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गोंद

सूची गोंद

एक वृक्ष से स्रावित होता गोंद गोंद पौधा का एक उत्सर्जी पदार्थ है जो कोशिका भित्ति के सेलूलोज के अपघटन के फलस्वरूप बनता है। सूखी अवस्था में यह रवा के रूप में पाया जाता है, किन्तु पानी में डालने पर यह फूलकर चिपचिपा बन जाता है। इसका उपयोग कागज आदि विभिन्न पदार्थों को चिपकाने में होता है। अकेशिया सेनीगल से हमें सबसे अच्छा गोंद मिलता है। बबूल, आम और नीम आदि पौधों से भी गोंद निकलता है इसका उपयोग दवा बनाने एवं विभिन्न उद्योग धंधों में होता है। श्रेणी:उत्सर्जन.

21 संबंधों: चमड़ा, एसिटिक अम्ल, पलाश, प्रतापगढ़, राजस्थान, बाल्सम, भारतीय चित्रकला, भारतीय वानिकी संस्थान, रैमी, रेज़िन, लड्डू, संवेष्टन, स्नेहक, सेमल, हवाई पत्र, ख़ोरासान, खैर (वृक्ष), गुंदी, ग्वार, कोलेजन, अमलतास, अरीठा

चमड़ा

चमड़े के आधुनिक औजारचमड़ा जानवरों की खाल को कमा कर प्राप्त की गयी एक सामग्री है। कमाना या चर्मशोधन एक प्रक्रिया है जो पूयकारी खाल को एक टिकाऊ और विभिन्न प्रयोगों मे आने वाली सामग्री में परिवर्तित कर देती है। चमड़ा बनाने में मुख्यतः गाय और भैंस की खाल का प्रयोग किया जाता है। लकड़ी और चमड़ा ही दो ऐसी सामग्री हैं जो अधिसंख्य प्राचीन तकनीकों का आधार हैं। चमड़ा उद्योग और लोम उद्योग अलग अलग उद्योग हैं और उनकी यह भिन्नता उनके द्वारा प्रयुक्त कच्चे माल के महत्व से पता चलती है। जहां चमड़ा उद्योग का कच्चा माल मांस उद्योग का एक उपोत्पाद है वहीं लोम चर्म उद्योग में लोम की मांस से अधिक महत्वता है। चर्मप्रसाधन भी जानवरों की खालों का इस्तेमाल करता है, लेकिन इसमें आमतौर पर सिर और पीठ का हिस्सा ही प्रयोग में आता है। चर्म और खाल से गोंद और सरेस (जिलेटिन) का उत्पादन भी किया जाता है। .

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एसिटिक अम्ल

शुक्ताम्ल (एसिटिक अम्ल) CH3COOH जिसे एथेनोइक अम्ल के नाम से भी जाना जाता है, एक कार्बनिक अम्ल है जिसकी वजह से सिरका में खट्टा स्वाद और तीखी खुशबू आती है। यह इस मामले में एक कमज़ोर अम्ल है कि इसके जलीय विलयन में यह अम्ल केवल आंशिक रूप से विभाजित होता है। शुद्ध, जल रहित एसिटिक अम्ल (ठंडा एसिटिक अम्ल) एक रंगहीन तरल होता है, जो वातावरण (हाइग्रोस्कोपी) से जल सोख लेता है और 16.5 °C (62 °F) पर जमकर एक रंगहीन क्रिस्टलीय ठोस में बदल जाता है। शुद्ध अम्ल और उसका सघन विलयन खतरनाक संक्षारक होते हैं। एसिटिक अम्ल एक सरलतम कार्बोक्जिलिक अम्ल है। ये एक महत्वपूर्ण रासायनिक अभिकर्मक और औद्योगिक रसायन है, जिसे मुख्य रूप से शीतल पेय की बोतलों के लिए पोलिइथाइलीन टेरिफ्थेलेट; फोटोग्राफिक फिल्म के लिए सेलूलोज़ एसिटेट, लकड़ी के गोंद के लिए पोलिविनाइल एसिटेट और सिन्थेटिक फाइबर और कपड़े बनाने के काम में लिया जाता है। घरों में इसके तरल विलयन का उपयोग अक्सर एक डिस्केलिंग एजेंट के तौर पर किया जाता है। खाद्य उद्योग में एसिटिक अम्ल का उपयोग खाद्य संकलनी कोड E260 के तहत एक एसिडिटी नियामक और एक मसाले के तौर पर किया जाता है। एसिटिक अम्ल की वैश्विक मांग क़रीब 6.5 मिलियन टन प्रतिवर्ष (Mt/a) है, जिसमें से क़रीब 1.5 Mt/a प्रतिवर्ष पुनर्प्रयोग या रिसाइक्लिंग द्वारा और शेष पेट्रोरसायन फीडस्टोक्स या जैविक स्रोतों से बनाया जाता है। स्वाभाविक किण्वन द्वारा उत्पादित जलमिश्रित एसिटिक अम्ल को सिरका कहा जाता है। .

