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गुलाल

सूची गुलाल

गुलाल लाल रंग का सूखा चूर्ण जो होली में गालों पर या माथे पर टीक लगाने के काम आता है। गुलाल रंगीन सूखा चूर्ण होता है, जो होली के त्यौहार में गालों पर या माथे पर टीक लगाने के काम आता है। इसके अलावा इसका प्रयोग रंगोली बनाने में भी किया जाता है। बिना गुलाल के होली के रंग फीके ही रह जाते हैं। यह कहना उचित ही होगा कि जहां गीली होली के लिये पानी के रंग होते हैं, वहीं सूखी होली भी गुलालों के संग कुछ कम नहीं जमती है। यह रसायनों द्वारा व हर्बल, दोनों ही प्रकार से बनाया जाता है। लगभग २०-२५ वर्ष पूर्व तक वनस्पतियों से प्राप्त रंगों या उत्पादों से ही इसका निर्माण हुआ करता था, किन्तु तबसे रसयनों के रंग आने लगे व उन्हें अरारोट में मिलाकर तीखे व चटक रंग के गुलाल बनने लगे। इधर कुछ वर्षों से लोग दोबारा हर्बल गुलाल की ओर आकर्षित हुए हैं, व कई तरह के हर्बल व जैविक गुलाल बाजारों में उपलब्ध होने लगे हैं। हर्बल गुलाल के कई लाभ होते हैं। इनमें रसायनों का प्रयोग नहीं होने से न तो एलर्जी होती है न आंखों में जलन होती है। ये पर्यावरण अनुकूल होते हैं। इसके अलावा ये खास मंहगे भी नहीं होते, लगभग ८० रु का एक किलोग्राम होता है। .

9 संबंधों: दक्षिण गुजरात की आदिवासी होली, राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान, सरफरोशी की तमन्ना, स्वानन्द किरकिरे, होली, जेसी रंधावा, वसंतोत्सव, गीत बैठकी, गीतरामायणम्

