सामग्री की तालिका
34 संबंधों: चम्पा, चील, दूतवाक्यम्, नागानन्द, प्रमबनन, पृथ्वीराज चौहान, बाज़, ब्राह्मिनी चील, भारतीय छन्दशास्त्र, महाश्येन, मातरिश्वा, युग वर्णन, रामायण, लक्ष्मी-नारायण, लौह स्तंभ, श्री नीलकंठेश्वर महादेव, मथुरा, सम्पाती, हिन्दू देवी देवताओं की सूची, हिन्दू देवी-देवता, हेलिओडोरस स्तंभ, विट्ठल, विश्वकर्मा, वृहद भारत, वेंकटेश्वर, गरुड़ पुराण, गार्ड ब्रिगेड, गंडभेरुंड, ग्यारसपुर, गीतरामायणम्, कद्रू, कश्यप, कुद्रु, अरुण, उलूपी।
चम्पा
दक्षिण पूर्व एशिया, 1100 ईसवी, '''चम्पा''' हरे रंग में चम्पा दक्षिण पूर्व एशिया (पूर्वी हिन्दचीन (192-1832) में) स्थित एक प्राचीन हिन्दू राज्य था। यहाँ भारतीय संस्कृति का प्रचार प्रसार थाऔर इसके राजाओं के संस्कृत नाम थे। चम्पा के लोग और राजा शैव थे। अन्नम प्रांत के मध्य और दक्षिणी भाग में प्राचीन काल में जिस भारतीय राज्य की स्थापना हुई उसका नाम 'चंपा' था। नृजातीय तथा भाषायी दृष्टि से चम्पा के लोग चाम (मलय पॉलीनेशियन) थे। वर्तमान समय में चाम लोग वियतनाम और कम्बोडिया के सबसे बड़े अल्पसंख्यक हैं। इसके ५ प्रमुख विभाग थेः.
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चील
चील, श्येन कुल, फैमिली फैलकोनिडी (Family falconidae), का बहुत परिचित पक्षी है, जिसकी कई जातियाँ संसार के प्राय: सभी देशों में फैली हुई हैं। इनमें काली चील (Black kite), ब्रह्मनी या खैरी चील (Brahminy kite), ऑल बिल्ड चील (Awl billed kite), ह्विसलिंग चील (Whistling kite) आदि मुख्य हैं। चील लगभग दो फुट लंबी चिड़िया है, जिसकी दुम लंबी ओर दोफंकी रहती है। इसका सारा बदन कलछौंह भूरा होता है, जिसपर गहरे रंग के सेहरे से पड़े रहते हैं। चोंच काली और टाँगें पीली होती हैं। बाज, बहरी आदि शिकारी चिड़ियों से इसके डैने बड़े, टाँगें छोटी और चोंच तथा पंजे कमजोर होते हैं। चील उड़ने में बड़ी दक्ष होती है। बाजार में खाने की चीजों पर बिना किसी से टकराए हुए, यह ऐसी सफाई से झपट्टा मारती है कि देखकर ताज्जुब होता है। यह सर्वभक्षी तथा मुर्दाखोर चिड़िया है, जिससे कोई भी खाने की वस्तु नहीं बचने पाती। ढीठ तो यह इतनी होती है कि कभी कभी बस्ती के बीच के किसी पेड़ पर ही अपना भद्दा सा घोंसला बना लेती है। मादा दो तीन सफेद या राखी के रंग के अंडे देती है, जिनपर कत्थई चित्तियाँ पड़ी रहती हैं। .
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दूतवाक्यम्
दूतवाक्यम संस्कृत के प्राचीनतम नाटककार महाकवि भास की सुप्रसिद्ध काव्यकृति है। इसकी गणना दृश्यकाव्यों के अन्तर्गत की जाती है। नाट्यकला की दृष्टि से दूतवाक्य की परीक्षा करने पर इसे 'व्यायोग' नामक रूपक-भेद के अन्तर्गत रखा जाता है। व्यायोग की परिभाषा देते हुए आचार्य विश्वनाथ ने कहा है- अर्थात् व्यायोग उस रूपक को कहते हैं जिसमें प्रसिद्ध इतिवृत्त का चयन किया जाता है। पुरुष पात्रों की अधिकता और स्त्रीपात्रों की न्यूनता होती है, गर्भ और विमर्श सन्धियों की योजना अपेक्षित नहीं होती और पूरी रचना एक अंक में समाप्त होती है। इसमें ऐसे युद्ध का वर्णन होता है जिसमें स्त्री निमित्त न हो। इसमें कैशिकी वृत्ति का अभाव होता है। इसका नायक धीरोद्धत प्रकृति का कोई प्रख्यात व्यक्ति होता है या फिर कोई राजर्षि अथवा देवपुरुष। इसमें श्रृंगार, हास्य और शान्त रसों के अतिरिक्त अन्य कोई रस मुख्य होता है। दूतवाक्य में ‘व्यायोग’ के मुख्य लक्षण घटित होते हुए देखे जा सकते हैं। इसकी कथावस्तु महाभारत की कथा के उस अंश से ली गयी है जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर कौरवों की सभा में जाते हैं। इस रूपक में स्त्रीपात्रों का सर्वथा अभाव है। इसमें राज्य के विभाजन को लेकर युद्ध की चर्चा है। कौरवों में से धीरोद्धत प्रकृति का दुर्योधन दूतवाक्य का नायक है। इसमें श्रृंगार और शान्त रसों की नहीं, वीर रस की प्रधानता है। इस रूपक में केवल एक अंक है। संस्कृत रूपक के मुख्य रूप से तीन तत्त्व होते हैं- कथावस्तु, नेता और रस। प्राचीन काल से ही संस्कृत नाटक मंच पर खेले जाते रहे हैं, इसलिए इनके मूल्यांकन में अभिनय की दृष्टि से मंचन -योग्यता को भी पर्याप्त महत्त्व दिया जाता है। .
