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कालिदास

सूची कालिदास

कालिदास संस्कृत भाषा के महान कवि और नाटककार थे। उन्होंने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएं की और उनकी रचनाओं में भारतीय जीवन और दर्शन के विविध रूप और मूल तत्व निरूपित हैं। कालिदास अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण राष्ट्र की समग्र राष्ट्रीय चेतना को स्वर देने वाले कवि माने जाते हैं और कुछ विद्वान उन्हें राष्ट्रीय कवि का स्थान तक देते हैं। अभिज्ञानशाकुंतलम् कालिदास की सबसे प्रसिद्ध रचना है। यह नाटक कुछ उन भारतीय साहित्यिक कृतियों में से है जिनका सबसे पहले यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद हुआ था। यह पूरे विश्व साहित्य में अग्रगण्य रचना मानी जाती है। मेघदूतम् कालिदास की सर्वश्रेष्ठ रचना है जिसमें कवि की कल्पनाशक्ति और अभिव्यंजनावादभावाभिव्यन्जना शक्ति अपने सर्वोत्कृष्ट स्तर पर है और प्रकृति के मानवीकरण का अद्भुत रखंडकाव्ये से खंडकाव्य में दिखता है। कालिदास वैदर्भी रीति के कवि हैं और तदनुरूप वे अपनी अलंकार युक्त किन्तु सरल और मधुर भाषा के लिये विशेष रूप से जाने जाते हैं। उनके प्रकृति वर्णन अद्वितीय हैं और विशेष रूप से अपनी उपमाओं के लिये जाने जाते हैं। साहित्य में औदार्य गुण के प्रति कालिदास का विशेष प्रेम है और उन्होंने अपने शृंगार रस प्रधान साहित्य में भी आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का समुचित ध्यान रखा है। कालिदास के परवर्ती कवि बाणभट्ट ने उनकी सूक्तियों की विशेष रूप से प्रशंसा की है। thumb .

167 संबंधों: चन्द्रकुंवर बर्त्वाल, ठाकुर जगन्मोहन सिंह, दण्डी, दक्षिणा, दुष्यन्त, दुष्यंत, दूतकाव्य, दोहद, धनुर्विद्या, नर्मदा नदी, नागरीप्रचारिणी पत्रिका, नागार्जुन, निष्पादन कलाएँ, न्यायशास्त्र (भारतीय), नृत्य, पद्मनाभदत्त, पारिस्थितिकी, पार्वती नदी, प्राचीन भारत, प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी के साधन, प्राकृत साहित्य, बर्मी साहित्य, बाणभट्ट, बिजनौर, बंगाली साहित्य, बृहतत्रयी (संस्कृत महाकाव्य), भारत के राष्‍ट्रीय चिन्ह, भारत की संस्कृति, भारतीय लोकनाट्य, भारतीय साहित्य, भारतीय सिनेमा, भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष, भारतीय संगीत का इतिहास, भारतीय व्यक्तित्व, भारतीय आम, भारतीय इतिहास तिथिक्रम, भारतीय कवियों की सूची, भारतीय छन्दशास्त्र, भास, भवभूति, भृङ्गदूतम्, भोजप्रबन्ध, मथुरानाथ तर्कवागीश, मध्य प्रदेश, मध्य प्रदेश का पर्यटन, महर्षि दुर्वासा, महाभारत के विभिन्न संस्करण, महावीर प्रसाद द्विवेदी, महाकाव्य, मालविकाग्निमित्रम्, ..., माघ (कवि), मुद्राराक्षस, मृच्छकटिकम्, मेघदूतम्, योहान वुल्फगांग फान गेटे, योगिनी एकादशी, रबीन्द्रनाथ ठाकुर, रस (काव्य शास्त्र), राम अवतार शर्मा, रामभद्राचार्य, रामायणकालीन छत्तीसगढ़, रामेश्वरम तीर्थ, राजा लक्ष्मण सिंह, रघु वीर, रघुवंशम्, लोलिम्बराज, शिवदान सिंह चौहान, शुंग राजवंश, श्रुतबोधम्, श्रीभार्गवराघवीयम्, शूद्रक, समस्या-पूर्ति, सरयू, सरस्वती देवी, सरस्वती नदी, साहित्य, साहित्य अकादमी पुरस्कार डोगरी, साहित्य अकादमी पुरस्कार नेपाली, साहित्य अकादमी पुरस्कार संथाली, साहित्य अकादमी पुरस्कार कन्नड़, साखी, संस्कृत नाटक, संस्कृत साहित्य, संस्कृत ग्रन्थों की सूची, संस्कृत कवियों की सूची, संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द, सुंग वंश, स्तोत्र, स्वर्ग लोक, सूर्यवंश, हरिचन्द्र, हिन्दी पुस्तकों की सूची/क, हिन्दी में शैव काव्य, हिन्दी साहित्य का इतिहास, हिन्दी काव्य में प्रकृति चित्रण, हिन्दी-काव्य में विरह की अभिव्यक्ति, हिंदी चलचित्र, १९६० दशक, हंससन्देश, हेमचन्द्राचार्य, होली, जर्मनी में संस्कृत, जानकीहरण (महाकाव्य), जगद्गुरु रामभद्राचार्य ग्रंथसूची, जगन्नाथ पण्डितराज, घटकर्पर, वत्स, वात्स्यायन, वाल्मीकि रामायण, वासुदेव शरण अग्रवाल, वाग्भट, विद्याधर (साहित्यशास्त्री), विद्याधर शास्त्री, विभिन्न भाषाओं में रामायण, विलियम जोंस (भाषाशास्त्री), विक्रमादित्य, विक्रमोर्वशीयम्, वैदिक संस्कृत, वैदिक व्याकरण, वैखानस, वेश्यावृत्ति, गढ़वाल मण्डल, गढ़वाल कुमाऊं के मेले, गढ़वाल की कला एवं चित्रकारी, गढ़कालिका मंदिर, उज्जैन, गुरुकुल, गुर्जर प्रतिहार राजवंश, ग्रन्थ लिपि, गीतगोविन्द, ऑपरेशन मेघदूत, आटो फॉन बॉटलिंक, आषाढ़ का एक दिन, कनक चम्पा, कर्नाटक का इतिहास, कश्मीरी साहित्य, कालिदास, कालिदास समारोह, कालिदास का काव्य सौन्दर्य, कालिदास अकादमी, उज्जैन, कालिंजर दुर्ग, कालीदास क्रेटर (बुध ग्रह), किरातार्जुनीयम्, कंबोज, कुन्दमाला, कुमाऊँ मण्डल, कुमारसम्भव, कुमारसंभवम्, कुलपति, क्लासिक, केशवप्रसाद मिश्र, अनसूया, अनुलोम विवाह, अभिषेक, अभिज्ञानशाकुन्तलम्, अमात्य, अलका (नगरी), अलकापुरी, अश्वघोष, अग्निमित्र, अंतःकरण, अंजन, अक्षय वट, उच्चैःश्रवा, उत्तरकालामृतम्, उर्वशी, उज्जैन, उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर, ऋतुसंहार सूचकांक विस्तार (117 अधिक) »

चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

चन्द्र कुंवर बर्त्वाल (20 अगस्त 1919 - १९४७) हिन्दी के कवि थे। उन्होंने मात्र 28 साल की उम्र में हिंदी साहित्य को अनमोल कविताओं का समृद्ध खजाना दे दिया था। समीक्षक चंद्र कुंवर बर्त्वाल को हिंदी का 'कालिदास' मानते हैं। उनकी कविताओं में प्रकृतिप्रेम झलकता है। .

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ठाकुर जगन्मोहन सिंह

ठाकुर जगन्मोहन सिंह (१८५७ विजयराघवगढ़ -- ४ मार्च १८९९ सुहागपुर) हिन्दी के भारतेन्दुयुगीन कवि, आलोचक और उपन्यासकार तथा जगन्मोहन मण्डल के संस्थापक थे। छत्तीसगढ़ में ठाकुर जगमोहनसिंह का हिन्दी का साहित्यिक वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण योगदान था। उन्होंने सन् 1880 से 1882 तक धमतरी में और सन् 1882 से 1887 तक शिवरीनारायण में तहसीलदार और मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य किया। यही नहीं, छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को जगन्मोहन मंडल बनाकर एक सूत्र में पिरोया और उन्हें लेखन की सही दिशा भी दी। .

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दण्डी

दण्डी संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। इनके जीवन के संबंध में प्रामाणिक सूचनाओं का अभाव है। कुछ विद्वान इन्हें सातवीं शती के उत्तरार्ध या आठवीं शती के प्रारम्भ का मानते हैं तो कुछ विद्वान इनका जन्म 550 और 650 ई० के मध्य मानते हैं। .

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दक्षिणा

दक्षिणा, गुरु को सम्मानस्वरूप दी जानेवाली भेंट अथवा यज्ञ, श्राद्ध और धार्मिक कृत्यों के संबंध में दिए जानेवाले धन का बोधक है। .

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दुष्यन्त

दुष्यन्त पुरु कुल के राजा। कालिदास के नाटक के पात्र।.

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दुष्यंत

संस्कृत साहित्य के महाकवि कालिदास की प्रसिद्ध रचना अभिज्ञान शकुंतलम् का नायक दुष्यंत पुरुवंशी राजा थे। एक बार मृगया का शिकार करते हुए संयोगवश वे महर्षि कण्व के आश्रम में पहुँचे। वहाँ उनका परिचय कण्व ऋषि की पोष्य दुहिता शकुंतला से हुआ। उन्होंने शकुंतला पर आसक्त होकर गंधर्व विवाह कर लिया। ऋषिकी कुछ काल तक प्रतिक्षा कर वे अपने नगर लौट गए। उन्होंने शकुंतला को निसानी स्वरूप अपनी मुद्रिका दे दी। दुष्यंत के जाने के पश्चात शकुंतला के गर्भ से एक पुत्र पैदा हुआ। वह पुत्र को लेकर दुष्यंत के पास आई। मार्ग में असावधानीवश स्नानादि के समय अंगूठी किसी सरोवर में गिर गई। दुष्यंत ने शकुंतला को स्वीकार नहीं किया। किंतु जब आकाशवाणी हुई कि तुम इसे स्वीकार करो तो दुष्यंत ने दोनो को स्वीकार कर लिया। एक दूसरे मत से एक बार दुष्यंत की स्मृति में बेसुध शकुंतला द्वारा अपनी अवहेलना से क्रुद्ध ऋषि दुर्वासा ने उसे शाप दे दिया। शापवश राजा को सब विस्मरण हो गया था। अतः शकुंतला निराश होकर लौट आइ। कुछ दिनों बाद एक मछुए को मछली के पेट में वह अंगूठी मिली। जब वह अंगूठी राजा के पास पहुँची तो उसे समस्त घटनाओं का स्मरण हुआ। और तब शकुंतला बुलवाई गई। उसके पुत्र का नाम भरत रखा गया जो बाद में चलकर भारतवर्ष, या भारत नाम का जनक हुआ। .

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दूतकाव्य

यह लेख संस्कृत के महाकवि भास की रचना 'दूतवाक्य' के बारे में नहीं है। ---- दूतकाव्य, संस्कृत काव्य की एक विशिष्ट परंपरा है जिसका आरंभ भास तथा घटकर्पर के काव्यों और महाकवि कालिदास के मेघदूत में मिलता है, तथापि, इसके बीज और अधिक पुराने प्रतीत होते हैं। परिनिष्ठित काव्यों में वाल्मीकि द्वारा वर्णित वह प्रसंग, जिसें राम ने सीता के पास अपना विरह संदेश भेजा, इस परंपरा की आदि कड़ी माना जाता है। स्वयं कालिदास ने भी अपने "मेघदूत" में इस बात का संकेत किया है कि उन्हें मेघ को दूत बनाने की प्रेरणा वाल्मीकि "रामायण" के हनुमानवाले प्रसंग से मिली है। दूसरी और इस परंपरा के बीज लोककाव्यों में भी स्थित जान पड़ते हैं, जहाँ विरही और विरहिणियाँ अपने अपने प्रेमपात्रों के पति भ्रमर, शुक, चातक, काक आदि पक्षियों के द्वारा संदेश ले जाने का विनय करती मिलती हैं। .

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दोहद

दोहद शब्द का अर्थ 'गर्भवती की इच्छा' है। संभवत: यह संस्कृत 'दौहृद' शब्द का प्राकृत रूप है जो संस्कृत में गृहीत अन्य प्राकृत शब्दों के समान स्वीकृत हो गया है। याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार गर्भिणी स्त्री का यह प्रिय आचरण है जिसे अवश्य पूरा करना चाहिए। यदि गभिणी स्त्री की इस प्रकार की आकांक्षाएँ पूर्ण न की जाएँ, उन्हें गर्भावस्था में जिन वस्तुओं की इच्छा होती है वे न दी जाएँ तो गर्भविकृति, मरण एवं अन्यान्य दोष होते हैं। सुश्रुत (शरीरस्थान) में 'दोहद' का विषयविवेचन इस प्रकार है - स्त्रियों के गर्भवती होने से चौथे महीने में गर्भ के अंग प्रत्यंग और चैतन्य शक्ति का विकास होता है तथा चेतना का आधार हृदय भी इसी महीने में उत्पन्न होता है। इसी समय इंद्रियों को कुछ न कुछ विषयभोग करने की इच्छा होती है। इसे अभिलाषपूरण अर्थात् ईपिसत वस्तु देना कहते हैं। इस काल में स्त्रियों का देह दो हृदयवाला अर्थात् एक अपना और दूसरा गर्भस्थ संतान का होता है। अत: इस तात्कालिक अभिलाषा को 'दोहद' कहते हैं। उनकी यह अभिलाषा अगर पूर्ण न की जाए तो गर्भस्थ संतान कुब्ज, कूणि, खंज, जड़, वामन, विकृताक्ष, अथवा अंध होती है तथा अन्यान्य गर्भपीड़ा की आशकों बनी रहती है। ईप्सित दोहद की पूर्ति होने पर गर्भिणी की संतान बलवान्, गुणवान् एवं दीर्घजीवी होती है। नहीं तो गर्भ के विषय में अथवा स्वयं गर्भिणी के लिए डर बना रहता है। विभिन्न इंद्रियों और वस्तुओं के आधार पर दोहद का विवेचन करते हुए कहा है कि गर्भिणी की जिस इंद्रिय की अभिलाषा पूरी नहीं होती, भावी संतान को भी अपने जीवन में उसी इंद्रिय की पीड़ा उत्पन्न होती है। गर्भिणी को यदि राजदर्शन की इच्छा हो तो संतान सुंदर और अलंकारप्रिय; आश्रयदर्शन की इच्छा हो तो धर्मशील और संयतात्मा; देवप्रतिमादर्शन की इच्छा हो तो संतान देवतुल्य; सर्पादि व्यालजातीय जंतु देखने की इच्छा हो तो हिंसांशील; गोह का मांस खाने की इच्छा हो तो शूर, रक्ताक्ष और लोमश अर्थात् अधिक रोएँवाला; हरिण का मांस खाने की इच्छा हो तो बनचर; वाराह का मांस खाने की इच्छा हो तो बनचर; वाराह का मांस खाने की इच्छा हो तो निहाल और शूर, सृप का मांस खाने की इच्छा हो तो उद्विग्न तथा तीतर का मांस खाने की इच्छा हो तो संतान भीरु होती है। इनके अतिरिक्त यदि अन्य जंतु का मांस खाने की इच्छा हो, तो वह जंतु जिस स्वभाव और आचरण का होगा, संतान भी उसी स्वभाव और आचरण की होगी, अत: गर्भिणी की अभिलाषा को अवश्य ही पूरा करना चाहिए। .

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धनुर्विद्या

किसी निश्चित लक्ष्य पर धनुष की सहायता से बाण चलाने की कला को धनुर्विद्या (Archery) कहते हैं। विधिवत् युद्ध का यह सबसे प्राचीन तरीका माना जाता है। धनुर्विद्या का जन्मस्थान अनुमान का विषय है, लेकिन ऐतिहासिक सूत्रों से सिद्ध होता है कि इसका प्रयोग पूर्व देशों में बहुत प्राचीन काल में होता था। संभवत: भारत से ही यह विद्या ईरान होते हुए यूनान और अरब देशों में पहुँची थी। .

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नर्मदा नदी

'''नर्मदा''' और भारत की अन्य नदियाँ नर्मदा नदी का प्रवाह क्षेत्र नर्मदा, जिसे रेवा के नाम से भी जाना जाता है, मध्य भारत की एक नदी और भारतीय उपमहाद्वीप की पांचवीं सबसे लंबी नदी है। यह गोदावरी नदी और कृष्णा नदी के बाद भारत के अंदर बहने वाली तीसरी सबसे लंबी नदी है। मध्य प्रदेश राज्य में इसके विशाल योगदान के कारण इसे "मध्य प्रदेश की जीवन रेखा" भी कहा जाता है। यह उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक पारंपरिक सीमा की तरह कार्य करती है। यह अपने उद्गम से पश्चिम की ओर 1,221 किमी (815.2 मील) चल कर खंभात की खाड़ी, अरब सागर में जा मिलती है। नर्मदा मध्य भारत के मध्य प्रदेश और गुजरात राज्य में बहने वाली एक प्रमुख नदी है। महाकाल पर्वत के अमरकण्टक शिखर से नर्मदा नदी की उत्पत्ति हुई है। इसकी लम्बाई प्रायः 1310 किलोमीटर है। यह नदी पश्चिम की तरफ जाकर खम्बात की खाड़ी में गिरती है। इस नदी के किनारे बसा शहर जबलपुर उल्लेखनीय है। इस नदी के मुहाने पर डेल्टा नहीं है। जबलपुर के निकट भेड़ाघाट का नर्मदा जलप्रपात काफी प्रसिद्ध है। इस नदी के किनारे अमरकंटक, नेमावर, गुरुकृपा आश्रम झीकोली, शुक्लतीर्थ आदि प्रसिद्ध तीर्थस्थान हैं जहाँ काफी दूर-दूर से यात्री आते रहते हैं। नर्मदा नदी को ही उत्तरी और दक्षिणी भारत की सीमारेखा माना जाता है। .

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नागरीप्रचारिणी पत्रिका

नागरीप्रचारिणी पत्रिका का प्रकाशन नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा १८९६ में आरम्भ हुआ था। उस समय यह हिन्दी की त्रैमासिक पत्रिका थी। श्यामसुन्दर दास, महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी, कालीदास और राधाकृष्ण दास इसके सम्पादक थे। १९०७ ई. में यह मासिक पत्रिका में परिवर्तित कर दी गई और इसके सम्पादक श्यामसुन्दर दास, रामचन्द्र शुक्ल, रामचन्द्र शर्मा और वेणीप्रसाद बनाए गए। नागरी प्रचारिणी पत्रिका हिंदी की सबसे प्राचीन शोध पत्रिका है। इसका सारे जगत में खोज जगत में मान है। इसका शीर्षक होता था, 'नागरीप्रचारिणी पत्रिका, अर्थात् प्राचीन शोधसम्बन्धी त्रैमासिक पत्रिका'। इस पत्रिका के संपादक मंडल में बाबू श्याम सुंदर दास, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, जयचंद विद्यालंकार, डॉ. सम्पूर्णानन्द, आचार्य नरेन्द्र देव, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वान रहे। .

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नागार्जुन

नागार्जुन (३० जून १९११-५ नवंबर १९९८) हिन्दी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे। अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली संस्कृत एवं बाङ्ला में मौलिक रचनाएँ भी कीं तथा संस्कृत, मैथिली एवं बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नागार्जुन ने मैथिली में यात्री उपनाम से लिखा तथा यह उपनाम उनके मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र के साथ मिलकर एकमेक हो गया। .

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निष्पादन कलाएँ

(परंपरागत शास्त्रीय सौंदर्य पर कोई समझौता समकालीन ध्यान मैच के लिए!) यह एक प्रवृत्ति किया गया है एक नहीं कर सकते हैं और भरतनाट्यम प्रशिक्षण और के माध्यम से ही "सामग्री" पेश प्रदर्शन और "समकालीन" भरतनाट्यम की बदल माध्यम के मार्ग की है कि उपेक्षा नहीं करता है। इस संदर्भ में, 'बदल मध्यम' भेजी जा करने के लिए संदेश को बदल सकते हैं, जो आंदोलनों, अभिव्यक्ति, सामान, वेशभूषा, संगीत, आदि में बदलाव शामिल कर सकते हैं। कलाकार या कोरियोग्राफर समकालीन चिंताओं-यह "नृत्य व्यक्त करने के लिए हैं और प्रभावित करने के लिए नहीं करने के लिए", कहा जाता है कि सूट करने के लिए अतीत की परंपरा के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए प्रयास करता है यह तथ्यात्मक रूप से भरतनाट्यम की प्रारंभिक मील के पत्थर सीधे "देवदासियों" ने प्रदर्शन किया नृत्य के साथ जुड़े थे कि गले लगा लिया गया है। नृत्य का यह रूप में बाद में भी भरतनाट्यम को कला के रूप में नाम दिया जो रुक्मिणी देवी अरुंडेल ने "पुनर्जीवित किया और महिमा" किया गया था। इस विकास अच्छी तरह अवधारणा "भरतनाट्यम की कंनटेंपोरैजिंग " के साथ इकुएतटड जा सकता है। इसे बदलने की मांग को पूरा करने के लिए आदि वेशभूषा, संगीत, सामान, प्रस्तुतियों, की तरह अलग अलग रूप में आकार ले लिया है, और भी जनता के आकर्षण का फायदा हुआ। इस माध्यम से, " जुगलबंदी 'के विचार एक झलक के लायक है। जुगलबंदी आम तौर पर प्रदर्शन कला में दो या दो से अधिक अलग शैलियों का सहयोग करने के लिए संदर्भित करता है, "माया रावण" और "कृष्णा" (प्रदर्शन) में प्रसिद्ध प्रदर्शन कलाकार, शोभना, एक " जुगलबंदी " अनुमान है। अपने संगीत के लिए सम्मान के साथ, सहायक निष्पादन संग पारंपरिक लाइव पश्चिमी धड़कन के साथ कर्नाटक लय के एक संलयन द्वारा बदल दिया गया था। कोरियोग्राफी के बारे में, शास्त्रीय नृत्य आंदोलनों जुगलबंदी अर्ध शास्त्रीय रूप में जाना जाता नृत्य की बोलचाल की भाषा में कहा जाता शैली, को खत्म विभिन्न नृत्य रूपों.

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न्यायशास्त्र (भारतीय)

कृपया भ्रमित न हों, यह लेख न्यायशास्त्र (jurisprudence) के बारे में नहीं है। ---- वह शास्त्र जिसमें किसी वस्तु के यथार्थ ज्ञान के लिये विचारों की उचित योजना का निरुपण होता है, न्यायशास्त्र कहलाता है। यह विवेचनपद्धति है। न्याय, छह भारतीय दर्शनों में से एक दर्शन है। न्याय विचार की उस प्रणाली का नाम है जिसमें वस्तुतत्व का निर्णय करने के लिए सभी प्रमाणों का उपयोग किया जाता है। वात्स्यायन ने न्यायदर्शन प्रथम सूत्र के भाष्य में "प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय" कह कर यही भाव व्यक्त किया है। भारत के विद्याविद् आचार्यो ने विद्या के चार विभाग बताए हैं- आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दंडनीति। आन्वीक्षिकी का अर्थ है- प्रत्यक्षदृष्ट तथा शास्त्रश्रुत विषयों के तात्त्विक रूप को अवगत करानेवाली विद्या। इसी विद्या का नाम है- न्यायविद्या या न्यायशास्त्र; जैसा कि वात्स्यायन ने कहा है: आन्वीक्षिकी में स्वयं न्याय का तथा न्यायप्रणाली से अन्य विषयों का अध्ययन होने के कारण उसे न्यायविद्या या न्यायशास्त्र कहा जाता है। आन्वीक्षिकी विद्याओं में सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। वात्स्यायन ने अर्थशास्त्राचार्य चाणक्य के निम्नलिखित वचन को उद्धृत कर आन्वीक्षिकी को समस्त विद्याओं का प्रकाशक, संपूर्ण कर्मों का साधक और समग्र धर्मों का आधार बताया है- न्याय के प्रवर्तक गौतम ऋषि मिथिला के निवासी कहे जाते हैं। गौतम के न्यायसूत्र अबतक प्रसिद्ध हैं। इन सूत्रों पर वात्स्यायन मुनि का भाष्य है। इस भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा है। वार्तिक की व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने 'न्यायवार्तिक तात्पर्य ठीका' के नाम से लिखी है। इस टीका की भी टीका उदयनाचार्य कृत 'ताप्तर्य-परिशुद्धि' है। इस परिशुद्धि पर वर्धमान उपाध्याय कृत 'प्रकाश' है। न्यायशास्त्र के विकास को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है - आद्यकाल, मध्यकाल तथा अंत्यकाल (1200 ई. से 1800 ई. तक का काल)। आद्यकाल का न्याय "प्राचीन न्याय", मध्यकाल का न्याय "सांप्रदायिक न्याय" (प्राचीन न्याय की उत्तर शाखा) और अंत्यकाल का न्याय "नव्यन्याय" कहा जाएगा।; विशेष "न्याय" शब्द से वे शब्दसमूह भी व्यवहृत होते हैं जो दूसरे पुरुष को अनुमान द्वारा किसी विषय का बोध कराने के लिए प्रयुक्त होते है। (देखिये न्याय (दृष्टांत वाक्य)) वात्स्यायन ने उन्हें "परम न्याय" कहा है और वाद, जल्प तथा वितंडा रूप विचारों का मूल एवं तत्त्वनिर्णय का आधार बताया है। (न्या.भा. 1 सूत्र) .

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नृत्य

भारतीय नृत्यनृत्य भी मानवीय अभिव्यक्तियों का एक रसमय प्रदर्शन है। यह एक सार्वभौम कला है, जिसका जन्म मानव जीवन के साथ हुआ है। बालक जन्म लेते ही रोकर अपने हाथ पैर मार कर अपनी भावाभिव्यक्ति करता है कि वह भूखा है- इन्हीं आंगिक -क्रियाओं से नृत्य की उत्पत्ति हुई है। यह कला देवी-देवताओं- दैत्य दानवों- मनुष्यों एवं पशु-पक्षियों को अति प्रिय है। भारतीय पुराणों में यह दुष्ट नाशक एवं ईश्वर प्राप्ति का साधन मानी गई है। अमृत मंथन के पश्चात जब दुष्ट राक्षसों को अमरत्व प्राप्त होने का संकट उत्पन्न हुआ तब भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अपने लास्य नृत्य के द्वारा ही तीनों लोकों को राक्षसों से मुक्ति दिलाई थी। इसी प्रकार भगवान शंकर ने जब कुटिल बुद्धि दैत्य भस्मासुर की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि वह जिसके ऊपर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाए- तब उस दुष्ट राक्षस ने स्वयं भगवान को ही भस्म करने के लिये कटिबद्ध हो उनका पीछा किया- एक बार फिर तीनों लोक संकट में पड़ गये थे तब फिर भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अपने मोहक सौंदर्यपूर्ण नृत्य से उसे अपनी ओर आकृष्ट कर उसका वध किया। भारतीय संस्कृति एवं धर्म की आरंभ से ही मुख्यत- नृत्यकला से जुड़े रहे हैं। देवेन्द्र इन्द्र का अच्छा नर्तक होना- तथा स्वर्ग में अप्सराओं के अनवरत नृत्य की धारणा से हम भारतीयों के प्राचीन काल से नृत्य से जुड़ाव की ओर ही संकेत करता है। विश्वामित्र-मेनका का भी उदाहरण ऐसा ही है। स्पष्ट ही है कि हम आरंभ से ही नृत्यकला को धर्म से जोड़ते आए हैं। पत्थर के समान कठोर व दृढ़ प्रतिज्ञ मानव हृदय को भी मोम सदृश पिघलाने की शक्ति इस कला में है। यही इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष है। जिसके कारण यह मनोरंजक तो है ही- धर्म- अर्थ- काम- मोक्ष का साधन भी है। स्व परमानंद प्राप्ति का साधन भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो यह कला-धारा पुराणों- श्रुतियों से होती हुई आज तक अपने शास्त्रीय स्वरूप में धरोहर के रूप में हम तक प्रवाहित न होती। इस कला को हिन्दु देवी-देवताओं का प्रिय माना गया है। भगवान शंकर तो नटराज कहलाए- उनका पंचकृत्य से संबंधित नृत्य सृष्टि की उत्पत्ति- स्थिति एवं संहार का प्रतीक भी है। भगवान विष्णु के अवतारों में सर्वश्रेष्ठ एवं परिपूर्ण कृष्ण नृत्यावतार ही हैं। इसी कारण वे 'नटवर' कृष्ण कहलाये। भारतीय संस्कृति एवं धर्म के इतिहास में कई ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि जिससे सफल कलाओं में नृत्यकला की श्रेष्ठता सर्वमान्य प्रतीत होती है। .

