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क्षुद्रक

सूची क्षुद्रक

क्षुद्रक प्राचीन भारत का एक गणराज्य जो सिकन्दर के आक्रमण के विरुद्ध लड़ा था। यह दक्षिण पंजाब में व्यास नदी के किनारे मालवगण के पूर्वभाग में बसा हुआ था। अपने पड़ोस में रहनेवाले मालव लोगों से इनका प्राचीनकाल से वैर था। अपने देश वापस जानेवाले सिकन्दर के द्वारा इन दो गणों पर हमला किये जाने पर, ये दोनों एक हो गये, एवं इन्होंने उससे इतना गहरा मुकाबला किया कि, यद्यपि ये युद्ध में विजय प्राप्त न कर सके, फिर भी सिकन्दर ने इनके साथ अत्यंत सम्मानपूर्वक संधि की। पतंजलि के व्याकरण महाभाष्य में, इन लोगों के द्वारा अकेले ही अपने शत्रु पर विजय प्राप्त करने का निर्देश प्राप्त है (एकाकिभिः क्षुद्रकैः जितम्); ३२१; ४१२। यह निर्देश संभवतः सिकंदर के साथ इन लोगों के किये युद्ध के उपलक्ष्य में ही किया गया होगा। श्रेणी:प्राचीन भारत का इतिहास.