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पलाश

कोलकाता पश्चिम बंगाल में ढाक के पेड़ की पत्तियां पलाश (पलास,छूल,परसा, ढाक, टेसू, किंशुक, केसू) एक वृक्ष है जिसके फूल बहुत ही आकर्षक होते हैं। इसके आकर्षक फूलो के कारण इसे "जंगल की आग" भी कहा जाता है। प्राचीन काल से ही होली के रंग इसके फूलो से तैयार किये जाते रहे है। भारत भर मे इसे जाना जाता है। एक "लता पलाश" भी होता है। लता पलाश दो प्रकार का होता है। एक तो लाल पुष्पो वाला और दूसरा सफेद पुष्पो वाला। लाल फूलो वाले पलाश का वैज्ञानिक नाम ब्यूटिया मोनोस्पर्मा है। सफेद पुष्पो वाले लता पलाश को औषधीय दृष्टिकोण से अधिक उपयोगी माना जाता है। वैज्ञानिक दस्तावेजो मे दोनो ही प्रकार के लता पलाश का वर्णन मिलता है। सफेद फूलो वाले लता पलाश का वैज्ञानिक नाम ब्यूटिया पार्वीफ्लोरा है जबकि लाल फूलो वाले को ब्यूटिया सुपरबा कहा जाता है। एक पीले पुष्पों वाला पलाश भी होता है। .

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प्रतापगढ़, राजस्थान

प्रतापगढ़, क्षेत्रफल में भारत के सबसे बड़े राज्य राजस्थान के ३३वें जिले प्रतापगढ़ जिले का मुख्यालय है। प्राकृतिक संपदा का धनी कभी इसे 'कान्ठल प्रदेश' कहा गया। यह नया जिला अपने कुछ प्राचीन और पौराणिक सन्दर्भों से जुड़े स्थानों के लिए दर्शनीय है, यद्यपि इसके सुविचारित विकास के लिए वन विभाग और पर्यटन विभाग ने कोई बहुत उल्लेखनीय योगदान अब तक नहीं किया है। .

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बाल्सम

कुछ पेड़-पौधों से नि:स्राव (exude) निकलता है। कुछ से तो स्वत: निकलता है और कुछ से छेदने या काटने से निकलता है। इनमें से कुछ नि:स्रावों को बाल्सम (Balsam) कहते हैं। बाल्सम में रेज़िन, अल्प मात्रा में गोंद, कुछ वाष्पशील तेल और विभिन्न मात्राओं में सौरभिक अम्ल और उनके एस्टर रहते हैं। यदि नि:स्राव में वाष्पशील तेल की मात्रा अधिक और ठोस सौरभिक अम्ल की मात्रा बिल्कुल न हो तो ऐसे नि:स्राव को 'ओलिओरेज़िन' कहते हैं। बाल्सम साधारणतया श्यान द्रव, अथवा अर्ध ठोस, होता है। इसमें विशेष सौरभ होता है और तीक्ष्ण, पर कुछ रुचिकर स्वाद होता है। सौरभ प्रदान करनेवाले पदार्थ बेंज़ोइक, सिनेमिक और इसी प्रकार के अन्य कार्बनिक अम्ल और उनके एस्टर हैं। बाल्सम कई प्रकार के होते हैं, जिनमें बेंज़ोइन (लोबान), पेरू बाल्सम, स्टोरैक्स, टोलूबाल्सम, जैंथोरिया, कैनाडा बाल्सम और कोपैबा बाल्सम महत्व के हैं। .