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पद्मनाभदत्त

आचार्य पद्मनाभदत्त एक वैयाकरण थे। पाणिनि के उत्तरवर्ती वैयाकरणों में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके द्वारा रचित 'सुपद्मव्याकरण' का व्याकरण ग्रन्थों में स्थान महत्त्वपूर्ण है। सुपद्मव्याकरण पाणिनीय अष्टाध्यायी के अनुकरण पर रचित एक लक्षण ग्रन्थ है। यह व्याकरण बंगाली वर्णमाला के अक्षरों में, विशेषकर बंगाल निवासियों के भाषाज्ञान के लिए लिखा है। पद्मनाभदत्त ने बंग प्रान्तीयों के लिए संस्कृत व्याकरण की जटिलता को दूर करके, सुगम्य बनाने के लिए बंगाली लिपि में सुपद्मव्याकरण की रचना की। इन्हों ने केवल व्याकरणिक ग्रन्थों का ही प्रणयन नहीं किया बल्कि साहित्यिक ग्रन्थों की भी रचना की। पद्मनाभदत्त का प्रमुख उद्देश्य संस्कृत व्याकरण का स्पष्ट तथा सरलतम ढंग से ज्ञान कराना तथा भाषा के विकास में आए नए-नए शब्दों का संस्कृतिकरण करना था, जो आज भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। .

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पारिस्थितिकी

260 px 95px 173px 115px 125px पारिस्थितिकी का वैज्ञानिक साम्राज्य वैश्विक प्रक्रियाओं (ऊपर), से सागरीय एवं पार्थिव सतही प्रवासियों (मध्य) से लेकर अन्तर्विशःइष्ट इंटरैक्शंस जैसे प्रिडेशन एवं परागण (नीचे) तक होता है। पारिस्थितिकी (अंग्रेज़ी:इकोलॉजी) जीवविज्ञान की एक शाखा है जिसमें जीव समुदायों का उसके वातावरण के साथ पारस्परिक संबंधों का अध्ययन करतें हैं। प्रत्येक जन्तु या वनस्पति एक निशिचत वातावरण में रहता है। पारिस्थितिज्ञ इस तथ्य का पता लगाते हैं कि जीव आपस में और पर्यावरण के साथ किस तरह क्रिया करते हैं और वह पृथ्वी पर जीवन की जटिल संरचना का पता लगाते हैं।। हिन्दुस्तान लाइव। २ मई २०१०। पारिस्थितिकी को एन्वायरनमेंटल बायोलॉजी भी कहा जाता है। इस विषय में व्यक्ति, जनसंख्या, समुदायों और इकोसिस्टम का अध्ययन होता है। इकोलॉजी अर्थात पारिस्थितिकी (जर्मन: Oekologie) शब्द का प्रथम प्रयोग १८६६ में जर्मन जीववैज्ञानिक अर्नेस्ट हैकल ने अपनी पुस्तक "जनरेल मोर्पोलॉजी देर ऑर्गैनिज़्मेन" में किया था। बीसवीं सदी के आरम्भ में मनुष्य और उसके पर्यावरण के बीच संबंधों पर अध्ययन प्रारंभ हुआ और एक साथ कई विषयों में इस ओर ध्यान दिया गया। परिणामस्वरूप मानव पारिस्थितिकी की संकलपना आयी। प्राकृतिक वातावरण बेहद जटिल है इसलिए शोधकर्ता अधिकांशत: किसी एक किस्म के प्राणियों की नस्ल या पौधों पर शोध करते हैं। उदाहरण के लिए मानवजाति धरती पर निर्माण करती है और वनस्पति पर भी असर डालती है। मनुष्य वनस्पति का कुछ भाग सेवन करते हैं और कुछ भाग बिल्कुल ही अनोपयोगी छोड़ देते हैं। वे पौधे लगातार अपना फैलाव करते रहते हैं। बीसवीं शताब्दी सदी में ये ज्ञात हुआ कि मनुष्यों की गतिविधियों का प्रभाव पृथ्वी और प्रकृति पर सर्वदा सकारात्मक ही नहीं पड़ता रहा है। तब मनुष्य पर्यावरण पर पड़ने वाले गंभीर प्रभाव के प्रति जागरूक हुए। नदियों में विषाक्त औद्योगिक कचरे का निकास उन्हें प्रदूषित कर रहा है, उसी तरह जंगल काटने से जानवरों के रहने का स्थान खत्म हो रहा है। पृथ्वी के प्रत्येक इकोसिस्टम में अनेक तरह के पौधे और जानवरों की प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनके अध्ययन से पारिस्थितिज्ञ किसी स्थान विशेष के इकोसिस्टम के इतिहास और गठन का पता लगाते हैं। इसके अतिरिक्त पारिस्थितिकी का अध्ययन शहरी परिवेश में भी हो सकता है। वैसे इकोलॉजी का अध्ययन पृथ्वी की सतह तक ही सीमित नहीं, समुद्री जनजीवन और जलस्रोतों आदि पर भी यह अध्ययन किया जाता है। समुद्री जनजीवन पर अभी तक अध्ययन बहुत कम हो पाया है, क्योंकि बीसवीं शताब्दी में समुद्री तह के बारे में नई जानकारियों के साथ कई पुराने मिथक टूटे और गहराई में अधिक दबाव और कम ऑक्सीजन पर रहने वाले जीवों का पता चला था। .

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पार्वती नदी

पार्वती नदी मध्य प्रदेश की नदी है, जिसे 'पारा' नाम से भी जाना जाता है। यह नदी विन्ध्याचल की पश्चिमी श्रेणियों से निकल कर ग्वालियर प्रदेश में बहती हुई सिन्ध (या काली सिन्ध) में मिल जाती है। पार्वती-सिन्धु संगम पर प्राचीन काल की प्रसिद्ध नगरी पद्मावती बसी हुई थी। महाकवि कालीदास के 'मेघदूत' की निर्विन्ध्या ही पार्वती नदी हो सकती है। पार्वती नदी का महाभारत, भीष्मपर्व में भी उल्लेख है। कुछ लोगों के मतानुसार निर्विन्ध्या वर्तमान नेवाज नदी है। .

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प्राचीन भारत

मानव के उदय से लेकर दसवीं सदी तक के भारत का इतिहास प्राचीन भारत का इतिहास कहलाता है। .

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प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी के साधन

यों तो भारत के प्राचीन साहित्य तथा दर्शन के संबंध में जानकारी के अनेक साधन उपलब्ध हैं, परन्तु भारत के प्राचीन इतिहास की जानकारी के साधन संतोषप्रद नहीं है। उनकी न्यूनता के कारण अति प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं शासन का क्रमवद्ध इतिहास नहीं मिलता है। फिर भी ऐसे साधन उपलब्ध हैं जिनके अध्ययन एवं सर्वेक्षण से हमें भारत की प्राचीनता की कहानी की जानकारी होती है। इन साधनों के अध्ययन के बिना अतीत और वर्तमान भारत के निकट के संबंध की जानकारी करना भी असंभव है। प्राचीन भारत के इतिहास की जानकारी के साधनों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- साहित्यिक साधन और पुरातात्विक साधन, जो देशी और विदेशी दोनों हैं। साहित्यिक साधन दो प्रकार के हैं- धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य। धार्मिक साहित्य भी दो प्रकार के हैं - ब्राह्मण ग्रन्थ और अब्राह्मण ग्रन्थ। ब्राह्मण ग्रन्थ दो प्रकार के हैं - श्रुति जिसमें वेद, ब्राह्मण, उपनिषद इत्यादि आते हैं और स्मृति जिसके अन्तर्गत रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतियाँ आदि आती हैं। लौकिक साहित्य भी चार प्रकार के हैं - ऐतिहासिक साहित्य, विदेशी विवरण, जीवनी और कल्पना प्रधान तथा गल्प साहित्य। पुरातात्विक सामग्रियों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है - अभिलेख, मुद्राएं तथा भग्नावशेष स्मारक। अधोलिखित तालिका इन स्रोत साधनों को अधिक स्पष्ट करती है-.

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प्राकृत साहित्य

मध्ययुगीन प्राकृतों का गद्य-पद्यात्मक साहित्य विशाल मात्रा में उपलब्ध है। सबसे प्राचीन वह अर्धमागधी साहित्य है जिसमें जैन धार्मिक ग्रंथ रचे गए हैं तथा जिन्हें समष्टि रूप से जैनागम या जैनश्रुतांग कहा जाता है। इस साहित्य की प्राचीन परंपरा यह है कि अंतिम जैन तीर्थंकर महावीर का विदेह प्रदेश में जन्म लगभग 600 ई. पूर्व हुआ। उन्होंने 30 वर्ष की अवस्था में मुनि दीक्षा ले ली और 12 वर्ष तप और ध्यान करके कैवल्यज्ञान प्राप्त किया। तत्पश्चात् उन्होने अपना धर्मोपदेश सर्वप्रथम राजगृह में और फिर अन्य नाना स्थानों में देकर जैन धर्म का प्रचार किया। उनके उपदेशों को उनके जीवनकाल में ही उनके शिष्यों ने 12 अंगों में संकलित किया। उनके नाम हैं- इन अंगों की भाषा वही अर्धमागधी प्राकृत है जिसमें महावीर ने अपने उपदेश दिए। संभवत: यह आगम उस समय लिपिबद्ध नहीं किया गया एवं गुरु-शिष्य परंपरा से मौखिक रूप में प्रचलित रहा और यही उसके श्रुतांग कहलाने की सार्थकता है। महावीर का निर्वाण 72 वर्ष की अवस्था में ई. पू.

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बर्मी साहित्य

अन्य देशों की भाँति बर्मा का भी अपना साहित्य है जो अपने में पूर्ण एवं समृद्ध है। बर्मी साहित्य का अभ्युदय प्राय: काव्यकला को प्रोत्साहन देनेवाले राजाओं के दरबार में हुआ है इसलिए बर्मी साहित्य के मानवी कवियों का संबंध वैभवशाली महीपालों के साथ स्थापित है। राजसी वातावरण में अभ्युदय एवं प्रसार पाने के कारण बर्मी साहित्य अत्यंत सुश्लिष्ट तथा प्रभावशाली हो गया है। बर्मी साहित्य के अंतर्गत बुद्धवचन (त्रिपिटक), अट्टकथा तथा टीका ग्रंथों के अनुवाद सम्मिलित हैं। बर्मी भाषा में गद्य और पद्य दोनों प्रकार की साहित्य विधाएँ मौलिक रूप से मिलती हैं। इसमें आयुर्वेदिक ग्रंथों के अनुवाद भी हैं। पालि साहित्य के प्रभाव से इसकी शैली भारतीय है तथा बोली अपनी है। पालि के पारिभाषिक तथा मौलिक शब्द इस भाषा में बर्मीकृत रूप में पाए जाते हैं। रस, छंद और अलंकारों की योजना पालि एवं संस्कृत से प्रभावित है। बर्मी साहित्य के विकास को दृष्टि में रखकर विद्वानों ने इसे नौ कालों में विभाजित किया है, जिसमें प्रत्येक युग के साहित्य की अपनी विशेषता है। .

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बाणभट्ट

बाणभट्ट सातवीं शताब्दी के संस्कृत गद्य लेखक और कवि थे। वह राजा हर्षवर्धन के आस्थान कवि थे। उनके दो प्रमुख ग्रंथ हैं: हर्षचरितम् तथा कादम्बरी। हर्षचरितम्, राजा हर्षवर्धन का जीवन-चरित्र था और कादंबरी दुनिया का पहला उपन्यास था। कादंबरी पूर्ण होने से पहले ही बाणभट्ट जी का देहांत हो गया तो उपन्यास पूरा करने का काम उनके पुत्र भूषणभट्ट ने अपने हाथ में लिया। दोनों ग्रंथ संस्कृत साहित्य के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माने जाते है। .

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बिजनौर

बिजनौर भारत के उत्तर प्रदेश का एक प्रमुख शहर एवं लोकसभा क्षेत्र है। हिमालय की उपत्यका में स्थित बिजनौर को जहाँ एक ओर महाराजा दुष्यन्त, परमप्रतापी सम्राट भरत, परमसंत ऋषि कण्व और महात्मा विदुर की कर्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है, वहीं आर्य जगत के प्रकाश स्तम्भ स्वामी श्रद्धानन्द, अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिक डॉ॰ आत्माराम, भारत के प्रथम इंजीनियर राजा ज्वालाप्रसाद आदि की जन्मभूमि होने का सौभाग्य भी प्राप्त है। साहित्य के क्षेत्र में जनपद ने कई महत्त्वपूर्ण मानदंड स्थापित किए हैं। कालिदास का जन्म भले ही कहीं और हुआ हो, किंतु उन्होंने इस जनपद में बहने वाली मालिनी नदी को अपने प्रसिद्ध नाटक 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' का आधार बनाया। अकबर के नवरत्नों में अबुल फ़जल और फैज़ी का पालन-पोषण बास्टा के पास हुआ। उर्दू साहित्य में भी जनपद बिजनौर का गौरवशाली स्थान रहा है। क़ायम चाँदपुरी को मिर्ज़ा ग़ालिब ने भी उस्ताद शायरों में शामिल किया है। नूर बिजनौरी जैसे विश्वप्रसिद्ध शायर इसी मिट्टी से पैदा हुए। महारनी विक्टोरिया के उस्ताद नवाब शाहमत अली भी मंडावर,बिजनौर के निवासी थे, जिन्होंने महारानी को फ़ारसी की पढ़ाया। संपादकाचार्य पं. रुद्रदत्त शर्मा, बिहारी सतसई की तुलनात्मक समीक्षा लिखने वाले पं. पद्मसिंह शर्मा और हिंदी-ग़ज़लों के शहंशाह दुष्यंत कुमार,विख्यात क्रांतिकारी चौधरी शिवचरण सिंह त्यागी, पैजनियां - भी बिजनौर की धरती की देन हैं। वर्तमान में महेन्‍द्र अश्‍क देश विदेश में उर्दू शायरी के लिए विख्‍यात हैं। धामपुर तहसील के अन्‍तर्गत ग्राम किवाड में पैदा हुए महेन्‍द्र अश्‍क आजकल नजीबाबाद में निवास कर रहे हैं। .

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बंगाली साहित्य

बँगला भाषा का साहित्य स्थूल रूप से तीन भागों में बाँटा जा सकता है - 1.

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बृहतत्रयी (संस्कृत महाकाव्य)

बृहत्त्रयी के अंतर्गत तीन महाकाव्य आते हैं - "किरातार्जुनीय" "शिशुपालवध" और "नैषधीयचरित"। भामह और दंडी द्वारा परिभाषित महाकाव्य लक्षण की रूढ़ियों के अनुरूप निर्मित होने वाले मध्ययुग के अलंकरण प्रधान संस्कृत महाकाव्यों में ये तीनों कृतियाँ अत्यंत विख्यात और प्रतिष्ठाभाजन बनीं। कालिदास के काव्यों में कथावस्तु की प्रवाहमयी जो गतिमत्ता है, मानवमन के भावपक्ष की जो सहज, पर प्रभावकारी अभिव्यक्ति है, इतिवृत्ति के चित्रफलक (कैन्वैस) की जो व्यापकता है - इन काव्यों में उनकी अवहेलना लक्षित होती है। छोटे छोटे वर्ण्य वृत्तों को लेकर महाकाव्य रूढ़ियों के विस्तृत वर्णनों और कलात्मक, आलंकारिक और शास्त्रीय उक्तियों एवं चमत्कारमयी अभिव्यक्तियों द्वारा काव्य की आकारमूर्ति को इनमें विस्तार मिला है। किरातार्जुनीय, शिशुपालवध और नैषधीयचरित में इन प्रवृत्तियों का क्रमश: अधिकाधिक विकास होता गया है। इसी से कुछ पंडित, इस हर्षवर्धनोत्तर संस्कृत साहित्य को काव्यसर्जन की दृष्टि से "ह्रासोन्मुखयुगीन" मानते हैं। परंतु कलापक्षीय काव्यपरंपरा की रूढ़ रीतियों का पक्ष इन काव्यों में बड़े उत्कर्ष के साथ प्रकट हुआ। इन काव्यों में भाषा की कलात्मकता, शब्दार्थलंकारों के गुंफन द्वारा उक्तिगत चमत्कारसर्जन, चित्र और श्लिष्ट काव्यविधान का सायास कौशल, विविध विहारकेलियों और वर्णनों का संग्रथन आदि काव्य के रूढ़रूप और कलापक्षीय प्रौढ़ता के निदर्शक हैं। इनमें शृंगाररस की वैलासिक परिधि के वर्णनों का रंग असंदिग्ध रूप से पर्याप्त चटकीला है। हृदय के भावप्रेरित, अनुभूतिबोध की सहज की अपेक्षा, वासनामूलक ऐंद्रिय विलासिता का अधिक उद्वेलन है। फिर पांडित्य की प्रौढ़ता, उक्ति की प्रगल्भता और अभिव्यक्तिशिलप की शक्तिमत्ता ने इनकी काव्यप्रतिभा को दीप्तिमय बना दिया है। साहित्यक्षेत्र का पंडित बनने के लिए इनका अध्ययन अनिवार्य माना गया है। .

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भारत के राष्‍ट्रीय चिन्ह

Indian Signs .

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भारत की संस्कृति

कृष्णा के रूप में नृत्य करते है भारत उपमहाद्वीप की क्षेत्रीय सांस्कृतिक सीमाओं और क्षेत्रों की स्थिरता और ऐतिहासिक स्थायित्व को प्रदर्शित करता हुआ मानचित्र भारत की संस्कृति बहुआयामी है जिसमें भारत का महान इतिहास, विलक्षण भूगोल और सिन्धु घाटी की सभ्यता के दौरान बनी और आगे चलकर वैदिक युग में विकसित हुई, बौद्ध धर्म एवं स्वर्ण युग की शुरुआत और उसके अस्तगमन के साथ फली-फूली अपनी खुद की प्राचीन विरासत शामिल हैं। इसके साथ ही पड़ोसी देशों के रिवाज़, परम्पराओं और विचारों का भी इसमें समावेश है। पिछली पाँच सहस्राब्दियों से अधिक समय से भारत के रीति-रिवाज़, भाषाएँ, प्रथाएँ और परंपराएँ इसके एक-दूसरे से परस्पर संबंधों में महान विविधताओं का एक अद्वितीय उदाहरण देती हैं। भारत कई धार्मिक प्रणालियों, जैसे कि हिन्दू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म जैसे धर्मों का जनक है। इस मिश्रण से भारत में उत्पन्न हुए विभिन्न धर्म और परम्पराओं ने विश्व के अलग-अलग हिस्सों को भी बहुत प्रभावित किया है। .

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भारतीय लोकनाट्य

भारत में नाट्य की परंपरा अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है। भरत मुनि ने (ई.पू. तृतीय शताब्दी) अपने नाट्यशास्त्र में इस विषय का विशद वर्णन किया है। इसे अतिरिक्त धनंजयकृत 'दशरूपक' में तथा विश्वनाथ कविराजविरचित 'साहित्यदर्पण' में भी एतत्संबंधी बहुमूल्य सामग्री उपलब्ध है, परंतु नाट्यशास्त्र ही नाट्यविद्या का सबसे मौलिक तथा स्रोतग्रंथ माना जाता है। .

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भारतीय साहित्य

भारतीय साहित्य से तात्पर्य सन् १९४७ के पहले तक भारतीय उपमहाद्वीप एवं तत्पश्चात् भारत गणराज्य में निर्मित वाचिक और लिखित साहित्य से होता है। दुनिया में सबसे पुराना वाचिक साहित्य हमें आदिवासी भाषाओं में मिलता है। इस दृष्टि से सभी साहित्य का मूल स्रोत है। भारतीय गणराज्य में 22 आधिकारिक मान्यता प्राप्त भाषाएँ है। जिनमें मात्र 2 आदिवासी भाषाओं - संथाली और बोड़ो - को ही शामिल किया गया है। .

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भारतीय सिनेमा

भारतीय सिनेमा के अन्तर्गत भारत के विभिन्न भागों और भाषाओं में बनने वाली फिल्में आती हैं जिनमें आंध्र प्रदेश और तेलंगाना, असम, बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, जम्मू एवं कश्मीर, झारखंड, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और बॉलीवुड शामिल हैं। भारतीय सिनेमा ने २०वीं सदी की शुरुआत से ही विश्व के चलचित्र जगत पर गहरा प्रभाव छोड़ा है।। भारतीय फिल्मों का अनुकरण पूरे दक्षिणी एशिया, ग्रेटर मध्य पूर्व, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व सोवियत संघ में भी होता है। भारतीय प्रवासियों की बढ़ती संख्या की वजह से अब संयुक्त राज्य अमरीका और यूनाइटेड किंगडम भी भारतीय फिल्मों के लिए एक महत्वपूर्ण बाजार बन गए हैं। एक माध्यम(परिवर्तन) के रूप में सिनेमा ने देश में अभूतपूर्व लोकप्रियता हासिल की और सिनेमा की लोकप्रियता का इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यहाँ सभी भाषाओं में मिलाकर प्रति वर्ष 1,600 तक फिल्में बनी हैं। दादा साहेब फाल्के भारतीय सिनेमा के जनक के रूप में जाना जाते हैं। दादा साहब फाल्के के भारतीय सिनेमा में आजीवन योगदान के प्रतीक स्वरुप और 1969 में दादा साहब के जन्म शताब्दी वर्ष में भारत सरकार द्वारा दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की स्थापना उनके सम्मान में की गयी। आज यह भारतीय सिनेमा का सबसे प्रतिष्ठित और वांछित पुरस्कार हो गया है। २०वीं सदी में भारतीय सिनेमा, संयुक्त राज्य अमरीका का सिनेमा हॉलीवुड तथा चीनी फिल्म उद्योग के साथ एक वैश्विक उद्योग बन गया।Khanna, 155 2013 में भारत वार्षिक फिल्म निर्माण में पहले स्थान पर था इसके बाद नाइजीरिया सिनेमा, हॉलीवुड और चीन के सिनेमा का स्थान आता है। वर्ष 2012 में भारत में 1602 फ़िल्मों का निर्माण हुआ जिसमें तमिल सिनेमा अग्रणी रहा जिसके बाद तेलुगु और बॉलीवुड का स्थान आता है। भारतीय फ़िल्म उद्योग की वर्ष 2011 में कुल आय $1.86 अरब (₹ 93 अरब) की रही। जिसके वर्ष 2016 तक $3 अरब (₹ 150 अरब) तक पहुँचने का अनुमान है। बढ़ती हुई तकनीक और ग्लोबल प्रभाव ने भारतीय सिनेमा का चेहरा बदला है। अब सुपर हीरो तथा विज्ञानं कल्प जैसी फ़िल्में न केवल बन रही हैं बल्कि ऐसी कई फिल्में एंथीरन, रा.वन, ईगा और कृष 3 ब्लॉकबस्टर फिल्मों के रूप में सफल हुई है। भारतीय सिनेमा ने 90 से ज़्यादा देशों में बाजार पाया है जहाँ भारतीय फिल्मे प्रदर्शित होती हैं। Khanna, 158 सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, अडूर गोपालकृष्णन, बुद्धदेव दासगुप्ता, जी अरविंदन, अपर्णा सेन, शाजी एन करुण, और गिरीश कासरावल्ली जैसे निर्देशकों ने समानांतर सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और वैश्विक प्रशंसा जीती है। शेखर कपूर, मीरा नायर और दीपा मेहता सरीखे फिल्म निर्माताओं ने विदेशों में भी सफलता पाई है। 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रावधान से 20वीं सेंचुरी फॉक्स, सोनी पिक्चर्स, वॉल्ट डिज्नी पिक्चर्स और वार्नर ब्रदर्स आदि विदेशी उद्यमों के लिए भारतीय फिल्म बाजार को आकर्षक बना दिया है। Khanna, 156 एवीएम प्रोडक्शंस, प्रसाद समूह, सन पिक्चर्स, पीवीपी सिनेमा,जी, यूटीवी, सुरेश प्रोडक्शंस, इरोज फिल्म्स, अयनगर्न इंटरनेशनल, पिरामिड साइमिरा, आस्कार फिल्म्स पीवीआर सिनेमा यशराज फिल्म्स धर्मा प्रोडक्शन्स और एडलैब्स आदि भारतीय उद्यमों ने भी फिल्म उत्पादन और वितरण में सफलता पाई। मल्टीप्लेक्स के लिए कर में छूट से भारत में मल्टीप्लेक्सों की संख्या बढ़ी है और फिल्म दर्शकों के लिए सुविधा भी। 2003 तक फिल्म निर्माण / वितरण / प्रदर्शन से सम्बंधित 30 से ज़्यादा कम्पनियां भारत के नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध की गयी थी जो फिल्म माध्यम के बढ़ते वाणिज्यिक प्रभाव और व्यसायिकरण का सबूत हैं। दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग दक्षिण भारत की चार फिल्म संस्कृतियों को एक इकाई के रूप में परिभाषित करता है। ये कन्नड़ सिनेमा, मलयालम सिनेमा, तेलुगू सिनेमा और तमिल सिनेमा हैं। हालाँकि ये स्वतंत्र रूप से विकसित हुए हैं लेकिन इनमे फिल्म कलाकारों और तकनीशियनों के आदान-प्रदान और वैष्वीकरण ने इस नई पहचान के जन्म में मदद की। भारत से बाहर निवास कर रहे प्रवासी भारतीय जिनकी संख्या आज लाखों में हैं, उनके लिए भारतीय फिल्में डीवीडी या व्यावसायिक रूप से संभव जगहों में स्क्रीनिंग के माध्यम से प्रदर्शित होती हैं। Potts, 74 इस विदेशी बाजार का भारतीय फिल्मों की आय में 12% तक का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। इसके अलावा भारतीय सिनेमा में संगीत भी राजस्व का एक साधन है। फिल्मों के संगीत अधिकार एक फिल्म की 4 -5 % शुद्ध आय का साधन हो सकते हैं। .

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भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष

3 मई 2013 (शुक्रवार) को भारतीय सिनेमा पूरे सौ साल का हो गया। किसी भी देश में बनने वाली फिल्में वहां के सामाजिक जीवन और रीति-रिवाज का दर्पण होती हैं। भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में हम भारतीय समाज के विभिन्न चरणों का अक्स देख सकते हैं।उल्लेखनीय है कि इसी तिथि को भारत की पहली फीचर फ़िल्म “राजा हरिश्चंद्र” का रुपहले परदे पर पदार्पण हुआ था। इस फ़िल्म के निर्माता भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहब फालके थे। एक सौ वर्षों की लम्बी यात्रा में हिन्दी सिनेमा ने न केवल बेशुमार कला प्रतिभाएं दीं बल्कि भारतीय समाज और चरित्र को गढ़ने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। .

