है। अशोक की मृत्यु (सन् २३२ ईसापूर्व) के बाद सातवाहनों ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। सीसे का सिक्का चलाने वाला पहला वंश सातवाहन वंश था, और वह सीसे का सिक्का रोम से लाया जाता था। .

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संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द

हिन्दी भाषी क्षेत्र में कतिपय संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द प्रचलित हैं। जैसे- सप्तऋषि, सप्तसिन्धु, पंच पीर, द्वादश वन, सत्ताईस नक्षत्र आदि। इनका प्रयोग भाषा में भी होता है। इन शब्दों के गूढ़ अर्थ जानना बहुत जरूरी हो जाता है। इनमें अनेक शब्द ऐसे हैं जिनका सम्बंध भारतीय संस्कृति से है। जब तक इनकी जानकारी नहीं होती तब तक इनके निहितार्थ को नहीं समझा जा सकता। यह लेख अभी निर्माणाधीन हॅ .

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सुनार

कटक के सुनार (सन १८७३) सुनार (वैकल्पिक सोनार या स्वर्णकार) भारत और नेपाल के स्वर्णकार समाज से सम्बन्धित जाति है जिनका मुख्य व्यवसाय स्वर्ण धातु से भाँति-भाँति के कलात्मक आभूषण बनाना, खेती करना तथा सात प्रकार के शुद्ध व्यापार करना है। यद्यपि यह समाज मुख्य रूप से हिन्दू को मानने वाला है लेकिन इस जाति का एक विशेष कुलपूजा स्थान है। सुनार अपने पूर्वजों के धार्मिक स्थान की कुलपूजा करते है। यह जाति हिन्दूस्तान की मूलनिवासी जाति है। मूलत: ये सभी क्षत्रिय वर्ण में आते हैं इसलिये ये क्षत्रिय सुनार भी कहलाते हैं। आज भी यह समाज इस जाति को क्षत्रिय सुनार कहने में गर्व महसूस करता हैं। .

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हिन्दू देवी देवताओं की सूची

यह हिन्दू देवी देवताओं की सूची है। हिन्दू लेखों के अनुसार, धर्म में तैंतीस कोटि (कोटि के अर्थ-प्रकार और करोड़) देवी-देवता बताये गये हैं। इनमें स्थानीय व क्षेत्रीय देवी-देवता भी शामिल हैं)। वे सभी तो यहां सम्मिलित नहीं किये जा सकते हैं। फिर भी इस सूची में तीन सौ से अधिक संख्या सम्मिलित है। .

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हिन्दू देवी-देवता

हिंदू देववाद पर वैदिक, पौराणिक, तांत्रिक और लोकधर्म का प्रभाव है। वैदिक धर्म में देवताओं के मूर्त रूप की कल्पना मिलती है। वैदिक मान्यता के अनुसार देवता के रूप में मूलशक्ति सृष्टि के विविध उपादानों में संपृक्त रहती है। एक ही चेतना सभी उपादानों में है। यही चेतना या अग्नि अनेक स्फुर्लिंगों की तरह (नाना देवों के रूप में) एक ही परमात्मा की विभूतियाँ हैं। (एकोदेव: सर्वभूतेषु गूढ़)। .

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हिन्दू धर्म

हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) एक धर्म (या, जीवन पद्धति) है जिसके अनुयायी अधिकांशतः भारत,नेपाल और मॉरिशस में बहुमत में हैं। इसे विश्व का प्राचीनतम धर्म कहा जाता है। इसे 'वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म' भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि इसकी उत्पत्ति मानव की उत्पत्ति से भी पहले से है। विद्वान लोग हिन्दू धर्म को भारत की विभिन्न संस्कृतियों एवं परम्पराओं का सम्मिश्रण मानते हैं जिसका कोई संस्थापक नहीं है। यह धर्म अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए हैं। अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में हैं। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है। इसे सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इण्डोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम "हिन्दु आगम" है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नहीं है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है। .

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हिन्दी पुस्तकों की सूची/प

* पंच परमेश्वर - प्रेम चन्द्र.

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जमदग्नि ऋषि

जमदग्नि ऋषि जमदग्नि ऋषि एक ऋषि थे, जो भृगुवंशी ऋचीक के पुत्र थे तथा जिनकी गणना सप्तऋषियों में होती है। पुराणों के अनुसार इनकी पत्नी रेणुका थीं, व इनका आश्रम सरस्वती नदी के तट पर था। वैशाख शुक्ल तृतीया इनके पांचवें प्रसिद्ध पुत्र प्रदोषकाल में जन्मे थे जिन्हें परशुराम के नाम से जाना जाता है। .