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भारतीय चित्रकला

'''भीमवेटका''': पुरापाषाण काल की भारतीय गुफा चित्रकला भारत मैं चित्रकला का इतिहास बहुत पुराना रहा हैं। पाषाण काल में ही मानव ने गुफा चित्रण करना शुरु कर दिया था। होशंगाबाद और भीमबेटका क्षेत्रों में कंदराओं और गुफाओं में मानव चित्रण के प्रमाण मिले हैं। इन चित्रों में शिकार, शिकार करते मानव समूहों, स्त्रियों तथा पशु-पक्षियों आदि के चित्र मिले हैं। अजंता की गुफाओं में की गई चित्रकारी कई शताब्दियों में तैय्यार हुई थी, इसकी सबसे प्राचिन चित्रकारी ई.पू.

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भारतीय वानिकी संस्थान

भारतीय वानिकी संस्थान, का एक संस्थान है और भारत में वानिकी शोध के क्षेत्र में एक प्रमुख संस्थान है। यह देहरादून, उत्तराखण्ड में स्थिर है। इसकी स्थापना १९०६ में की गई थी और यह अपने प्रकार के सब्से पुराने संथानों में से एक है। १९९१ में इसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा डीम्ड विश्वविद्यालय घोषित कर दिया गया। भारतीय वानिकी संस्थान ४.५ किमी² के क्षेत्रफल में फैला हुआ है, बाहरी हिमालय की निकटता में। मुख्य भवन का वास्तुशिल्प यूनानी-रोमन और औपनिवेशिक शैली में बना हुआ है। यहाँ प्रयोगशालाएँ, एक पुस्तकालय, वनस्पतिय-संग्राह, वनस्पति-वाटिका, मुद्रण - यंत्र और प्रयोगिक मैदानी क्षेत्र हैं जिनपर वानिकी शोध किया जाता है। इसके संग्रहालय, वैज्ञानिक जानकारी के अतिरिक्त, पर्यटकों के लिए आकर्षण भी है। एफ़आरआई और कॉलेज एरिया प्रांगण एक जनगणना क्षेत्र है, उत्तर में देहरादून छावनी और दक्षिण में भारतीय सैन्य अकादमी के बीच। टोंस नदी इसकी पश्चिमी सीमा बनाती है। देहरादून के घण्टाघर से इस संस्थान की दूरी लगभग ७ किमी है। भारतीय वन सेवा के अधिकारियों को यहाँ प्रशिक्षण दिया जाता है, क्योंकि भारतीय वानिकी शोध और शिक्षा परिषद जो इस संस्थान का संचालन करता है आईएफ़एस भी चलाता है और इसके अतिरिक्त भारतीय वन्यजीव संस्थान और भारतीय वन प्रबन्धन संस्थान भी संचालित करता है। एफ़आरआई में एक वानिकी संग्रहालय भी है। यह प्रतिदिन प्रातः ९:३० से सांय ५:०० बजे तक खुला रहता है और प्रवेश शुल्क है १५ रू प्रति व्यक्ति और वाहनों के लिए भी नाममात्र का शुल्क है। इस संग्रहालय में छः अनुभाग हैं.