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नागानन्द
नागानन्द (नागों का आनन्द) राजा हर्षवर्धन (606 C.E. - 748 C.E.) द्वारा रचित संस्कृत नाटक है। यह संस्कृत के सर्वश्रेष्ठ नाटकों में से है। यह नाटक पाँच अंकों में है। इसमें गरुड़ देवता को खुश करने के लिये नागों की बलि देने को रोकने के लिये राजकुमार जिमुतवाहन द्वारा अपना शरीर त्याग की कहानी है। .
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प्रमबनन
प्रमबनन (परब्रह्मन् का विकृत रूप) जावा में एक विशाल हिन्दु मन्दिर है। इसका निर्माण ८५० में हुआ। इसकी तीन प्रमूख स्थापनाएं शिव, विष्णु और ब्रह्मा की हैं। शिव मन्दिर में तीन और मूर्तियां हैं- दुर्गा, गणेश और अगस्त्य की। शिव, ब्रह्मा, विष्णु के वाहन नन्दी, हंस और गरुड के भी मन्दिर हैं। दुर्गा की मूर्ति को लोरो जोंगरंग (पतली कुमारी) भी कहते हैं। यह मन्दिर दुर्गा के इस नाम लोरो जोंगरंग से भी विख्यात है। बहुत काल तक यह मन्दिर खण्डहर था। पुनरोत्थान के पश्चात यहां के कई जावा द्वीप के परिवार वापस हिन्दु धर्म को लौट आये हैं। प्रमबनन:en:UNESCO World Heritage Site है और लोकप्रिय पर्यटन और तीर्थस्थान भी है। .
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पृथ्वीराज चौहान
पृथ्वीराज चौहान (भारतेश्वरः पृथ्वीराजः, Prithviraj Chavhan) (सन् 1178-1192) चौहान वंश के हिंदू क्षत्रिय राजा थे, जो उत्तर भारत में १२ वीं सदी के उत्तरार्ध में अजमेर (अजयमेरु) और दिल्ली पर राज्य करते थे। वे भारतेश्वर, पृथ्वीराजतृतीय, हिन्दूसम्राट्, सपादलक्षेश्वर, राय पिथौरा इत्यादि नाम से प्रसिद्ध हैं। भारत के अन्तिम हिन्दूराजा के रूप में प्रसिद्ध पृथ्वीराज १२३५ विक्रम संवत्सर में पंद्रह वर्ष (१५) की आयु में राज्य सिंहासन पर आरूढ हुए। पृथ्वीराज की तेरह रानीयाँ थी। उन में से संयोगिता प्रसिद्धतम मानी जाती है। पृथ्वीराज ने दिग्विजय अभियान में ११७७ वर्ष में भादानक देशीय को, ११८२ वर्ष में जेजाकभुक्ति शासक को और ११८३ वर्ष में चालुक्य वंशीय शासक को पराजित किया। इन्हीं वर्षों में भारत के उत्तरभाग में घोरी (ग़ोरी) नामक गौमांस भक्षण करने वाला योद्धा अपने शासन और धर्म के विस्तार की कामना से अनेक जनपदों को छल से या बल से पराजित कर रहा था। उसकी शासन विस्तार की और धर्म विस्तार की नीत के फलस्वरूप ११७५ वर्ष से पृथ्वीराज का घोरी के साथ सङ्घर्ष आरंभ हुआ। उसके पश्चात् अनेक लघु और मध्यम युद्ध पृथ्वीराज के और घोरी के मध्य हुए।विभिन्न ग्रन्थों में जो युद्ध सङ्ख्याएं मिलती है, वे सङ्ख्या ७, १७, २१ और २८ हैं। सभी युद्धों में पृथ्वीराज ने घोरी को बन्दी बनाया और उसको छोड़ दिया। परन्तु अन्तिम बार नरायन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय के पश्चात् घोरी ने पृथ्वीराज को बन्दी बनाया और कुछ दिनों तक 'इस्लाम्'-धर्म का अङ्गीकार करवाने का प्रयास करता रहा। उस प्रयोस में पृथ्वीराज को शारीरक पीडाएँ दी गई। शरीरिक यातना देने के समय घोरी ने पृथ्वीराज को अन्धा कर दिया। अन्ध पृथ्वीराज ने शब्दवेध बाण से घोरी की हत्या करके अपनी पराजय का प्रतिशोध लेना चाहा। परन्तु देशद्रोह के कारण उनकी वो योजना भी विफल हो गई। एवं जब पृथ्वीराज के निश्चय को परिवर्तित करने में घोरी अक्षम हुआ, तब उसने अन्ध पृथ्वीराज की हत्या कर दी। अर्थात्, धर्म ही ऐसा मित्र है, जो मरणोत्तर भी साथ चलता है। अन्य सभी वस्तुएं शरीर के साथ ही नष्ट हो जाती हैं। इतिहासविद् डॉ.
