आदि गुरु श्री गुरुग्रंथ साहब की मूलवाणी जपुजी जगतगुरु श्री गुरुनानकदेवजी द्वारा जनकल्याण हेतु उच्चारित की गई अमृतमयी वाणी है। 'जपुजी' एक विशुद्ध एक सूत्रमयी दार्शनिक वाणी है उसमें महत्वपूर्ण दार्शनिक सत्यों को सुंदर अर्थपूर्ण और संक्षिप्त भाषा में काव्यात्मक ढंग से अभिव्यक्त किया है। इसमें ब्रह्मज्ञान का अलौकिक ज्ञान प्रकाश है। इसका दिव्य दर्शन मानव जीवन का चिंतन है। इस वाणी में धर्म के सत्य, शाश्वत मूल्यों को बही मनोहारी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। अतः महान गुरु की इस महान कृति की व्याख्या करना तो दूर इसे समझना भी आसान नहीं है। लकिन जो इसमें प्रयुक्त भाषाओं को जानते हैं उनके लिए इसका चिंतन, मनन करना उदात्तकारी एवं उदर्वोमुखी है। यह एक पहली धार्मिक और रहस्यवादी रचना है और आध्यात्मिक एवं साहित्यिक क्षेत्र में इसका अत्यधिक महत्व महान है। गुरु नानक की जन्म साखियों में इस बात का उल्लेख है कि जब गुरुजी सुलतानपुर में रहते थे, तो वे रोजाना निकटवर्ती वैई नदी में स्नान करने के लिए जाया करते थे। जब वे 27 वर्ष के थे, तब एक दिन प्रातःकाल वे नदी में स्नान करने के लिए गए और तीन दिन तक नदी में समाधिस्थ रहे। वृतांत में कहा है कि इस समय गुरुजी को ईश्वर का साक्षात्कार हुआ था। उन पर ईश्वर की कृपा हुई थी और देवी अनुकम्पा के प्रतीक रूप में ईश्वर ने गुरुजी को एक अमृत का प्याला प्रदान किया थ। वृतांतों में इस बात की साक्षी मौजूद है कि इस अलौकिक अनुभव की प्रेरणा से गुरुजी ने मूलमंत्र का उच्चारण किया था, जिससे जपुजी साहिब का आरंभ होता है। जपुजी का प्रारंभिक शब्द एक ओमकारी बीज मंत्र है जैसे उपनिषदों और गीता में ओम शब्द बीज मंत्र है। मूल मंत्र है, जिसमें प्रभु के गुण नाम कथन किए गए हैं। समस्त जपुजी को मोटे तौर पर चार भागों में विभक्त किया गया है-.
1 संबंध: भाई संतोख सिंह।
भाई संतोख सिंह (सन् 1788-1843) वेदांत और सिक्ख दर्शन के विद्वान् और ज्ञानी संप्रदाय के विचारक थे। आपके पूर्वज छिंवा या छिब्बर नाम के मोह्याल ब्राह्मण थे। आपका जन्म अमृतसर में हुआ। आपके पिता श्री देवसिंह निर्मला संतों के संपर्क में रहे। आपकी माता का नाम राजादेई (राजदेवी) था। आप रूढ़िवाद के कट्टर विरोधी थे। अपनी परिवारिक परंपराओं की अवमानना करके आपने रोहिल्ला परिवार में विवाह किया। आपके सुपुत्र अजयसिंह भी बड़े विद्वान् हुए। भाई साहब ने ज्ञानी संतसिंह से काव्याध्ययन किया। तदनंतर संस्कृत की शिक्षा काशी में प्राप्त की। सन् 1823 में आप पटियालानरेश महाराज कर्मसिंह के दरबारी कवि के रूप में पधारे। दो वर्ष बाद कैथल के रईस श्री उदयसिंह आपको अपने यहाँ लिवा ले आए। पटियाला की भाँति कैथल में भी आपका बड़ा सम्मान हुआ और वहाँ पर अनेक विद्वानों का सहयोग भी प्राप्त हुआ। .
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जपुजी साहिब।