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जलालाबाद (शाहजहाँपुर)

जलालाबाद (शाहजहाँपुर) (अंग्रेजी: Jalalabad (Shahjahanpur), उर्दू: جلال آباد (Jalālābād) शाहजहाँपुर जिले का एक प्रमुख ऐतिहासिक नगर है जिसकी देखरेख यहाँ की नगरपालिका करती है। यह नगर भारतवर्ष के राज्य उत्तर प्रदेश के अन्तर्गत आता है। जलालाबाद सिर्फ़ एक नगर ही नहीं बल्कि शाहजहाँपुर जिले की तहसील भी है। .

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विदुर

विदुर की आत्मा का युधिष्ठिर में प्रवेश thumb विदुर (अर्थ कुशल, बुद्धिमान अथवा मनीषी) हिन्दू ग्रन्थ महाभारत के केन्द्रीय पात्रों में से एक व हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री, कौरवो और पांडवो के काका और धृतराष्ट्र एवं पाण्डु के भाई थे। उनका जन्म एक दासी के गर्भ से हुआ था। विदुर को धर्मराज का अवतार भी माना जाता है। .

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विष्णु

वैदिक समय से ही विष्णु सम्पूर्ण विश्व की सर्वोच्च शक्ति तथा नियन्ता के रूप में मान्य रहे हैं। हिन्दू धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में बहुमान्य पुराणानुसार विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो रूप ब्रह्मा और शिव को माना जाता है। ब्रह्मा को जहाँ विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है, वहीं शिव को संहारक माना गया है। मूलतः विष्णु और शिव तथा ब्रह्मा भी एक ही हैं यह मान्यता भी बहुशः स्वीकृत रही है। न्याय को प्रश्रय, अन्याय के विनाश तथा जीव (मानव) को परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग-ग्रहण के निर्देश हेतु विभिन्न रूपों में अवतार ग्रहण करनेवाले के रूप में विष्णु मान्य रहे हैं। पुराणानुसार विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं। कामदेव विष्णु जी का पुत्र था। विष्णु का निवास क्षीर सागर है। उनका शयन शेषनाग के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी स्थित हैं। वह अपने नीचे वाले बाएँ हाथ में पद्म (कमल), अपने नीचे वाले दाहिने हाथ में गदा (कौमोदकी),ऊपर वाले बाएँ हाथ में शंख (पाञ्चजन्य) और अपने ऊपर वाले दाहिने हाथ में चक्र(सुदर्शन) धारण करते हैं। शेष शय्या पर आसीन विष्णु, लक्ष्मी व ब्रह्मा के साथ, छंब पहाड़ी शैली के एक लघुचित्र में। .

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वैशाख

वैशाख भारतीय काल गणना के अनुसार वर्ष का दूसरा माह है। इस माह को एक पवित्र माह के रूप में माना जाता है। जिनका संबंध देव अवतारों और धार्मिक परंपराओं से है। ऐसा माना जाता है कि इस माह के शुक्ल पक्ष को अक्षय तृतीया के दिन विष्णु अवतारों नर-नारायण, परशुराम, नृसिंह और ह्ययग्रीव के अवतार हुआ और शुक्ल पक्ष की नवमी को देवी सीता धरती से प्रकट हुई। कुछ मान्यताओं के अनुसार त्रेतायुग की शुरुआत भी वैशाख माह से हुई। इस माह की पवित्रता और दिव्यता के कारण ही कालान्तर में वैशाख माह की तिथियों का सम्बंध लोक परंपराओं में अनेक देव मंदिरों के पट खोलने और महोत्सवों के मनाने के साथ जोड़ दिया। यही कारण है कि हिन्दू धर्म के चार धाम में से एक बद्रीनाथधाम के कपाट वैशाख माह की अक्षय तृतीया को खुलते हैं। इसी वैशाख के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को एक और हिन्दू तीर्थ धाम पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा भी निकलती है। वैशाख कृष्ण पक्ष की अमावस्या को देववृक्ष वट की पूजा की जाती है। यह भी माना जाता है कि भगवान बुद्ध की वैशाख पूजा 'दत्थ गामणी' (लगभग 100-77 ई. पू.) नामक व्यक्ति ने लंका में प्रारम्भ करायी थी। .