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बाज़
बाज़ एक शिकारी पक्षी है जो कि गरुड़ से छोटा होता है। इस प्रजाति में दुनिया भर में कई जातियाँ मौजूद हैं और अलग-अलग नामों से जानी जाती हैं। वयस्क बाज़ के पंख पतले तथा मुड़े हुए होते हैं जो उसे तेज़ गति से उड़ने और उसी गति से अपनी दिशा बदलने में सहायता करते हैं। श्रेणी:शिकारी पक्षी श्रेणी:लोक-नामों के अनुसार पक्षी श्रेणी:ऐकीपिट्रीडाए.
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ब्राह्मिनी चील
ब्राह्मिनी चील (वैज्ञानिक नाम: हैलीऐस्टर इंडस; अन्य नाम: खेमकरी या क्षेमकरी) चील जाति का एक प्रसिद्ध पक्षी है जो मुख्य रूप से भारतीय पक्षी है किंतु थाइलैंड, मलय, चीन से लेकर आस्ट्रेलिया तक पाया जाता है और पानी के आस-पास रहता है। यह बंदरगाहों के आसपास काफी संख्या में पाया जाता है और जहाज के मस्तूलों पर बैठा देखा जा सकता है। यह सड़ी-गली चीजें खाता और पानी के सतह पर पड़े कूड़े कर्कट को अपने पंजों में उठा लेता है। यह धान के खेतों के आसपास भी उड़ता देखा जाता है और मेढकों और टिड्डियों को पकड़ कर अपना पेट भरता है। यह 19 इंच लंबा पक्षी है जिसका रंग कत्थई, डैने के सिरे काले और सिर तथा सीने का रंग सफेद होता है। चोंच लंबी, दबी दबी और नीचे की ओर झुकी हुई होती है। इसकी बोली अत्यंत कर्कश होती है। यह अपना घोंसला पानी के निकट ही पेड़ की दोफ की डाल के बीच काफी ऊँचाई पर लगाता है। एक बार में मादा दो या तीन अंडे देती है। इसे लाल पीठ वाला समुद्री बाज भी कहा जाता है, एक माध्यम आकार की शिकारी पक्षी है, यह एक्सीपाईट्राइड परिवार की सदस्य है जिसमें कई अन्य दैनिक शिकारी पक्षी जैसे बाज, गिद्ध तथा हैरियर आदि भी आते हैं। ये भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण पूर्व एशिया तथा ऑस्ट्रेलिया में पायी जाती हैं। ये मुख्य रूप से समुद्र तट पर और अंतर्देशीय झीलों में पायी जाती हैं, जहां वे मृत मछली और अन्य शिकार को खाती हैं। वयस्क पक्षी में लाल भूरे पंख तथा विरोधाभासी रंग में एक सफ़ेद रंग का सर तथा छाती होते हैं जिनको देख कर इन्हें अन्य शिकारी पक्षियों से अलग आसानी से पहचाना जा सकता है। .
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भारतीय छन्दशास्त्र
छन्द शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है। "छन्दस" वेद का पर्यायवाची नाम है। सामान्यतः वर्णों और मात्राओं की गेयव्यवस्था को छन्द कहा जाता है। इसी अर्थ में पद्य शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। पद्य अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। भाषा में शब्द और शब्दों में वर्ण तथा स्वर रहते हैं। इन्हीं को एक निश्चित विधान से सुव्यवस्थित करने पर छन्द का नाम दिया जाता है। छन्दशास्त्र इसलिये अत्यन्त पुष्ट शास्त्र माना जाता है क्योंकि वह गणित पर आधारित है। वस्तुत: देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि छंदशास्त्र की रचना इसलिये की गई जिससे अग्रिम संतति इसके नियमों के आधार पर छंदरचना कर सके। छंदशास्त्र के ग्रंथों को देखने से यह भी ज्ञात होता है कि जहाँ एक ओर आचार्य प्रस्तारादि के द्वारा छंदो को विकसित करते रहे वहीं दूसरी ओर कविगण अपनी ओर से छंदों में किंचित् परिर्वन करते हुए नवीन छंदों की सृष्टि करते रहे जिनका छंदशास्त्र के ग्रथों में कालांतर में समावेश हो गया। .