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रैमी

'''रीआ''' या 'बोमेरिया नीविया' रैमी (Rammie) रीआ, या रिहा, या चीनी घास एक प्रकार का पौधा है जो अर्टीकेसी (Urticaceae) कुल के बोमेरिया जीनस (Boehmeria Genera) के बोमेरिया निवीया (Boehmeria nivea) के नाम से ज्ञात है। इसके पत्ते नीचे की ओर हिम के समान सफेद होते हैं। पहले यह 'बोमेरिया टिनेसिसिमा' (tenacissima) कहा जाता था जो उष्ण देशों में उपजता था। इसके पत्ते पतले और नीचे ऊपर दोनों ओर हरे होते थे। इन दोनों ही रूपों के लिए भारत में रीआ (असम में रिहा) नाम प्रचलित है। बोमेरिया निवीया झाड़ीदार वर्षानुवर्षी पौधा (herbaceous perennial) होता है। इसकी लम्बाई १ मीटर से ढ़ाई मीटर तक होती है। यह पूर्वी एशिया का देशज है। इसके पत्ते आकार में दंशरोम (Nettle) के पत्तों जैसे होते हैं। पत्तों के पृष्ठ पर मृदुरोम होते हैं, जो चाँदी जैसे चमकते हैं। इसके फूल छोटे एवं हरित भूरे रंग के होते हैं। यह चीन, फारमोसा, जापान और फिलीपीन में अनेक वर्षों से उगाया जा रहा है। अब तो संसार के प्राय: समस्त उष्ण देशों में यह उगाया जाता है। अमरीका में भी इसके उगाने की चेष्टाएँ हुई हैं। बीज से, या कलम से, या जड़ों के विभाजन से पौधा उगाया जाता है। यह तीन से आठ फुट तक ऊँचा होता है। प्रति वर्ष इसकी दो से लेकर चार फसलें तक उपजती हैं। सामान्यत: प्रति एकड़ चार टन के लगभग पैदावार होती है किंतु विशेष ध्यान देने पर इसे और अधिक बढ़ाया जा सकता है। .

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रेज़िन

रेज़िन, जिसमें एक कीड़ा फँसा हुआ है राल या रेज़िन (अंग्रेज़ी: resin) गोंद जैसा हाइड्रोकार्बन द्रव्य होता है जो वृक्षों की छाल और लकड़ी से निकलता है। अन्य पेड़ों की तुलना में चीड़ जैसे कोणधारी (कॉनिफ़ॅरस) पेड़ों से रेज़िन अधिक मात्रा में निकलता है। रेज़िन का प्रयोग गोंद, लकड़ी की रोग़न (वार्निश), सुगंध और अगरबत्तियाँ बनाने के लिए सदियों से होता आया है। कभी-कभी रेज़िन जमकर पत्थरा जाता है और बड़े डलों का रूप ले लेता है जो समय के साथ ज़मीन में दफ़्न हो जाते हैं। लाखों साल बाद यह कहरुवे (ऐम्बर) के नाम से बहुमूल्य पत्थरों की तरह निकाले जाते हैं और आभूषणों में इस्तेमाल होते हैं।, श्यामसुंदर दास, बालकृष्ण भट्ट, नागरीप्रचारिणी सभा,...

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लड्डू

लड्डू लड्डू एक प्रकार की मिठाई है जो से कई तरह से बनाई जाती है। यह बेसन, मोतीचूर, गोंद इत्यादि कई अलग-अलग चीजों से तैयार किया जाता है। भारत के अलावा यह पाकिस्तान में भी बनाया और पसन्द किया जाता है। लड्डू सैंकड़ो प्रकार के होते हैं और बनाये जा सकते हैं। हर जगहों के लडडुओं की अलग अलग विशेषतायें होती है। प्राचीन काल में लड्डू किसी भी उत्सव में भोजन के आयोजन में विशेष प्रकार का महत्व रखता था। अनेक मंदिरों में भगवान के प्रसाद के रूप में लड्डू मिलते हैं। हर मंदिर के लडडुओं की अलग विशेषता होती है। तिरुपति के लड्डू अपनी अलग पहचान रखते हैं। श्रेणी:भारतीय मिठाइयाँ.