दक्षिण गुजरात की आदिवासी होली

गुजरात की आदिवासी महिलादक्षिणी गुजरात के धरमपुर एवं कपराडा क्षेत्रों में कुंकणा, वारली, धोडिया, नायका आदि आदिवासियों द्वारा होली कुछ अलग रूप से मनायी जाती है। धरमपुर के आदिवासियों के लिए फागुन पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला होलिका महोत्सव साल का सबसे बड़ा उत्सव है। फागुन शुक्ल प्रतिपदा से इस त्योहार की तैयारी का प्रारंभ हो जाता है। दिहाड़ी के लिए दूर गये आदिवासी अपने वतन आ पहुँचते हैं। दूर नौकरी करने गये लोग भी इस दिन अवश्य अपने घर पहुँचते हैं। जिनकी राह उनके संबंधी ही नहीं, मुहल्ले के सभी लोग देखते हैं। खावला, पीवला और नाचुला (खाने, पीने और नाचने) के लिए प्रिय ये आदिवासी होली के त्योहार के दिनों में चिंता, दुःख, दर्द और दुश्मनी को भूलकर गीत गाकर तथा तारपुं, पावी, कांहली, ढोल-मंजीरा आदि वाद्यों की मस्ती में झूमने लगते हैं तब तो ऐसा समाँ बँधता है कि मानो उनके नृत्य को देखने के लिए देवता धरती पर उतर आये हो। दक्षिणी गुजरात के हरेक गाँवों में होली मनायी जाती है। होली के गीत गाये जाते हैं। गीतों द्वारा देवियों को त्योहार के समय उपस्थित रहने के लिए विनती की जाती है। स्त्री-पुरूष एक-दूसरे की कमर में हाथ डाल कर गोलाकार घूमते हुए नाचते हुए गीत गाते हैं। यह त्योहार फागुन कृष्ण पंचमी तक मनाया जाता है। गाँवों में लगने वाले हाटो में खजूर की खूब बिक्री होती है। होली के त्योहार के सप्ताह पहले से ही इसकी तैयारी शुरू हो जाती है। इसके लिए लकड़ी से भवानी, रणचंडी, अंबे माता, दस शिरों वाला रावण आदि देवी-देवताओं के चेहरे-मोहरे तथा वेशभूषा की विधिवत पूजा-अर्चना करने के बाद उसे पहन कर होली का पर्व अनोखे रूप में मनाया जाता है। वे ढोल-नगाड़ों, तूर, तारपुं, कांहळी, पावी (बाँसुरी), माँदल, चंग (बाँस से बना एक छोटा वांजित्र, जिसे लड़कियाँ होली के दिनों में बजाती रहती हैं।) आदि के साथ नाचते-कूदते-गाते हुए एक गाँव से दूसरे गाँव घूमते हुए, अबीर-गुलाल के रंगों की वर्षा करते हुए थाली लेकर फगुआ माँगते हैं। कुछ आदिवासी लकड़ी के घोडे पर सवारी करते हुए या स्त्री की वेशभूषा पहनकर आदिवासी शैली में नाचते-गाते हैं। किन्तु अब तो इनका ये नज़ारा गाँवों मे लगने वाले हाटों में ही देखने को मिलता है। गाँवों में होली दो रूपों में- छोटी और बड़ी के रूप में मनायी जाती है। छोटी और बड़ी-दोनों के स्थल अलग-अलग होते हैं। छोटी होली, बड़ी होली के अगले दिन मनायी जाती है। यह गाँव में दो-तीन स्थानों पर मनायी जाती है। होली के लिए सामान्य रूप से खजूरी के तने की लकड़ी, लंबे बाँस और पलाश के फूलों और शिंगी भरी डाली का प्रयोग किया जाता है। जिसे एक गड्ढा खोदकर खड़ा कर दिया जाता है, जिसे मुहूर्त करना कहते हैं। पहले होली की, गाँव के ओझा एवं बुजुर्गों द्वारा पूजा की जाती है। पूजा में नारियल, चावल, फूल, अगरबत्ती, खजूर, हड्डा (चीनी से बनाई जाने वाली एक मिठाई), मालपुआ आदि का उपयोग होता है। उस समय गाए जाने वाले गीतों में सुख-समृद्धि का कामना की जाती है। लंबे बाँस की चोटी पर वाटी (सूखा नारियल) और हड्डा, खजूर आदि लटकाये जाते हैं। होली जलाने के पहले पुरूष और बच्चे पाँच फेरे लगाते हैं। उसके बाद होली को जलाया जाता है। जलती होली को पूर्व में गिराया जाता है। मान्यता है कि होली अगर जलते हुए पूरब दिशा में गिरती है तो सारा साल सुख-शांति से बीतेगा और वर्षा अच्छी होगी। बाँस की चोटी पर लटकाई गई सामग्री को पाने के लिए युवाओं में जंग-सा छिड़ता है। क्योंकि मान्यता है कि सामग्री के पाने वाले की शादी इसी साल हो जाती है। लंबे बाँस को पानेवाला युवा दौड़ते हुए होली के फेरे लेता है। कुछ लोग होली की मनौती रखते हैं। मनौती में आम, करौंदे आदि को न खाने की प्रतिज्ञा लेते हैं और होली के दिन होली माता को पहले अपनी मनौती के अनुसार आम-करौंदे अर्पित करते हैं और उसके बाद ही स्वयं भोग करते हैं। उपर्युक्त विधि के बाद गाँव के लड़के-लड़कियाँ हरेक घर से चावल या नागली का आटा माँगकर लाते हैं और वहीं रोटी पकाकर साथ में मिलकर आनंद से खाते हैं। स्त्रियाँ देर तक गीत गाती रहती हैं तो छोटे बच्चे खेल खेलते रहते हैं तो युवा लड़के-लड़कियाँ ढोल-नगाड़ों, तूर, तारपुं, कांहळी, पावी (बाँसुरी), माँदल, मंजीरा आदि के ताल पर उल्लास-उमंग में मुक्तता से नाचते-गाते रहते हैं। युवा इसी समय अपने जीवन-साथी का चुनाव भी कर लेते हैं। पूर्णिमा का यह होलिकोत्सव फागुन के कृष्ण पक्ष की पंचमी तक मनाया जाता है। होली के दूसरे दिन तो रास्ते सुनसान होते हैं क्योंकि हरेक जगह पर गाँव के बच्चे से लेकर बूढ़े तक के लोग आने-जाने वाले से फगुआ माँगते हैं और फगुआ न देने पर उन पर रंगों की वर्षा करते हैं। फगुआ पंचमी तक माँगा जाता है। इस तिथि तक सभी आदिवासी काम-काज पर नहीं जाते। पंचमी के बाद ही वे अपने अपने काम पर लौटते हैं। आदिवासियों में होली के बाद ही शादी का मौसम शुरू होता है। .