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महाश्येन
महाश्येन (ईगल) शिकार करने वाले बड़े आकार के पक्षी हैं। इस पक्षी को ऊँचाई से ही प्रेम है, धरातल से नहीं। यह धरातल की ओर तभी दृष्टिपात करता है, जब इसे कोई शिकार करना होता है। इसकी दृष्टि बड़ी तीव्र होती है और यह धरातल पर विचरण करते हुए अपने शिकार को ऊँचाई से ही देख लेता है। यूरेशिया और अफ्रीका में इसकी साठ से अधिक प्रजातियाँ स्पेसीज (species)पायी जाती हैं। महाश्येन, फैल्कोनिफॉर्मीज़ (Falconiformes) गण, ऐक्सिपिटर (Accipitres) उपगण, फैल्कानिडी (Falconidae) कुल तथा ऐक्विलिनी (Aquilinae) उपकुल के अंतर्गत है। यह उपकुल दो वर्गों में विभाजित है। ये दो वर्ग ऐक्विला स्थल महाश्येन (Aquila Land Eagle) और हैलिई-एटस, जल महाश्येन (Haliaeetus Sea Eagle) हैं। इस श्येन परिवार में लगभग तीन सौ जातियाँ पाई जाती हैं। ये अनेक जातियाँ स्वभाव तथा आकार प्रकार में एक दूसरे से भिन्न होती हैं तथा विश्व भर में पाई जाती हैं। प्राचीन काल से ही यह साहस एवं शक्ति का प्रतीक माना गया है। संभवत इन्हीं कारणों से सभी राष्ट्रों के कवियों ने इसका वर्णन किया है और इसे रूस, जर्मनी, संयुक्त राज्य आदि देशों में राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में माना गया है। भारत में इसे गरुड़ की संज्ञा दी गई है तथा पौराणिक वर्णनों में इसे विष्णु का वाहन कहा गया है। संभवत: तेज गति और वीरता के कारण ही यह विष्णु का वाहन हो सका है। अन्य देशों के भी पौराणिक वर्णनों में इसका वर्णन आता है, जैसे स्कैंडेनेविया में इसे तूफान का देवता माना गया है और यह बताया गया है कि यह देव स्वर्ग लोक के एक छोर पर बैठकर हवा का झोंका पृथ्वी पर फेंकता है। ग्रीसवासियों की, प्राचीन विश्वास के अनुसार, ऐसी धारणा है कि उनके सबसे बड़े देवता, ज़्यूस (Zeus), को इस महाश्येन ने ही सहायतार्थ वज्र प्रदान किया था। भगवान् विष्णु का वाहन होकर भी इस पक्षी की मनोवृत्ति अहिंसक नहीं है। यह मांसभक्षी, अति लोलुप और प्रत्यक्षत: हानि पहुँचानेवाला होता है, तथापि यह उन बहुत से पक्षियों को समाप्त करने में सहायक है, जो कृषि एवं मनुष्यों को हानि पहुँचाते हैं। साथ ही साथ यह हानि पहुँचानेवाले सरीसृप तथा छोटे छोटे स्तनी जीवों को भी समाप्त करता है और इस प्रकार जंतुसंसार का संतुलन बनाए रखता है। .
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मातरिश्वा
मातरिश्वा (१) वेदों में यह शब्द (मातरिश्वन्) वायु के अर्थ में नहीं प्रयुक्त हुआ है, पर यास्क (नि० ७.२६) तथा सायण के मतानुसार यह पवन का ही दूसरा नाम है। ऋग्वेद (३,५,९) में यह अग्नि तथा उसको उत्पन्न करनेवाले देवता के लिये प्रयुक्त किया गया है और उसी में अन्यत्र वर्णन है कि मनु के लिये मातरिश्वा ने अग्नि को दूर से लाकर प्रदीप्त किया था।;मातरिश्वा (२) ऋग्वेद के एक प्रसिद्ध यज्ञकर्ता और गरुड़ के पुत्र का भी यही नाम है। श्रेणी:पौराणिक पात्र.
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युग वर्णन
युग का अर्थ होता है एक निर्धारित संख्या के वर्षों की काल-अवधि। उदाहरणः कलियुग, द्वापर, सत्ययुग, त्रेतायुग आदि। युग वर्णन का अर्थ होता है कि उस युग में किस प्रकार से व्यक्ति का जीवन, आयु, ऊँचाई होती है एवं उनमें होने वाले अवतारों के बारे में विस्तार से परिचय दे। प्रत्येक युग के वर्ष प्रमाण और उनकी विस्तृत जानकारी कुछ इस तरह है: .
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रामायण
रामायण आदि कवि वाल्मीकि द्वारा लिखा गया संस्कृत का एक अनुपम महाकाव्य है। इसके २४,००० श्लोक हैं। यह हिन्दू स्मृति का वह अंग हैं जिसके माध्यम से रघुवंश के राजा राम की गाथा कही गयी। इसे आदिकाव्य तथा इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि को 'आदिकवि' भी कहा जाता है। रामायण के सात अध्याय हैं जो काण्ड के नाम से जाने जाते हैं। .
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लक्ष्मी-नारायण
मंदिर में लक्ष्मी नारायण की मूर्ति लक्ष्मी-नारायण नाम संयुक्त रूप से हिन्दू भगवान, विष्णु या नारायण और उनकी पत्नी भगवती लक्ष्मी के लिए दम्पति रूप में लिया जाता है। हैलेबिड, कर्नाटक में लक्ष्मी नारायण की शिल्पाकृति .
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लौह स्तंभ
लौह स्तंभ पर लिखित चिह्न लौह स्तंभ लिखित लिपि का अंग्रेज़ी अनुवाद लौह स्तंभ दिल्ली में क़ुतुब मीनार के निकट स्थित एक विशाल स्तम्भ है। यह अपनेआप में प्राचीन भारतीय धातुकर्म की पराकाष्ठा है। यह कथित रूप से राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (राज ३७५ - ४१३) से निर्माण कराया गया, किंतु कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इसके पहले निर्माण किया गया, संभवतः ९१२ ईपू में। स्तंभ की उँचाई लगभग सात मीटर है और पहले हिंदू व जैन मंदिर का एक हिस्सा था। तेरहवीं सदी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने मंदिर को नष्ट करके क़ुतुब मीनार की स्थापना की। लौह-स्तम्भ में लोहे की मात्रा करीब ९८% है और अभी तक जंग नहीं लगा है। .