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भारतीय संगीत का इतिहास

पाँच गन्धर्व (चौथी-पाँचवीं शताब्दी, भारत के उत्तर-पश्चिम भाग से प्राप्त) प्रगैतिहासिक काल से ही भारत में संगीत कीसमृद्ध परम्परा रही है। गिने-चुने देशों में ही संगीत की इतनी पुरानी एवं इतनी समृद्ध परम्परा पायी जाती है। माना जाता है कि संगीत का प्रारम्भ सिंधु घाटी की सभ्यता के काल में हुआ हालांकि इस दावे के एकमात्र साक्ष्य हैं उस समय की एक नृत्य बाला की मुद्रा में कांस्य मूर्ति और नृत्य, नाटक और संगीत के देवता रूद्र अथवा शिव की पूजा का प्रचलन। सिंधु घाटी की सभ्यता के पतन के पश्चात् वैदिक संगीत की अवस्था का प्रारम्भ हुआ जिसमें संगीत की शैली में भजनों और मंत्रों के उच्चारण से ईश्वर की पूजा और अर्चना की जाती थी। इसके अतिरिक्त दो भारतीय महाकाव्यों - रामायण और महाभारत की रचना में संगीत का मुख्य प्रभाव रहा। भारत में सांस्कृतिक काल से लेकर आधुनिक युग तक आते-आते संगीत की शैली और पद्धति में जबरदस्त परिवर्तन हुआ है। भारतीय संगीत के इतिहास के महान संगीतकारों जैसे कि स्वामी हरिदास, तानसेन, अमीर खुसरो आदि ने भारतीय संगीत की उन्नति में बहुत योगदान किया है जिसकी कीर्ति को पंडित रवि शंकर, भीमसेन गुरूराज जोशी, पंडित जसराज, प्रभा अत्रे, सुल्तान खान आदि जैसे संगीत प्रेमियों ने आज के युग में भी कायम रखा हुआ है। भारतीय संगीत में यह माना गया है कि संगीत के आदि प्रेरक शिव और सरस्वती है। इसका तात्पर्य यही जान पड़ता है कि मानव इतनी उच्च कला को बिना किसी दैवी प्रेरणा के, केवल अपने बल पर, विकसित नहीं कर सकता। .

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भारतीय व्यक्तित्व

यहाँ पर भारत के विभिन्न भागों एवं विभिन्न कालों में हुए प्रसिद्ध व्यक्तियों की सूची दी गयी है। .

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भारतीय आम

आम अत्यंत उपयोगी, दीर्घजीवी, सघन तथा विशाल वृक्ष है, जो भारत में दक्षिण में कन्याकुमारी से उत्तर में हिमालय की तराई तक (3,000 फुट की ऊँचाई तक) तथा पश्चिम में पंजाब से पूर्व में आसाम तक, अधिकता से होता है। अनुकूल जलवायु मिलने पर इसका वृक्ष 50-60 फुट की ऊँचाई तक पहुँच जाता है। वनस्पति वैज्ञानिक वर्गीकरण के अनुसार आम ऐनाकार्डियेसी कुल का वृक्ष है। आम के कुछ वृक्ष बहुत ही बड़े होते हैं। .

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भारतीय इतिहास तिथिक्रम

भारत के इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाएं तिथिक्रम में।;भारत के इतिहास के कुछ कालखण्ड.

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भारतीय कवियों की सूची

इस सूची में उन कवियों के नाम सम्मिलित किये गये हैं जो.

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भारतीय छन्दशास्त्र

छन्द शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है। "छन्दस" वेद का पर्यायवाची नाम है। सामान्यतः वर्णों और मात्राओं की गेयव्यवस्था को छन्द कहा जाता है। इसी अर्थ में पद्य शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। पद्य अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। भाषा में शब्द और शब्दों में वर्ण तथा स्वर रहते हैं। इन्हीं को एक निश्चित विधान से सुव्यवस्थित करने पर छन्द का नाम दिया जाता है। छन्दशास्त्र इसलिये अत्यन्त पुष्ट शास्त्र माना जाता है क्योंकि वह गणित पर आधारित है। वस्तुत: देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि छंदशास्त्र की रचना इसलिये की गई जिससे अग्रिम संतति इसके नियमों के आधार पर छंदरचना कर सके। छंदशास्त्र के ग्रंथों को देखने से यह भी ज्ञात होता है कि जहाँ एक ओर आचार्य प्रस्तारादि के द्वारा छंदो को विकसित करते रहे वहीं दूसरी ओर कविगण अपनी ओर से छंदों में किंचित् परिर्वन करते हुए नवीन छंदों की सृष्टि करते रहे जिनका छंदशास्त्र के ग्रथों में कालांतर में समावेश हो गया। .

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भास

भास संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध नाटककार थे जिनके जीवनकाल के बारे में अधिक पता नहीं है। स्वप्नवासवदत्ता उनके द्वारा लिखित सबसे चर्चित नाटक है जिसमें एक राजा के अपने रानी के प्रति अविरहनीय प्रेम और पुनर्मिलन की कहानी है। कालिदास जो गुप्तकालीन समझे जाते हैं, ने भास का नाम अपने नाटक में लिया है, जिससे लगता है कि वो गुप्तकाल से पहले रहे होंगे पर इससे भी उनके जीवनकाल का अधिक ठोस प्रमाण नहीं मिलता। आज कई नाटकों में उनका नाम लेखक के रूप में उल्लिखित है पर १९१२ में त्रिवेंद्रम में गणपति शास्त्री ने नाटकों की लेखन शैली में समानता देखकर उन्हें भास-लिखित बताया। इससे पहले भास का नाम संस्कृत नाटककार के रूप में विस्मृत हो गया था। .

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भवभूति

भवभूति, संस्कृत के महान कवि एवं सर्वश्रेष्ठ नाटककार थे। उनके नाटक, कालिदास के नाटकों के समतुल्य माने जाते हैं। भवभूति ने अपने संबंध में महावीरचरित्‌ की प्रस्तावना में लिखा है। ये विदर्भ देश के 'पद्मपुर' नामक स्थान के निवासी श्री भट्टगोपाल के पुत्र थे। इनके पिता का नाम नीलकंठ और माता का नाम जतुकर्णी था। इन्होंने अपना उल्लेख 'भट्टश्रीकंठ पछलांछनी भवभूतिर्नाम' से किया है। इनके गुरु का नाम 'ज्ञाननिधि' था। मालतीमाधव की पुरातन प्रति में प्राप्त 'भट्ट श्री कुमारिल शिष्येण विरचित मिंद प्रकरणम्‌' तथा 'भट्ट श्री कुमारिल प्रसादात्प्राप्त वाग्वैभवस्य उम्बेकाचार्यस्येयं कृति' इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि श्रीकंठ के गुरु कुमारिल थे जिनका 'ज्ञाननिधि' भी नाम था और भवभूति ही मीमांसक उम्बेकाचार्य थे जिनका उल्लेख दर्शन ग्रंथों में प्राप्त होता है और इन्होंने कुमारिल के श्लोकवार्तिक की टीका भी की थी। संस्कृत साहित्य में महान्‌ दार्शनिक और नाटककार होने के नाते ये अद्वितीय हैं। पांडित्य और विदग्धता का यह अनुपम योग संस्कृत साहित्य में दुर्लभ है। शंकरदिग्विजय से ज्ञात होता है कि उम्बेक, मंडन सुरेश्वर, एक ही व्यक्ति के नाम थे। भवभूति का एक नाम 'उम्बेक' प्राप्त होता है अत: नाटककार भवभूति, मीमांसक उम्बेक और अद्वैतमत में दीक्षित सुरेश्वराचार्य एक ही हैं, ऐसा कुछ विद्वानों का मत है। राजतरंगिणी के उल्लेख से इनका समय एक प्रकार से निश्चित सा है। ये कान्यकुब्ज के नरेश यशोवर्मन के सभापंडित थे, जिन्हें ललितादित्य ने पराजित किया था। 'गउडवहो' के निर्माता वाक्यपतिराज भी उसी दरबार में थे अत: इनका समय आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध सिद्ध होता है। .

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भृङ्गदूतम्

भृंगदूतम् (२००४), (शब्दार्थ:भ्रमर दूत)) जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा दूतकाव्य शैली में रचित एक संस्कृत खण्डकाव्य है। काव्य दो भागों में विभक्त है और इसमें मन्दाक्रान्ता छंद में रचित ५०१ श्लोक हैं। काव्य की कथा रामायण के किष्किन्धाकाण्ड की पृष्ठभूमि पर आधारित है, जिसमें भगवान राम वर्षा ऋतु के चार महीने किष्किन्धा में स्थित प्रवर्षण पर्वत पर सीता के विरह में व्यतीत करते हैं। प्रस्तुत खण्डकाव्य में राम इस अवधि में अपनी पत्नी, सीता, जो की रावण द्वारा लंका में बंदी बना ली गई हैं, को स्मरण करते हुए एक भ्रमर (भौंरा) को दूत बनाकर सीता के लिए संदेश प्रेषित करते हैं। काव्य की एक प्रति स्वयं कवि द्वारा रचित "गुंजन" नामक हिन्दी टीका के साथ, जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन ३० अगस्त २००४ को किया गया था। .

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भोजप्रबन्ध

भोजप्रबंध संस्कृत लोकसाहित्य का एक अनुपम ग्रंथ है। यह बल्लाल की कृति है। इसकी रचना गद्यपद्यात्मक है। इसमें महाराज धारेश्वर भोज की राजसभा के कई सुंदर कथानक है। यद्यपि इन कथानकों की ऐतिहासिक प्रामाणिकता पूर्ण रूप से स्वीकृत नहीं की जा सकती, तथापि यह ग्रंथ 11वीं शताब्दी ईसवी में वर्तमान जनजीवन पर प्रकाश डालने में बहुत कुछ समर्थ है। विद्याव्यासंगी स्वयं कविपंडित नरेश के होने पर किस प्रकार राजसभा में आस्थानपंडितों की मंडली तथा आगंतुक कविगण नित्य काव्यशास्त्र के विनोद द्वारा कालक्षेप करते थे, इसकी झाँकी इस ग्रंथ में प्रति पद पर मिलती है। दानवीर महाराज भोज किस प्रकार कवियों का सम्मान करते थे, इसका आदर्श इस ग्रंथ में मिलता है। .

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मथुरानाथ तर्कवागीश

मथुरानाथ तर्कवागीश नवद्वीप के विद्वन्मुकुट नैयायिक थे। इनके विशिष्ट पांडित्य के संमान में इन्हें "तर्कवागीश" कहा जाता था, इन्होंने "तत्त्वचिंतामणि" पर "रहस्य" नामक टीका की रचना की है। सचमुच "रहस्य" के बिना तत्वचिंतामणि के अनेक स्थान रहस्य ही रह जाते हैं। इन्हें 16वीं शाताब्दी में विद्यमान माना जाता है। .

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मध्य प्रदेश

मध्य प्रदेश भारत का एक राज्य है, इसकी राजधानी भोपाल है। मध्य प्रदेश १ नवंबर, २००० तक क्षेत्रफल के आधार पर भारत का सबसे बड़ा राज्य था। इस दिन एवं मध्यप्रदेश के कई नगर उस से हटा कर छत्तीसगढ़ की स्थापना हुई थी। मध्य प्रदेश की सीमाऐं पांच राज्यों की सीमाओं से मिलती है। इसके उत्तर में उत्तर प्रदेश, पूर्व में छत्तीसगढ़, दक्षिण में महाराष्ट्र, पश्चिम में गुजरात, तथा उत्तर-पश्चिम में राजस्थान है। हाल के वर्षों में राज्य के सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर राष्ट्रीय औसत से ऊपर हो गया है। खनिज संसाधनों से समृद्ध, मध्य प्रदेश हीरे और तांबे का सबसे बड़ा भंडार है। अपने क्षेत्र की 30% से अधिक वन क्षेत्र के अधीन है। इसके पर्यटन उद्योग में काफी वृद्धि हुई है। राज्य में वर्ष 2010-11 राष्ट्रीय पर्यटन पुरस्कार जीत लिया। .

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मध्य प्रदेश का पर्यटन

मध्य प्रदेश भारत के ठीक मध्य में स्थित है। अधिकतर पठारी हिस्से में बसे मध्यप्रदेश में विन्ध्य और सतपुडा की पर्वत श्रृखंलाएं इस प्रदेश को रमणीय बनाती हैं। ये पर्वत श्रृखंलाएं हैं कई नदियों के उद्गम स्थलों को जन्म देती हैं, ताप्ती, नर्मदा,चम्बल, सोन,बेतवा, महानदी जो यहां से निकल भारत के कई प्रदेशों में बहती हैं। इस वैविध्यपूर्ण प्राकृतिक देन की वजह से मध्यप्रदेश एक बेहद खूबसूरत हर्राभरा हिस्सा बन कर उभरता है। जैसे एक हरे पत्ते पर ओस की बूंदों सी झीलें, एक दूसरे को काटकर गुजरती पत्ती की शिराओं सी नदियां। इतना ही विहंगम है मध्य प्रदेश जहां, पर्यटन की अपार संभावनायें हैं। हालांकि 1956 में मध्यप्रदेश भारत के मानचित्र पर एक राज्य बनकर उभरा था, किन्तु यहां की संस्कृति प्राचीन और ऐतिहासिक है। असंख्य ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहरें विशेषत: उत्कृष्ट शिल्प और मूर्तिकला से सजे मंदिर, स्तूप और स्थापत्य के अनूठे उदाहरण यहां के महल और किले हमें यहां उत्पन्न हुए महान राजाओं और उनके वैभवशाली काल तथा महान योध्दाओं, शिल्पकारों, कवियों, संगीतज्ञों के साथ-साथ हिन्दु, मुस्लिम,जैन और बौध्द धर्म के साधकों की याद दिलाते हैं। भारत के अमर कवि, नाटककार कालिदास और प्रसिध्द संगीतकार तानसेन ने इस उर्वर धरा पर जन्म ले इसका गौरव बढाया है। मध्यप्रदेश का एक तिहाई हिस्सा वन संपदा के रूप में संरक्षित है। जहां पर्यटक वन्यजीवन को पास से जानने का अदभुत अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। कान्हा नेशनल पार्क,बांधवगढ़, शिवपुरी आदि ऐसे स्थान हैं जहां आप बाघ, जंगली भैंसे, हिरणों, बारहसिंघों को स्वछंद विचरते देख पाने का दुर्लभ अवसर प्राप्त कर सकते हैं। मध्यप्रदेश के हर इलाके की अपनी संस्कृति है और अपनी धार्मिक परम्पराएं हैं जो उनके उत्सवों और मेलों में अपना रंग भरती हैं। खजुराहो का वार्षिक नृत्यउत्सव पर्यटकों को बहुत लुभाता है और ओरछा और पचमढी क़े उत्सव वहा/ कि समृध्द लोक और आदिवासी संस्कृति को सजीव बनाते हैं। मध्यप्रदेश की व्यापकता और विविधता को खयाल में रख हम इसे पर्यटन की सुविधानुसार पांच भागों में बांट सकते र्हैं मध्य प्रदेश राज्य में अत्यधिक पर्यटन स्थल हैं। .

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महर्षि दुर्वासा

हिंदूधर्म में, दुर्वासा एक ऋषि हैं, जो अत्रि और अनसुइया की संतान थे। दुर्वासा शिव के अवतार माने जाते हैं। दुर्वासा अपने क्रोध के कारण मशहूर थे। उन्होंने अपने शाप से कई लोगों की जिंदगी तबाह कर दी.

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महाभारत के विभिन्न संस्करण

महाभारत सर्वप्रथम महामुनि व्यास की रचना के रूप में प्रसिद्ध है। महामुनि व्यास से लेकर अब तक अनेक लेखकों द्वारा अनेक रूपों में महाभारत की रचना होती रही है। यह विभिन्न भाषाओं तथा साहित्य के विभिन्न रूपों काव्य, महाकाव्य, नाटक, चम्पू आदि के रूप में रचित होते रहा है। .

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महावीर प्रसाद द्विवेदी

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (1864–1938) हिन्दी के महान साहित्यकार, पत्रकार एवं युगप्रवर्तक थे। उन्होने हिंदी साहित्य की अविस्मरणीय सेवा की और अपने युग की साहित्यिक और सांस्कृतिक चेतना को दिशा और दृष्टि प्रदान की। उनके इस अतुलनीय योगदान के कारण आधुनिक हिंदी साहित्य का दूसरा युग 'द्विवेदी युग' (1900–1920) के नाम से जाना जाता है। उन्होने सत्रह वर्ष तक हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका सरस्वती का सम्पादन किया। हिन्दी नवजागरण में उनकी महान भूमिका रही। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को गति व दिशा देने में भी उनका उल्लेखनीय योगदान रहा। .

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महाकाव्य

संस्कृत काव्यशास्त्र में महाकाव्य (एपिक) का प्रथम सूत्रबद्ध लक्षण आचार्य भामह ने प्रस्तुत किया है और परवर्ती आचार्यों में दंडी, रुद्रट तथा विश्वनाथ ने अपने अपने ढंग से इस महाकाव्य(एपिक)सूत्रबद्ध के लक्षण का विस्तार किया है। आचार्य विश्वनाथ का लक्षण निरूपण इस परंपरा में अंतिम होने के कारण सभी पूर्ववर्ती मतों के सारसंकलन के रूप में उपलब्ध है।महाकाव्य में भारत को भारतवर्ष अथवा भरत का देश कहा गया है तथा भारत निवासियों को भारती अथवा भरत की संतान कहा गया है .

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मालविकाग्निमित्रम्

मालविकाग्निमित्रम् कालिदास द्वारा रचित संस्कृत नाटक है। यह पाँच अंकों का नाटक है जिसमे मालवदेश की राजकुमारी मालविका तथा विदिशा के राजा अग्निमित्र का प्रेम और उनके विवाह का वर्णन है। वस्तुत: यह नाटक राजमहलों में चलने वाले प्रणय षड़्यन्त्रों का उन्मूलक है तथा इसमें नाट्यक्रिया का समग्र सूत्र विदूषक के हाथों में समर्पित है। यह शृंगार रस प्रधान नाटक है और कालिदास की प्रथम नाट्य कृति माना जाता है। ऐसा इसलिये माना जाता है क्योंकि इसमें वह लालित्य, माधुर्य एवं भावगाम्भीर्य दृष्टिगोचर नहीं होता जो विक्रमोर्वशीय अथवा अभिज्ञानशाकुन्तलम् में है। कालिदास ने प्रारम्भ में ही सूत्रधार से कहलवाया है - अर्थात पुरानी होने से ही न तो सभी वस्तुएँ अच्छी होती हैं और न नयी होने से बुरी तथा हेय। विवेकशील व्यक्ति अपनी बुद्धि से परीक्षा करके श्रेष्ठकर वस्तु को अंगीकार कर लेते हैं और मूर्ख लोग दूसरों द्वारा बताने पर ग्राह्य अथवा अग्राह्य का निर्णय करते हैं। वस्तुत: यह नाटक नाट्य-साहित्य के वैभवशाली अध्याय का प्रथम पृष्ठ है। .

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माघ (कवि)

मारवाड़ के प्राचीनतम महाकवि के रूप में 'शिशुपालवध' के रचियता 'माघ' का जन्म भीन-माल के एक प्रतिष्ठित धनी ब्राह्मण-कुल में हुआ था। वे सर्वश्रेष्ठ संस्कृतमहाकवियों की त्रयी (माघ, भारवि, कालिदास) में अन्यतम हैं। उन्होंने शिशुपाल वध नामक केवल एक ही महाकाव्य लिखा। इस महाकाव्य में श्रीकृष्ण के द्वारा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चेदिनरेश शिशुपाल के वध का सांगोपांग वर्णन है। उपमा, अर्थगौरव तथा पदलालित्य - इन तीन गुणों का सुभग सह-अस्तित्व माघ के कमनीय काव्य में मिलता है, अतः "माघे सन्ति त्रयो गुणा:" उनके बारे में सुप्रसिद्ध है। माघ केवल सरस कवि ही नहीं थे, प्रत्युत एक प्रकाण्ड सर्वशास्त्रतत्त्वज्ञ विद्वान् थे। दर्शनशास्त्र, संगीतशास्त्र तथा व्याकरणशास्त्र में उनकी विद्वत्ता अप्रतिम थी। उनका पाण्डित्य एकांगी नही, प्रत्युत सर्वगामी था। अतएव उन्हें 'पण्डित-कवि' भी कहा गया है। एक और उल्लेखनीय विशेषता यह है कि महाकवि भारवि द्वारा प्रवर्तित अलंकृत शैली का पूर्ण विकसित स्वरुप माघ के महाकाव्य 'शिशुपालवध' में प्राप्त होता है, जिसका प्रभाव बाद के कवियों पर बहुत ही अधिक पड़ा। महाकवि माघ के 'शिशुपालवध' के प्रत्येक पक्ष की विशेषता का साहित्यिक अध्ययन विद्वानों ने किया है, शायद ही कोई पक्ष अछूता रहा है। पं० बलदेव उपाध्याय ने उचित ही कहा है - "अलंकृत महाकाव्य की यह आदर्श कल्पना महाकवि माघ का संस्कृतसाहित्य को अविस्मरणीय योगदान है, जिसका अनुसरण तथा परिबृहण कर हमारा काव्य साहित्य समृद्ध, सम्पन्न तथा सुसंस्कृत हुआ है।" माघ की प्रशंशा में कहा गया है- .

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मुद्राराक्षस

मुद्राराक्षस संस्कृत का ऐतिहासिक नाटक है जिसके रचयिता विशाखदत्त हैं। इसकी रचना चौथी शताब्दी में हुई थी। इसमें चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य संबंधी ख्यात वृत्त के आधार पर चाणक्य की राजनीतिक सफलताओं का अपूर्व विश्लेषण मिलता है। इस कृति की रचना पूर्ववर्ती संस्कृत-नाट्य परंपरा से सर्वथा भिन्न रूप में हुई है- लेखक ने भावुकता, कल्पना आदि के स्थान पर जीवन-संघर्ष के यथार्थ अंकन पर बल दिया है। इस महत्वपूर्ण नाटक को हिंदी में सर्वप्रथम अनूदित करने का श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र को है। यों उनके बाद कुछ अन्य लेखकों ने भी इस कृति का अनुवाद किया, किंतु जो ख्याति भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनुवाद को प्राप्त हुई, वह किसी अन्य को नहीं मिल सकी। इसमें इतिहास और राजनीति का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया गया है। इसमें नन्दवंश के नाश, चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण, राक्षस के सक्रिय विरोध, चाणक्य की राजनीति विषयक सजगता और अन्ततः राक्षस द्वारा चन्द्रगुप्त के प्रभुत्व की स्वीकृति का उल्लेख हुआ है। इसमें साहित्य और राजनीति के तत्त्वों का मणिकांचन योग मिलता है, जिसका कारण सम्भवतः यह है कि विशाखदत्त का जन्म राजकुल में हुआ था। वे सामन्त बटेश्वरदत्त के पौत्र और महाराज पृथु के पुत्र थे। ‘मुद्राराक्षस’ की कुछ प्रतियों के अनुसार वे महाराज भास्करदत्त के पुत्र थे। इस नाटक के रचना-काल के विषय में तीव्र मतभेद हैं, अधिकांश विद्धान इसे चौथी-पाँचवी शती की रचना मानते हैं, किन्तु कुछ ने इसे सातवीं-आठवीं शती की कृति माना है। संस्कृत की भाँति हिन्दी में भी ‘मुद्राराक्षस’ के कथानक को लोकप्रियता प्राप्त हुई है, जिसका श्रेय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को है। .

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मृच्छकटिकम्

राजा रवि वर्मा द्वारा चित्रित '''वसन्तसेना''' मृच्छकटिकम् (अर्थात्, मिट्टी की गाड़ी) संस्कृत नाट्य साहित्य में सबसे अधिक लोकप्रिय रूपक है। इसमें 10 अंक है। इसके रचनाकार महाराज शूद्रक हैं। नाटक की पृष्टभूमि पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) है। भरत के अनुसार दस रूपों में से यह 'मिश्र प्रकरण' का सर्वोत्तम निदर्शन है। ‘मृच्छकटिकम’ नाटक इसका प्रमाण है कि अंतिम आदमी को साहित्य में जगह देने की परम्परा भारत को विरासत में मिली है जहाँ चोर, गणिका, गरीब ब्राह्मण, दासी, नाई जैसे लोग दुष्ट राजा की सत्ता पलट कर गणराज्य स्थापित कर अंतिम आदमी से नायकत्व को प्राप्त होते हैं। .

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मेघदूतम्

कालिदास रचित मेघदूतम् मेघदूतम् महाकवि कालिदास द्वारा रचित विख्यात दूतकाव्य है। इसमें एक यक्ष की कथा है जिसे कुबेर अलकापुरी से निष्कासित कर देता है। निष्कासित यक्ष रामगिरि पर्वत पर निवास करता है। वर्षा ऋतु में उसे अपनी प्रेमिका की याद सताने लगती है। कामार्त यक्ष सोचता है कि किसी भी तरह से उसका अल्कापुरी लौटना संभव नहीं है, इसलिए वह प्रेमिका तक अपना संदेश दूत के माध्यम से भेजने का निश्चय करता है। अकेलेपन का जीवन गुजार रहे यक्ष को कोई संदेशवाहक भी नहीं मिलता है, इसलिए उसने मेघ के माध्यम से अपना संदेश विरहाकुल प्रेमिका तक भेजने की बात सोची। इस प्रकार आषाढ़ के प्रथम दिन आकाश पर उमड़ते मेघों ने कालिदास की कल्पना के साथ मिलकर एक अनन्य कृति की रचना कर दी। मेघदूत की लोकप्रियता भारतीय साहित्य में प्राचीन काल से ही रही है। जहाँ एक ओर प्रसिद्ध टीकाकारों ने इस पर टीकाएँ लिखी हैं, वहीं अनेक संस्कृत कवियों ने इससे प्रेरित होकर अथवा इसको आधार बनाकर कई दूतकाव्य लिखे। भावना और कल्पना का जो उदात्त प्रसार मेघदूत में उपलब्ध है, वह भारतीय साहित्य में अन्यत्र विरल है। नागार्जुन ने मेघदूत के हिन्दी अनुवाद की भूमिका में इसे हिन्दी वाङ्मय का अनुपम अंश बताया है। मेघदूतम् काव्य दो खंडों में विभक्त है। पूर्वमेघ में यक्ष बादल को रामगिरि से अलकापुरी तक के रास्ते का विवरण देता है और उत्तरमेघ में यक्ष का यह प्रसिद्ध विरहदग्ध संदेश है जिसमें कालिदास ने प्रेमीहृदय की भावना को उड़ेल दिया है। कुछ विद्वानों ने इस कृति को कवि की व्यक्तिव्यंजक (आत्मपरक) रचना माना है। "मेघदूत" में लगभग ११५ पद्य हैं, यद्यपि अलग अलग संस्करणों में इन पद्यों की संख्या हेर-फेर से कुछ अधिक भी मिलती है। डॉ॰ एस.

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योहान वुल्फगांग फान गेटे

गेटे योहान वुल्फगांग फान गेटे (Johann Wolfgang von Goethe) (२८ अगस्त १७४९ - २२ मार्च १८३२) जर्मनी के लेखक, दार्शनिक‎ और विचारक थे। उन्होने कविता, नाटक, धर्म, मानवता और विज्ञान जैसे विविध क्षेत्रों में कार्य किया। उनका लिखा नाटक फ़ाउस्ट (Faust) विश्व साहित्य में उच्च स्थान रखता है। गोथे की दूसरी रचनाओं में "सोरॉ ऑफ यंग वर्टर" शामिल है। गोथे जर्मनी के महानतम साहित्यिक हस्तियों में से एक माने जाते हैं, जिन्होंने अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में विमर क्लासिसिज्म (Weimar Classicism) नाम से विख्यात आंदोलन की शुरुआत की। वेमर आंदोलन बोध, संवेदना और रोमांटिज्म का मिलाजुला रूप है। जोहान वुल्फगांग गेटे उन्होने कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम् का जर्मन भाषा में अनुवाद किया। गेटे ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् के बारे में कहा था- .