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राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान

राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान लखनऊ में स्थित एक संस्थान है। यह सीएसआईआर के अंतर्गत है, एवं आधुनिक जीवविज्ञान एवं टैक्सोनॉमी के क्षेत्रों से जुड़ा है। इसके निदेशक डॉ॰ राकेश तूली हैं। संस्थान के वैज्ञानिकों ने बोगनवेलिया की एक नयी प्रजाति विकसित की है, जिसका नाम लोस बानोस वैरियेगाता- जयंती रखा है। यह संस्थान भारत की अग्रणी राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं में से एक है जो कि वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली, के अन्तर्गत लखनऊ में कार्यरत है। यह संस्थान 'राष्ट्रीय वनस्पति उद्यान' के रूप में उत्तर प्रदेश सरकार के अंतर्गत कार्यरत था, जिसे 13 अप्रैल, 1953 को वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद् ने अधिग्रहीत कर लिया। उस समय से यह संस्थान वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में परम्परागत अनुसंधान करता आ रहा है। समय के साथ इसमें नये-नये विषयों पर अनुसंधान कार्य किये गये, जिनमें पर्यावरण संबंधित व आनुवांशिक अध्ययन प्रमुख थे। अनुसंधान के बढ़ते महत्व व बदलते स्वरूप को ध्यान में रखकर 25 अक्टूबर, 1978 को इसका नाम बदलकर 'राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान' किया गया। वर्तमान में संस्थान के पास लगभग 63 एकड़ भूमि पर वनस्पति उद्यान है जिसमें संस्थान की प्रयोगशालायें स्थापित हैं। इसके अतिरिक्त बंथरा में लगभग 260 एकड़ भूमि अनुसंधान हेतु उपलब्ध है जहाँ पर अनेक प्रयोग किये जा रहे हैं। संस्थान की छवि वर्तमान में एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के संस्थान के रूप में है जिसके द्वारा प्रतिवर्ष अनेक उत्पाद विकसित किये जा रहे हैं तथा इनको विभिन्न उद्योग घरानों द्वारा व्यावसायिक स्तर पर बनाया जा रहा है। संस्थान द्वारा विकसित विभिन्न पुष्प प्रजातियाँ व गुलाल आज घर-घर में लोकप्रिय हैं। .