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श्री नीलकंठेश्वर महादेव, मथुरा
श्री नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के अंतर्गत मथुरा नगर में मथुरा-वृंदावन मार्ग पर मोक्ष धाम के निकट स्थित है। इस मंदिर का उल्लेख वराह पुराण के अंतर्गत गोकर्ण सरस्वती माहात्म्य शुक्र वृत्तांत, मथुरा पुरागमन मोक्ष प्राप्ति वृत्तांत में है। कालांतर में यहाँ नागा संतों ने महामृत्युंजय यंत्र के आधार पर मुख्य मंदिर में कसौटी पत्थर से निर्मित विशाल अनुपम अलौकिक शिवलिंग की प्राण प्रतिष्ठा कर लगभग 400 वर्षों तक तप साधना की। लंबे समय तक यह मंदिर सुनसान और विस्मृत रहा। सन् 1850 में लखनऊ निवासी अयोध्या प्रसाद ने नागा संतों द्वारा स्थापित पुराने मूल मंदिर का विस्तार कर परिसर को भव्यता प्रदान की। मुख्य मंदिर के एक ओर महालक्ष्मी, महाकाली और महा सरस्वती के मंदिर हैं तथा दूसरी तरफ गंगा और गरुड के मंदिर है। मुख्य मंदिर के बगल में हनुमान का मंदिर है। मान्यता है कि श्री नीलकंठेश्वर के दर्शन मात्र से श्रद्धालुओं की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। पुरातात्विक महत्व के इस पौराणिक सिद्धपीठ के विभिन्न मंदिर, प्रवेशद्वार, परकोटे आदि समय और प्रकृति के थपेड़ों से अत्यंत जीर्णशीर्ण हालत में हैं। लंबे समय से लोगों की उपेक्षा और अतिक्रमण ने इसे नष्ट-भ्रष्ट कर गिरासू हालत में पहुँचा दिया है। वर्तमान में इस मंदिर के पुरातन पौराणिक स्वरूप को बचाने के लिए कुछ भक्तजन और संस्कृतिप्रेमी लोगों द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं। श्रेणी:उत्तर प्रदेश के मंदिर श्रेणी:हिन्दू धर्म श्रेणी:मथुरा श्रेणी:उत्तर प्रदेश श्रेणी:शिव मंदिर.
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सम्पाती
हिन्दू धर्म में, सम्पाती एक अरुण और गरुड़ का पुत्र है। श्रेणी:रामायण के पात्र.
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हिन्दू देवी देवताओं की सूची
यह हिन्दू देवी देवताओं की सूची है। हिन्दू लेखों के अनुसार, धर्म में तैंतीस कोटि (कोटि के अर्थ-प्रकार और करोड़) देवी-देवता बताये गये हैं। इनमें स्थानीय व क्षेत्रीय देवी-देवता भी शामिल हैं)। वे सभी तो यहां सम्मिलित नहीं किये जा सकते हैं। फिर भी इस सूची में तीन सौ से अधिक संख्या सम्मिलित है। .
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हिन्दू देवी-देवता
हिंदू देववाद पर वैदिक, पौराणिक, तांत्रिक और लोकधर्म का प्रभाव है। वैदिक धर्म में देवताओं के मूर्त रूप की कल्पना मिलती है। वैदिक मान्यता के अनुसार देवता के रूप में मूलशक्ति सृष्टि के विविध उपादानों में संपृक्त रहती है। एक ही चेतना सभी उपादानों में है। यही चेतना या अग्नि अनेक स्फुर्लिंगों की तरह (नाना देवों के रूप में) एक ही परमात्मा की विभूतियाँ हैं। (एकोदेव: सर्वभूतेषु गूढ़)। .
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हेलिओडोरस स्तंभ
हेलिओडोरस स्तंभ (बेसनगर, मध्यप्रदेश, भारत) हेलिओडोरस स्तंभ (Heliodorus pillar) भारत ले मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में आधुनिक बेसनगर के पास स्थित पत्थर से निर्मित प्राचीन स्तम्भ है। इसका निर्माण ११० ईसा पूर्व हेलिओडोरस (Heliodorus) ने कराया था जो भारतीय-यूनानी राजा अंतलिखित (Antialcidas) का शुंग राजा भागभद्र के दरबार में दूत था। य स्तम्भ साँची के स्तूप से केवल ५ मील की दूरी पर स्थित है। यह स्तंभ लोकभाषा में खाम बाबा के रूप में जाना जाता है। एक ही पत्थर को काटकर बनाया गया, यह स्तंभ ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। स्तंभ पर पाली भाषा में ब्राम्ही लिपि का प्रयोग करते हुए एक अभिलेख मिलता है। यह अभिलेख स्तंभ इतिहास बताता है। नवें शुंग शासक महाराज भागभद्र के दरबार में तक्षशिला के यवन राजा अंतलिखित की ओर से दूसरी सदी ई.