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संवेष्टन

टेस्को से एक टुकड़े किए हुए पोर्क का सील बंद पैकेट. यह दर्शाता है पकाने का समय, सर्विंग्स की संख्या, 'डिस्प्ले अन्टिल' डेट, 'यूज़ बाई' डेट, किलोग्राम में वजन, £/kg और £/lb दोनों के मूल्य से वजन दर, प्रशीतित और भंडारण निर्देश.यह कहता हैं 'लेस डैन 3% फैट' और 'नो कार्ब्स पर सर्विंग' और इसमें एक बार कोड शामिल है। संघ का ध्वज, ब्रिटिश फार्म मानक ट्रेक्टर लोगो और ब्रिटिश मांस गुणवत्ता मानक लोगो भी मौजूद हैं। एक ब्लिस्टर पैक में गोलियाँ, जो खुद एक तह लगी दफ्ती के कार्टन में पैक है। संवेष्टन या पैकेजिंग, उत्पादों को वितरण, भंडारण, बिक्री और खपत के लिए बंद करने या सुरक्षित करने का विज्ञान, कला और प्रौद्योगिकी है। पैकेजिंग, डब्बों की डिज़ाइन प्रक्रिया, मूल्यांकन और उनके उत्पादन को भी संदर्भित करता है। पैकेजिंग को, उत्पादों को परिवहन, भंडारण, प्रचालन-तन्त्र, बिक्री और खपत के लिए तैयार करने की एक समन्वित प्रणाली के रूप में वर्णित किया जा सकता है। पैकेजिंग, धारण करता है, सुरक्षा करता है, संरक्षित रखता है, परिवहन करता है, सूचित करता है और बेचता है। कई देशों में यह पूरी तरह से सरकार, व्यापार, संस्थागत, औद्योगिक और व्यक्तिगत उपयोग में एकीकृत होता है। पैकेज लेबलिंग (en-GB) या लेबलिंग (en-US), पैकेजिंग पर या किसी अलग मगर जुड़े हुए लेबल पर लिखा हुआ, इलेक्ट्रॉनिक, ग्राफिक सम्प्रेषण है। .

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स्नेहक

लूब्रिकेंट (जिसे कभी-कभी "लूब" के रूप में संदर्भित किया जाता है) एक ऐसा पदार्थ है (अक्सर तरल) जो दो गतिशील सतहों के बीच लगाया जाता है ताकि उनके बीच घर्षण कम हो, कार्यकुशलता में सुधार हो और जल्दी घिस ना जाए.

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सेमल

सेमल (वैज्ञानिक नाम:बॉम्बैक्स सेइबा), इस जीन्स के अन्य पादपों की तरह सामान्यतः 'कॉटन ट्री' कहा जाता है। इस उष्णकटिबंधीय वृक्ष का तना सीधा, उर्ध्वाधर होता है। इसकी पत्तियां डेशिडुअस होतीं हैं। इसके लाल पुष्प की पाँच पंखुड़ियाँ होतीं हैं। ये वसंत ऋतु के पहले ही आ जातीं हैं। इसका फल एक कैप्सूल जैसा होता है। ये फल पकने पर श्वेत रंग के रेशे, कुछ कुछ कपास की तरह के निकलते हैं। इसके तने पर एक इंच तक के मजबूत कांटे भरे होते हैं। इसकी लकड़ी इमारती काम के उपयुक्त नहीं होती है। .

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हवाई पत्र

हवाई पत्र या ऐरोग्राम पतले कागज से बने उस कागज के टुकड़े को कहते है जिसका प्रयोग पत्र लिखने और फिर उसे हवाईडाक द्वारा भेजने में किया जाता है। इसके किनारों पर गोंद लगा रहता है ताकि पत्र लिखने के बाद इसे निश्चित मोड़ों से मोड़ कर चिपकाया जा सके। यह एक पत्र और लिफाफे का संगम है और इसके लिए किसी अतिरिक्त लिफाफे की आवश्यकता नहीं होती। इन पत्रों पर डाक टिकट अंकित होती हैं और अलग से टिकट चिपकाने की आवश्यकता नहीं होती। अधिकतर डाक सेवायें इन हल्के भार के पत्रों में किसी भी प्रकार की अन्य सामग्री रख कर भेजने की अनुमति नहीं देतीं, क्योंकि इन्हें अक्सर विदेश में एक विशेष दर पर भेजा जाता है। .

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ख़ोरासान

मूल खुरासान प्रान्त अलियाबा टॉवर (Aliabad Tower) ख़ोरासान या ख़ुरासान ईरान के उत्तर पूर्व का एक क्षेत्र है। इसमें रज़वी ख़ोरासान, उत्तर ख़ोरासान और दक्षिण ख़ोरासान प्रांत आते हैं। वृहत्तर ख़ोरासान में अफ़गानिस्तान के सटे क्षेत्रों के अलावा ताज़िकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज़्बेकिस्तान के निकटवर्ती प्रदेश सम्मिलित हैं। .