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योगिनी एकादशी

योगिनी एकादशी व्रतकथा पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में प्राप्त होती है। आषाढ़ मास की कृष्ण एकादशी को "योगनी" अथवा "शयनी" एकादशी कहते है। इस व्रतकथा के वक्ता श्रीकृष्ण एवं मार्कण्डेय हैं। श्रोता युधिष्ठिर एवं हेममाली हैं। जब युधिष्ठिर आषाढकृष्ण एकादशी का नाम एवं महत्त्व पूछते हैं, तब वासुदेव जी इस कथा को कहते हैं। मेघदूत में महाकवि कालिदास जी ने किसी शापित यक्ष के विषय में उल्लेख किया है। मेघदूत में वह यक्ष मेघ को हि दूत स्वीकार कर उसके माध्यम से अपनी पत्नी के लिए सन्देश भेजता है, यह कथानक वहाँ प्राप्त होता है। कालिदास जी की वह मेघदूत की कथा इस कथा से प्रभावित है ऐसा माना जाता है। हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। उनमें ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को योगिनी एकादशी कहते हैं। आषाढ़ कृष्ण एकादशी का नाम योगिनी है। इसके व्रत से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। यह इस लोक में भोग और परलोक में मुक्ति देने वाली है। यह तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। .

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रबीन्द्रनाथ ठाकुर

रवीन्द्रनाथ ठाकुर (बंगाली: রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর रोबिन्द्रोनाथ ठाकुर) (७ मई, १८६१ – ७ अगस्त, १९४१) को गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। वे विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के एकमात्र नोबल पुरस्कार विजेता हैं। बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले युगदृष्टा थे। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति हैं। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान जन गण मन और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बाँग्ला गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं। .

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रस (काव्य शास्त्र)

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं। रस का शाब्दिक अर्थ है - निचोड़। काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप अप्रमेय और अनिर्वचनीय है। .

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राम अवतार शर्मा

महामहोपाध्याय पण्डित राम अवतार शर्मा (1877 - 1929) संस्कृत के विद्वान, भारतविद् तथा इतिहासकार थे। अपनी विद्वत्ता और तार्किकता के कारण वे पूरे देश में विख्यात थे। वे संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन सहित भारत की अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होने दर्शन, काव्य, साहित्य, व्याकरण, इतिहास, धर्मशास्त्र, भाषाविज्ञान, आदि सभी विषयों पर निबन्ध लिखे। उनकी बहुत बड़ी देन है कि जो ज्ञान अंग्रेजी भाषा के माध्यम से उपलब्ध था उसे संस्कृत में उपलब्ध कराया। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद उनके प्रिय शिष्यों में से एक थे। उनके पुत्र नलिन विलोचन शर्मा भी पटना विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक थे जिन्होने 'नई कविता' आन्दोलन का श्रीगणेश किया। .

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रामभद्राचार्य

जगद्गुरु रामभद्राचार्य (जगद्गुरुरामभद्राचार्यः) (१९५०–), पूर्वाश्रम नाम गिरिधर मिश्र चित्रकूट (उत्तर प्रदेश, भारत) में रहने वाले एक प्रख्यात विद्वान्, शिक्षाविद्, बहुभाषाविद्, रचनाकार, प्रवचनकार, दार्शनिक और हिन्दू धर्मगुरु हैं। वे रामानन्द सम्प्रदाय के वर्तमान चार जगद्गुरु रामानन्दाचार्यों में से एक हैं और इस पद पर १९८८ ई से प्रतिष्ठित हैं।अग्रवाल २०१०, पृष्ठ ११०८-१११०।दिनकर २००८, पृष्ठ ३२। वे चित्रकूट में स्थित संत तुलसीदास के नाम पर स्थापित तुलसी पीठ नामक धार्मिक और सामाजिक सेवा संस्थान के संस्थापक और अध्यक्ष हैं। वे चित्रकूट स्थित जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय के संस्थापक और आजीवन कुलाधिपति हैं। यह विश्वविद्यालय केवल चतुर्विध विकलांग विद्यार्थियों को स्नातक तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम और डिग्री प्रदान करता है। जगद्गुरु रामभद्राचार्य दो मास की आयु में नेत्र की ज्योति से रहित हो गए थे और तभी से प्रज्ञाचक्षु हैं। अध्ययन या रचना के लिए उन्होंने कभी भी ब्रेल लिपि का प्रयोग नहीं किया है। वे बहुभाषाविद् हैं और २२ भाषाएँ बोलते हैं। वे संस्कृत, हिन्दी, अवधी, मैथिली सहित कई भाषाओं में आशुकवि और रचनाकार हैं। उन्होंने ८० से अधिक पुस्तकों और ग्रंथों की रचना की है, जिनमें चार महाकाव्य (दो संस्कृत और दो हिन्दी में), रामचरितमानस पर हिन्दी टीका, अष्टाध्यायी पर काव्यात्मक संस्कृत टीका और प्रस्थानत्रयी (ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और प्रधान उपनिषदों) पर संस्कृत भाष्य सम्मिलित हैं।दिनकर २००८, पृष्ठ ४०–४३। उन्हें तुलसीदास पर भारत के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों में गिना जाता है, और वे रामचरितमानस की एक प्रामाणिक प्रति के सम्पादक हैं, जिसका प्रकाशन तुलसी पीठ द्वारा किया गया है। स्वामी रामभद्राचार्य रामायण और भागवत के प्रसिद्ध कथाकार हैं – भारत के भिन्न-भिन्न नगरों में और विदेशों में भी नियमित रूप से उनकी कथा आयोजित होती रहती है और कथा के कार्यक्रम संस्कार टीवी, सनातन टीवी इत्यादि चैनलों पर प्रसारित भी होते हैं। २०१५ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया। .

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रामायणकालीन छत्तीसगढ़

अंगकोर (कंबोडिया) में रामायण की वानरसेना का एक दृश्यऐसे अनेक तथ्य हैं जो इंगित करते हैं कि ऐतिहासिक दृष्टि से छत्तीसगढ़ प्रदेश की प्राचीनता रामायण युग को स्पर्श करती है। उस काल में दण्डकारण्य नाम से प्रसिद्ध यह वनाच्छादित प्रान्त आर्य-संस्कृति का प्रचार केन्द्र था। यहाँ के एकान्त वनों में ऋषि-मुनि आश्रम बना कर रहते और तपस्या करते थे। इनमें वाल्मीकि, अत्रि, अगस्त्य, सुतीक्ष्ण प्रमुख थे इसीलिये दण्डकारण्य में प्रवेश करते ही राम इन सबके आश्रमों में गये। राम के काल में भी कोशल राज्य उत्तर कोशल और दक्षिण कोशल में विभाजित था। कालिदास के रघुवंश काव्य में उल्लेख है कि राम ने अपने पुत्र लव को शरावती का और कुश को कुशावती का राज्य दिया था। यदि शरावती और श्रावस्ती को एक मान लिया जाये तो निश्चय ही लव का राज्य उत्तर भारत में था और कुश दक्षिण कोशल के शासक बने। सम्भवतः उनकी राजधानी कुशावती आज के बिलासपुर जिले में थी, शायद कोसला ग्राम ही उस काल की कुशावती थी। यदि कोसला को राम की माता कौशल्या की जन्मभूमि मान लिया जावे तो भी किसी प्रकार की विसंगति प्रतीत नहीं होती। रघुवंश के अनुसार कुश को अयोध्या जाने के लिये विन्ध्याचल को पार करना पड़ता था इससे भी सिद्ध होता है कि उनका राज्य दक्षिण कोशल में ही था। उपरोक्त सभी उद्धरणों से स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ आदिकाल से ही ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों का पावन तपोस्थल रहा है। प्रतीत होता है कि छोटा नागपुर से लेकर बस्तर तथा कटक से ले कर सतारा तक के बिखरे हुये राजवंशों को संगठित कर राम ने वानर सेना बनाई हो। आर.पी.

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रामेश्वरम तीर्थ

रामेश्वरम हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ है। यह तमिल नाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित है। यह तीर्थ हिन्दुओं के चार धामों में से एक है। इसके अलावा यहां स्थापित शिवलिंग बारह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। भारत के उत्तर मे काशी की जो मान्यता है, वही दक्षिण में रामेश्वरम् की है। रामेश्वरम चेन्नई से लगभग सवा चार सौ मील दक्षिण-पूर्व में है। यह हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुंदर शंख आकार द्वीप है। बहुत पहले यह द्वीप भारत की मुख्य भूमि के साथ जुड़ा हुआ था, परन्तु बाद में सागर की लहरों ने इस मिलाने वाली कड़ी को काट डाला, जिससे वह चारों ओर पानी से घिरकर टापू बन गया। यहां भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व एक पत्थरों के सेतु का निर्माण करवाया था, जिसपर चढ़कर वानर सेना लंका पहुंची व वहां विजय पाई। बाद में राम ने विभीषण के अनुरोध पर धनुषकोटि नामक स्थान पर यह सेतु तोड़ दिया था। आज भी इस ३० मील (४८ कि.मी) लंबे आदि-सेतु के अवशेष सागर में दिखाई देते हैं। यहां के मंदिर के तीसरे प्राकार का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है। .

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राजा लक्ष्मण सिंह

राजा लक्ष्मण सिंह (9 अक्टूबर 1826 ई. - 14 जुलाई 1896 ई.), भारतेंदु हरिश्चंद्र युग से पूर्व की हिन्दी गद्यशैली के प्रमुख विधायक थे। इन्होने हिन्दी को हिन्दी संस्कृति के अनुकूल संस्कृतनिष्ठ बनाने की चेष्टा की। इन्होने आगरा से प्रजा-हितैषी पत्र निकाला और कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम्, रघुवंश एवं मेघदूतम् का हिन्दी में अनुवाद किया। .

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रघु वीर

आचार्य रघुवीर (३०, दिसम्बर १९०२ - १४ मई १९६३) महान भाषाविद, प्रख्यात विद्वान्‌, राजनीतिक नेता तथा भारतीय धरोहर के मनीषी थे। आप महान्‌ कोशकार, शब्दशास्त्री तथा भारतीय संस्कृति के उन्नायक थे। एक ओर आपने कोशों की रचना कर राष्ट्रभाषा हिंदी का शब्दभण्डार संपन्न किया, तो दूसरी ओर विश्व में विशेषतः एशिया में फैली हुई भारतीय संस्कृति की खोज कर उसका संग्रह एवं संरक्षण किया। राजनीतिक नेता के रूप में आपकी दूरदर्शिता, निर्भीकता और स्पष्टवादिता कभी विस्मृत नहीं की जा सकती। वे भारतीय संविधान सभा के सदस्य थे। दो बार (१९५२ व १९५८) राज्य सभा के लिये चुने गये। नेहरू की आत्मघाती चीन-नीति से खिन्न होकर जन संघ के साथ चले गये। भारतीय संस्कृति को जगत्गुरू के पद पर आसीन करने के लिये उन्होने विश्व के अनेक देशों का भ्रमण किया तथा अनेक प्राचीन ग्रन्थों को एकत्रित किया। उन्होने ४ लाख शब्दों वाला अंग्रेजी-हिन्दी तकनीकी शब्दकोश के निर्माण का महान कार्य भी किया। भारतीय साहित्य, संस्कृति और राजनीति के क्षेत्र में आपकी देन विशिष्ट एवं उल्लेखनीय है। भारत के आर्थिक विकास के संबंध में भी आपने पुस्तकें लिखी हैं और उनमें यह मत प्रतिपादित किया है कि वस्तु को केंद्र मानकर कार्य आरंभ किया जाना चाहिए। .

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रघुवंशम्

रघुवंश कालिदास रचित महाकाव्य है। इस महाकाव्य में उन्नीस सर्गों में रघु के कुल में उत्पन्न बीस राजाओं का इक्कीस प्रकार के छन्दों का प्रयोग करते हुए वर्णन किया गया है। इसमें दिलीप, रघु, दशरथ, राम, कुश और अतिथि का विशेष वर्णन किया गया है। वे सभी समाज में आदर्श स्थापित करने में सफल हुए। राम का इसमें विषद वर्णन किया गया है। उन्नीस में से छः सर्ग उनसे ही संबन्धित हैं। आदिकवि वाल्मीकि ने राम को नायक बनाकर अपनी रामायण रची, जिसका अनुसरण विश्व के कई कवियों और लेखकों ने अपनी-अपनी भाषा में किया और राम की कथा को अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया। कालिदास ने यद्यपि राम की कथा रची परंतु इस कथा में उन्होंने किसी एक पात्र को नायक के रूप में नहीं उभारा। उन्होंने अपनी कृति ‘रघुवंश’ में पूरे वंश की कथा रची, जो दिलीप से आरम्भ होती है और अग्निवर्ण पर समाप्त होती है। अग्निवर्ण के मरणोपरांत उसकी गर्भवती पत्नी के राज्यभिषेक के उपरान्त इस महाकाव्य की इतिश्री होती है। रघुवंश पर सबसे प्राचीन उपलब्ध टीका १०वीं शताब्दी के काश्मीरी कवि वल्लभदेव की है। किन्तु सर्वाधिक प्रसिद्ध टीका मल्लिनाथ (1350 ई - 1450 ई) द्वारा रचित 'संजीवनी' है। .

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लोलिम्बराज

लोलिंबराज दक्षिण के हरिहर नामक नरेश की सभा के प्रतिष्ठित कवि एवं विद्वान् थे। आयुर्वेद, गांधर्ववेद, तथा काव्यकला में इन्हें विशिष्ट नैपुण्य प्राप्त हुआ। ये धारा के प्रसिद्ध परमारवंशी नरेश भोज के समकालिक थे। भोज के समकालिक होने के कारण लोलिंबराज का भी समय ईसा की एकादश शताब्दी निश्चित रूप से कहा जा सकता है। इनके पिता का नाम दिवाकर सूनु था। लोलिंबराज के अग्रज नि:संतान थे। उन्होंने इनका पुत्रवत् लालन पालन किया। फलत: यौवनागम तक ये निरक्षर ही रहे। आवारों की भाँति दिन भर इधर उधर घूमते रहते, केवल भोजनवेला में घर पर आते। एक बार जब बड़े भाई वृत्ति उपार्जन के लिए परदेश गए हुए थे, इन्होंने अपनी भाभी के हाथ से झपटकर भोजनपात्र छीन लिया। पतिवियोग से संतप्त भाभी ने लोलिम्ब की इस अविनयपूर्ण अशिष्टता से क्रुद्ध होकर इन्हें दुत्कारा, जिससे लोलिंब के हृदय पर गहरा धक्का लगा। तुरंत सभी विषयों से विमुख हो इन्होंने 'सप्तशृंग' नामक पर्वत पर विराजमान अष्टादश भुजाओंवाली भगवती महिषासुरमर्दिनी, की पूर्ण विश्वास के साथ सेवा की, और स्वल्प समय में ही जगदंबा की प्रसन्नता का वर प्राप्त कर लिया। फलत: एक घड़ी में सौ उत्तम श्लोकों की रचना की सामर्थ्य प्राप्त कर ली। इसका उल्लेख उन्होंने स्वयं इस प्रकार किया है: इनकी अनुपम काव्यप्रतिभा से पूर्ण दो वैद्यक ग्रंथ मिलते हैं, 'वैद्यजीवन' तथा 'वैद्यावतंस' और पाँच सर्गों का एक अतिशय मधुर काव्य 'हरिविलास', जिसमें श्रीकृष्णभगवान् की नंदगृह में स्थिति से कंसवध तक की लीला का वर्णन हुआ है। इस काव्य की रचना लोलिंब ने अपने आश्रयदाता श्री सूर्यपुत्र हरि (या हरिहर) नरेश के अनुरोध से की थी- काव्यकला की दृष्टि से इस काव्य में कोई वैशिष्ट्य नहीं प्रतीत होता है। रीति वैदर्भी तथा कहीं-कहीं यमक एवं अनुप्रास की छटा अवश्य देखने को मिलती है। पूर्ववर्ती कवियों में कालिदास तथा भारवि का प्रभाव अत्यधिक प्रतीत होता है। उदाहरणार्थ, रघुवंश के प्रसिद्ध श्लोक 'कुसुमजन्म ततो नवपल्लवास्तदनु षट्पदकोकिलकूजितम्' की छाया इन पंक्तियों में स्पष्ट दिखाई पड़ती है-'पुष्पाणि प्रथमं तत: प्रकटिता, स्वान्तोत्सवा:पल्लवा:। पश्चादुन्मदकोकिलालिललना कोलाहला: कोमला' आदि। कहीं कहीं कुछ अपाणिनीय प्रयोग भी मिलते हैं, जैसे- 'प्रिय इति पतिनोक्ता सा सुखाब्धौ ममज्ज (ह. वि. ४.२७) में पतिशब्द का, 'पतिना' तृतीयान्त प्रयोग। .

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शिवदान सिंह चौहान

शिवदान सिंह चौहान (1918-2000) हिन्दी साहित्य के प्रथम मार्क्सवादी आलोचक के रूप में ख्यात हैं। लेखक होने के साथ-साथ वे सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता भी थे। .

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शुंग राजवंश

शुंग साम्राज्य का विस्तार शुंग वंश प्राचीन भारत का एक शासकीय वंश था जिसने मौर्य राजवंश के बाद शासन किया। इसका शासन उत्तर भारत में १८७ ई.पू.

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श्रुतबोधम्

श्रुतबोधम् महाकवि कालिदास द्वारा रचित काव्य ग्रन्थ है। श्रेणी:संस्कृत साहित्य श्रेणी:संस्कृत ग्रन्थ.

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श्रीभार्गवराघवीयम्

श्रीभार्गवराघवीयम् (२००२), शब्दार्थ परशुराम और राम का, जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००२ ई में रचित एक संस्कृत महाकाव्य है। इसकी रचना ४० संस्कृत और प्राकृत छन्दों में रचित २१२१ श्लोकों में हुई है और यह २१ सर्गों (प्रत्येक १०१ श्लोक) में विभक्त है।महाकाव्य में परब्रह्म भगवान श्रीराम के दो अवतारों परशुराम और राम की कथाएँ वर्णित हैं, जो रामायण और अन्य हिंदू ग्रंथों में उपलब्ध हैं। भार्गव शब्द परशुराम को संदर्भित करता है, क्योंकि वह भृगु ऋषि के वंश में अवतीर्ण हुए थे, जबकि राघव शब्द राम को संदर्भित करता है क्योंकि वह राजा रघु के राजवंश में अवतीर्ण हुए थे। इस रचना के लिए, कवि को संस्कृत साहित्य अकादमी पुरस्कार (२००५) तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। महाकाव्य की एक प्रति, कवि की स्वयं की हिन्दी टीका के साथ, जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा ३० अक्टूबर २००२ को किया गया था। .

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शूद्रक

शूद्रक नामक राजा का संस्कृत साहित्य में बहुत उल्लेख है। ‘मृच्छकटिकम्’ इनकी ही रचना है। जिस प्रकार विक्रमादित्य के विषय में अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं वैसे ही शूद्रक के विषय में भी अनेक दंतकथाएँ हैं। कादम्बरी में विदिशा में, कथासरित्सागर में शोभावती तथा वेतालपंचविंशति में वर्धन नामक नगर में शूद्रक के राजा होने का उल्लेख है। मृच्छकटिकम् में कई उल्लेखों से ज्ञात होता है कि शूद्रक दक्षिण भारतीय थे तथा उन्हें प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान था। वे वर्ण व्यवस्था में विश्वास रखते थे तथा गायों और ब्राह्मणों का विशेष आदर करते थे। शूद्रक का समय छठी शताब्दी था। मृच्छकटिकम के अतिरिक्त उन्होने वासवदत्ता, पद्मप्रभृतका आदि की रचना भी की। राजा शूद्रक बड़ा कवि था। कुछ लोग कहते हैं, शूद्रक कोई था ही नहीं, एक कल्पित पात्र है। परन्तु पुराने समय में शूद्रक कोई राजा था इसका उल्लेख हमें स्कन्दपुराण में मिलता है। महाकवि भास ने एक नाटक लिखा है जिसका नाम ‘दरिद्र चारुदत्त’ है। ‘दरिद्र चारुदत्त’ भाषा और कला की दृष्टि से ‘मृच्छकटिक’ से पुराना नाटक है। निश्चयपूर्वक शूद्रक के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। बाण ने अपनी ‘कादम्बरी’ में राजा शूद्रक को अपना पात्र बनाया है, पर यह नहीं कहा कि वह कवि भी था। बाण का समय छठी शती है। ऐसा लगता है कि शूद्रक कोई कवि था, जो राजा भी था। वह बहुत पुराना था। परन्तु कालिदास के समय तक उसे प्रधानता नहीं दी गई थी, या कहें कि जिस कालिदास ने सौमिल्ल, भास और कविपुत्र का नाम अपने से पहले बड़े लेखकों में गिनाया है, उसने सबकी सूची नहीं दी थी। शूद्रक का बनाया नाटक पुराना था, जो निरन्तर सम्पादित होता रहा और बाद में प्रसिद्ध हो गया। हो सकता है वह भास के बाद हुआ हो। भास का समय ईसा की पहली या दूसरी शती माना जाता है। .

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समस्या-पूर्ति

समस्या-पूर्ति भारतीय साहित्य में प्रचलित विशेष विधा है जिसमें किसी छन्द में कोई कविता का अंश दिया होता है और उस छन्द को पूरा करना होता है। यह कला प्राचीन काल से चली आ रही है। यह कला चौंसठ कलाओं के अन्तर्गत आती है। समस्यापूर्ति विशेषत: संस्कृत साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है। ऐसे भी उदाहरण हैं जिसमें कुछ विद्वानों ने कालिदास द्वारा रचित मेघदूतम की प्रत्येक कविता की प्रथम पंक्ति ज्यों का त्यों 'समस्या' के रूप में लेकर स्वयं उसकी पूर्ति की है। .

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सरयू

सरयू नदी (अन्य नाम घाघरा, सरजू, शारदा) हिमालय से निकलकर उत्तरी भारत के गंगा मैदान में बहने वाली नदी है जो बलिया और छपरा के बीच में गंगा में मिल जाती है। अपने ऊपरी भाग में, जहाँ इसे काली नदी के नाम से जाना जाता है, यह काफ़ी दूरी तक भारत (उत्तराखण्ड राज्य) और नेपाल के बीच सीमा बनाती है। सरयू नदी की प्रमुख सहायक नदी राप्ती है जो इसमें उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के बरहज नामक स्थान पर मिलती है। इस क्षेत्र का प्रमुख नगर गोरखपुर इसी राप्ती नदी के तट पर स्थित है और राप्ती तंत्र की अन्य नदियाँ आमी, जाह्नवी इत्यादि हैं जिनका जल अंततः सरयू में जाता है। बहराइच, सीतापुर, गोंडा, फैजाबाद, अयोध्या, टान्डा, राजेसुल्तानपुर, दोहरीघाट, बलिया आदि शहर इस नदी के तट पर स्थित हैं। .

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सरस्वती देवी

सरस्वती हिन्दू धर्म की प्रमुख देवियों में से एक हैं। वे ब्रह्मा की मानसपुत्री हैं जो विद्या की अधिष्ठात्री देवी मानी गई हैं। इनका नामांतर 'शतरूपा' भी है। इसके अन्य पर्याय हैं, वाणी, वाग्देवी, भारती, शारदा, वागेश्वरी इत्यादि। ये शुक्लवर्ण, श्वेत वस्त्रधारिणी, वीणावादनतत्परा तथा श्वेतपद्मासना कही गई हैं। इनकी उपासना करने से मूर्ख भी विद्वान् बन सकता है। माघ शुक्ल पंचमी को इनकी पूजा की परिपाटी चली आ रही है। देवी भागवत के अनुसार ये ब्रह्मा की स्त्री हैं। सरस्वती माँ के अन्य नामों में शारदा, शतरूपा, वीणावादिनी, वीणापाणि, वाग्देवी, वागेश्वरी, भारती आदि कई नामों से जाना जाता है। .

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सरस्वती नदी

सरस्वती एक पौराणिक नदी जिसकी चर्चा वेदों में भी है। ऋग्वेद (२ ४१ १६-१८) में सरस्वती का अन्नवती तथा उदकवती के रूप में वर्णन आया है। यह नदी सर्वदा जल से भरी रहती थी और इसके किनारे अन्न की प्रचुर उत्पत्ति होती थी। कहते हैं, यह नदी पंजाब में सिरमूरराज्य के पर्वतीय भाग से निकलकर अंबाला तथा कुरुक्षेत्र होती हुई कर्नाल जिला और पटियाला राज्य में प्रविष्ट होकर सिरसा जिले की दृशद्वती (कांगार) नदी में मिल गई थी। प्राचीन काल में इस सम्मिलित नदी ने राजपूताना के अनेक स्थलों को जलसिक्त कर दिया था। यह भी कहा जाता है कि प्रयाग के निकट तक आकार यह गंगा तथा यमुना में मिलकर त्रिवेणी बन गई थी। कालांतर में यह इन सब स्थानों से तिरोहित हो गई, फिर भी लोगों की धारणा है कि प्रयाग में वह अब भी अंत:सलिला होकर बहती है। मनुसंहिता से स्पष्ट है कि सरस्वती और दृषद्वती के बीच का भूभाग ही ब्रह्मावर्त कहलाता था। .

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साहित्य

किसी भाषा के वाचिक और लिखित (शास्त्रसमूह) को साहित्य कह सकते हैं। दुनिया में सबसे पुराना वाचिक साहित्य हमें आदिवासी भाषाओं में मिलता है। इस दृष्टि से आदिवासी साहित्य सभी साहित्य का मूल स्रोत है। .

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साहित्य अकादमी पुरस्कार डोगरी

साहित्य अकादमी पुरस्कार एक साहित्यिक सम्मान है जो कुल २४ भाषाओं में प्रदान किया जाता हैं और डोगरी भाषा इन में से एक भाषा हैं। अकादमी ने १९७० से इस भाषा के लिए पुरस्कारों को पेश किया। .

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साहित्य अकादमी पुरस्कार नेपाली

साहित्य अकादमी पुरस्कार एक साहित्यिक सम्मान है जो कुल २४ भाषाओं में प्रदान किया जाता हैं और नेपाली भाषा इन में से एक भाषा हैं। अकादमी ने १९७७ से इस भाषा के लिए पुरस्कारों को पेश किया। .

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साहित्य अकादमी पुरस्कार संथाली

साहित्य अकादमी पुरस्कार एक साहित्यिक सम्मान है जो कुल २४ भाषाओं में प्रदान किया जाता हैं और संथाली भाषा इन में से एक भाषा हैं। अकादमी ने २००५ से इस भाषा के लिए पुरस्कारों को पेश किया। .

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साहित्य अकादमी पुरस्कार कन्नड़

साहित्य अकादमी पुरस्कार एक साहित्यिक सम्मान है जो कुल २४ भाषाओं में प्रदान किया जाता हैं और कन्नड़ भाषा इन में से एक भाषा हैं। .