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विट्ठल
विट्ठल, विठोबा, या पाण्डुरंग एक हिन्दू देवता हैं जिनकी पूजा मुख्यतः महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवा, तेलंगाना, तथा आन्ध्र प्रदेश में होती हैं। उन्हें आम तौर पर भगवान विष्णु या उनके अवतार, कृष्ण की अभिव्यक्ति माना जाता हैं। विट्ठल अक्सर एक सावले युवा लड़के के रूप में चित्रित किए जाता है, एक ईंट खडे और दोनो हाथ कमर पर रखे; कभी-कभी उनकी पत्नी रखुमाई भी साथ होती हैं। .
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विश्वकर्मा
300px बलुआ पत्थर से निर्मित एक आर्किटेक्चरल पैनेल में भगवान विश्वकर्मा (१०वीं शताब्दी); बीच में गरुड़ पर विराजमान विष्णु हैं, बाएँ ब्रह्मा हैं, तथा दायें तरफ भगवान विश्वकर्मा हैं। इस संग्रहालय में उनका नाम 'विश्नकुम' लिखा है। हिन्दू धर्म में विश्वकर्मा को निर्माण एवं सृजन का देवता माना जाता है। मान्यता है कि सोने की लंका का निर्माण उन्होंने ही किया था। .
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वृहद भारत
'''वृहद भारत''': केसरिया - भारतीय उपमहाद्वीप; हल्का केसरिया: वे क्षेत्र जहाँ हिन्दू धर्म फैला; पीला - वे क्षेत्र जिनमें बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ वृहद भारत (Greater India) से अभिप्राय भारत सहित उन अन्य देशों से है जिनमें ऐतिहासिक रूप से भारतीय संस्कृति का प्रभाव है। इसमें दक्षिणपूर्व एशिया के भारतीकृत राज्य मुख्य रूप से शामिल है जिनमें ५वीं से १५वीं सदी तक हिन्दू धर्म का प्रसार हुआ था। वृहद भारत में मध्य एशिया एवं चीन के वे वे भूभाग भी सम्मिलित किये जा सकते हैं जिनमे भारत में उद्भूत बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ था। इस प्रकार पश्चिम में वृहद भारत कीघा सीमा वृहद फारस की सीमा में हिन्दुकुश एवं पामीर पर्वतों तक जायेगी। भारत का सांस्कृतिक प्रभाव क्षेत्र .
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वेंकटेश्वर
वेंकटेश्वर (వెంకటేశ్వరుడు, வெங்கடேஸ்வரர், ವೆಂಕಟೇಶ್ವರ, वेंकटेश्वरः) भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं। उन्हें गोविंदा, श्रीनिवास, बालाजी, वेंकट आदि नामों से भी जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि विष्णु ने कुछ समय के लिए स्वामी पुष्करणी नामक तालाब के किनारे निवास किया था। यह तालाब तिरुमला के पास स्थित है। तिरुमाला-तिरुपति के चारों ओर स्थित पहाड़ियाँ, शेषनाग के सात फनों के आधार पर बनीं 'सप्तगिरि' कहलाती हैं। वैकुण्ठ एकादशी के अवसर पर लोग तिरुपति वेन्कटेशवर मन्दिर पर प्रभु के दर्शन के लिए आते हैं, जहाँ पर आने के पश्चात उनके सभी पाप धुल जाते हैं। मान्यता है कि यहाँ आने के पश्चात व्यक्ति को जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति मिल जाती है। .
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गरुड़ पुराण
गरूड़ पुराण वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बन्धित है और सनातन धर्म में मृत्यु के बाद सद्गति प्रदान करने वाला माना जाता है। इसलिये सनातन हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद गरुड़ पुराण के श्रवण का प्रावधान है। इस पुराणके अधिष्ठातृ देव भगवान विष्णु हैं। इसमें भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार, निष्काम कर्म की महिमा के साथ यज्ञ, दान, तप तीर्थ आदि शुभ कर्मों में सर्व साधारणको प्रवृत्त करने के लिये अनेक लौकिक और पारलौकिक फलोंका वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें आयुर्वेद, नीतिसार आदि विषयोंके वर्णनके साथ मृत जीव के अन्तिम समय में किये जाने वाले कृत्यों का विस्तार से निरूपण किया गया है। आत्मज्ञान का विवेचन भी इसका मुख्य विषय है। अठारह पुराणों में गरुड़महापुराण का अपना एक विशेष महत्व है। इसके अधिष्ठातृदेव भगवान विष्णु है। अतः यह वैष्णव पुराण है। गरूड़ पुराण में विष्णु-भक्ति का विस्तार से वर्णन है। भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों का वर्णन ठीक उसी प्रकार यहां प्राप्त होता है, जिस प्रकार 'श्रीमद्भागवत' में उपलब्ध होता है। आरम्भ में मनु से सृष्टि की उत्पत्ति, ध्रुव चरित्र और बारह आदित्यों की कथा प्राप्त होती है। उसके उपरान्त सूर्य और चन्द्र ग्रहों के मंत्र, शिव-पार्वती मंत्र, इन्द्र से सम्बन्धित मंत्र, सरस्वती के मंत्र और नौ शक्तियों के विषय में विस्तार से बताया गया है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में श्राद्ध-तर्पण, मुक्ति के उपायों तथा जीव की गति का विस्तृत वर्णन मिलता है। .