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खैर (वृक्ष)

खैर एक प्रकार का बबूल। कथकीकर। सोनकीकर। यह चीन, भारत, पाकिस्तान, नेपाल, श्री लंका, भूटान, म्यांमार में पाया जाता है। विशेष—इसका पेड़ बहुत बड़ा होता है और प्राय; समस्त भारत में से पाया जाता है लेकिन उत्तर प्रदेश के खैर शहर मे ये अधिक मात्रा मे पाया जाता है। इसके हीर की लकड़ी भूरे रंग की होती हैं, घुनती नहीं और घर तथा खेती के औजार बनाने के काम में आती है। बबूल की तरह इसमें भी एक प्रकार का गोंद निकलता है और बड़े काम का होता है। इस वृक्ष की लकड़ी के टुकड़ों को उबालकर निकाला और जमाया हुआ रस जो पान में चूने के साथ लगाकर खाया जाता है, खैर या कत्था कहलाता है। .

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गुंदी

यह एक पेड़ का नाम है। इस पर लगने वाले फलों को गुँदे कहा जाता है। ये छोटे मीठे तथा गोंददार होते हैं। इसे 'डेला' भी कहते हैं। File:Cordia dichotoma (Lasora) in Hyderabad W IMG 7090.jpg|Cordia dichotoma trunk in Hyderabad, India.

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ग्वार

ग्वार फली ग्वार (cluster bean) का वैज्ञानिक नाम 'साया मोटिसस टेट्रागोनोलोबस' (Cyamopsis tetragonolobus) है। इसे मध्य प्रदेश(भारत) में चतरफली के नाम से भी जाना जाता हे। को अधिकतर उपयोग जानवरों के चारे के रूप में भी होता है। पशुओं को ग्वार खिलाने से उनमें ताकत आती है तथा दूधारू पशुओं कि दूध देने की क्षमता में बढोतरी होती है। ग्वार से गोंद का निर्माण भी किया जाता है इस 'ग्वार गम' का उपयोग अनेक उत्पादों में होता है। ग्वार फली से स्वादिष्ट तरकारी बनाई जाती है। ग्वार फली को आलू के साथ प्याज में छोंक लगाकर खाने पर यह बहुत स्वाद लगती है तथा अन्य सब्जियों के साथ मिलाकर भी बनाया जाता है जैसे दाल में, सूप बनाने में पुलाव इत्यादि में। इसको तेलुगु में గోరు చిక్కుడు "Goruchikkudu kaya" or "Gokarakaya" कन्नड में Gorikayie तथा तमिल में கொத்தவரைக்காய் (kotthavarai) कहते हैं। विश्व के कुल ग्वार उत्पादन का ८०% भारत में होता है। ग्वार गर्म मौसम की फसल है। यह प्रायः ज्वार या बाजरे के साथ मिलाकर बोया जाता है जिसका उपयोग ग्वार या ग्वारफली के रूप में किया जाता है और जो हरी सब्जी के रूप में इस्तेमाल कि जाती है यह भारत के कई प्रदेशों में पाई जाती है पर उतर भारत में इसका ज्यादा उपयोग देखा जा सकता है। इस पौधे के बीज में ग्लैक्टोमेनन नामक गोंद प्राप्त होता है। ग्वार से प्राप्त गम का उपयोग दूध से बने पदार्थों जैसे आइसक्रीम, पनीर आदि में किया जाता है। इसके साथ ही अन्य कई व्यंजनों में भी इसका प्रयोग किया जाता है। ग्वार के बीजों से बनाया जाने वाला पेस्ट भोजन, औषधीय उपयोग के साथ ही अनेक उद्योगों में भी काम आता है। .

