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पथरचटा

सूची पथरचटा

पथरचटा का पौधा पथरचटा या पथरचट्टा (वानस्पतिक नाम - Kalanchoe pinnata या Bryophyllum calycinum या Bryophyllum pinnatum) यह एक सपुष्पक पादप है जो भारत के सभी राज्यों में पाया जाता है। माडागास्कर को इसका उत्पत्तिस्थल बताया जाता है। इसके पत्तों के किनारों से से नया पौधा निकलता है। यह पथरी तथा अन्य रोगों में उपयोगी है। .

3 संबंधों: पत्थरचूर, पथरचटा (खरपतवार), कालिंजर दुर्ग

पत्थरचूर

पत्थरचूर पत्थरचूर या पाषाणभेद (वानस्पतिक नाम: Plectranthus barbatus तथा Coleus forskohlii) एक औषधीय पादप है। कोलियस फोर्सकोली जिसे पाषाणभेद अथवा पत्थरचूर भी कहा जाता है, उन कुछ औषधीय पौधों में से है, वैज्ञानिक आधारों पर जिनकी औषधीय उपयोगिता हाल ही में स्थापित हुई है। भारतवर्ष के समस्त ऊष्ण कतिबन्धीय एवं उप-ऊष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों के साथ-साथ पाकिस्तान, श्रीलंका, पूर्वी अफ्रीका, ब्राजील, मिश्र, ईथोपिया तथा अरब देशों में पाए जाने वाले इस औषधीय पौधे को भविष्य के एक महत्वपूर्ण औषधीय पौधे के रूप में देखा जा रहा है। वर्तमान में भारतवर्ष के विभिन्न भागों जैसे तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा राजस्थान में इसकी विधिवत खेती भी प्रारंभ हो चुकी है जो काफी सफल रही है। विभिन्न भाषाओं में पाषाणभेद के नाम-.

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पथरचटा (खरपतवार)

पत्थरचट्टा (वानस्पतिक नाम: ट्राइन्थिमा मोनोगाइना / Trianthema monogyna) खरीफ ऋतु का एकवर्षीय खरपतवार है। वर्षा ऋतु में यह बहुत बढता हैं व फूलता-फलता है। इसकी वृद्धि उपजाऊ तथा नम भूमि में बहुत अधिक होती है। भूमि में जड़ें गहराई तक जाती हैं। इसके तने फैलने वाले, बहुशाखीय व सरस होते हैं जिनकी लम्बाई २५-३० सेमी होती है। पत्तियां विभिन्न आकार की रसदार व मोटी होती हैं। पुष्प सलिटरी व्रत्तहीन, सफेद अथवा लालिमा युक्त होते हैं। फूल कैप्सूल के आकार का होता हैं तथा फल काले अनेक रखाओं से युक्त होते हैं। .

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कालिंजर दुर्ग

कालिंजर, उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र के बांदा जिले में कलिंजर नगरी में स्थित एक पौराणिक सन्दर्भ वाला, ऐतिहासिक दुर्ग है जो इतिहास में सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा है। यह विश्व धरोहर स्थल प्राचीन मन्दिर नगरी-खजुराहो के निकट ही स्थित है। कलिंजर नगरी का मुख्य महत्त्व विन्ध्य पर्वतमाला के पूर्वी छोर पर इसी नाम के पर्वत पर स्थित इसी नाम के दुर्ग के कारण भी है। यहाँ का दुर्ग भारत के सबसे विशाल और अपराजेय किलों में एक माना जाता है। इस पर्वत को हिन्दू धर्म के लोग अत्यंत पवित्र मानते हैं, व भगवान शिव के भक्त यहाँ के मन्दिर में बड़ी संख्या में आते हैं। प्राचीन काल में यह जेजाकभुक्ति (जयशक्ति चन्देल) साम्राज्य के अधीन था। इसके बाद यह दुर्ग यहाँ के कई राजवंशों जैसे चन्देल राजपूतों के अधीन १०वीं शताब्दी तक, तदोपरांत रीवा के सोलंकियों के अधीन रहा। इन राजाओं के शासनकाल में कालिंजर पर महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक, शेर शाह सूरी और हुमांयू जैसे प्रसिद्ध आक्रांताओं ने आक्रमण किए लेकिन इस पर विजय पाने में असफल रहे। अनेक प्रयासों के बाद भी आरम्भिक मुगल बादशाह भी कालिंजर के किले को जीत नहीं पाए। अन्तत: मुगल बादशाह अकबर ने इसे जीता व मुगलों से होते हुए यह राजा छत्रसाल के हाथों अन्ततः अंग्रेज़ों के अधीन आ गया। इस दुर्ग में कई प्राचीन मन्दिर हैं, जिनमें से कई तो गुप्त वंश के तृतीय -५वीं शताब्दी तक के ज्ञात हुए हैं। यहाँ शिल्पकला के बहुत से अद्भुत उदाहरण हैं। .

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