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साखी

साखी संस्कृत 'साक्षित्‌' (साक्षी) का रूपांतर है। संस्कृत साहित्य में आँखों से प्रत्यक्ष देखने वाले के अर्थ में साक्षी का प्रयोग हुआ है। कालिदास ने कुमारसंभव (5,60) में इसी अर्थ में इसका प्रयोग किया है। सिद्धों के अपभ्रंश साहित्य में भी प्रत्यक्षदर्शी के रूप में साखी का प्रयोग हुआ है, जैसे 'साखि करब जालंधर पाए ' (सिद्ध कण्हृपा)। आगे चलकर नाथ परंपरा में गुरुवचन ही साखी कहलाने लगे। इनकी रचना का सिलसिला गुरु गोरखनाथ से ही प्रारंभ हो गया जान पड़ता है, क्योंकि खोज में कभी-कभी जोगेश्वर साखी जैसे पद्य संग्रह मिल जाते हैं। आधुनिक देशी भाषाओं में विशेषत: हिंदी निर्गुण संतों में साखियों का व्यापक प्रचार निस्संदेह कबीर द्वारा हुआ। गुरुवचन और संसार के व्यावहारिक ज्ञान को देने वाली रचनाएँ साखी के नाम से अभिहित होने लगीं। कबीर ने कहा भी है, साखी आँखी ज्ञान की। कबीर के पूर्ववर्ती संत नागदेव की साखी नामक हस्तलिखित प्रति भी मिली है परंतु उसका संकलन उत्तर भारत, संभवत: पंजाब में हुआ होगा, क्योंकि महाराष्ट्र में नामदेव की वाणी पद या अभग ही कहलाती है, साखी नहीं। हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार दादुदयाल के शिष्य रज्जब ने अपने गुरु की साखियों को अंगों में विभाजित किया। रज्जब का काल विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी है-कबीर के लगभग सौ वर्ष बाद। कबीर वचनावली में साखियाँ विभिन्न अंगों में पाई जाती हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कबीर वचनावली का संग्रह रज्जब के पश्चात्‌ हुआ होगा। कबीर ने तो 'मसि कागद छूयो' नहीं अतएव संभावना यही है कि उनके परवर्ती शिष्यों ने अपने गुरु की साखियों-सिखावनी-को विभिन्न अंगों में विभाजित कर दिया होगा। साखी अपभ्रंश काल से बहुप्रचलित छंद 'दूहा' (दोहा) में लिखी जाती रही है अत: 'दूहा' का पर्याय भी समझी जाती रही है परंतु तुलसीदास के समय तक वह दोहा का पर्याय नहीं रह गई।; 'साखी', सबदी, दोहरा, कहि कहनी उपखान।; भगति निरूपहिं अधम कवि, निंदहिं वेद पुराण।। तुलसीदास का समय ईसा की सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दी है। प्रतीत होता है कि कबीर के समय से अथवा उनसे भी पहले साखी दोहा के अतिरिक्त चौपाई, चौपई, सार, छप्पय, हरिपद आदि छंदों में भी लिखी जाने लगी थी। 'गुरु ग्रंथसाहब' में साखी को सलोकु कहा गया है। मराठी साहित्य में भी हिंदी के प्रभाव से 'साकी' या 'साखी' का चलन हो गया था। वहाँ भी पहले वह 'दोहरा' छंद में लिखी जाती थी। पर क्रमश: अन्य छंदों में भी प्रयुक्त होने लगी। तुलसीदास के समान मराठी संत स्वामी रामदास ने भी अपने प्रसिद्ध ग्रंथ दासबोध में उसकी अन्य काव्य प्रकारों से पृथक्‌ गणना की है- ' नाना पदें, नाना श्लोक, नाना वीर, नाना कड़क, नाना साख्या, दोहरे अनेक, नामानिधान।' ना.

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संस्कृत नाटक

संस्कृत नाटक (कोडियट्टम) में सुग्रीव की भूमिका संस्कृत नाटक रसप्रधान होते हैं। इनमें समय और स्थान की अन्विति नही पाई जाती। अपनी रचना-प्रक्रिया में नाटक मूलतः काव्य का ही एक प्रकार है। सूसन के लैंगर के अनुसार भी नाटक रंगमंच का काव्य ही नहीं, रंगमंच में काव्य भी है। संस्कृत नाट्यपरम्परा में भी नाटक काव्य है और एक विशेष प्रकार का काव्य है,..दृश्यकाव्य। ‘काव्येषु नाटकं रम्यम्’ कहकर उसकी विशिष्टता ही रेखांकित की गयी है। लेखन से लेकर प्रस्तुतीकरण तक नाटक में कई कलाओं का संश्लिष्ट रूप होता है-तब कहीं वह अखण्ड सत्य और काव्यात्मक सौन्दर्य की विलक्षण सृष्टि कर पाता है। रंगमंच पर भी एक काव्य की सृष्टि होती है विभिन्न माध्यमों से, कलाओं से जिससे रंगमंच एक कार्य का, कृति का रूप लेता है। आस्वादन और सम्प्रेषण दोनों साथ-साथ चलते हैं। अनेक प्रकार के भावों, अवस्थाओं से युक्त, रस भाव, क्रियाओं के अभिनय, कर्म द्वारा संसार को सुख-शान्ति देने वाला यह नाट्य इसीलिए हमारे यहाँ विलक्षण कृति माना गया है। आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में नाट्य को तीनों लोकों के विशाल भावों का अनुकीर्तन कहा है तथा इसे सार्ववर्णिक पंचम वेद बतलाया है। भरत के अनुसार ऐसा कोई ज्ञान शिल्प, विद्या, योग एवं कर्म नहीं है जो नाटक में दिखाई न पड़े - .

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संस्कृत साहित्य

बिहार या नेपाल से प्राप्त देवीमाहात्म्य की यह पाण्डुलिपि संस्कृत की सबसे प्राचीन सुरक्षित बची पाण्डुलिपि है। (११वीं शताब्दी की) ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक संस्कृत भाषा के माध्यम से सभी प्रकार के वाङ्मय का निर्माण होता आ रहा है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी के छोर तक किसी न किसी रूप में संस्कृत का अध्ययन अध्यापन अब तक होता चल रहा है। भारतीय संस्कृति और विचारधारा का माध्यम होकर भी यह भाषा अनेक दृष्टियों से धर्मनिरपेक्ष (सेक्यूलर) रही है। इस भाषा में धार्मिक, साहित्यिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक और मानविकी (ह्यूमैनिटी) आदि प्राय: समस्त प्रकार के वाङ्मय की रचना हुई। संस्कृत भाषा का साहित्य अनेक अमूल्य ग्रंथरत्नों का सागर है, इतना समृद्ध साहित्य किसी भी दूसरी प्राचीन भाषा का नहीं है और न ही किसी अन्य भाषा की परम्परा अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में इतने दीर्घ काल तक रहने पाई है। अति प्राचीन होने पर भी इस भाषा की सृजन-शक्ति कुण्ठित नहीं हुई, इसका धातुपाठ नित्य नये शब्दों को गढ़ने में समर्थ रहा है। संस्कृत साहित्य इतना विशाल और scientific है तो भारत से संस्कृत भाषा विलुप्तप्राय कैसे हो गया? .

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संस्कृत ग्रन्थों की सूची

निम्नलिखित सूची अंग्रेजी (रोमन) से मशीनी लिप्यन्तरण द्वारा तैयार की गयी है। इसमें बहुत सी त्रुटियाँ हैं। विद्वान कृपया इन्हें ठीक करने का कष्ट करे। .

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संस्कृत कवियों की सूची

यह संस्कृत भाषा के कवियों की सूची हैं। .

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संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द

हिन्दी भाषी क्षेत्र में कतिपय संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द प्रचलित हैं। जैसे- सप्तऋषि, सप्तसिन्धु, पंच पीर, द्वादश वन, सत्ताईस नक्षत्र आदि। इनका प्रयोग भाषा में भी होता है। इन शब्दों के गूढ़ अर्थ जानना बहुत जरूरी हो जाता है। इनमें अनेक शब्द ऐसे हैं जिनका सम्बंध भारतीय संस्कृति से है। जब तक इनकी जानकारी नहीं होती तब तक इनके निहितार्थ को नहीं समझा जा सकता। यह लेख अभी निर्माणाधीन हॅ .

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सुंग वंश

सुंगवंश मौर्य वंश के अंतिम सम्राट् बृहद्रथ के प्रधान सेनापति पुष्यामित्र द्वारा प्रतिष्ठित एक प्राचीन राजवंश। ईसा से १८४ वर्ष पूर्व पुष्यमित्र सुंग ने बृहद्रथ को मारकर मौर्य साम्राज्य पर अपना अधिकार जमाया। यह राजा वैदिक या सनातनी धर्म का पक्का अनुयायी था, जिस समय पुष्यमित्र मगध के सिंहासन पर बैठा, उस समय साम्राज्य नर्मदा के किनारे तक था और उसके अंतर्गत आधुनिक बिहार, संयुक्त प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि थे। कलिंग के राजा खारवेल्ल तथा पंजाब और काबुल के यवन (यूनानी) राजा मिनांडर (बौद्ध मिलिंद) ने सुंग राज्य पर कई बार चढ़ाइयाँ की, पर वे हटा दिए गए। यवनों का जो प्रसिद्ध आक्रमण साकेत (अयोध्या) पर हुआ था, वह पुष्यामित्र के ही राजत्व काल में हुआ। पुष्यमित्र के समय का उसी के किसी सामंत या कर्मचारी का एक शिलालेख अभी हाल में अयोध्या में मिला है जो पालि लिपि में होने पर भी मुुुुख्यतया संस्कृत में है, यह लेख नागरीप्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है इससे जान पड़ता है कि पुष्यामित्र कभी कभी साकेत (अयोध्या) में भी रहता था और वह उस समय एक समृद्धिशाली नगर था। पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र ने विदर्भ के राजा को परास्त करके दक्षिण में वरदा नदी तक अपने पिता के राज्य का विस्तार बढ़ाया। जैसा कालिदास के मालविकाग्निमित्र नाटक से प्रकट है, अग्निमित्र ने विदिशा को अपनी राजधानी बनाया था जो वेत्रवती और विदिशा नदी के संगम पर एक अत्यंत सुंदर पुरी थी। इस पुरी के खँडहर भिलसा (ग्वालियर) से थोड़ी दूर पर दूर तक फैले हुए हैं। चक्रवर्ती सम्राट् बनने की कामना से पुष्यामित्र ने इसी समय बड़ी धूमधाम से अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया। इस यज्ञ के समय महाभाष्यकार पतंजलि जी विद्यमान थे। अश्वरक्षा का भार पुष्यामित्र के पौत्र (अग्निमित्र के पुत्र) वसुमित्र को सौंपा गया जिसने सिंधु नदी के किनारे यवनों को परास्त किया। पुष्यमित्र के समय में वैदिक या सनातन धर्म का फिर से उत्थान हुआ और बौद्ध धर्म दबने लगा। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार पुष्यमित्र ने बौद्धों पर उनकी यवन प्रेमी राजद्रोही, देशद्रोही एवं जनद्रोही प्रवृत्तियों के कारण बड़ा अत्याचार किया और वे देेेेशद्रोही धर्मद्रोही विलासी बौद्ध राज्य छोड़कर भागने लगे। ईसा से १४८ वर्ष पहले पुष्यमित्र की मृत्यु हुई और उसका पुत्र अग्निमित्र सिंहासन पर बैठा। उसके पीछे पुष्यमित्र का भाई सुज्येष्ठ और फिर अग्निमित्र का पुत्र वसुमित्र गद्दी पर बैठा। फिर धीरे धीरे इस वंश का प्रताप घटता गया और वसुदेव ने विश्वासघात करके 'कण्व' नामक ब्राह्मण राजवंश की प्रतिष्ठा की। श्रेणी:भारत का प्राचीन इतिहास श्रेणी:भारत के राजवंश.

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स्तोत्र

संस्कृत साहित्य में किसी देवी-देवता की स्तुति में लिखे गये काव्य को स्तोत्र कहा जाता है। संस्कृत साहित्य में यह स्तोत्रकाव्य के अन्तर्गत आता है। महाकवि कालिदास के अनुसार 'स्तोत्रं कस्य न तुष्टये' अर्थात् विश्व में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो स्तुति से प्रसन्न न हो जाता हो। इसलिये विभिन्न देवताओं को प्रसन्न करने हेतु वेदों, पुराणों तथा काव्यों में सर्वत्र सूक्त तथा स्तोत्र भरे पड़े हैं। अनेक भक्तों द्वारा अपने इष्टदेव की आराधना हेतु स्तोत्र रचे गये हैं। विभिन्न स्तोत्रों का संग्रह स्तोत्ररत्नावली के नाम से उपलब्ध है। निम्नलिखित स्तोत्र 'सरस्वतीस्तोत्र' से लिया गया है- .

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स्वर्ग लोक

स्वर्ग लोक या देवलोक हिन्दू मान्यता के अनुसार ब्रह्माण्ड के उस स्थान को कहते हैं जहाँ हिन्दू देवी-देवताओं का वास है। रघुवंशम् महाकाव्य में महाकवि कालिदास स्मृद्धिशाली राज्य को ही स्वर्ग की उपमा देते हैं। तद्रक्ष कल्याणपरम्पराणां भोक्तारमूर्जस्वलमात्मदेहम्। महीतलस्पर्शनमात्रभिन्नमृद्धं हि राज्यं पदमैन्यमाहुः।। अर्थात् हे राजन्! तुम उत्तरोत्तर सुखों का भोग करने वाले अत्यन्त बल से युक्त अपने शरीर की रक्षा करो, क्योंकि विद्वान् लोग समृद्धिशाली राज्यो को केवल पृथ्वीतल के सम्बन्ध होने से अलग हुआ इन्द्रसम्बन्धी स्थान (स्वर्ग) कहते हैं। हिन्दू धर्म में विष्णु पुराण के अनुसार, कृतक त्रैलोक्य -- भूः, भुवः और स्वः – ये तीनों लोक मिलकर कृतक त्रैलोक्य कहलाते हैं। सूर्य और ध्रुव के बीच जो चौदह लाख योजन का अन्तर है, उसे स्वर्लोक कहते हैं। हिंदु धर्म में, संस्कृत शब्द स्वर्ग को मेरु पर्वत के ऊपर के लोकों हेतु प्रयुक्त होता है। यह वह स्थान है, जहाँ पुण्य करने वाला, अपने पुण्य क्षीण होने तक, अगले जन्म लेने से पहले तक रहता है। यह स्थान उन आत्माओं हेतु नियत है, जिन्होंने पुण्य तो किए हैं, परंतु उन्में अभी मोक्ष या मुक्ति नहीं मिलनी है। यहाँ सब प्रकार के आनंद हैं, एवं पापों से परे रहते हैं। इसकी राजधानी है अमरावती, जिसका द्वारपाल है, इंद्र का वाहन ऐरावत। यहाँ के राजा हैं, इंद्र, देवताओं के प्रधान। श्रेणी:हिन्दू धर्म.

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सूर्यवंश

सूर्यवंश,अर्कवंश पुराणों के अनुसार एक प्राचीन भारतीय वंश है जिसकी उत्पत्ति सूर्य देव से मानी गयी है। ये ब्राह्मण एवं राजपूत होते हें। इसी वंश परम्परा में से जैन एवं बुद्ध (बौद्ध) पंथ का प्रर्दुभाव हुआ है। .

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हरिचन्द्र

हरिचंद्र (हरिश्चंद्र?) दिगंबर जैन संप्रदाय के कवि थे। इन्होंने माघ की शैली पर धर्मशर्माभ्युदय नामक इक्कीस सर्गों का महाकाव्य रचा, जिसमें पंद्रहवें तीर्थंकर धर्मनाथ का चरित वर्णित है। ये महाकवि बाण द्वारा उद्धृत गद्यकार भट्टार हरिचंद्र से भिन्न थे, क्योंकि कि ये महाकाव्यकार थे, गद्यकाव्यकार थे, गद्यकार नहीं। हरिचंद्र का समय ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी माना जाता है। .

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हिन्दी पुस्तकों की सूची/क

कोई विवरण नहीं।

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हिन्दी में शैव काव्य

संस्कृत स्तोत्रों में वैदिक शतरुद्रि, उत्पलदेव की 'स्तोत्रावली', जगद्धर भट्ट की 'स्तुतिकुसुमांजलि', 'पुष्पदंत' का 'शिवमहिम्न स्तोत्र', रावणकृत 'तांडव स्तोत्र' एवं शंकराचार्य कृत 'शिवानंदलहरी' प्रमुख शैव रचनाएँ हैं। प्रबंधकाव्यों में कालिदासकृत 'कुमारसंभव' भारविकृत 'किरातार्जुनीयम्‌' मंखकरचित 'श्रीकंठचरितम्‌' एवं रत्नाकर प्रणीत 'हरविजय' उल्लेख्य हैं। हिंदी में भी शैवकाव्य की ये स्तोत्रात्मक एवं प्रबंधात्मक पद्धतियाँ चलीं पर इसके अतिरिक्त शिव के स्वरूपैश्वर्य का स्वतंत्र वर्णन, हास्य के आलंबन, शृंगार के उपमान एवं क्रांति और विनाश के प्रतीक के रूप में भी उनका चित्रण पर्याप्त रूप में हुआ है। मिथिला, पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में शैव साधना एवं शैव भाव का विशेष महत्व रहा है। फलत: इन प्रदेशों में शैव काव्य का अखंड सृजन होता रहा। हिंदी साहित्य के आदिकाल में अपभ्रंश और लोकभाषा दोनों में शैव काव्य का प्रचुर प्रणयन हुआ। जैन कवि पुष्पदंत ने अपने 'णायकुमारचरिउ' में शिव द्वारा मदनदहन तथा ब्रह्मा के शिरोच्छेद की कथा का वर्णन किया है। इसके अतिरिक्त 'प्राकृतपैंगलम्‌' में ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ शिव के विराट् स्वरूप का स्वतंत्र रूप से विलक्षण वर्णन उपलब्ध होता है। सिद्ध कवि गुंडरीपा और सरहपा आदि ने भी शैव मत से प्रभावित होकर अनेक पद रचे। नाथपंथ शैवों का ही एक संप्रदाय था अत: गोरख की बानियों में सर्वत्र ही शिव शक्ति के सामरस्य एवं असंख्य कलायुक्त शिव को सहस्रार में ही देखने का संदेश दिया गया है। चौदहवीं शताब्दी में मिथिला के महाकवि विद्यापति ने शताधिक शैव गीतों का सृजन किया जो नचारी के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनके गीतों में शिव के नटराज, अर्धनारीश्वर एवं हरिहर के एकात्म रूप का चित्रण है तथा शिव के प्रति व्यक्त एक भक्त के निश्छल हृदय की सहज भावनाओं का उद्रेक भी है। भक्तिकाल में मिथिला के कृष्णदास, गोविंद ठाकुर तथा हरिदास आदि ने स्वतंत्र रूप से शिवमहिमा एवं उनके ऐश्वर्यप्रतिपादक पदों का निर्माण किया। मिथिलेतर प्रदेशों के तानसेन, नरहरि एवं सेनापति ने भी शिव के प्रति भक्तिभाव से पूर्ण अनेक कवित्त रचे। सूफी कवि जायसी ने शैव मत से प्रभावित होकर पद्मावत में अनेक शैव तत्वों का पतिपादन किया। उन्होंने शिवशक्ति या रसायनवाद के सभी उपकरणों को मुक्त भाव से स्वीकार किया एवं रतनसेन को शिवानुग्रह से ही सिद्धि दिलाई। इसी भाँति कबीर आदि ज्ञानमार्गी संतों पर शैव मत एवं नाथपंथियों का प्रभाव है। उन्होंने निरंजन या शून्य को शिवरूप में ही ग्रहण किया। महाकवि तुलसीदास ने 'विनयपत्रिका' में शिव के प्रति भक्तिभाव से पूर्ण अनेक पदों की रचना की एवं 'पार्वतीमंगल' जैसे स्वतंत्र ग्रंथ में शिवविवाह की कथा को प्रथम बार लोकभाषा में प्रबंधात्मक रूप प्रदान किया। उनके 'रामचरितमानस' के आरंभ में ही शिवकथा कही गई है। मध्य में भी प्रसिद्ध शिवस्तुति है और शिव-उमा-संवाद के रूप में प्रस्तुत कर तुलसी ने रामकथा को शैव परिवेश प्रदान कर किया है। सूरदास ने भी सूरसागर में अंतर्कथा के रूप में शिवजीवन के अनेक प्रसंगों को गीतिप्रबंध का रूप देकर प्रस्तुत किया है। रीतिकालीन कवियों में प्राय: सबने शिव संबंधी काव्यप्रणयन किया जिनमें केशवदास, देव, पद्माकर, भिखारीदास और भूषण प्रमुख हैं। केशव और भिखारी आदि ने अपने लक्षमणग्रंथों के उदाहरण के लिए शिव का जहाँ अनेक स्थलों पर वर्णन किया है वहाँ मिथिला के अग्निप्रसाद सिंह, आनंद, उमानाथ, कुंजनदास, चंदनराम, जयरामदास, महीनाथ ठाकुर, लाल झा एवं हिमकर न स्वतंत्र रूप से शिवसंबंधी पद रचे। इनके अतिरिक्त इस काल में प्रणीत शैव काव्यग्रंथों में दीनदयाल गिरि का 'विश्वनाथ नवरत्न', दलेलसिंह का 'शिवसागर' (दो खंडों में दोहा चौपाई छंदों में रचित प्रबंधकाव्य) तथा बनारसी कवि की 'शिवपच्चीसी' आदि महत्वपूर्ण हैं। प्रबंध काव्यों में पं.

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हिन्दी साहित्य का इतिहास

हिन्दी साहित्य पर यदि समुचित परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास अत्यंत विस्तृत व प्राचीन है। सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ० हरदेव बाहरी के शब्दों में, हिन्दी साहित्य का इतिहास वस्तुतः वैदिक काल से आरम्भ होता है। यह कहना ही ठीक होगा कि वैदिक भाषा ही हिन्दी है। इस भाषा का दुर्भाग्य रहा है कि युग-युग में इसका नाम परिवर्तित होता रहा है। कभी 'वैदिक', कभी 'संस्कृत', कभी 'प्राकृत', कभी 'अपभ्रंश' और अब - हिन्दी। आलोचक कह सकते हैं कि 'वैदिक संस्कृत' और 'हिन्दी' में तो जमीन-आसमान का अन्तर है। पर ध्यान देने योग्य है कि हिब्रू, रूसी, चीनी, जर्मन और तमिल आदि जिन भाषाओं को 'बहुत पुरानी' बताया जाता है, उनके भी प्राचीन और वर्तमान रूपों में जमीन-आसमान का अन्तर है; पर लोगों ने उन भाषाओं के नाम नहीं बदले और उनके परिवर्तित स्वरूपों को 'प्राचीन', 'मध्यकालीन', 'आधुनिक' आदि कहा गया, जबकि 'हिन्दी' के सन्दर्भ में प्रत्येक युग की भाषा का नया नाम रखा जाता रहा। हिन्दी भाषा के उद्भव और विकास के सम्बन्ध में प्रचलित धारणाओं पर विचार करते समय हमारे सामने हिन्दी भाषा की उत्पत्ति का प्रश्न दसवीं शताब्दी के आसपास की प्राकृताभास भाषा तथा अपभ्रंश भाषाओं की ओर जाता है। अपभ्रंश शब्द की व्युत्पत्ति और जैन रचनाकारों की अपभ्रंश कृतियों का हिन्दी से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए जो तर्क और प्रमाण हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में प्रस्तुत किये गये हैं उन पर विचार करना भी आवश्यक है। सामान्यतः प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश-अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है। उस समय अपभ्रंश के कई रूप थे और उनमें सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही पद्य-रचना प्रारम्भ हो गयी थी। साहित्य की दृष्टि से पद्यबद्ध जो रचनाएँ मिलती हैं वे दोहा रूप में ही हैं और उनके विषय, धर्म, नीति, उपदेश आदि प्रमुख हैं। राजाश्रित कवि और चारण नीति, शृंगार, शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य-रुचि का परिचय दिया करते थे। यह रचना-परम्परा आगे चलकर शौरसेनी अपभ्रंश या 'प्राकृताभास हिन्दी' में कई वर्षों तक चलती रही। पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का प्रयोग निरन्तर बढ़ता गया। इस भाषा को विद्यापति ने देसी भाषा कहा है, किन्तु यह निर्णय करना सरल नहीं है कि हिन्दी शब्द का प्रयोग इस भाषा के लिए कब और किस देश में प्रारम्भ हुआ। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में हिन्दी शब्द का प्रयोग विदेशी मुसलमानों ने किया था। इस शब्द से उनका तात्पर्य 'भारतीय भाषा' का था। .

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हिन्दी काव्य में प्रकृति चित्रण

संस्कृत साहित्य ही क्या, सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में प्रकृति चित्रण की विशेष परम्परा रही है और हिन्दी साहित्य (विशेषतः हिन्दी काव्य) भी प्रकृति चित्रण से भरा पड़ा है। यह अकारण नहीं है। प्रकृति और मानव का सम्बन्ध उतना ही पुराना है जितना कि सृष्टि के उद्भव और विकास का इतिहास। प्रकृति की गोद में ही प्रथम मानव शिशु ने आँखे खोली थी, उसी के गोद में खेलकर बड़ा हुआ है। इसीलिए मानव और प्रकृति के इस अटूट सम्बन्ध की अभिव्यक्ति धर्म, दर्शन, साहित्य और कला में चिरकाल से होती रही है। साहित्य मानव जीवन का प्रतिबिम्ब है, अतः उस प्रतिबिम्ब में उसकी सहचरी प्रकृति का प्रतिविम्बित होना स्वाभाविक है। काव्य में प्रकृति का वर्णन कई प्रकार से किया जाता है जैसे - आलंबन, उद्दीपन, उपमान, पृष्ठभूमि, प्रतीक, अलंकार, उपदेश, दूती, बिम्ब-प्रतिबिम्ब, मानवीकरण, रहस्य तथा मानव-भावनाओं का आरोप आदि। केशव ने अपनी कविप्रिया में वर्ण विषयों का उल्लेख निम्न प्रकार किया है: .

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हिन्दी-काव्य में विरह की अभिव्यक्ति

हिन्दी-काव्य में विरह की अभिव्यक्ति साहित्य का सर्वोत्कृष्ट रस श्रृंगार है और इस श्रृंगार का भी परिष्कृत रूप विरह -वर्णन में मिलता है। श्रृंगार के संयोग पक्ष में तो बाह्य चेष्टाओं और काम क्रीड़ाओं की ही अधिकता होती है,ह्रदय की सूक्ष्म भाव वृत्तियों का प्रकाशन और काम से मुक्त प्रेम के शुद्ध रूप का प्रकटीकरण वियोग ही होता है। .

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हिंदी चलचित्र, १९६० दशक

1960 दशक के हिंदी चलचित्र .

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हंससन्देश

हंससन्देश, वेदान्तदेशिक द्वारा १३वी शताब्दी में रचित संस्कृत प्रेम काव्य है। यह ११० पद्यों का एक छोटा काव्य है जिसमें हंस के माध्यम से राम लंका स्थित अपनी प्रिया सीता को सन्देश भेजते हैं। यह काव्य एक सन्देश काव्य है और इसमें कालिदास के मेघदूत की शैली का अनुकरण किया गया है। वैष्णव लोगों के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। श्रेणी:संस्कृत काव्य.

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हेमचन्द्राचार्य

ताड़पत्र-प्रति पर आधारित '''हेमचन्द्राचार्य''' की छवि आचार्य हेमचन्द्र (1145-1229) महान गुरु, समाज-सुधारक, धर्माचार्य, गणितज्ञ एवं अद्भुत प्रतिभाशाली मनीषी थे। भारतीय चिंतन, साहित्य और साधना के क्षेत्रमें उनका नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है। साहित्य, दर्शन, योग, व्याकरण, काव्यशास्त्र, वाड्मयके सभी अंड्गो पर नवीन साहित्यकी सृष्टि तथा नये पंथको आलोकित किया। संस्कृत एवं प्राकृत पर उनका समान अधिकार था। संस्कृत के मध्यकालीन कोशकारों में हेमचंद्र का नाम विशेष महत्व रखता है। वे महापंडित थे और 'कालिकालसर्वज्ञ' कहे जाते थे। वे कवि थे, काव्यशास्त्र के आचार्य थे, योगशास्त्रमर्मज्ञ थे, जैनधर्म और दर्शन के प्रकांड विद्वान् थे, टीकाकार थे और महान कोशकार भी थे। वे जहाँ एक ओर नानाशास्त्रपारंगत आचार्य थे वहीं दूसरी ओर नाना भाषाओं के मर्मज्ञ, उनके व्याकरणकार एवं अनेकभाषाकोशकार भी थे। समस्त गुर्जरभूमिको अहिंसामय बना दिया। आचार्य हेमचंद्र को पाकर गुजरात अज्ञान, धार्मिक रुढियों एवं अंधविश्र्वासों से मुक्त हो कीर्ति का कैलास एवं धर्मका महान केन्द्र बन गया। अनुकूल परिस्थिति में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र सर्वजनहिताय एवं सर्वापदेशाय पृथ्वी पर अवतरित हुए। १२वीं शताब्दी में पाटलिपुत्र, कान्यकुब्ज, वलभी, उज्जयिनी, काशी इत्यादि समृद्धिशाली नगरों की उदात्त स्वर्णिम परम्परामें गुजरात के अणहिलपुर ने भी गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया। .