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कोलेजन

ट्रोपोकोलेजन ट्रिपल हेलिक्स. कोलेजन एक स्वाभाविक रूप से पाए जाने वाले प्रोटीन का समूह है। प्रकृति में, यह जानवरों में विशेष रूप से पाया जाता है। यह संयोजी ऊतक का मुख्य प्रोटीन है। यह स्तनपायियों में प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला प्रोटीन है, जो समग्र-शरीर की प्रोटीन सामग्री का लगभग 25% से 35% अंश बनता है। मांसपेशी ऊतक में यह एंडोमिशियम के एक प्रमुख घटक के रूप में कार्य करता है। मांसपेशी ऊतक का 1% से 2% कोलेजन से बना है और मज़बूत, कंडरीय मांसपेशियों के वज़न का 6% इससे गठित है। जिलेटिन, जिसका खाद्य और उद्योग में प्रयोग किया जाता है, कोलेजन से व्युत्पन्न है। .

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अमलतास

फल अमलतास पीले फूलो वाला एक शोभाकर वृक्ष है। अमलतास को संस्कृत में व्याधिघात, नृप्रद्रुम इत्यादि, गुजराती में गरमाष्ठो, बँगला में सोनालू तथा लैटिन में कैसिया फ़िस्चुला कहते हैं। शब्दसागर के अनुसार हिंदी शब्द अमलतास संस्कृत अम्ल (खट्टा) से निकला है। भारत में इसके वृक्ष प्राय: सब प्रदेशों में मिलते हैं। तने की परिधि तीन से पाँच कदम तक होती है, किंतु वृक्ष बहुत उँचे नहीं होते। शीतकाल में इसमें लगनेवाली, हाथ सवा हाथ लंबी, बेलनाकार काले रंग की फलियाँ पकती हैं। इन फलियों के अंदर कई कक्ष होते हैं जिनमें काला, लसदार, पदार्थ भरा रहता है। वृक्ष की शाखाओं को छीलने से उनमें से भी लाल रस निकलता है जो जमकर गोंद के समान हो जाता है। फलियों से मधुर, गंधयुक्त, पीले कलझवें रंग का उड़नशील तेल मिलता है। .

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अरीठा

अरीठा का वृक्ष अरीठा का फल और उसकी आन्तरिक रचना रीठा या अरीठा (soap nut) एक वृक्ष है जो लगभग हरजगह भारतवर्ष में पाया जाता है। इसके पत्ते गूलर के पत्तों से बड़े, छाल भूरी तथा फल गुच्छों में होते हैं। इसकी दो जातियाँ हैं। पहली सापीन्दूस् मूकोरोस्सी (Sapindus Mukorossi) और दूसरी सापीन्दूस् त्रीफ़ोल्यातूस् (Sapindus Trifoliatus)। सापीन्दूस् मूकोरोस्सी के जंगली पेड़ हिमालय के क्षेत्र में अधिक पाये जाते जाते हैं। इसके अतिरिक्त उत्तर भारत में तथा आसाम आदि में लगाये हुए पेड़ बाग-बगीचों में या गांवों के आसपास पाये जाते हैं। इसके फलों को पानी में भिगोने और मथने से फेन उत्पन्न होता है और इससे सूती, ऊनी तथा रेशमी सब प्रकार के कपड़े तथा बाल धोए जा सकते हैं। आयुर्वेद के मत में यह फल त्रिदोषनाशक, गरम, भारी, गर्भपातक, वमनकारक, गर्भाशय को निश्चेष्ट करनेवाला तथा अनेक विषों का प्रभाव नष्ट करेनवाला है। संभवत: वमनकारक होने कारण ही यह विषनाशक भी है। वमन के लिए इसकी मात्रा दो से चार माशे तक बताई जाती है। फल के चूर्ण के गाढ़े घोल की बूंदोंको नाक में डालने से अधकपारी, मिर्गी और वातोन्माद में लाभ होना बताया गया है। सापीन्दूस् त्रीफ़ोल्यातूस् के पेड़ दक्षिण भारत में पाए जाते हैं, इसमें 3-3 फल एक साथ जुड़े होते हैं। इसके फलों की आकृति वृक्काकार होती है और अलग होने पर जुड़े हुए स्थान पर हृदयाकार चिन्ह पाया जाता है। ये पकने पर लालिमा लिए भूरे रंग के होते हैं। दूसरे प्रकार के वृक्ष से प्राप्त बीजों से तेल निकाला जाता है, जो औषधि के काम आता है। इस वृक्ष से गोंद भी मिलता है। .

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