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सरफरोशी की तमन्ना

सरफरोशी की तमन्ना को मशहूर करने वाले पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल'का चित्र सरफरोशी की तमन्ना भारतीय क्रान्तिकारी बिस्मिल अज़ीमाबादी द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध देशभक्तिपूर्ण गजल है जिसमें उन्होंने आत्मोत्सर्ग की भावना को व्यक्त किया था। उनकी यह तमन्ना क्रान्तिकारियों का मन्त्र बन गयी थी यह गजल उर्दू छ्न्द बहरे-रमल में लिखी गई है जिसका अर्कान (छन्द-सूत्र) है: "फाइलातुन, फाइलातुन, फाइलातुन, फाइलुन"। हिन्दी में यदि इसे देवनागरी लिपि में लिखा जाये तो यह परिवर्तित अष्टपदीय गीतिका छन्द के अन्तर्गत आती है इस छन्द का सूत्र है: "राजभा गा, राजभा गा, राजभा गा, राजभा"। मैनपुरी षडयन्त्र व काकोरी काण्ड में शामिल होने वाले भारत के एक महान क्रान्तिकारी नेता रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने न सिर्फ इसे लिखा बल्कि मुकदमे के दौरान अदालत में अपने साथियों के साथ सामूहिक रूप से गाकर लोकप्रिय भी बनाया।'बिस्मिल' ने इसे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के नौजवान स्वतन्त्रता सेनानियों के लिये सम्बोधि-गीत के रूप में लिखा था। 'बिस्मिल' की शहादत के बाद इसे स्वतन्त्रता सेनानियों की नौजवान पीढ़ी जैसे शहीद भगत सिंह तथा चन्द्रशेखर आजाद आदि के साथ भी जोड़ा जाता रहा है। बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित वन्दे मातरम जैसे सुप्रसिद्ध गीत के बाद बिस्मिल अज़ीमाबादी की यह अमर रचना, जिसे गाते हुए न जाने कितने ही देशभक्त फाँसी के तख्ते पर झूल गये, उसके वास्तविक इतिहास सहित नीचे दी जा रही है। .

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स्वानन्द किरकिरे

स्वानन्द किरकिरे (जन्म १९७०) एक भारतीय गीतकार, पार्श्वगायक एवं लेखक होने के साथ-साथ हिन्दी सिनेमा एवं दूरदर्शन सीरियल कहानीकार, सहायक निर्देशक एवं डयलॉग लेखक हैं। किरकिरे को दो बार.

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होली

होली (Holi) वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता है। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहाँ भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है। नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया,नमकीन व ठंडाई से किया जाता है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है। .

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जेसी रंधावा

जेसी रंधावा (जन्म 11 अगस्त 1975) एक भारतीय अभिनेत्री और मॉडल हैं। .

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वसंतोत्सव

वसंतोत्सव का आरंभ माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी (वसंत पंचमी) से हो जाता है। यह दिन नवीन ऋतु के आगमन का सूचक है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से होली और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। लोग वासंती वस्त्र धारण कर गायन, वाद्य एवं नृत्य में विभोर हो जाते हैं। वसंत पंचमी का उत्सव मदनोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण तथा कामदेव इस उत्सव के अधिदेवता हैं। कामशास्त्र में ‘सुवसंतक’नामक उत्सव की चर्चा आती है। ‘सरस्वती कंठाभरण’ में लिखा है कि सुवसंतक वसंतावतार के दिन को कहते हैं। वसंतावतार अर्थात जिस दिन बसंत पृथ्वी पर अवतरित होता है। यह दिन वसंत पंचमी का ही है। ‘मात्स्यसूक्त’ और ‘हरी भक्ति विलास’ आदि ग्रंथों में इसी दिन को बसंत का प्रादुर्भाव दिवस माना गया है। इसी दिन मदन देवता की पहली पूजा का विधान है। कामदेव के पंचशर (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) प्रकृति संसार में अभिसार को आमंत्रित करते हैं। चैत्र कृष्ण पंचमी को वसंतोत्सव का अंतिम दिन रंग खेलकर रंग पंचमी के रूप में मनाया जाता है। .