देखें गरुड़ और गरुड़ पुराण
गार्ड ब्रिगेड
गार्ड ब्रिगेड भारतीय सेना की एक रेजीमेंट है। यह पहली "ऑल इंडिया" मिश्रित रचना वाली इन्फैंट्री है जहां भारत के सभी भागों से सैनिक, रेजिमेंट की विभिन्न बटालियनों में एक साथ सेवा देते हैं। कम प्रतिनिधित्व वाले वर्गों और क्षेत्रों को सेना में भर्ती के लिए प्रोत्साहित करने की सरकार की नीति को लागू करने के लिए इसे बनाया गया था। भारत के राष्ट्रपति इसके कर्नल-इन-चीफ होते हैं। गार्ड्स का रेजिमेंटल सेंटर महाराष्ट्र में है। .
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गंडभेरुंड
गंडभेरुंड गंडभेरुंड एक काल्पनिक पक्षी जिसका अंकन भारतीय कला में पाया जाता है। इसके एक धड़ गरुड़ के सदृश होता है। यह अपने दोनों चोंच तथा पंजे में हाथी दबोचे अंकित किया जाता है। इसका प्राचीनतम अंकन विजयनगर के आरंभकालिक कतिपय सिक्कों पर पाया जाता है दक्षिण के शैव मंदिरों में उत्सव मूर्तियों के रूप में गंडभेरुंड देखने में आता है। मैसूर रियासत के राजचिन्ह के रूप में इस प्रतीक का प्रयोग हुआ है। इस पक्षी के संबंध में जनश्रुति है कि हिरण्यकश्यप के मारने के पश्चात् भी जब नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तब गंडभेरुंड उन्हें अपने पंजे में दबोच कर आकाश में ले उड़ा था। .
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ग्यारसपुर
ग्यारसपुर, विदिशा से पूर्वोत्तर दिशा में २३ मील की दूरी पर एक पहाड़ी की उपत्यका में बसा हुआ है। इसके इर्द-गिर्द मिले अवशेषों से पता चलता है कि यहाँ बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण तीनों संप्रदायों का प्रभाव रहा है। संपूर्ण दशार्ण क्षेत्र में ग्यारसपुर को विदिशा के बाद सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान कहा जाता है। .
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गीतरामायणम्
गीतरामायणम् (२०११), शब्दार्थ: गीतों में रामायण, जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००९ और २०१० ई में रचित गीतकाव्य शैली का एक संस्कृत महाकाव्य है। इसमें संस्कृत के १००८ गीत हैं जो कि सात कांडों में विभाजित हैं - प्रत्येक कांड एक अथवा अधिक सर्गों में पुनः विभाजित है। कुल मिलाकर काव्य में २८ सर्ग हैं और प्रत्येक सर्ग में ३६-३६ गीत हैं। इस महाकाव्य के गीत भारतीय लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत के विभिन्न गीतों की ढाल, लय, धुन अथवा राग पर आधारित हैं। प्रत्येक गीत रामायण के एक या एकाधिक पात्र अथवा कवि द्वारा गाया गया है। गीत एकालाप और संवादों के माध्यम से क्रमानुसार रामायण की कथा सुनाते हैं। गीतों के बीच में कुछ संस्कृत छंद हैं, जो कथा को आगे ले जाते हैं। काव्य की एक प्रतिलिपि कवि की हिन्दी टीका के साथ जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन संस्कृत कवि अभिराज राजेंद्र मिश्र द्वारा जनवरी १४, २०११ को मकर संक्रांति के दिन किया गया था। .
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कद्रू
कद्रू (या, कद्रु) दक्ष प्रजापति की कन्या, महर्षि कश्यप की पत्नी। पौराणिक इतिवृत्त है कि एक बार महर्षि कश्यप ने कहा, 'तुम्हारी जो इच्छा हो, माँग लो'। कद्रु ने एक सहस्र तेजस्वी नागों को पुत्र रूप में माँगा (महाभारत, आदिपर्व, 16-8)। श्वेत उच्चैःश्रवा घोड़े की पूँछ के रंग को लेकर कद्रु तथा विनता में विवाद छिड़ा। कद्रु ने उसे काले रंग का बताया। हारने पर दासी होने की शर्त ठहरी। कद्रु ने अपने सहस्र पुत्रों को आज्ञा दी कि वे काले रंग के बाल बनकर पूँछ में लग जाय जिन सर्पों ने उसकी आज्ञा नहीं मानी उन्हें उसने शाप दिया कि पांडववंशी बुद्धिमान राजर्षि जनमेजय के सर्पसत्र में प्रज्वलित अग्नि उन्हें जलाकर भस्म कर देगी। शीघ्रगामिनी कद्रु विनता के साथ उस समुद्र को लाँघकर तुरंत ही उच्चैःश्रवा घोड़े के पास पहुँच गई। श्वेतवर्ण के महावेगशाली अश्व की पूँछ के घनीभूत काले रंग को देखकर विनता विषाद की मूर्ति बन गई और उसने कद्रु की दासी होना स्वीकार किया। कद्रु, विनता तथा कद्रु के पुत्र गरुड की पीठ पर बैठकर नागलोक देखने गए। गरुड़ इतनी ऊँचाई पर उड़े कि सर्प सूर्य ताप से मूर्छित हो उठे। कद्रु ने मेघवर्षा के द्वारा तापशमन करने के लिए इंद्र की स्तुति की। श्रेणी:पौराणिक पात्र.