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खोतानी रामायण

खोतानी रामायण मध्य एशिया के खोतान प्रदेश में प्रचलित रामकथा जिसकी रचना संभवत: 9वीं शती ई. में हुई थी। कदाचित यह तिब्बत में प्रचलित किसी रामायण का प्रतिसंस्करण है। एशिया के पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित तुर्किस्तान के पूर्वी भाग को 'खोतान' कहा जाता है जिसकी भाषा 'खोतानी' है। इसमें गौतम बुद्ध की आत्मकथा के रूप में कथा आरंभ होती है। इसमें राम की बुद्ध और लक्ष्मण को मैत्रेय बताया गया है और सीता, राम और लक्ष्मण दोनों की पत्नी हैं। यह कदाचित मध्य एशिया की कतिपय प्राचीन जातियों में प्रचलित बहुपति प्रथा से प्रभावित है। इसमें रावण के वध का कोई प्रसंग नहीं है। सहस्रबाहु (सहस्रार्जुन) को दशरथ का पुत्र कहा गया है। राम-लक्ष्मण इस सहस्रबाहु के पुत्र थे। उनकी माँ ने उन्हें बारह वर्ष तक भूमि में छिपा कर रखा था। परशुराम के पिता की गाय का सहस्रबाहु ने अपहरण कर लिया था। इस कारण परशुराम ने सहस्रबाहु का वध किया। राम ने पृथ्वी से वर प्राप्त कर परशुराम को मारा। .

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गोवा

right गोवा या गोआ (कोंकणी: गोंय), क्षेत्रफल के हिसाब से भारत का सबसे छोटा और जनसंख्या के हिसाब से चौथा सबसे छोटा राज्य है। पूरी दुनिया में गोवा अपने खूबसूरत समुंदर के किनारों और मशहूर स्थापत्य के लिये जाना जाता है। गोवा पहले पुर्तगाल का एक उपनिवेश था। पुर्तगालियों ने गोवा पर लगभग 450 सालों तक शासन किया और दिसंबर 1961 में यह भारतीय प्रशासन को सौंपा गया। .

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करावली

कन्नड़ क्षेत्र (टुलु:ಕರಾವಳಿ) या करावली क्षेत्र कर्नाटक राज्य के तीन तटीय जिलों, दक्षिण कन्नड़, उडुपी एवं उत्तर कन्नड़ को मिलाकर कहा जाता है। यह कोंकण तटरेखा का दक्षिणी भाग बनाता है। इस क्षेत्र की उत्तर से दक्षिण लंबाई ३०० कि.मी तक और चौड़ाई ३० से ११० कि.मी तक जाती है। क्षेत्र में बहती हवा के साथ झूलते हुए चीड़ के वृक्ष दृश्य होते हैं। .

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कर्ण

जावानी रंगमंच में कर्ण। कर्ण महाभारत के सबसे प्रमुख पात्रों में से एक है। कर्ण की वास्तविक माँ कुन्ती थी। कर्ण का जन्म कुन्ती का पाण्डु के साथ विवाह होने से पूर्व हुआ था। कर्ण दुर्योधन का सबसे अच्छा मित्र था और महाभारत के युद्ध में वह अपने भाइयों के विरुद्ध लड़ा। वह सूर्य पुत्र था। कर्ण को एक आदर्श दानवीर माना जाता है क्योंकि कर्ण ने कभी भी किसी माँगने वाले को दान में कुछ भी देने से कभी भी मना नहीं किया भले ही इसके परिणामस्वरूप उसके अपने ही प्राण संकट में क्यों न पड़ गए हों। कर्ण की छवि आज भी भारतीय जनमानस में एक ऐसे महायोद्धा की है जो जीवनभर प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ता रहा। बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि कर्ण को कभी भी वह सब नहीं मिला जिसका वह वास्तविक रूप से अधिकारी था। तर्कसंगत रूप से कहा जाए तो हस्तिनापुर के सिंहासन का वास्तविक अधिकारी कर्ण ही था क्योंकि वह कुरु राजपरिवार से ही था और युधिष्ठिर और दुर्योधन से ज्येष्ठ था, लेकिन उसकी वास्तविक पहचान उसकी मृत्यु तक अज्ञात ही रही। कर्ण की छवि द्रौपदी का अपमान किए जाने और अभिमन्यु वध में उसकी नकारात्मक भूमिका के कारण धूमिल भी हुई थी लेकिन कुल मिलाकर कर्ण को एक दानवीर और महान योद्धा माना जाता है। .