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गीत बैठकी

गीत बैठकी खड़ी होली या गीत बैठकी उत्तराखंड के कुमाऊँ मंडल की सरोवर नगरी नैनीताल और अल्मोड़ा जिले में होली के अवसर पर आयोजित की जाती हैं। यहाँ नियत तिथि से काफी पहले ही होली की मस्ती और रंग छाने लगते हैं। इस रंग में सिर्फ अबीर-गुलाल का टीका ही नहीं होता बल्कि बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है। बरसाने की लठमार होली के बाद अपनी सांस्कृतिक विशेषता के लिए कुमाऊंनी होली को याद किया जाता है। वसंत के आगमन पर हर ओर खिले फूलों के रंगों और संगीत की तानों का ये अनोखा संगम दर्शनीय होता है। शाम के समय कुमाऊं के घर घर में बैठक होली की सुरीली महफिलें जमने लगती है। गीत बैठकी में होली पर आधारित गीत घर की बैठक में राग रागनियों के साथ हारमोनियम और तबले पर गाए जाते हैं। इन गीतों में मीराबाई से लेकर नज़ीर और बहादुर शाह ज़फ़र की रचनाएँ सुनने को मिलती हैं। गीत बैठकी में जब रंग छाने लगता है तो बारी बारी से हर कोई छोड़ी गई तान उठाता है और अगर साथ में भांग का रस भी छाया तो ये सिलसिला कभी कभी आधी रात तक तो कभी सुबह की पहली किरण फूटने तक चलता रहता है। होली की ये परंपरा मात्र संगीत सम्मेलन नहीं बल्कि एक संस्कार भी है। ये बैठकें आशीर्वाद के साथ संपूर्ण होती हैं जिसमें मुबारक हो मंजरी फूलों भरी...या ऐसी होली खेले जनाब अली...जैसी ठुमरियाँ गई जाती हैं। गीत बैठकी की महिला महफ़िलें भी होती हैं। पुरूष महफिलों में जहाँ ठुमरी और ख़याल गाए जाते हैं वहीं महिलाओं की महफिलों का रुझान लोक गीतों की ओर होता है। इनमें नृत्य संगीत तो होता ही है, वे स्वांग भी रचती हैं और हास्य की फुहारों, हंसी के ठहाकों और सुर लहरियों के साथ संस्कृति की इस विशिष्टता में नए रोचक और दिलकश रंग भरे जाते हैं। देवर भाभी के हंसी मज़ाक से जुड़े गी तो होते ही हैं राजनीति और प्रशासन पर व्यंग्य भी होता है। होली गाने की ये परंपरा सिर्फ कुमाऊं अंचल में ही देखने को मिलती है।” इसकी शुरूआत यहां कब और कैसे हुई इसका कोई ऐतिहासिक या लिखित लेखाजोखा नहीं है। कुमाऊं के प्रसिद्द जनकवि गिरीश गिर्दा ने होली बैठकी के सामाजिक शास्त्रीय संदर्भों और इस पर इस्लामी संस्कृति और उर्दू के असर के बारे में गहराई से अध्ययन किया है। वो कहते हैं कि “यहां की होली में अवध से लेकर दरभंगा तक की छाप है। राजे-रजवाड़ों का संदर्भ देखें तो जो राजकुमारियाँ यहाँ ब्याह कर आईं वे अपने साथ वहाँ के रीति रिवाज भी साथ लाईं। ये परंपरा वहां भले ही खत्म हो गई हो लेकिन यहां आज भी कायम हैं। यहां की बैठकी होली में तो आज़ादी के आंदोलन से लेकर उत्तराखंड आंदोलन तक के संदर्भ पाए जाते हैं।” .

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गीतरामायणम्

गीतरामायणम् (२०११), शब्दार्थ: गीतों में रामायण, जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००९ और २०१० ई में रचित गीतकाव्य शैली का एक संस्कृत महाकाव्य है। इसमें संस्कृत के १००८ गीत हैं जो कि सात कांडों में विभाजित हैं - प्रत्येक कांड एक अथवा अधिक सर्गों में पुनः विभाजित है। कुल मिलाकर काव्य में २८ सर्ग हैं और प्रत्येक सर्ग में ३६-३६ गीत हैं। इस महाकाव्य के गीत भारतीय लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत के विभिन्न गीतों की ढाल, लय, धुन अथवा राग पर आधारित हैं। प्रत्येक गीत रामायण के एक या एकाधिक पात्र अथवा कवि द्वारा गाया गया है। गीत एकालाप और संवादों के माध्यम से क्रमानुसार रामायण की कथा सुनाते हैं। गीतों के बीच में कुछ संस्कृत छंद हैं, जो कथा को आगे ले जाते हैं। काव्य की एक प्रतिलिपि कवि की हिन्दी टीका के साथ जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन संस्कृत कवि अभिराज राजेंद्र मिश्र द्वारा जनवरी १४, २०११ को मकर संक्रांति के दिन किया गया था। .

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