1 संबंध: मालवगण

मालवगण

मालवगण प्राचीन भारत की एक जातिविशेष का संघ। महाभारत में मालवों के उल्लेख मिलते है। अपनी पड़ोसी जाति क्षुद्रकों की तरह मालव के उल्लेख मिलते हैं। अपनी पड़ोसी जाति क्षुद्रकों की तरह मालव भी महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे। वे पंजाब में निवास करते थे जहाँ उनकी तरह अंवष्ट, यौधेय आदि जनों का भी आवास था। तदनंतर कई शताब्दियों तक वे वही बने रहे। यूनानी सम्राट सिकन्दर के आक्रमण के समय मालवगण का राज्य मुख्यतया रावी और चिनाव के दोआब में था। क्षुद्रकों का राज्य मालवों के राज्य से लगा हुआ था। अतएव मालवों ने क्षुद्रकों के साथ सुदृढ़ ऐक्य स्थापित किया था। दोनों सेनाओं ने वीरता और दृढ़ता के साथ डटकर सिकन्दर का सामना किया। यूनानी इतिहासकार एरियन के अनुसार पंजाब में निवास कर रही भारतीय जातियों में मालव और क्षुद्रक संख्या में बहुत अधिक तथा सबसे अधिक युद्धकुशल थे। अत: उनकी सेनाओं का सामना करने से यूनानी सेना भी हिचकिचाने लगी थी, जिससे सिकंदर को स्वयं आगे बढ़ना पड़ा था और उस युद्ध में वह विशेष आहत भी हुआ था। अंत में मालव पराजित हुए और उन्हें हथियार डालने पड़े। पाणिनि के अनुसार मालवगण एक 'आयुधजीवी' संघ थे। युद्धविद्या में निपुणता प्राप्त करना इस संघ के प्रत्येक नागरिक का प्रधान कर्तव्य होता था, अत: वहाँ सभी निवासी योद्धा हुआ करते थे। मालवों का समाज अपनी पूर्ण और विकसित अवस्था को पहुँच चुका था। उसमें क्षत्रिय, ब्राह्मण आदि कई वर्ग होते थे। जो व्यक्ति क्षत्रिय या ब्राह्मण आदि कई वर्ग होते थे औरअन्य वर्गो के लोग 'मालव्य'कहलाते थे। मालवगणों का अधिकारक्षेत्र बहुत विस्तृत और संगठन अति बलशाली था जिससे उनको पराजित करना कठिन होता था। कात्यायन और पत्जांलि ने भी क्षुद्रक मालवी सेना का उल्लेख किया है। इसके बाद क्षुद्रकों का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता, जिससे यही अनुमान होता है कि सिकंदर के आक्रमण के समय स्थापित 'मालव-क्षुद्रक ऐक्य' समय पाकर अधिकाधिक बढ़ता ही गया और अंत में क्षुद्रक मालवों में ही पूर्णतया समाविष्ट हो गए। मौर्य सम्राज्य के पतन के बाद बाख्त्री (बैक्ट्रियन) और पार्थव (पार्थियन) राजाओं ने जब पंजाब तथा सिंध पर आधिपत्य स्थापित कर लिया, तब अपनी स्वतंत्रता तथा स्वशासन को संकटापन्न देखकर ईसा पूर्व की दूसरी शताब्दी में मालवगण विवश हो पंजाब छोड़कर दक्षिण पूर्व की ओर बढ़े। सतलज पारकर पहले कुछ काल तक वे फिराजपुर, लुधियाना और भटिंडा के प्रदेश में रहे, जिससे वह क्षेत्र अब तक 'मालव' कहलाता है। किंतु यहाँ भी वे अधिक काल तक नहीं ठहर पाए और आगे बढ़ते हुए वे उसी शताब्दी में अजमेर से दक्षिण पूर्व में टोंक मेवाड़ के प्रदेश मे जा पहुँचे तथा वहाँ अपने स्वाधीन गणराज्य की स्थापना की। टोंक से कोई २५ मील दक्षिण में स्थित कर्कोट नागर नामक स्थान उनका मुख्य केंन्द्र रहा होगा, वहाँ मालवों के विभिन्न कालों के सैकड़ों सिक्के प्राप्त हुए हैं। कुषाण साम्राज्य के उत्थान के साथ ही गुजरात में उनके अधीन पश्चिमी क्षत्रपों ने उज्जैन को जीतकर मालवों पर भी अपना आधिपत्य स्थापित किया था। जैन ग्रंथों के अनुसार शकों को वहाँ लाने में कालकाचार्य का विशेष हाथ था। परंतु स्वातंत्रय प्रेमी मालव निरंतर विद्रोह करते रहते थे। उत्तम भद्रों के सहायतार्थ महाक्षत्रप नहपाण को उषवदात्त (ऋषिभदत्त) के नेतृत्व में मालवों के विरुद्ध सेना भेजनी पड़ी थी। अंत में मालवों के सहयोग से गौतमीपुत्र शातकणीं ने महाक्षत्रप नहपाण और उसके साथी शकों का पूर्ण संहार किया। नहपाण और गौतमीपुत्र शातकर्णी के सही सन् संवतों के बारे में इतिहासकार एकमत नहीं है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इससे भी पहिले मालवगणों की ही एक शाखा के प्रमुख, उज्जैन के पदच्युत अधिपति गर्दभिल्ल के पुत्र, विक्रम ने पराजित कर शकों को उस प्रदेश से निकाल बाहर किया था। यद्यपि बाद में शकों ने उनपर पुन: आधिपत्य स्थापित कर लिया था तथापि तीसरी शती के प्रारंभ में श्री सोम के नेतृत्व में उन्होंने फिर मालव गणराज्य की स्वाधीनता घोषित कर दी। मालवगण कार्कोट नगर से दक्षिण में उस सारे प्रदेश पर फैल गए, जो आगे चलकर उन्हीं के नाम से मालवा प्रदेश कहलाने लगा। मालवों के इस गणराज्य में शासन व्यवस्था उनके चुने हुए प्रमुख के हाथ में रहती थी। कई बार उत्तराधिकारी का चुनाव वंश परंपरागत भी हो जाता था। परंतु उनमें गणतंत्रीय परंपरा प्रबल रही। मालवों के कई सिक्के प्राप्त हुए हैं। ये प्राय छोटे होते थे। मालवों के सिक्के दो प्रकार के मिलते हैं। प्रथम प्रकार के सिक्कों पर मालवों ने अपनी महत्वपूर्ण विजय की स्मृति में ब्राह्यी लिपि में मालवानां जय: और मालवगणस्य जय: लेख अंकित किए थे। ईसा पूर्व की पहली शताब्दी से ईसा की तीसरी शताब्दी तक ये जारी किए गए होंगे। दूसरे प्रकार के सिक्कों पर मजुप, मपोजय, मगजस, मगोजय, मपक, पच, गजव, मरज, जमुक आदि शब्द अंकित हैं। इन शब्दों के सही अर्थ अथवा उनके संतोषजनक अभिप्राय के बारे में विद्वानों का मतैक्य नहीं हो पाया है। ईसा की चौथी शताब्दी के पूर्वार्ध में जब समुद्रगुप्त ने दिग्विजय कर अपने विस्तृत सम्राज्य की स्थापना की, उसने मालवों के गणराज्य को भी अपने अधीन कर लिया, तदंतर मालवों के इस गणराज्य की आतंरिक स्वाधीनता कुछ काल तक अवश्य बनी रही होगी। परंतु गुप्त साम्राज्य के पतन काल में बर्बर हूणों के आक्रमण प्रवाह में मालवगण का समूचा प्रदेश भी निमग्न हो गया। मालवों ने मालवा प्रदेश को एकता और महत्वपूर्ण परंपराएँ प्रदान कीं। यह प्रदेश पहले दो विभिन्न भागों में बँटा हुआ था, पश्चिमी भाग अवंतिका क्षेत्र कहलाता था और पूर्वी भाग आकर अथवा दशार्ण नाम से सुज्ञात था। वे दोनों अब मालवा प्रदेश में सम्मिलित होकर अभिन्न हो गए। मालवगण का स्वाधीनता प्रेम और जनतंत्रीय भावनाएँ इस प्रदेश की सांस्कृतिक विशेषताओं के साथ सम्मिलित हो गए। इस प्रकार जिस नई विस्तृत राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इकाई का निर्माण हुआ, आगे चलकर उसका भारतीय इतिहास में सदैव विशेष महत्व रहता आया है। यशोधर्मन् मुंज और भोज उसी नवीन सम्मिलित परंपरा की प्रारंभिक कड़ियाँ थे। मालवगण की दूसरी देन राष्ट्रीय महत्व की है, वह है उनका मालव संवत् जो आगे चलकर विक्रम संवत् के रूप में भारत में सर्वत्र प्रचलित हुआ। मालवों के गणराज्य की स्वतंत्रताप्राप्ति की स्मृति में ही इस संवत् का प्रारंभ हुआ होगा। ईसा की तीसरी शती के पूर्वार्ध से ही राजस्थान, मालवा तथा उनके पड़ोसी प्रदेशों के शिलालेखों में 'कृत संवत्' के नाम से इस संवत् का उल्लेख मिलता है। ईसा की पाँचवी शती के बाद में शिलालेखों में कृत संवत् के साथ ही इसे 'मालव' या 'मालवेश' संवत् भी लिखा जाता रहा। ईसा की दसवीं शताब्दी के बाद यही संवत् 'विक्रम संवत्' के नाम से सुज्ञात हुआ। परंपरागत प्रवाद के अनुसार उज्जैन के प्रतापी शकारि राजा विक्रम की विजय के समय (ई० पू० ५७) से ही इस मालव अथवा विक्रम संवत् का प्रारंभ हुआ था। .

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