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कलरीपायट्टु

कलरीपायट्टु (मलयालमകളരിപയറ്റ്) दक्षिणी राज्य केरल से व्युत्पन्न भारत की एक युद्ध कला है। संभवतः सबसे पुरानी अस्तित्ववान युद्ध पद्धतियों में से एक, ये केरल में और तमिलनाडु व कर्नाटक से सटे भागों में साथ ही पूर्वोत्तर श्रीलंका और मलेशिया के मलयाली समुदाय के बीच प्रचलित है। इसका अभ्यास मुख्य रूप से केरल की योद्धा जातियों जैसे नायर, एज्हावा द्वारा, किया जाता था.

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कश्यप

आंध्र प्रदेश में कश्यप प्रतिमा वामन अवतार, ऋषि कश्यप एवं अदिति के पुत्र, महाराज बलि के दरबार में। कश्यप ऋषि एक वैदिक ऋषि थे। इनकी गणना सप्तर्षि गणों में की जाती थी। हिन्दू मान्यता अनुसार इनके वंशज ही सृष्टि के प्रसार में सहायक हुए। .

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कुरुक्षेत्र

कुरुक्षेत्र(Kurukshetra) हरियाणा राज्य का एक प्रमुख जिला और उसका मुख्यालय है। यह हरियाणा के उत्तर में स्थित है तथा अम्बाला, यमुना नगर, करनाल और कैथल से घिरा हुआ है तथा दिल्ली और अमृतसर को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग और रेलमार्ग पर स्थित है। इसका शहरी इलाका एक अन्य एटिहासिक स्थल थानेसर से मिला हुआ है। यह एक महत्वपूर्ण हिन्दू तीर्थस्थल है। माना जाता है कि यहीं महाभारत की लड़ाई हुई थी और भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश यहीं ज्योतिसर नामक स्थान पर दिया था। यह क्षेत्र बासमती चावल के उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है। .

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कृषिगीता

कृषिगीता एक मलयालम ग्रन्थ है जिसमें उन्नत कृषि के विषय में परशुराम और ब्राह्मणों के बीच चर्चा है। इसके मूल लेखक एवं रचनाकाल के बारे में कुछ भी पता नहीं है। किन्तु ऐसा लगता है कि इसकी रचना लगभग १५०० ई में हुई होगी। .

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अद्भुत रामायण

अद्भुत रामायण संस्कृत भाषा में रचित 27 सर्गों का काव्यविशेष है। कहा जाता है, इस ग्रंथ के प्रणेता बाल्मीकि थे। किंतु इसकी भाषा और रचना से लगता है, किसी बहुत परवर्ती कवि ने इसका प्रणयन किया है। .

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अस्त्र शस्त्र

---- अंगारपर्ण पर अग्नेयास्त्र छोड़ते हुए अर्जुन प्राचीन आर्यावर्त के आर्यपुरुष अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण थे। उन्होंने अध्यात्म-ज्ञान के साथ-साथ आततियों और दुष्टों के दमन के लिये सभी अस्त्र-शस्त्रों की भी सृष्टि की थी। आर्यों की यह शक्ति धर्म-स्थापना में सहायक होती थी। प्राचीन काल में जिन अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग होता था, उनका वर्णन इस प्रकार है-.

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अवतार

अवतार का अर्थ अवतरित होना या उतरना है। हिंदू मान्यता के अनुसार जब-जब दुष्टों का भार पृथ्वी पर बढ़ता है और धर्म की हानि होती है तब-तब पापियों का संहार करके भक्तों की रक्षा करने के लिये भगवान अपने अंश अथवा पूर्णांश से पृथ्वी पर शरीर धारण करते हैं। .

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अक्षय तृतीया

अक्षय तृतीया या आखा तीज वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को कहते हैं। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस दिन जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं, उनका अक्षय फल मिलता है।। वेब दुनिया इसी कारण इसे अक्षय तृतीया कहा जाता है।। नवभारत टाइम्स। २७ अप्रैल २००९। पं.केवल आनंद जोशी वैसे तो सभी बारह महीनों की शुक्ल पक्षीय तृतीया शुभ होती है, किंतु वैशाख माह की तिथि स्वयंसिद्ध मुहूर्तो में मानी गई है। .

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उद्योगपर्व

उद्योग पर्व के अन्तर्गत १० उपपर्व हैं और इसमें कुल १९६ अध्याय हैं। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

परशुराम अवतार, परशुरामजी

निवर्तमानआने वाली
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