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होली

होली (Holi) वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता है। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहाँ भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है। नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया,नमकीन व ठंडाई से किया जाता है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है। .

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जर्मनी में संस्कृत

जर्मनी में वर्ष 1800 में विलियम जोस ने प्राचीन भारत के प्रसिद्ध कवि कालीदास द्वारा लिखित अभिज्ञान शाकुंतलम का जर्मन भाषा में अनुवाद किया था। तब से वहाँ के लोगों में संस्कृत भाषा के प्रति रुचि बढ़ी है। जर्मन भाषाविद इस बात से भी संस्कृत सीखने के लिए प्रोत्साहित हुए हैं कि लातिन भाषा और संस्कृत में कई समानताएँ पाई गई हैं और यह शोध का विषय है। .

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जानकीहरण (महाकाव्य)

जानकीहरण श्रीलंका के महाकवि कुमारदास द्वारा रचित उच्च कोटि का महाकाव्य है। .

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जगद्गुरु रामभद्राचार्य ग्रंथसूची

जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य (जगद्गुरु रामभद्राचार्य अथवा स्वामी रामभद्राचार्य के रूप में अधिक प्रसिद्ध) चित्रकूट धाम, भारत के एक हिंदू धार्मिकनेता, शिक्षाविद्, संस्कृतविद्वान, बहुभाषाविद, कवि, लेखक, टीकाकार, दार्शनिक, संगीतकार, गायक, नाटककार और कथाकलाकार हैं। उनकी रचनाओं में कविताएँ, नाटक, शोध-निबंध, टीकाएँ, प्रवचन और अपने ग्रंथों पर स्वयं सृजित संगीतबद्ध प्रस्तुतियाँ सम्मिलित हैं। वे ९० से अधिक साहित्यिक कृतियों की रचना कर चुके हैं, जिनमें प्रकाशित पुस्तकें और अप्रकाशित पांडुलिपियां, चार महाकाव्य,संस्कृत और हिंदी में दो प्रत्येक। तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस पर एक हिंदी भाष्य,अष्टाध्यायी पर पद्यरूप में संस्कृत भाष्य और प्रस्थानत्रयी शास्त्रों पर संस्कृत टीकाएँ शामिल हैं।दिनकर २००८, प्रप्र.

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जगन्नाथ पण्डितराज

जगन्नाथ पण्डितराज (जन्म: १६वीं शती के अन्तिम चरण में -- मृत्यु: १७वीं शदी के तृतीय चरण में), उच्च कोटि के कवि, समालोचक, साहित्यशास्त्रकार तथा वैयाकरण थे। कवि के रूप में उनका स्थान उच्च काटि के उत्कृष्ट कवियों में कालिदास के अनंतर - कुछ विद्वान् रखते हैं। "रसगंगाधर"कार के रूप में उनके साहित्यशास्त्रीय पांडित्य और उक्त ग्रंथ का पंडितमंडली में बड़ा आदर है। .

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घटकर्पर

घटकर्पर, यमकालंकार प्रधान 22 श्लोकात्मक काव्य है। विरहिणी नायिका द्वारा अपने दूरस्थ नायक को वर्षारंभ में संदेश भेजे जाने का वर्णन इस काव्य का मूल विषय है। इसके रचयिता के विषय में पर्याप्त संशय है। परंपरा में इसको उज्जयिनी नरेश विक्रमादित्य के नवरत्न घटकर्पर की कृति समझते हैं, पर यह मत संगत नहीं जँचता। कालिदास को भी निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं। याकोबी ने इस काव्य को कालिदास से प्राचीनतर माना है। इसके लेखक की गर्वोक्ति है कि जो यमकालंकार के प्रयोग में इस काव्य का अतिक्रमण करेगा, उसके लिये लेखक घट के टूटे हुए टुकड़ों में पानी भरेगा। इसके कई संस्करण प्रचलित है। इसपर अभिनवगुप्त कृत घटकर्परविवृति प्रकाशित हो चुकी है। .

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वत्स

वत्स महाजनपद वत्स या वंश या बत्स या बंश प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था। यह आधुनिक इलाहाबाद के आसपास केन्द्रित था। उत्तरपूर्व में यमुना की तटवर्ती भूमि इसमें सम्मिलित थी। इलाहाबाद से ३० मील दूर कौशाम्बी इसकी राजधानी थी। वत्स को वत्स देश और वत्स भूमि भी कहा गया है। इसकी राजधानी कौशांबी (वर्तमान कोसम) इलाहाबाद से 38 मील दक्षिणपश्चिम यमुना पर स्थित थी। महाभारत के युद्ध में वत्स लोग पांडवों के पक्ष से लड़े थे। .

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वात्स्यायन

वात्स्यायन या मल्लंग वात्स्यायन भारत के एक प्राचीन दार्शनिक थे। जिनका समय गुप्तवंश के समय (६ठी शती से ८वीं शती) माना जाता है। उन्होने कामसूत्र एवं न्यायसूत्रभाष्य की रचना की। महर्षि वात्स्यायन ने कामसूत्र में न केवल दाम्पत्य जीवन का श्रृंगार किया है वरन कला, शिल्पकला एवं साहित्य को भी संपदित किया है। अर्थ के क्षेत्र में जो स्थान कौटिल्य का है, काम के क्षेत्र में वही स्थान महर्षि वात्स्यायन का है। .

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वाल्मीकि रामायण

वाल्मीकीय रामायण संस्कृत साहित्य का एक आरम्भिक महाकाव्य है जो संस्कृत भाषा में अनुष्टुप छन्दों में रचित है। इसमें श्रीराम के चरित्र का उत्तम एवं वृहद् विवरण काव्य रूप में उपस्थापित हुआ है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित होने के कारण इसे 'वाल्मीकीय रामायण' कहा जाता है। वर्तमान में राम के चरित्र पर आधारित जितने भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं उन सभी का मूल महर्षि वाल्मीकि कृत 'वाल्मीकीय रामायण' ही है। 'वाल्मीकीय रामायण' के प्रणेता महर्षि वाल्मीकि को 'आदिकवि' माना जाता है और इसीलिए यह महाकाव्य 'आदिकाव्य' माना गया है। यह महाकाव्य भारतीय संस्कृति के महत्त्वपूर्ण आयामों को प्रतिबिम्बित करने वाला होने से साहित्य रूप में अक्षय निधि है। .

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वासुदेव शरण अग्रवाल

वासुदेव शरण अग्रवाल (1904 - 1966) भारत के इतिहास, संस्कृति, कला एवं साहित्य के विद्वान थे। वे साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी गद्यकार हैं। .

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वाग्भट

वाग्भट नाम से कई महापुरुष हुए हैं। इनका वर्णन इस प्रकार है: .

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विद्याधर (साहित्यशास्त्री)

विद्याधर 'एकावली' नामक ग्रंथ के रचयिता थे। एकावली साहित्यशास्त्र का महत्वपूर्ण एवं विवेचनात्मक ग्रंथ है। एकावली की कारिकाएँ उनपर वृत्ति और प्रयुक्त उदाहरण ग्रंथकार द्वारा निर्मित हैं। एकावली के आठ उन्मेष हैं। प्रथम उन्मेष में काव्यहेतु, काव्यलक्षण और भामह आदि पूर्ववर्ती आचार्यों के मत का विवेचन है। द्वितीय में शब्द, अर्थ और अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना, तृतीय में ध्वनि एवं उसके भेद, चतुर्थ में गुणीभूत व्यंग्य, पंचम में तीन गुण और रीति, षष्ठ उन्मेष में दोष, सप्तम में शब्दालंकार और अष्टम उन्मेष में अर्थालंकारों का निरूपण किया गया है। विद्याधर ने रुय्यक द्वारा नवाविष्कृत परिणाम, विकल्प और विचित्र नाम के अलंकारों को भी स्वीकार किया है। विद्याधर ने एकावली में प्रयुक्त स्वनिर्मित उदाहरणों में उड़ीसा के नरेश नरसिंह का वर्णन एवं प्रशस्तिगान किया है। इसका राज्यकाल ई. १२८०-१३३४ माना जाता है। विद्याधर ने रुय्यक और नैषधकार का भी उल्लेख किया है जो १२वीं सदी के हैं। सिंहभूपाल (ई. १३३०) ने अपने ग्रंथ 'रसार्णव' में एकावली का उल्लेख किया है। अत: विद्याधर का समय संभवत: १२७५-१३२५ ई. के लगभग स्वीकार्य होता है। विद्याधर की एकावली पर तरला नाम की टीका प्रकाशित है। इसके टीककार कोलाचल मल्लिनाथ सूरि हैं, जिन्होंने, कालिदास, माघ, भारवि, श्रीहर्ष आदि के महाकाव्यों पर टीका की है। मल्लिनाथ का समय ईसा की १४वीं सदी का अंतिम चरण मान्य है। इन्होंने अपनी अन्य टीकाओं में भी एकावली के उद्धरण दिए हैं। .

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विद्याधर शास्त्री

विद्याधर शास्त्री (१९०१-१९८३) संस्कृत कवि और संस्कृत तथा हिन्दी भाषाओं के विद्वान थे। आपका जन्म राजस्थान के चूरु शहर में हुआ था। पंजाब विश्वविद्यालय (लाहौर) से शास्त्री की परीक्षा आपने सोलह वर्ष की आयु में उत्तीर्ण की थी। आगरा विश्वविद्यालय (वर्तमान डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय) से आपने संस्कृत कलाधिस्नातक परीक्षा में सफलता प्राप्त की। शिक्षण कार्य और अकादमिक प्रयासों के दौरान आपने बीकानेर शहर में जीवन व्यतीत किया। १९६२ में भारत के राष्ट्रपति द्वारा विद्यावाचस्पति की उपाधि से आपको सम्मानित किया गया था। .

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विभिन्न भाषाओं में रामायण

म्यांमार के रामायण (रामजात्तौ) पर आधारित नृत्य भिन्न-भिन्न प्रकार से गिनने पर रामायण तीन सौ से लेकर एक हजार तक की संख्या में विविध रूपों में मिलती हैं। इनमें से संस्कृत में रचित वाल्मीकि रामायण (आर्ष रामायण) सबसे प्राचीन मानी जाती है। साहित्यिक शोध के क्षेत्र में भगवान राम के बारे में आधिकारिक रूप से जानने का मूल स्रोत महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण है। इस गौरव ग्रंथ के कारण वाल्मीकि दुनिया के आदि कवि माने जाते हैं। श्रीराम-कथा केवल वाल्मीकीय रामायण तक सीमित न रही बल्कि मुनि व्यास रचित महाभारत में भी 'रामोपाख्यान' के रूप में आरण्यकपर्व (वन पर्व) में यह कथा वर्णित हुई है। इसके अतिरिक्त 'द्रोण पर्व' तथा 'शांतिपर्व' में रामकथा के सन्दर्भ उपलब्ध हैं। बौद्ध परंपरा में श्रीराम से संबंधित दशरथ जातक, अनामक जातक तथा दशरथ कथानक नामक तीन जातक कथाएँ उपलब्ध हैं। रामायण से थोड़ा भिन्न होते हुए भी ये ग्रन्थ इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हैं। जैन साहित्य में राम कथा संबंधी कई ग्रंथ लिखे गये, जिनमें मुख्य हैं- विमलसूरि कृत 'पउमचरियं' (प्राकृत), आचार्य रविषेण कृत 'पद्मपुराण' (संस्कृत), स्वयंभू कृत 'पउमचरिउ' (अपभ्रंश), रामचंद्र चरित्र पुराण तथा गुणभद्र कृत उत्तर पुराण (संस्कृत)। जैन परंपरा के अनुसार राम का मूल नाम 'पद्म' था। अन्य अनेक भारतीय भाषाओं में भी राम कथा लिखी गयीं। हिन्दी में कम से कम 11, मराठी में 8, बाङ्ला में 25, तमिल में 12, तेलुगु में 12 तथा उड़िया में 6 रामायणें मिलती हैं। हिंदी में लिखित गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस ने उत्तर भारत में विशेष स्थान पाया। इसके अतिरिक्त भी संस्कृत,गुजराती, मलयालम, कन्नड, असमिया, उर्दू, अरबी, फारसी आदि भाषाओं में राम कथा लिखी गयी। महाकवि कालिदास, भास, भट्ट, प्रवरसेन, क्षेमेन्द्र, भवभूति, राजशेखर, कुमारदास, विश्वनाथ, सोमदेव, गुणादत्त, नारद, लोमेश, मैथिलीशरण गुप्त, केशवदास, गुरु गोविंद सिंह, समर्थ रामदास, संत तुकडोजी महाराज आदि चार सौ से अधिक कवियों तथा संतों ने अलग-अलग भाषाओं में राम तथा रामायण के दूसरे पात्रों के बारे में काव्यों/कविताओं की रचना की है। धर्मसम्राट स्वामी करपात्री ने 'रामायण मीमांसा' की रचना करके उसमें रामगाथा को एक वैज्ञानिक आयामाधारित विवेचन दिया। वर्तमान में प्रचलित बहुत से राम-कथानकों में आर्ष रामायण, अद्भुत रामायण, कृत्तिवास रामायण, बिलंका रामायण, मैथिल रामायण, सर्वार्थ रामायण, तत्वार्थ रामायण, प्रेम रामायण, संजीवनी रामायण, उत्तर रामचरितम्, रघुवंशम्, प्रतिमानाटकम्, कम्ब रामायण, भुशुण्डि रामायण, अध्यात्म रामायण, राधेश्याम रामायण, श्रीराघवेंद्रचरितम्, मन्त्र रामायण, योगवाशिष्ठ रामायण, हनुमन्नाटकम्, आनंद रामायण, अभिषेकनाटकम्, जानकीहरणम् आदि मुख्य हैं। विदेशों में भी तिब्बती रामायण, पूर्वी तुर्किस्तानकी खोतानीरामायण, इंडोनेशिया की ककबिनरामायण, जावा का सेरतराम, सैरीराम, रामकेलिंग, पातानीरामकथा, इण्डोचायनाकी रामकेर्ति (रामकीर्ति), खमैररामायण, बर्मा (म्यांम्मार) की यूतोकी रामयागन, थाईलैंड की रामकियेनआदि रामचरित्र का बखूबी बखान करती है। इसके अलावा विद्वानों का ऐसा भी मानना है कि ग्रीस के कवि होमर का प्राचीन काव्य इलियड, रोम के कवि नोनस की कृति डायोनीशिया तथा रामायण की कथा में अद्भुत समानता है। विश्व साहित्य में इतने विशाल एवं विस्तृत रूप से विभिन्न देशों में विभिन्न कवियों/लेखकों द्वारा राम के अलावा किसी और चरित्र का इतनी श्रद्धा से वर्णन न किया गया। .

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विलियम जोंस (भाषाशास्त्री)

सर विलियम जोंस सर विलियम जोंस (28 सितम्बर 1746 – 27 अप्रैल 1794)), अंग्रेज प्राच्य विद्यापंडित और विधिशास्त्री तथा प्राचीन भारत संबंधी सांस्कृतिक अनुसंधानों का प्रारंभकर्ता। लंदन में 28 सितंबर 1746 को जन्म। हैरो और आक्सफर्ड में शिक्षा प्राप्त की। शीघ्र ही उसने इब्रानी, फारसी, अरबी और चीनी भाषाओं का अभ्यास कर लिया। इनके अतिरिक्त जर्मन, इतावली, फ्रेंच, स्पेनी और पुर्तगाली भाषाओं पर भी उसका अच्छा अधिकार था। नादिरशाह के जीवनवृत का फारसी से फ्रेंच भाषा में उसका अनुवाद 1770 में प्रकाशित हुआ। 1771 में उसने फारसी व्याकरण पर एक पुस्तक लिखी। 1774 में "पोएसिअस असिपातिका कोमेंतेरिओरम लिबरीसेम्स" और 1783 में "मोअल्लकात" नामक सात अरबी कविताओं का अनुवाद किया। फिर उसने पूर्वी साहित्य, भाषाशास्त्र और दर्शन पर भी अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी और अनुवाद किए। कानून में भी उसने अच्छी पुस्तकें लिखीं है। उसी "आन द ला ऑव बेलमेंट्स" (1781) विशेष प्रसिद्ध है। 1774 से उसने अपना जीवन कानून के क्षेत्र में लगाया और 1783 में बंगाल के उच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) में न्यायाधीश नियुक्त हुआ। उसी वर्ष उसे "सर" की उपाधि मिली। भारत में उसने पूर्वी विषयों के अध्ययन में गंभीर रुचि प्रदर्शित की। उसने संस्कृत का अध्ययन किया और 1784 में "बंगाल एशियाटिक सोसाइटी" की स्थापना की जिससे भारत के इतिहास, पुरातत्व, विशेषकर साहित्य और विधिशास्त्र संबंधी अध्ययन की नींव पड़ी। यूरोप में उसी ने संस्कृत साहित्य की गरिमा सबसे पहले घोषित की। उसी के कालिदासीय अभिज्ञान शाकुंतलम के अनुवाद ने संस्कृत और भारत संबंधी यूरोपीयदृष्टि में क्रांति उत्पन्न कर दी। गेटे आदि महान कवि उस अनुवाद से बड़े प्रभावित हुए। कलकत्ते में ही 17 अप्रैल 1794 के इस महापंडित का निधन हुआ। .

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विक्रमादित्य

विक्रमादित्य उज्जैन के अनुश्रुत राजा थे, जो अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे। "विक्रमादित्य" की उपाधि भारतीय इतिहास में बाद के कई अन्य राजाओं ने प्राप्त की थी, जिनमें गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय और सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य (जो हेमु के नाम से प्रसिद्ध थे) उल्लेखनीय हैं। राजा विक्रमादित्य नाम, 'विक्रम' और 'आदित्य' के समास से बना है जिसका अर्थ 'पराक्रम का सूर्य' या 'सूर्य के समान पराक्रमी' है।उन्हें विक्रम या विक्रमार्क (विक्रम + अर्क) भी कहा जाता है (संस्कृत में अर्क का अर्थ सूर्य है)। हिन्दू शिशुओं में 'विक्रम' नामकरण के बढ़ते प्रचलन का श्रेय आंशिक रूप से विक्रमादित्य की लोकप्रियता और उनके जीवन के बारे में लोकप्रिय लोक कथाओं की दो श्रृंखलाओं को दिया जा सकता है। .

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विक्रमोर्वशीयम्

विक्रमोर्वशीयम् कालिदास का विख्यात नाटक। यह पांच अंकों का नाटक है। इसमें राजा पुरुरवा तथा उर्वशी का प्रेम और उनके विवाह की कथा है। .

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वैदिक संस्कृत

ऋग्वेद में वैदिक संस्कृत का सब से प्राचीन रूप मिलता है ऋग्वेद १०.९०:२ का श्लोक: यह पुरुष वह सर्वस्व है जो हुआ है (भूतं) या होगा (भव्यं)। अमरता का ईश्वर (ईशानः) अन्न से और भी विस्तृत (अतिऽरोहति) होता है। वैदिक संस्कृत २००० ईसापूर्व (या उस से भी पहले) से लेकर ६०० ईसापूर्व तक बोली जाने वाली एक हिन्द-आर्य भाषा थी। यह संस्कृत की पूर्वज भाषा थी और आदिम हिन्द-ईरानी भाषा की बहुत ही निकट की संतान थी। उस समय फ़ारसी और संस्कृत का विभाजन बहुत नया था, इसलिए वैदिक संस्कृत और अवस्ताई भाषा (प्राचीनतम ज्ञात ईरानी भाषा) एक-दूसरे के बहुत क़रीब हैं। वैदिक संस्कृत हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की हिन्द-ईरानी भाषा शाखा की सब से प्राचीन प्रमाणित भाषा है।, Alain Daniélou, Kenneth Hurry, Inner Traditions / Bear & Co, 2003, ISBN 978-0-89281-923-2,...

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वैदिक व्याकरण

संस्कृत का सबसे प्राचीन (वेदकालीन) व्याकरण 'वैदिक व्याकरण' कहलाता है। यह पाणिनीय व्याकरण से कुछ भिन्न था। .

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वैखानस

कर्नाटक के टी नरसीपुर के गुंजनरसिंहस्वामी मन्दिर में कुम्भाभिषेकम् के अवसर पर यज्ञ करते हुए वैखानस ब्राह्मण वैखानस एक प्रमुख प्राचीन भारतीय सम्प्रदाय है। इसके अनुयायी विष्णु एवं उनके अवतारों की पूजा करते हैं। वे प्रायः कृष्ण यजुर्वेद की तैतरीय शाखा तथा वैखानस कल्पसूत्र के अनुयायी ब्राह्मण हैं। इस पंथ की आचार्यपरंपरा विखनस मुनि से आरंभ होती है। 'वैखानस' शब्द 'विखनस' से बना है। 'वैखानस भागवत् शास्त्र' तिरुमल वेंकटेश्वर मंदिर के कर्मकाण्ड का मुख्य आधार है। .

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वेश्यावृत्ति

टियुआना, मेक्सिको में वेश्या अर्थलाभ के लिए स्थापित संकर यौन संबंध वेश्यावृत्ति कहलाता है। इसमें उस भावनात्मक तत्व का अभाव होता है जो अधिकांश यौनसंबंधों का एक प्रमुख अंग है। विधान एवं परंपरा के अनुसार वेश्यावृत्ति उपस्त्री सहवास, परस्त्रीगमन एवं अन्य अनियमित वासनापूर्ण संबंधों से भिन्न होती है। संस्कृत कोशों में यह वृत्ति अपनाने वाले स्त्रियों के लिए विभिन्न संज्ञाएँ दी गई हैं। वेश्या, रूपाजीवा, पण्यस्त्री, गणिका, वारवधू, लोकांगना, नर्तकी आदि की गुण एवं व्यवसायपरक अमिघा है - 'वेशं (बाजार) आजोवो यस्या: सा वेश्या' (जिसकी आजीविका में बाजार हेतु हो, 'गणयति इति गणिका' (रुपया गिननेवाली), 'रूपं आजीवो यस्या: सा रूपाजीवा' (सौंदर्य ही जिसकी आजीविका का कारण हो); पण्यस्त्री - 'पण्यै: क्रोता स्त्री' (जिसे रुपया देकर आत्मतुष्टि के लिए क्रय कर लिया गया हो)। .

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गढ़वाल मण्डल

यह लेख गढ़वाल मण्डल पर है। अन्य गढ़वाल लेखों के लिए देखें गढ़वाल। उत्तराखण्ड के मण्डल गढ़वाल भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक प्रमुख क्षेत्र है। यहाँ की मुख्य भाषा गढ़वाली तथा हिन्दी है। गढ़वाल का साहित्य तथा संस्कृति बहुत समृद्ध हैं। लोक संस्कृत भी अत्यंत प्राचीन और विकसित है। गढ़वाली लोकनृत्यों के २५ से अधिक प्रकार पाए जाते हैं इनमें प्रमुख हैं- १. मांगल या मांगलिक गीत, २. जागर गीत, ३. पंवाडा, ४. तंत्र-मंत्रात्मक गीत, ५. थड्या गीत, ६. चौंफुला गीत, ७. झुमैलौ, ८. खुदैड़, ९. वासंती गीत, १०.

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गढ़वाल कुमाऊं के मेले

गढ़वाल - कुमाऊँ की संस्कृति यहाँ के मेलों में समाहित है। रंगीले कुमाऊँ के मेलों में ही यहाँ का सांस्कृतिक स्वरुप निखरता है। धर्म, संस्कृति और कला के व्यापक सामंजस्य के कारण इस अंचल में मनाये जाने वाले उत्सवों का स्वरुप बेहद कलात्मक होता है। छोटे-बड़े सभी पर्वों, आयोजनों और मेलों पर शिल्प की किसी न किसी विद्या का दर्शन अवश्य होता है। कुमाऊँनी भाषा में मेलों को कौतिक कहा जाता है। कुछ मेले देवताओं के सम्मान में आयोजित होते हैं तो कुछ व्यापारिक दृष्टि से अपना महत्व रखते हुए भी धार्मिक पक्ष को पुष्ट अवश्य करते है। पूरे अंचल में स्थान-स्थान पर पचास से अधिक मेले आयोजित होते हैं जिनमें यहाँ का लोक जीवन, लोक नृत्य, गीत एवं परम्पराओं की भागीदारी सुनिश्चित होती है। साथ ही यह धारणा भी पुष्टि होती है कि अन्य भागों में मेलों, उत्सवों का ताना बाना भले ही टूटा हो, यह अंचल तो आम जन की भागीदारी से मनाये जा रहे मेलों से निरन्तर समद्ध हो रहा है। मेला चारे जिस स्थान पर भी आयोजित हो रहा हो, उसका परिवेश कैसा भी हो, उसका परिवेश कैसा भी हो, अवसर ऐतिहासिक हो, सांस्कृतिक हो, धार्मिक हो या फिर अन्य कोई उल्लास से चहकते ग्रामीणों को आज भी अपनी संस्कृति, अपने लोग, अपना रंग, अपनी उमंग, अपना परिवार इन्हीं मेलों में वापस मिलते हैं। सुदूर अंचलों में तो बरसों का बिछोह लिये लोग मिलन का अवसर मेलों में ही तलाशते हैं। .

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गढ़वाल की कला एवं चित्रकारी

चाँदी के समान श्वेत पर्वत शिखर कल-2 करती चमकदार सरिताएं, हरी भरी घाटियाँ एवं यहाँ की शीत जलवायु ने शान्ति एवं स्वास्थय लाभ हेतु एक विशाल संख्या में पर्यटकों को गढ़वाल के पर्वतों की ओर आकर्षित किया है। यह एक सौन्दर्यपूर्ण भूमि है जिसने महर्षि बाल्मिकी एवं कालीदास जैसे महान लेखकों को प्रेरणा प्रदान की है। इन सभी ने पेन्टिंग एवं कला के साथ-2 गढ़वाल की शैक्षिक सम्पदा को अन्तिम नीव प्रदान की है। पत्थर पर नक्काशी की यहाँ की मूल कला धीरे-2 समाप्त हो गई है। परन्तु लकडी पर नक्काशी आज भी यहाँ उपलब्ध है। यहाँ पर केवल अर्द्धशताब्दी पूर्व तक के गृहों के प्रत्येक दरवाजे पर लकडी की नक्काशी का कार्य देखा जा सकता है इसके अतिरिक्त लकडी की नक्काशी का कार्य सम्पूर्ण गढ़वाल में स्थित सकडों मन्दिरों में देखा जा सकता है। वास्तुशिल्प कार्य के अवशेष गढ़वाल में निम्न स्थलों पर पाये जा सकते हैं। चान्दपुर किला, श्रीनगर-मन्दिर, बद्रीनाथ के निकट पाडुकेश्वर, जोशीमठ के निकट देवी मादिन एवं देवलगढ मन्दिर उपरोक्त सभी संरचनाएं गढ़वाल में एवं चन्डी जिले में स्थित है। .