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कश्यप
आंध्र प्रदेश में कश्यप प्रतिमा वामन अवतार, ऋषि कश्यप एवं अदिति के पुत्र, महाराज बलि के दरबार में। कश्यप ऋषि एक वैदिक ऋषि थे। इनकी गणना सप्तर्षि गणों में की जाती थी। हिन्दू मान्यता अनुसार इनके वंशज ही सृष्टि के प्रसार में सहायक हुए। .
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कुद्रु
कद्रू (कद्रु) दक्ष प्रजापति की कन्या तथा महर्षि कश्यप की पत्नी थी। पौराणिक इतिवृत्त है कि एक बार महर्षि कश्यप ने कहा, 'तुम्हारी जो इच्छा हो, माँग लो'। कद्रु ने एक सहस्र तेजस्वी नागों को पुत्र रूप में माँगा (महाभारत, आदिपर्व, १६-८)। श्वेत उच्चै:श्रवा घोड़े की पूँछ के रंग को लेकर कद्रु तथा विनता में विवाद छिड़ा। कद्रु ने उसे काले रंग का बताया। हारने पर दासी होने की शर्त ठहरी। कद्रु ने अपने सहस्र पुत्रों को आज्ञा दी कि वे काले रंग के बाल बनकर पूँछ में लग जांय। जिन सर्पों ने उसकी आज्ञा नहीं मानी उन्हें उसने शाप दिया कि पांडववंशी बुद्धिमान राजर्षि जनमेजय के सर्पसत्र में प्रज्वलित अग्नि उन्हें जलाकर भस्म कर देगी। शीघ्रगामिनी कद्रु विनता के साथ उस समुद्र को लाँघकर तुरंत ही उच्चै:श्रवा घोड़े के पास पहुँच गई। श्वेतवर्ण के महावेगशाली अश्व की पूँछ के घनीभूत काले रंग को देखकर विनता विषाद की मूर्ति बन गई और उसने कद्रु की दासी होना स्वीकार किया। कद्रु, विनता तथा कद्रु के पुत्र गरुड़ की पीठ पर बैठकर नागलोक देखने गए। गरुड़ इतनी ऊँचाई पर उड़े कि सर्प सूर्य ताप से मूर्छित हो उठे। कद्रु ने मेघवर्षा के द्वारा तापशमन करने के लिए इंद्र की स्तुति की। श्रेणी:पौराणिक पात्र.
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अरुण
अरुण प्रजापति कश्यप और विनता के पुत्र हैं। इनके ज्येष्ठ भ्राता गरुड़ हैं, जो कि पक्षियों के राजा हैं। अरुण को भगवान सूर्य देव का सारथी माना जाता है। रामायण में प्रसिद्ध सम्पाती और जटायु इन्हीं के पुत्र थे। .
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उलूपी
उलूपि ने अर्जुन को विवाह के लिये मना लिया उलूपी ऐरावत वंश के कौरव्य नामक नाग की कन्या थी। इस नाग कन्या का विवाह एक बाग से हुआ था। इसके पति को गरुड़ ने मारकर खा लिया जिससे यह विधवा हो गयी। एक बार अर्जुन, जो प्रतिज्ञा भंग करने के कारण बारह वर्ष का वनवास कर रहे थे, ब्रह्मचारी के वेश में तीर्थाटन करते हुए गंगा द्वार के निकट पहुँचें जहाँ इससे उनका साक्षात्कार हुआ। उलूपी अर्जुन को देखकर उनपर विमुग्ध हो गयी। वह अर्जुन को पाताल लोक में ले गयी और उनसे विवाह करने का अनुरोध किया। अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर उसने अर्जुन को समस्त जलचरों का स्वामी होने का वरदान दिया। जिस समय अर्जुन नागलोक में निवास कर रहे थे, उस समय चित्रांगदा से उत्पन्न अर्जुन का पुत्र वभ्रुवाहन, जो अपने नाना, मणिपुर नरेश का उत्तराधिकारी था, उनके स्वागत के लिए उनके पास आया। वभ्रुवाहन को युद्ध-सज्जा में न देखकर यथोचित व्यवहार नहीं किया। उलूपी वभ्रुवाहन की देख-रेख कर चुकने के कारण उस पर अपना प्रभाव रखती थी। उसने वभ्रुवाहन को अर्जुन के विरुद्ध भड़काया। फलतः पिता और पुत्र में युद्ध हुआ। उलूपी की माया के प्रभाव से वभ्रुवाहन अर्जुन को मार डालने में समर्थ हुआ किन्तु अपने इस कार्य के लिए उसे इतना दुःख हुआ कि उसने आत्म-हत्या करने का निश्चय किया। वभ्रुवाहन के संकल्प को जानकर उलूपी ने एक मणि की सहायता से अर्जुन को पुनः जीवनदान दिया। विष्णु पुराण के अनुसार अर्जुन से उलूपी ने इरावत नामक पुत्र को जन्म दिया। उलूपी अर्जुन के सदेह स्वगारोहण के समय तक उनके साथ थी। श्रेणी:महाभारत के पात्र.
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गरुड के रूप में भी जाना जाता है।