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गढ़कालिका मंदिर, उज्जैन

गढ़कालिका मंदिर, मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में स्थित है। कालजयी कवि कालिदास गढ़ कालिका देवी के उपासक थे। कालिदास के संबंध में मान्यता है कि जब से वे इस मंदिर में पूजा-अर्चना करने लगे तभी से उनके प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का निर्माण होने लगा। कालिदास रचित 'श्यामला दंडक' महाकाली स्तोत्र एक सुंदर रचना है। ऐसा कहा जाता है कि महाकवि के मुख से सबसे पहले यही स्तोत्र प्रकट हुआ था। यहाँ प्रत्येक वर्ष कालिदास समारोह के आयोजन के पूर्व माँ कालिका की आराधना की जाती है। .

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गुरुकुल

अंगूठाकार ऐसे विद्यालय जहाँ विद्यार्थी अपने परिवार से दूर गुरू के परिवार का हिस्सा बनकर शिक्षा प्राप्त करता है। भारत के प्राचीन इतिहास में ऐसे विद्यालयों का बहुत महत्व था। प्रसिद्ध आचार्यों के गुरुकुल के पढ़े हुए छात्रों का सब जगह बहुत सम्मान होता था। राम ने ऋषि वशिष्ठ के यहाँ रह कर शिक्षा प्राप्त की थी। इसी प्रकार पाण्डवों ने ऋषि द्रोण के यहाँ रह कर शिक्षा प्राप्त की थी। प्राचीन भारत में तीन प्रकार की शिक्षा संस्थाएँ थीं-.

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गुर्जर प्रतिहार राजवंश

प्रतिहार वंश मध्यकाल के दौरान मध्य-उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में राज्य करने वाला राजवंश था, जिसकी स्थापना नागभट्ट नामक एक सामन्त ने ७२५ ई॰ में की थी। इस राजवंश के लोग स्वयं को राम के अनुज लक्ष्मण के वंशज मानते थे, जिसने अपने भाई राम को एक विशेष अवसर पर प्रतिहार की भाँति सेवा की। इस राजवंश की उत्पत्ति, प्राचीन कालीन ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख से ज्ञात होती है। अपने स्वर्णकाल में साम्राज्य पश्चिम में सतुलज नदी से उत्तर में हिमालय की तराई और पुर्व में बगांल असम से दक्षिण में सौराष्ट्र और नर्मदा नदी तक फैला हुआ था। सम्राट मिहिर भोज, इस राजवंश का सबसे प्रतापी और महान राजा थे। अरब लेखकों ने मिहिरभोज के काल को सम्पन्न काल बताते हैं। इतिहासकारों का मानना है कि गुर्जर प्रतिहार राजवंश ने भारत को अरब हमलों से लगभग ३०० वर्षों तक बचाये रखा था, इसलिए गुर्जर प्रतिहार (रक्षक) नाम पड़ा। गुर्जर प्रतिहारों ने उत्तर भारत में जो साम्राज्य बनाया, वह विस्तार में हर्षवर्धन के साम्राज्य से भी बड़ा और अधिक संगठित था। देश के राजनैतिक एकीकरण करके, शांति, समृद्धि और संस्कृति, साहित्य और कला आदि में वृद्धि तथा प्रगति का वातावरण तैयार करने का श्रेय प्रतिहारों को ही जाता हैं। गुर्जर प्रतिहारकालीन मंदिरो की विशेषता और मूर्तियों की कारीगरी से उस समय की प्रतिहार शैली की संपन्नता का बोध होता है। .

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ग्रन्थ लिपि

ग्रंथ लिपि (तमिल: கிரந்த ௭ழுத்து, मलयालम: ഗ്രന്ഥലിപി, संस्कृत: ग्रन्थ अर्थात् "पुस्तक") दक्षिण भारत में पहले प्रचलित एक प्राचीन लिपि है। आमतौर पर यह माना जाता है कि ये लिपि एक और प्राचीन भारतीय लिपि ब्राह्मी से उपजी है। मलयालम, तुळु व सिंहल लिपि पर इसका प्रभाव रहा है। इस लिपि का एक और संस्करण "पल्लव ग्रंथ", पल्लव लोगों द्वारा प्रयोग किया जाता था, इसे "पल्लव लिपि" भी कहा जाता था। कई दक्षिण भारतीय लिपियाँ, जेसे कि बर्मा की मोन लिपि, इंडोनेशिया की जावाई लिपि और ख्मेर लिपि इसी संस्करण से उपजीं। .

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गीतगोविन्द

गीतगोविन्द की पाण्डुलिपि (१५५० ई) गीतगोविन्द (ଗୀତ ଗୋବିନ୍ଦ) जयदेव की काव्य रचना है। गीतगोविन्द में श्रीकृष्ण की गोपिकाओं के साथ रासलीला, राधाविषाद वर्णन, कृष्ण के लिए व्याकुलता, उपालम्भ वचन, कृष्ण की राधा के लिए उत्कंठा, राधा की सखी द्वारा राधा के विरह संताप का वर्णन है। जयदेव का जन्म ओडिशा में भुवनेश्वर के पास केन्दुबिल्व नामक ग्राम में हुआ था। वे बंगाल के सेनवंश के अन्तिम नरेश लक्ष्मणसेन के आश्रित महाकवि थे। लक्ष्मणसेन के एक शिलालेख पर १११६ ई० की तिथि है अतः जयदेव ने इसी समय में गीतगोविन्द की रचना की होगी। ‘श्री गीतगोविन्द’ साहित्य जगत में एक अनुपम कृति है। इसकी मनोरम रचना शैली, भावप्रवणता, सुमधुर राग-रागिणी, धार्मिक तात्पर्यता तथा सुमधुर कोमल-कान्त-पदावली साहित्यिक रस पिपासुओं को अपूर्व आनन्द प्रदान करती हैं। अतः डॉ॰ ए॰ बी॰ कीथ ने अपने ‘संस्कृत साहित्य के इतिहास’ में इसे ‘अप्रतिम काव्य’ माना है। सन् 1784 में विलियम जोन्स द्वारा लिखित (1799 में प्रकाशित) ‘ऑन द म्यूजिकल मोड्स ऑफ द हिन्दूज’ (एसियाटिक रिसर्चेज, खंड-3) पुस्तक में गीतगोविन्द को 'पास्टोरल ड्रामा' अर्थात् ‘गोपनाट्य’ के रूप में माना गया है। उसके बाद सन् 1837 में फ्रेंच विद्वान् एडविन आरनोल्ड तार्सन ने इसे ‘लिरिकल ड्रामा’ या ‘गीतिनाट्य’ कहा है। वान श्रोडर ने ‘यात्रा प्रबन्ध’ तथा पिशाल लेवी ने ‘मेलो ड्रामा’, इन्साइक्लोपिडिया ब्रिटानिका (खण्ड-5) में गीतगोविन्द को ‘धर्मनाटक’ कहा गया है। इसी तरह अनेक विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से इसके सम्बन्ध में विचार व्यक्त किया है। जर्मन कवि गेटे महोदय ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् और मेघदूतम् के समान ही गीतगोविन्द की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। गीतगोविन्द काव्य में जयदेव ने जगदीश का ही जगन्नाथ, दशावतारी, हरि, मुरारी, मधुरिपु, केशव, माधव, कृष्ण इत्यादि नामों से उल्लेख किया है। यह 24 प्रबन्ध (12 सर्ग) तथा 72 श्लोकों (सर्वांगसुन्दरी टीका में 77 श्लोक) युक्त परिपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें राधा-कृष्ण के मिलन-विरह तथा पुनर्मिलन को कोमल तथा लालित्यपूर्ण पदों द्वारा बाँधा गया है। किन्तु नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित ‘हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थ सूची, भाग-इ’ में गीतगोविन्द का 13वाँ सर्ग भी उपलब्ध है। परन्तु यह मातृका अर्वाचीन प्रतीत होती है। गीतगोविन्द वैष्णव सम्प्रदाय में अत्यधिक आदृत है। अतः 13वीं शताब्दी के मध्य से ही श्री जगन्नाथ मन्दिर में इसे नित्य सेवा के रूप में अंगीकार किया जाता रहा है। इस गीतिकाव्य के प्रत्येक प्रबन्ध में कवि ने काव्यफल स्वरूप सुखद, यशस्वी, पुण्यरूप, मोक्षद आदि शब्दों का प्रयोग करके इसके धार्मिक तथा दार्शनिक काव्य होने का भी परिचय दिया है। शृंगार रस वर्णन में जयदेव कालिदास की परम्परा में आते हैं। गीतगोविन्द का रास वर्णन श्रीमद्भागवत के वर्णन से साम्य रखता है; तथा श्रीमद्भागवत के स्कन्ध 10, अध्याय 40 में (10-40-17/22) अक्रूर स्तुति में जो दशावतार का वर्णन है, गीतगोविन्द के प्रथम सर्ग के स्तुति वर्णन से साम्य रखता है। आगे चलकर गीतगोविन्द के अनेक ‘अनुकृति’ काव्य रचे गये। अतः जयदेव ने स्वयं १२वें सर्ग में लिखा है - कुम्भकर्ण प्रणीत ‘रसिकप्रिया’ टीका आदि में इसकी पुष्टि की गयी है। .

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ऑपरेशन मेघदूत

वास्तविक जमीनी स्थिति रेखा के साथ दिखाया पीले रंग की बिंदीदार ऑपरेशन मेघदूत, भारत के जम्मू कश्मीर राज्य में सियाचिन ग्लेशियर पर कब्जे के लिए भारतीय सशस्त्र बलों के ऑपरेशन के लिए कोड-नाम था, जो सियाचिन संघर्ष से जुड़ा था। 13 अप्रैल 1984 को शुरू किया गया यह सैन्य अभियान अनोखा था क्योंकि दुनिया की सबसे ऊंचाई पर स्थित युद्धक्षेत्र में पहली बार हमला शुरू किया गया था। सेना की कार्रवाई के परिणामस्वरूप भारतीय सेना ने पूरे सियाचिन ग्लेशियर पर नियंत्रण प्राप्त कर किया था। आज, भारतीय सेना की तैनाती के स्थान को वास्तविक ग्राउंड पॉजिशन लाइन (एजीपीएल) के रूप में जाना जाता है, कभी-कभी गलत तरीके से ऑपरेशन मेघदूत भी कहा जाता है। भारतीय सेना और पाकिस्तानी सेना प्रत्येक के दस पैदल सेना बटालियन, 6,400 मीटर (21,000 फीट) तक ऊंचाई पर सक्रिय रूप से तैनात किए जाते हैं। .

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आटो फॉन बॉटलिंक

आटो फॉन बॉटलिंक का चित्र। आटो फॉन बॉटलिंक (१८१५-१९०४) जर्मनी के भारतविद तथा संस्कृत के प्रकांड पंडित थे जिन्होंने संस्कृत साहित्य का विधिपूर्वक अध्ययन करके, वर्षों के परिश्रम के पश्चात् एक विशाल शब्दकोश सात भागों में प्रकाशित किया। यह आज भी अद्वितीय ग्रंथ है। .

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आषाढ़ का एक दिन

नाटककार मोहन राकेश ने ''आषाढ़ का एक दिन'' १९५८ में प्रकाशित किया आषाढ़ का एक दिन सन १९५८ में प्रकाशित और नाटककार मोहन राकेश द्वारा रचित एक हिंदी नाटक है। इसे कभी-कभी हिंदी नाटक के आधुनिक युग का प्रथम नाटक कहा जाता है। १९५९ में इसे वर्ष का सर्वश्रेष्ठ नाटक होने के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया और कईं प्रसिद्ध निर्देशक इसे मंच पर ला चुकें हैं। १९७१ में निर्देशक मणि कौल ने इस पर आधारित एक फ़िल्म बनाई जिसने आगे जाकर साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीत लिया। आषाढ़ का एक दिन महाकवि कालिदास के निजी जीवन पर केन्द्रित है, जो १०० ई॰पू॰ से ५०० ईसवी के अनुमानित काल में व्यतीत हुआ। .

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कनक चम्पा

कनक चम्पा कनक चंपा (वैज्ञानिक नाम: Pterospermum acerifolium) माध्यम ऊँचाई का एक वृक्ष है जो भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जता है। मुख्यतः यह भारत और म्यांमार (बर्मा) में पाया जाता है। हिंदी में ही इसके कई नाम हैं - कनक चंपा, मुचकुंद तथा पद्म पुष्प। बंगाली में 'रोसु कुंडा' तथा सिक्किम में इसे 'हाथीपैला' कहते हैं। इसकी लकड़ी लाल रंग की होती है और इसके तख्ते बनते हैं। कनक चम्पा के वृक्ष को खुशबू के साथ-साथ खाने की थाली के पेड़ के रूप में जाना जाता है। इसके पत्ते ४० से.मी.

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कर्नाटक का इतिहास

बदामी के चालुक्यों के अन्दर ही सम्पूर्ण कर्नाटक एक शासन सूत्र में बंध पाया था। वे अपने शासनकाल में बनाई गई कलाकृतियों के लिए भी जाने जाते हैं। इसी कुल के पुलकेशिन द्वितीय (609-42) ने हर्षवर्धन को हराया था। पल्लवों के साथ युद्ध में वे धीरे-धीरे क्षीण होते गए। बदामी के चालुक्यों की शक्ति क्षीण होने के बाद राष्ट्रकूटों का शासन आया पर वे अधिक दिन प्रभुत्व मे नहीं रह पाए। कल्याण के चालुक्यों ने सन् 973 में उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया। सोमेश्वर प्रथम ने चोलों के आक्रमण से बचने की सफलतापूर्वक कोशिश की। उसने कल्याण में अपनी राजधानी स्थापित की और चोल राजा राजाधिराज की कोप्पर में सन् 1054 में हत्या कर दी। उसका बेटा विक्रमादित्य षष्टम तो इतना प्रसिद्ध हुआ कि कश्मीर के कवि दिल्हण ने अपनी संस्कृत रचना के लिए उसके नायक चुना और विक्रमदेव चरितम की रचना की। वो एक प्रसिद्ध कानूनविद विज्ञानेश्वर का भी संरक्षक था। उसने चोल राजधानी कांची को 1085 में जीत लिया। चालुक्य साम्राज्य अपने महत्तम विस्तार पर - सातवीं सदी यादवों (या सेवुना) ने देवगिरि (आधुनिक दौलताबाद, जो बाद में मुहम्मद बिन तुगलक की राजधानी बना) से शासन करना आरंभ किया। पर यादवों को दिल्ली सल्तनत की सेनाओं ने 1296 में हरा दिया। यादवों के समय भास्कराचार्य जैसे गणितज्ञों ने अपनी अमर रचनाए कीं। हेमाद्रि की रचनाए भी इसी काल में हुईं। चालुक्यों की एक शाखा इसी बीच शकितशाली हो रही थी - होयसल। उन्होंने बेलुरु, हेलेबिदु और सोमनाथपुरा में मन्दिरों की रचना करवाई। जब तमिल प्रदेश में चोलों और पाण्ड्यों में संघर्ष चल रहा था तब होयसलों ने पाण्ड्यों को पीछे की ओर खदेड़ दिया। बल्लाल तृतीय (मृत्यु 1343) को दिल्ली तथा मदुरै दोनों के शासकों से युद्ध कना पड़ा। उसके सैनिक हरिहर तथा बुक्का ने विजयनगर साम्राज्य की नींव रखी। होयसलों के शासनकाल में कन्नड़ भाषा का विकास हुआ। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना के समय वो दक्षिण में एक हिन्दू शक्ति के रूप में देखा गया जो दिल्ली और उत्तरी भारत पर सत्तारूढ़ मुस्लिम शासकों के विरूद्ध एक लोकप्रिय शासक बना। हरिहर तथा बुक्का ने न केवल दिल्ली सल्तनत का सामना किया बल्कि मदुरै के सुल्तान को भी हराया। कृष्णदेव राय इस काल का सबसे महान शासक हुआ। विजयनगर के पतन (1565) के बाद बहमनी सल्तनत के परवर्ती राज्यों का छिटपुत शासन हुआ। इन राज्यों को मुगलों ने हरा दिया और इसी बीच बीजापुर के सूबेदार शाहजी के पुत्र शिवाजी के नेतृत्व में मराठों की शक्ति का उदय हुआ। मराठों की शक्ति अठारहवीं सदी के अन्त तक क्षीण होने लगी थी। दक्षिण में हैदर अली ने मैसूर के वोड्यार राजाओं की शक्ति हथिया ली। चौथे आंग्ल-मैसूर युद्ध में हैदर अली के पुत्र टीपू सुल्तान को मात देकर अंग्रेजों ने मैसूर का शासन अपने हाथों में ले लिया। सन् 1818 में पेशवाओं को हरा दिया गया और लगभग सम्पूर्ण राज्य पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। सन् 1956 में कर्नाटक राज्य बना। श्रेणी:कर्नाटक का इतिहास.

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कश्मीरी साहित्य

परम्परागत रूप से कश्मीर का साहित्य संस्कृत में था। नीचे काश्मीर के संस्कृत के प्रमुख साहित्यकारों के नाम दिये गये हैं-.

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कालिदास

कालिदास संस्कृत भाषा के महान कवि और नाटककार थे। उन्होंने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएं की और उनकी रचनाओं में भारतीय जीवन और दर्शन के विविध रूप और मूल तत्व निरूपित हैं। कालिदास अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण राष्ट्र की समग्र राष्ट्रीय चेतना को स्वर देने वाले कवि माने जाते हैं और कुछ विद्वान उन्हें राष्ट्रीय कवि का स्थान तक देते हैं। अभिज्ञानशाकुंतलम् कालिदास की सबसे प्रसिद्ध रचना है। यह नाटक कुछ उन भारतीय साहित्यिक कृतियों में से है जिनका सबसे पहले यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद हुआ था। यह पूरे विश्व साहित्य में अग्रगण्य रचना मानी जाती है। मेघदूतम् कालिदास की सर्वश्रेष्ठ रचना है जिसमें कवि की कल्पनाशक्ति और अभिव्यंजनावादभावाभिव्यन्जना शक्ति अपने सर्वोत्कृष्ट स्तर पर है और प्रकृति के मानवीकरण का अद्भुत रखंडकाव्ये से खंडकाव्य में दिखता है। कालिदास वैदर्भी रीति के कवि हैं और तदनुरूप वे अपनी अलंकार युक्त किन्तु सरल और मधुर भाषा के लिये विशेष रूप से जाने जाते हैं। उनके प्रकृति वर्णन अद्वितीय हैं और विशेष रूप से अपनी उपमाओं के लिये जाने जाते हैं। साहित्य में औदार्य गुण के प्रति कालिदास का विशेष प्रेम है और उन्होंने अपने शृंगार रस प्रधान साहित्य में भी आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का समुचित ध्यान रखा है। कालिदास के परवर्ती कवि बाणभट्ट ने उनकी सूक्तियों की विशेष रूप से प्रशंसा की है। thumb .

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कालिदास समारोह

कालिदास समारोह एक सांस्कृतिक-साहित्यिक सम्मेलन है जो भारत के मध्य प्रदेश राज्य के उज्जैन नगर में प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवप्रबोधिनी एकादशी) को आयोजित होता है। .

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कालिदास का काव्य सौन्दर्य

कालिदास अपनी विषय-वस्तु देश की सांस्कृतिक विरासत से लेते हैं और उसे वे अपने उद्देश्य की प्राप्ति के अनुरूप ढाल देते हैं। उदाहरणार्थ, अभिज्ञान शाकुन्तल की कथा में शकुन्तला चतुर, सांसारिक युवा नारी है और दुष्यन्त स्वार्थी प्रेमी है। इसमें कवि तपोवन की कन्या में प्रेमभावना के प्रथम प्रस्फुटन से लेकर वियोग, कुण्ठा आदि की अवस्थाओं में से होकर उसे उसकी समग्रता तक दिखाना चाहता है। उन्हीं के शब्दों में नाटक में जीवन की विविधता होनी चाहिए और उसमें विभिन्न रुचियों के व्यक्तियों के लिए सौंदर्य और माधुर्य होना चाहिए। त्रैगुण्योद्भवम् अत्र लोक-चरितम् नानृतम् दृश्यते। नाट्यम् भिन्न-रुचेर जनस्य बहुधापि एकम् समाराधनम्।। कालिदास के जीवन के बारे में हमें विशेष जानकारी नहीं है। उनके नाम के बारे में अनेक किवदन्तियां प्रचलित हैं जिनका कोई ऐतिहासिक मूल्य नहीं है। उनकी कृतियों से यह विदित होता है कि वे ऐसे युग में रहे जिसमें वैभव और सुख-सुविधाएं थीं। संगीत तथा नृत्य और चित्र-कला से उन्हें विशेष प्रेम था। तत्कालीन ज्ञान-विज्ञान, विधि और दर्शन-तंत्र तथा संस्कारों का उन्हें विशेष ज्ञान था। उन्होंने भारत की व्यापक यात्राएं कीं और वे हिमालय से कन्याकुमारी तक देश की भौगोलिक स्थिति से पूर्णतः परिचित प्रतीत होते हैं। हिमालय के अनेक चित्रांकन जैसे विवरण और केसर की क्यारियों के चित्रण (जो कश्मीर में पैदा होती है) ऐसे हैं जैसे उनसे उनका बहुत निकट का परिचय है। जो बात यह महान कलाकार अपनी लेखिनी के स्पर्श मात्र से कह जाता है, अन्य अपने विशद वर्णन के उपरांत भी नहीं कह पाते। कम शब्दों में अधिक भाव प्रकट कर देने और कथन की स्वाभाविकता के लिए कालिदास प्रसिद्ध हैं। उनकी उक्तियों में ध्वनि और अर्थ का तादात्मय मिलता है। उनके शब्द-चित्र सौन्दर्यमय और सर्वांगीण सम्पूर्ण हैं, जैसे – एक पूर्ण गतिमान राजसी रथ (विक्रमोर्वशीय, 1.4), दौड़ते हुए मृग-शावक (अभिज्ञान-शाकुन्तल, 1.7), उर्वशी का फूट-फूटकर आंसू बहाना (विक्रमोर्वशीय, छन्द 15), चलायमान कल्पवृक्ष की भांति अन्तरिक्ष में नारद का प्रकट होना (विक्रमोर्वशीय, छन्द 19)। उपमा और रूपकों के प्रयोग में वे सर्वोपरि हैं।;सरसिजमनुविद्धं शैवालेनापि रम्यं;मलिनमपि हिमांशोर्लक्ष्म लक्ष्मीं तनोति।;इयमिधकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी;किमिह मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्।। ‘कमल यद्यपि शिवाल में लिपटा है, फिर भी सुन्दर है। चन्द्रमा का कलंक, यद्यपि काला है, किन्तु उसकी सुन्दरता बढ़ाता है। ये जो सुकुमार कन्या है, इसने यद्यपि वल्कल-वस्त्र धारण किए हुए हैं तथापि वह और सुन्दर दिखाई दे रही है। क्योंकि सुन्दर रूपों को क्या सुशोभित नहीं कर सकता ?’ कालिदास की रचनाओं में सीधी उपदेशात्मक शैली नहीं है अपितु प्रीतमा पत्नी के विनम्र निवेदन सा मनुहार है। मम्मट कहते हैं: ‘कान्तासम्मिततयोपदेशायुजे।’ उच्च आदर्शों के कलात्मक प्रस्तुतीकरण से कलाकार हमें उन्हें अपनाने को विवश करता है। हमारे समक्ष जो पात्र आते हैं हम उन्हीं के अनुरूप जीवन में आचरण करने लगते हैं और इससे हमें व्यापक रूप में मानवता को समझने में सहायता मिलती है। .

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कालिदास अकादमी, उज्जैन

कालिदास अकादमी संस्कृति विभाग मध्यप्रदेश शासन के सहयोग से उज्जैन में सन् 1978 में स्थापित हुई।महाकवि कालिदास ने नाम पर बनी यह अकादमी शास्त्रीय साहित्य, शास्त्रीय रंगमंच एवं विभिन्न कला-परम्पराओं के गहन अध्ययन, शोध, अनुशीलन, प्रकाशन एवं प्रयोग के सक्रिय केन्द्र के रूप में कार्यरत है।संस्कृत अकादमी का भी इसमें विलय हो चुका है। .

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कालिंजर दुर्ग

कालिंजर, उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र के बांदा जिले में कलिंजर नगरी में स्थित एक पौराणिक सन्दर्भ वाला, ऐतिहासिक दुर्ग है जो इतिहास में सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा है। यह विश्व धरोहर स्थल प्राचीन मन्दिर नगरी-खजुराहो के निकट ही स्थित है। कलिंजर नगरी का मुख्य महत्त्व विन्ध्य पर्वतमाला के पूर्वी छोर पर इसी नाम के पर्वत पर स्थित इसी नाम के दुर्ग के कारण भी है। यहाँ का दुर्ग भारत के सबसे विशाल और अपराजेय किलों में एक माना जाता है। इस पर्वत को हिन्दू धर्म के लोग अत्यंत पवित्र मानते हैं, व भगवान शिव के भक्त यहाँ के मन्दिर में बड़ी संख्या में आते हैं। प्राचीन काल में यह जेजाकभुक्ति (जयशक्ति चन्देल) साम्राज्य के अधीन था। इसके बाद यह दुर्ग यहाँ के कई राजवंशों जैसे चन्देल राजपूतों के अधीन १०वीं शताब्दी तक, तदोपरांत रीवा के सोलंकियों के अधीन रहा। इन राजाओं के शासनकाल में कालिंजर पर महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक, शेर शाह सूरी और हुमांयू जैसे प्रसिद्ध आक्रांताओं ने आक्रमण किए लेकिन इस पर विजय पाने में असफल रहे। अनेक प्रयासों के बाद भी आरम्भिक मुगल बादशाह भी कालिंजर के किले को जीत नहीं पाए। अन्तत: मुगल बादशाह अकबर ने इसे जीता व मुगलों से होते हुए यह राजा छत्रसाल के हाथों अन्ततः अंग्रेज़ों के अधीन आ गया। इस दुर्ग में कई प्राचीन मन्दिर हैं, जिनमें से कई तो गुप्त वंश के तृतीय -५वीं शताब्दी तक के ज्ञात हुए हैं। यहाँ शिल्पकला के बहुत से अद्भुत उदाहरण हैं। .

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कालीदास क्रेटर (बुध ग्रह)

मेसेंजर यान द्वारा खींचा गया कालीदास क्रेटर का चित्र कालीदास (अंग्रेज़ी: Kalidasa) बुध ग्रह (मरक्यूरी) पर स्थित एक प्रहार क्रेटर है। इसका व्यास १०७ किमी है। क्रेटर का नाम प्राचीन भारतीय महाकवि कालीदास पर रखा गया था। .

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किरातार्जुनीयम्

अर्जुन शिव को पहचान जाते हैं और नतमस्तक हो जाते हैं। (राजा रवि वर्मा द्वारा१९वीं शती में चित्रित) किरातार्जुनीयम् महाकवि भारवि द्वारा सातवीं शती ई. में रचित महाकाव्य है जिसे संस्कृत साहित्य में महाकाव्यों की 'वृहत्त्रयी' में स्थान प्राप्त है। महाभारत में वर्णित किरातवेशी शिव के साथ अर्जुन के युद्ध की लघु कथा को आधार बनाकर कवि ने राजनीति, धर्मनीति, कूटनीति, समाजनीति, युद्धनीति, जनजीवन आदि का मनोरम वर्णन किया है। यह काव्य विभिन्न रसों से ओतप्रोत है किन्तु यह मुख्यतः वीर रस प्रधान रचना है। संस्कृत के छ: प्रसिद्ध महाकाव्य हैं – बृहत्त्रयी और लघुत्रयी। किरातार्जनुयीयम्‌ (भारवि), शिशुपालवधम्‌ (माघ) और नैषधीयचरितम्‌ (श्रीहर्ष)– बृहत्त्रयी कहलाते हैं। कुमारसम्भवम्‌, रघुवंशम् और मेघदूतम् (तीनों कालिदास द्वारा रचित) - लघुत्रयी कहलाते हैं। किरातार्जुनीयम्‌ भारवि की एकमात्र उपलब्ध कृति है, जिसने एक सांगोपांग महाकाव्य का मार्ग प्रशस्त किया। माघ-जैसे कवियों ने उसी का अनुगमन करते हुए संस्कृत साहित्य भण्डार को इस विधा से समृद्ध किया और इसे नई ऊँचाई प्रदान की। कालिदास की लघुत्रयी और अश्वघोष के बुद्धचरितम्‌ में महाकाव्य की जिस धारा का दर्शन होता है, अपने विशिष्ट गुणों के होते हुए भी उसमें वह विषदता और समग्रता नहीं है, जिसका सूत्रपात भारवि ने किया। संस्कृत में किरातार्जुनीयम्‌ की कम से कम 37 टीकाएँ हुई हैं, जिनमें मल्लिनाथ की टीका घंटापथ सर्वश्रेष्ठ है। सन 1912 में कार्ल कैप्पलर ने हारवर्ड ओरियेंटल सीरीज के अंतर्गत किरातार्जुनीयम् का जर्मन अनुवाद किया। अंग्रेजी में भी इसके भिन्न-भिन्न भागों के छ: से अधिक अनुवाद हो चुके हैं। .

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कंबोज

200px कंबोज प्राचीन भारत के १६ महाजनपदों में से एक था। इसका उल्लेख पाणिनी के अष्टाध्यायी में १५ शक्तिशाली जनपदों में से एक के रूप में भी मिलता है। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय, महावस्तु मे १६ महाजनपदों में भी कम्बोज का कई बार उल्लेख हुआ है - ये गांधारों के समीपवर्ती थे। इनमें कभी निकट संबंध भी रहा होगा, क्योंकि अनेक स्थानों पर गांधार और कांबोज का नाम साथ साथ आता है। इसका क्षेत्र आधुनुक उत्तर पश्चिमी पाकिस्तान और अफगानिस्तान में मिलता है। राजपुर, द्वारका तथा Kapishi इनके प्रमुख नगर थे। इसका उल्लेख इरानी प्राचीन लेखों में भी मिलता है जिसमें इसे राजा कम्बीजेस के प्रदेश से जोड़ा जाता है।.

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कुन्दमाला

कुन्दमाला राम के उत्तर जीवन पर आधारित है जहां वे लोक अपवाद के कारण राम सीता का त्याग कर देते हैं। दिंनाग संस्कृत के एक प्रसिद्ध कवि थे। वे रामकथा पर आश्रित कुन्दमाला नामक नाटक के रचयिता माने जाते हैं। कुन्दमाला में प्राप्त आन्तरिक प्रमाणों से यह प्रतीत होता है कि कुन्दमाला के रचयिता कवि (दिंनाग) दक्षिण भारत अथवा श्रीलंका के निवासी थे। .

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कुमाऊँ मण्डल

यह लेख कुमाऊँ मण्डल पर है। अन्य कुमाऊँ लेखों के लिए देखें कुमांऊॅं उत्तराखण्ड के मण्डल कुमाऊँ मण्डल भारत के उत्तराखण्ड राज्य के दो प्रमुख मण्डलों में से एक हैं। अन्य मण्डल है गढ़वाल। कुमाऊँ मण्डल में निम्न जिले आते हैं:-.

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कुमारसम्भव

कुमारसंभवम् महाकवि कालिदास विरचित कार्तिकेय के जन्म से संबंधित महाकाव्य है जिसकी गणना संस्कृत के 'पंच महाकाव्यों' में की जाती है। यह महाकाव्य 17 सर्गों में समाप्त हुआ है, किंतु लोक धारणा है कि केवल प्रथम सर्ग ही कालिदास रचित है। बाद के अन्य नौ सर्ग अन्य कवि की रचना है। कुछ लोगों की धारणा है कि काव्य आठ सर्गों में ही शिवपार्वती समागम के साथ कुमार के जन्म की पूर्वसूचना के साथ ही समाप्त हो जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि आठवें सर्ग में शिवपार्वती के संभोग का वर्णन करने के कारण कालिदास को कुष्ठ हो गया और वे लिख न सके। एक मत यह भी है कि उनका संभोगवर्णन जनमानस को रुचि नहीं इसलिए उन्होंने आगे नहीं लिखा। .

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कुमारसंभवम्

कुमारसंभव महाकवि कालिदास विरचित कार्तिकेय के जन्म से संबंधित महाकाव्य जिसकी गणना संस्कृत के पंच महाकाव्यों में की जाती है। इस महाकाव्य में अनेक स्थलों पर स्मरणीय और मनोरम वर्णन हुआ है। हिमालयवर्णन, पार्वती की तपस्या, ब्रह्मचारी की शिवनिंदा, वसंत आगमन, शिवपार्वती विवाह और रतिक्रिया वर्णन अदभुत अनुभूति उत्पन्न करते हैं। कालिदास का बाला पार्वती, तपस्विनी पार्वती, विनयवती पार्वती और प्रगल्भ पार्वती आदि रूपों नारी का चित्रण अद्भुत है। यह महाकाव्य 17 सर्ग्रों में समाप्त हुआ है, किंतु लोक धारणा है कि केवल प्रथम आठ सर्ग ही कालिदास रचित है। बाद के अन्य नौ सर्ग अन्य कवि की रचना है ऐसा माना जाता है। कुछ लोगों की धारणा है कि काव्य आठ सर्गों में ही शिवपार्वती समागम के साथ कुमार के जन्म की पूर्वसूचना के साथ ही समाप्त हो जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि आठवें सर्ग मे शिवपार्वती के संभोग का वर्णन करने के कारण कालिदास को कुष्ठ हो गया और वे लिख न सके। एक मत यह भी है कि उनका संभोगवर्णन जनमानस को रुची नहीं इसलिए उन्होंने आगे नहीं लिखा। .

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कुलपति

प्राचीन भारत में गुरुकुल आश्रमों के प्रधान 'कुलपति' कहलाते थे। रामायण काल में वशिष्ठ का बृहद् आश्रम था जहाँ राजा दिलीप तपश्चर्या करने गये थे, जहाँ विश्वामित्र को ब्रह्मत्व प्राप्त हुआ था। इस प्रकार का एक और प्रसिद्ध आश्रम प्रयाग में भारद्वाज मुनि का था। कालिदास ने वसिष्ठ तथा कण्व ऋषि को (रघुवंश, प्रथम, 95 तथा अभि. शा., प्रथम अंक) 'कुलपति' की संज्ञा दी है। गुप्तकाल में संस्थापित तथा हर्षवर्धन के समय में अपनी चरमोन्नति को प्राप्त होनेवाले नालंदा महाविहार नामक विश्वविद्यालय के कुछ प्रसिद्ध तथा विद्वान कुलपतियों के नाम ह्वेन्सांग के यात्राविवरण से ज्ञात होता हैं। बौद्ध भिक्षु धर्मपाल तथा शीलभद्र उनमें प्रमुख थे। प्राचीन भारतीय काल में अध्ययन अध्यापन के प्रधान केंद्र गुरुकुल हुआ करते थे जहाँ दूर दूर से ब्रह्मचारी विद्यार्थी, अथवा सत्यान्वेषी परिव्राजक अपनी अपनी शिक्षाओं को पूर्ण करने जाते थे। वे गुरुकुल छोटे अथवा बड़े सभी प्रकार के होते थे। परंतु उन सभी गुरुकुलों को न तो आधुनिक शब्दावली में विश्वविद्यालय ही कहा जा सकता है और न उन सबके प्रधान गुरुओं को कुलपति ही कहा जाता था। स्मृतिवचनों के अनुसार स्पष्ट है, जो ब्राह्मण ऋषि दस हजार मुनि विद्यार्थियों को अन्नादि द्वारा पोषण करता हुआ उन्हें विद्या पढ़ाता था, उसे ही 'कुलपति' कहते थे। ऊपर उद्धृत 'स्मृतः' शब्द के प्रयोग से यह साफ दिखाई देता है कि कुलपति के इस विशिष्टार्थग्रहण की परंपरा बड़ी पुरानी थी। कुलपति का साधारण अर्थ किसी कुल का स्वामी होता था। वह कुल या तो एक छोटा और अविभक्त परिवार हो सकता था अथवा एक बड़ा और कई छोटे छोटे परिवारों का समान उद्गम वंशकुल भी। अंतेवासी विद्यार्थी कुलपति के महान विद्यापरिवार का सदस्य होता था और उसके मानसिक और बौद्धिक विकास का उत्तरदायित्व कुलपति पर होता था; वह छात्रों के शारीरिक स्वास्थ्य और सुख की भी चिंता करता था। आजकल 'कुलपति' शब्द का प्रयोग विश्वविद्यालय के 'वाइसचांसलर' के लिए किया जाता है। .

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क्लासिक

क्लासिक मूलत: प्राचीन यूनान और रोम के लेखकों और उनकी कृतियों, किंतु अब, किसी भी देश और युग के कालजित्‌ कीर्तिलब्ध, सर्वमान्य या प्रतिष्ठित लेखकों और उनकी कृतियों के लिये प्रयुक्त शब्द। वर्तमान अर्थ में इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ईसा की दूसरी सदी में रोमन लेखक औलस गेलियस ने किया। उसके अनुसार लेखक दो कोटि के होते हैं। 1.

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केशवप्रसाद मिश्र

केशवप्रसाद मिश्र (चैत्र कृष्ण सप्तमी, विक्रम संवत् १९४२ - चैत्र ७, संवत् २००८) शिक्षाविद तथा हिन्दी साहित्यकार थे। .

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अनसूया

पोरबन्दर के मन्दिर में त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, शंकर) को भोजन कराती सती अनसूया की मूर्ति अनसूया प्रजापति कर्दम और देवहूति की 9 कन्याया में से एक तथा अत्रि मुनि की पत्नी थीं। उनकी पति-भक्ति अर्थात सतीत्व का तेज इतना अधिक था के उसके कारण आकाशमार्ग से जाते देवों को उसके प्रताप का अनुभव होता था। इसी कारण उन्हें 'सती अनसूया' भी कहा जाता है। अनसूया ने राम, सीता और लक्ष्मण का अपने आश्रम में स्वागत किया था। उन्होंने सीता को उपदेश दिया था और उन्हें अखंड सौंदर्य की एक ओषधि भी दी थी। सतियों में उनकी गणना सबसे पहले होती है। कालिदास के 'शाकुंतलम्' में अनसूया नाम की शकुंतला की एक सखी भी कही गई है। .

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अनुलोम विवाह

अनुलोम विवाह के अर्थ में 'अनुलोम' एवं 'प्रतिलोम' शब्दों का व्यवहार वैदिक साहित्य में नहीं पाया जाता। पाणिनि (चतुर्थ,4.28) ने इन शब्दों से व्युत्पन्न शब्द अष्टाध्यायी में गिनाए हैं और इसके बाद स्मृतिग्रंथों में इन शब्दों का बहुतायत से प्रयोग होता दिखाई देता है (गौतम धर्मसूत्र, चतुर्थ 14-15; मनु., दशम, 13; याज्ञवल्क्य स्मृति, प्रथम, 95; वसिष्ठ., 18.7), जिससे अनुमान होता है कि उत्तर वैदिक काल के समाज में अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाहों का प्रचार बढ़ा। अनुलोम विवाह का सामान्य अर्थ है अपने वर्ण से निम्नत्तर वर्ण में विवाह करना। इसके विपरीत किसी निम्नस्तर वर्ण के पुरुष और उच्चत्तर वर्ण की कन्या के बीच संबंध का स्थापित होना प्रतिलोम विवाह कहलाता है। प्राय: धर्मशास्त्रों की परीक्षा इसी सिद्धांत का प्रतिपादन करती है कि अनुलोम विवाह ही शास्त्रकारों को मान्य थे, यद्यपि दोनों प्रकार के दृष्टांत स्मृतिग्रंथों में मिलते हैं। अनुलोम विवाह से उत्पन्न संतान के विषय में ऐसा सामान्य मत जान पड़ता है कि उसे माता के वर्ण के अनुरूप मानते हैं। इसका एक विपरीत उदाहरण बौद्ध जातकों में फिक ने 'भद्दसाल जातक' में ढूँढ़ा है; जिसके अनुसार माता का कुल नहीं देखा जाता, पिता का ही कुल देखा जाता है। अनुलोम से उत्पन्न संतानों और प्रजातियों के संबंध में विभिन्न शास्त्रों में विभिन्न मत पाए जाते हैं, जिन सबका यहाँ उल्लेख करना कठिन है। मनु के अनुसार अंबष्ठ, निषाद और उग्र अनुलोम विवाहों से उत्पन्न जातियाँ थीं। ऐसे अनुलोम विवाहों के उदाहरण भारत में मध्यकाल तक काफी पाए जाते हैं। कालिदास के 'मालविकाग्निमित्रम्‌' से पता चलता है कि अग्निमित्र ने, जो ब्राह्मण था, क्षत्राणी मालविका से विवाह किया था। चंद्रगुप्त द्वितीय की राजकन्या प्रभावती गुप्ता ने वाकाटक 'ब्राह्मण' रुद्रसेन द्वितीय से विवाह किया और उसकी पट्टमहिषी बनी। कदंबकुल के सम्राट् काकुत्स्थ वर्मा (एपि. इंडिका, भाग 8, पृ. 24) के तालगुंड अभिलेख से विदित होता है कि कदंबकुल के संस्थापक मयूर शर्मा ब्राह्मण थे, उन्होंने कांची पल्लवों के विरुद्ध शस्त्र ग्रहण किया। अभिलेख से पता चलता है कि काकुत्स्थ वर्मा (मयूर शर्मा चतुर्थ वंशज) ने अपनी कन्याएँ गुप्तों तथा अन्य नरेशों को ब्याही थीं। आगे चलकार ऐसे विवाहों पर प्रतिबंध लगने आरंभ हो गए। .

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अभिषेक

अभिषेक - राजतिलक का स्नान जो राज्यारोहण को वैध करता था। पुराने काल मैं जब किसी को राजा बनाया जाता था तो उस के सिर पर अभिमन्त्रित जल और औषधियों की वर्षा की जाती थी। इस क्रिया को ही अभिषेक कहते है। अभि उपसर्ग और सिंच् धातु कि सन्धि से अभिषेक शब्द बना है। कालांतर में राज्याभिषेक राजतिलक का पर्याय बन गया। .

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अभिज्ञानशाकुन्तलम्

शकुंतला राजा रवि वर्मा की कृति. दुष्यन्त को पत्र लिखती शकुंतलाराजा रवि वर्मा की कृति. हताश शकुंतलाराजा रवि वर्मा की कृति. अभिज्ञान शाकुन्तलम् महाकवि कालिदास का विश्वविख्यात नाटक है ‌जिसका अनुवाद प्राय: सभी विदेशी भाषाओं में हो चुका है। इसमें राजा दुष्यन्त तथा शकुन्तला के प्रणय, विवाह, विरह, प्रत्याख्यान तथा पुनर्मिलन की एक सुन्दर कहानी है। पौराणिक कथा में दुष्यन्त को आकाशवाणी द्वारा बोध होता है पर इस नाटक में कवि ने मुद्रिका द्वारा इसका बोध कराया है। इसकी नाटकीयता, इसके सुन्दर कथोपकथन, इसकी काव्य-सौंदर्य से भरी उपमाएँ और स्थान-स्थान पर प्रयुक्त हुई समयोचित सूक्तियाँ; और इन सबसे बढ़कर विविध प्रसंगों की ध्वन्यात्मकता इतनी अद्भुत है कि इन दृष्टियों से देखने पर संस्कृत के भी अन्य नाटक अभिज्ञान शाकुन्तल से टक्कर नहीं ले सकते; फिर अन्य भाषाओं का तो कहना ही क्या ! तो यहीं सबसे ज्यादा अच्छा है। .

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अमात्य

भारतीय राजनीति के अनुसार अमात्य राज्य के सात अंगों में दूसरा अंग है, जिसका अर्थ है - मंत्री। राजा के परामर्शदाताओं के लिए 'अमात्य', 'सचिव' तथा 'मंत्री' - इन तीनों शब्दों का प्रयोग प्राय: किया जाता है। इनमें अमात्य नि:संदेह प्राचीनतम है। ऋग्वेद के एक मंत्र (४.४.१) में "अमवान्"' शब्द का यास्क द्वारा निर्दिष्ट अर्थ "अमात्ययुक्त" ही है (निरूक्त ६.१२)। व्युत्पति के अनुसार "अमात्य" का अर्थ है - 'सर्वदा साथ रहनेवाला व्यक्ति' (अमा.

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अलका (नगरी)

अलका, मेरू पर्वत पर यक्ष गंधर्वों की नगरी और यक्षराज कुबेर की राजधानी। कालिदास ने अलका को अपने मेघदूत में यक्षों की नगरी कहा है और उसे कैलास पर्वत की ढाल पर बसी बताया है। उसी नगरी का अभिशप्त यक्ष मेघदूत का नायक है जिसकी प्रिथा का उस अलका में प्रोषितपतिका विरहिणी के रूप में कवि ने बड़ा विशद, भावुक, आर्द्र और मार्मिक वर्णन किया है। प्रकट है अलका भौगोलिक जगत्‌ की नगरी न होकर काव्यजगत्‌ की नगरी है, सर्वथा पौराणिक। अलका श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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अलकापुरी

अलकापुरी, जिसे कभी अल्कापुरी भी कहा जाता है, हिन्दू धर्म के अनुसार एक पौराणीक नगर है यह यक्षों के स्वामी, धन के देवता कुबेर की नगरी है.

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अश्वघोष

अश्वघोष, बौद्ध महाकवि तथा दार्शनिक थे। बुद्धचरितम्''' इनकी प्रसिद्ध रचना है। कुषाणनरेश कनिष्क के समकालीन महाकवि अश्वघोष का समय ईसवी प्रथम शताब्दी का अंत और द्वितीय का आरंभ है। .

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अग्निमित्र

अग्निमित्र (149-141 ईपू) शुंग वंश के राजा थे। कालिदास ने इसको अपने नाटक का पात्र बनाया है, जिससे प्रतीत होता है कि कालिदास का काल इसके ही काल के समीप रहा होगा। .

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अंतःकरण

अंत:करण (Conscience / कांशेंस) का तात्पर्य उस मानसिक शक्ति से है जिससे व्यक्ति उचित और अनुचित का निर्णय करता है। सामान्यत लोगों की यह धारणा होती है कि व्यक्ति का अंतकरण किसी कार्य के औचित्य और अनौचित्य का निर्णय करने में उसी प्रकार सहायता कर सकता है जैसे उसके कर्ण सुनने में, अथवा नेत्र देखने में सहायता करते हैं। व्यक्ति में अंतःकरण का निर्माण उसके नैतिक नियमों के आधार पर होता है। अंतकरण व्यक्ति की आत्मा का वह क्रियात्मक सिद्धांत माना जा सकता है जिसकी सहायता से व्यक्ति द्वंद्वों की उपस्थिति में किसी निर्णय पर पहुँचता है। अभिज्ञान शाकुंतलम् (१,१९) में कालिदास कहते हैं: .

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अंजन

अंजन नेत्रों की रोगों से रक्षा अथवा उन्हें सुंदर श्यामल करने के लिए चूर्ण द्रव्य, नारियों के सोलह सिंगारों में से एक। प्रोषितपतिका विरहणियों के लिए इसका उपयोग वर्जित है। मेघदूत में कालिदास ने विरहिणी यक्षी और अन्य प्रोषितपतिकाओं को अंजन से शून्य नेत्रवाली कहा है। अंजन को शलाका या सलाई से लगाते हैं। इसका उपयोग आज भी प्राचीन काल की ही भाँति भारत की नारियों में प्रचलित है। पंजाब, पाकिस्तान के कबीलाई इलाकों, अफ़गानिस्तान तथा बिलोचिस्तान में मर्द भी अंजन का प्रयोग करते हैं। प्राचीन वेदिका स्तंभों (रेलिंगों) पर बनी नारी मूर्तियाँ अनेक बार शलाका से नेत्र में अंजन लगाते हुए उभारी गई हैं। श्रेणी:संस्कृति श्रेणी:सौन्दर्य श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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अक्षय वट

पुराणों में वर्णन आता है कि कल्पांत या प्रलय में जब समस्त पृथ्वी जल में डूब जाती है उस समय भी वट का एक वृक्ष बच जाता है। अक्षय वट कहलाने वाले इस वृक्ष के एक पत्ते पर ईश्वर बालरूप में विद्यमान रहकर सृष्टि के अनादि रहस्य का अवलोकन करते हैं। अक्षय वट के संदर्भ कालिदास के रघुवंश तथा चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के यात्रा विवरणों में मिलते हैं। भारतवर्ष में क्रमशः चार पौराणिक पवित्र वटवृक्ष हैं--- गृद्धवट- सोरों 'शूकरक्षेत्र', अक्षयवट- प्रयाग, सिद्धवट- उज्जैन और वंशीवट- वृन्दावन। .

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उच्चैःश्रवा

उच्चैःश्रवा हिन्दू मिथकों में वर्णित समुद्र मन्थन के दौरान निकले चौदह रत्नों में से एक था। पौराणिक आख्यानों के अनुसार यह सफ़ेद रंग का और सात मुख वाला घोडा था जो देवताओं (इन्द्र) को प्राप्त हुआ। गीता में कृष्ण ने श्रेष्ठतम वस्तुओं से अपनी तुलना के क्रम में अपने को अश्वों में उच्चैःश्रवा बताया है। कुमारसंभवम् में कालिदास, इसे इन्द्र से तारकासुर द्वारा छीन लिये जाने का वर्णन करते हैं। .

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उत्तरकालामृतम्

उत्तर कालामृतम् फलित ज्योतिष का एक ग्रन्थ है जिसे किसी कालिदास नामक लेखक ने लिखा है। कुछ लोग इसे संस्कृत के प्रसिद्द कवि कालिदास द्वारा रचित भी मानते हैं किन्तु यह मत प्रमाणित नहीं है। श्रेणी:संस्कृत ग्रंथ श्रेणी:भारतीय ज्योतिष.

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उर्वशी

उर्वशी और पुरुरवा। साहित्य और पुराण में उर्वशी सौंदर्य की प्रतिमूर्ति रही है। स्वर्ग की इस अप्सरा की उत्पत्ति नारायण की जंघा से मानी जाती है। पद्मपुराण के अनुसार इनका जन्म कामदेव के उरु से हुआ था। श्रीमद्भागवत के अनुसार यह स्वर्ग की सर्वसुंदर अप्सरा थी। एक बार इंद्र की राजसभा में नाचते समय वह राजा पुरु के प्रति क्षण भर के लिए आकृष्ट हो गई। इस कारण उनके नृत्य का ताल बिगड़ गया। इस अपराध के कारण राजा इंद्र ने रुष्ट होकर उसे मर्त्यलोक में रहने का अभिशाप दे दिया। मर्त्य लोक में उसने पुरु को अपना पति चुना किंतु शर्त यह रखी कि वह पुरु को नग्न अवस्था में देख ले या पुरुरवा उसकी इच्क्षा के प्रतिकूल समागम करे अथवा उसके दो मेष स्थानांतरित कर दिए जाएं तो वह उनसे संबंध विच्छेद कर स्वर्ग जाने के लिए स्वतंत्र हो जाएगी। ऊर्वशी और पुरुरवा बहुत समय तक पति पत्नी के रूप में सात-साथ रहे। इनके नौ पुत्र आयु, अमावसु, श्रुतायु, दृढ़ायु, विश्वायु, शतायु आदि उत्पन्न हुए। दीर्घ अवधि बीतने पर गंधर्वों को ऊर्वशी की अनुपस्थिति अप्रीय प्रतीत होने लगी। गंधर्वों ने विश्वावसु को उसके मेष चुराने के लिए भेजा। उस समय पुरुरवा नग्नावस्था में थे। आहट पाकर वे उसी अवस्था में विश्वाबसु को पकड़ने दौड़े। अवसर का लाभ उठाकर गंधर्वों ने उसी समय प्रकाश कर दिया। जिससे उर्वशी ने पुरुरवा को नंगा देख लिया। आरोपित प्रतिबंधों के टूट जाने पर ऊर्वशी श्राप से मुक्त हो गई और पुरुरवा को छोड़कर स्वर्ग लोक चली गई। महाकवि कालीदास के संस्कृत महाकाव्य विक्रमोर्वशीय नाटक की कथा का आधार यही प्रसंग है। आधुनिक हिंदी साहित्य में रामधारी सिंह दिनकर ने इसी कथा को अपने काव्यकृति का आधार बनाया और उसका शीर्षक भी रखा ऊर्वशी। महाभारत की एक कथा के अनुसार एक बार जब अर्जुन इंद्र के पास अस्त्र विद्या की शिक्षा लेने गए तो उर्वशी उन्हें देखकर मुग्ध हो गई। अर्जुन ने ऊर्वशी को मातृवत देखा। अतः उसकी इच्छा पूर्ति न करने के कारण। इन्हें शापित होकर एक वर्ष तक पुंसत्व से वंचित रहना पड़ा। .

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उज्जैन

उज्जैन का प्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर उज्जैन (उज्जयिनी) भारत के मध्य प्रदेश राज्य का एक प्रमुख शहर है जो क्षिप्रा नदी के किनारे बसा है। यह एक अत्यन्त प्राचीन शहर है। यह विक्रमादित्य के राज्य की राजधानी थी। इसे कालिदास की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ हर १२ वर्ष पर सिंहस्थ कुंभ मेला लगता है। भगवान शिव के १२ ज्योतिर्लिंगों में एक महाकाल इस नगरी में स्थित है। उज्जैन मध्य प्रदेश के सबसे बड़े शहर इन्दौर से ५५ कि॰मी॰ पर है। उज्जैन के प्राचीन नाम अवन्तिका, उज्जयनी, कनकश्रन्गा आदि है। उज्जैन मंदिरों की नगरी है। यहाँ कई तीर्थ स्थल है। इसकी जनसंख्या लगभग 5.25 लाख है। यह मध्य प्रदेश का पाँचवा सबसे बड़ा शहर है। नगर निगम सीमा का क्षेत्रफल ९३ वर्ग किलोमीटर है। .

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उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर

महाकालेश्वर मंदिर भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मध्यप्रदेश राज्य के उज्जैन नगर में स्थित, महाकालेश्वर भगवान का प्रमुख मंदिर है। पुराणों, महाभारत और कालिदास जैसे महाकवियों की रचनाओं में इस मंदिर का मनोहर वर्णन मिलता है। स्वयंभू, भव्य और दक्षिणमुखी होने के कारण महाकालेश्वर महादेव की अत्यन्त पुण्यदायी महत्ता है। इसके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, ऐसी मान्यता है। महाकवि कालिदास ने मेघदूत में उज्जयिनी की चर्चा करते हुए इस मंदिर की प्रशंसा की है। १२३५ ई. में इल्तुत्मिश के द्वारा इस प्राचीन मंदिर का विध्वंस किए जाने के बाद से यहां जो भी शासक रहे, उन्होंने इस मंदिर के जीर्णोद्धार और सौन्दर्यीकरण की ओर विशेष ध्यान दिया, इसीलिए मंदिर अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त कर सका है। प्रतिवर्ष और सिंहस्थ के पूर्व इस मंदिर को सुसज्जित किया जाता है। .

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ऋतुसंहार

thumbऋतुसंहार कालिदास का एक विख्यात काव्य है। ऋतुसंहार महाकवि कालिदास की प्रथम काव्यरचना मानी जाती है, जिसके छह सर्गो में ग्रीष्म से आरंभ कर वसंत तक की छह ऋतुओं का सुंदर प्रकृतिचित्रण प्रस्तुत किया गया है। ऋतुसंहार का कलाशिल्प महाकवि की अन्य कृतियों की तरह उदात्त न होने के कारण इसके कालिदास की कृति होने के विषय में संदेह किया जाता रहा है। मल्लिनाथ ने इस काव्य की टीका नहीं की है तथा अन्य किसी प्रसिद्ध टीकाकार की भी इसकी टीका नहीं मिलती है। जे.

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